साम/saam

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साम  : पुं० [सं० सामन] १. बारतीय आर्यों के वे वेदमंत्र जो प्राचीन काल में यज्ञ आदि के समय गाए जाते थे। (दे० ‘सामवेद’) २. प्राचीन भारतीय राजनीति में, चार प्रकार के उपायों में से पहला उपाय जिसमें विरोधी या वैरी से मीठी-मीठी बातें करके अपनी ओर मिलाने अथवा संतुष्ट करने का प्रयत्न किया जाता था। विशेषः शेष तीन उपाय, दम, दंड और भेद कहलाते हैं। स्त्री० १. मीठी-मीठी बातें करना। मधुर भाषण। २. दोस्ती। मित्रता। ३. मित्रता या स्नेह के कारण प्राप्त होने वाली कृपा। उदा०—अवर न पाइये गुरु की साम।—कबीर। पुं० [यू० सेम० इब्रा० शेम] [वि० सामी] पुरातत्व के क्षेत्र में गक्षिणी-पश्चिमी एशिया और उतत्र पूर्वी अफ्रीका के उन क्षेत्रों के सामुहिक नाम, जिनमें अरब, एसीरिया (या असुरिया), फिनीशिया, बैबिलोन आदि प्रदेश पड़ते हैं। विशेषः इन देशों के प्राचीन निवासी एक विशिष्ट जाति के थे, जिन्हे आज कल सामी करते हैं और इनकी भाषा भी सामी कहलाती थी। दे० ‘‘सामी’’(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)। वि०, पुं०=श्याम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १. स्वामी। २. सामान। उदाः वाल्मीकि अजामिल के कठु हुतो न साधन सामी।—तुलसी। पुं०=श्याम देश। स्त्री० १. शाम (संध्या)। २. सामी (छड़ी या डंडे की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साम-गान  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार प्रकार का साम नामक वेद मंत्र। २. दे० ‘सामग’।
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साम-नारायणी  : स्त्री० [सं०] संगीत मे कर्नाटकी पद्धतिकी एक रागिनी।
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साम-रस  : पुं० [सं० श्यान+शर ?] एक प्रकार का गन्ना जो डुमराँव (बिहार) में होता है।
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साम-विप्र  : पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जो अपने सब कर्म सामदेव के विधानानुसार करता हो।
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साम-वेद  : पुं० [सं० सामन्-मध्य० स०] भारतीय आर्यों के चार वेदों में से प्रसिद्ध तीसरा वेद जिसमें साम (देखें) नामक वेद मंत्रो का संग्रह है।
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साम-साली  : पुं० [सं० साम+शाली] राजनीति के साम, दाम, दंड और भेद नामक अंगो को जानने वाला राजनीतिज्ञ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामक  : वि० [सं०] सामवेद संबंधी। पुं० १. वह जो सामवेद का अच्छा ज्ञाता हो। २. वह मूल धन जो ऋण स्वरूप लिया या दिया गया हो। कर्ज का असल रुपया। ३. सान रखने का पत्थर पुं०=श्यामक (साँवाँ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामकारी  : वि० [सं० सामकारिन्-साम√कृ (करना)+ण्नि] जो मीठए वचन कहकर किसी को ढारस देता हो। सांत्वना देने वाला। पुं० एक प्रकार का सामगान।
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सामग  : पुं० [सं० साम्√गम् (जाना)+ड=गै (शब्द करना)+टक्] [स्त्री० सामगी] १. वह जो साम वेद का अच्छा ज्ञाता हो, और अनेक मंत्र ठीक तरह से गा या पढ़ सकता हो। २. विष्णु का एक नाम।
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सामग्री  : स्त्री० [सं० समग्र+ण्यञ्-ङीष् यलोप] १. वे चीजें जिनका सामूहिक रूप से किसी काम में उपयोग होता है। जैसे—लेखन-सामग्री, यज्ञ सामग्री। २. किसी उत्पादन निर्माण, रचना आदि के सहायक अंग या तत्व। सामान। ३. साधन। ४. घर ग्रहस्थी की चीजें। विशेषः इसका प्रयोग सदा एक वचन में होता है।
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सामज  : वि० [सं० साम√जन् (उत्पन्न करना)+ड] जो सामवेद से उत्पन्न हुआ हो। पुं० हाथी जिसकी उत्पत्ति समगान से मानी गई है।
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सामंजस्य  : पुं० [सं०] १. समंजस होने की अवस्था या भाव। २. उपयुक्तता। ३. औचित्य। ३. अनुकूलता। ५. वह स्थिति परस्पर किसी प्रकार की विपरीतता या विषमता न हो।
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सामंत  : वि० [सं०] सीमा पर या पड़ोस में रहने वाला पुं० १. पड़ोसी। २. राजा के आधीन रहने वाला बड़ा सरदार। ३. प्रजावर्ग का श्रेष्ठ व्यक्ति। ४. वीर। योद्धा। ५. पड़ोस। ६. निकटता। समीपता। ७. संगीत में कर्णाटकी पद्धति का एक राग।
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सामत  : पुं० दे० सामंत। स्त्री०=‘शामत’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामंत-तंत्र  : पुं० [सं०] आधुनिक राजनीति में आर्थिक राजनीति और सामाजिक आदि क्षेत्रों की वह व्यवस्था, जिसमें अधिकतर अधिकार बड़े-बड़े सामंतो या सरदारों के हाथ में रहते हैं। (फ्यूडल सिस्टम)
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सामंत-प्रणाली  : स्त्री०=सामंत-तंत्र।
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सामंत-प्रथा  : स्त्री० [सं०]=सामंत-तंत्र।
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सामंत-भारती  : पुं० [सं०] संगीत में, मल्लार और सारंग के मेल से बना हुआ एक प्रकार का संकर राग।
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सामंत-सारंग  : पुं० [सं० मध्यम० स०] संगीत में एक प्रकार का सारंग राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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सामंतवाद  : पुं० [सं०] यह सिद्धांत कि राजनीति और सामाजिक आदि क्षेत्रों में सामंत-तंत्र ही अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। (फ़्यूडलिज़्म)
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सामंतशाही  : स्त्री०=सामंत-तंत्र।
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सामंतिक  : वि० [सं०] १. सामंत-संबंधी। सामंत का। २. सामंतो प्रणाली से संबंध रखने वाला। सामंती (फ़्यूडल)।
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सामंती  : स्त्री० [सं० सामंत—ङीप्] संगीत मे एक प्रकार का रागिनी, जो मेघराज की पत्नी मानी जाती है। स्त्री [हिं० सामंत] सामंत होने की अवस्था या भाव। वि०=सामंतिक।
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सामंतेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] १. सामंतो की मुखिया। २. चक्रवर्ती सम्राट। शहंशाह।
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सामत्रय  : पुं० [सं० ष० त०] हर्रे, सोंठ और गिलोथ तीनो का समूह।
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सामत्व  : पुं० [सं० सामन्+त्व] साम का धर्म या भव। सामता।
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सामध  : स्त्री० [हिं० समधी] विवाह के समय समधियों के आपस में मिलने की रसम। मिलनी।
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सामधी  : पुं० [दे० ‘समधी’।
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सामन  : पुं०=सावन (महीना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [अं० सैल्मन] एक विशेष प्रकार का ऐसी मछलियों का वर्ग जिनका माँस पाश्चात्य देशों में बहुत चाव से खाया जाता है। (सैल्मन)
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सामना  : पुं० [हिं० सामने, पुं० हिं० सामुहें] १. किसी के समझ होने की अवस्था, क्रिया या भाव। पद-सामने का= (क) जो किसी के देखते हुआ हो। जो किसी की उपस्थिति में हुआ हो। जैसे—यह तो तुम्हारे सामने का लड़का है। (ख) किसी की वर्तमानता मे। जैसे—यह तो हमारे सामने की घटना है। २. भेट। मुलाकात। जैसे—जब उनसे सामना हो तब पूछना। ३. किसी पदार्थ का अगला भाग। आगे की ओर का हिस्सा। आगा। जैसे—उस मकान का सामना तालाब की ओर पड़ता है। ४. किसी के विरुद्ध या विपक्ष में खड़े होने की अवस्था, क्रिया या भाव। मुकाबला। जैसे—(क) वह किसी बात में आपका सामना नही कर सकता। (ख) युद्ध क्षेत्र में दोनों दलो का सामना हुआ। मुहा—(किसी का) सामना करना=सामने होकर जवाब देना। घृष्टता या गुस्ताखी करना। जैसे—जरा सा लड़का अभी से सबका सामना करता है। ५. प्रतियोगिता। लाग-डाँट। होड़। जैसे—आज अखाड़े में दोने पहलवानों का सामना होगा।
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सामनी  : स्त्री० [सं०] पशुओं को बाँधने की रस्सी। वि०, स्त्री० सावनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामने  : अव्य-[हिं० सामना] १. उपस्थिति में। आगे। समक्ष। जैसे—बड़ो के सामने ऐसी बात नही कहनी चाहिए। मुहा—(किसी के) सामने करना, रखना या लाना=किसी के समक्ष उपस्थित करना। आगे करना, रखना या लाना। (स्त्रियों का किसी के) सामने होना=परदा न करके समझ आना। जैसे—उनके घर की स्त्रियाँ किसी के सामने नहीं होती। २. किसी के वर्तमान रहते हुए। जैसे—इस किताब के समने उसे कौन पूछेगा ? ३. जिस ओर मुँह हो सीधे उसी ओर। जैसे—सामने चले जाओ, थोड़ी दूर पर उनका मकान है। ४. मुकाबले में। विरुद्ध। जैसे वह तुम्हारे सामने नहीं ठहर सकता। मुहा—(किसी को किसी के) सामने करना या लाना=प्रतियोगी विपक्षी आदि के रूप में खड़ा करना। मुकाबले के लिए खड़ा करना। जैसे—वे तो आड़ में बैठे रहे, और मुकदमा लड़ने के लिए लड़के को सामने कर दिया।
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सामयिक  : वि० [सं०] [भाव० सामयिकता] १. समय अर्थात परिपाटी के अनुसार होने वाला। २. अनुबंध के अनुसार या अनुरूप होने वाला। ३. ठीक समय पर होने वाला। ४. प्रस्तुत या वर्तनाम समय का। जैसा—सामयिक पत्र।
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सामयिक-पत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. भारतीय धर्मशास्त्र में वह इकरार नामा या दस्तावेज जिसमें बहुत से लोग अपना-अपना धन लगाकर किसी मुकदमें की पैरवी के लिए आपस में पढ़ा-लिखी करते थे। २. आज-कल नियत समय पर बराबर निकलता रहने वाला कोई पत्र या प्रकाशन। (पीरियॉडिकल)
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सामयिकता  : स्त्री० [सं०] १. सामयिक होने का भाव। २. वर्तमान समय, परिस्थिति आदि के विचार से उपयुक्त दृष्टि कोण या अवस्था।
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सामयिकी  : स्त्री० [सं० सामयिक] १. सामनिक होने की अवस्था या भाव। २. सामयिक बातों से संबंध रखने वाली चर्चा या विवेचन।
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सामयोनि  : पुं० [सं० ब० स०] १. ब्रह्मा। २. हाथी।
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सामर  : वि० [सं० समर+अण्] समर-सबंधी। समर का। युद्ध का। पुं०=समर (युद्ध)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामरथ  : स्त्री०=सामर्थ्य। वि०=समर्थ।
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सामरा  : वि०, पुं० [स्त्री० सामरी]=साँवला। उदा—तहु दुहु सुललित नतरा सामरा।—विद्यापति।
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सामराधिप  : पुं० [सं० ष० त०] सेनापति।
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सामरिक  : वि० [सं० सभर+ठक-इक] [भाव० सामरिकता] समर संबंधी। युद्ध का। जैसे—सामरिक लज्जा।
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सामरिकता  : स्त्री० [सं० सामरिक+तल-टाप्] १. सामरिक होने की अवस्था, गुण या भाव। (मिलिटरिज्म) २. युद्ध। लड़ाई। समर।
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सामरिकवाद  : पुं० [सं० कर्म० स०] यह मत या सिद्धांत कि राष्ट्र को सदा सैनिक दृष्टि से शसक्त रहना चाहिए। और अपने हितों की रक्षा युद्ध या समर की सहायता से करना चाहिए। (मिलिटरिज़्म)
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सामरेय  : वि० [सं० समर+ढक्-एथ] समर-संबंधिक। सामरिक।
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सामर्थ  : पुं० दे० सामर्थ्य।
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सामर्थी  : वि० [सं० सामर्थ्य+इ (प्रत्य०)] १. सामर्थ्य रखने वाला। जिसमें सामर्थ्य हो। २. कोई कार्य करने में समर्थ। ३. ताकतवर। बलवान्।
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सामर्थ्य  : पुं० [सं०] १. समर्थ होने की अवस्था या भाव। २. कोई कार्य संपादित करने की योग्यता और शक्ति। (कैपेलिटी) ३. साहित्य में, शब्द की व्यंजन शक्ति। शब्द की वह शक्ति जिससे वह भाव प्रकट करता है। ४. व्याकरण में शब्दों का पारस्परिक संबंध। (भूल से स्त्री में प्रयुक्त)।
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सामल  : वि०=श्यामल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामवायिक  : वि० [सं० समवाय+ठञ्-इक] १. समनवाय संबंधी। २. समूह संबंधी। पुं० मंत्री।
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सामवायिक राज्य  : पुं० [सं० समनवाय+ठक-इक राज्य, कर्म० स०] प्राचीन भारतीय राजनीति में वे राज्य जो किसी युद्ध के निमित्त मिलकर एक हो जाते थे।
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सामविद्  : पुं० [सं० साम√विद् (जानना)+क्विप] वह जो सामवेद का अच्छा ज्ञाता हो।
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सामवेदिक, सामवेदीय  : वि० [सं] सामवेद संबंधी। पुं० सामवेद का अनुयायी ब्राह्मण।
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सामस्त्य  : पुं० [सं० समस्त+ष्यञ्]=समस्तता।
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सामहिं  : अव्य० [सं० सम्मुख] सामने। सम्मुख। समक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामाँ  : पुं० १. =सामान। २. साँवा। स्त्री०=श्यामा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामाजिक  : वि० [सं० समाज+ठक्-क] १. प्राचीन भारत में ‘सभा’ नामक संस्था से संबंध रखने वाला। २. आज-कल समाज विशेष जन-समाज से संबंध रखने वाला। समाज का। जैसे—सामाजिक व्यवहार, सामाजिक सुधार। ३. सामाजिक संबंधो के फलस्वरूप होने वाला। जैसे—सामाजिक रोग। पुं० १. प्राचीन भारत में वह सभा नामक संस्था का सदस्य होता था। २. वह जो जीविका निर्वाह या धनोपार्जन के लिए समाज (समज्या अर्थात तरह-तरह के खेल तमाशों की व्यवस्था करता था। ३. वे लेग जे उक्त प्रकार के खेल तमाशे देखने के लिए एकत्र होते थे। ४. साहित्यिक क्षेत्र में, वह जो काव्य संगीत आदि का अच्छा मर्मज्ञ हो। रसिक। सहृदय।
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सामाजिकता  : स्त्री० [सं० सामाजिक+तल्-टाप्] १. सामाजिक होने का अवस्था या भाव। लौकिकता। २. मनुष्य में समाज शील बनने की होने वाली वृत्ति।
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सामान  : पुं० [फा०] १. किसी कार्य के लिए साधन स्वरूप आवश्यक और उपयुक्त वस्तुएँ। उपकरण। सामग्री। जैसे—लड़ई का सामान, सफर का सामान। २. घर-गृहस्थी की उपयोगिता की चीजें। असबाब। जैसे—चोर घर का सारा सामान उठा ले गये। ३. उपकरण। औजार। जैसे—बढई या लोहर का सामान। विशेषः सामग्री की तरह सदा एक वचन में प्रयुक्त। ४. इन्तजाम। प्रबंध। व्यवस्था।
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सामानिक  : वि० [सं० समान+ठञ-इक] पद, योग्यता आदि के विचार से किसी के समान।
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सामान्य  : वि० [सं०] [भाव० सामान्यता] १. जिसमें कोई विशेषतः न हो। मामूली। २. सब या बहुतों से संबंध रखने वाला। ३. प्रायः सभी व्यक्तियों, अवसरों अवस्थाओं आदि में पाया जाने वाला या उनसे संबंध रखने वाला। सार्वजनिक। आम। (जनरल, उक्त दोनों अर्थों के लिए) ४. जो अपनी संगति या साधारण अवस्था, स्थिति आदि में ही हो, विशेष घटा-बढ़ा या इधर-उधर हटा हुआ न हो। प्रसम। (नार्मल) पुं० १. समान होने की अवस्था, गुण या भाव। समानता। बराबरी। २. वैशेषिक दर्शन में वह गुण या धर्म जो किसी जाति के सब प्राणियों या किसी प्रकार की सब वस्तुओं में समान रूप से पाया जाता हो। जाति-साधर्म्य। जैसै०—मनुष्यों में मनुष्यत्व सामान्य और पशुओं में पशुत्व। विशेष—वैशेषिक में ६ पदार्थों में से एक माना गया है और इसी को ‘जाति’ भी कहा गया है। ३. एक प्रकार का लोक न्याय मूलक अलंकार जिसमें उपमान और उपमेय अथवा प्रस्तुत और अप्रस्तुत का स्वरूप प्रथक होने पर भी दोनो में घुणों, धर्मों आदि के बिलकुल समान या एक होने का उल्लेख रहता है। जैसे—यह कहना कि चाँदनी रात में अटारी पर खड़ी ङुई नायिका और चंद्रमा में इतनी समानता है कि यह पता ही नही चलता कि मुख कौन है और चंद्रमा कौन ? ४. दे० ‘मध्यक’।
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सामान्य छल  : पुं० [सं० मध्यम० स०] न्याय शास्त्र में एक प्रकार का छल जिसमें संभावित अर्थ के स्थान में जाति सामान्य अर्थ के योग से असंभूत अर्थ की कल्पना की जाती है।
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सामान्य बुद्धि  : स्त्री० [सं०] प्रायः सब प्रकार के जीवों में पाई जानेवाली वह सामान्य या सहज बुद्धि जिससे वे साधारण बातें बिना किसी प्रयत्न के या आप से आप समझ लेते हैं। (कॉमन सेन्स)।
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सामान्य भविष्यत्  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में भविष्यत् काल का एक भेद, जिससे यह ज्ञात होता है कि अमुक बात आगे चलकर होगी, अथवा आगे चलकर अमुक व्यक्ति कोई क्रिया करेगा। धातु में ‘एगा’ ‘ऊँचा’ लगाकर इस काल के क्रिया पद बनाये जाते हैं। जैसा—जाएगा, खाएगा, हंसेगा खेलूँगा। इनमें उद्देश्य के लिंग वचन के अनुसार परिवर्तन होता है।
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सामान्य-निबंधना  : स्त्री० [सं०] साहित्य में अप्रस्तुत प्रशंसा नामक अलंकार का एक भेद जिसमें प्रस्तुत के लिए किसी अप्रस्तुत सामान्य का कथन होता है।
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सामान्य-भूत  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में भूतकालिक क्रिया का एक भेद में आ या या प्रत्यय जोड़कर सामान्य भूत काल का क्रिया पद बनाते हैं। जैसा—उठा हँसा। नाचा, आया, लाया नहाया आदि।
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सामान्य-लक्षण  : पुं० [सं०] तर्क में एक ही जाति या प्रकार के सब जीवों या पदार्थों में समान रूप से पाया जानेवाला वह लक्षण या वे लक्षण जिनके आधार पर उस जाति या प्रकार के सब जीवों या पदार्थों की पहचान होती है। जैसा—किसी घोड़े के सामान्य लक्षण की सहायता से ही शेष सब घोड़ों की पहचान होती है।
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सामान्य-वर्तमान  : पुं० [सं० मध्यम० स०] व्याकरण में वर्तमान काल का एक भेद जिससे किसी कार्य के प्राकृतिक रूप से घटित होते रहने या तत्क्षण घटित होने का पता चलता है। धातु में ता है, ता हूँ आदि प्रत्यय लगाये जाते हैं। जैसा—आता है जाता है, सोता है हँसता हूँ आदि।
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सामान्य-विधि  : स्त्री० [सं०] १. कोई साधारण विधि या आज्ञा। जैसा—बुरे काम मत करो। २. किसी देश या राष्ट्र में प्रचलित विधि प्रविधियों का वह सामूहिक मान जिसके अनुसार उस देश या राष्ट्र के निवासियों का आचरण या व्यवहार परिचालित होता है। (कॉमन लॉ)।
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सामान्य-विभाजक  : पुं० [सं०] गणित में समापर्वतक राशि (दे०) ‘समापर्वतक’।
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सामान्यतः  : अव्य० [सं० सामान्य+तसिल्] सामान्य रूप से। सामान्यता। (नार्मेली)।
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सामान्यतया  : अव्य० [सं० सामान्य०+तल-टाप्-टा] सामान्य रूप से। मामूली तौर से। सामान्यतः।
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सामान्यता  : स्त्री० [सं०] १. सामान्य या मामूली होने की अवस्था या भाव। २. वह गुण, तत्व या बात जो सामान्य हो। ३. सामान्य होने या सब जगह सामान्य रूप से होने या पाये जाने की अवस्था या भाव। (जनरैलिटी)।
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सामान्यतोदृष्ट  : पुं० [सं० सामान्यतस्√दृश् (देखना)+क्त] १. तर्क और न्याय शास्त्र में अनुमान संबंधी एक प्रकार का दोष या भूल, जो उस समय मानी जाती है जब किसी ऐसे पदार्थ के आधार पर अनुमान किया जाता है जो न तो कार्य हो और न कारण। जैसा—आस को बौरते देखकर कोई यह अनुमान करे कि अन्य वृक्ष भी बौरने लगे होंगे। २. दो वस्तुओं या बातों में ऐसा साम्य, जो कार्य-कारण संबंध से भिन्न हो। जैसा—बिना चले कोई दूसरे स्थान पर नहीं पहुँच सकता। इसी से यह भी समझ लिया जाता है कि यदि किसी को कही पहुँचना हो तो उसे किसी प्रकार चलने में प्रवृत्त करना पड़ेगा।
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सामान्या  : स्त्री० [सं० सामान्य-टाप्] १. ऐसी स्त्री जो सर्व साधारण के लिए उपलब्ध या सूलभ हो। २. साहित्य में वह नायिका जो धन कमाने के उद्देश्य से पर-पुरुष से प्रेम करने का ढोंग करती है।
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सामान्यीकरण  : पुं०=साधारणीकरण (प्राचीन भारतीय साहित्य का)।
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सामायिक  : वि० [सं०] भाषा से युक्त। माया सहित। पुं० जैनों के अनुसार एक प्रकार का व्रत या आचरण जिसमें सब जीवों पर सम भाव रखकर एकांत में बैठकर आत्म-चितन किया जाता है।
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सामायिक  : वि० [सं० समास+ठक्-इक] १. समास से संबंध रखने वाला। समास का। २. समास के रूप में होनेवाला। ३. लघु या संक्षिप्त किया हुआ।
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सामाश्रय  : पुं० [सं० ब० स० अण्] प्राचीन भारतीय वास्तु में ऐसा भवन या प्रासाद जिसके पश्चिम ओर वीथिका या सड़क हो।
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सामिक  : पुं० [सं० सामि+कन्] १. यज्ञों में बलि पश को अभिमंत्रित करनेवाला व्यक्ति। २. पेड़। वृक्ष।
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सामिग्री  : स्त्री०=सामग्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामित्य  : वि० [सं० समिति+घञ्] समिति सम्बन्धी। समिति का। पुं० समिति का गुण धर्म या भाव।
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सामिधेन  : वि० [सं० सम्√इन्ध् (प्रदीप्त करना)+ल्युट-अन] समिधा या यज्ञ की अग्नि से सम्बन्ध रखनेवाला।
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सामिधेनी  : स्त्री० [सं० सामिधेन-ङीष्] १. एक प्रकार का ऋत मंत्र जिसका पाठ होम की अग्नि प्रज्वलित करने के समय किया जाता है। २. ईधन। ३. कोई ऐसी चीज या बात जो किसी प्रकार का ताप या तेज उत्पन्न करती हो। उग्र तीव्र या प्रबल करनेवाली चीज या बात।
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सामिधेन्य  : पुं० [सं० सामिधेनी+यत्]=सामिधेनी।
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सामियाना  : पुं०=शामियाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामिल  : वि०=शामिल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामिष  : वि० [सं० तृ० त०] १. मांस से युक्त। २. गोश्त सहित। जैसा—सामिष भोजन।
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सामिष श्राद्ध  : पुं० [सं० कर्म० स०] पितरों आदि के उद्देश्य से किया जानेवाला वह श्राद्ध जिसमे मांस, मत्स्य आदि का भी व्यवहार होता था। जैसा—मांसाष्टका आदि सामिष श्राद्ध है।
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सामी  : पुं० [सं० साम (देश)] पुरातत्व के अनुसार प्राचीन साम (देखें) नामक भू-भाग के निवासी जिनके अन्तर्गत अरब, इब्रानी एसीरिया (या असुरिया) और फिनीशिया तथा बैबिलोन के लोग आते हैं। स्त्री० उक्त प्रदेश की प्राचीन भाषा जिसकी शाखाएँ आज-कल की अरबी, इब्रानी फिनिशिया और बैबिलोन आदि की भाषाएँ है। स्त्री०=शामी (छड़ी, डंडे आदि की) पुं०=स्वामी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामीची  : स्त्री० [सं०] १. वंदना। प्रार्थना। स्तुति। २. नम्रता। ३. शिष्टता।
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सामीचीन्य  : पुं० [सं० समीचीनी+ष्यञ्]=सामीचीनता।
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सामीप्य  : पुं० [सं० समीप+ष्यज्] १. समीपता। २. मुक्ति की चार अवस्थाओं में से एक जिसमें मुक्तात्मा ईश्वर से समीप होती है।
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सामीर  : पुं० [सं०]=समीर (पवन)।
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सामीर्य  : वि० [सं०] समीर संबंधी। समीर का। हवा का।
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सामुझि  : स्त्री०=समझ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामुदायिक  : वि० [सं० समुदाय+ठक्-इक] १. समुदाय संबंधी। समुदाय का। २. समुदाय के प्रयत्न से होनेवाला पुं० बालक के जन्म के समय के नक्षत्र से आगे के अठारह नक्षत्र जो फलित ज्योतिष के अनुसार अशुभ माने जाते हैं और जिनमें किसी प्रकार का शुभ कर्म करने का निषेध है।
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सामुद्र  : वि० [सं०] १. समुद्र संबंधी समुद्र का। २. समुद्र से निकला हुआ। समुद्र से उत्पन्न। पुं० १. समुद्र के पानी से तैयार किया हुआ नमक। समुद्री नमक। २. समुदंर फेन। ३. समुद्र के द्वारा दूर दूर के देशों में जाकर व्यापार करनेवाला व्यापारी। ४. शरीर में होनेवाले ऐसे चिन्ह या लक्षण जिन्हें देखकर शुभाशुभ फलों का विचार किया जाता है। दे० ‘सामुद्रिक’। ५. नारियल।
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सामुद्र-स्थलक  : पुं० [सं० कर्म० स०] समुद्र की तरह का विस्तार।
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सामुद्रक  : वि० [सं० सामुद्र+कन्] समुद्र संबंधी। समुद्र का। पुं० १. समुद्र के जल से बनाया हुआ नमक। समुद्री नमक। २. दे० ‘सामुद्रिक’।
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सामुद्रिक  : वि० [सं० समुद्र+ठक्-इक] समुद्र से संबंध रखनेवाला। समुद्र या सागर संबंधी। समुदरी। पुं० १. फलित ज्योतिष में वह अंग या शाखा जिसमें इस बात का विचार होता है कि मनुष्य की हस्तरेखाओं तथा शरीर पर के अनेक प्रकार के चिन्हों या लक्षणों के क्या क्या शुभ और अशुभ फल होते हैं। २. उक्त शास्त्र का ज्ञाता या पंडित। ३. दे० ‘आकृति विज्ञान’।
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सामुहाँ  : अव्य० [सं० सम्मुख] सामने। सम्मुख। वि० सामने का। पुं०=सामना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सामुहिक  : वि० [सं० समूह+ठक्—इक]=सामूहिक।
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सामुहें  : अव्य० [सं० सम्मुखे] सामने सम्मुख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सामूहिक  : वि० [सं०] [भाव० सामूहिकता] १. समूह या बहुत से लोगों से संबंध रखनेवाला। ‘वैयक्तिक’ का विपर्याय। २. समूह द्वारा होनेवाला। (कलेक्टिव) जैसे—सामूहिक खेती।
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सामृद्धय  : पुं० [सं० समृद्धि+ष्यञ्] समृद्ध होने की अवस्था, गुण या भाव।
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सामोद  : वि० [सं० तृ० त०] १. आमोद या आनंद से युक्त। प्रसन्न। २. सुगंधित।
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सामोद्वभव  : पुं० [सं० ब० स०] हाथी।
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सामोपनिषद्  : स्त्री० [सं० मध्य० अ०] एक उपनिषद् का नाम।
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साम्नी  : स्त्री० [सं०] १. पशुओं को बाँधने की रस्सी। २. कुछ विशिष्ट प्रकार के वैदिक छन्दों का एक वर्ग। जैसे—साम्नी अनुष्टुप, साम्नी गायत्री, साम्नी जागती, साम्नी बृहती आदि।
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साम्मत्य  : पुं० [सं० सम्मति+ष्यञ्] सम्मति का गुण, धर्म या भाव।
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साम्मुखी  : स्त्री० [सं० सम्मुख+अण्—ङीष्] गणित ज्योतिष में, ऐसी तिथि जो सायंकाल तक रहती हो।
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साम्मुख्य  : पुं० [सं० सम्मुख+ष्यञ्] सम्मुख होने की अवस्था या भाव। सामना।
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साम्य  : पुं० [सं०] समान होने का भाव। समानता। जैसे—इन दोनों पुस्तकों में बहुत कुछ साम्य है।
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साम्यता  : स्त्री०=साम्य।
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साम्यवाद  : पुं० [सं० साम्य+√वद् (कहना)+घञ्] मार्क्स द्वारा प्रतिष्ठित तथा लेनिन द्वारा संबंधित वह विचारधारा जो व्यक्ति के बदले सार्वजनिक उत्पादन, प्रबंध और उपयोग के सिद्धान्त पर समाज-व्यवस्था स्थिर करना चाहती है और इसकी सिद्धि के लिए हर संभव उपाय से शोषित वर्ग को सशक्त करना चाहती है। (कम्युनिज्म)
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साम्या  : स्त्री० [सं०] साधारण न्याय के अनुसार सब लोगों के साथ निष्पक्ष और समान भाव से किया जानेवाला व्यवहार। समदर्शितापूर्ण व्यवहार। (इक्विटी)
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साम्यामूलक  : वि० [सं० साम्या+मूलक] जिसमें साम्या या समदर्शिता का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया हो। साम्यिक। (ईक्विटेबुल)
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साम्यावस्था  : स्त्री० [सं०] १. दार्शनिक क्षेत्र में, वह अवस्था जिसमें सत्त्व, रज और तम तीनों गुण बराबर हों; उनमें किसी प्रकार का विकार या वैषम्य न हो। प्रकृति। २. आज-कल लौकिक क्षेत्र में, वह अवस्था या स्थिति जिसमें परस्पर विरोधी शक्तियाँ इतनी तुली हों कि एक दूसरी पर अपना अनिष्ट प्रभाव डालकर कोई गड़बड़ी उत्पन्न न कर सकें। (ईक्विलिब्रियम)
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साम्यिक  : वि० [सं०]=साम्या-मूलक।
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साम्राज्य  : पुं० [सं०] १. वे अनेक राष्ट्र या देश जिन पर कोई एक शाससत्ता रकाज करती हो। सार्वभौम राज्य। सलतनत। २. किसी कार्य या क्षेत्र में होनेवाला किसी का पूर्ण आधिपत्य।
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साम्राज्य-लक्ष्मी  : स्त्री० [सं०] १. साम्राज्य का वैभव। २. तंत्र के अनुसार एक देवी जो साम्राज्य की अधिष्ठात्री मानी गई है।
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साम्राज्यवाद  : पुं० [सं०] [वि० साम्राज्यवादी] वह वाद या सिद्धान्त जिसमें यह माना जाता है कि किसी देश को अपने अधिकृत क्षेत्रों में वृद्धि करते हुए अपने साम्राज्य का बराबर विस्तार करते रहना चाहिए। (इम्पीरियलिज़्म)
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साम्राज्यवादी  : वि० [सं०] साम्राज्यवाद-संबंधी। पुं० वह जो साम्राज्यवाद के सिद्धांतों का अनुयायी या समर्थक हो। (इम्पिरियलिस्ट)
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साम्हना  : पुं०=सामना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साम्हने  : अव्य०=सामने।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साम्हर  : पुं०=साँभर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साम्हा  : अव्य०=सामने। उदा०—घर गिरि पुर साम्हा धावति।—प्रिथीराज। पुं०=सामना। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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