पस/pas

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शब्द का अर्थ

पस  : पुं० [अं०] घाव, फोड़े आदि में से निकलनेवाला लसीला तरल पदार्थ। मवाद। अव्य० [फा०] १. अंत या बाद में। पीछे। २. पुनः। फिर। ३. निस्संदेह। बेशक। ४. अतः। इसलिए।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पस  : पुं० [अं०] घाव, फोड़े आदि में से निकलनेवाला लसीला तरल पदार्थ। मवाद। अव्य० [फा०] १. अंत या बाद में। पीछे। २. पुनः। फिर। ३. निस्संदेह। बेशक। ४. अतः। इसलिए।
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पस-गैबत  : क्रि० वि० [फा० पस०+अ० गैबत] किसी के पीठ पीछे। अनुपस्थिति में।
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पस-गैबत  : क्रि० वि० [फा० पस०+अ० गैबत] किसी के पीठ पीछे। अनुपस्थिति में।
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पस-माँदा  : वि० [फा० पसमांदः] [भाव० पसमांदगी] १. बचा हुआ। शेष। २. (काफिले या जत्थे का वह व्यक्ति) जो यात्रा करते समय पीछे छूट या रह गया हो।
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पस-माँदा  : वि० [फा० पसमांदः] [भाव० पसमांदगी] १. बचा हुआ। शेष। २. (काफिले या जत्थे का वह व्यक्ति) जो यात्रा करते समय पीछे छूट या रह गया हो।
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पसई  : स्त्री० [देश०] तराई में होनेवाली एक तरह की राई और उसका पौधा। स्त्री०=पसही (तिन्नी)।
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पसई  : स्त्री० [देश०] तराई में होनेवाली एक तरह की राई और उसका पौधा। स्त्री०=पसही (तिन्नी)।
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पसकरण  : वि० [सं० पश्च-करण] कायर। डरपोक। (डिं०)
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पसकरण  : वि० [सं० पश्च-करण] कायर। डरपोक। (डिं०)
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पसंग (ा)  : पुं०=पासंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसंग (ा)  : पुं०=पासंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसघ  : पुं० दे० ‘पासंग’।
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पसघ  : पुं० दे० ‘पासंग’।
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पसताल  : पुं० [देश०] जलाशयों के किनारे होनेवाली एक तरह की घास जिसे पशु और जिसके दाने गरीब लोग भी खाते हैं।
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पसताल  : पुं० [देश०] जलाशयों के किनारे होनेवाली एक तरह की घास जिसे पशु और जिसके दाने गरीब लोग भी खाते हैं।
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पसंती (ा)  : स्त्री०=पश्यंती।
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पसंती (ा)  : स्त्री०=पश्यंती।
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पसंद  : वि० [फा०] आकार-प्रकार, गुण, रूप आदि के विचार से जो मन को भला तथा रुचिकर प्रतीत हुआ हो और इसलिए जिसे अनेकों या बहुत में से वरण किया या उसे वरीयता दी गई हो। प्रत्य० उत्तर पद के रूप में प्रत्यय की तरह प्रयुक्त—(क) पसंद आनेवाला। जैसे—दिल-पसंद=दिल को पसंद आनेवाला। (ख) पसंद करनेवाला। जैसे—हक-पसंद। स्त्री० १. मन को भला तथा रुचिकर प्रतीत होनेवाला कार्य, वस्तु या व्यक्ति। २. वरण करने, चुनने या वरीयता देने की क्रिया, प्रवृत्ति या भाव। ३. इस प्रकार चुनी या वरण की हुई वस्तु।
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पसंद  : वि० [फा०] आकार-प्रकार, गुण, रूप आदि के विचार से जो मन को भला तथा रुचिकर प्रतीत हुआ हो और इसलिए जिसे अनेकों या बहुत में से वरण किया या उसे वरीयता दी गई हो। प्रत्य० उत्तर पद के रूप में प्रत्यय की तरह प्रयुक्त—(क) पसंद आनेवाला। जैसे—दिल-पसंद=दिल को पसंद आनेवाला। (ख) पसंद करनेवाला। जैसे—हक-पसंद। स्त्री० १. मन को भला तथा रुचिकर प्रतीत होनेवाला कार्य, वस्तु या व्यक्ति। २. वरण करने, चुनने या वरीयता देने की क्रिया, प्रवृत्ति या भाव। ३. इस प्रकार चुनी या वरण की हुई वस्तु।
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पसंदा  : पुं० [फा० पसन्द] १. मांस के एक प्रकार के कुचले हुए टुकड़े का गोश्त। २. उक्त प्रकार के मांस से बननेवाला एक प्रकार का कबाब।
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पसंदा  : पुं० [फा० पसन्द] १. मांस के एक प्रकार के कुचले हुए टुकड़े का गोश्त। २. उक्त प्रकार के मांस से बननेवाला एक प्रकार का कबाब।
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पसंदीदा  : वि० [फा०] [भाव० पसंददीदगी] पसंद आनेवाला या पसंद किया हुआ।
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पसंदीदा  : वि० [फा०] [भाव० पसंददीदगी] पसंद आनेवाला या पसंद किया हुआ।
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पसंदेश  : वि० [फा०] [भाव० पसंदेशी] १. जो बीती हुई बातों के विषय में विचार करता रहता हो। २. फलतः संकुचित बुद्धि।
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पसंदेश  : वि० [फा०] [भाव० पसंदेशी] १. जो बीती हुई बातों के विषय में विचार करता रहता हो। २. फलतः संकुचित बुद्धि।
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पसनी  : स्त्री० दे० ‘अन्न-प्राशन’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसनी  : स्त्री० दे० ‘अन्न-प्राशन’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसपा  : वि० [फा०] पराजित।
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पसपा  : वि० [फा०] पराजित।
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पसम  : स्त्री०=पशम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पसम  : स्त्री०=पशम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पसमीना  : पुं०=पशमीना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पसमीना  : पुं०=पशमीना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पसर  : पुं० [सं० प्रसर] १. हथेली का कटोरी या दोने के आकार का बनाया हुआ वह रूप जिसमें कोई चीज भर कर किसी को दी जाती है। २. उक्त में भरी हुई वस्तु या उसकी मात्रा। ३. मुट्ठी। पुं० [देश०] १. रात के समय पशुओं को चराने का काम। उदा०—वह रात को कभी कभी पसर भी चराता था।—वृन्दावनलाल वर्मा। २. पशुओं के चरने की भूमि। चरागाह। ३. पशु चराते समय एक तरह के गाय जानेवाले गीत। ४. आक्रमण। चढ़ाई। धावा। पुं०=प्रसार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसर  : पुं० [सं० प्रसर] १. हथेली का कटोरी या दोने के आकार का बनाया हुआ वह रूप जिसमें कोई चीज भर कर किसी को दी जाती है। २. उक्त में भरी हुई वस्तु या उसकी मात्रा। ३. मुट्ठी। पुं० [देश०] १. रात के समय पशुओं को चराने का काम। उदा०—वह रात को कभी कभी पसर भी चराता था।—वृन्दावनलाल वर्मा। २. पशुओं के चरने की भूमि। चरागाह। ३. पशु चराते समय एक तरह के गाय जानेवाले गीत। ४. आक्रमण। चढ़ाई। धावा। पुं०=प्रसार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसर-कटाली  : स्त्री० [सं० प्रसर कटाली] भटकटैया। कटाई।
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पसर-कटाली  : स्त्री० [सं० प्रसर कटाली] भटकटैया। कटाई।
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पसरन  : स्त्री० [सं० प्रसारिणी] वृक्षों पर चढ़नेवाली एक जंगली लता। स्त्री० [हिं० पसरना] पसरने की क्रिया, दशा या भाव।
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पसरन  : स्त्री० [सं० प्रसारिणी] वृक्षों पर चढ़नेवाली एक जंगली लता। स्त्री० [हिं० पसरना] पसरने की क्रिया, दशा या भाव।
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पसरना  : अ० [सं० प्रसरण] १. आगे की ओर बढना। फैलना। २. हाथ-पैर फैलाकर तथा अधिक जगह घेरते हुए बैठना या लेटना। ३. अपना आग्रह या इच्छा पूरी कराने के लिए तरह-तरह की बातें करना। संयो० क्रि०—जाना।
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पसरना  : अ० [सं० प्रसरण] १. आगे की ओर बढना। फैलना। २. हाथ-पैर फैलाकर तथा अधिक जगह घेरते हुए बैठना या लेटना। ३. अपना आग्रह या इच्छा पूरी कराने के लिए तरह-तरह की बातें करना। संयो० क्रि०—जाना।
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पसरहट्टा  : पुं० [हिं० पंसारी+हाट] वह बाजार या हाट जिसमें पंसारियों की बहुत-सी दूकानें होती हैं।
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पसरहट्टा  : पुं० [हिं० पंसारी+हाट] वह बाजार या हाट जिसमें पंसारियों की बहुत-सी दूकानें होती हैं।
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पसरहा  : पुं०=पसरहट्टा।
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पसरहा  : पुं०=पसरहट्टा।
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पसराना  : स० [हिं० पसराना का प्रे०] किसी को पसरने में प्रवृत्त करना।
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पसराना  : स० [हिं० पसराना का प्रे०] किसी को पसरने में प्रवृत्त करना।
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पसरी  : स्त्री०=पसली।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पसरी  : स्त्री०=पसली।
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पसरौहाँ  : वि० [हिं० पसरना+औहाँ (प्रत्य०)] १. पसरनेवाला। २. जिसमें अधिक पसरने की प्रवृत्ति हो।
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पसरौहाँ  : वि० [हिं० पसरना+औहाँ (प्रत्य०)] १. पसरनेवाला। २. जिसमें अधिक पसरने की प्रवृत्ति हो।
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पसली  : स्त्री० [सं० पर्शका] स्तनपायी जीवों की छाती के दोनों ओर की गोलाकार हड्डियों में से हर एक। पद—पसली का रोगा=एक रोग जिसमें बच्चों का साँस जोरों से चलने लगता है। मुहा०—पसली फड़कना या फड़क उठना=मन में उत्साह या उमंग उत्पन्न होना। जोश आना। पसली ढीली करना या तोड़ना=बहुत अधिक मारना।
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पसली  : स्त्री० [सं० पर्शका] स्तनपायी जीवों की छाती के दोनों ओर की गोलाकार हड्डियों में से हर एक। पद—पसली का रोगा=एक रोग जिसमें बच्चों का साँस जोरों से चलने लगता है। मुहा०—पसली फड़कना या फड़क उठना=मन में उत्साह या उमंग उत्पन्न होना। जोश आना। पसली ढीली करना या तोड़ना=बहुत अधिक मारना।
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पसवपेश  : पुं०=पशोपेश।
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पसवपेश  : पुं०=पशोपेश।
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पसवा  : वि० [देश०] हलके गुलाबी रंक का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० हलका गुलाबी रंग।
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पसवा  : वि० [देश०] हलके गुलाबी रंक का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० हलका गुलाबी रंग।
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पसवाड़ा  : पुं०=पिछवाड़ा। (पृष्ठ-भाग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसवाड़ा  : पुं०=पिछवाड़ा। (पृष्ठ-भाग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसही  : स्त्री० [देश०] तिन्नी नाम का धान या उसका चावल।
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पसही  : स्त्री० [देश०] तिन्नी नाम का धान या उसका चावल।
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पसा  : पुं०=पसर। (दे०)
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पसा  : पुं०=पसर। (दे०)
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पसाइ  : पुं०=पसाउ (प्रसाद)।
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पसाइ  : पुं०=पसाउ (प्रसाद)।
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पसाई  : स्त्री० [सं० प्रसातिका, प्रा० पसाइआ] पसताल नाम की घास जो तालों में होती है। पुं०=पसही (तिन्नी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हिं० पसाना] (मोड़ आदि) पसाने की क्रिया या भाव। स्त्री० पिसाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसाई  : स्त्री० [सं० प्रसातिका, प्रा० पसाइआ] पसताल नाम की घास जो तालों में होती है। पुं०=पसही (तिन्नी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हिं० पसाना] (मोड़ आदि) पसाने की क्रिया या भाव। स्त्री० पिसाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसाउ  : पुं० [सं० प्रसाद, प्रा० पवास] १. प्रसाद। २. कृपा। अनुग्रह। ३. प्रसन्नता।
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पसाउ  : पुं० [सं० प्रसाद, प्रा० पवास] १. प्रसाद। २. कृपा। अनुग्रह। ३. प्रसन्नता।
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पसाना  : स० [सं० प्रस्रवण, हिं० पसावना] [भाव० पसाई] १. पकाये हुए चावलों में से माँड़ निकालना। २. किसी वस्तु में से उसका जलीय अंश बाहर निकालना। अ [सं० प्रसादन] अनुग्रह आदि करने के लिए किसी पर प्रसन्न होना।
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पसाना  : स० [सं० प्रस्रवण, हिं० पसावना] [भाव० पसाई] १. पकाये हुए चावलों में से माँड़ निकालना। २. किसी वस्तु में से उसका जलीय अंश बाहर निकालना। अ [सं० प्रसादन] अनुग्रह आदि करने के लिए किसी पर प्रसन्न होना।
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पसार  : पुं० [सं० प्रसार] १. पसरने की क्रिया या भाव। २. प्रसार। फैलाव। विस्तार। ३. दालान। (पश्चिम) पुं० [सं० प्रसाद] प्राप्त होने पर मिलनेवाली चीज। उदा०—दुहुँ कुल अपजस पहिल पसार।—विद्यापति।
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पसार  : पुं० [सं० प्रसार] १. पसरने की क्रिया या भाव। २. प्रसार। फैलाव। विस्तार। ३. दालान। (पश्चिम) पुं० [सं० प्रसाद] प्राप्त होने पर मिलनेवाली चीज। उदा०—दुहुँ कुल अपजस पहिल पसार।—विद्यापति।
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पसारना  : स० [सं० प्रसारण, हिं० पसारना का स०] १. अधिक विस्तृत करना। २. फैलाना। जैसे—झोली पसारना। ३. आगे बढ़ाना। जैसे—हाथ पसारना।
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पसारना  : स० [सं० प्रसारण, हिं० पसारना का स०] १. अधिक विस्तृत करना। २. फैलाना। जैसे—झोली पसारना। ३. आगे बढ़ाना। जैसे—हाथ पसारना।
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पसारा  : पुं०=पसार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसारा  : पुं०=पसार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसारी  : पुं० [देश०] १. तिन्नी का धान। पसवन। पसही। पुं०=पंसारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पसारी  : पुं० [देश०] १. तिन्नी का धान। पसवन। पसही। पुं०=पंसारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसाव  : पुं० [हिं० पसाना+आव (प्रत्य०)] १. माँड़ आदि पसाने की क्रिया या भाव। २. पसाने पर निकलनेवाला गाढ़ा तरल पदार्थ। पीच। पुं०=पसाउ (प्रसाद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसाव  : पुं० [हिं० पसाना+आव (प्रत्य०)] १. माँड़ आदि पसाने की क्रिया या भाव। २. पसाने पर निकलनेवाला गाढ़ा तरल पदार्थ। पीच। पुं०=पसाउ (प्रसाद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसावन  : पुं०=पसाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसावन  : पुं०=पसाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसिंजर  : पुं० [अं० पैसेंजर] १. यात्री, विशेषतः रेल या जहाजी का यात्री। २. यात्रियों की वह रेल-गाड़ी जो कुछ धीमी चाल से चलती और प्रायः सभी स्टेशनों पर ठहरती है।
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पसिंजर  : पुं० [अं० पैसेंजर] १. यात्री, विशेषतः रेल या जहाजी का यात्री। २. यात्रियों की वह रेल-गाड़ी जो कुछ धीमी चाल से चलती और प्रायः सभी स्टेशनों पर ठहरती है।
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पसित  : वि० [सं० पायश] बँधा या बाँधा हुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसित  : वि० [सं० पायश] बँधा या बाँधा हुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसीजना  : अ० [सं० प्र√स्विद्, प्रस्विद्यति, प्रा० पसिज्ज] १. अधिक गरमी या ताप के प्रभाव के कारण किसी घन या ठोस पदार्थ में से जल-कण निकालना। २. दूसरे के घोर कष्ट, दुःख आदि को देखने पर चित्त में (प्रायः कठोर चित्त में) दया की भावना उमड़ना। ३. पसीने से तर होना।
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पसीजना  : अ० [सं० प्र√स्विद्, प्रस्विद्यति, प्रा० पसिज्ज] १. अधिक गरमी या ताप के प्रभाव के कारण किसी घन या ठोस पदार्थ में से जल-कण निकालना। २. दूसरे के घोर कष्ट, दुःख आदि को देखने पर चित्त में (प्रायः कठोर चित्त में) दया की भावना उमड़ना। ३. पसीने से तर होना।
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पसीना  : पुं० [सं० प्रस्वेदन, हिं० पसीजना] ताप, परिश्रम आदि के कारण शरीर या उसके अंग में से निकलनेवाले जल-कण। स्वेद। क्रि० प्र०—आना।—छूटना।—निकलना। पद—पसीने की कमाई=वह धन जो परिश्रमपूर्वक अर्जित किया गया हो, यों ही अथवा मुफ्त में न मिला हो। मुहा०—किसी का पसीना छूटना=कोई काम करते-करते बहुत अधिक परेशान हो जाना। पसीने पसीने होना=पसीने से बिलकुल भीग जाना।
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पसीना  : पुं० [सं० प्रस्वेदन, हिं० पसीजना] ताप, परिश्रम आदि के कारण शरीर या उसके अंग में से निकलनेवाले जल-कण। स्वेद। क्रि० प्र०—आना।—छूटना।—निकलना। पद—पसीने की कमाई=वह धन जो परिश्रमपूर्वक अर्जित किया गया हो, यों ही अथवा मुफ्त में न मिला हो। मुहा०—किसी का पसीना छूटना=कोई काम करते-करते बहुत अधिक परेशान हो जाना। पसीने पसीने होना=पसीने से बिलकुल भीग जाना।
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पसु  : पुं०=पशु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पसु  : पुं०=पशु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसुरी, पसुली  : स्त्री०=पसली।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पसुरी, पसुली  : स्त्री०=पसली।
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पसू  : पुं०=पशु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पसू  : पुं०=पशु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसूज  : स्त्री० [?] कपड़ों की सिलाई में सूई-डोरे से भरे या लगाये जानेवाले एक प्रकार के सीधे टाँके।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पसूज  : स्त्री० [?] कपड़ों की सिलाई में सूई-डोरे से भरे या लगाये जानेवाले एक प्रकार के सीधे टाँके।
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पसूजना  : स० [?] कपड़ों की सिलाई में एक विशेष प्रकार के टाँके लगाना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पसूजना  : स० [?] कपड़ों की सिलाई में एक विशेष प्रकार के टाँके लगाना।
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पसूता  : स्त्री०=प्रसूता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पसूता  : स्त्री०=प्रसूता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसूस  : वि० [हिं०] कठोर।
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पसूस  : वि० [हिं०] कठोर।
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पसेउ (ऊ)  : पुं०=पसेव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पसेउ (ऊ)  : पुं०=पसेव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पसेरी  : स्त्री० [हिं० पाँच+सेर+ई (प्रत्य०)] १. पाँच सेर का बाट। पंसेरी। २. उक्त बाट से तौली हुई वस्तु की मात्रा या मान। जैसे—चार पसेरी गेहूँ।
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पसेरी  : स्त्री० [हिं० पाँच+सेर+ई (प्रत्य०)] १. पाँच सेर का बाट। पंसेरी। २. उक्त बाट से तौली हुई वस्तु की मात्रा या मान। जैसे—चार पसेरी गेहूँ।
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पसेव  : पुं० [सं० प्रस्राव] १. वह तरल पदार्थ जो कच्ची अफीम को सुखाने के समय उसमें से निकलता है। इस अंश के निकल जाने पर अफीम सूख जाती है और खराब नहीं होती। पुं० [सं० प्रस्वेद] पसीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसेव  : पुं० [सं० प्रस्राव] १. वह तरल पदार्थ जो कच्ची अफीम को सुखाने के समय उसमें से निकलता है। इस अंश के निकल जाने पर अफीम सूख जाती है और खराब नहीं होती। पुं० [सं० प्रस्वेद] पसीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसो  : पुं०=पशु।
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पसो  : पुं०=पशु।
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पसोपेश  : पुं० [फा० पसवपेश] १. कोई काम करने के समय मन में होनेवाला यह भाव कि आगे बढ़ें या पीछे हटें। असमंजस। आगा-पीछा। सोच-विचार। २. इस बात का विचार कि यह काम करने पर क्या लाभ अथवा क्या हानि होगी। ऊँच-नीच।
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पसोपेश  : पुं० [फा० पसवपेश] १. कोई काम करने के समय मन में होनेवाला यह भाव कि आगे बढ़ें या पीछे हटें। असमंजस। आगा-पीछा। सोच-विचार। २. इस बात का विचार कि यह काम करने पर क्या लाभ अथवा क्या हानि होगी। ऊँच-नीच।
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पस्त  : वि० [फा०] [भाव० पस्ती] १. हारा हुआ। २. थका हुआ। शिथिल। ३. किसी की तुलना में झुका या दबा हुआ। जैसे—हिम्मत पस्त होना। ४. छोटे आकार का। छोटा। (यौ० के आरंभ में) जैसे—पस्तकद। ५. कमीना। नीच। ६. तुच्छ। हीन। जैसे—पस्त खयाल। ७. पिछड़ा या हारा हुआ। जैसे—पस्त-हिम्मत। ८. मंद। जैसे—पस्त-किस्मत।
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पस्त  : वि० [फा०] [भाव० पस्ती] १. हारा हुआ। २. थका हुआ। शिथिल। ३. किसी की तुलना में झुका या दबा हुआ। जैसे—हिम्मत पस्त होना। ४. छोटे आकार का। छोटा। (यौ० के आरंभ में) जैसे—पस्तकद। ५. कमीना। नीच। ६. तुच्छ। हीन। जैसे—पस्त खयाल। ७. पिछड़ा या हारा हुआ। जैसे—पस्त-हिम्मत। ८. मंद। जैसे—पस्त-किस्मत।
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पस्त-कद  : वि० [फा०] ठिंगना। नाटा।
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पस्त-कद  : वि० [फा०] ठिंगना। नाटा।
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पस्त-हिम्मत  : वि० [फा०] [भाव० पस्तहिम्मती] १. जो विफल होकर के हिम्मत हार चुका हो। जिसका साहस छूट गया हो। हतोत्साह। २. कमहौसला। भीरु।
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पस्त-हिम्मत  : वि० [फा०] [भाव० पस्तहिम्मती] १. जो विफल होकर के हिम्मत हार चुका हो। जिसका साहस छूट गया हो। हतोत्साह। २. कमहौसला। भीरु।
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पस्ताना  : अ०=पछताना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पस्ताना  : अ०=पछताना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्तावा  : पुं०=पछतावा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्तावा  : पुं०=पछतावा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्ती  : स्त्री० [फा०] १. पस्त होने की अवस्था या भाव। २. निचाई। ३. विचारों, व्यवहारों आदि की नीचता। कमीनापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्ती  : स्त्री० [फा०] १. पस्त होने की अवस्था या भाव। २. निचाई। ३. विचारों, व्यवहारों आदि की नीचता। कमीनापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्तो  : स्त्री०=पश्तो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्तो  : स्त्री०=पश्तो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्त्य  : पुं० [सं०√पस् (बाधा)+क्तिन्+यत्] १. घर। वास-स्थान। २. कुल। परिवार।
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पस्त्य  : पुं० [सं०√पस् (बाधा)+क्तिन्+यत्] १. घर। वास-स्थान। २. कुल। परिवार।
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पस्सर  : पुं० [अं० परसर] जहाज पर खलासियों आदि को बर्तन, रसद आदि बाँटनेवाला कर्मचारी। पुं०=पसर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्सर  : पुं० [अं० परसर] जहाज पर खलासियों आदि को बर्तन, रसद आदि बाँटनेवाला कर्मचारी। पुं०=पसर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्सी बबूल  : पुं० [हिं० पस्सी ?+हिं० बबूल] एक प्रकार का बढ़िया कलमी बबूल का वृक्ष जिसके फूलों से कई प्रकार के सुगंधित द्रव्य बनाये जाते हैं।
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पस्सी बबूल  : पुं० [हिं० पस्सी ?+हिं० बबूल] एक प्रकार का बढ़िया कलमी बबूल का वृक्ष जिसके फूलों से कई प्रकार के सुगंधित द्रव्य बनाये जाते हैं।
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