शब्द का अर्थ
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इतर :
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वि० [सं० इत√रा (देना)+क] १. उपस्थित या प्रस्तुत से भिन्न। कोई और। अन्य। दूसरा। जैसे—हिंदीभाषियों को छोड़कर इतरभाषा-भाषी ऐसा नहीं करते। २. बाकी बचा हुआ। अवशिष्ट। शेष। ३. बहुत ही साधारण या हलका और इसलिए तुच्छ अथवा नगण्य। ४. नीच। पतित। उदाहरण—जनु देत इतर नृप कर विभाग।—तुलसी। पुं० [अ० इत्र] अतर या इत्र नामक सुगंधित द्रव्य। |
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इतरदान :
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पुं० =इत्रदान। |
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इतराज :
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पुं० =एतराज। (आपत्ति)। उदाहरण—देत कहा नृप काज पर, लेत कहा इतराज।—तुलसी। |
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इतराना :
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अ० [सं० इतर=तुच्छ या बहुत ही साधारण] १. किसी गुण, विशेषता, सफलता आदि के बल पर अपना आदर या महत्त्व दिखलाने के लिए ठसक या नखरे से भरा हुआ आचरण या व्यवहार करना। कुछ अभिमानपूर्वक या किसी से कुछ तनकर चोचला करना। उदाहरण—(क) बडो बड़ाई नहिं तजै, छोटो बहु इतराय।—रहीम। (ख) जिमि थोरे धन खल इतराई।—तुलसी। (ग) तू तो इतराति उत राति बीती जाति है।—कोई कवि। २. दे० ‘इठलाना’। |
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इतराहट :
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स्त्री० [हिं० इतराना+आहट (प्रत्यय)] इतराने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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इतरेतर :
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अव्य० [इतर-इतर, द्व० स०] एक दूसरे के प्रति। आपस में। परस्पर। वि० आपस का। पारस्परिक। |
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इतरेतर-योग :
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पुं० [ष० त०] १. पारस्परिक संबंध। २. संस्कृत व्याकरण में, द्वंद समास का एक भेद जिसमें समस्त पद के दोनों पक्षों या पदों का अलग-अलग विचार होता है। ‘समाहार द्वंद’ का विपर्याय। |
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इतरेतराभाव :
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पुं० [इतरेतर-अभाव, ष० त०] न्याय में, वह स्थिति जब हर एक (वस्तु या व्यक्ति) के गुणों में दूसरे का अभाव होता है। अन्योन्याभाव। जैसे—गौ और घोड़े में इतरेतरा भाव है, क्योकिं इनमें से हर एक के गुण और धर्म दूसरे में नहीं हैं। |
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इतरेतराश्रय :
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पुं० [इतरेतर-आश्रय, ष० त०] न्याय में, वह स्थिति जब ऐसी दो बातें कही जाती हैं जो आपस में एक दूसरी पर आश्रित होती है और इसी लिए दोनों में से कोई ठीक तरह से सिद्ध नहीं हो सकती। (यह तर्क का एक दोष माना गया है)। |
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इतरौहाँ :
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वि० [हिं० इतराना+औहां (प्रत्यय)] जो प्रायः इतराता रहता हो। इतराने की प्रवृत्ति रखनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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