सान/saan

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सान  : पुं० [सं० शाण] १. प्रायः चक्की के पाट के आकार का वह कुरुंड पत्थर जिस पर रगड़कर धारदार औजारों और हथियारों की धार चोखी या तेज और साफ की जाती है। (ह्वटस्टोन) मुहा०—(किसी चीज पर) सान देना, धरना या रखना=उक्त पत्थर पर रगड़कर औजारों की धार चोखी या तेज करना। २. प्रायः चक्कर के आकार का वह यंत्र जिसमें उक्त पत्थर लगा रहता है और जिसे तेजी से घुमाते हुए औजारों आदि पर सान रखते हैं। पुं० [सं० संज्ञपन] संकेत। इशारा। (पूरब) उदा०—काहु के पान काहु दिन सान।—विद्यापति। पद—सान-गुमान=किसी काम या बात का बहुत ही अल्प रूप में हो सकनेवाला अनुमान या नाम मात्र को हो सकनेवाली कल्पना। जैसे—मुझे तो इस बात का कोई सान-गुमान ही नहीं था कि वह चोर निकलेगा। स्त्री०=शान (ठाट-बाट)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सानंद  : वि० [सं० स+आनंद] जो आनन्द से युक्त हो। जैसे—यहाँ सब लोग सानंद हैं। अव्य० आनंद या प्रसन्नतापूर्वक। जैसे—आप सानंद वहाँ जा सकते हैं। पुं० १. एक प्रकार की संप्रज्ञात समाधि। २. संगीत में, १६ प्रकार के ध्रुवकों में से एक जिसका व्यवहार प्रायः वीर रस के वर्णन में होता है। ३. गुच्छ करंज।
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सानना  : स० [हिं० सानना का स०] १. दो वस्तुओं को आपस में मिलाना विशेषतः चूर्ण आदि का तरल पदार्थ में मिलाकर गीला करना। गूँधना। जैसे—आटा सानना। मसाला सानना। २. मिश्रित करना। मिलाना। ३. लाक्षणिक रूप में, किसी को उत्तरदायी या दोषी हराने के उद्देश्य से कोई ऐसा काम करना या ऐसी बात कहना कि दूसरों की दृष्टि में वह (दूसरा व्यक्ति) भी किसी अपराध या दोष में सम्मिलित जान पड़े। जैसे—आप तो व्यर्थ ही मुझे इस मामले में सानते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) संयों० क्रि०—डालना।—देना।—लेना। स० [हिं० सान+ना (प्रत्य०)] सान पर चढ़ाकर धार तेज करना। (क्व०)
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सानल  : वि० [सं० तृ० त०] १. अग्नि-युक्त। २. कृतिका नक्षत्र से युक्त।
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साना  : अ० [सं० शांत] १. शांत होना। २. समाप्त होना। न रह जाना। उदा०—कृपा-सिंधु बिलोकिए जन मन की साँसति सान।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० १. शांत करना। २. नष्ट करना। ३. समाप्त करना।
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सानी  : स्त्री० [हिं० सान (ना)+ई (प्रत्य०)] १. गौओं, बैलों, बकरियों आदि को खली-कराई में सानकर दिया जानेवाला भूसा। पद—सानी-पानी=खली-कराई और भूसे को एक में मिलाना। २. अनुपयुक्त रूप से एक में मिलाये हुए कई प्रकार के खाद्य पदार्थ। स्त्री० [?] गाड़ी के पहिये में लगाई जानेवाली गिट्टक। वि० [अ०] १. दूसरा। द्वितीय। जैसे—औरंगजेब सानी। २. जोड़ का। बराबरी का। तुल्य। समान। पद—ल-सानी=अद्वितीय। अतुल्य। स्त्री०=सनई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सानु  : पुं० [सं०] १. पर्वत की चोटी। शिखर। २. छोर। शिरा। ३. समतल भूमि। चौरस मैदान। ४. जंगल। वन। ५. मार्ग। रास्ता। ६. पेड़ का पत्ता। पर्ण। ७. सूर्य। ८. पंडित। विद्वान्। वि० [?] १. लंबा-चौड़ा। चौरस। सपाट।
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सानुकंप  : वि० [सं० ब० स०] जिसके मन में अनुकंपा या दया हो। दयालु। क्रि० वि० अनुकंपा या दया करते हुए।
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सानुकूल  : वि० [सं० तृ० त०] पूरी तरह से अनुकूल।
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सानुज  : पुं० [सं० सानु√जन् (उत्पन्न करना)+ज, तृ० त०] १. प्रपौंड्रीक वृक्ष। पुंडेरी। २. तुंबुरु नामक वृक्ष। अव्य० अनुज सहित। छोटे भाई के साथ।
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सानुनजय  : वि० [सं० तृ० त०] विनयशील। शिष्ट। अव्य० अनुनय या विनयपूर्वक।
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सानुनासिक  : वि० [सं० तृ० त०] १. (अक्षर या वर्ण) जिसके उच्चारण के समय मुँह के अतिरिक्त नाक से अनुस्वारात्मक ध्वनि निकलती हो। २. नकियाकर गाने या बोलनेवाला।
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सानुप्रास  : वि० [सं० अव्य० स०] अनुप्रास से युक्त। अव्य० अनुप्रास सहित।
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सानुमान् (मत्)  : पुं० [सं० सानु+मतुप्] पर्वत।
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सानो  : पुं० [?] सूअर की तरह का एक प्रकार का जंगली जानकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सान्नयासिक  : पुं० [सं० सन्नयास+ठक्—इक]=संन्यासी।
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सान्नाहिक  : पुं० [सं० सन्नाह+ठञ्-इक्] जो सन्नाह पहने हो। कवचधारी।
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सान्निध्य  : पुं० [सं० सन्निध+यज्] १. वह अवस्था जिसमें दो या अधिक जीव या वस्तुएँ साथ-साथ रहती हैं। २. सन्निध्य होने अर्थात् निकट या समीप होने की अवस्था या भाव। निकटता। समीपता। ३. वह स्थिति जिसमें यह माना जाता है कि आत्मा चलकर ईश्वर के पास पहुँच गई है।
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सान्निपातकी  : स्त्री० [सं० सन्निपात+ठञ्—इक—ङीप्] वैद्यक में, एक प्रकार का योनि-रोग जो त्रिदोष से उत्पन्न होता है।
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सान्निपातिक  : वि० [स०] १. सन्निपात-संबंधी। सन्निपात का। २. त्रिदोष के कारण उत्पन्न होनेवाला (रोग)।
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सान्वय  : वि० [सं० अव्य० स०] १. किसी विशिष्ट अर्थ से युक्त। २. वंशपरंपरा से आने या होनेवाला। आनुवंशिक। वंशानुगत। अव्य० परिवार अथवा वंशजों के साथ।
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