समुच्चय/samuchchay

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समुच्चय  : पुं० [सं०] [भू० कृ० समुच्चित] १. कुछ वस्तुओं का एक में मिलना। (कॉम्बिनेशन)। २. समूह। राशि। ३. कुछ वस्तुओं या बातों का एक साथ एक जगह इकट्ठा होना। संयुक्ति। (क्युमुलेशन)। ४. प्राचीन भारतीय राजनीति में वह स्थिति जिसमें प्रस्तुत उपाय के सिवाय अन्य उपायों से भी कार्य सिद्ध हो सकता हो। ५. साहित्य में एक अलंकार जिसमें कई भावों के एक साथ उदित होने,कई कार्यो के एक साथ होने या कई कारणों में एक ही कार्य होने का वर्णन होता है। (कनुजंक्शन)। विशेष-इसके दो भेद कहे गये हैं। एक तो वह जिसमें आश्चर्य, हर्ष, विषाद आदि अनेक भावों का एक साथ उल्लेख होता है। दूसरा वह जिसमें एक कार्य के अनेक उपायो से सिद्धि हो सकने का वर्णन होता है।
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समुच्चय बोधक  : पुं० [सं०] व्याकरण में अव्यय का एक भेद जिसका कार्य दो वाक्यों में परस्पर संबंध स्थापित करना होता है। और किन्तु तथा परन्तु बल्कि या वरन् आदि समुच्चय बोधक है।
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समुच्चयक  : वि० [सं०] १. समुच्चय संबंधी। २. समुच्चय के रूप में होनेवाला।
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समुच्चयन  : पुं० [सं०] १. ऊपर उठाने की क्रिया या भाव। २. इकट्ठा करने या ढेर लगाने की क्रिया या भाव।
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समुच्चयार्थक  : वि० [सं०] समुच्चय या सारे वर्ग के अर्थ से संबंध रखने या वैसा अर्थ सूचित करनेवाला। (कलेक्टिव)। जैसा—भीड़ और समाज समुच्चयार्थक संज्ञाएँ है।
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समुच्चयोपमा  : पुं० [सं०] उपमा अलंकार का एक भेद जिसमें उपमेय में उपमान के अनेक गुण या धर्मों का एक साथ आरोप होता है।
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