शब्द का अर्थ
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					विषा					 :
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					स्त्री० [सं० विष+टाप्] १. अतिविषा। अतीस। २. कलिहारी। २. कड़वी तोरई। ४. काकोली। ५. बुद्धि। समझ।				 | 
			
			
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					विषांकुर					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] तीर।				 | 
			
			
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					विषाक्त					 :
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					वि० [सं०] जिसमें विष मिला हो। २. (वातावरण) जो बहुत अधिक दूषित हो।				 | 
			
			
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					विषाण					 :
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					पुं० [सं०√विष्+कानच्] १. जानवर का सींग। २. हाथी का बाहर वाला दाँत। हाथी-दाँत। ३. सूअर का दाँत। खाँग। ४. ऊपरी सिरा। चोटी। ५. शिव की जटा। ६. मथानी। ७. मेढ़ा-सिंगी। ८. वराही कंद। गेंठी। ९. ऋषभक नामक औषधि। १॰. इमली। ११. सींग का बनाया हुआ बाजा। सिंगी। उदाहरण—कि जाने तुम आओ किस रोज बजाते नूतन रुद्र विषाण।—दिनकर। १२. चोटी।				 | 
			
			
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					विषाणका					 :
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					पुं० [सं० विषाण+कन्] १. सींग। २. हाथी।				 | 
			
			
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					विषाणिका					 :
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					स्त्री० [सं० विषाण+ठन्-इक+टाप्] १. मेढासिंगी। २. सातला। ३. काकड़ासिंगी। ४. भागवत वल्ली नाम की लता। ५. सिंघाड़ा। ६. ऋषभक नामक ओषधि। ७. काकोली।				 | 
			
			
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					विषाणी					 :
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					वि० [सं० विषाण+इनि, विषाणिन्] १. जिसे सींग हो। सींगवाला। पुं० १. सींगवाला पशु। २. हाथी। ३. सूअर। ४. साँड़। ५. सिघाड़ा। ६. ऋषभक नामक औषधि। ७. क्षीर काकोली। ८. मेढ़ा सिंगी। ९. वृश्चिकाली। १॰. इमली।				 | 
			
			
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					विषाणु					 :
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					पुं० [सं० विष+अणु] कुछ विशिष्ट रोगों में शरीर के अन्दर उत्पन्न होनेवाला एक विषाक्त तत्त्व जो दूसरे जीवों के शरीर में किसी प्रकार पहुँचकर वही रोग उत्पन्न कर सकता है। (विरस)।				 | 
			
			
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					विषांतक					 :
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					वि० [सं० ष० त०] जिससे विष का नाश हो। पुं० शिव। महादेव।				 | 
			
			
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					विषाद					 :
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					पुं० [सं० वि√सद्+घञ्] [वि० विषण्ण] १. शारीरिक शिथिलता। २. जड़ता। निश्चेष्टता। ३. मूर्खता। ४. अभिलाषा या उद्देश्य पूरा न होने पर उत्साह या वासना का दुःखदरूप से मंद पड़ना जो साहित्य के श्रृंगारिक क्षेत्र में एक संचारी भाव माना गया है (डिस्पॉन्डेन्सी) ५. आज-कल मन की वह दुःखद अवस्था जो कोई भारी दुर्घटना (बाढ़, भूकंप, महापुरुष का निधन आदि) होने पर और भारी भविष्य के संबंध में मन में गहरी निराशा या भय उत्पन्न होने पर प्रायः सामूहिक रूप से उत्पन्न होती है (ग्लूम)।				 | 
			
			
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					विषादन					 :
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					पुं० [सं०] [भू० कृ० विषादित] १. किसी के मन में विषाद उत्पन्न करने की क्रिया या भाव। २. परवर्ती साहित्य में, एक प्रकार का गौण अर्थालंकार जिसमें बहुत अधिक विषाद उत्पन्न करनेवाली स्थिति का उल्लेख होता है (वह प्रहर्षण नामक अलंकार के विरोधी भाव का सूचक है)।				 | 
			
			
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					विषादनी					 :
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					स्त्री० [सं० विष√अद् (खाना)+मल्युट-अन+ङीप्] १. पलाशी नाम की लता। २. इन्द्रवारुणी।				 | 
			
			
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					विषादिता					 :
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					स्त्री० [सं० विषाद+तल्+टाप्, इत्व] विषाद का धर्म या भाव।				 | 
			
			
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					विषादिनी					 :
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					स्त्री० [सं० विषाद+इनि+ङीष्] १. पलाशी नाम की लता। २. इन्द्रवारुणी।				 | 
			
			
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					विषादी (दिन्)					 :
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					वि० [सं०] विषाद-युक्त।				 | 
			
			
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					विषाद्					 :
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					पुं० [सं० विष√अद् (खाना)+क्विप्] हलाहल विष खानेवाले शिव।				 | 
			
			
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					विषांनगा					 :
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					स्त्री० [सं० मध्य० स०] विष-कन्या।				 | 
			
			
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					विषानन					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] साँप।				 | 
			
			
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					विषापह					 :
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					वि० [सं० विष+अप्√हन् (मारना)+ड] विष का नाश करनेवाला। पुं० मोखा नामक वृक्ष।				 | 
			
			
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					विषापहा					 :
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					स्त्री० [सं० विषापह+टाप्] १. इन्द्रवारुणी इन्द्रायन। २. निर्विषी। ३. नाग-दमनी। ४. अर्कपत्रा। इसरौल। ५. सर्प-काकोली।				 | 
			
			
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					विषायुध					 :
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					पुं० [सं० ब० स०] १. जहर में बुझाया हुआ या जहरीला आयुध। २. साँप।				 | 
			
			
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					विषार					 :
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					पुं० [सं० विष√ऋ (प्राप्त होना आदि)अच्] साँप।				 | 
			
			
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					विषारि					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] १. महाचंचु नामक साग। २. घृत-करंज। वि० विष को दूर करनेवाला। विषनाशक।				 | 
			
			
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					विषालु					 :
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					वि० [सं० विष+अलुच्] विषैला। जहरीला। (प्वायजनस)।				 | 
			
			
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					विषास्त्र					 :
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					पुं० [सं० ब० स०] १. ऐसा अस्त्र जो विष में बुझाया गया हो। २. साँप।				 | 
			
			
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