सेव/sev

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सेव  : पुं० [सं० सेविका] सूत के रूप में बना हुआ आटे, मैदे आदि का एक पकवान। पुं० [?] खेत की हलकी या कम गहरी जोताई। ‘अवाई’ का विपर्याय। पुं० =सेब (फल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सेवा।
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सेव-दाना  : पुं० [हिं०] सोयाबीन के दाने।
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सेवँई  : स्त्री०=सेवई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवई  : स्त्री० [सं० सेविका] मैदे के सुखाये हुए बहुत पतले सूत के से लच्छे जो घी में तलकर या दूध में पकाकर खाये जाते हैं। क्रि० प्र०–पूरना।–बढ़ना। स्त्री० [सं० श्यामक, हिं० सावाँ] एक प्रकार की लंबी घास, जिसकी बालें चारे के काम आती हैं। कही—कही इसके दाने या बीज बाजरे के साथ मिलाकर खाये भी जाते हैं। सेवन।
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सेवक  : वि० [सं०] [स्त्री० सेविका] किस की सेवा या खिदमत करनेवाला जैसे–देश—सेवक, समाज-सेवक। पुं० [स्त्री० सेविका, सेवकिन, सेवकी] १. वह जो किसी की सेवा करने के काम पर नियुक्त हो। नौकर। २. वह जो किसी की छोटी—मोटी सेवाएँ या टहल करने के काम पर नियुक्त हो।चाकर। परिचारक। ३. वह जो किसी देवता या विशिष्ट रूप से अराधक, उपासक या पूजक हो। देवता का भक्त। ४. वह जो किसी वस्तु का सेवन अर्थात उपभोग या व्यवहार करता हो। जैसे–मद्य सेवक। ५. वह जो धार्मिक दृष्टि से किसी विशिष्ट पवित्र स्थान में नियमित या स्थायी रूप से रहता हो। जैसे–तीर्थ—सेवक। ६. सिलाई का काम करनेवाला व्यक्ति। दरजी। ७. अनाज आदि रखने का बोरा।
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सेवकाई  : स्त्री० [सं० सेवक+हिं० आई (प्रत्य०)] १. ब्रह्यणों साधु—महात्माओं की दृष्टि से, अनेक सेवकों, शिष्यों, यजमानों आदि का वर्ग या समूह। २. सेवा। टहल। उदा०–इहै हमार बड़ी सेवकाई।–तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवग  : पुं०=सेवक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवड़ा  : पुं० [हिं० सेब+ड़ा (प्रत्य०)] १. मैदे का एक प्रकार का मोटा सेव या पकवान। पुं० [सं० श्वेतपट] १. एक प्रकार के देवता। २. एक प्रकार के जैन साधु।
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सेवँत  : पुं० [सं० सामंत] एक राग जो हनुमत के अनुसार मेघ राग का पुत्र है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवति  : स्त्री० =स्वाती (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवती  : स्त्री० [सं० सेमंती] सफेद गुलाब। वि० उक्त गुलाब की तरह सफेद। पुं० सफेद रंग।
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सेवन  : पुं० [सं०] [वि० सेवति, सेवनीय, सेव्य, कर्ता सेवी] १. परिचर्या। टहल। सेवा। २. उपासना। आराधना। ३. नियमित रूप से किया जानेवाला प्रयोग या व्यवहार।। इस्तेमाल। जैसे–औषध का सेवन। ४. बराबर किसी बड़े के पास या किसी पवित्र स्थान पर रहना। जैसे–काशी-सेवन। ५. उपभोग। जैसे–मद्य-सेवन, स्त्री-सेवन। ६. कपड़े सीने का काम। सिलाई। पुं०=सेवई (घास)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवना  : स०=सेना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) सं० [सं०सेवन] सेवा—टहल करना। स० दे० ‘सेना’।
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सेवनी  : स्त्री० [सं०] १. सूई। सूची। २. सिलाई के टाँके। सीअन। सीवन। ३. शरीर के अंगो में सीअन की तरह दिखाई पड़नेवाला जोड़। ४. जूही। स्त्री० =सेविका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवनीय  : वि० [सं०] १. जिसका सेवन करना आवश्यक या उचित हो। २. पूज्य। ३. जो सीये जाने के योग्य हो।
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सेवँर  : पुं०=सेमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवरा  : पुं० १.=सेवड़ा। २.=सेहरा। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवरी  : स्त्री० =शबरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवल  : पुं० [देश०] ब्याह की एक रस्म।
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सेवा  : स्त्री० [सं०] १. बडे़ पूज्य स्वामी आदि को सुख पहुँचाने के लिए किया जाने वाला काम। परिचर्या। टहल। मुहा०–सेवा मे=बड़े के समने आदरपूर्वक । २. सेवा या नौकर होने की अवस्था या काम। नौकरी। ३. व्यक्ति संस्था आदि से कुछ वेतन लेकर उनका कुछ काम करने की क्रिया या भाव। नौकरी। ४. किसी लोकोपयोगी वस्तु विषय कार्य आदि में रुची होने के कारण उसके हित, वृद्धि, उन्नति आदि के लिए किया जाने वाला काम। जैसे–साहित्य—सेवा आदि। ५. सार्वजनिक अथवा राजकीय कार्यो का कोई विशेष विभाग जिसके लिए कोई विशेष प्रकार का काम हो। जैसे–वैचारिक—सेवा (जुडिशियल सर्विस)। साधविक सेवा। (इक्जिक्यूटिव सर्विस) ६. इस प्रकार में किसी में काम करने वालो का समूह या वर्ग। (सर्विस उक्त सभी अर्थों के लिए) ७. धार्मिक दृष्टि से देवताओं की मूर्तियों आदि को स्नान कराना, फूल चढ़ना, भोग लगाना आदि। जैसे–ठाकुर जी की सेवा। ८. किसी के पालन—पोषण, रक्षण, संवर्धन आदि के लिए किये जाने वाले उपयुक्त काम। जैसे–गौ की सेवा, पोड़—पौधो की सेवा। ९. उपभोग। जैसे–स्त्री—सेवा। १॰. आश्रम। शरण। जैसे–वे बहुत दिनो तक महाराज की सेवा में पड़े रहे।
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सेवा-काकु  : स्त्री० [सं०] सेवा कैल में स्वर परिवर्तन या आवाज बदलना। (अर्थात कभी जोर से बोलना, कभी मुलामियत सो, कभी क्रोध से और कभी दुख भाव से।)
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सेवा-काल  : पुं० [सं०] वह अवधि, जिसमें कोई सेवा में नियुक्त रहा हो। (पीरियड आफ सर्विस)
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सेवा-टहल  : स्त्री० [सं० सेवा+हिं० टहल] ‘बड़ों’, रोगियों आदि की परिचर्या। खिदमत। सेवा-शुश्रुषा।
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सेवा-पंजी  : स्त्री० [सं०] वह पंजी या पुस्तिका जिसमें सेवकों विशेषतः राजकीय सेवको के सेवा काल की कुछ मुख्य बातें लिखी जाती है। (सर्विस बुक)
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सेवा-पद्धति  : स्त्री० [सं०] वैष्णव संप्रदायों में देवताओं आदि की सेवा—पूजा की कोई विशिष्ट प्रणाली।
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सेवा-बंदगी  : स्त्री० [सं० सेवा+फा० बंदगी] १. साहब—सलामत। २. आराधना। पूजा।
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सेवा-भाव  : पुं० [सं०] सेवा विशेषतः उपकार करने की भावना। जैसे–वे साहित्य—साधना सेवा-भाव से ही करते है।
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सेवा-वृत्ति  : स्त्री० [सं०] सेवा या नौकरी करके जीविका उपार्जन करना या जीवन बिताना।
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सेवाजन  : पुं० [सं०] सेवा करने वाले व्यक्ति।
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सेवांजलि  : स्त्री० [सं०] कर—संपुट या अंजलि में भरी या रखी वस्तु गुरु, देवता आदि को समर्पण करना।
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सेवाती  : स्त्री० =स्वाती (नक्षत्र)।
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सेवादार  : पुं० [सं०+फा०] [भाव० सेवादारी] १. वह सिक्ख जो किसी सिख गुरू की सेवा में रहकर परम निष्टा और श्रद्धा—भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करता था। २. आज—कल वह सिक्ख जो गुरुद्वारे में रहकर गुरुग्रंथ साहब की पूजा आदि के काम पर नियुक्त रहता है। द्वारपाल।
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सेवादास  : पुं० [सं०] [स्त्री० सेवा—दासी] छोटी—छोटी सेवाएँ करने वाला नौकर। टहलुआ।
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सेवाधर्म  : पुं० [सं०] सेवक का धर्म।
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सेवाधारी  : पुं० =सेवादार।
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सेवापन  : पुं० [सं० सेवा+हिं० पन (प्रत्य०)] सेवा करने की क्रिया, ढंग या भाव।
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सेवाय  : अव्य०=सिवा (अतिरिक्त)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवायत  : पुं० [हिं० सेवा] वह जो किसी देव मूर्ति की सेवा आदि के काम पर नियुक्त हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवार  : स्त्री० [सं० शैवाल] १. नदियों, तालों आदि में होने वाली लंबे, कड़े तथा तेज किनारो वाली घास। २. मिट्टी की तहें जो किसी नदी आस पास जमी हों। पुं० पान। (सुनार)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवारा  : पुं०=सेवड़ा (पकवान)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवाल  : स्त्री०=सेवार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवावाद  : पुं० [सं०] खुशामद। चापलूसी।
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सेवावादी  : पुं० [सं०] खुशामदी। चापलूस।
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सेवि  : पुं० [सं०] १. बदर—फल। बेर। २. सेव नामक फल। वि० १.=सेवी। २.=सेव्य। ३.=सेवित।
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सेविं—बैंक  : पुं० [अ०] आधुनिक अर्थ व्यवस्था में वह संस्था जिसमें लोग अपनी बचत के रूप में जमा करते हैं और उस पर ब्याज भी प्राप्त करते हैं।
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सेविका  : स्त्री० [सं०] १. सेवा करने वाली स्त्री। दासी। परिचारिका। नौकरानी। २. सेवई नामक व्यंजन।
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सेवित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसकी सेवा या टहल की गई हो। उपचरित। २. जिसकी आराधना, उपासना या पूजा की गई हो। ३. जिसकी सेवा अर्थात उपयोग या व्यवहार किया गया हो। ४. आश्रित। ५. उपभुक्त। पुं० १. बेर। २. सेव (फल) ।
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सेवितव्य  : वि० [सं०]=सेव्य।
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सेविता  : स्त्री० [सं०] १. सेवक का कर्म। सेवा। दास—वृत्ति। २. आराधना। उपासना। ३. आश्रय। पुं० [सं० सेवितृ] सेवक।
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सेवी (विन्)  : वि० [सं०] १. सेवा करने वाला। २. आराधना या पूजा करनेवाला। ३. किसी वस्तु या स्थान का सेवन करनेवाला।
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सेवें  : पुं० [देश०] एक प्रकार का ऊँचा पेड़ जिसकी लकड़ी कुछ पीलापन या ललाई लिए सफेद रंग की, नरम, चिकनी, चमकीली और मजबूत होती है। कुमार।
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सेवोपहार  : पुं० दे० ‘आनुतोषक’।
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सेव्य  : वि० [सं०] [स्त्री० सेव्या] १. जिसकी सेवा करना आवश्यक, उचित या उपयुक्त हो। २. जिसकी आराधना, उपासना या पूजा करना आवश्यक, उचित या उपयुक्त हो। ३. जिसका सेवन अर्थात उपभोग या व्यवहार करना आवश्यक, उचित या उपयुक्त हो। ४. जिसकी रक्ष करना आवश्यक या उचित हो। ५. जिसका उपभोग या भोग करना आवश्यक या उचित हो। पुं० १. स्वामी। मालिक। २. उशीर। खस। ३. अश्वत्थ। पीपल। ४. हिज्जल नामक वृक्ष। ५. लमज्जक नामक घास, या तृण। ६. गौरैया पक्षी। चिड़ा। ७. सुगंधवाला। ८. लाल चंदन। ९. समुद्री नमक। १॰. जल। पानी। ११. दही। १२. पुरानी चाल की एक प्रकार की शराब।
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सेव्य-सेवक भाव  : पुं० [सं०] उस प्रकार का भाव, जिस प्रकार का वस्तुतः सेव्य या सेवक के बीच रहता हो या रहना चाहिए। स्वामी और सेवक तथा उपास्य और उपासक के बीच का पारस्परिक भाव।
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सेव्या  : स्त्री० [सं०] १. बंदा या बाँदा नामक जो दूसरे पेड़ो पर रहकर पनपती हैं। २. आँवला। ३. एक प्रकार की जंगली धान।
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