उपज/upaj

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उपज  : स्त्री० [हिं० उपजना] १. वह जो उपजा या बनकर तैयार हुआ हो। २. पैदावार। (प्रोडक्शन) जैसे—कारखाने या खेत की उपज। ३. मन की कोई नई उद्भावना या सूझ। ४. संगीत में गाई जानेवाली चीज की सुंदरता बढ़ाने के लिए उसमें बँधी हुई तानों के सिवा कुछ नई तानें, स्वर आदि अपनी ओर से मिलाना। ५. सोचने या विचारने की शक्ति।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उपज  : स्त्री० [हिं० उपजना] १. वह जो उपजा या बनकर तैयार हुआ हो। २. पैदावार। (प्रोडक्शन) जैसे—कारखाने या खेत की उपज। ३. मन की कोई नई उद्भावना या सूझ। ४. संगीत में गाई जानेवाली चीज की सुंदरता बढ़ाने के लिए उसमें बँधी हुई तानों के सिवा कुछ नई तानें, स्वर आदि अपनी ओर से मिलाना। ५. सोचने या विचारने की शक्ति।
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उपजगती  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] एक प्रकार का छन्द या वृत्त।
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उपजगती  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] एक प्रकार का छन्द या वृत्त।
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उपजत  : स्त्री०=उपज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उपजत  : स्त्री०=उपज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उपजनन  : पुं० [सं० उप√जन्+ल्युट-अन] १. उत्पादन। २. प्रजनन।
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उपजनन  : पुं० [सं० उप√जन्+ल्युट-अन] १. उत्पादन। २. प्रजनन।
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उपजना  : अ० [सं० उपजन्, प्रा० उपज्जइ] १. उत्पन्न होना। जन्म लेना। उदाहरण—बूड़ा बंस कबीर का कि उपजा पूत कमाल।—कबीर। २. अंकुर निकलना या फूटना। उगना। ३. कोई नई बात सूझना।
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उपजना  : अ० [सं० उपजन्, प्रा० उपज्जइ] १. उत्पन्न होना। जन्म लेना। उदाहरण—बूड़ा बंस कबीर का कि उपजा पूत कमाल।—कबीर। २. अंकुर निकलना या फूटना। उगना। ३. कोई नई बात सूझना।
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उपजाऊ  : वि० [हिं० उपज+आऊ (प्रत्यय] १. (भूमि) जिसमें अधिक मात्रा में उत्पन्न करने की शक्ति हो। उर्वरता। (फटाईल) २. कृषि के लिए उपयुक्त।
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उपजाऊ  : वि० [हिं० उपज+आऊ (प्रत्यय] १. (भूमि) जिसमें अधिक मात्रा में उत्पन्न करने की शक्ति हो। उर्वरता। (फटाईल) २. कृषि के लिए उपयुक्त।
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उपजाऊ-पन  : पुं० [हिं० उपजाऊ+पन (प्रत्यय)] भूमि की वह शक्ति जिससे उसमें फसल आदि उत्पन्न होती है। उर्वरता। (प्रॉडक्टिविटी)
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उपजाऊ-पन  : पुं० [हिं० उपजाऊ+पन (प्रत्यय)] भूमि की वह शक्ति जिससे उसमें फसल आदि उत्पन्न होती है। उर्वरता। (प्रॉडक्टिविटी)
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उपजात  : वि० [सं० उप√जन् (उत्पत्ति)+क्त] जो उत्पन्न हुआ हो। पुं० दे० ‘उपसर्ग’।
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उपजात  : वि० [सं० उप√जन् (उत्पत्ति)+क्त] जो उत्पन्न हुआ हो। पुं० दे० ‘उपसर्ग’।
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उपजाति  : स्त्री० [सं० उप√जन्+क्तिन्] इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा तथा इन्द्रवंशा और वंशस्थ के मेल से बने हुए वृत्तों का वर्ग।
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उपजाति  : स्त्री० [सं० उप√जन्+क्तिन्] इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा तथा इन्द्रवंशा और वंशस्थ के मेल से बने हुए वृत्तों का वर्ग।
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उपजाना  : स० [हिं० उपजना का स० रूप] १. उत्पन्न या पैदा करना। २. उगाना। ३. कोई नई बात ढूँढ़ निकालना। जैसे—बातें उपजाना० ४. किसी के मस्तिष्क में कोई विचार धारा प्रवाहित करना। सुझाना।
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उपजाना  : स० [हिं० उपजना का स० रूप] १. उत्पन्न या पैदा करना। २. उगाना। ३. कोई नई बात ढूँढ़ निकालना। जैसे—बातें उपजाना० ४. किसी के मस्तिष्क में कोई विचार धारा प्रवाहित करना। सुझाना।
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उपजीवक  : वि० [सं० उप√जीव् (जीना)+ण्वुल्-अक] =उपजीवी।
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उपजीवक  : वि० [सं० उप√जीव् (जीना)+ण्वुल्-अक] =उपजीवी।
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उपजीवन  : पुं० [सं० उप√जीव्+ल्युट-अन] १. जीविका। रोजी। २. ऐसा जीवन जो दूसरों के सहारे चलता हो।
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उपजीवन  : पुं० [सं० उप√जीव्+ल्युट-अन] १. जीविका। रोजी। २. ऐसा जीवन जो दूसरों के सहारे चलता हो।
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उपजीवी (विन्)  : वि० [सं० उप√जीव्+णिनि] [स्त्री० उपजीविनी] दूसरे के सहारे जीवन बिताने-वाला। दूसरों पर निर्भर रहनेवाला।
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उपजीवी (विन्)  : वि० [सं० उप√जीव्+णिनि] [स्त्री० उपजीविनी] दूसरे के सहारे जीवन बिताने-वाला। दूसरों पर निर्भर रहनेवाला।
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उपजीव्य  : वि० [सं० उप√जीव्+ण्यत्] जिसके आधार पर उपजीवन चलता हो या चल सकता हो।
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उपजीव्य  : वि० [सं० उप√जीव्+ण्यत्] जिसके आधार पर उपजीवन चलता हो या चल सकता हो।
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उपज्ञा  : स्त्री० [सं० उप√ज्ञा (जानना)+अङ्-टाप्] १. प्राचीन भारत में, वह बुद्धिपरक प्रयत्न जो दिग्गज विद्वान अपने मौलिक चिन्तन से नये-नये शास्त्रों की उद्भावना के लिए करते थे। २. चिंतन द्वारा किसी चीज या बात का पता लगाना। ३. कार्य करने का कोई ऐसा नया ढंग निकालना अथवा कोई नया औजार या यन्त्र बनाना जिसका पता पहले किसी को न रहा हो। नई चीज या साधन निकालना। (इन्वेंशन)
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उपज्ञा  : स्त्री० [सं० उप√ज्ञा (जानना)+अङ्-टाप्] १. प्राचीन भारत में, वह बुद्धिपरक प्रयत्न जो दिग्गज विद्वान अपने मौलिक चिन्तन से नये-नये शास्त्रों की उद्भावना के लिए करते थे। २. चिंतन द्वारा किसी चीज या बात का पता लगाना। ३. कार्य करने का कोई ऐसा नया ढंग निकालना अथवा कोई नया औजार या यन्त्र बनाना जिसका पता पहले किसी को न रहा हो। नई चीज या साधन निकालना। (इन्वेंशन)
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उपज्ञात  : पुं० [सं० उप√ज्ञा+क्त] प्राचीन भारत में किसी विशिष्ट आचार्य की उपज्ञा से आविर्भूत होनेवाला कोई नया ग्रंथ, विषय या साहित्य। भू० कृ० जिसका आविर्भाव उपज्ञा के द्वारा हुआ हो। (इन्वेंटिड)
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उपज्ञात  : पुं० [सं० उप√ज्ञा+क्त] प्राचीन भारत में किसी विशिष्ट आचार्य की उपज्ञा से आविर्भूत होनेवाला कोई नया ग्रंथ, विषय या साहित्य। भू० कृ० जिसका आविर्भाव उपज्ञा के द्वारा हुआ हो। (इन्वेंटिड)
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उपज्ञाता (तृ)  : पुं० [सं० उप√ज्ञा (जानना)+तृच्] वह जिसने उपज्ञा के द्वारा कोई नई बात या चीज ढूँढ़ निकाली हो। (इन्वेंटर)
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उपज्ञाता (तृ)  : पुं० [सं० उप√ज्ञा (जानना)+तृच्] वह जिसने उपज्ञा के द्वारा कोई नई बात या चीज ढूँढ़ निकाली हो। (इन्वेंटर)
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