दू/doo

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शब्द का अर्थ

दू  : वि०=दो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दू-बदू  : क्रि० वि० [फा०] १. आमने-सामने। मुहाँ-मुँह। जैसे—उनसे मिलकर दू-बदू बातें कर लो। २. मुकाबले में। जैसे—तुम तो अपने बड़ों से भी दू-बदू कहा-सुनी करते हो।
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दूआ  : पुं० [हिं० दो+आ (प्रत्य०)] १. ताश या गंजीफे में वह पत्ता जिस पर दो बूटियाँ या बिंदियाँ हों। दुक्की। २. पासे, सोलही आदि का ऐसा दाँव जिसमें दो बिंदियाँ ऊपर रहती अथवा दो कौड़ियाँ चित्त पड़ती हैं। (जुआरी) वि०=दूसरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [देश०] कलाई पर सब गहनों के पीछे की ओर पहना जाने वाला पिछेली नामक गहना। स्त्री०=दुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूइ  : वि०=दो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूई  : वि०=दो। स्त्री०=दुई।
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दूक  : वि० [सं० द्वैक] दो एक, अर्थात् कुछ या थोड़े से।
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दूकान  : स्त्री०=दुकान।
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दूकानदार  : पुं०=दुकानदार।
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दूकानदारी  : स्त्री०=दुकानदारी।
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दूख  : पुं०=दुःख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूखन  : पुं०=दूषण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूखना  : स० [सं० दूषण+ना (प्रत्य०)] किसी पर दोष लगाना। किसी को बुरा ठहराना या बताना। अ० [?] नष्ट होना। स० नष्ट करना। अ०=दुखना।
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दूखित  : वि० १.=दूषित। २.=दुःखित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूँगड़ा  : पुं०=दौंगरा।
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दूँगरा  : पुं०=दौंगरा।
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दूगला  : पुं० [देश०] एक तरह का बड़ा टोकरा। वि०, पुं०=दोगला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूगुन  : वि०=दूना (दुगुना)। स्त्री०=दुगून।
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दूगू  : पुं० [देश०] एक तरह का पहाड़ी बकरा।
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दूज  : स्त्री० [सं० द्वितीया, प्रा० दुइय, दुइज], चांद्रमास के हर पक्ष की दूसरी तिथि। दुइज। द्वितीया। पद—दूज का चाँद=ऐसा व्यक्ति जो बहुत दिनों पर दिखाई देता या मिलता हो। (परिहास और व्यंग्य)
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दूजा  : वि० [सं०द्वितीया, प्रा० दुइय] [स्त्री० दूजी] १. दूसरा। (पश्चिम) २. पराया।
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दूझना  : स० [सं० दुःख] कष्ट या दुःख देना।
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दूझा  : वि०=दूजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूत  : पुं० [सं०√दू (दुखी होना)+क्त] [स्त्री० दूती] १. वह व्यक्ति जो किसी का सन्देश लेकर कहीं जाय। दूसरों के सन्देश अभिप्रेत व्यक्ति तक पहुँचाने वाला। २. प्रेमी और प्रेमिका के सन्देश एक दूसरे को पहुँचानेवाला व्यक्ति। ३. वह जो एक दूसरे की बातें इधर-उधर लगाकर दोनों पक्षों में लड़ाई-झगड़ा कराता हो। (क्व०) ४. दे० ‘राजदूत’।
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दूत-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] दूत का काम। दूतत्व।
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दूत-काव्य  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा काव्य जिसमें मुख्यतः किसी दूत के द्वारा प्रिय के पास विरह निवेदन भेजा गया हो। जैसे—मेघदूत, पवनदूत।
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दूत-मंडल  : पुं० [ष० त०] आधुनिक राजनीति में, एक देश से दूसरे देश को किसी काम के लिए भेजे हुए दूतों का दल या समूह।
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दूतक  : पुं० [सं० दूत+कन्] १. प्राचीन भारत में, वह कर्मचारी जो राजा की दी हुई आज्ञा का सर्व-साधारण में प्रचार करता था। २. दूत।
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दूतकत्व  : पुं० [सं० दूतक+त्व] १. दूतक का काम, पद या भाव। २. दूत का काम, पद या भाव।
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दूतघ्नी  : स्त्री० [सं० दूत√हन् (हिंसा)+टक्—ङीष्] गोरखमुंडी। कदंबपुष्पी।
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दूतता  : स्त्री० [सं० दूत+तल्—टाप्] दूत का काम, पद या भाव। दूतत्व।
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दूतत्व  : पुं० [सं० दूत+त्व] दूत का काम, पद या भाव। दूतता।
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दूतपन  : पुं० [सं० दूत+हिं० पन (प्रत्य०)] दूतत्व।
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दूतर  : वि०=दुस्तर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूतायन  : पुं० दे० ‘दूतावास’।
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दूतावास  : पुं० [दूत-आवास, ष० त०] वह भवन या क्षेत्र जिसमें किसी दूसरे राज्य के राजदूत तथा उसके साथ के कर्मचारी रहते तथा काम करते हों। राजदूत का कार्यालय। (लीगेशन)
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दूति  : स्त्री० [सं०√दू+ति]=दूती।
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दूतिका  : स्त्री० [सं० दूति+कन्—टाप्] दूती।
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दूती  : स्त्री० [सं० दूति+ङीष्] १. संदेश पहुँचानेवाली स्त्री। २. साहित्य में, वह स्त्री जो प्रेमिका का संदेश प्रेमी तक और प्रेमी का संदेश प्रेमिका तक पहुँचाती है। इसके उत्तमा, मध्यमा और अधमा तीन भेद है। ३. दे० ‘कुटनी’।
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दूत्य  : पुं० [सं० दूत+य] दूत का काम, पद या भाव।
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दूँद  : पुं० [सं० द्वंद्व] १. ऊधम। उपद्रव। क्रि० प्र०—मचाना। २. दे० ‘द्वंद्व’।
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दूद  : पुं० [फा०] धुआँ।
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दूदकश  : पुं० [फा०] १. धूआँ बाहर निकालने की चिमनी। २. एक प्रकार का दमकला जिससे धूआँ देकर पौधों में लगे हुए कीड़े नष्ट किये जाते हैं।
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दूँदना  : अ० [हिं० दूँद] १. उपद्रव करना। ऊधम मचाना। २. जोर का शब्द करना।
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दूँदर  : वि[सं० द्वंद्व] बलवान्। शक्तिशाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूदला  : पुं० [देश०] एक तरह का पेड़। डुडला।
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दूँदि  : स्त्री०=दूँद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दूदुह  : पुं० [सं० दुंडुभ] पानी का साँप। डेड़हा (डिं०)
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दूध  : पुं० [सं० दुग्ध] १. सफेद या हल्के पीले रंग का वह पौष्टिक तरल पदार्थ जो मादा स्तनपायी जीवों के स्तनों में शिशु के जन्म लेने पर उत्पन्न होता है, तथा जिसे वे नवजात शिशुओं को पिलाकर उनका पालन-पोषण करती है। मुहा०—दूध उतरना=संतान होने के समय मादा के स्तन में दूध का आर्विभाव होना। (किसी के मुँह से) दूद की बू आना=अवस्था या वय के विचार से दूध पीनेवाले बच्चों से कुछ ही बड़ा होना। अल्पवयस्क होना। दूध चढ़ना=दुहते समय गाय, भैंस आदि का अपने दूध को स्तनों में ऊपर की ओर खींच ले जाना जिससे दुहनेवाला उसको खींचकर बाहर न निकाल सके। (बच्चे का दूध) छुड़ाना=बच्चे को दूध पीने की प्रवृत्ति इस प्रकार धीरे-धीरे कम करना कि वह माता का दूध पीना छोड़ दे। (बच्चे का) दूध टूटना=स्तनों से निकलनेवाले दूध की मात्रा कम होना। दूध डालना=बच्चे का दूध पीते ही उसे उगलकर बाहर निकाल देना। जैसे—दो तीन दिन से यह बच्चा दूध डाल रहा है। (मादा का) दूध दुहना=स्तनों को बार बार दबाते हुए उनमें से दूध बाहर निकालना। दूध बढ़ाना=दे० ‘दूध छुड़ाना’। (देखें ऊपर) पद—दूध का बच्चा=वह छोटा बच्चा जो केवल दूध पीकर रहता हो। दूध के दाँत=छोटे बच्चे के वे दाँत जो पहले-पहल दूध पीने की अवस्था में निकलते हैं और छः सात वर्ष की अवस्था में जिनके गिरजाने पर दूसरे नये दाँत निकलते हैं। दूध-पीता बच्चा=गोद में रहनेवाला वह छोटा बच्चा जिसका आहार कभी केवल दूध हो। दूधों नहाओं, पूतों फलो=धन-संपत्ति और संतान की ओर से खूब सुखी रहो। (आशीष) २. गाय, बकरी, भैंस आदि के थनों को दूहकर निकाला जानेवाला उक्त तरल पदार्थ। मुहा०—दूध उछालना=खौलते हुए दूध को ठंढा करने के लिए कहाड़ी आदि में से निकालकर बार-बार ऊपर से नीचे गिराना। (किसी को) दूध की मक्खी की तरह निकालना या निकाल देना=किसी मनुष्य को परम अनावश्यक और तुच्छ अथवा हानिकारक समझकर अपने साथ या किसी कार्य से बिलकुल अलग कर देना। दूध तोड़ना=गरम दूध खूब हिलाकर ठंढ़ा करना। (किसी चीज का) दूध पीना=बहुत ही सुरक्षित अवस्था में बने रहना। जैसे—आपके रूपए दूध पीते हैं, जब चाहें तब ले लें। दूध फटना=दूध में किसी प्रकार का रासायनिक विकार होने अथवा विकार उत्पन्न किये जाने पर जलीय अंश का उसके सार भाग से अलग होना। दूध फाड़ना=खटाई आदि डालकर ऐसी क्रिया करना जिससे दूध का जलीय अंश और सार भाग अलग हो जाय। पद—दूध का दूध और पानी का पानी=ऐसा ठीक और पूरा न्याय जिसमें उचित और अनुचित बातें एक दूसरे से बिलकुल अलग होकर स्पष्ट रूप से सामने आ जायँ। ठीक उसी तरह का न्याय जिस तरह पानी मिले हुए दूध में से दूध का अंश अलग और पानी का अंश अलग हो जाता है। दूध का-सा उबाल=उसी प्रकार का कोई क्षणिक आवेग, आवेश या मनोविकार जो उबलते हुए दूध के उबाल की तरह बहुत थोड़ी देर में धीमा पड़ जाता या शांत हो जाता हो। ३. कई प्रकार के पत्तो, फलों, बीजों आदि में से निकलनेवाला गाढ़ा सफेद रस। जैसे—गेहूँ, बरगद या मदार का दूध। मुहा०—(किसी चीज में) दूध आना या पड़ना=उक्त प्रकार से रस का आविर्भाव होना जो दानों, बीजों आदि के तैयार होने या पकने का सूचक होता है। ४. रासायनिक क्रिया से दूध का बना हुआ सूखा चूर्ण जो प्रायः डिब्बों में बंद किया हुआ मिलता है।
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दूध भाई  : पुं० [हिं० दूध+भाई] [स्त्री० दूध-बहन] ऐसे दो बालकों में से कोई एक जो किसी एक स्त्री के स्तन का दूध पीकर पलें हों फिर भी जो अलग-अलग माता-पिता से उत्पन्न हुए हों।
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दूध-चढ़ी  : वि० [हिं० दूध+चढ़ना] जो बहुत अधिक दूध देती हो।
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दूध-पिलाई  : स्त्री० [हिं० दूध+पिलाना] १. दूध पिलानेवाली दाई। २. दूसरे के बच्चे को अपने स्तन का दूध पिलाने के बदले में मिलनेवाला धन। ३. विवाह के समय की एक रसम जिसमें वर की माँ उसे (वर को) दूध पिलाने की-सी मुद्रा करती है। ४. उक्त रसम के समय माता को मिलनेवाला नेग।
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दूध-पूत  : पुं० [हिं० दूध+पूत=पुत्र] धन और संतत्ति।
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दूध-फेनी  : स्त्री० [सं० दुग्धफेनी] एक प्रकार का पौधा जो दवा के काम आता है। स्त्री० [हिं० दूध+फेनी] दूध में भिगोई या पकाई हुई फेनी।
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दूध-बहन  : स्त्री०=दूध-भाई का स्त्री० (दे० ‘दूध-भाई’)।
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दूध-मलाई  : स्त्री० [हिं०] पुरानी चाल की एक प्रकार की बूटीदार मलमल।
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दूध-मसहरी  : स्त्री० [हिं० दूध+मसहरी] एक तरह का रेशमी कपड़ा।
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दूध-सार  : पुं० [हिं० दूध+सं० सार] १. एक प्रकार का बढिया केला। २. रासायनिक क्रियाओं से बनाया हुआ दूध का सत जो सूखे चूर्ण के रूप में बाजारों में बिकता है।
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दूध-हंडी  : स्त्री० [हिं० दूध+हंडी] वह हाँड़ी जिसमें दूध गरमाया अथवा रखा जाता है।
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दूधमुख  : वि०=दुध-मुँहाँ।
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दूधमुँहाँ  : वि०=दुध-मुँहाँ।
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दूधराज  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार की बुलबुल जो भारत, अफगानिस्तान और तुर्किस्तान में पाई जाती है। इसे शाह बुलबुल भी कहते हैं। २. बहुत बड़े फनवाला एक प्रकार का साँप।
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दूधा  : पुं० [हिं० दूध] १. एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है और जिसका चावल वर्षों तक रह सकता है। २. अन्न के कच्चे दानों में से निकलनेवाला दूध की तरह का सफेद रस।
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दूधा-भाती  : स्त्री० [हिं० दूध+भात] विवाह के उपरांत की एक रसम जिसमें वर और कन्या एक दूसरे को दूध और भात खिलाते हैं।
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दूधाधारी  : वि०=दूधाहारी।
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दूधाहारी  : वि० [हिं० दूध+आहारी] जो केवल दूध पीकर निर्वाह करता हो, अन्न, फल आदि न खाता हो।
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दूधिया  : वि० [हिं० दूध+इया (प्रत्य०)] १. जिसमें दूध मिला हो अथवा जो दूध के योग से बना हो। जैसे—दूधिया भाँग, दूधिया हलुआ २. जिसमें दूध होता हो। जैसे—दूधिया सिंघाड़ा। ३. जो दूध के रूप में हो। जैसे—दूधिया निर्यास। ४. दूध के रंग का। ५. ऐसा सफेद जिसमें कुछ नीली झलक हो। (मिल्की) पुं० १. एक तरह का सोहन हलुआ जो दूध के योग से बनता है। २. एक प्रकार का सफेद रत्न। ३. एक प्रकार का सफेद तथा मुलायम पत्थर। ४. ऐसा सफ़ेद रंग जिसमें नीली झलक हो। ५. एक तरह का बढ़िया आम। स्त्री० [सं० दुग्धिका] १. दुद्धी नाम का घास। २. एक प्रकार की चरी या ज्वार। ३. खडि़या या खड़ी नामक सफेद खनिज मिट्टी। ४. एक प्रकार की चिड़िया जिसे लटोरा भी कहते हैं।
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दूधिया-कंजई  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का रंग जो नीलापन लिये हुए भूरा अर्थात् कंजे के रंग से कुछ खुलता हो। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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दूधिया-खाकी  : वि० [हिं० दूधिया+खाकी] सफेद राख के से रंगवाला। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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दूधिया-पत्थर  : पुं० [हिं० दूधिया+पत्थर] १. एक प्रकार का मुलायम सफेद पत्थर जिससे कटोरियाँ, प्याले आदि बनते हैं। २. एक प्रकार का बहुत चमकीला और चिकना बड़ा पत्थर जिसकी गिनती रत्नों में होती है।
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दूधिया-विष  : पुं० [हिं० दूधिया+विष] कलियारी की जाति का एक विष जिसके सुन्दर पौधे काश्मीर तथा हिमालय के पश्चिमी भाग में मिलते हैं। इसे ‘तेलिया विष’ और ‘मीठा जहर’ भी कहते हैं।
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दूधी  : स्त्री०=दुद्धी।
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दून  : स्त्री० [हिं० दूना] १. दूने होने की अवस्था या भाव। मुहा०—दून की लेना या हाँकना=अपनी शक्ति, सामर्थ्य आदि के संबंध में बहुत कुछ बढ़-बढ़कर बातें करना। शेखी हाँकना। दून की सूझना=ऐसी बात सूझना जो सहज में पूरी न हो सकती हो। २. जितना समय लगाकर गाना या बजाना आरंभ किया जाय आगे चलकर लय बढाते हुए उससे आधे समय में पूरा करना। ३. ताश के खेल में वह स्थिति जब कोई खिलाड़ी या पक्ष बदी हुई संख्या में सरें आदि न बना सकने के कारण दुगनी हार या भागी समझा जाता है। वि०=दूना। पुं० [देश०] दो पहाड़ों के बीच का मैदान। तराई। घाटी। जैसे—देहरादून।
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दून-सिरिस  : पुं० [देश०] एक तरह का सफेद सुगंधित फूलोंवाला सिरिस का पेड़।
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दूनर  : वि० [सं० द्विनम्र] जो लचकर दोहरा हो गया हो।
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दूना  : वि० [सं० द्विगुण] जितनी कोई संख्या या चीज हो, उससे उतने ही और अधिक अनुपात में होनेवाला। दुगना। दोगुना। जैसे—४ का दूना ८ होता है।
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दूनौ  : वि०=दोनों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूब  : स्त्री० [सं० दूर्वा] एक तरह की प्रसिद्ध घास जिसका व्यवहार हिंदू लोग लक्ष्मी गणेश आदि के पूजन में करते हैं।
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दूबर  : वि०=दूबरा (दुबला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूबरा  : वि० [सं० दुर्बल] १. दुबला-पतला। क्षीण-काय। कृश। २. कमजोर। दुर्बल। ३. किसी की तुलना में कम योग्यता या शक्तिवाला अथवा हीन।
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दूबला  : वि०=दुबला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूबा  : स्त्री०=दूब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूबिया  : पुं० [हिं० दूब+इया (प्रत्य०)] एक तरह का हरा रंग। हरी घास का-सा रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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दूबे  : पुं० [सं० द्विवेदी] द्विवेदी ब्राह्मण।
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दूभर  : वि० [सं० दुर्भर] १. जो कठिनता से सहन किया जा सके। २. कठिन। मुश्किल। जैसे—आज का दिन कटना दूभर हो रहा है।
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दूमना  : अ० [सं० द्रुम] हिलना-डोलना।
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दूमा  : पुं० [सं० ] एक प्रकार का पुरानी चाल का चमड़े का छोटा थैला जिसमें तिब्बत से चाय भर कर आती थी।
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दूमुहाँ  : वि०=दुमुँहाँ।
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दूर  : वि० [सं० दूर्√इ (गति)+रक्, धातु का लोप, रलोप, दीर्घ] [फा० दूर] [भाव० दूरत्व, दूरी] जो देश, काल, संबंध, स्थिति आदि के विचार से किसी निश्चित वस्तु, बिंदु व्यक्ति आदि से बहुत अंतर या फासले पर हो। जो निकट, पास या समीप अथवा किसी से मिला हुआ न हो। पद—दूर का=जो पास या समीप का न हो। जिससे घनिष्ठ लगाव या संबंध न हो। जैसे—(क) वे भी हमारे दूर के रिश्तेदार हैं। (ख) ये सब तो बहुत दूर की बातें हैं। दूर का बात=(क) बहुत आगे चलकर आनेवाली बात। (ख) बहुत कठिन और प्रायः अनहोनी-सी बात। (ग) दूरदर्शिता और समझदारी की बात। मुहा०—दूर की कहना=बहुत समझदारी की बात और दूरदर्शिता की बात कहना। दूर की सूझना=दूरदर्शिता की बात ध्यान में आना। (ख) ऐसी बात का ध्यान में आना जो प्रायः अनहोनी या असंभव हो। (व्यंग्य) क्रि० वि० १. देश, काल, संबंध आदि के विचार से किसी निश्चित बिंदु से बहुत अंतर पर। बहुत फासले पर। ‘पास’ का विपर्याय। जैसे—उनका मकान यहाँ से बहुत दूर है। २. अलग। पृथक्। जैसे—वे झगड़ों से दूर रहते हैं। मुहा०-दूर करना=(क) अलग या जुदा करना। अपने पास से हटाना। (ख) न रहने देना। नष्ट कर देना। जैसे—बीमारी दूर करना। दूर खिंचना, भागना या रहना=उपेक्षा, घृणा, तिरस्कार आदि के कारण बिलकुल अलग रहना। पास न आना। बचना। जैसे—इस तरह की बातों में सदा दूर रहना चाहिए। दूर तक पहुँचना=दूर की या बहुत बारीक बात सोचना। दूर दूर करना=उपेक्षा, घृणा आदि के कारण तिरस्कारपूर्वक अपने पास से अलग करना या हटाना। दूर होना=(क) पास से अलग हो जाना। लगाव या संबंध न रह जाना। जैसे—अब वे पुरानी आदतें दूर हो गई हैं। (ख) नष्ट हो जाना। मिट जाना। जैसे—बीमारी दूर हो गई है। पद—दूर क्यों जायँ या जाइए=अपरिमित या दूर दृष्टांत न लेकर परिचित और निकटवाले का ही विचार करें। जैसे—दूर क्यों जायँ, अपने भाई-बंदों को ही देख लीजिए।
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दूर-चित्र  : पुं० [मध्य० स०] [वि० दूर-चित्री] वह चित्र या प्रतिकृति जो विद्युत् की सहायता से दूरी पर प्रस्तुत की जाती है। (टेलिफोटोग्राफ)
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दूर-चित्रक  : पुं० [सं० दूरचित्र+क्विप्+णिच्+ण्वुल्—अक] वह यंत्र जिसकी सहायता से दूरचित्र प्रस्तुत किये जाते हैं। (टेलिफोटोग्राफ)
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दूर-चित्रण  : पुं० [स० त०] दूर-चित्रक यंत्र की सहायता से दूर चित्र प्रस्तुत करने की क्रिया या प्रणाली। (टेलिफोटोग्राफी)
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दूर-दर्श  : पुं० [ष० त०] रेडियो की तरह का एक उपकरण जिसमें अभिनय प्रसारण, भाषण, आदि करनेवाले व्यक्तियों के कथन सुनाई पड़ने के साथ-साथ उनके चित्र भी दिखाई पड़ते हैं। (टेलिवीजन)
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दूर-दर्शक  : वि० [ष० त०] १. दूरदर्शी। २. बुद्धिमान। पुं० दूर-बीन। दूर-वीक्षक। (दे०)
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दूर-दर्शन  : पुं० [ष० त०] १. दूर की चीज देखना या बात सोचना, समझना। २. [ब० स०] गिद्ध। २. वैज्ञानिक प्रक्रिया जिसमें विद्युत तरंगों की सहायता से बहुत दूर के दृश्य प्रत्यक्ष रूप से सामने दिखाई देते हैं। ४. दे० ‘दूर-दर्श’।
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दूर-दर्शिता  : स्त्री० [सं० दूरदर्शिन्+तल्—टाप्] दूरदर्शी होने की अवस्था, गुण या भाव। दूरंदेशी।
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दूर-दृष्टि  : स्त्री० [स० त०] भविष्य की बातों को पहले से ही सोचने-समझने की शक्ति।
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दूर-पात  : वि० [ब० स०] दूर से आने के कारण थका हुआ।
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दूर-पार  : अव्य० [हिं०] इसे दूर करो; और इसका नाम तक न लो। (स्त्रियाँ) उदाह०—गाल पर ऊँगली को रखकर यूँ कहा। मैं तेरे घर जाऊँगी। ऐ दूर-पार।—रंगी।
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दूर-प्रसर  : वि० [ब० स०] दूर तक फैलनेवाला। उदा०—वे हैं समृद्धि की दूर-प्रसर माया में।—निराला।
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दूर-प्रहारी (रिन्)  : वि० [सं० दूर-प्र√हृ (हरण)+णिनि] १. दूर तक प्रहार करनेवाला। २. (तोप या बंदूक) जिसके गोले-गोलियों की उड़ान का पल्ला अधिक लंबा होता है; अर्थात् जो बहुत दूर तक मार करे।
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दूर-बोध  : पुं० [ष० त०] शारीरिक इंद्रियो की सहायता लिये बिना केवल आध्यात्मिक या मानसिक बल से दूसरे के मन की बातें या विचार जानने की क्रिया या विद्या। (टेलिपैथी)
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दूर-बोधी (धिन्)  : पुं० [सं० दूरबोध+इनि] वह जो दूरबोध की कला या विद्या जानता हो। (टेलिपैथिस्ट) वि० दूर-बोध की कला या विद्या से संबंध रखनेवाला। (टेलिपैथिक)
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दूर-भाषक  : पुं० [ष० त०] [वि० दूर-भाषिक] एक प्रसिद्ध यंत्र जिसकी सहायता से दूर बैठे हुए लोग आपस में बात-चीत करते हैं। (टेलिफोन)
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दूर-भाषिक  : वि० [सं०] दूर-भाषक यंत्र संबंधी या उसके द्वारा होनेवाला। (टेलीफोनिक) जैसे—दूर-भाषिक संवाद।
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दूर-मुदृक  : पुं० [सं०] एक आधुनिक यंत्र जिसकी सहायता से दूर-लेख (तार से आये हुए संदेश, समाचार आदि) कागज पर छपते चलते है। (टेलिप्रिंटर) विशेष—वस्तुतः यह दूर-लेखक यंत्र के साथ लगा हुआ एक प्रकार का टंकन यंत्र होता है, जिससे आये हुए संदेश आदि हाथ से लिखने की आवश्यकता नहीं रह जाती, वे आप से आप कागज पर टंकित होते रहते या छपते चलते हैं।
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दूर-मुदृण  : पुं० [सं०] दूर-मुदृक यंत्र के द्वारा संदेश टंकित करने या छापने की प्रक्रिया या प्रणाली। (टेलीप्रिंटिंग)
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दूर-मुद्र  : पुं० [सं०] दूर-मुदृक यंत्र की सहायता से अंकित दूर-लेख। (टेलिप्रिंट)
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दूर-मूल  : पुं० [ब० स०] मूँज।
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दूर-लेख  : पुं० [ष० त०] दूर-लेखक यंत्र कि सहायता से (अथ्राततार द्वारा) आया हुया संदेश या समाचार।(टेलीग्राम)
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दूर-लेखक  : पुं० [ष० त०] १. एक प्रकार का यंत्र जिसके द्वारा कुछ विशिष्ट संकेतों के द्वारा दूरी पर समाचार भेजने का यंत्र। (टेलीग्राफ) २. वह जो उक्त यंत्र के द्वारा समाचार भेजने और प्राप्त करने की विद्या जानता हो। (टेलीग्राफिस्ट)
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दूर-लेखतः (तस्)  : क्रि० वि० [सं० दूरलेख+तस्] दूर-लेखक यंत्र की प्रकिया अथवा सहायता से। (टेलिग्रफिकली) जैसे—उत्तर दूर लेखतः भेजेंगे।
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दूर-लेखी (खिन्)  : वि० [सं० दूरलेख+इनि] दूर-लेख के द्वारा होने या उससे संबध रखनेवाला। (टेलिग्राफिक) जैसे—दूर-लेखी धनादेश। (टेलीग्राफिक मनीआडर)
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दूर-वाणी  : स्त्री० दे० ‘दूर भाषक’।
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दूर-वीक्षक  : पुं० [ष० त०] नल के आकार का एक प्रसिद्ध उपकरण जिसे आँखों के सामने सटाकर रखने पर दूर की चीजें कुछ पास और फलतः स्पष्ट दिखाई देती है। दूर-बीन। (टेलिस्कोप)
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दूर-वीक्षण  : पुं० [ष० त०] दूर की चीजें दूर-वीक्षक की सहायता से देखने की क्रिया या भाव।
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दूरक  : वि० [सं० दूर+णिच्+ण्वुल्—अक] १. दूर करने या हटानेवाला। २. दूर या अलग रखनेवाला, और फलतः विरोधी। उदा०—ये उभय परस्पर पूरक हैं अथवा दूरक यह कौन कहे।—मैथिलीशरण।
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दूरंग  : पुं०=दुर्ग (किला)। उदा०—सवा लष्ष उत्तर सयल, कमऊँ गढ़ दूरंग।—चंदबरदाई।
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दूरंगम  : वि० [सं० दूर√गम् (जाना)+खच्, मुम्]=दूरगामी।
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दूरगामी (मिन्)  : वि० [सं० दूर√गम् (जाना)+णिनि] दूर तक गमन करनेवाला।
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दूरंतरी  : अव्य० [सं० दूरांतरे] दूर से। उदा०—दुरंतरी आवतौ देखि।—प्रिथीराज।
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दूरता  : स्त्री० [सं० दूर+तल्—टाप्]=दूरी।
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दूरता-मापक  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का यंत्र जिसकी सहायता से भू-मापन, युद्ध-क्षेत्र आदि में वस्तुओं की दूरी जानी जाती है। (टेलिमीटर)
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दूरत्व  : पुं० [सं० दूर+त्व] दूर होने की अवस्था या भाव। दूरी।
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दूरदर्शक-यंत्र  : पुं० [कर्म० स०] दूर-बीन। दूर-वीक्षक।
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दूरदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं०] बहुत दूर तक की बात पहले ही सोच तथा समझ लेनेवाला। पुं० १. पंडित। विद्वान २. बुद्धिमान। ३. गिद्ध नामक पक्षी।
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दूरंदेश  : वि० [फा० दूरअंदेश] [भाव० दूरंदेशी] अग्र-शोची। दूरदर्शी।
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दूरंदेशी  : स्त्री० [फा०] दूरदर्शिता।
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दूरबा  : स्त्री०=दूर्वा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूरबीन  : वि० [फा०] दूर तक देखनेवाला। स्त्री० दे० ‘दूरवीक्षक’। (यंत्र)
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दूरवर्ती (तिन्)  : वि० [सं० दूर√व्रत (बरतना)+णिन] जो अधिक दूरी पर स्थित हो। दूर का।
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दूरस्थ  : वि० [सं० दूर-√स्था (ठहरना)+क] १. जो दूरी पर स्थित हो। २. (घटना) जिसके वर्तमान में घटित होने की संभावना न हो।
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दूरागत  : भू० क्र० [दूर-आगत पं० त०] दूर से आया हूआ। उदा०— ‘माँ’। फिर एक किलक दूरागत गूँज उठी कुटिया सूनी।—प्रसाद।
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दूरांतरित  : वि० [दूर-अंतरित] १. दूर किया हुआ। २. दूरस्थ।
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दूरान्वय  : पुं० [दूर-अन्वय तृ० त०] रचना का वह दोष जो कर्त्ता और क्रिया, विशेष्य और विशेषण आदि के पास-पास न रहने अर्थात् परस्पर अनावश्यक रूप से दूर रहने के कारण उत्पन्न होता है।
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दूरापात  : पुं० [दूर-आपात ब०त०] वह अस्त्र जो दूर से फेंककर चलाया जाय।
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दूरारूढ़  : वि० [दूर-आरुढ़ स० त०] १. बहुत आगे बढ़ा हुआ। २. तीव्र। ३. बद्धमूल। ४. प्रगाढ़।
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दूरि  : वि०=दूर। स्त्री०=दूरी।
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दूरी  : स्त्री० [सं० दूर+ई (प्रत्य०)] १. दूर होने की अवस्था या भाव। २. दो वस्तुओं, विन्दुओं आदि के बीच के बीच का अवकाश, विस्तार या स्थान। स्त्री० [?] खाकी रंग की एक प्रकार की लवा (चिड़िया)।
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दूरीकरण  : पुं० [सं० दूर+च्वि√क्र (करना)+ल्युट्—अन] दूर करने या हटाने की क्रिया या भाव।
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दूरे-अमित्र  : पुं० [ब० स० अलुक् समास] उमचास मरुतों में से एक मरुत् का नाम।
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दूरोह  : पुं० [सं० दूर्√रुह् (चढ़ना)+खल्, दीर्घ] आदित्य सोक जहाँ चढ़कर जाना बहुत कठिन है।
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दूरोहण  : पुं० [सं० दूर्-रोहण प्रा० ब० स०] सूर्य।
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दूर्य  : पुं० [सं० दूर+यत्] १. छोटा कचूर। २. गुह। मल। विष्ठा।
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दूर्वा  : स्त्री० [सं०√ दूर्व् (हिंसा)+अच्—टाप्] एक प्रसिद्ध पवित्र घास जो देवताओं को चढ़ाई जाती है। दूब।
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दूर्वाक्षी  : स्त्री० [सं०] वसुदेव के भाई वृक की स्त्री का नाम। (भागवत)
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दूर्वाद्य घृत  : पुं० [दूर्वा-आद्य ब० स०, दूर्वद्य-घृत कर्म० स०] वैद्यक में, एक प्रकार की बकरी का घी जिसमें दूब, मजीठ, एलुआ, सफेद चंदन आदि मिलाया जाता है और जिसका व्यहार आँख, मुँह, नाक, कान आदि से रक्त जानेवाला रक्त रोकने के लिए होता है।
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दूर्वाष्टमी  : स्त्री० [दूर्वा-अष्टमी मध्य० स०] भादों सुदी अष्टमी जिस दिन हिंदू व्रत करते हैं।
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दूर्वासोम  : पुं० [सं०] एक तरह की सोमलता। (सुश्रुत)
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दूर्वेष्टिका  : स्त्री० [स० दूर्वा-इष्टिका मध्य० स०] एक तरह की ईंट जिससे यज्ञ की वेदी बनाई जाती थी।
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दूलन  : पुं०=दोलन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूलम  : वि०=दुर्लभ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूलह  : पुं० [सं० दूर्लभ, प्रा० दूल्लह] [स्त्री० दुलहिन] १. वह मनुष्य जिसका विवाह अभी हाल में हुआ हो अथवा शीर्घ ही होने को हो। दुलहा। वर। नौशा। २. स्त्री की दृष्टि से उसका पति या स्वामी। ३. बहुत बना-ठना आदमी। ४. मालिक। स्वामी। वि० जो दूल्हे के समान बना-ठना हो। उदा०—दूलह मेरो कुँवर कन्हैया।—गदाधर भट्ट।
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दूलिका  : स्त्री०=दूली।
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दूलित  : वि०=दोलित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दूली  : स्त्री० [सं० दूर+अच्—ङीष्, लत्व] नील का पेड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूल्हा  : पुं०=दूलह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूवा  : पु०=दूआ।
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दूवौ  : स्त्री० [अ० दुआ] १. दुआ। प्रार्थना। २. आज्ञा। हुकुम। उदा०—राणी तदि दूवौ दीध रुषमणी।—प्रिथीराज। वि०=दोनों।
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दूश्य  : पुं० [सं०√दू (ताप)+क्विप्, दू√श्यै (दूर करना)+क] खेमा। तंबू।
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दूषक  : वि०[सं०√दूष् (विकार)+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० दूषिका] १. दोष निकालने या लगानेवाला। २. आक्षेप या दोषारोपण करनेवाला। ३. दोष या विकार उत्पन्न करनेवाला।
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दूषण  : पुं० [सं०√दूष् (विकार)+णिच्+ल्युट्—अन] १. दोष लगाने की क्रिया या भाव। २. दोष। ३. अवगुण। बुराई। ४. जैनियों के सामयिक व्रत में ३२ त्याज्य बातें या अवगुण जिनमें से १२ कायिक, १२ वाचिक और १॰ मानसिक हैं। ५. रावण का एक भाई जिसका वध रामचन्द्र ने पंचवटी में किया था। वि० [√दूष्+णिच्+ल्यु—अन] नष्ट करने या मारनेवाला। विनाशक। संहारक। उदा०—लक्षमण अरु शत्रुध्न रीह दानव-दल दूषण।—केशव।
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दूषणारि  : पुं०[सं० दूषण-अरि ष० त०] दूषण नामक राक्षस को मारनेवाले रामचंद्र।
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दूषणीय  : वि० [सं०√दूष+णिच्+अनीयर्] १. जिसमें दोष निकाला जा सके। २. जिस पर दोष लगाया जा सके।
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दूषन  : पुं०=दूषण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूषना  : स० [सं० दूषण] १. दोष लगाना। २. ऐब लगाकर निन्दा या बुराई करना। अ० दोष या अवगुण से युक्त होना।
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दूषि  : स्त्री० [सं०√दूष्+इन्]=दूषिका।
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दूषिका  : स्त्री० [सं० दूषि+कन्—टाप्] १. चित्र बनाने की कूची। २. आँख में से निकलनेवाली मैल। वि० सं० ‘दूषक’ का स्त्री०।
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दूषित  : वि० [सं०√दूष्+क्त] १. जिसमें दोष हो। दोष से युक्त। २. जिस पर दोष लगाया गया हो। ३. बुरा। खराब।
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दूषीविष  : पुं० [सं०√दूष्+ई, दूषी-विष कर्म० स०] शरीर में होनेवाला एक तरह का विष जो धातु को दूषित करता है। इसे हीन विष भी कहते हैं। (सुश्रुत)
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दूष्य  : वि० [सं०√दूष्+णिच्+यत्] १. जिस पर या जिसमें दोष लगाया जा सके। जो दूषित कहे जाने योग्य हो। २. निंदनीय। बुरा। ३. तुच्छ। हीन। पुं० १. कपड़ा। वस्त्र। २. प्राचीन काल की एक प्रकार का ऊनी ओढ़ना या चादर। धुस्सा। ३. खेमा। तंबू। ४. हाथी बाँधने का रस्सा। ५. जहर। विष। ६. पूय। मवाद। ७. प्राचीन भारतीय राजनीति में, ऐसा व्यक्ति जो राज्य या शासन को हानि पहुँचानेवाला हो।
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दूष्य-महामात्र  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा न्यायाधीश या महामात्र जो अंदर ही अंदर राज्य का शत्रु हो या शत्रु-पक्ष से मिला हो। (कौ०)
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दूष्सना  : स०, अ०=दूषना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूसर  : वि०=दूसरा।
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दूसरा  : वि० [हिं० दो+सर (प्रत्य०) पु० हिं० दोसर] [स्त्री० दूसरी] १. जो क्रम या संख्या के विचार से दो के स्थान पर पढ़ता हो। पहले के ठीक बादवाला। जैसे—(क) यह उनका दूसरा लड़का है। (ख) उसके दूसरे दिन वे भी चले गये। २. दो या कई में से कोई एक, विशेषतः प्रस्तुत अथवा उस एक से भिन्न जिसका उल्लेख या चर्चा हुई हो। जैसे—एक पुस्तक तो हमने छाँट ली है; दूसरी कोई आप भी ले लें। ३. प्रस्तुत से भिन्न। जैसे—यह तो दूसरी बात हुई। ४. अतिरिक्त। अन्य। और जैसे—वह दूसरे साधनों से कहीं अधिक धन कमाता है। सर्व० १. जिसकी चर्चा न हुई हो। बचा हुआ। जैसे—कोई दूसरा इसका आनन्द क्या जाने। २. जिसका दोनों पक्षों में से किसी के साथ कोई लगाव या संबंध न हों। जैसे—आपस की बात-चीत (या लड़ाई) में दूसरों को नहीं पड़ना चाहिए।
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दूहना  : स० [सं० दोहन] १.कुछ स्तनपायी मादा जीवों के स्तनों में से उन्हे निचोड़ते तथा दबाते हुए दूध निकालना। जैसे—गाय, भैस या बकरी दूहना। २. अंदर का तरल पदार्थ खींचकर या दबाकर बाहर निकालना। जैसे—थुहर या पपीते की दूध दूहना। ३. किसी वस्तु में से पूरी तरह से या अधिक मात्रा में तत्त्व या सार निकालना। ४. किसी को धोखे में रखकर उससे खूब रुपए या कोई चीज वसूल करना। जैसे—किसी से रुपए दूहना। उदा०—सूर स्याम तब तैं नहिं आए, मनजब त लीम्हों दोही।—सूर। विशेष—इसका प्रयोग (क) उस आधार या व्यक्ति के संबंध में भी होता है जिसे दूहते हैं और (ख) उस पदार्थ के संबंध में भी होता है जो दूहा जाता है।
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दूहनी  : स्त्री०=दोहनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूहा  : पुं०=दोहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूहिया  : पुं० [देश०] एक प्रकार का चूल्हा।
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