शब्द का अर्थ
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मूर :
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पुं० [सं० मूल] १. मूल। जड़। २. जड़ी। बूटी। ३. मूल धन। असल पूँजी। ४. मूल नक्षत्र। पुं० अफ्रीका की एक मुसलमान जाति। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूरख :
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वि०=मूर्ख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूरखताई :
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स्त्री०=मूर्खता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूरचा :
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पुं० =मोरचा (जंग)। |
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मूरछना :
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अ० [सं० मूर्च्छा] मूर्च्छित होना। बेहोश होना। स्त्री० १. =मूर्च्छा। २. मूर्च्छना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूरछा :
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स्त्री०=मूर्च्छा। |
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मूरत :
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स्त्री०=मूर्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूरति :
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स्त्री०=मूर्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूरतिवंत :
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वि० [सं० मूर्ति+वत् (प्रत्यय)] १. मूर्तिमान। २. देहधारी। सशरीर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूरध :
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पुं० =मूर्द्धा (सिर)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूरा :
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पुं० [सं० मूल] बड़ी तथा मोटी मूली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूरि :
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स्त्री० [सं० मूल] १. मूल। जड़। २. जड़ी। बूटी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूरिस :
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वि० [अ०] वह जिसका कोई वारिस हुआ हो। पुं० पूर्वज। |
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मूरी :
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स्त्री० १. =मूली। २. मूरि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूरुख :
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वि०=मूर्ख। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूर्ख :
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वि० [सं०√मुह्+ख, मूर, आदेश] [भाव० मूर्खता] १. प्राचीन भारतीय आर्यों में गायत्री न जानने अथवा अर्थ सहित गायत्री न जाननेवाला। २. जिसमें ठीक ढंग से तथा विचारपूर्वक कोई काम करने अथवा कोई बात समझने-सोचने की योग्यता या शक्ति न हो। ३. लाख समझाने पर भी जिसकी समझ में कोई बात न आती हो। |
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मूर्खता :
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स्त्री० [सं० मूर्ख+तल्+टाप्] १. मूर्ख होने की अवस्था या भाव। २. कोई मूर्खतापूर्ण आचरण, कार्य या बात। |
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मूर्खत्व :
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पुं० [सं० मूर्ख+त्व]=मूर्खता। |
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मूर्खिनी :
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स्त्री० [सं० मूर्ख] मूर्ख स्त्री। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूर्खिमा :
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स्त्री० [सं० मूर्ख+इमनिच्] मूर्खता। बेवकूफी। |
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मूर्च्छन :
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पुं० [सं०√मुर्च्छ (मोह)+ल्युट-अन] [भू० कृ० मूर्च्छित] १. किसी की चेतना या संज्ञा का कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में अस्थायी रूप से लोप करने की क्रिया या भाव। बेहोश करना या बेहोशी लाना। २. प्राचीन काल का एक विशिष्ट तांत्रिक प्रयोग जिससे किसी व्यक्ति की चेतना या संज्ञा नष्ट कर दी जाती थी। ३. आज-कल प्रायः इच्छाशक्ति के प्रयोग से किसी को इस प्रकार चेतनाहीन करना कि उसे शारीरिक कष्टों का अनुभव न हो और उसके स्नायविक तंत्र प्रायः बेकाम हो जाय। (मेस्मेरिज़्म)। विशेष—इस प्रक्रिया का आविष्कार आस्ट्रिया के मेस्मर नामक चिकित्सा ने रोगियों की चिकित्सा के लिए किया था। ४. उक्त के आधार पर वह प्रक्रिया जिसमें आत्मिक बल के द्वारा किसी को कुछ समय के लिए संज्ञाशून्य करके उससे कुछ असाधारण और विलक्षण कार्य कराये जाते हैं और जिसकी गणना इंद्रजाल में होती है। (मेस्मेरिज़्म) ५. वैद्यक में वह प्रक्रिया जिसके द्वारा पारा शुद्ध करने या उसका भस्म तैयार करने के लिए उसकी चंचलता नष्ट करके उसे स्थिर कर देते हैं। ६. कामदेव के पाँच वाणों में से एक, जिसके प्रभाव या प्रहार से प्रेमासक्त व्यक्ति कभी-कभी अपनी चेतना या संज्ञा खो देता है। |
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मूर्च्छना :
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स्त्री० [सं०√मूर्च्छ+युच्-अन, टाप्] १. संगीत में किसी स्वर से आरम्भ करके सातवें स्वर तक आरोह कर चुकने के उपरांत उन्हीं स्वरों से होनेवाला अवरोह। २. उक्त प्रक्रिया के फलस्वरूप होनेवाला शब्द या निकलनेवाला स्वर। |
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मूर्च्छा :
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स्त्री० [सं०√मूर्च्छ+अ+टाप्] वह अवस्था जिसमें अस्थायी रूप से किसी की संज्ञा लुप्त हो चुकी होती है। बेहोशी। विशेष—मूर्च्छा और संन्यास का अंतर जानने के लिए दे० ‘संन्यास’ का विशेष। |
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मूर्च्छाल :
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वि० [सं० मूर्च्छा+लच्] मूर्च्छित। संज्ञाहीन। |
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मूर्च्छित :
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भू० कृ० [सं० मूर्च्छा+इतच्] १. जो अचेत या बेहोश पड़ा हुआ हो। २. (धातु) जिसकी क्रियाशीलता नष्ट कर दी गयी हो। जैसे—मूर्च्छित पारा। ३. (व्यक्ति) जो वय अधिक होने के कारण अयोग्य तथा अशक्त हो गया हो। |
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मूर्छा :
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स्त्री०=मूर्च्छा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूर्छित :
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भू० कृ०=मूर्च्छित। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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मूर्त :
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वि० [सं०√मूर्च्छ (मूर्च्छित होना)+क्त] १. जिसकी कोई मूर्ति अर्थात् आकार या रूप हो। २. जो किसी प्रकार के ठोस पिंड के आकार या रूप में हो। जिसका कोई भौतिक अर्थात् कड़ा या ठोस रूप हो, और इसीलिए जो देखा या पकड़ा जा सके। साकार। (कान्क्रीट) ३. जिसका महत्त्व या स्वरूप समझ में आ सके। बुद्धि-ग्राह्मा। (टैन्जबल) ४. मूर्च्छित। बेहोश। |
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मूर्त-विधान :
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पुं० [सं० ष० त०] केवल कल्पना के आधार पर घटनाओं, कार्यों आदि के स्वरूप, चित्र आदि बनाने की क्रिया या भाव। प्रतिभावली (इमेजरी)। |
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मूर्तता :
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स्त्री० [सं० मूर्त+तल्+टाप्] मूर्त होने की अवस्था या भाव। |
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मूर्तत्व :
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पुं० [सं० मूर्त+त्व] मूर्त होने की अवस्था या भाव। मूर्तता। |
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मूर्ति :
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स्त्री० [सं०√मूर्च्छ+क्तिन्, छ-लोप] १. मूर्त होने की अवस्था या भाव। मूर्तता। ठोसपन। २. आकृति। शकल। सूरत। ३. देह। शरीर। ४. किसी की आकृति के अनुरूप गढ़ी हुई विशेषता उपासना, पूजन आदि के लिए बनाई हुई देवी-देवता की आकृति। प्रतिमा। जैसे—सरस्वती की पत्थर या मिट्टी की मूर्ति। ५. चित्र। तसवीर। वि० जो किसी विषय का बहुत बड़ा ज्ञाता या पंडित हो। (यौ० के अन्त में) जैसे—वेद-मूर्ति। |
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मूर्ति-कला :
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स्त्री० [सं० ष० त०] मूर्तियाँ बनाने की विद्या या हुनर। |
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मूर्ति-पूजक :
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वि० [सं० ष० त०] जो मूर्ति या प्रतिमा की पूजा करता हो। मूर्ति पूजनेवाला। बुतपरस्त। |
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मूर्ति-पूजन :
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पुं० [सं० ष० त०] मूर्तियों की पूजा करने की क्रिया या भाव। |
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मूर्ति-पूजा :
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स्त्री० [सं० ष० त०] १. सगुण भक्ति के अन्तर्गत मूर्ति की की जानेवाली पूजा। २. मूर्तियों की पूजा करने की पद्धति। प्रथा या विधान। |
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मूर्ति-लेख :
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पुं० [सं० मध्य० स०] वह लेख जो किसी मूर्ति के नीचे उसके परिचय आदि के रूप में अंकित किया गया हो। |
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मूर्ति-विद्या :
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स्त्री० [सं० ष० त०] १. मूर्ति या प्रतिमा गढ़ने की कला। २. चित्रकारी। |
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मूर्तिकार :
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पुं० [सं० मूर्ति√कृ+अण्] १. मूर्ति बनानेवाला कारीगर। २. चित्रकार। |
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मूर्तिप :
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पुं० [सं० मूर्ति√पा] १. पुजारी। २. मूर्तिपूजक। |
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मूर्तिभंजक :
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वि० [सं० ष० त०] १. मूर्तियाँ तोड़नेवाला। बुतशिकन। २. फलतः जिसका मूर्तियों में विश्वास न हो। |
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मूर्तिमान् (मत्) :
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वि० [सं० मूर्ति+मतुप्] [स्त्री० मूर्तिमती, भाव० मूर्तिमत्ता] १. जो मूर्त रूप में हो। २. फलतः सगुण तथा साकार। ३. प्रत्यक्ष। साक्षात्। |
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मूर्तीकरण :
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पुं० [सं० मूर्त+च्वि, इत्व, दीर्घ√कृ+लयुट-अन] [भू० कृ० मूर्तीकृत] किसी अमूर्त तत्त्व को मूर्त रूप देने की क्रिया या भाव। |
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मूर्द्ध :
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पुं० [सं० मूर्द्धन्] सिर। |
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मूर्द्ध-कर्णी :
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स्त्री० [सं०] छाता या ऐसी ही और कोई वस्तु जो धूप, पानी आदि से बचने के लिए सिर के ऊपर रखी या लगाई जाती हो। |
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मूर्द्ध-ज्योति (स्) :
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स्त्री० [सं० ष० त०] ब्रह्मरंध्र। (योग) |
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मूर्द्ध-पिंड :
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पुं० [सं० उपमि० स०] हाथी का मस्तक। |
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मूर्द्ध-पुष्प :
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पुं० [सं० ब० स०] शिरीष पुष्प। |
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मूर्द्ध-रस :
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पुं० [सं० मध्य० स०] भात का फेन। |
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मूर्द्धक :
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पुं० [सं० मूर्द्धन+कन्] क्षत्रिय। वि० मूर्द्ध या सिर से सम्बन्ध रखनेवाला। |
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मूर्द्धकपारी :
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स्त्री०=मूर्द्धकर्णी। |
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मूर्द्धखोल :
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पुं० =मूर्द्धकर्णी। |
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मूर्द्धज :
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वि० [सं० मूर्द्धन√जन् (उत्पन्न-होना)] मूर्द्धा या सिर से उत्पन्न होनेवाला अथवा उससे सम्बन्ध रखनेवाला। पुं० केश। बाल। |
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मूर्द्धन्य :
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वि० [सं० मूर्धन्+यत्] १. मूर्द्धा से सम्बन्ध रखनेवाला। मूर्द्धासम्बन्धी। २. मस्तक या सिर में रहनेवाला। ३. (वर्ण) जिसका उच्चारण मूर्द्धा से होता हो। (दे० ‘मूर्द्धन्य-वर्ण’)। |
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मूर्द्धन्य-वर्ण :
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पुं० [सं० कर्म० स०] देव-नागरी वर्ण-माला में वे वर्ण जिनका उच्चारण मूर्द्धा से होता है। यथा-ऋ, ट, ठ, ड, ढ, ण, र और ष। |
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मूर्द्धा (र्द्धन्) :
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पुं० [सं०√मूर्व (बाँधना)+कनिन्, व-ध०] १. मस्तक। सिर। २. व्याकरण में मुँह के अन्दर का तालू और अलिजिह्र के बीच का अंश जिसे जीभ का अग्र भाग ट, ठ, ड, ढ, ण आदि का उच्चारण करते समय उलटकर छूता है। |
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मूर्द्धाभिषिक्त :
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भू० कृ० [सं० मूर्धन्-अभिषिक्त, सुप्सुपा स०] १. जिसके सिर पर अभिषेक किया गया हो। २. (राजा) जिसके राज्योरोहण के समय मूर्द्धाभिषेक नामक धार्मिक कृत्य हुआ हो। पुं० १. राजा २. क्षत्रिय। एक वर्ण संकर जाति जिसकी उत्पत्ति ब्राह्मण से ब्याही क्षत्रिय स्त्री के गर्भ से कही गयी है। |
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मूर्द्धाभिषेक :
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पुं० [सं० मूर्धन्-अभिषेक, ब० स०] प्राचीन भारत में एक प्रकार का धार्मिक और राजकीय कृत्य जिसमें किसी नये राजा के गद्दी पर बैठने से पहले सिर पर मंत्र पढ़कर पवित्र जल छिड़का जाता था। |
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मूर्वा :
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स्त्री० [सं०√मूर्व (बाँधना)+अच्+टाप्] मरोड़फली लता। मधुरसा। |
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मूर्विका :
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स्त्री० [सं० मूर्वा+कन्+टाप्, ह्रस्व, इत्व] मूर्वा। |
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मूर्वी :
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स्त्री०=मूर्वा। |
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