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ठ  : देवनागरी वर्णमाला का बारहवाँ तथा टवर्ग का दूसरा व्यंजन जो उच्चारण तथा भाषा-विज्ञान की दृष्टि से मूर्द्धन्य, स्पर्शी, महाप्राण तथा अघोष हैं। पुं० [सं० पृषो० सिद्धि] १. शिव। २. महाध्वनि। २. चंद्रमंडल। ४. मंडल। ५. शून्य। ६. वह वस्तु जिसका ग्रहण इंद्रियों से हो सकता हो।
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ठई  : स्त्री० [हिं० ठाँवे] १. अवस्था। दशा। २. स्थिति।
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ठउर  : पुं०=ठौर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठक  : स्त्री० [अनु०] आघात करने या ठोंकने से होनेवाला ठक शब्द। वि० सन्नाटे में आया हुआ। भौंचक्का। स्तब्ध। पुं० चंडूबाजों की सलाई या सूजा जिसमें अफीम का किवाम लगाकर सेंकते हैं।
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ठक-ठक  : स्त्री० [अनु०] १. बार-बार आघात करने से होनेवाला शब्द। २. लाक्षणिक अर्थ में, कहा-सुनी या तू-तू मैं-मैं।
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ठकठकाना  : स० [अनु० ठक-ठक] १. ठक-ठक शब्द उत्पन्न करना। २. अच्छी तरह या खूब पीटना। अ, ठक-ठक शब्द होना।
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ठकठकिया  : वि० [अनु० ठक-ठक] १. ठक-ठक शब्द उत्पन्न करनेवाला। २. जो स्वभावताः दूसरों से लड़ता-झगड़ता रहता हो।
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ठकठेन  : स्त्री० [अनु० ठक+हिं० ठानना] अड़। जिद। हठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठकठौआ  : पुं० [अनु०] १. एक प्रकार का करताल। २. वह जो उक्त करताल बजाकर भीख माँगता हो। ३. एक प्रकार की छोटी नाव।
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ठकना  : अ० [अनु०] सहारा लगाकर बैठना। टिकना। उदाहरण–ठकि गो पीय पलँगिया आलस पाई।–रहीम। स०=टेकना।
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ठकमुर्री  : स्त्री० [हिं० ठग+मूरि] १. वह स्थिति जिसमें आदमी बहुत अधिक चकित या भौंचक्का होकर स्तब्ध रह जाय। जैसे–उसे देखकर हमें तो ठकमुर्री लग गई। क्रि० प्र०–लगना। २. दे० ‘ठगमूरि’।
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ठकार  : पुं० [सं० ठ+कार] ‘ठ’ अक्षर।
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ठकुआ  : पुं०=ठोकवा (पकवान)।
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ठकुरई  : स्त्री०=ठकुराई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठकुरसुहाती  : स्त्री० [हिं० ठाकुर=स्वामी+सुहाना] स्वामी अथवा किसी बड़े व्यक्ति को प्रसन्न करने या रखने के लिए कही जानेवाली खुशामद भरी बात।
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ठकुराइत  : स्त्री०=ठकुरायत।
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ठकुराइन  : स्त्री०=ठकुरानी।
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ठकुराइस  : स्त्री०=ठकुरायस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठकुराई  : स्त्री० [हिं० ठाकुर] १. ठाकुर होने की अवस्था या भाव। २. ठाकुरों का सा आधिपत्य, प्रभुत्व या स्वामित्व। ३. वह प्रदेश या भू-भाग जो किसी ठाकुर के अधिकार में या अधीन हो ४. ठाकुरों की सी प्रतिष्ठा या महत्व। उदाहरण–हरि के जन की अति ठकुराई।–सूर। ५. बड़प्पन। महत्त्व। पुं० ठाकुर। राजपूत क्षत्रिय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठकुराना  : पुं० [हिं० ठाकुर] गाँव या बस्ती का विभाग जिसमें अधिकतर ठाकुर या क्षत्रिय रहते हों।
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ठकुरानी  : स्त्री० [हिं० ठाकुर] १. ठाकुर या राजपूत जाति की स्त्री। २. ठाकुर अर्थात् राजा या सरदार की पत्नी। ३. मालकिन। स्वामिनी।
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ठकुराय  : पुं० [हिं० ठाकुर] ठाकुरों या राजपूत क्षत्रियों की एक जाति या वर्ग।
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ठकुरायत  : स्त्री० [हिं० ठाकुर] १. ठाकुर (अधिपति, प्रभु आदि) होने की अवस्था या भाव। २. किसी ठाकुर (अधिपति आदि) का अधीनस्थ प्रदेश या भू-भाग।
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ठकोरी  : स्त्री० [हिं० ठेकना+औरी (प्रत्यय)] वह लकड़ी या छड़ी जिसके सहारे अथवा जिसे टेकता हुआ कोई चलता है।
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ठक्क  : पुं० [सं०] व्यापारी।
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ठक्कर  : स्त्री०=टक्कर।
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ठक्कुर  : पुं० [सं०] ठाकुर। देवता। पूज्य प्रतिमा।
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ठग  : पुं० [सं० स्थग] [स्त्री० ठगनी, भाव० ठगी] १. वह जो धोखा देकर दूसरों का धन ले लेता हो। जैसे–आज-कल तरह-तरह के ठग चारों ओर घूमते रहते हैं। २. मध्य युग में, वह व्यक्ति जो भोले-भाले लोगों पर अपना विश्वास जमा लेता था और धोखे से उन्हें कोई जहरीली या नशीली जड़ी-बूटी या मिठाई खिलाकर और उनका माल-असबाब लेकर चम्पत होता था। विशेष–आरंभ में प्रायः इक्के-दुक्के लोग ही ठग होते थे। वे जो जहरीली या नशीली, जड़ी-बूटियाँ या मिठाइयाँ लोगों को खिलाते थे, उन्हें जन-साधारण ठग-मूरि या ठग-मोदक कहते थे। बाद में मुख्यतः अंगेरजी शासन के आरंभिक काल में ये लोग बड़े-बड़े दल बनाकर घूमने लगे थे, और प्रायः यात्रियों, व्यापारियों आदि के दलों के साथ स्वयं भी यात्री या व्यापारी बनकर दो चार दिन यात्रा करते थे। जब कहीं जंगल या सुनसान मैदान में उन्हें अवसर मिलता था, तब वे उन यात्रियों या व्यापारियों के गले कुछ विशिष्ट प्रक्रिया से घोटकर उन्हें मार डालते और उनकी लाशें वहीं गाड़कर और माल लूटकर आगे बढ़ जाते थे। इनमें हिंदू और मुसलमान दोनों होते थे और ये काली की उपासना करते थे। ३. आज-कल अधिक प्राप्ति या लाभ के लिए अपनी चीज या सेवा के बदले में उचित से अधिक दाम या धन वसूल करनेवाला व्यक्ति। जैसे–यह दूकानदार बहुत बड़ा ठग है।
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ठग-पना  : पुं० [हिं० ठग+पन] १. दूसरों को ठगने की क्रिया या भाव। ठगी। २. चालबाजी। धूर्त्तता।
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ठग-मूरि  : स्त्री० [हिं० ठग+मूरि] वह नशीली जड़ी जिसे खिलाकर ठग पथिकों को बेहोश करते और उनका धन लूट लेते थे।
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ठग-मूरी  : स्त्री०=ठग-मूरि।
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ठग-मोदक  : पुं० [हिं० ठग+सं० मोदक] वह मोदक या लड्डू जिसमें कुछ नशीली चीजें होती थीं और जिसे ठग लोग भोले-भाले यात्रियों को खिलाकर बेहोश कर देते और तब उनका माल लूट लेते थे।
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ठग-लाड़ू  : पुं०=ठग-मोदक।
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ठग-विद्या  : स्त्री० [हिं० ठग+विद्या] लोगों को ठगने की कला या विद्या।
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ठगई  : स्त्री० [हिं० ठग+ई (प्रत्यय)] १. ठग का काम या भाव। ठगी। २. कपट। छल। धोखा।
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ठगण  : पुं० [ष० त०] छंदशास्त्र में पाँच मात्राओं का एक गण।
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ठगना  : स० [हिं० ठग+ना (प्रत्यय)] १. किसी से उनकी कोई चीज छल या धोखे से लेना। २. क्रय-विक्रय में अधिक लाभ करने के लिए किसी से लिए हुए धन के अनुपात में उचित से कम या रद्दी चीज देना। जैसे–यह दुकानदार ग्राहकों को बहुत ठगता है। पद–ठगा सा=ऐसा हक्का-बक्का कि मानों किसी ने उसे ठग लिया हो। ३. किसी को धोखे में रखकर उसके उद्देश्य की सिद्धि या संकल्प की पूर्ति से वंचित करना। जैसे–मुझे मेरे ही मित्रों ने ठगा। ४. किसी प्रकार का छल या धूर्त्तता का व्यवहार करना। ५. पूरी तरह से अनुरक्त या मोहित करके अपना वशवर्त्ती बनाना। अ० १.=ठगाना। २.=चकित होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठगनी  : स्त्री० [हिं० ठग] १. ठग की पत्नी। २. दूसरों को ठगने या धोखा देनेवाली स्त्री। छली या धूर्त स्त्री। ३. कुटनी। ४. पार्थिक क्षेत्रों में माया (सासारिक) का एक नाम।
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ठगवाना  : स० [हिं० ठगना का प्रे०] किसी को ठगने में किसी दूसरे को प्रवृत्त करना। ठगे जाने में प्रवर्तक या सहायक होना।
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ठगहाई  : स्त्री० [हिं० ठग]=ठगपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठगहारी  : स्त्री० [हिं० ठग+हारी (प्रत्यय)] ठगपना। ठगई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठगाई  : स्त्री० [हिं० ठग+आई (प्रत्यय)] ठगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठगाठगी  : स्त्री० [हिं० ठग] धोखेबाजी। वंचकता।
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ठगाना  : अ० [हिं० ठगना] १. किसी ठग के द्वारा ठगा जाना। २. किसी धूर्त्त व्यापारी के फेर में पड़कर और उचित से अधिक मूल्य देकर धन गँवाना। ३. अपना धन अथवा और कोई चीज किसी अविश्वासी को दे या सौंप बैठना। ४. अनुरक्त होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठगाही  : स्त्री=ठगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठगिन  : स्त्री०=ठगनी।
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ठगिनी  : स्त्री०=ठगनी।
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ठगिया  : अ० ठग।
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ठगी  : स्त्री० [हिं० ठग] १. किसी को ठगने की क्रिया या भाव। २. ठगों का काम या पेशा। ३. चालबाजी। धूर्त्तता। ४. मध्य युग की एक प्रथा जिसमें ठग लोग भोले-भाले यात्रियों को विष आदि के प्रभाव से मूर्छित करके अथवा उनकी हत्या करके उनका धन छीन लेते थे। ५. मोहित करनेवाला जादू या बात। उदाहरण–ठगी लगी तिहारिऐ सु आप लौं निहारिऐ।–आनन्दघन।
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ठगोरी  : स्त्री० [हिं० ठग-मूरि] १. ठगने की क्रिया० भाव या विद्या। २. ठगे जाने का भाव या परिणाम। उदाहरण–चोरन गए स्याम अँग सोभा उत सिर परी ठगोरी।–सूर। ३. ऐसी चीज या बात जिससे किसी को ठगा या धोखा दिया जाय। उदाहरण–जोग ठगोरी ब्रज न बिकै हैं।–सूर। ४. टोना। जादू। ५. मिथ्या भ्रम। माया। ६. सुध-बुध भुलानेवाली अवस्था, बात या शक्ति। उदाहरण–जानहु लाई काहु ठगोरी।–जायसी। मुहावरा–(किसी पर) ठगोरी डालना या लगाना=(क) मोहित करके अथवा और किसी प्रकार विश्वास जमाकर अपने वश में कर लेना। बहलाकर धोखे में रखना।
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ठट  : पुं० १.=ठट्ठ। २.=ठाठ।
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ठटई  : वि०, स्त्री०=ठठई।
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ठटकारी  : स्त्री०=ठठकारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठटकीला  : वि०=ठठकीला(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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ठटना  : अ० स०=ठठना।
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ठटनि  : स्त्री०=ठठनि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठटरी  : स्त्री०=ठठरी।
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ठटा  : पुं०=ठठ्ठ। (झुंड) उदाहरण–जबहिं आइ जुरिहै बह ठटा।–जायसी। पुं०–ठठ्ठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठटिया  : स्त्री०=ठठिया (भाँग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठटु  : पुं० १.=ठठ्ठ। २. ठाठ।
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ठट्ठ  : पुं०=ठठ्ठ।
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ठट्ठा  : पुं०=ठठ्ठा।
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ठट्ठी  : स्त्री०=ठठरी।
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ठट्या  : पुं० [देश०] एक तरह का जंगली जानवर।
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ठंठ  : वि० [सं० स्थाणु] १. (पेड़) जिसकी डालें तथा पत्तियाँ सूख और झड़ गई हों। २. (गाय या भैस) जिसका दूध सूख गया हो। ३. (व्यक्ति) जिसके पास कुछ धन न रह गया हो। निर्धन।
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ठठ  : पुं० १.=ठट्ठ। २. =ठाठ।
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ठठई  : वि० [हिं० ठठ्ठा] हँसी-ठठ्ठा करनेवाला। स्त्री०=ठठ्ठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठठकना  : अ०=ठिठकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठठकान  : स्त्री०=ठिठकान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठठकारी  : स्त्री० [हिं० ठाठ+फा० कारी] वह टट्टी जिसकी आड़ में शिकार किया जाता है।
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ठठना  : अ० [हिं० ठाठ] १. खड़ा या स्थित रहना या होना। २. किसी चीज के अंदर घुसकर ठहर या रुक जाना। अड़ना। ३. निश्चित होना। ४. ठाठ से युक्त होना। सुसज्जित होना। स० १. खड़ा या स्थित रहना। ठहराना। २. निश्चित करना। ३. सुसज्जित करना। सजाना। ४. बनाना। रचना। स० [हिं० ठठ] ठठ अर्थात् दल या समूह बनाना।
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ठठनि  : स्त्री० [हिं० ठाठ] १. ठठने की क्रिया या भाव। २. ठाठ। सजावट। ३. बनावट। रचना।
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ठठरी  : स्त्री० [हिं० ठाठ] १. मनुष्य या पशु के शरीर में की हड्डियों का पूरा ढाँचा। कंकाल। २. किसी कृति या रचना का ढांचा। ३. अरथी, जिस पर मुरदा ले जाया जाता है। ४. घास, भूसा आदि बाँधने का जाल।
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ठठवा  : पुं० [हिं० टाट] एक तरह का मोटा कपड़ा। इकतारा। लमगजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठंठस  : स्त्री० [सं० डिडिश०] टिंड़ा। ढेंढसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठठा  : पुं०=ठठ्ठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठठाना  : स० [अनु० ठकठक] १. आघात करना। २. खूब अच्छी तरह किसी को मारना-पीटना। अ० [हिं० ठठ्ठा या अनु० ठह-ठह-हँसने का शब्द] इस प्रकार खूब जी खोलकर हँसना या मुँह से ठह-ठह या इसी प्रकार का कोई और शब्द स्वतः निकलने लगे। अ० [हिं० ठाठ] कोई चीज या बात खूब ठाठ से, अच्छी तरह या बहुत अधिक होना। उदाहरण–चारों ओर छाई हुई ठठाती हुई अव्यवस्था के बीच से उसे हटाने के लिए उसे खींचने लगा।–अज्ञेय।
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ठंठार  : वि० [हिं० ठंठ] १. (व्यक्ति) जिसके पास कुछ भी न हो या न रह गया हो। २. (पात्र) खाली। रीता।
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ठठिया  : स्त्री० [देश०] राजस्थान के कुछ भागों में होनेवाली एक प्रकार की भाँग।
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ठठियाना  : स० [हिं० ठठना] १. सुसज्जित करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) २. किसी से सब कुछ लेकर उसे कंगाल या निर्धन करना।
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ठठियार  : पुं० [देश०] चौपायों को चरानेवाला चरवाहा। (नैपालतराई)
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ठठियारा  : वि० [हिं० ठठियाना] जिसके पास कुछ भी न रह गया हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) उदाहरण–तस सिंगार सब लीन्हेसि मोहि कीन्हेसि ठठियारि।–जायसी।
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ठठिरनि  : स्त्री० [हिं० ठठेरा का स्त्री० रूप] ठठेरिन।
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ठंठी  : स्त्री० [हिं० ठंठ] ज्वार, मँग आदि की वह बाल जिसमें पीट लेने के बाद भी कुछ दाने लगे रह गये हों। वि०=ठंठ।
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ठठुकना  : अ०=ठिठकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठठेर-मंजारिका  : दे० ‘ठठेरा’ के अंतर्गत पद ‘ठठेरे की बिल्ली’।
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ठठेरा  : पुं० [अनु० ठन-ठन] [स्त्री० ठठेरिन, ठठेरी] १. वह कारीगर जो ताँबे, पीतल आदि के बरतन बनाता हो। २. उक्त प्रकार के बरतन बेचनेवाला दूकानदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पद–ठठरे-ठठेरे बदलाई=ऐसे दो आदमियों के बीच का व्यवहार जो चालाकी, धूर्त्तता, बल आदि में एक दूसरे से कम न हों। ठठेरे की बिल्ली=ऐसा व्यक्ति जो कोई अरुचिकर या विकट काम देखते-देखते या सुनते-सुनते उसका अभ्यस्त हो गया हो। ३. एक प्रकार की चिड़िया जिसके बोलने पर ऐसा जान पड़ता है कि कोई ठठेरा ताँबा या पीतल पीटकर उसके बरतन बना रहा है। पुं० [हिं० ठाँठ] ज्वार, बाजरे आदि का डंठल।
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ठठेरिन  : स्त्री० [हिं० ‘ठठेरा’ का स्त्री० रूप] ठठेरे की स्त्री। ठठेरी।
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ठठेरी  : स्त्री० [हिं० ठठेरा] १. ठठेरे की स्त्री। २. ठठेरे का काम या व्यवसाय। वि० ठेरों का। ठठेरों से संबंध रखनेवाला। जैसे–ठठेरी बाजार।
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ठठोल  : वि० [हिं० ठठोली] ठठोली करने वाला। हंसोड़। पुं०=ठठोली।
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ठठोली  : स्त्री० [हिं० ठठ्ठा] किसी को हँसी का पात्र या हास्यास्पद बनाने के लिए उसके संबंध में कही जानेवाली कोई कुतूहलजनक तथा व्यंग्यपूर्ण परन्तु हँसी की बात।
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ठठ्ठ  : पुं० [सं० तट, हिं० टट्ठी या सं० स्थाता] १. एक स्थान पर स्थित बहुत सी वस्तुओं का समूह। २. बहुत से लोगों का जमावड़ा या भीड़-भाड़। उदाहरण–पियें भट्ट के ठठ्ठ अस गुजरातिन के वृन्द।–भारतेन्दु।
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ठठ्ठा  : पुं० [हिं० ठठाना] १. वह परिहास या हँसी-दिल्लगी जो कुतूहल जनक या विलक्षण बातों के आधार पर केवल मनोविनोद के लिए होती है। (बैन्टर) २. परिहास। हंसी-मजाक। क्रि० प्र०–उड़ाना।–करना।
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ठंड  : स्त्री०=ठंढ (सरदी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठंडक  : स्त्री०=ठंढक।
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ठड़कना  : अ०=ठिठकना।
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ठंडा  : वि०=ठंढा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठड़ा  : वि०=खड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठंडाई  : स्त्री०=ठंढाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठड़िया  : पुं० [हिं० ठाड़] एक प्रकार का खड़ी निगालीवाला हुक्के का नैचा।
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ठड्डा  : पुं० [हिं० ठाड़] १. पीठ के बीच की खड़ी हड्डी। रीढ। २. गुड्डी या पतंग में खड़े बल में लगनेवाली कमाची। ३. ढड्ढा। ढाँचा।
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ठंढ़  : स्त्री० [हिं० ठंढा] १. तापमान अधिक आने के कारण ऋतु या वातावरण की बढी हुई वह शीतलता जो कुछ अप्रिय और कष्टकर जान पड़े। शीत। सरदी। क्रि० प्र०–पडना।–लगना। २. उक्त शीतलता की होनेवाली अनुभूति या प्रभाव। जैसे–बच्चे को ठंढ लग गई हैं।
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ठंढई  : स्त्री०=ठंढ़ाई।
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ठंढई  : स्त्री०=ठंढाई।
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ठढ़ई  : स्त्री०=ठढिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठंढक  : स्त्री० [हिं० ठंढा] १. वातावरण की ऐसी स्थिति जिसमें हलकी ठंढ हो। ऐसी हलकी ठंढ जो प्रिय और सुखद हो। २. लाक्षणिक रूप में किसी प्रकार की अभिष्ट सिद्ध होने पर मन में होनेवाली तृप्ति या सन्तोष। जैसे–हमारे सौ रुपये खरच करा दिये, अब तो तुम्हें ठंढक पड़ी न। ३. उत्पात, उपद्रव, रोग आदि का शमन होनेपर वाली तृप्ति या सन्तोष। क्रि० प्र०–पड़ना।
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ठंढा  : वि० [सं० स्तब्ध; प्रा० थउड्, मरा० थंड, गु० थंडु](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) [स्त्री० ठंढी] १. जिसमें किसी प्रकार की और कुछ भी उष्णता या ताप न हो जिसका तापमान प्रसम स्तर से निश्चित रूप से नीचा हो। ‘गरम’ का विपर्याय। जैसे–ठंढा पानी। २. जिसमें कष्दायक गरमी या प्रखर ताप का अभाव हो और इसी लिए जो प्रिय वांछित या सुखद हो। जैसे–ठंढा दिन। पद–ठंढे-ठंढे=ऐसे समय में जब गरमी या धूप न हो अथवा होने पर भी अधिक कष्टदायक न हो। जैसे–पैदल यात्री प्रायः कुछ रात रहते ही उठकर चल पडते हैं और ठंढे-ठंढे अगले पड़ाव पर पहुँच जाते हैं। ३. (पदार्थ) जो पूरी तरह से जल चुकने पर अथवा बीच में ही बिलकुल बुझ चुका हो। जो गरम या जलता हुआ न रह गया हो। जैसे–आग या चूल्हा ठंढा करना या होना। पद–ठंढी आग। (देखें)। विशेष–कुछ विशिष्ट प्रसंगों में ठंढा करना का प्रयोग मंगल-भाषित के रूप में कई विशिष्ट प्रकार के अर्थ और भाव सूचित करने के लिए होता है। इसी आधार पर ठंढा करना के योग से कई मुहावरे बन गये हैं। (देखें नीचे)। मुहावरा–कड़ाही ठंढी करना=किसी शुभ कार्य के अवसर पर सब पकवान, मिठाइयाँ आदि बन चुकने पर सब के अंत में बाँटने के लिए थोड़ा सा हलुआ बनाना और तब चूल्हा या भट्ठी बुझाना। चूड़ियाँ ठंढी करना=नई चूडि़याँ पहनने के समय पुरानी चूडि़याँ उतारना या तोड़ना। चूल्हा ठंडा करना=चूल्हा बुझाना। ताजिया ठंढा करना=मुहर्रम के दस दिन बीत जाने पर विधिपूर्वक ताजिया गाड़ना। दीया ठंढा करना=दीया बुझाना। माता या शीतला ठंढी करना= रोगी के शरीर पर चेचक या शीतला का प्रकोप शांत हो जाने पर शीतला देवी की पूजा करना। मूर्ति (या उसके पूजन की सामग्री) ठंढी करना=पूजन की समाप्ति पर विधि और सम्मानपूर्वक मूर्ति या पूजा की सामग्री जलाशय, नदी आदि में डालना या बहाना। ४. (शरीर) जिसमें आवश्यक या उचित ताप न रह गया हो। जिसमें उतनी गरमी न रह गई हो, जितनी साधारणतः रहनी चाहिए या होती है। जैसे–मरने से कुछ पहले हाथ-पैर ठंढे हो जाते हैं। ५. शरीर या तापमान जो मानव-शरीर के प्रसम तापमान से कम या घटकर हो, और फलतः कष्टदायक तथा चिंताजनक या रोग का सूचक हो। जैसे–सन्ध्या सबेरे इस लड़के के हाथ-पैर बिलकुल ठंढे हो जाते हैं। ६. जिसकी उष्णता या ताप बहुत घट गया हो अथवा कम होता हुआ बिलकुल निकल गया हो। जो गरम न रह गया हो। जैसे–ठंढा भात, ठंढी रोटी। ७. (पदार्थ) जो गरमी या ताप की अनुभूति या विकलता कम करने में सहायक हो। जैसे–ठंढे कपड़े, ठंढे पेय पदार्थ। ८. (औषध या खाद्य पदार्थ) जो शरीर के अन्दर पहुंचकर कुछ ठंढक लाता या शीतलता उत्पन्न करता हो। जैसे–ठंढी दवा, ठंढे फल। ९. (व्यक्ति) जिसमें आवेश, उत्तेजना, क्रोध चंचलता, दुर्भाव आदि उग्र या तीव्र मनोविकारों का पूरा या बहुत कुछ अभाव हो। गंभीर, धीर और शांत। जैसे–ठंढे मिजाज का आदमी, ठंढे होकर किसी बात पर विचार करना। मुहावरा–(किसी को) ठंढा करना=किसी का आवेश, क्रोध,चंचलता आदि दूर करके उसे प्रकृतिस्थ और शांत करना। १॰. (व्यक्ति) जो सब तरह से निश्चित, संतुष्ट और सुखी हो। जिसे किसी बात का कष्ट या दुःख न हो। पद–ठंढी रहो=सधवा स्त्रियों के लिए आर्शीवाद का पद जिसका आशय होता है-धन और सन्तान का सुख भोगती हुई सौभाग्यवती बनी रहो। (स्त्रियाँ)। ११. (व्यक्ति) जो अपना उद्देश्य सिद्ध हो जाने या कामना पूरी हो जाने के कारण तृप्त या सन्तुष्ट हो गया हो जैसे–जब तक हमारे सौ दो सौ रुपये खरच न करा लोगे, तब तक तुम ठंढे नहीं होगे। १२. (व्यक्ति) जिसमें उद्यम, क्रिया-शीलता, तत्परता, प्रबलता आदि का बहुत कुछ या बिलकुल अभाव अथवा ह्रास हो गया हो। जैसे–(क) खरी-खरी बातें सुनते ही वे ठंढे पड़ (या हो) जाते हैं। (ख) इस मुकदमे ने उन्हें ठंढा कर दिया है। पद–ठंढा साँस। (देखें स्वतन्त्र शब्द)। १३. (व्यक्ति) जिसमें काम की उमंग या संभोग-शक्ति बिलकुल न हो। जैसे–लड़का तो देखने में बिलकुल ठंढा मालूम पड़ता है, इसका विवाह व्यर्थ ही किया जा रहा है। १४. (आवेग या उत्साह) जो केवल ऊपरी, दिखौआ या बनावटी हो। पद–ठंढी गरमी। (देखें स्वतन्त्र शब्द)। १५.(कार्य या क्रिया) जिसमें ऊपर से देखने पर वे दुष्परिणाम दोष या विकार न दिखाई देते हों जो साधारण अवस्थाओं में दिखाई देते, रहते या होते है। पद–ठंढा युद्ध, ठंढी आग, ठंढी मार, ठंढी मिट्टी। (देखें अलग-अलग स्वतन्त्र शब्द)। मुहावरा–ठंढे कलेजे, ठंढे ठंढे या ठंढे पेटों=बिना किसी प्रकार का प्रतिवाद या विरोध किये। चुपचाप या धीर और शांत भाव से। जैसे–अब आप ठंढे कलेजे (ठंढे ठंढे या ठंढे पेटों) हमारा हिसाब चुकता करके यह झगड़ा खत्म कीजिए। १६. जो या तो मर गया हो, या मरे हुए के समान जड़, निश्चेष्ट या निष्क्रिय हो गया हो। जैसे–पहली लाठी लगते ही वह गिर कर ठंढा हो गया। १७.(कार्य या स्थान) जिसमें नित्य का सा व्यवहार या व्यापार न हो रहा हो,बल्कि जो बहुत-कुछ मंदा या हलका पड़ गया हो। जैसे–युद्ध की सम्भावना न रह जाने (अथवा बाहर से माल आने की आशा होने) पर किसी चीज का बाजार ठंढा पड़ना या होना। १८. जिसमें किसी तरह की खराबी या बुराई न हो। मुहावरा–(किसी काम या बात में) ठंढा गरम न देखना= यह न देखना या समझना कि यह काम अच्छा, उचित अथवा लाभदायक है या नहीं। ऊंच-नीच या बुरा-भला न देखना या न समझना। १९. (पदार्थ) जिसमें अग्नि, विद्युत आदि का संयोग न हो अथवा इनका काम किसी ओर तरह से चलाया जाता हो। जैसे–ठंढा तार, ठंढा मुलम्मा।
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ठढ़ा  : अ० स०=ठठना। वि० [सं० स्थातृ] खड़ा।
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ठंढा मुलम्मा  : पुं० [हिं० ठंढा+अ० मुलम्मा] कुछ विशिष्ट धातुओं पर सोने या चाँदी का पानी चढ़ाने की वह रीति जिसमें उक्त धातुओं को गरम नहीं करना पड़ता। इस प्रकार किया हुआ मुलम्मा।
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ठंढा युद्ध  : पुं० [हिं०+सं०] राजनीतिक क्षेत्रों में एक दूसरे के प्रति चली जानेवाली ऐसी चालें या दांव-पेंच जिसमें शस्त्रास्त्रों का प्रयोग न होने पर भी परिणाम या फल वैसा ही त्रासकारक और भीषण होता है जैसा शस्त्रास्त्रों से होनेवाले प्रत्यक्ष युद्ध का होता है। (कोल्ड वार)।
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ठंढा साँस  : पुं० [हिं०] बहुत खींचकर लिया जानेवाला वह साँप जो बहुत अधिक दुःख, निराशा, विफलता आदि के समय प्राकृतिक रूप से निकलता है। गहरा साँस। जैसे–चुनाव में अपनी हार का समाचार सुनने पर वे केवल ठंढा साँस लेकर रह गये।
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ठंढाई  : स्त्री० [हिं० ठंढा] १. एक में मिले हुए कासनी सौफ, गुलाब की पत्तियों और ककड़ी खरबूजे आदि के बीज। २. उक्त पत्तियों ता बीजों का वह मिश्रण जो प्रायः गरमी के दिनों में घोट और घोलकर शरबत के रूप में बनाया तथा पीया जाता है। ३. दे० ठंढक।
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ठढ़िय  : स्त्री० [हिं० ठाढ़-खड़ा] काठ की ऊंची तथा बड़ी ऊखल।
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ठढ़ियाना  : स० [हिं० ठढ़ा-खड़ा] खड़ा करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ० खड़ा होना।
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ठंढी  : वि० हिं० ठंढा का स्त्री० रूप। स्त्री० १. चेचक या शीतला नामक रोग (प्रायः बहुवचन रूप में प्रयुक्त) जैसे–बच्चे को ठंढियाँ निकली हैं। क्रि० प्र०–निकलना मुहावरा–ठंढी ढलना=शीतल नामक रोग के वेग का उतार या कमी होना। २. दे० ‘टंढ’। २. दे० ‘ठंढक’।
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ठंढी आग  : स्त्री० [हिं०] १. बरफ। हिम। २. तुषार। पाला। ३. ऐसी धूर्ततापूर्ण चाल जिससे किसी को अन्दर ही अन्दर बहुत अधिक कष्ट या संताप हो। या उसकी कोई बहुत बड़ी हानि हो। जैसे–उस दुष्ट (या नीच) को तो ठंढी आग से जलाना (या मारना) चाहिए।
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ठंढी गरमी  : स्त्री० [हिं०] ऐसी उत्साह, प्रेम या सदभाव जो वास्तविक या हार्दिक न हो, केवल ऊपर से दिखाने या नाम करने के लिए हो। जैसे–उनकी वह ठंढी गरमी देखकर मुझे तो अन्दर ही अन्दर हँसी आ रही थी।
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ठंढी मार  : स्त्री० [हिं०] ऐसा प्रभार या मार जिसमें ऊपर से देखने पर चोट के निशान तो न दिखाई दें, पर भीतरी अंगों पर अधिक या गहरी चोट आवे। जैसे–जेलों और थानों में लोगों पर अक्सर ठंढी मार पड़ती है।
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ठंढी मिट्टी  : स्त्री० [हिं०] ऐसा शारीरिक संघटन जिसमें जवानी के लक्षण अधिक दिनों तक बने रहे और बुढ़ापे की झलक अपेक्षया देर में आवे।
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ठढ्ढा  : वि=ठढ़ा (खड़ा)। पुं०=ठड्डा (देखें)।
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ठन  : स्त्री० [अनु०] किसी धातु खंड अथवा धातु के किसी पात्र पर आघात लगने से होनेवाला शब्द।
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ठन-ठन  : स्त्री० [अनु०] १. ठन-ठन शब्द। ठनक। २. दे० ठन-गन।
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ठन-ठन गोपाल  : वि० [अनु० ठन-ठन+गोपाल=कोई व्यक्ति] १. (व्यक्ति) जिसके पास कुछ भी धन न हो या न रह गया हो। २. (वस्तु) जिसमें कुछ भी सार न हो। पुं० रुपये-पैसे का अभाव।
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ठनक  : स्त्री० [अनु० ठन-ठन] १. बार-बार ठन-ठन होने का शब्द। जैसे–(क) धातुखंड पर आघात करने से होनेवाली ठनक। (ख) ढोल, तबले, मृदंग आदि के बजने से होनेवाली ठनक। २. रह-रहकर उठने या होनेवाली पीड़ा। टीस।
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ठनकना  : अ० [अनु० ठन-ठन] १. ठन-ठन शब्द होना। जैसे–गिरने से पीतल या लोटा ठनकना। २. ढोल, तबले, मृदंग आदि ऐसे बाजे बजना जिनमें बीच-बीच में ठन-ठन शब्द होता हो। जैसे–तबला ठनकना। मुहावरा–तबला ठनकना=नाच-गाना होना। ३. रह-रहकर आघात पड़ने की सी पीड़ा होना। जैसे–माथा ठनकना। मुहावरा–माथा ठनकना=सहसा किसी बात या व्यक्ति के संबंध में मन में कुछ आशंका या संदेह उत्पन्न होना। जैसे–उसका रंग-ढंग देखकर पहले ही मेरा माथा ठनका था।
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ठनका  : पुं० [हिं० ठनक] १. दे० ‘ठनक’। २. गरजता हुआ बादल। उदाहरण–भादौ रैन भयावनी अधौ गरजै औ घहराय। लवका लौके ठनका, ठनकै, छति दरद उठ जाय–गीत।
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ठनकाना  : स० [हिं० ‘ठनकना’ का स० ] १. इस प्रकार आघात करना जिससे कोई चीज ठन-ठन शब्द करने लगे। जैसे–परखने के लिए रुपया ठनकाना। २. ढोल, तबला आदि ऐसे बाजे बजाना, जिनमें से ठन-ठन शब्द निकलता हो।
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ठनकार  : स्त्री० [अनु०] ‘ठन’ की तरह का शब्द। ठनक।
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ठनगन  : स्त्री० [अनु० ठन-ठन] उपर्युक्त दाता से अपना अधिकार जतलाते हुए कुछ पाने या लेने के लिए बार-बार किया जानेवाला आग्रह या हठ। जैसे–मांगलिक अवसरों पर नाई आदि नेगी अपने नेग के लिए यजमानों से ठनठन करते ही हैं।
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ठनठनाना  : स० [अनु०] ठन-ठन शब्द उत्पन्न करना। अ० ठन-ठन शब्द उत्पन्न होना।
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ठनठनाना  : अ०=ढनमनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठनना  : अ० [हिं० ठानना] १. (किसी कार्य या व्यापार का) तत्परतापूर्वक या जोर-शोर से आरम्भ होना या किया जाना। जैसे–युद्ध ठनना। २. (विचार या संकल्प का मन में) निर्धारित या पक्का होना। जैसे–अब तो तुम्हारे मन में उनसे लड़ने की ठन गई है। ३. (व्यक्ति आदि का) तत्परतापूर्वक किसी कार्य या व्यापार में लगने को उद्यत होना। ४. किसी विशिष्ट रूप में दृढ़तापूर्वक सामने आकर उपस्थित होना। उदाहरण–दुलरी कल कोलिला कंठ बनी, मृग खंजन अंजन भाँति ठनी।–केशव।
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ठनाका  : पुं० [अनु० ठन] १. जोर से तथा सहसा होनेवाली ठन-ठन ध्वनि। २. कुछ समय तक निरंतर होती रहनेवाली ठन-ठन ध्वनि।
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ठनाठन  : क्रि० वि० [अनु० ठन-ठन] १. ठन-ठन शब्द करते हुए। जैसे–घंटा ठनाठन बज रहा था। २. टनाटन।
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ठप  : वि० [अनु०] १. (कार्य या व्यापार) जो पूरी तरह से बन्द हो गया हो। जैसे–घोर वर्षा के कारण आज दिन भर सब काम ठप रहे। २. (पदार्थ) जो खुला न हो या खोला न गया हो, अथवा जिसका उपयोग न हो रहा हो। जैसे–(क) पुस्तक ठप होना। (ख) बाजे या यंत्र का ठप पड़ा रहना। पुं० १. खुली पुस्तक सहसा बन्द करने से होनेवाला शब्द। २. ठगने अर्थात् बन्द करने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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ठपका  : पुं० [हिं० ठप] १. ठप शब्द। २. खुली पुस्तक बंद करने की क्रिया। ३. आघात। धक्का।
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ठपना  : स० [हिं० ठप] १. कोई चीज इस प्रकार बन्द करना कि ठप शब्द हो। २. कोई कार्य या व्यापार बन्द करना। ३. कोई चीज बन्द करके कहीं रखना।
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ठप्पा  : पुं० [ठप से अनु] १. धातु, लकड़ी आदि का वह टुकड़ा जिस पर चित्र, चिन्ह आदि खुदे रहते हैं और जिससे कपडों आदि पर रंग या स्याही की सहायता से छाप लगाई जाती है। जैसे–कपड़े छापने या सिक्के बनाने का ठप्पा। २. उक्त उपकरण से लगी या लगाई हुई छाप। ३. एक प्रकार का चौड़ा नकाशीदार गोटा जो ठप्पे से दबाकर बनाया जाता है ४. वह साँचा जिससे उक्त प्रकार के उभारदार बेल-बूटे बनाये जाते हैं।
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ठमक  : स्त्री० [हिं० ठमकना] १. ठमकने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. दे० ‘ठुमक’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठमकना  : अ० [सं० स्तम्भ, हिं० थम+करना] १. चलते-चलते सहसा कुछ रुकना। ठिठकना। (प्रायः आशंका, भय आदि के कारण अथवा हाव-भाव दिखलाने के लिए) २. दे० ठुमकना। अ० [अनु०] किसी चीज में से ठम-ठम शब्द निकलना।
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ठमकाना  : स० [हिं० ठमकना] १. कोई ऐसी बात कहना जिससे किसी के मन में शंका या संदेह उत्पन्न हो जाय और वह चलता-चलता या कोई काम करता करता रुक जाय। २. ठसक दिखलाते हुए अंगों का संचालन करना। ३. ठम-ठम शब्द उत्पन्न करना।
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ठमकारना  : स०=ठमकाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठयऊँ  : पुं०=ठौर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ठयना  : स० [सं० स्थापन,० प्रा० ठावन] १. स्थापित करना। ठहराना, बैठाना या स्थित करना। २. प्रयुक्त करना। लगाना। ३. दे० ठानना। अ० १. स्थापित या स्थित होना। २. प्रयुक्त होना। लगना। ३. दे० ‘ठनना’।
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ठरगजी  : स्त्री० [?] बहनोई की बहन। बहन की ननद। (ब्रज)।
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ठरना  : अ० [हिं० ठार=बहुत ठंढ़ा] १. बहुत अधिक सरदी के कारण ठिठुरना। २. बहुत अधिक जाड़ा या सरदी पड़ना।
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ठरमरुआ  : वि० [हिं० ठार-पाला+मरुआ=मरा हुआ] १. जो अधिक सरदी के कारण अकड़ या ठिठुर कर मर गया हो या मरे हुए के समान हो गया हो। २. (फसल) जिसे पाला मार गया हो।
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ठराना  : स० [हिं० ठरना] किसी को सरदी से ठरने में प्रवृत्त करना। अ०=ठरना।
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ठरुआ  : वि० [हिं० ठार]=ठरमरुआ।
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ठर्रा  : पुं० [हिं० ठड़ा-खड़ा] १. बटा हुआ मोटा डोरा या सूत जिसमें प्रायः कुछ अकड़ या ऐंठ रहती है। २. महुए के फलों के रस से बनी हुई एक प्रकार की देशी शराब। ३. अधपकी बडी ईँट। ४. एक तरह का भद्दा जूता। ५. बेडौल तथा भद्दा मोती। ६. अंगिया या चोली का बंद। तनी।
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ठर्री  : स्त्री० [देश०] १. बिना अंकुर का धान का बीज जो छितराकर बोया जाता है। २. ऐसे धान की बोआई।
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ठलाना  : स० [?] १. गिराना। २. निकलवाना।
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ठवन  : स्त्री० [सं० स्थापन] १. किसी ऐसी विशिष्ट अवस्था में होने का भाव या ढंग जिससे शरीर के अंगों से कलापूर्ण सौंदर्य प्रकट होने लगे। २. किसी विशिष्ट भाव की अभिव्यक्ति के लिए बनाई हुई मुद्रा। ३. खड़े होने, बैठने आदि की कोई विशिष्ट मुद्रा। (पोज)।
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ठवना  : स०=ठयना।
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ठवनि  : स्त्री०=ठवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठवनी  : स्त्री०=ठवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठवर  : पुं०=ठौर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठस  : वि० [सं० स्थास्नु] १. (पदार्थ) जो बहुत ही कड़ा या ठोस और फलतः दृढ़ या मजबूत हो। जैसे–ठस मकान। २. (वस्त्र) जिसके ताने और बाने के सूत परस्पर इस प्रकार सटे हुए हों कि उनमें विलरता न दिखाई पड़े। ३. (बुनावट) जो उक्त प्रकार की हो। ४. जो इतना अधिक भारी हो कि अपने स्थान से हिलाये जाने पर भी जल्दी न हिले। ५. (सिक्का) जो खनकाने पर ठीक ध्वनि न दे। ६. (व्यक्ति) जो बहुत कंजूस हो और जल्दी पैसा खरच करनेवाला न हो। ७. आलसी। सुस्त। ८. जिद्दी। हठी। वि० गंभीर। उदाहरण–परन्तु वातावरण बिलकुल ठस जान पड़ा।–वृंदावनलाल वर्मा।
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ठसक  : स्त्री० [हिं० ठस] १. बड़प्पन, योग्यता आदि दिखलाने के उद्देश्य से की जानेवाली साधारण से भिन्न कोई शारीरिक चेष्टा। २. नखरा। ३. अभिमान। गर्व।
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ठसकदार  : वि० [हि० ठसक+फा० दार] १. (व्यक्ति) जिसमें ठसक हो। अपना बड़प्पन या योग्यता प्रदर्शित करने के लिए कोई विशिष्ट चेष्टा करनेवाला। २. घमंडी।
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ठसका  : पुं०=ठसक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अनु०] १. एक तरह की सूखी खाँसी। २. धक्का।
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ठसावस  : वि० [हिं० ठस] (अवकाश) जो इतना अधिक भर गया हो कि उसमें और अधिक समाई न हो सकती हो। जैसे–यात्रियों से रेल का डिब्बा ठसाठस था। क्रि० वि० ऐसी अवस्था में जिसमें और अधिक भरने, रखने आदि के लिए अवकाश न बच रहा हो।
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ठस्सा  : पुं० [अनु०] १. एक प्रकार की छोटी रुखानी। जिससे धातुओं पर नक्काशी की जाती है। २. दे० ठसक। पुं०=ठवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठहक  : स्त्री० [अनु०] नगाड़े, मृदंग आदि का शब्द।
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ठहना  : अ० [सं० ध्वंसन] १. इमारत, भवन आदि का टूट-फूटकर जमीन पर गिरना। २. पूर्णतः नष्ट या समाप्त होना। संयो० क्रि०–जाना–पड़ना।
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ठहना  : अ० [अनु०] १. घोड़े का हिनहिनाना। २. घंटे आदि का शब्द होना। अं० [सं० संस्थापन] १. बनाना। सँवारना। २. रक्षा करना। बचाना। उदाहरण–द्रुपद सुता की हरि जू लाज ठही।–सूर। अ०–ठहरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठहर  : पुं० [सं० स्थल] १. जगह। स्थान। २. रसोईघर। चौका। ३. रसोईघर को गोबर आदि से लीपने-पोतने का काम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० प्र०–देना। ४. अवसर। मौका।
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ठहरना  : अ० [हिं० ठहर] १. चलते-चलते किसी स्थान पर रुकना। गति से रहित होकर स्थित होना। जैसे–डाक-गाड़ी इस छोटे स्टेशन पर भी ठहरती है। २. किसी स्थान पर विश्राम करने अथवा थोड़े समय के लिए रुकना। टिकना। जैसे–अगली बार यहाँ आने पर हम लोग आप ही के यहाँ ठहरेंगे। ३. किसी स्थान पर किसी की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करना। जैसे–(क) दूध या दही का ठहरना। (ख) इनका बुखार १००’ पर ठहरा रहता है। ५. किसी विशिष्ट स्थिति में खड़ा रहना, फलतः किसी ओर न झुकना या नीचे न गिरना। जैसे–अधर में योगी या आकाश में पतंग का ठहरना। ६. किसी विशिष्ट आधार पर स्थित होना जैसे–यह छत चारों खंभों पर ठहरी है। ७. किसी प्रकार की क्रिया, चेष्टा या व्यापार से रहित या हीन होना। जैसे–(क) हवा या वर्षा का ठहरना। (ख) खाँसी या बुखार ठहरना। ८. किसी अशांत या उद्दिग्न स्थिति का फिर से प्रसम या शांत होना। जैसे–अब कुछ तबीयत ठहरी है। ९. धुली हुई वस्तु के नीचे बैठ जाने पर पानी का थिराना। १॰. निश्चित या पक्का होना। जैसे–(क) दर, भाव या मूल्य ठहरना। (ख) सौदा ठहरना। ११. गर्भ रहना। १२. किसी विशिष्ट स्थिति में होना। (केवल जोर देने के लिए) जैसे–(क) तुम तो भाई ठहरे। (ख) आप तो रईस ठहरे।
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ठहराई  : स्त्री० [हिं० ठहराना] १. ठहराने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. अधिकार। कब्जा (क्व०)।
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ठहराउ  : पुं०=ठहराव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठहराऊ  : वि० [हिं० ठहरना] १. ठहरने या ठहराने वाला। २. टिकाऊ।
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ठहराना  : स० [हिं० ठहरना का स०] १. ठहराने में प्रवृत्त करना। २. किसी चलती हुई चीज को रोककर किसी स्थान पर खड़ा या स्थित करना। जैसे–गाड़ी या नाव ठहराना। ३. किसी को किसी आधार पर इस प्रकार खड़ा या स्थित करना कि वह इधर-उधर होने या हिलने न पावे। जैसे–ऊँगली पर छड़ी ठहराना। ४. किसी प्रकार के आधार पर दृढ़तापूर्वक स्थापित करना। जैसे–खंभों पर छत ठहराना। ५. किसी को अतिथि के रूप में अपने यहाँ अथवा और कहीं ठहरने या कुछ समय तक रखने अथवा रहने की व्यवस्था करना। जैसे–(क) मित्र को अपने यहाँ ठहराना। (ख) धर्मशाला में बरात ठहराना। ६. किसी चलते या होते हुए काम को बंद करना या रोकना। ७. कोई काम चीज या बात इस प्रकार निश्चित करना, कराना कि सहसा उसमें कोई परिवर्तन न हो सके। जैसे–(क) लड़की या लड़के का ब्याह ठहराना। (ख) किराये की गाड़ी या मोटर ठहराना। ८. किसी चीज को नीचे गिरने से बचाने के लिए कोई आड़ या टेक लगाना।
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ठहराव  : पुं० [हिं० ठहराव+आव (प्रत्यय)] १. ठहरने, ठहराने या ठहरे हुए होने की अवस्था या भाव। २. वह स्थिति जिसमें किसी प्रकार की अशांति, उपद्रव, चंचलता आदि न हो। स्थिरता। ३. दो पक्षों में क्रय-विक्रय, विवाद आदि निपटाने के संबंध में होनेवाला निश्चय। ४. दे० ‘ठहरौनी’।
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ठहरु  : पुं० ठहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठहरुपक  : पुं० [सं० स्थान+रूपक] सात मात्राओं का मृदंग का एक ताल जो आड़ा-चौताल से मिलता-जुलता होता है।
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ठहरौनी  : स्त्री० [हिं० ठहराना] १. दो पक्षों में होनेवाला वह निश्चय जिसके अनुसार एक पक्ष दूसरे पक्ष को निश्चित धन आदि समय-समय पर देता है। २. विवाह के अवसर पर दहेज आदि का लेन-देन का करार या निश्चय। ३.=ठहराव।
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ठहाका  : पुं० [अनु० ] १. ठठाकर या जोर से हँसने का शब्द। २. जोर की हँसी। वि० चटपट।। तुरंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठहिया  : स्त्री० [हिं० ठाँव] ठाँव। जगह।
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ठाँ  : स्त्री० १.=ठाँव। २.=ठाँय।
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ठाँई  : स्त्री० [हिं० ठाँव] जगह। स्थान। वि० निकट। पास। अ० य० १. किसी के प्रति। २. किसी से।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठाई  : स्त्री०=ठाँव।
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ठाँउँ  : पुं०=ठाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=ठाँव।
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ठाउ  : पुं=ठांव।
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ठाक  : स्त्री० [हिं० ठाकना] ठाकने अर्थात् रोकने या मना करने की क्रिया या भाव। पुं० हिं० ‘ठीक’ का निरर्थक अनुकरण। जैसे–ठीक-ठाक करना।
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ठाकना  : पुं० [सं० स्था] कोई ऐसा काम करने से रोकना जिसका परिणाम या प्रभाव प्रायः बुरा होता हो। मना करना। जैसे–बच्चे को गाली देने से ठाकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठाकुर  : पुं० [सं० ठाकुर] [स्त्री० ठकुराइन, ठकुरानी] १. देवमूर्ति, विशेषकर विष्णु या उनके अवतारों की प्रतिमा। देवता। २. ईश्वर। भगवान। ३. मालिक। स्वामी। ४. किसी भूखंड का स्वामी। ५. नायक। सरदार। ६. गाँव का जमींदार या मुखिया। ७. पूज्य व्यक्ति। ८. क्षत्रियों की एक उपाधि। ९. नाइयों के लिए एक संबोधन।
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ठाकुर-सेवा  : स्त्री० [हिं० ठाकुर+सं० सेवा] १. देवता का पूजन और सेवा। २. देवता के भोग-राग के लिए मंदिर के नाम अर्पित की हुई संपत्ति।
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ठाकुरद्वारा  : पुं० [हिं० ठाकुर+सं० द्वार] १. देवालय। मंदिर। जैसे–माई का ठाकुरद्वारा। २. सिक्खों का गुरुद्वारा।
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ठाकुरप्रसाद  : पुं० [हिं०] १. देवता को भोग लगाई हुई वस्तु। नैवेद्य। २. भादों में तैयार होनेवाला एक प्रकार का धान।
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ठाकुरबाड़ी  : स्त्री०=ठाकुरद्वारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठाकुरी  : स्त्री० [हिं० ठाकुर+ई (प्रत्यय)] १. ठाकुर होने की अवस्था, पद या भाव। २. वह प्रदेश जो किसी ठाकुर के अधिकार में हो। ३. शासन। ४. प्रधानता। ५. महत्त्व।
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ठाट  : पुं=ठाठ।
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ठाट-बंटी  : स्त्री०=ठाठबंदी।
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ठाट-बाट  : पुं०=ठाठ-बाट।
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ठाटना  : स०=ठाठना।
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ठाटर  : पुं०=ठाठर।
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ठाटी  : स्त्री०=ठठ्ठ (समूह)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठाँठ  : वि० [सं० स्थाणु (ठूँठा पेड़) वा ठन-ठन से अनु०] १. जिसका रससूख गया हो। नीरस। शुष्क। २. (गौ या भैंस) जिसने दूध देना बन्द कर दिया हो। जिसके स्तनों में दूध न रह गया हो।
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ठाठ  : पुं० [सं० स्थातृ=खड़ा होनेवाला] १. बाँसों लकड़ियों आदि का बना हुआ वह ढांचा जिसके आधार पर कोई रचना तैयार या पूरी की जाती है। जैसे–छप्पर या नाव का ठाठ। क्रि० प्र०–खड़ा करना।–बनाना। पद–ठाठ बंदी=नवठट। (देंखें)। २. किसी प्रकार की लंबी चौड़ी बुनावट या रचना। जैसे–कालीन या दरी बुनने का ठाठ, अर्थात् करघा और उसके साथ की दूसरी आवश्यक सामग्री। ३. ऐसी बनावट या रचना जो तड़क-भड़क वैभव शोभा, सजावट आदि दिखाने के उद्देश्य से तैयार की या बनाई जाय। आडंबर। ४. तड़क-भड़कवाला। वेश-विन्यास। मुहावरा–ठाठ पर रह जाना=उद्देश्य सिद्ध करने में विफल होकर ज्यों का त्यों रह जाना। ठाठ बदलना=(क) नया रूप धारण करने के लिए वेश बदलना (ख) बल, महत्ता, श्रेष्ठता आदि दिखाने या स्थापित करने के लिए नया रूप धारण करना। जैसे–पहले तो वह सीधी तरह से बातें करता था, पर आज तो उसने अपना ठाठ ही बदल दिया। ठाठ मांजना=ठाठ बदलना। ५. तड़क-भड़कवाला ढंग, प्रकार या शैली। मुहावरा–ठाठ से बिताना या रहना=बहुत अच्छी तरह चैन या सुख से रहना या समय बिताना। ६. कोई काम करने का आयोजन, तैयारी, युक्ति या व्यवस्था। जैसे–(क) अब यहां कहीं ठहरने या रहने का ठाठ करना चाहिए। (ख) यह सब अपना मतलब निकालने का ठाठ है। उदाहरण–यह ठाठ तुझी ने बाँधा है, यह रंग तुझी ने रच्चा है। नजीर।–क्रि० प्र०–बाँधना। ७. कुश्ती या पटेबाजी में खड़े होने या वार करने का ढंग। पैंतरा। मुहावरा–ठाठ बदलना=पुराना पैंतरा छोडकर नये पैतरें से खड़े होना या वार करना। ठाठ बाँधना-प्रतिपक्षी पर वार करने के लिए पैंतरें से खड़े होना। ८. संगीत में ऐसे क्रमिक सात स्वरों का वर्ग जो किसी विशेष प्रचलित तथा प्रसिद्ध अथवा शास्त्रीय महत्त्व के राग में लगता हो। जैसे–भैरवी का ठाठ। ९. कबूतरों, मुरगों आदि का प्रसन्न होकर पर फड़ फड़ाने की अवस्था या ढंग। मुहावरा–ठाठ मारना=उक्त पक्षियों का प्रसन्न होकर पर फड़फड़ाना। पुं० [हिं० ठठ्ठ] १. झुंड, दल या समूह। ठठ्ठ। जैसे–घोड़ों या हाथियों का ठाठ। २. अधिकता। बहुतायत। ३. बैल या साँड़ की गरदन पर का डिल्ला।
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ठाठ-बंदी  : स्त्री० [हिं० ठाठ+फा० बंदी] १. किसी प्रकार का ठाठ अर्थात् ढाँचा खड़ा करने या बाँधने की क्रिया अथवा भाव। जैसे–छाजन या नाव की ठाठ-बंदी। २. आयोजन। तैयारी।
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ठाठ-बाट  : स्त्री० [हिं० ठाठ+अनु० बाट] १. आडंबर, तड़क-भड़क तथा विलासपूर्ण आयोजन या प्रदर्शन। जैसे–वे ठाठ बाट से रहते या ठाठ-बाट से बाजार निकलते हैं। २. सज-धज। सजावट।
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ठाठना  : स० [हिं० ठाठ] १. ठाठ खडा करना या बनाना। २. सजाना। ३. किसी कार्य के अनुष्ठान या आरम्भ का उपक्रम करना। अ० १. ठाठ का खड़ा होना या बनना। २. सजना। ३. कार्य आदि का अनुष्ठान या आरंभ होना।
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ठाँठर  : पुं० दे० ‘ठठरी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० स्थान, प्रा० ठान] जगह। स्थान।
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ठाठर  : पुं०=ठाठ।
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ठाढ़  : वि०=ठाढ़ा। उदाहरण–ठाढ़ करत हैं कारन तबही।–तुलसी।
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ठाढ़ा  : वि० [सं० स्थातृ=जो खड़ा हो] [स्त्री० ठाढ़ी] १. जो सीधा खड़ा हो। दंडायमान। २. जो अपने पूर्व या मूलरूप में वर्तमान या स्थित हो। उदाहरण–गाढ़ै, ठाढ़ै कुचनु ठिलि पिय हिय को ठहराइ।-बिहारी। मुहावरा–ठाढ़ा देना=किसी चीज को यत्नपूर्वक संभालकर ज्यों का त्यों रखना। ३. (अनाज का दाना) जो कूटा या पीसा न गया हो, बल्कि ज्यों का त्यों अपने मूल रूप में हो। जैसे–ठाढ़ा गेहूँ या चना। ४. हृष्ट-पुष्ट। हट्टा-कट्टा। ५. जो खड़े बल में हो या सीधा ऊपर की ओर गया हो। ६. जो सामने आकर उपस्थित या प्रस्तुत हुआ हो। वर्तमान।
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ठाढ़ेश्वरी  : पुं० [हिं० ठाढ़ा+सं० ईश्वर+ई (प्रत्यय)] साधुओं का एक वर्ग जो रात-दिन खड़ा रहता है। विशेष–वे साधु या तो चलते-फिरते रहते हैं या खड़े रहते हैं, बैठते या लेटते बिलकुल नहीं।
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ठादर  : पुं० [देश०] झगड़ा।
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ठान  : स्त्री० [हिं० ठानना] १. ठानने की क्रिया या भाव। २. किसी काम को करने के संबंध में किया हुआ दृढ़ निश्चय या हठ। ३. निश्चय या हठ-पूर्वक ठाना या आरंभ किया हुआ कार्य।
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ठानना  : स० [सं० अनुष्ठान] १. कोई काम तत्परता और दृढ़तापूर्वक आरंभ करना० जैसे–युद्ध ठानना। २. कोई काम करने के लिए दृढ़ निश्चय या संकल्प करना। ३. पक्का करना। ठहराना।
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ठाना  : स०=ठानना। स० [?] नष्ट करना उदहारण–लाज की और कहा कहि केशव जो सुनिये गुण ते सब ठाए।–केशव। पुं=थाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठाम  : पुं० [सं० धामन् या स्थान] १. जगह। स्थान २. ठवन। मुद्रा। ३. शरीर की गठन। अँगलेट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठाँय  : स्त्री० [अनु०] बंदूक के चलने या ऐसी ही और कोई क्रिया होने का शब्द। अव्य-निकट। पास। समीप।
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ठायँ  : स्त्री० [अनु०] बंदूक आदि के चलने से होनेवाला शब्द। ठाँय। स्त्री०=ठाँव।
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ठाँय-ठाँय  : स्त्री० [अनु०] १. लगातार बंदूक से गोलियाँ छोड़ते चलने से होनेवाला शब्द। २. ऐसा झगड़ा या टंटा जिसमें व्यर्थ की बहुत सी बक-बक हो।
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ठार  : वि० [सं० स्थावर] गहरी सरदी। २. पाला। हिम।
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ठाल  : वि०=ठाला। पुं०=ठाला।
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ठाला  : पुं० [हिं० निठल्ला] [स्त्री० ठाली] १. (व्यक्ति) जो कुछ भी काम-धंधा न करता हो निठल्ला। मुहावरा–ठाला बताना या ठाली देना=(वास्तविक काम न करके) व्यर्थ इधर-उधर की बातें करना या बताना। पुं० १. व्यापार की ऐसी स्थिति जिसमें विशेष बिक्री-बट्टा न होता हो। जैसे–आज तो बाजार में ठाला है। २. किसी बात या वस्तु का होनेवाला प्रत्यक्ष और विशेष अभाव। जैसे–रुपए-पैसे या बुद्धि का ठाला।
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ठालिनी  : स्त्री० [सं०] करधनी।
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ठाँव  : पुं० [सं० स्थान, प्रा० ठान] १. स्थान। जगह। २. ठिकाना।
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ठावँ  : पुं०=ठाँव।
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ठावण  : पुं० [सं० स्थान] १. स्थान। जगह। २. ठिकाना।
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ठावना  : स०=ठानना।
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ठाँसना  : अ० [हिं० खाँसना का अनु०] ठन-ठन शब्द करते हुए खाँसना। स०–ठूसना।
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ठासा  : पुं० [हिं० ठाँसना] लोहारों का एक उपकरण जिससे वे तंग जगह में लोटे की कोर निकालते और उभारते हैं। पुं०=ठाह (संगीत का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठाह  : स्त्री० [हिं० स्थान] १. जगह। स्थान। २. ठिकाना। ३. थाह। पता। उदाहरण–बैठी रही अभिमान सौ ठाह ठौर नहीं पायौं।–सूर। स्त्री० [हिं० ठाहना] १. दृढ़ निश्चय। संकल्प। २. हठ। स्त्री० [हिं० ठहरना या ठहराव] संगीत में, राग-रागिनी गाने या वाद्य बजाने का वह ढंग या प्रकार जिसमें गाने-बजाने में अपेक्षया अधिक समय लगाया जाता है। विलंबित। ‘द्रुत’ का विपर्याय।
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ठाँह ( ी)  : स्त्री०=ठाँव।
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ठाहना  : स०=ठानना।
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ठाहर  : पुं०=ठहर (ठौर)।
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ठाहरमा  : अ०=ठहरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठाहरु  : पुं०=ठाहर (ठौर)।
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ठाहीं  : स्त्री=ठाँव (जगह)।
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ठिक  : स्त्री० [हिं० टिकिया] धातु की चद्दर का कटा हुआ छोटा टुकड़ा जो जोड़ आदि लगाने के काम आता है। थिगली। चकती। वि०–ठीक। स्त्री०–स्थिरता।
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ठिक-ठान  : पुं०=ठौर-ठिकाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ठिकठैन  : वि० [हिं० ठीक+ठयना] १. ठीक। २. सुन्दर। स्त्री० १. ठीक या उत्तम व्यवस्था। २. आयोजन।
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ठिकड़ा  : पुं० [स्त्री० ठिकड़ी]=ठीकरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठिकना  : अ० १.=टिकना। २. किसी स्थान पर जमकर बैठना। (दलाल) ३. ठिठकना।
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ठिकरा  : पुं० [स्त्री० ठिकरी]=ठीकरा।
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ठिकरौर  : वि० [हिं० ठीकरा] ठीकरों से युक्त। पुं० ऐसा स्थान जहाँ बहुत से ठीकरे पड़े हुए हों।
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ठिकाई  : स्त्री० [हिं० ठीक] १. ठीक होने की अवस्था या भाव। २. पाल के यथा स्थान जमकर ठीक बैठने की अवस्था या भाव। (लश०)।
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ठिकान  : स्त्री० [हिं० ठिकना] ठिकाने की अवस्था, क्रिया या भाव। पुं०=ठिकाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठिकाना  : पुं० [हिं० टिकान या टिथान] १. टिकने अर्थात् ठहरने का उपयुक्त स्थान। २. वह जगह जहाँ कुछ या कोई टिक, ठहर या रह सके। जैसे–पहले तो इनके लिए कोई ठिकाना ढूँढ़ना चाहिए। ३. अवलंब, आश्रय सहारे आदि का उपयुक्त या काम-चलाऊ द्वार, साधन या स्थान। जैसे–कोई नौकरी मिले तो यहाँ रहने का ठिकाना हो जाय। क्रि० प्र०–निकलना।–मिलना।–लगना। ४. टिकने, ठहरने या रहने की नियत, निश्चित या स्थिर स्थान। जैसे–पहले इनका पता-ठिकाना तो पूछ लो। ५. किसी चीज या बात का वह उचित या उपयुक्त स्थान जहाँ उसे रहना या होना चाहिए। क्रि० प्र०–मिलना।–लगना। मुहावरा–(किसी चीज बात या व्यक्ति) ठिकाने आना=जहाँ रहना या होना चाहिए, वहाँ आना या पहुँचना। जैसे–(क) जब ठोकर खाओगे, तब अक्ल ठिकाने आवेगी अर्थात् जैसी होनी चाहिए, वैसी हो जायगी। (ख) इतना समझाने पर अब आप ठिकाने आये हैं, अर्थात् मूल तत्त्व या वास्तविक तथ्य की बात अथवा विचार तक पहुँचे हैं। (कोई काम या बात) ठिकाने पहुँचाना या लगाना=उचित रूप से पूरा या समाप्त करना। जैसे–जो काम हाथ में लिया है, उसे पहले ठिकाने पहुँचाओ (या लगाओ) (कोई काम या उसके लिए किया जानेवाला परिश्रम) ठिकाने लगना-सफल या सार्थक होना। जैसे–आपका काम हो जाय तो सारी मेहनत ठिकाने लगे। (कोई चीज) ठिकाने लगाना=(क) उपयोग या व्यवहार करके सफल या सार्थक करना। जैसे–जितना भोजन बनाकर रखा है, वह सब ठिकाने लगाओं (ख) दुरुपयोग करके नष्ट या समाप्त करना। (व्यंग्य) जैसे–कुछ ही दिनों में उसने बाप-दादा की सारी कमाई ठिकाने लगा दी। (किसी व्यक्ति को) ठिकाने पहुँचाना या लगाना=किसी प्रकार मार डालना या समाप्त कर देना। जैसे–महीनों से जो लोग उसके पीछे पड़े थे, उन्होनें उसे ठिकाने लगाया अर्थात् मार डाला। पद–ठिकाने की बात=ऐसी बात जो हर तरह से उचित या न्याय संगत हो। ६. राजा की ओर से सरदार को मिली हुई जागीर। (राजस्थान) ७. किसी कथन या बात की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता जैसे–इनकी बातों का कोई ठिकाना नहीं। ८. अस्तित्व, आधार आदि की दृढ़ता या पुष्टता। जैसे–इनके जीवन का अब कोई ठिकाना नहीं। ९. चरम सीमा या आखिरी हद अंत। पार। जैसे–उसकी नींचता का कोई ठिकाना नहीं। स० १. टिकने, ठहरने या स्थिर होने में प्रवृत्त करना अथवा सहायक होना। २. गुप्त रूप से या छिपाकर दबा रखना या ले लेना। हथियाना। (दलाल) जैसे–एक रुपया उसने धीरे से उठाकर कमर (या जेब) में ठिका लिया। ३. किसी स्त्री को गुप्त रूप से उपपत्नी बनाकर रख लेना। (बाजारू) जैसे–उसने दो औरतें ठिकाई हुई हैं।
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ठिकानेदार  : पुं० [हिं० ठिकाना+फा० दार] किसी ठिकाने या जागीर का स्वामी (राजस्थान)।
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ठिकियाना  : स० [हिं० ठीक+इयाना(प्रत्यय)] ठीक करना।
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ठिंगना  : वि० [?] [स्त्री० ठिगनीं] (व्यक्ति) जो ऊँचाई में सामान्य स्तर से अधिक कम हो। छोटे कदवाला।
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ठिठक  : स्त्री० [हिं० ठिठकना] १. ठिठकने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. संकोच।
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ठिठकना  : अ० [सं० स्थित+करण] १. आशंका, भय आदि की कोई बात देखकर चलते-चलते एक बारगी ठहर या रुक जाना। संकोच-वश या सहमकर आगे बढ़ने या कोई काम करने से रुकना। जैसे–शेर की गन्ध आते ही घोड़ा ठिठक गया। २. चकित या स्तम्भित होकर रुकना। ठक रह जाना।
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ठिठकान  : स्त्री०=ठिठक।
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ठिठरना  : अ=ठिठुरना।
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ठिठुरना  : अ० [सं० स्थित या ठार से अनु०] शरीर अथवा उसके किसी अंग का बहुत अधिक सरदी लगने के कारण काँपना या स्तब्ध होना। जैसे–सरदी से पैर या हाथ ठिठुरना।
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ठिठोली  : स्त्री०=ठठोली।
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ठिनकना  : अ० [अनु०] १. बच्चों का रह-रहकर रोने का सा शब्द निकालना। ठुनकना २. नखरा दिखाते हुए मचलना। ३. ठनकना। जैसे–तबला ठिनकना।
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ठिया  : पुं०=ठीहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठिर  : स्त्री० [सं० स्थिर वा स्तब्ध] १. ठिठरने (ठिठुरने) की अवस्था, क्रिया या भाव। २. शीत। सरदी। पाला।
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ठिरना  : अ० १ =ठिठुरना। २. ठरना।
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ठिलना  : अ० [हिं० ठेलना का अ० रूप] १. किसी चीज का ठेला जाना। ढकेले जाने पर किसी दिशा में आगे की ओर बढ़ना। जैसे–मोटर या गाड़ी का ठिलना। २. दबाव पड़ने या आघात होने पर किसी चीज का किसी दूसरी चीज में धँसना।
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ठिलाठिल  : स्त्री० =ठेलमठेल।
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ठिलिया  : स्त्री० [हिं० ‘ठिल्ल’ का स्त्री० अल्पा] पानी रखने की मिट्टी की गगरी।
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ठिलुआ  : वि० [हिं० ठिलना] जो ठिलता हो अथवा ठेला जाता हो। वि०=निठल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठिल्ला  : पुं० [सं० स्थायी प्रा० ठाली=हाँड़ी] मिट्टी की बड़ी ठिलिया या गगरी।
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ठिल्ली  : स्त्री०=ठिलिया।
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ठिल्ही  : स्त्री=ठिलिया।
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ठिहार  : वि० [सं० स्थिर] १. विश्वास करने योग्य। विश्वसनीय। २. ठीक। ३. निश्चित।
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ठिहारी  : स्त्री० [हिं० ठिहार] १. ठहराव। स्थिति। २. निश्चय। ३. विश्वास।
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ठीक  : वि० [हिं० ठिकाना] १. जो अपने ठिकाने अर्थात् उचित या उपयुक्त स्थान पर हो। जो मुनासिब जगह पर हो। जैसे–यह तस्वीर यहीं ठीक रहेगी। २. जो अपने स्थान पर अच्छी या पूरी तरह से आता, बैठता या लगता हो। जैसे–यह कुरता तुम्हें ठीक होगा। ३. जो क्रम, परम्परा, व्यवस्था आदि के विचार से वैसा ही हो जैसा होना चाहिए। जैसे–अलमारी में सब चीजें फिर से ठीक करके रखो। ४. जो नियम, नीति, प्रकृति, न्याय आदि की दृष्टि से उचित, उपयुक्त या संगत हो। जैसा होता हो या होना चाहिए, बिलकुल वैसा। जैसे–ठीक रास्ता, ठीक व्यवहार। ५. जो तर्क, वास्तविकता आदि के विचार से यथातथ्य या यथार्थ हो। जो मिथ्या न हो। जैसे–आखिर आप की ही बात ठीक निकली। ६. जो बहुत कुछ या हर तरह से अनुकूल अथवा सुभीते का हो। जैसे–ठहरने की लिए यही जगह ठीक होगी। ७. जिसमें किसी प्रकार की अशुद्धि, चूक या भूल न हो। जैसे–(क) इन प्रश्नों के हमें ठीक उत्तर नहीं मिलने चाहिएँ। (ख) यह हिसाब गलत है, इसे ठीक करो। ८. जिसमें कोई कोर, कसर खराबी दोष या विकार न हो। जैसे–(क) आज तरकारी ठीक बनी है। (ख) मशीन ठीक है। ९. जो अच्छी, प्रसम या स्वस्थ दशा में हो। जैसे–आज-कल उनकी तबीयत बिलकुल ठीक है। १॰. जो हर समय से वैसा ही हो, जैसा होता है या होना चाहिए। जैसे–यह घी (या तेल) ठीक नहीं है। ११. जो कुछ भी आगे-पीछे इधर-उधर अथवा घट-बढ़कर न हो। जैसे–(क) गाड़ी ठीक चार बजे जाती है। (ख) यह कपड़ा ठीक वैसा ही है जैसा तुम चाहते थे। १२. नियत, निश्चित या स्थिर किया हुआ। ठहराया या पक्का किया हुआ। जैसे–(क) वे लड़की का ब्याह ठीक करने गये हैं। १३. (व्यक्ति) जो हर तरह से नीतिमान, न्यायज्ञ, प्रामाणिक, विश्वसनीय या सदगुणी हो। जैसे–हमें यह आदमी ठीक नहीं मालूम होता। १४. (व्यक्ति) जिसका आचरण या व्यवहार वैसा ही हो, जैसा होना चाहिए। जो कोई अनुचित, निंदनीय या प्रतिकूल काम न करता हो। जैसे–इधर अनेक प्रकार के कष्ट भोगकर वह बिलकुल ठीक हो गया है। पुं० ठीक अर्थात् निश्चित या स्थिर होने की अवस्था या भाव। जैसे–उनके आने का कोई ठीक नहीं है। क्रि० वि० १. उचित प्रकार या रीति से। जैसे–घड़ी ठीक चल रही है। २. अवधि, सीमा आदि के विचार से नियत समय पर। जैसे–ठीक साल भर बाद वह वापस आया। ३. ठहरे हुए या नियत होने की अवस्था या भाव। ठहराव। जैसे–पहले रहने का तो ठीक हो जाय, तब और बातें होती रहेंगी। ४. अंकों, संख्याओं आदि का जोड़। योग। मीजान। जैसे–इन रकमों का ठीक लगाओ। क्रि० प्र०–देना।–निकालना।–लगाना।
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ठीक-ठीक  : वि० [हिं० ठीक+अनु० ठाक] जो बिलकुल ठीक अवस्था में हो। पुं० १. ठीक होने की अवस्था या भाव। जैसे–गाँव पर सब ठीक-ठाक है। २. निश्चय।
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ठीकरा  : पुं०=ठीकरा।
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ठीकरा  : पुं० [हिं० टुकड़ा] [स्त्री० अल्पा० ठीकरी] १. मिट्टी के टूटे-फूटे बरतन का कोई बड़ा टुकड़ा। मुहावरा–(किसी के सिर) ठीकरा फूटना=व्यर्थ किसी बात के लिए कलंक लगना। ठीकरा समझना=तुच्छ, निरर्थक या व्यर्थ समझना। २. प्राचीन काल के मिट्टी के बरतन का वह टुकड़ा जो कहीं से खुदाई में निकलता है और जो इतिहास तथा पुरातत्व की दृष्टि से महत्व का होता है (पाँट-शर्ड) ३. भीख मांगने का मिट्टी का बरतन। भिक्षापात्र। ४. तुच्च वस्तु। ५. रुपया। (साधु)।
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ठीकरी  : स्त्री० [हिं० ठीकरा का अल्पा० स्त्री०] १. छोटा ठीकरा। २. तुच्छ या निकम्मी वस्तु। ३. चिलम के ऊपर रखा जानेवाला मिट्टी का तवा। ४. स्त्रियों की योनि का उभरा हुआ तल। उपस्थ।
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ठीका  : पुं० [हिं० ठीक] १. आपस में ठीक करके तै की हुई बात जिसमें कोई काम करने-कराने और उसका पारिश्रमिक (वेतन से भिन्न) लेन-देन का निश्चय हुआ हो। जैसे–पुल या मकान बनाने का ठीका। (काँन्ट्रक्ट) २. कुछ काल के लिए कोई सम्पत्ति या किसी व्यापार का अधिकार इस शर्त पर किसी को देना या किसी से लेना कि उसकी आय, देख-रेख आदि की व्यवस्था ठीक तरह से होती रहेगी। जैसे–अफीम, गाँजे या शराब का ठीका। ३. अफीम, गाँजे, शराब आदि की दूकान जो प्रायः ठीके पर ली जाती है। ४. उत्तरदायित्व। जिम्मेदारी। जैसे–हमने तुम्हें नौकरी दिलाने का ठीका नहीं लिया है।
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ठीका-पत्र  : पुं० [हिं० ठीका+सं० पत्र] वह पत्र या लेख्य जिसमें किसी के ठीके के संबंध की ऐसी बातें या शर्ते लिखी हों जिनका पालन दोनों पक्षों के लिए आवश्यक हो। संविदा पत्र। (कांस्ट्रैक्ट डीड)।
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ठीका-भेंट  : स्त्री० [हिं० ठीक+सं० भेंट] वह धन जो ठीका लेनेवाला उस व्यक्ति को भेंट स्वरूप देता है जिससे वह कोई ठीका लेता है।
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ठीकुरी  : स्त्री=ठीकरी।
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ठीकेदार  : पुं० [हिं० ठीका+फा० दार] वह व्यक्ति जो ठीके पर दूसरों के काम करता या करवाता हो। ठीका लेनेवाला व्यक्ति। (कन्ट्रैक्टर)
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ठीठा  : पुं०=ठेंठा।
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ठीठी  : स्त्री० [अनु०] अशिष्टतापूर्वक और तुच्छ भाव से ठी-ठी शब्द करते हुए हँसने का शब्द। जैसे–हरदम हाहा ठीठी करनी ठीक नहीं।
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ठीलना  : स०=ठेलना।
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ठीवन  : पुं० [सं० ष्ठीवन] १. थूक। २. खखार। ३. गफ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ठीहँ  : स्त्री० [अनु०] घोड़े के हिनहिनाने का शब्द।
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ठीहा  : पुं० [ठाह से अनु] १. लकड़ी का वह गोलाकार या चौकोर छोटा टुकड़ा जो जमीन में गड़ा या धँसा रहता है तथा जिस पर रखकर चरी आदि काटी जाती है। २. बढ़इयों, लोहारों आदि का वह कुंदा जिस पर लकड़ी या लोहा रखकर छीलते या पीटते हैं। ३. किसी चीज को लुढ़कने या हिलने-डोलने से बचाने के लिए उसके इधर-उधर या नीचे रखा जानेवाला ईंट, पत्थर, लकड़ी आदि का टुकड़ा। जैसे–गाड़ी के पहिए के नीचे रखा जानेवाला ठीहा। ४. लकड़ी का वह ढाँचा जिसमें फँसाकर बढ़ई लकड़ी चीरते हैं। ५. वह कुछ ऊँचा स्थान जिस पर बैठकर छोटे दूकानदार सौदा बेचते हैं। ६. गाँव, बगीचे आदि की सीमा या हद जो पहले पत्थर या लट्ठा गाड़कर सूचित की जाती थी। ७. उक्त प्रकार का गाड़ा हुआ पत्थर या लट्ठा। ८.चाँड़। थूनी।
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ठुक  : स्त्री० [हिं० ठुकना] १. ठुकने की अवस्था, क्रिया या भाव। ठोक। २. रुपये-पैसे का व्यर्थ में होनेवाला व्यय। जैसे–उन्हें दस रुपये की ठुक लग गई।
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ठुकना  : अ० [हिं० ठोकना का अ०] १. ठोका जाना० २. आघात या प्रहार करना। ३. आर्थिक हानि या व्यर्थ व्यय होना। जैसे–व्यर्थ सौ रुपये ठुके। ४. जबरदस्ती आगे बढ़ना। मुहावरा–ठुक-ठुक कर लड़ना=जबरदस्ती लड़ना। उदाहरण–दिन-दिन दैन उरहनौ आवै ठुकि-ठुकि करत लरैया ।-सूर। ५. परास्त होना।
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ठुकराना  : स० [हिं० ठोकर] १. पैर, विशेषतः पैर के पंजे से ठोकर लगाना। २. (व्यक्ति आदि को) उपेक्षा या तिरस्कारपूर्वक दूर करना या हटाना। ३. (प्रस्ताव सुझाव आदि) अवज्ञा या उपेक्षापूर्वक न मानना।
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ठुकवाना  : स० [हिं० ठोकना का प्रे० रूप] १. ठोकने का काम दूसरे से कराना। २. मार खिलवाना। पिटवाना। ३. स्त्री का पर-पुरुष से संभोग कराना (बाजारू)।
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ठुंड  : पुं०=ठुठ।
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ठुड्डी  : स्त्री० [हिं० ठड़ा=खड़ा] किसी अन्न का वह भूना हुआ दाना जो फूटकर खिला न हो। ठुर्री। जैसे–कमलगट्टे मक्के या मखाने की ठुड्डी। स्त्री०=ठोढ़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठुन-ठुन  : पुं० [अनु०] १. धातु के बरतन या टुकड़ों के बजने का शब्द। २. बच्चों आदि के रुक-रुककर और ठुन-ठुन करते हुए रोने का शब्द। जैसे–यह लड़का हरदम ठुन-ठुन लगाये रहता है, अर्थात् प्रायः रोता रहता है।
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ठुनकना  : स० [ठुन से अनु०] १. किसी प्रकार ठुन उत्पन्न करना। २. ठोकना। [हिं० ठिनकना] बच्चों का अथवा बच्चों की तरह रुक-रुककर रोना।
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ठुनका  : पुं० [हिं० ठुनकाना] तर्जनी या मध्यमा (उँगली) की नोक से किया जानेवाला वेगपूर्वक आघात।
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ठुनकाना  : स० [ठुन-ठुन से अनु०] १. ठुन-ठुन शब्द उत्पन्न करना। २. तर्जनी या मध्यमा की नोक से किसी चीज पर इस प्रकार आघात करना कि ठुन शब्द उत्पन्न हो। स० [हिं० ठुनकना] ठुनकने में प्रवृत्त करना० ऐसा काम करना जिससे कोई ठुनके। ठिनकाना।
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ठुमक  : स्त्री० [हिं० ठुमकना] १. ठुमकने की क्रिया या भाव। २. बच्चों युवती स्त्रियों की ऐसी आकर्षक और लुभावनी चाल जिसमें वे कुछ ठिठकती या रुकती हुई चलती हैं। ठसक-भरी चाल।
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ठुमकना  : अ० [अनु०] १. बच्चे का उमंग में आकर धीरे-धीरे पैर पटकने तथा इठलाते हुए चलना। उदाहरण–ठुमुक चलत रामचन्द्र बाजत पैजनिया।–तुलसी। २. नाच में, इस प्रकार धीरे-धीरे पैर पटकते हुए आगे बढ़ना कि पैर के घुँघरु बजते रहे।
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ठुमका  : पुं० [अनु०] [स्त्री० ठुमकी] धीरे से किया जाने वाला आघात या दिया जानेवाला झटका। जैसे–पतंग उड़ाने के समय उसे ठुमका देना। क्रि० प्र०–देना।–लगाना। वि० [स्त्री० ठुमकी] दे० ‘ठिगना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठुमकारना  : स० [हिं० ठुमका](पतंग की डोरी को) ठुमका देना।
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ठुमकी  : स्त्री० [देश०] १. ठुमककर चलने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. धीरे से किया जानेवाला आघात। थपकी। ३. दे० ठुमका। ४. एक प्रकार की छोटी खरी पूरी (पकवान)।
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ठुमरी  : स्त्री० [अनु०] १. एक प्रकार का चलता गाना जिसमें एक स्थायी और एक अंतरा होता है। विशेष–ठुमरी कई हलके रागों और तरह-तरह की धुनों में गाई जाती है। इसका विकास लखनऊ के नवाब वाजिदअली शाह के दरबार में हुआ था। २. उड़ती खबर। अफवाह। क्रि० प्र०–उड़ना।
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ठुरियाना  : अ०=ठिठुरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठुर्री  : स्त्री०=ठुड्डी।
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ठुसकना  : अ० [अनु०] १. ठुस-ठुस शब्द करते हुए रोना। ठुन-ठुन करना। २. ठुस शब्द करते हुए पादना।
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ठुसकी  : स्त्री० [अनु०] १. ठुस शब्द करते हुए पादने की क्रिया। २. हलका पाद जिसमें ठुस शब्द हो।
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ठुसना  : अ० [हिं० ठूसना] १. किसी चीज का किसी आधान में ठूस-ठूसकर भरा जाना। २. अन्न या भोजन का पेट भर कर खाया जाना। (उपेक्षा)।
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ठुसवाना  : स० [हिं० ठूसना का प्रे०] ठूसने का काम किसी और से कराना।
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ठुसाना  : स० [हिं० ठूसना] १. किसी को ठूसने में प्रवृत्त करना। २. भोजन कराना। खिलाना। (उपेक्षासूचक)।
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ठूँग  : स्त्री०=ठोंग।
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ठूँगना  : स०=टूँगना।
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ठूँगा  : पुं०=ठोंगा।
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ठूँठ  : पुं० [सं० स्थाणु] १. वह वृक्ष जिसका धड़ ही बच रहा हो तथा जिसकी टहनियाँ टूट गई हों। २. कटा हुआ हाथ। टूँट। ठंड। ३. कटे हुए हाथवाला व्यक्ति। ४. ज्वार, बाजरे ईख आदि की फसलों में लगनेवाला एक तरह का कीड़ा।
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ठूँठा  : वि० [हिं० ठूँठ] [स्त्री० ठूँठी] १. (पेड़) जो शाखाओं से रहित हो गया हो। २. (व्यक्ति) जिसका हाथ कटा हुआ हो। लुंज। ३. खाली। रिक्त। ४. थोथा। निस्सार।
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ठूँठिया  : वि० [हिं० ठूँठ] १. लूला-लँगड़ा। २. नपुंसक। हिजड़ा।
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ठूठी  : स्त्री० [हिं० ठूँठ] फसल काट लिए जाने के बाद पौधे की जड़ के पास रह जानेवाले ज्वार, बाजरे, अरहर आदि के ठंडल। खूँटी।
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ठूनू  : पुं० [देश०] पटवों की वह टेढी कील जिस पर वे लोग आदि अटकाकर गूँथते हैं।
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ठूँसना  : स०=ठूसना।
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ठूसना  : स० [हिं० ठस] १. खूब अच्छी तरह कसकर दबते हुए कोई चीज किसी अवकाश या आधान में भरना। २. जबरदस्ती कोई चीज किसी में डालना या भरना। ३. खूब कसकर और बुरी तरह से खाना या पेट भरना। (व्यंग्य)
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ठूँसा  : पुं० [हिं० ठूँसा से अनु] घूँसा। पुं०=ठोसा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठेंक  : स्त्री० [हिं० ठेकना] १. ठेकने की क्रिया या भाव। २. किसी चीज को ठेकने या उसके नीचे सहारा देने के लिए लगाई जानेवाली चीज। टेक। जैसे–मटके या हंडे के नीचे टेक लगाना० ३. चाँड। टेक। ४. किसी वस्तु को कसने के लिए उसके बीच में ठोंकी जानेवाली चीज। पच्चर। ५. पाग का तल या पेंदा। टट्टियों आदि से घिरा हुआ वह स्थान जिसमें अनाज भरकर रखा जाता है। ६. अनाज रखने के लिए टट्टियों आदि से घेरकर बनाया हुआ स्थान।
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ठेकना  : स० [हिं० ठेक] १. किसी चीज पर शरीर का बोझ डालते या रखते हुए उसका सहारा लेना। २. किसी चीज को गिरने से रोकने के लिए उसके नीचे टेक या सहारा लगाना। स० [अनु०] छापे या टप्पे से अंकित करना।
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ठेकवा बाँस  : पुं० [देश०] बंगाल, आसाम आदि प्रदेशों में होनेवाला एक प्रकार का बाँस।
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ठेका  : पुं० [हिं० ठेकना] १. ठेकने अर्थात् टिकने-टिकाने या ठहरने-ठहराने की जगह। २. वह वस्तु जिसकी टेक लगाई जाय। ठेकनेवाली वस्तु। अड्डा। ३. हलका आघात। थपेड़ा। जैसे–लहरों का ठेका। ४. तबले के साथ का वह दूसरा बाजा जो बाई ओर रहता और बाएँ हाथ से बजाया जाता है। डुग्गी। ५. तबला या ढोल बजाने की वह रीति जिसमें पूरे बोल न निकाले जायँ, केवल ताल दिया जाय। यह प्रायः डुग्गी या बाएँ पर बजाया जाता है। क्रि० प्र०–देना।–बजाना। मुहावरा–घोड़े का ठेका भरना=घोडे का रह-रहकर जमीन पर टाप या पैर पटकना। ६. संगीत में कीवाली नाम का ताल। पुं० दे० ‘ठीका’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठेकाई  : स्त्री० [हिं० ठेकना] ठेकना या ठेकाने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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ठेकाना  : स० [हिं० ठेकना का प्रे० रूप] किसी चीज को ठिकने या ठेकने में प्रवृत्त करना। वि० दे० ‘ठिकाना’। पुं०=ठिकाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठेकी  : स्त्री० [हिं० ठेक] १. टेक। सहारा। २. चाँड़। थूनी।
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ठेकेदार  : पुं०=ठीकेदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठेगड़ी  : पुं० [देश०] कुत्ता। (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ठेंगना  : वि०=ठिंगना। नाटे कद का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठेगना  : स० १.=ठेकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) २.=ठाकना (मना करना)।
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ठेगनी  : स्त्री०=टेकनी।
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ठेंगा  : पुं० [हिं० हेंठ+अंग या अँगूठा] १. किसी को उसकी विफलता पर चिढ़ाने या लज्जित करने के लिए दिखाया जानेवाला दाहिना हाथ का अँगूठा। क्रि० प्र०–दिखाना। पद–ठेंगे से=हमारी बला से। हमें कुछ चिन्ता या परवाह नहीं हैं। (बाजारू)। मुहावरा–ठेंगा बजना=लज्जाजनक विफलता होना। २. लिगेंद्रिय (अशिष्ट) ३. डंडा। सोंटा। उदाहरण–जम का ठेंगा बुरा है ओहु नहि सहिआ जाई।-कबीर। मुहावरा–ठेंगा बजाना=लाठियों से मार-पीट होना। ४. मध्ययुग में, बिक्री के माल पर लिया जानेवाला महसूल। चुंगी।
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ठेंगी  : स्त्री०=ठेंठी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठेंगुर  : पुं० [हिं० ठेंगा=सोंटा] वह डंडा या लकड़ी का टुकड़ा जो उच्छृंखल पशुओं के गले में इसलिए बाँधा जाता है कि वे भाग कर दूर न जाने पावें।
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ठेघना  : स=ठेगना (ठेकना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठेघनी  : स्त्री=ठेगनी (टेकनी)।
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ठेंघा  : पुं०=टेक।
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ठेघा  : पुं=ठेका (टेक)।
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ठेघुना  : पुं=ठेहुना (घुटना)।
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ठेंठ  : वि०=ठेठ।
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ठेठ  : वि० [देश०] १. जो अपने विशुद्ध मूलरूप में हो। जिसमें कृत्रिमता, बनावट या किसी तरह की मिलावट न हो। प्ररूपी। (टिपिकल्) जैसे–ठेठ बनारसी। (=विशिष्ट रूप से बनारस का ही; अर्थात् और कहीं का नहीं) २. जिसमें किसी प्रकार की भूल, संदेह आदि के लिए अवकाश न हो। जैसे–उन्हें ठेठ घर तक पहुँचा आओ। पुं० आदि। आरंभ। शुरू। जैसे–अब सारा काम ठेठ से करना चाहिए।
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ठेठर  : पुं०=थियटर।
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ठेंठा  : पुं० [हिं० ठूँठ या ठूँठी] सूखा डंठल। उदाहरण–राजो एक मजूर से बैलों के लिए जोन्हरी का ठेंठा कटवा रही थी।–प्रसाद।
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ठेंठी  : स्त्री० [देश०] १. कान की मैल। २. वह कपड़ा या रुई जो कान के भीतरी छेद या मुँह पर इसलिए लगाई जाती है कि बाहर का जोर का शब्द भी न सुनाई पड़े। ३. बोतल, शीशी, आदि का मुँह बंद करने के लिए उसके ऊपर लगाया जानेवाला काग या डाट। क्रि० प्र०–लगाना।
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ठेप  : स्त्री० [देश०] सोने, चाँदी का ऐसा टुकड़ा जो अंटी में आ सके। (सुनार) क्रि० प्र०–चढ़ाना।–लगाना। पुं० [सं० दीप] दीआ। दीपक।
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ठेपी  : स्त्री० १.=ठेंठी। २. छोटा ढक्कन।
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ठेल  : स्त्री० [हिं० ठेलना] ठेलने की क्रिया या भाव।
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ठेल-ठाल  : स्त्री०=ठेल।
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ठेलना  : स० [हिं० टालना] १. किसी भारी चीज के पीछे बल लगाकर उसे आगे खिसकाना या बढ़ाना। मुहावरा–(कोई काम) ठेले चलना=जैसे–तैसे काम चलाये चलना। किसी प्रकार निबाहते चलना। २. अपना भार या दायित्व अपने ऊपर से हटाते हुए किसी दूसरे की ओर बढ़ाना। अ० बल-प्रयोग या जबरदस्ती करना। उदाहरण–ताही पै ठगावै ठेलि जाही को ठगतु है।–केशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ठेलम-ठेल  : स्त्री० [हिं० ठेलना से] बार-बार बहुत से लोगों का आपस में एक दूसरे को ठेलने या धक्के देने की क्रिया या भाव। क्रि० वि० एक दूसरे को ठेलते हुए० ।
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ठेला  : पुं० [हिं० ठेलना] १. ठेलने की क्रिया या भाव। २. माल ढोने की एक तरह की दो या तीन पहियोंवाली छोटी गाड़ी जिसे आदमी ठेल या ढकेलकर चलाते हैं। ३. उक्त प्रकार की चार पहियोंवाली छोटी गाड़ी जो केवल रेल की पटरियों पर चलती हैं। ट्रॉली। ४. छिछली नदियों में चलनेवाली एक तरह की कम गहरी नाव। ५. धक्का। ६. भीड़-भाड़।
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ठेलाठेल  : स्त्री०=ठेलमठेल।
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ठेवका  : पुं० [हिं० ठेवना या सं० छापक] वह स्थान जहाँ मोट का पानी खेत सींचते समय गिराया जाता है। चवना।
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ठेवकी  : स्त्री०=ठेक।
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ठेस  : स्त्री० [देश०] १. ऐसी हलका आघात जिससे किसी चीज या व्यक्ति की थोड़ी बहुत या सामान्य हानि हो। जैसे–ठेस लगने से शीशा टूट गया। २. किसी प्रकार के अपकृत्य के फलस्वरूप होनेवाला कुछ या सामान्य मानसिक कष्ट। जैसे–आपके व्यवहार से मेरे मन को ठेस लगी है। ३. किसी तत्त्व पर होनेवाला आघात। जैसे–किसी की प्रतिष्ठा या मान को ठेस लगना। क्रि० प्र०–पहुँचना।–पहुँचाना।–लगना।–लगाना। ४. आश्रय। सहारा। ढासना। जैसे–तकिये पर ठेस लगाकर बैठना।
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ठेसना  : अ० [हिं० ठेस] आश्रय या सहारा लेना। ठेस लगाकर बैठना। स०=ठूसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठेसमठेस  : क्रि० वि० [हिं० ठेस] सब पाल एक साथ खोले हुए जहाज का चलना) (लश०)।
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ठेहरी  : स्त्री० [देश०] जमीन में गड़ा हुआ लकड़ी का वह टुकडा जिस पर दरवाजे (पुरानी चाल के एक प्रकार के दरवाजे) की चूल घूमती है।
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ठेहुका  : पुं० [हिं० ठेक] वह पशु जिसके चलते समय पिछले दोनों पैरों के घुटने आपस में टकराते हों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठेहुना  : पुं० [सं० अष्ठीवान्] घुटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठेहुनी  : स्त्री० [हिं० ठेहुना] कोहनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठैकर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का खट्टा फल जिससे पीला रंग बनाया जाता है
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ठैन  : स्त्री०=ठवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठैयाँ  : स्त्री=ठाँव।
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ठैरना  : अ=ठहरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठैराई  : स्त्री०=ठहराई।
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ठैराना  : स=ठहराना।
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ठैल-पैल  : स्त्री०=ठेलपेल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठो  : अव्य० [सं० स्था] संख्यासूचक शब्दों के साथ लगने वाला एक अव्यय जो उनकी इकाइयों या मान पर जोर देता है। जैसे–एक ठो, दो ठो, दस ठो, बीस ठो आदि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठोंक  : स्त्री०=ठोक।
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ठोक  : स्त्री० [हिं० ठोकना] १. ठोकने की क्रिया या भाव। आघात। प्रहार। २. वह लकड़ी जिससे ठोक लगाकर दरी की बुनावट ठस की जाती है। ३. अन्न के दानों, फलों आदि पर कीड़े-मकोड़ों के दंश या पक्षियों की चोंच से लगा हुआ आघात या उसका चिन्ह।
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ठोकचा  : पुं० [देश०] आम की गुठली या ऊपरी कड़। आवरण। खोल।
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ठोंकना  : स=ठोकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठोकना  : स० [अनु० ठक ठक से] १. किसी चीज को किसी दूसरी चीज के अन्दर गड़ाने, जमाने धंसाने बैठाने आदि के लिए उसके पिछले भाग पर हथौड़े आदि से जोर से आघात करना। जैसे–जमीन में खूँटा या दीवार में कील ठोकना। २. किसी छेद या दरज में उक्त प्रकार का आघात करते हुए कोई चीज धंसाना या बैठाना। जैसे–चूल में पच्चर ठोकना। ३. किसी चीज के विभिन्न संयोजक अंगों को यथा स्थान बैठाने के लिए उन पर किसी प्रकार आघात करना। जैसे–(क) खाट या चौखट ठोकना। (ख) किसी के पैरों में बेड़ियाँ या हाथों में हथकड़ियाँ ठोकना। ४. कोई विशिष्ट प्रकार का कार्य सम्पादित करने के लिए किसी चीज पर ऐसा आघात करना कि वह कुछ दबे भी और उसमें से कुछ शब्द भी निकले। जैसे–पहलवानों का ताल ठोकना। (ग) पकाने के लिए बाटी या रोटी ठोकना। मुहावरा–(किसी की) पीठ ठोकना=(क) कोई अच्छा काम करने पर उसकी प्रशंसा करते हुए उत्साहित करना, उसकाना या बढ़ावा देना। जैसे–तुम्हारे ही पीठ ठोकने से तो वह मुकदमेंबाजी पर उतारू हुआ है। ५. किसी चीज की दृढ़ता, प्रामाणिकता आदि की परीक्षा करने के लिए कोई आवश्यक या उपयुक्त क्रिया करना। मुहावरा–ठोकना-ठठाना या ठोकना=बजाना-हर तरह से जाँचकर देखना कि यह ठीक है या नहीं। जैसे–ठोक-बजा कर सौदा करना। ६. अधिकार या बलपूर्वक अभियोग आदि उपस्थित करना। जैसे–किसी पर दावा या नालिश ठोकना। ७. अच्छी तरह पीटना या मारना। जैसे–जब तक यह लड़का ठोका नहीं जायगा, तब तक सीधा नहीं होगा।
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ठोकर  : स्त्री० [हिं० ठुकना या हिं० ठोकना] १. किसी चीज के ठुकने, अर्थात् टकराने आदि से लगनेवाला ऐसा आघात जिससे कुछ टूटने-फूटने या हानि पहुँचाने की आशंका या संभावना हो। जैसे–यह तसवीर (या शीशा) सँभालकर ले जाना, रास्ते में कहीं ठोकर लगने पावे। क्रि० प्र०–लगना। २. वह आघात जो चलते समय रास्ते में पड़ी हुई किसी उभरी हुई कड़ी चीज से मुख्यतः पैर में लगता हो। जैसे–चलते समय ईंट, कंकड़ या पत्थर से लगनेवाली ठोकर। क्रि० प्र०–खाना।–लगना। ३. मार्ग में पड़ी हुई कोई ऐसी (उक्त प्रकार की) चीज जिससे पैरों को आघात लगता या लग सकता हो। जैसे–अँधेरे में उधर मत जाया करो, रास्ते में कई जगह ठोकरें हैं। ४. नंगे पैर के अगले भाग अथवा पहने हुए जूते की नोक या पंजे से किसी वस्तु या व्यक्ति पर किया जानेवाला आघात। जैसे–नौकर या भिखमंगे को ठोकर लगाना या ठोकरों से मारना। क्रि० प्र० देना।–मारना।–लगाना। मुहावरा–(किसी की) ठोकरने पर पड़े रहना=बहुत ही दीन-हीन बनकर और सब तरह का दुर्दशाएँ भोगते हुए किसी के आश्रित बने रहना। ५. कुस्ती का एक दाँव-पेंच जिसमें विपक्षी को पैर से कुछ विशिष्ट प्रकार की ठोकर लगाकर नीचे गिराया जाता है। ६. लाक्षणिक रूप में लोक-व्यवहार में किसी प्रकार का ऐसा कड़ा या भारी आघात जो बहुत कुछ अनिष्ट या हानि करने वाला सिद्ध हो। जैसे–उन्होंने अपने जीवन में कई बार ठोकरें खाई हैं, इसलिए अब उनकी बुद्धि बहुत-कुछ ठिकाने आ गई है। क्रि० प्र०।–खाना।–लगाना। मुहावरा–ठोकर या ठोकरें खाते फिरना=इधर-उधर अपमानित होते हुए और दुख भोगते हुए घूमना। दुर्दशा-ग्रस्त होकर मारे-मारे फिरना।
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ठोकरी  : स्त्री० [देश०] ऐसी गाय जिसे ब्याये कुछ या कई मास हो चुके हों और इसी लिए जिसका दूध गाढ़ा तथा मीठा हो गया हो।
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ठोकवा  : पुं० [हिं० ठोकना] गुना नाम का मीठा पकवान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठोका  : पुं० [देश०] हाथ में पहनने का एक प्रकार का पुरानी चाल का गहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठोंग  : स्त्री० [सं० तुंड] १. चोंच २. चोंच की मार। ३. उँगली की नोक से किया जानेवाला आघात।
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ठोंगना  : स० [हिं० ठोंग] १. ठोंग या चोंच मारना। २. उँगली की नोक से आघात करना।
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ठोंगा  : पुं० [देश०] कागज की एक प्रकार की थैली जिसमें दूकानदार सूखी चीजें डालकर ग्राहकों को देते हैं।
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ठोंचना  : स=ठोगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठोट  : वि० [हिं० ठूँठ] १. तत्वहीन। २. मूर्ख।
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ठोंठ  : पुं० [सं० ओष्ठ] होंठ। पुं०=ठोंठ।
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ठोठ  : पुं०=ठूँठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि=० ठूँठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठोठरा  : वि० [हिं० ठूँठ ?] [स्त्री० ठोठरी] भीतर से खाली खोखला। पोला।
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ठोंठा  : पुं० [देश०] ज्वार, बाजरे आदि को हानि पहुँचाने वाला एक तरह का कीड़ा।
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ठोंठी  : स्त्री० [सं० तुंड] १. चने के दाने का कोश या खोल। २. पोस्ते की ढोंढ़ी या ढेंढी।
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ठोड़ी  : स्त्री=ठोढ़ी।
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ठोढ़ी  : स्त्री० [सं० तुंड] चेहरे का निचला सामनेवाला भाग जो आगे की ओर झुका हुआ होता है। ठुड्डी। चिबुक। (चिन्)। मुहावरा–(किसी की) ठोढ़ी पकड़ना=प्रेमपूर्वक या अनुनय-विनय करते हुए किसी को ठोढ़ी छूना या दबाना।
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ठोढ़ी-तारा  : पुं० [हिं०] स्त्री की ठुड्डी पर का गोदना या तिल।
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ठोप  : पुं० [अनु० ठप-टप] जल-कण। पानी की बूँद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ठोर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का मीठा पकवान जो मैदे की मोयनदार पूरी को घी में तलने और चाशनी में पकाने से बनता है। वल्लभ-संप्रदाय के मंदिरों में प्रायः इसका रोग लगता है। पुं० [सं० तुंड] पक्षियों की चोंच।
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ठोला  : पुं० [देश०] रेशम फेरनेवालों की वह चौकोर छोटी पटरी जिसमें लकड़ी का खूँटा लगा रहता है।
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ठोली  : स्त्री० [देश०] उपपत्नी के रूप में रखी हुई स्त्री। रखेल। (पूरब)।
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ठोस  : वि० [हिं० ठस] १. (पदार्थ) जिसकी रचना में अन्दर कहीं खोखलापन न हो; और इसलिए जो बहुत कड़ा ठस और पक्का हो। जैसे–धातुएँ, पत्थर और लकड़ियाँ अपने प्राकृतिक या मूल रूप में सदा ठोस होती हैं। २. (रचना) जिसके अन्दर न तो किसी प्रकार का पोलापन हो और न पोलेपन की पूर्ति के लिए किसी प्रकार का भराव हो। जैसे–चाँदी या सोने का ठोस कड़ा या ठोस मूर्ति। ३. (तत्त्व या विषय) जिसमें भर-पूर तथ्य, पुष्टता, या सारभूत बातें हों और इसी लिए जिसमें यथेष्ट उपयोगिता, दृढता, प्रामाणिकता, मान्यता आदि गुण वर्तमान हों। जैसे–उनकी सारी पुस्तक ठोस विचारों से भरी पड़ी है। ४. जिसका कोई ठीक दृश्य, या मूर्त्त रूप सामने हो। जिसमें अव्यावहारिक, असंगत या सारहीन बातों की अधिकता या प्रधानता न हो। जैसे–जब तक कोई ठोस प्रस्ताव या सुझाव सामने न आवे, तब तक इस विषय पर विचार नहीं हो सकता। ५. (व्यक्ति) जिसके पास या जिसमें प्रामाणिक या विश्वसनीय माना जा सकता हो। जैसे–ठोस आसामी ठोस महाजन।
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ठोसना  : स० [हिं० ठाँसना या ठूसना ?] १. धक्का देते हुए आघात या प्रहार करना। २. किसी को जलाने या कुढ़ाने के लिए बहुत कठोर या लगती हुई बात कहना। ठोसा देना।
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ठोसा  : पुं० [हिं० ठोसना] १. वह आघात या प्रहार जो किसी को धक्के देते हुए किया जाय। २. वह व्यंग्यपूर्ण बात जो किसी को कुढ़ाने या जलाने के लिए कही जाय। उदाहरण–इक हरि के दरसन बिनु मरियत, अरु कुब्जा के ठोसनि।–सूर। ३. कुढ़ाने या चिढ़ाने के लिए दिखाया जानेवाला हाथ का अँगूठा। ठेंगा।
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ठोहर  : पुं० [हिं० निठोहर] १. अकाल। २. महँगी।
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ठौका  : पुं०=ठेवका।
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ठौनि  : स्त्री=ठवनि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ठौर  : पुं० [सं० स्थान, प्रा० ठान, हिं० ठाँव+र (प्रत्यय)] १. जगह। स्थान। पद–ठौर-कुठौर=अच्छी और बुरी जगह। उचित तथा अनुचित स्थान। मुहावरा–ठौर न आना=किसी ठिकाने पर न पहुँचना या न लगना। (किसी को) ठौर रखना=जिस स्थान पर कोई हो उसे वहीं ढेर कर देना। अर्थात् मार डालना। ठौर रहना=कहीं पड़े रहना। २. अवसर। मौका।
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ठ्यापा  : वि० [देश०] [स्त्री० ठ्यापी] उपद्रवी। शरारती।
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