रज (स्)/raj (s)

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रज (स्)  : पुं० [सं०√रज् (राग्)+असुन्, नलोप] १. गर्द। धूल। २. गर्द या धूल के वे छोटे-छोटे कण जो धूप में इधर-उधर चलते हुए दिखाई देते हैं। ३. आठ परमाणुओं की एक पुरानी तौल या भाव। ४. फूलों का पराग। ५. जोता हुआ खेत। ६. आकाश। ७. जल। पानी। ८. भाप। वाष्प। ९. बादल। मेघ। १॰. भुवन। लोक। ११. स्वेतपापड़ा। १२. पाप। १३. अंधकार। अंधेरा। १४. मन में रहनेवाला अज्ञान, और उसके फल-स्वरूप उत्पन्न होनेवाले दूषित भाव। १५. एक प्रकार का पुराना बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा होता था। १६. पुराणानुसार एक ऋषि जो वशिष्ठ के पुत्र कहे गये हैं। १७. धार्मिक क्षेत्रों में प्रकृति के तीन गुणों में से दूसरा जिसके कारण जीवों में भोगविलास करने तथा बल-वैभव के प्रदर्शन की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। रजोगुण (अन्य दो गुण सत्त्व और तम हैं। १८. वह दूषित रक्त जो युवती तथा प्रौढ़ा स्त्रियों और स्तनपायी मादा जंतुओं की योनि से प्रति मास तीन चार दिनों तक बराबर निकलता रहता है। आर्तव। ऋतु। कुसुम। १९. स्कंद की एक सेना का नाम। २॰. केसर। वि० [हिं० राजा] हिं० ‘राजा’ का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक पदों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—रजवाड़ा। स्त्री=रजनी (रात)। पुं० १. =रजत (चाँदी) २. रजक (धोबी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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