थ/th

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थ  : देवनागरी वर्णमाला के तवर्ग का दूसरा वर्ण। उच्चारण तथा भाषा-विज्ञान की दृष्टि से यह दंत्य, अघोष, महाप्राण और स्पर्शी व्यंजन है। पुं० [सं०] १. रक्षण। २. मंगल। ३. भय। डर। ४. पहाड़। पर्वत। ५. भय से रक्षा करनेवाला। भय-रक्षक। ६. आहार। भोजन।
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थइँ  : स्त्री० [हिं० ठाँव, ठाँई] ठाँव। जगह। स्त्री०=थही।
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थइली  : स्त्री०=थैली।
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थक  : पुं०=थाक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थकन  : स्त्री०=थकान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थकना  : अ० [सं० स्था+कृ, प्रा० थक्कन] १. अधिक समय तक कोई काम या परिश्रम करने तथा शारीरिक शक्ति के अत्यधिक व्यय हो जाने के कारण ऐसी स्थिति में आना या होना जिसमें अंग-अंग शिथिल होने लगते हैं। शरीर की शक्तियों का मन्द पड़ना और शिथिल होना। श्रांत होना। विशेष—इस क्रिया का प्रयोग स्वयं व्यक्ति के लिए भी होता है और उसके शरीर के अंगों अथवा शरीर के सम्बन्ध में भी। जैसे—(क) चलते-चलते हम थक गये। (ख) दिन भर की दौड़-धूप से टाँगें या सारा शरीर थक गया है। २. कोई काम करते-करते ऐसी स्थिति में आना कि मन में वह काम और अधिक या फिर करने का उत्साह न रह जाय। हार जाना। जैसे—हम समझाते-समझाते थक गये, पर वह कुछ सुनता ही नहीं। ३. वृद्धावस्था के कारण शरीर का बहुत-कुछ शिथिल हो जाना और पूरा काम करने के योग्य न रह जाना। जैसे—वृद्धावस्था के कारण अब हम बहुत थक चले हैं। अ० [सं० स्थग्] चकित या मोहित होने के कारण स्तब्ध हो जाना।
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थकर  : स्त्री०=थकान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थकरी  : स्त्री० [हिं० थाक] खस आदि कुछ विशिष्ट पौधों की सींकों की कूँची जिससे स्त्रियाँ बाल झाड़ा करती थीं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थंका  : पुं० [?] ऐसा पट्टा जिसके अनुसार निश्चित लगान घटाया-बढ़ाया न जा सके। बिलमुकता।
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थका-माँदा  : वि० [हिं० थकना+फा० माँदः] जो इतना अधिक थक गया हो कि अशक्त और अस्वस्थ-सा जान पड़ने लगे।
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थकाथक  : अव्य० [अनु०] १. थक-थक शब्द करते हुए। २. निरंतर। लगातार। ३. अधिक मात्रा में। वि० ढेर-सा। यथेष्ट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थकान  : स्त्री० [हिं० थकना] १. थके हुए होने की अवस्था या भाव। २. थकने के कारण होनेवाला शारीरिक शक्ति का ऐसा क्षय जिसकी पूर्ति विश्राम करने से आप से आप हो जाती है। जैसे—अभी वे यात्रा की थकान मिटा रहे हैं।
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थकाना  : स० [हिं० थकना] ऐसा काम करना या कराना जिससे कोई थक जाय।
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थकार  : पुं० [सं०] ‘थ’ अक्षर या वर्ण।
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थकाव  : पुं० [हिं० थकना] थकावट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थकावट  : स्त्री० [हिं० थकना+आवट (प्रत्य०)] थकने के कारण होनेवाली वह अनुभूति या अवस्था जिसमें अंग टूटने लगते हैं और कोई काम करने को जी नहीं चाहता। क्रि० प्र०—आना।—मिटाना।
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थकाहट  : स्त्री०=थकावट।
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थकित  : वि० [हिं० थकना] १. थका हुआ। २. चकित। ३. मुग्ध। मोहित।
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थकिया  : स्त्री० [हिं० थक्का] १.गाढ़ी चीज की जमी हुई मोटी तह। छोटा थक्का। २. वह पिंड जो गली हुई धातु ठंडी होने पर बनता है।
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थकैनी  : स्त्री०=थकावट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थकौहाँ  : वि० [हिं० थकना+औहाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० थकौंही] थका हुआ। शिथिल। पद—थकौहें ढार=इस रूप में कि मानों बहुत थका हुआ हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थक्कर  : पुं० [हिं० थाक] १. दे० ‘थक्का’। २. झुंड। समूह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थक्का  : पुं० [सं० स्था+कृ; बँग० थाकना=ठहरना] [स्त्री० थक्की, थकिया] १. गीले और गाढ़े द्रव पदार्थ की जमी हुई मोटी तह या पिंड। जैसे—खून का थक्का, दही या मक्खन का थक्का। २. गलाई हुई धातु के जमने से बना हुआ पिंड। जैसे—लोहे या सोने का थक्का। क्रि० प्र०—जमना।—बँधना।
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थगित  : वि० [हिं० थकित] १. ठहरा या रुका हुआ। २. ढीला पड़ा हुआ। शिथिल। ३. धीमा। मंद। ४. दे० ‘थकित’।
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थट्ट  : पुं० १.=ठाठ। २.=ठट्ठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थड़ा  : पुं० [सं० स्थल] १. बैठने की जगह। बैठक। २. वह स्थल जहाँ बैठकर दूकानदार सौदा बेचता है। ३. मकान के मुख्य द्वार के आगे की ऊँची तथा समतल रचना जिस पर प्रायः लोग बैठते हैं। चौंतरा। (पश्चिम)
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थंडिल  : पुं० [सं० स्थंडिल] १. यज्ञ की वेदी के लिए तैयार की हुई भूमि। २. यज्ञ की वेदी। ३. ऐसी जमीन जिस पर आदमी सो सकता हो या सोता हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थण  : पुं० [सं० स्तन] १. कुच। स्तन। उदा०—थापै थूल नितंब थण।—प्रिथीराज। २. मादा पशुओं का थन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थति  : स्त्री०=थाती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थतिहार  : पुं० [हिं० थाती+हार (प्रत्य०)] वह जिसके पास थाती रखी गई या रखी हुई हो।
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थत्ती  : स्त्री० [हिं० थाती] ढेर। राशि।
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थथोलना  : स०=टटोलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थन  : पुं० [सं० स्तन] १. गाय, भैंस, बकरी इत्यादि चौपायों का वह अंग जिसमें दूध जमा रहता है। २. उक्त अंग का फली के समान का उपांग जिसे दबा तथा खींचकर दूध दूहा जाता है।
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थन-टुट्टू  : वि० [हिं० थन+टूटना] (मादा पशु) जिसके थन का दूध टूट गया हो; अर्थात् दूध आना या उतरना बन्द हो गया हो।
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थनकुदी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की नीले रंगवाली छोटी चिड़िया।
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थनगन  : पुं० [बरमी] एक प्रकार का बड़ा पेड़ जो मध्यभारत में बहुतायत से होता है। स्त्री०=ठन-गन।
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थनी  : स्त्री० [सं० गलस्तन] १. गलथना। (दे०) २. हाथी के कान के पास गलथने की तरह निकाला हुआ मांस-पिंड। ३. घोड़े की लिंगेंद्रिय में थन के आकार का लटकता हुआ मांस जो ऐब समझा जाता है।
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थनु  : पुं०=थन।
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थनुसुत  : पुं० [सं० स्थाणु+सुत] शिव के पुत्र गणेश और कार्तिकेय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थनेला  : पुं० [हिं० थन+एला (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० थनेली] १. स्तन पर विशेषतः स्त्रियों के स्तन पर होनेवाला एक तरह का फोड़ा। २. एक तरह का कीड़ा जिसके गाय आदि के थन पर काटने से उनका दूध सूख जाता है।
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थनैत  : पुं० [हिं० थान] १. किसी स्थान का अधिकारी देवता या शासक। २. गाँव का मुखिया। २. वह अधिकारी जो जमींदारों की ओर से गाँवों से लगान वसूल करता था।
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थपक  : स्त्री० [हिं० थपकना] १. थपकने की क्रिया या भाव। २. थपकने के लिए किया जानेवाला आघात। थाप।
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थपकना  : स० [अनु० थप-थप] १. इस प्रकार हलका आघात करना कि थप-थप शब्द हो। थपकी देना। २. हथेली से इस प्रकार थप-थप करते हुए किसी पर हलका आघात करना कि उसे अच्छा लगे। थपथपाना। जैसे—बच्चे को थपककर सुलाना। ३. किसी चीज पर बिना जोर लगाये हलका आघात करते चलना। ४. किसी को उत्साहित करने अथवा किसी का आवेश या क्रोध शांत करने के लिए उसकी पीठ पर हथेली से धीमा आघात करना। संयो० क्रि०—देना।
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थपका  : पुं० दे० ‘थपकी’।
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थपकी  : स्त्री० [हिं० थपकना] १. थपकने की क्रिया या भाव। २. थपकने के लिए हथेली से स्नेहपूर्वक किया जानेवाला हलका आघात। जैसे—घोड़े या बच्चे को थपकी देना। ३. किसी को उत्साहित करने के लिए या आशीर्वाद देने के समय उसकी पीठ पर स्नेहपूर्वक किया जानेवाला हलका आघात। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। ४. दे० ‘थापी’।
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थपड़ी  : स्त्री०=थपोड़ी।
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थपथपी  : स्त्री०=थपकी।
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थपन  : पुं०=स्थापन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थपना  : स० [सं० स्थापन] १. स्थापित करना। बैठाना। २. धीरे-धीरे ठोकना या पीटना। ३. दे० ‘थोपना’। ४. दे० ‘छोपना’। (पश्चिम) अ० १. स्थापित होना। बैठना। २. ठोका या पीटा जाना। पुं० थापी, जिससे राज-मजदूर गच या छत पीटते हैं। पिटना।
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थपरा  : पुं०=थप्पड़।
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थपाना  : स० [हिं० थपना] किसी को कुछ थपने में प्रवृत्त करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थपुआ  : पुं० [?] मिट्टी को पाथकर पकाया हुआ वह चौरस चिपटा खपड़ा जो छत छाने के काम आता है। दो थपुओं के जोड़ पर नरिया रखकर उनकी सन्धि ऊपर से बन्द की जाती है।
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थपेटा  : पुं०=थपेड़ा।
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थपेड़ना  : स० [हिं० थपेड़ा] १. थपेड़ा लगाना। २. थप्पड़ लगाना। ३. आघात करना।
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थपेड़ा  : पुं० [अनु० थप-थप] १. किसी चीज के वेग से आकर टकराने या लगने का ऐसा आघात जिसमें थप-थप शब्द हो। जैसे—नदी या समुद्र की लहरों के थपेड़ों से नाव उलट गई। क्रि० प्र०—लगना २. दे० ‘थप्पड़’।
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थपोड़ी  : स्त्री० [अनु० थप-थप] १. दोनों हथेलियों से बजाई जानेवाली ताली। २. बेसन की बनी हुई एक प्रकार की मसालेदार पूरी या पकवान।
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थपोरी  : स्त्री०=थपोड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थप्पड़  : पुं० [अनु० थप-थप] १. गाल पर हाथ के पंजे से किया जानेवाला आघात। झापड़। तमाचा। क्रि० प्र०—कसना।—देना।—मारना।—लगाना। २. ऐसी बात जिससे किसी की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचे। ३. दाद या फुंसियों का चकत्ता। ४. दे० ‘थपेड़ा’।
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थप्पन  : वि० [हिं० थपना] स्थापित करनेवाला। पुं०=स्थापन।
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थप्पा  : पुं० [लश०] एक तरह का जहाज।
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थंब  : पुं० [सं० स्तम्भ] [स्त्री० अल्पा० थंबी] १. खंभा। २. सहारा। टेक। ३. राजपूतों का एक भेद।
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थंभ  : पुं० [सं० स्तम्भ] [स्त्री० अल्पा० थंभी] १. खंभा। २. चाँड़। टेक। थूनी।
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थंभन  : पुं०=स्तम्भन।
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थँभना  : अ०=थमना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थँभवाना  : स०=थमवाना।
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थँभाना  : स०=थमाना (पकड़ाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थंभित  : वि०=स्तंभित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थम  : पुं० [सं० स्तम्भ; प्रा० थंभ] १. खंभा। स्तम्भ। २. चाँड़। थूनी। ३. धरहरा। मुनारा। ४. पूरियों, मिठाइयों आदि का वह ढेर या थाक जो मांगलिक अवसरों पर देवता या देवी के आगे रखा जाता है। (पश्चिम)।
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थमकारी  : वि० [सं० स्तंभ, हिं० थामन+कारी] १. थामनेवाला। २. स्तम्भन करने अर्थात् रोकनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थमना  : अ० [सं० स्तंभन] १. चलते-चलते किसी चीज का रुकना या गतिहीन होना। जैसे—कोल्हू या गाड़ी का थमना। २. आड़, सहारे आदि के कारण किसी आधार पर ठहरा रहना और नीचे की ओर न आना या न गिरना। जैसे—चाँड़ लगने से छत का थमना। ३. किसी प्रकार की क्रिया, गति या प्रवाह का बन्द होना। जैसे—(क) युद्ध थमना। (ख) बरसता या बहता हुआ पानी थमना। ४. सब्र करके या यों ही किसी काम में लगने से कुछ समय के लिए ठहरना। धीरज धरना। जैसे—हमारे कहने से वह थम गया है; नहीं तो अब तक दावा कर देता। अ० [हिं० थामना का अ०] थाम लिया जाना। थामा जाना।
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थमवाना  : स० [हिं० थामना का प्रे०]=पकड़वाना।
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थमाना  : स० [हिं० थामना का प्रे०]=पकड़ाना।
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थमाव  : पु० [हिं० थमना+आव (प्रत्य०)] थमने या ठहरने की क्रिया, भाव या स्थिति। ठहराव।
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थमुआ  : पुं० [हिं० थामना] चप्पू या डाँड़ का वह भाग जहाँ से उसे नाव खेते समय पकड़ा जाता है।
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थर  : पुं० [सं० स्तर] १. जमी हुई परत। तह। २. दीवारों की चुनाई में लगाई जानेवाली ईटों की प्रत्येक पंक्ति या परत। ३. ब्राह्मणों में, जाति या वर्ग का वाचक शब्द। जैसे—पहले उनसे उनका थर तो पूछ लो। पुं० [सं० स्थल] १. स्थल। २. सिंध देश का एक प्रदेश या विभाग। ३. जंगली जानवरों की माँद। चुर।
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थर-थर  : स्त्री० [अनु०] डर से काँपने की मुद्रा। थरथराहट। क्रि० वि० डरकर काँपते हुए।
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थर-थराना  : अ० [अनु० थर-थर] [भाव० थरथराहट, थरथरी] १. डर से काँपना। २. काँपना। स० किसी को इतना अधिक भयभीत करना कि वह थर-थर काँपने लगे।
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थरकना  : अ० १.=थर्राना। २.=थिरकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थरकाना  : स० [हिं० थरकना] १. थरकने या थरथराने में प्रवृत्त करना। २. थिरकने में प्रवृत्त करना।
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थरकौहाँ  : वि० [हिं० थरकना] १. भय आदि से जो थर-थर काँप रहा हो। २. हिलता-डुलता हुआ। चंचल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थरथराहट  : स्त्री० [हिं० थरथराना] १. थरथराने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. निरंतर कुछ समय तक काँपते या थरथराते रहने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—चढ़ना।
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थरथरी  : स्त्री०=थरथराहट।
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थरना  : सं० [हिं० थर] १. रह-रहकर हलका आघात या चोट करना। २. कोई चीज गढ़ने या बनाने के लिए उसे धीरे-धीरे हथौड़ी आदि से पीटना। ३. अच्छी तरह मारना या पीटना। थूरना। ४. दीवारों की चनाई में एक थर के ऊपर दूसरा थर लगाना। पुं० कसेरों का एक औजार जिससे वे नक्काशी या फूल-पत्तियाँ बनाते हैं।
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थरमामीटर  : पुं० [अ०] ताप-मापक यंत्र।
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थरसना  : अ० [सं० त्रसन] १. त्रस्त होना। २. दुःखी होना। स० १. त्रस्त करना। २. दुःखी करना।
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थरसल  : वि० [हिं० थरसल] त्रस्त। पीड़ित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थरहर  : स्त्री०=थरथराहट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थरहराना  : अ०, स० [भाव० थरहरी]=थरथराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थरहाई  : स्त्री० [?] एहसान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थरिया  : स्त्री०=थाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थरी  : स्त्री० [सं० स्थली] जंगली पशुओं की माँद। चुर।
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थरु  : पुं०=थल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थरुलिया  : स्त्री० [हिं० थारी] छोटी थाली।
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थरुहट  : पुं० [हिं० थारू] थारू जाति के लोगों की बस्ती।
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थर्मस  : पुं० [अ०] एक तरह का छोटा वर्तुल डिब्बा जो वायु अनुकूलित होता है तथा जिसमें रखी हुई चीज का ताप-मान कुछ समय तक प्रायः ज्यों का त्यों बना रहता है।
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थर्मामीटर  : पुं० [अं०] ताप-मापक यंत्र।
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थर्राना  : अं० [अनु० थर-थर] १. डर के मारे थर-थर काँपना। जैसे—सिपाही को देखते ही चोर थर्रा गया। २. बहुत अधिक भयभीत होना। दहलना। संयो० क्रि०—उठना।—जाना। स० किसी को इतना अधिक डराना कि वह थर-थर काँपने लगे।
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थल  : पुं० [सं० स्थल] १. जगह। स्थान। मुहा०—थल में बैठना=शांत या स्थिर होकर बैठना। चंचलता, विकलता आदि से रहित होकर सुख से बैठना। २. किसी देवता का अथवा कोई पवित्र स्थान। ३. ऐसी सूखी जमीन जहाँ या जिसमें जल न हो। स्थल। ‘जल’ का विपर्याय। ४. वह ऊँची भूमि जहाँ वर्षा का पानी इकट्ठा न होता हो। ५. वह स्थान जहाँ बहुत सी रेत पड़ी हो। भूड़। रेगिस्तान। जैसे—थर पर खर। ६. जंगली जानवरों की माँद। चुर। ७. बादले का एक प्रकार का छोटा गोल साज जिसे बच्चों की टोपी आदि पर टाँका जाता है। ८. फोड़े के घाव के चारों ओर का लाली लिये हुए सूजा हुआ स्थान। थाला। क्रि० प्र०—बँधना।
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थल-चर  : पुं० [सं० स्थलचर] १. पृथ्वी पर रहनेवाले जीव (जल या वायु में रहने या विचरनेवाले जीवों से भिन्न)।
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थल-चारी  : वि० [सं० स्थलचारी] भूमि पर चलने या विचरण करनेवाला।
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थल-थल  : वि० [सं० स्थूल; हिं० थूला] (व्यक्ति, उसका शरीर अथवा शरीर का कोई अंग) मोटाई के कारण झूलता या हिलता हुआ।
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थल-पति  : पुं० [सं० स्थलपति] राजा।
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थल-बेड़ा  : पुं० [हिं० थल+बेड़ा] नाव या जहाज के ठहरने की जगह। मुहा०—थल-बेड़ा लगाना=शान्ति पूर्वक ठहरने या रुकने के लिए उपयुक्त स्थान मिलना। ठिकाना लगना।
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थल-भारी  : पुं० [हिं० थल+भारी] १. ऐसा स्थल जिस पर चलना कठिन हो। २. रेतीला मैदान।
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थलकना  : अ० [सं० स्थूल; हिं० थूला, थुल थुल] १. शरीर के क्षीण होने पर त्वचा तथा मांस का ढीला पड़ना तथा लटकने लगना। २. भारी चीज का रह-रहकर कुछ ऊपर उठना और नीचे होना या हिलना।
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थलथलाना  : स० [अनु०] ऐसी क्रिया करना जिससे किसी चीज का तल थल-थल शब्द करता हुआ रह-रहकर कुछ ऊपर उठे और फिर नीचे गिरे। थल-थल शब्द करता हुआ। अ०=थलकना।
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थलरुह  : वि० [सं० स्थलरुह] धरती पर उत्पन्न होनेवाले जंतु, वृक्ष आदि। स्थल अर्थात् भूमि पर जन्म लेनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थलिया  : स्त्री०=थाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थली  : स्त्री० [सं० स्थली] १. स्थान। जगह। २. वनस्थली। ३. जलाशय, नदी आदि के नीचे का तल। ४. सुख से ठहरने या बैठने की जगह। ५. परती जमीन। ६. बालू का मैदान। रेतीली जमीन। ७. ऐसी ऊँची जमीन जहाँ वर्षा का पानी न ठहरता हो।
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थली  : स्त्री० [हिं० थूला=मोटा] १. किसी अनाज के दले हुए मोटे दाने। दलिया। २. पकाया हुआ दलिया। ३. सूजी।
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थवई  : पुं० [सं० स्थपति; प्रा० थवइ] मकान बनाने विशेषतः जोड़ाई करनेवाला कारीगर। राज।
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थवन  : पुं० [देश०] दुलहिन का तीसरी बार अपने पति के घर जाने की क्रिया।
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थवाना  : पुं० [सं० स्थापन; हिं० थपना] कच्ची मिट्टी का वह गोला जिसमें लगी हुई लकड़ी के छेद में चरखी की लकड़ी पड़ी रहती है। चरखी के घूमने से नारी भरी जाती है। (जुलाहे)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थह  : पुं० [सं० स्थल या हिं० घर ?] माँद। उदा०—जागै नह थह में जितै, सझ हाथल सादूल।—बाँकीदास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=थाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थहना  : स० [हिं० थाह] १. थाह लेना। पता लगाना। २. थाह लेने के लिए गहराई में उतरना या जाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थहरना  : अ०=थर्राना।
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थहराना  : अ० [अनु० थर थर] १. दुर्बलता, भय आदि से अंगों का काँपना। २. काँपना। ३. दे० ‘थर्राना’।
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थहाना  : स० [हिं० थाह] १. पानी की गहराई का पता लगाना। थाह लगाना या लेना। २. किसी के ज्ञान, विचार आदि की थाह या पता लेना।
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थहारना  : स० १.=ठहराना। २.=थहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थही  : स्त्री० [सं० स्तर; हिं० तह] १. तह। परत। २. चीजों का लगा हुआ थाक। ढेर। राशि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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था  : अ० [सं०√स्था] हिं० ‘होना’ क्रिया अथवा वर्तमान कालिक ‘है’ का एक भूतकालिक रूप। एक शब्द जिससे भूत-काल में होना सूचित होता है। रहा। जैसे—मैं उस समय वहीं था।
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थाई  : वि० [सं० स्थायी] बहुत दिनों तक चलने या बना रहनेवाला। स्थायी। स्त्री० १. सुख से बैठने की जगह। २. बैठने का कमरा या कोठरी। अथाई। बैठक। ३. दे० ‘अस्थायी’ (संगीत की)।
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थाक  : पुं० [सं०√स्था] १. एक के ऊपर एक करके रखी हुई चीजों का ढेर। राशि। जैसे—कपड़ों या किताबों का थाक। स्त्री०=थकन (थकावट)। क्रि० प्र०—लगना(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थाकना  : अ० [सं० स्थगन] १. ठहरना। रुकना। २. दे० ‘थकना’।
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थाका  : पुं० [सं० स्तवक] गुच्छा। (पूरब) उदा०—अधर निमाल मधुरि फुल थाका।—विद्यापति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थाकु  : पुं०=थाक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थाँग  : स्त्री० [हिं० थान] १. चोरों या डाकुओं के रहने का गुप्त स्थान। २. चोरों या चोरी गई हुई चीजों का लगाया जानेवाला पता। ३. किसी प्रकार के रहस्य की प्राप्त की हुई जानकारी या लिया हुआ भेद। ४. खोज। तलाश। क्रि० प्र०—लगाना।
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थाँगी  : पुं० [हिं० थांग] १. चोरों का सरदार। २. वह जो चोरों से माल खरीदता और अपने पास रखता हो। ३. चोरों या चोरी के माल का पता लगानेवाला व्यक्ति। ४. रक्षा करने या आश्रय देनेवाला व्यक्ति। उदा०—निगुसाएँ वह गए, थाँगी नाहीं कोइ।—कबीर।
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थाँगीदारी  : स्त्री० [हिं० थाँगी+फा० दार] थाँगी का काम या पद।
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थाट  : पुं० १.=ठाठ। २.=ठट्ठ (समूह) उदा०—नमस्कार सूराँ नराँ भारथ गज थाटाँ मिड़ै अड़ै भुजाँ उरसाँह।—बाँकीदास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थाण  : पुं० [सं० स्थान; प्रा० थाण] थाला। आलबाल।
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थात  : वि०[सं० स्थात्, स्थाता] जो बैठा या ठहरा हुआ हो। स्थित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थाति  : स्त्री० [हिं० थात] ठहराव। स्थिति। स्त्री०=थाती।
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थाती  : स्त्री० [हिं० थात] १. समय पर काम में लाने के लिए बचाकर रखी हुई चीज या धन। जमा। पूँजी। २. किसी के विश्वास पर उसके पास रखी हुई वह चीज या धन जो माँगने पर तुरन्त वापस मिल सके। धरोहर। अमानत।
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थाँन  : पुं०=थान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थान  : पुं० [सं० स्थान] १. जगह। स्थान। जैसे—(क) काली या भैरव का थान। (ख) बड़ी भाभी माँ के थान होती है। २. ठहरने या रहने की जगह ३. चौपायों, विशेषतः घोड़ों को बाँधकर रखने का स्थान। पद—थान का टर्रा=(क) वह घोड़ा जो खूँटें या खूँटों से बँधा रहने पर भी नटखटी करता हो। घुड़साल में भी उपद्रव करनेवाला घोड़ा। (ख) वह व्यक्ति जो अपने स्थान पर (या घर में) ही सारी अकड़ या ऐंठ दिखाता और घर के लोगों से ही लड़ता-झगड़ता रहता हो। थान का सच्चा=वह घोड़ा जो कहीं से छूटने पर फिर सीधा अपने खूँटे पर आ जाय। ४. कुल वंश। जैसे—अच्छे थान का घोड़ा। उदा०—संभरि नरेस चहुवान थान, प्रिथिराज तहाँ राजंत भान।—चंद्रबरदाई। ५. वह घास जो घोड़े के नीचे बिछाई जाती है। मुहा०—थान में आना=घोड़े का थकावट मिटाने के लिए घास या जमीन पर लेटना। ६. कपड़े, गोटे आदि का पूरा टुकड़ा जिसकी लंबाई प्रायः निश्चित होती है। जैसे—किनारी या गोटे का थान; नैनसुख या मलमल का थान। ७. कुछ विशिष्ट पदार्थों से संबंध में उनकी स्वतंत्र सत्ता के आधार पर संख्या का वाचक शब्द। जैसे—चार थान गहन, दस थान धोती।
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थानक  : पुं० [सं० स्थानक] १. स्थान। २. नगर। ३. वृक्ष का थाला। आल-बाल। ४. झाग। फेन।
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थाना  : पुं० [सं० स्थान; हिं० थान] १. टिकन, ठहरने या बैठने का स्थान। अड्डा। २. किसी का उद्गम या मूल निवास-स्थान। ३. बाँसों की कोठी। ४. आज-कल वह स्थान जहाँ पुलिस के कुछ सिपाही और उनके वरिष्ठ अधिकारी स्थायी रूप से कार्य करते हैं और जहाँ से आस-पास के स्थानों का प्रबंध होता है। पुलिस-कार्यालय। नाका। मुहा०—(किसी स्थान पर) थाना बैठाना=अव्यवस्था, उपद्रव आदि के स्थानों पर शांति बनाये रखने के लिए पुलिस के कुछ सिपाही और अधिकारी नियत करना। थाने चढ़ना=थाने में पहुँचकर किसी के विरुद्ध कोई सूचना देना। पुलिस में इत्तला या रपट लिखाना।
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थानापति  : पुं० [सं० स्थानपति] ग्राम देवता।
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थानी  : पुं० [सं० स्थानिन्] १. किसी स्थान का प्रधान अधिकारी या स्वामी। २. दे० ‘थानैत’। ३. दे० ‘दिग्पाल’। वि० १. थान या ठिकाने पर पहुँचा हुआ। २. (काम) जो पूरा किया जा चुका हो। संपन्न या संपादित। ३. ठिकाने लगाया हुआ।
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थानु  : पुं० १.=स्थाणु। २.=थान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थानेत  : पुं०=थानैत।
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थानेदार  : पुं० [हिं० थाना+फा० दार] [भाव० थानेदारी] थाने का विशेषतः पुलिस के थाने का प्रधान अधिकारी। दारोगा।
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थानेदारी  : स्त्री० [हिं० थाना+फा० धारी] १. थानेदार का कार्य। २. थानेदार का पद।
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थानैत  : पुं० [हिं० थान+ऐत (प्रत्य०)] १. किसी स्थान का अधिपति। २. किसी चौकी या अड्डे का मालिक। ३. ग्राम-देवता।
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थाप  : स्त्री० [सं० स्थापन] १. थापने की क्रिया या भाव। २. ढोल, तबल, मृदंग आदि के बजाने के समय उन पर हथेली से किया जानेवाला विशिष्ट प्रकार का आघात। क्रि० प्र०—पड़ना।—लगाना। ३. किसी चीज पर दूसरी चीज के भर-पूर बैठने के कारण बननेवाला चिह्न। जैसे—बालू पर पड़ी हुई पैरों की थाप। ४.थप्पड़। तमाचा। ५. कसम। शपथ। सौगंध। जैसे—तुम्हें देवी का थाप है, वहाँ मत जाना। ६. जमाव। स्थिति। ७. मान-मर्यादा आदि का दूसरों पर पड़ने वाला प्रभाव। धाक। ८. पंचायत। (क्व०)
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थापन  : पुं० [सं० स्थापन] १. स्थापित करने की क्रिया या भाव। स्थापन।
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थापना  : स० [सं० स्थापन] १. स्थापित करना। २. कोई चीज कहीं बैठाना, लगाना या स्थित करना। ३. हाथ के पंजे की मुद्रा अंकित करना या छापना। थापा लगाना। स्त्री० १. स्थापित करने या होने की क्रिया या भाव। स्थापना। प्रतिष्ठा। २. नव-रात्र में देवी के पूजन के लिए किया जानेवाला घटस्थापन।
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थापर  : पुं०=थप्पड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थापरा  : पुं० [देश०] छोटी नाव। डोंगी। (लश०)
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थापा  : पुं० [हिं० थाप] १. थापने की क्रिया या भाव। २. हाथ के पंजे का वह चिन्ह जो गीली पिसी हुई मेंहदी, हलदी आदि मांगलिक द्रव्यों से शुभ अवसरों पर दीवारों आदि पर लगाया जाता है। हाथ के पंजे का छापा। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। ३. खलिहान में अनाज की राशि पर गोबर, मिट्टी आदि से लगाया जानेवाला हाथ के पंजे का चिह्न या किसी प्रकार की लकीर। ४. वह ठप्पा जिससे चिन्ह आदि अंकित किये जाते हैं। छापा। ५. वह साँचा जिसमें कोई गीली सामग्री दबाकर या डालकर कोई वस्तु बनाई जाय। जैसे—ईंट का थापा, सुनारों का थापा। ६. ढेर। राशि। ७. देहातों में देवी-देवता आदि की पूजा के लिए लिया जानेवाला चंदा। पुजौरा। पुं० [?] नेपाली क्षत्रियों की एक जाति या वर्ग।
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थापिया  : स्त्री०=थापी।
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थापी  : स्त्री० [हिं० थापना] १. थापने की क्रिया या भाव। २. काठ का वह उपकरण जो चिपटे सिरेवाले लंबे छोटे डंडे के रूप में होता है और कुम्हार मिट्टी के घड़े पीटकर बनाते हैं। ३. उक्त आकार का वह डंडा जिससे राज या मजदूर छत पीटकर उसमें का मसाला जमाते हैं। ४. आशीर्वाद, शाबाशी आदि देने के लिए धीरे-धीरे किसी की पीठ ठोंकने या थपथपाने की क्रिया। क्रि० प्र०—देना।
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थाँभ  : पुं० [सं० स्तम्भ] १. खंभा। २. चाँड़। थूनी।
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थाँभना  : स०=थामना।
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थाम  : पुं० [सं० स्तंभ; प्रा० थंभ] १. खम्भा। स्तंभ। २. मस्तूल। (लश०)। स्त्री० [हिं० थामना] थामने की क्रिया या भाव। पुं०=थंभ (स्तम्भ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थामना  : स० [सं० स्तंभन; प्रा० थंभन=रोकना] १. हाथ में लेना या हाथ से पकड़ना। जैसे—लड़के की उँगली या हाथ थामना। २. वेगपूर्वक आती, गिरती या आगे बढ़ती हुई चीज को हाथ से पकड़कर या और किसी प्रकार से रोकना। पकड़ना। जैसे—मारनेवाले का हाथ थामना। ३. गिरती हुई चीज को पकड़कर या उसके नीचे सहारा लगाकर उसे गिरने से रोकना। सँभालना। जैसे—चाँड़ ने ही यह छत थाम रखी है। ४. बीच में या आ या पड़कर किसी बिगड़ती हुई स्थिति को और अधिक बिगड़ने से रोकना। सँभालना। जैसे—समय पर वर्षा ने आकर थाम लिया; नहीं तो अभी अनाज और महँगा होता। ५. किसी काम या बात का उत्तरदायित्व या भार अपने ऊपर लेना। ६. किसी चीज का दूसरी चीज पर लग या सटकर उस पर चिपक या जम जाना। जैसे—लकड़ी या लोहे को रंग जल्दी थामता है। ७. चलती हुई चीज को रोककर खड़ा करना। जैसे—गाड़ी थामना। ८. किसी को पकड़कर पहरे या हिरासत में लेना। (क्व०)
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थामा  : पुं० [सं० स्तंभ] खंभा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थाम्हना  : स०=थामना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थायी  : वि०=स्थायी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थार  : पुं०=थाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थारा  : सर्व० [हिं० तिहारा] तुम्हारा। पुं०=थाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थारी  : स्त्री०=थाली। सर्व०=तुम्हारी।
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थारू  : पुं० [देश०] नेपाल की तराई में रहनेवाली एक अर्द्धसभ्य जाति।
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थाल  : पुं० [हिं० थाली] [स्त्री० अल्पा० थाली] भोजन आदि परोसने का धातु का बना हुआ चौड़ा, छिछला तथा गोल बर्तन। बड़ी थाली।
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थाला  : पुं० [सं० स्थल; हिं० थल] १. पेड़, पौधे आदि के चारों ओर का वह गोल गड्ढा जिसमें पानी भरा जाता है। आल-बाल। २. किसी चीज के चारों ओर का उभरा हुआ गोलाकार दल या भाग। जैसे—इस फोड़े ने बहुत थाला बाँधा है। क्रि० प्र०—बाँधना। पुं० [?] दरवाजे की कुंडी जिसमें ताला लगाया जाता है। (लश०)
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थालिका  : स्त्री० [हिं० थाला] वृक्ष का थाला। आलबाल।
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थाली  : स्त्री० [सं० स्थाली=बटलोई] १. धातु का बना हुआ गोलाकार छिछला, बड़ा बरतन जिसमें खाने के लिए भोजन परोसा जाता है। पद—थाली का बैंगन=ऐसा व्यक्ति जिसका स्वंय कोई सिद्धांत न हो और जो उसी की प्रशंसा तथा समर्थन करे जिससे उसे खाने को मिल जाता हो। थाली जोड़-थाली और उसके साथ कटोरा या कटोरी। मुहा०—थाली फिरना=किसी स्थान पर इतनी अधिक भीड़ होना कि यदि ऊपर से उस भीड़ पर थाली फेंकी जाय तो वह ऊपर ही ऊपर घूमती-फिरती रह जाय; जमीन पर गिरने न पाये। जैसे—उस मेले में तो थाली फिरती थी। थाली बजना=थाली बजाते हुए साँप का विष उतारना। थाली बजाना=(क) साँप का विष उतारने के लिए थाली बजाकर मंत्र पढ़ना। (ख) नवजात शिशु के समक्ष उसका भय दूर करने के लिए थाली बजाकर कुछ जोर का शब्द करना। थाली भेजना=किसी के यहाँ थाली में भोजन, मिठाई आदि भेजना। २. नाच की एक गत जिसमें बहुत थोड़े से घेरे के अंदर नाचना पड़ता है।
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थाव  : स्त्री०=थाह।
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थावर  : पुं० [सं० स्थावर] १. जो अपने स्थान से कभी न हटे। २. शांत। ३. ठहरा हुआ। स्थिर। ४. दे० ‘स्थावर’।
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थाँवला  : पुं० दे० ‘थाला’।
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थाँवाँ  : पुं० [सं० स्तंभ] दादूदयाल का चलाया हुआ एक उप-संप्रदाय।
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थाँह  : स्त्री० [सं० स्थान] १. जगह। २. दे० ‘थाह’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थाह  : स्त्री० [सं० स्था] १. किसी चीज की ऐसी अधिकता, गहराई, ज्ञान, महत्त्व आदि की सीमा जिसका पता लगाने के लिए प्रयत्न करना पड़े। जैसे—उनके धन (या विद्या) की थाह पाना सहज नहीं है। क्रि० प्र०—पाना।—मिलना। मुहा०—थाह लगाना या लेना=यह जानने का प्रयत्न करना कि अमुक चीज की गहराई कितनी है। जैसे—किसी के पांडित्य, मन या विचार की थाह लेना। २. उक्त के आधार पर किसी चीज की अधिकता, महत्त्व, रहस्य आदि का होनेवाला ज्ञान या परिचय। जैसे—वे आपके मन की थाह लेने आये थे। ३. जलाशय (झील, नदी, समुद्र आदि) में पानी के नीचे की जमीन या तल। जैसे—इस घाट पर पानी की थाह मिलना कठिन है। क्रि० प्र०—मिलना। मुहा०—डूबते को थाह मिलना=संकट में पड़े हुए हताश व्यक्ति को कहीं से कुछ सहारा या मिलना या मिलने की आशा होना। ४. पानी की गहराई की वह स्थिति जिसमें चलते हुए आदमी का पैर जमीन पर पड़ता हो। जैसे—जहाँ थाह न हो, वहाँ तैरना ही पड़ता है। उदा०—चरण छूते ही जमुना थाह हुईं।—लल्लूलाल।
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थाहना  : स० [हिं० थाह] १. किसी प्रकार की गहराई की थाह लेना या पता चलाना। २. किसी के मन के छिपे हुए भावों या विचारों का पता लगाना। थाह लेना।
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थाहर  : पुं०=थर (माँद)। उदा०—सूनी थाहर सिंघरी, जाय सके नहि कोय।—बाँकीदास।
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थाहरा  : वि० [हिं० थाह] १. जिसकी थाह मिल चुकी हो अथवा सहज में मिल सकती हो। २. (नदी-नाले के संबंध में) कम गहरा। छिछला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थाँहैं  : अव्य० [हिं० थाह] ठीक उसी स्थान पर। वहीं। (पश्चिम) जैसे—थाँहैं मारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थाहै  : अव्य० [हिं० थाह] (नदी, नाले की) गहराई में।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थिएटर  : पुं० [अं०] [वि० थिएटरी] १. रंगभूमि। नाट्यशाला। रंगशाला। २. नाटक का अभिनय।
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थिएटरी  : वि० [अं० थिएटर] थिएटर अर्थात् रंगशाला-संबंधी।
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थिगली  : स्त्री० [हिं० टिकली] कपड़े, चमड़े आदि का छेद बंद करने के लिए उसके ऊपर टाँका जाने वाला कपड़े, चमड़े आदि का दूसरा टुकड़ा। चकती। पैबंद। क्रि० प्र०—लगाना। मुहा०—आसमान या बादल में थिगली लगाना=(क) बहुत ही कठिन या दुष्कर काम पूरा करना या उसके लिए प्रयत्न करना। पहुँच के बाहर का कार्य करना। (ख) अनहोनी और असम्भव बातें कहना या काम करने का प्रयत्न करना।
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थित  : वि० [सं० स्थित] [भाव० थिति] १. ठहरा हुआ। २. स्थापित। रखा हुआ। स्त्री०=तिथि। (पश्चिम) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थिंति  : स्त्री०=तिथि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थिति  : स्त्री० [सं० स्थिति] १. ठहराव। स्थायित्व। २. ठहरने या विश्राम करने की जगह। ३. स्थिर रुप में होनेवाला निवास। ४. बने रहने की अवस्था या भाव। ५. अवस्था। दशा। हालत। स्त्री०=तिथि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थितिभाव  : पुं० [सं० स्थितिभाव]=स्थायीभाव।
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थिबाऊ  : पुं० [देश०] मध्ययुग के ठगों की परिभाषा में, शरीर के दाहिने अंग में होने वाली फड़कन जिसे वे लोग अशुभ समझते थे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थियासोफिस्ट  : पुं० [अं०] वह जो थियासोफी के सिद्धान्तों को मानता तथा उनका अनुसरण करता हो।
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थियासोफी  : स्त्री० [अं०] १. ब्रह्म-विद्या। २. एक आधुनिक पाश्चात्य सम्प्रदाय जो यह मानता है कि आत्मा और परमात्मा अथवा जीव और ब्रह्म के पारस्परिक संबंध का सच्चा ज्ञान भौतिक साधनों से नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाने से ही होता है।
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थिर  : वि० [सं० स्थिर] १. जो चलता या हिलता-डुलता न हो। ठहरा हुआ। स्थिर। २. जिसमें चंचलता न हो। थिर और शांत। ३. सदा बहुत-कुछ एक ही अवस्था में चलने या बना रहनेवाला। (विशेष दे० ‘स्थिर’)
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थिरक  : पुं० [हिं० थिरकना] थिरकने की क्रिया, अवस्था, ढंग या भाव।
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थिरकना  : अ० [सं० अस्थिर+करण] [भाव० थिरक] १. शरीर के किसी अंग का रह-रहकर और धीरे-धीरे किसी आधार या जमीन से कुछ ऊपर उठना और फिर जमीन पर आना। जैसे—नाचने में पैर (या मृदंग बजाने में हाथ) थिरकना। २. व्यक्ति का ऐसी स्थिति में होना कि उसका सारा शरीर, मुख्यत
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थिरकौहाँ  : वि० [हिं० थिरकना+औहाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० थिरकौहीं] १. रह-रहकर थिरकनेवाला। २. थिरकता हुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [हिं० थिर=स्थिर] जो अपने स्थान पर स्थिर हो। ठहरा हुआ। स्थिर।
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थिरजीह  : पुं० [सं० स्थिरजिह्व] मछली।
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थिरता (ई)  : स्त्री० [सं० स्थिरता] १. ठहराव। स्थिरता। २. स्थायित्व। ३. धीरता। ४. शांति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थिरथानी  : वि० [सं० स्थिर+स्थान] जो किसी स्थान पर स्थिर होकर रहे। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० लोकपाल। दिग्पाल।
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थिरथिरा  : पुं० [देश०] बुलबुलों की एक जाति।
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थिरना  : अ० [सं० स्थिर, हिं० थिर+ना (प्रत्य०)] १. पानी या किसी द्रव पदार्थ का हिलना-डोलना बंद होना। शांत और स्थिर होना। २. जल या द्रव पदार्थ की उक्त अवस्था होने पर उसमें घुली या मिली चीजों का नीचे तह में एकत्र होना या बैठना। ३. उक्त स्थिति में जल या द्रव पदार्थ का निर्मल या स्वच्छ होना। ४. दे० ‘निथरना’।
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थिरा  : स्त्री० [सं० स्थिरा] पृथ्वी।
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थिराना  : स० [हिं० थिरना] १. क्षुब्ध जल या द्रव पदार्थ को इस प्रकार स्थिर होने देना कि उसमें घुली हुई चीज नीचे बैठ जाय और जल या द्रव पदार्थ अपेक्षया साफ हो जाय। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग स्वयं जल के पक्ष में ही होता है और उसमें घुली हुई चीज के पक्ष में भी। २. किसी प्रकार शांत या स्थिर करना।
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थी  : विभ० [सं० तः, पु० हिं० ते] से। (राज०) उदा०—जब थी हम तुम बीछुड़े...।—ढोलामारू। सर्व० पु० हिं० में ‘तू’ या ‘तुझ’ का एक रूप। उदा०—जो मैं थी कौ साँचा व्यास।—कबीर। अ० हिं० भूतकालिक क्रिया ‘था’ का स्त्री०। वि०=स्थित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थीकरा  : पुं० [सं० स्थिति+कर] किसी स्थिति को सँभालने का भार अथवा कोई कार्य करने का (अपने ऊपर) लिया जाने वाला दायित्व या भार। विशेष—मध्ययुग में किसी गाँव या बस्ती में किसी प्रकार की विपत्ति की सम्भावना होने पर वहाँ के रहनेवाले लोग बारी-बारी से रक्षा या सहायता का जो भार अपने ऊपर लेते थे, वह ‘थीकरा’ कहलाता था।
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थीता  : पुं० [सं० स्थित; हिं० थित] १. स्थिरता। २. शांति। ३. कल। चैन। वि० १.=स्थित। २.=स्थिर।
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थीति  : स्त्री०=स्थिति।
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थीथी  : स्त्री० [सं० स्थिति] १. स्थिति। २. शांति। ३. धैर्य। धीरज। ४. चैन। सुख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थीर (ा)  : वि०=थिर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थुकवाना  : स० [हिं० थूकना का प्रे०] १. किसी को कहीं अथवा कुछ थूकने में प्रवृत्त करना। २. किसी के द्वारा दूसरे को परम घृणित और निन्दनीय सिद्ध करना। ३. उगलवाना।
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थुकहाया  : वि० [हिं० थूक+हाया (प्रत्य०)] [स्त्री० थुकहाई] जिस पर लोग थूकते हों, अर्थात् जिसकी सब लोग बहुत निंदा करते हों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थुकाई  : स्त्री० [हिं० थूकना] थूकने की क्रिया या भाव।
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थुकाना  : स०=थुकवाना।
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थुकायल, थुकेल  : वि० दे० ‘थुकहाया’।
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थुक्का-फजीहत  : स्त्री० [हिं० थूक+अ० फज़ीहत] ऐसी कहा-सुनी या झगड़ा जिसमें दोनों पक्षों की खूब दुर्दशा और बेइज्जती हो तथा दोनों एक दूसरे का घोर तिरस्कार करते हुए थू-थू कहते हों।
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थुक्की  : स्त्री० दे० ‘थुड़ी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थुड़ना  : अ० [हिं० थोड़ा] १. थोड़ा या कम होना। २.थोड़ा या कम पड़ना। (पश्चिम)
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थुड़ी  : स्त्री० [हिं० थू थू से अनु०] १. एक परम घृणासूचक और धिक्कार का शब्द जो बहुत ही निन्दनीय काम करनेवाले के प्रति यह बतलाने के लिए प्रयुक्त होता है कि हम तुम पर थूकते हैं। जैसे—उनके इस आचरण पर सब लोग थुड़ी-थुड़ी कर रहे हैं। २. धिक्कार। लानत।
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थुत  : भू० कृ० [सं० स्तुत] जिसकी स्तुति हुई या की गई हो।
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थुतकार  : स्त्री०=थुथकार।
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थुतकारना  : स०=थुथकारना।
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थुत्कार  : पुं० [सं० √कृ (करना)+घञ्=कार, थुत्-कार ष० त०] १. थूकने की क्रिया या भाव। २. थूकने से होनेवाला शब्द।
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थुथकार  : स्त्री० [हिं० थू थू से अनु०] १. किसी के परम घृणा और धिक्कार का सूचक थू-थू शब्द। २. परम घृणित स्त्री। ३. पैर की जूती। ४. पैरों में डाली जाने वाली बेड़ी। ५. छिपकली। (मुसल० स्त्रियाँ)
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थुथकारना  : स० [हिं० थुथकार] थू-थू या थुड़ी थुड़ी करते हुए किसी को परम घृणित या निंद्य ठहराना या बतलाना।
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थुथना  : पुं०=थूथन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थुथाना  : अ० [हिं० थूथन] १. थूथन फुलाना अर्थात् नाराज होकर मुँह फुलाना। (व्यंग्य) २. उदासीन भाव से मुँह फुलाकर चुपचाप बैठे रहना।
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थुथून  : पुं०=थूथन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थुनी  : स्त्री०=थूनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थुनेर  : पुं० [सं० स्थूण; हिं० थून] गठिवन का एक भेद जो वद्यक में त्रिदोष नाशक तथा वीर्यवर्धक माना जाता है।
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थुन्नी  : स्त्री०=थूनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थुपथुपी  : स्त्री०=थपकी।
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थुपरना  : स० [सं० स्तूप; हिं० थूप] महुए की बालों का ढेर इस उद्देश्य से लगाना कि उनमें गर्मी आवे और वे कुछ पक जायँ।
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थुपरा  : पुं० [सं० स्तूप] महुए की बालों का ढेर जो दबाकर औसने के लिए रखा जाय।
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थुर-हथा  : वि० [हिं० थोड़+हाथ] [स्त्री० थुर-हथी] १. जो अपने छोटे-छोटे हाथों के कारण चंगुल, मुट्ठी या हथेली में अधिक चीज न ले सकता हो। उदा०—कन देबो सौंप्यो ससुर बहू थुर-हथी जानि।—बिहारी। २.जो इतना कंजूस हो कि दूसरों को उठाकर थोड़ी-सी चीज़ ही दे सकता हो, अधिक न दे सकता हो। ३. मितव्ययी। कंजूस।
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थुरना  : अ० [सं० थुंवर्ण=मारना, हिं० ‘थूरना’ का अ० रूप] थूरा (अर्थात् कूटा या मारा-पीटा) जाना। अ०=थुड़ना (कम पड़ना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थुलथुल  : वि० [अनु०] अधिक क्षीण होने के कारण जिसके शरीर का कोई मांसल अंग झूलने या हिलने लगे।
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थुलमा  : पुं० [सं० उल्वण ?] एक प्रकार का पहाड़ी मोटा कंबल जिसमें एक ओर रोएँ ऊपर उठे हुए होते हैं।
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थुली  : स्त्री० [सं० स्थूल; हिं० थूला] मोटे कणों के रूप में दले हुए अन्न के दाने। दलिया।
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थू  : अव्य० [अनु०] १. थूकने का शब्द। २. एक घृणासूचक शब्द।
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थूआ  : पुं० [सं० स्तूप; प्रा० थूप, थूव] १. मिट्टी आदि का ऊँचा टीला। ढह। २. गीली मिट्टी का लोंदा। धोंधा। ३. मिट्टी का वह ढूह या मेंड़ जो सीमा आदि सूचित करने के लिए बनाई जाती है। ४. गीली मिट्टी का वह ढेर या लोंदा जो ढेकली आदि की लकड़ी पर भार के रूप में रखा जाता है। ५. किसी गीले पदार्थ का गोलाकार ढेर। जैसे—पीने के तमाकू का थूआ जो तमाकू की दुकानों पर रहता है। ६. वह बोझ जो कपड़े में बँधी हुई राब के ऊपर उसकी जूसी निकालने के लिए रखा जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थूँक  : पुं०=थूक।
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थूक  : पुं० [अनु० थू थू ] १. वह गाढ़ा, लसीला सफेद पदार्थ जो मुँह से प्रयत्नपूर्वक निकालकर बाहर गिराया या फेंका जाता है। पद—थूक है=(तुम्हें) धिक्कार या लानत है। मुहा०—थूक उछालना=व्यर्थ की बकवाद करना। थूक बिलोना=व्यर्थ की कहा-सुनी या बकवाद करना। (किसी को) थूक लगाना=बुरी तरह से नीचा दिखाना या परास्त करना। (अशिष्ट और बाजारू) थूक लगाकर रखना=बहुत बुरी तरह से जोड़-जोड़कर इकट्ठा करना या रखना। बहुत कंजूसी से जमा करना। थूकों सत्तू सानना=कंजूसी के कारण बहुत थोड़े व्यय में बहुत बड़ा काम करने का प्रयत्न करना।
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थूँकना  : स०=थूकना।
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थूकना  : स० [हिं० थूक+ना (प्रत्य०)] १. मुँह में आई हुई थूक अथवा रखी हुई कोई चीज बाहर गिराना या फेंकना। मुहा०—किसी (व्यक्ति या वस्तु) पर न थूकना=इतना अधिक घृणित समझना कि उस पर थूकने तक को जी न चाहे। थूक कर चाटना=(क) कोई वचन देकर मुकर जाना। (ख) किसी को कोई वस्तु देकर बाद में फिर ले लेना। (ग) फिर कभी वैसा घृणित काम न करने की प्रतिज्ञा करना। २. किसी के प्रति अपनी परम घृणा प्रकट या प्रदर्शित करना।
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थूथन  : पुं० [देश०] १. कुछ विशिष्ट प्रकार के पशुओं का लंबोतरा और कुछ आगे की ओर निकला हुआ मुँह। जैसे—घोड़े, बैल या सूअर का थूथन। २. रुष्ट व्यक्ति का फूला हुआ और रोषसूचक मुँह।(व्यंग्य) मुहा०—थूथन फुलाना=किसी से बहुत रुष्ट होकर बिलकुल चुप हो जाना। मुँह फुलाना। (व्यंग्य)
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थूथनी  : स्त्री० [हिं० थूथन] १. छोटा थूथन। २. हाथी के मुँह का एक रोग जिसमें ऊपर के तालू में घाव हो जाता है। ३. दे० ‘थूथन’।
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थूथरा  : वि० [हिं० थूथन] जो आकार-प्रकार या रूप रंग में थूथन की तरह का हो।
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थून  : स्त्री० [सं० स्थूण] थूनी। खंभा। पु० दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का मोटा गन्ना।
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थूना  : पुं० [देश०] मिट्टी का वह लोंदा जिसमें रेशम, सूत आदि फेरने का परेता खोंसा जाता है।
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थूनि  : स्त्री०=थूनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थूनी  : स्त्री० [सं० स्थूण] १. लकड़ी आदि का खड़ा गड़ा हुआ बल्ला। खंभा। २. भारी चीज को गिराने से रोकने के लिए उसके नीचे लगाई जाने वाली मोटी और लंबी लकड़ी। चाँड़। ३. वह गड़ी हुई लकड़ी जिसमें रस्सी के फंदे से मथानी का डंडा खड़ा रखा जाता है। ४. आश्रय या रक्षा का स्थान। उदा०—कबीर थूनी पाई थित भई सति गुरु बाँधी धीर।—कबीर।
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थून्हीं  : स्त्री०=थूनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थूबी  : स्त्री० [देश०] साँप के काटे हुए स्थान को गरम लोहे से दागकर विष दूर करने की क्रिया या प्रकार।
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थूर  : पुं० [सं० तूवर] अरहर। स्त्री० [हिं० थूरना] थूरने की क्रिया या भाव।
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थूरना  : स० [सं० थुवर्ण=मारना] १. अच्छी तरह कूटना। २. अच्छी तरह मारना-पीटना। ३. खूब कसकर भरना। ४. खूब कसकर और भर पेट भोजन करना। (व्यंग्य) उदा०—कैसी गधी हो, बच्चों का खाना हो हूँसती। रातिब तो तीन टट्टू का जाती हो थूर आप।—जान साहब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थूल  : वि० [सं० स्थूल] १. मोटा। भारी। २. भद्दा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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थूला  : वि० [सं० स्थूल] [स्त्री० थूली] १. मोटा-ताजा। हृष्ट-पुष्ट। २. भारी और मोटा।
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थूवा  : पुं०=थुआ। (देखें)
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थूहड़  : पुं०=थूहर।
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थूहर  : पुं० [सं० स्थूल] एक प्रकार का झाड़ या पौधा जिसमें लचीली टहनियों की जगह प्राय
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थूहा  : पुं० [सं० स्तूप; प्रा० थूब] [स्त्री० अल्पा० थूही] १. छोटा टीला। ढूह। २. ढेर। राशि। ३. कूओं आदि पर मिट्टी के बने हुए वे दोनों खम्भे जिन पर वह लकड़ी या लोहे का छड़ रखा जाता है जिसमें गराड़ी पहनाई हुई होती है।
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थेई-थेई  : स्त्री० [अनु०] १. नृत्य का ताल सूचक शब्द। २. थिरक-थिरककर नाचने की मुद्रा। कि० प्र०—करना।
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थेगली  : स्त्री०=थिगली।
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थेथर  : वि० [सं० शिथिल] १. बहुत अधिक थका हुआ। २. जो कष्ट, दुर्दशा आदि भोगता-भोगता हद से ज्यादा तंग या परेशान हो गया हो।
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थेथरई  : स्त्री० [हिं० थेथर] १. थेतर होने की अवस्था या भाव। २. निर्लज्जतापूर्वक किया जाने वाला दुराग्रह। ३. अपने दोषों, भूलों आदि पर ध्यान न देकर निर्लज्जतापूर्वक सब के सामने सिर उठाकर उद्दंडतापूर्वक की जानेवाली बात।
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थेवा  : पुं० [देश०] १. अँगूठी में जड़ा हुआ नगीना। २. अँगूठी के ऊपर लगा हुआ वह घर जिसमें नगीना जड़ा या बैठाया जाता है।
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थैं  : अव्य० [पु० हिं० ते ] से। उदा०—वेद बड़ की जहाँ थैं आया।—कबीर।
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थै-थै  : अ० य० [सं० अव्यक्त शब्द] नृत्य, वाद्य आदि का अनुकरणात्मक शब्द।
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थैचा  : पुं० [देश०] खेत में बनी हुई मचान का छप्पर।
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थैला  : पुं० [सं० स्थल=कपड़े का घर] [स्त्री० अल्पा० थैली] १. कपड़े या ऐसी ही किसी चीज के लम्बे टुकड़े को दोहरा करके और दोनों ओर से सीकर छोटे बोरे की तरह बनाया हुआ वह आधान जिसमें चीजें भरकर रखते हैं। एक प्रकार का झोला। मुहा०—(किसी को) थैला करना=मारते मार के बेदम कर देना। विशेष—पहले कहीं-कहीं टाट के बड़े थैलों में या बोरों में अपराधियों को भरकर और ऊपर से थैले का मुँह बन्द करके घूँसों, ठोकरों आदि से खूब मारते थे। इसी से यह मुहावरा बना है। २.पायजामे का वह भाग जो जंघे से घुटने तक और देखने में बहुत कुछ उक्त आधान की तरह होता है।
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थैली  : स्त्री० [हिं० थैला] १. छोटा थैला। २. एक विशेष प्रकार की छोटी थैली जिसमें रुपए आदि रखे जाते हैं। मुहा०—थैली खोलना या थैली का मुँह खोलना=यथेष्ट धन व्यय करने के लिए प्रस्तुत होना। ३. वह धन जो थैली में भरकर किसी बड़े आदमी को समर्पित किया जाता है। जैसे—कांग्रेस अध्यक्ष को वहाँ दस हजार की थैली भेंट की गई। ४. उक्त आकार प्रकार की ऐसी कोई चीज जिसके अन्दर कोई दूसरी चीज सुरक्षापूर्वक बंद हो या रहती हो। जैसे—गर्भकाल में बच्चा झिल्ली की थैली में बंद रहता है।
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थैली-वरदारी  : स्त्री० [हिं० थैली+बरदारी] दूसरों की थैली (या धन) उठाकर इधर-उधर ले जाना।
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थैलीदार  : पुं० [हिं० थैली+फा० दार ] १. वह आदमी जो खजाने में रुपयों की थैलियाँ उठाकर रखता या लाता है। २. तहवीलदार। रोकड़िया।
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थोक  : पुं० [सं० स्तोक या स्तोमक; प्र० थोवँक; हिं० थोक] १. एक ही तरह की बहुत सी चीजों का ढेर या राशि। थाक। (देखें) क्रि० प्र०—करना।—लगाना। २. चीजें बेचने का वह प्रकार जिसमें एक ही तरह की बहुत सी चीजें एक साथ या इकट्ठी और प्राय
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थोकदार  : पुं० [हिं० थोक+फा० दार] वह व्यापारी जो थोक का कार्य करता हो।
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थोड़  : स्त्री० [हिं० थोड़ा] १. थोड़े होने की अवस्था या भाव। कमी। जैसे—यहाँ खाने-पीने की कोई थोड़ नहीं है। २. ऐसा अभाव या कमी जिसकी कमी या पूर्ति की आवश्यकता जान पड़ती हो। जैसे—हमारे यहाँ भी बच्चों की थोड़ है। (पश्चिम) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थोड़न  : पुं० [सं० थुड् (ढाँकना)] ढाँकने या लपेटने की क्रिया या भाव।
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थोड़ा  : वि० [सं० स्तोक; पा० थोअ+ड़ा (प्रत्य०)] [स्त्री० थोड़ी] १. जो मात्रा, मान आदि में आवश्यक या उचित से बहुत कम हो। अल्प। जैसे—यह कपड़ा कुर्ते के लिए थोड़ा होगा। मुहा०—(व्यक्ति का) थोड़ा थोड़ा होना=लज्जित या संकुचित होना या होता हुआ जान पड़ना। पद—थोड़ा बहुत=अधिक या यथेष्ट नहीं। कुछ-कुछ। थोड़े में=संक्षेप में। थोड़े ही=बिलकुल नहीं। जैसे—हम वहाँ थोड़े ही गये थे। २. केवल उतन, जितने से किसी तरह काम चल जाय। जैसे—कहीं से थोड़ा नमक ले आओ। क्रि० वि० अल्प मात्रा या मान में। कुछ। जरा। जैसे—थोड़ा ठहरकर चले जाना।
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थोती  : स्त्री०=थोथी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थोथ  : स्त्री० [हिं० थोथा] १. थोथे होने की अवस्था या भाव। थोथापन। २. खोखलापन। ३. निस्सारता। स्त्री०=तोंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थोथरा  : वि०=थोथा।
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थोथा  : वि० [देश०] [स्त्री० थोथी] १. जिसके अन्दर का सार भाग नष्ट हो गया हो या निकल गया हो। २. जिसमें कुछ भी तत्त्व या सार न हो। निःसार। जैसे—थोथी बातें, थोथा विवाद। ३. निकम्मा, बेढंगा और भद्दा। ४. (पक्षी या पशु) जिसकी दुम कटी हो। बाँड़ा। ५. (शस्त्र) जिसकी धार कुंठित हो गई हो या घिस गई हो। भोथरा।
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थोथी  : स्त्री० [हिं० थूथन] थूथन का अगला छोटा नुकीला भाग। स्त्री० [?] एक प्रकार की घास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थोपड़ी  : स्त्री० [हिं० थोपना] चाँद अर्थात् खोपड़ी के बीचवाले भाग पर लगाई जानेवाली हलकी चपत या धौल। थोपी।
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थोपना  : स० [सं० स्थापन; हिं० थापना] १. किसी चीज पर कोई गाढ़ी गीली चीज इस प्रकार कुछ जोर से फेंकना या रखना कि उसकी मोटी तह-सी जम जाय। मोटा लेप लगाना। जैसे—(क) कच्ची दीवार की मरम्मत करने के लिए उस पर गीली मिट्टी थोपना। (ख) शरीर के किसी पीड़ित अंग पर कोई गीली पिसी हुई दवा थोपना। संयो० क्रि०—देना। २. अभियोग, उत्तरदायित्व, भार आदि बलपूर्वक किसी पर रखना या लगाना। आरोपित करना। मत्थे चढ़ना। जैसे—किसी के सिर कोई कलंक (या काम) थोपना। ३. दे० ‘छोपना’।
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थोपी  : स्त्री० [हिं० थोपना] वह हलकी चपत या धौल जो प्रायः बच्चे खेलते समय आपस में एक दूसरे के सिर पर लगाते हैं। थोपड़ी।
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थोबड़ा  : पुं० [देश०] १. जानवरों का निकला हुआ लम्बा मुँह। थूथन। २. व्यक्ति के मुँह की वह आकृति जो मन ही मन बहुत रुष्ट होने पर होती है। फूला हुआ मुँह। ३. दे० ‘तोबड़ा’।
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थोभ  : स्त्री० [सं० स्तोम] बाधा। रुकावट। पुं० [देश०] केले की पेड़ी के बीच का गाभा।
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थोर  : पुं०=थूहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=थोड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=थोड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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थोरा  : वि०=थोड़ा।
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थोरिक  : वि० [हिं० थोरा+एक] थोड़ा-सा। तनिक-सा।
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थोरी  : स्त्री० [देश०] एक अनार्य जाति।
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थौंद  : स्त्री०=तोंद।
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थ्याबस  : पुं० [सं० स्थेयस] १. ठहराव। स्थिरता। २. धीरता। धैर्य।
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