मिथ्या-योग/

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मिथ्या-योग  : पुं० [सं० कर्म० स०] चरक के अनुसार वह कार्य जो रुप, रस, प्रकृति आदि के विरुद्ध हो। जैसे—मल मूत्र आदि को रोकना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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