उच्च/uchch

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उच्च  : वि० [सं० उद्√चि(चयन करना)+ड] १. जिस का विस्तार ऊपर की ओर बहुत दूर तक हो। जैसे—उच्च शिखर। मुहावरा—उच्च के चंद्रमा होना=सौभाग्य और उन्नति के लिए उपयुक्त समय होना। २. जो किसी विशिष्ट मानक, मान या स्तर से आगे बढ़ा हुआ हो। जैसे—उच्च रक्त-चाप, उच्च विद्यालय,उच्च शिक्षा आदि। ३. जो अधिकार, पद आदि के विचार से औरों से ऊपर या उनसे बड़ा हों। जैसे—उच्च अधिकारी। ४. विभाग, श्रेणी आदि के विचार से औरों के आगे बढ़ा हुआ, ऊँचा और बड़ा। जैसे—उच्च आसन, उच्च कुल आदि। ५. आचार-विचार, नीति आदि की दृष्टि से महान। श्रेष्ठ। जैसे—उच्च आदर्श, उच्च विचार आदि। पुं० संगीत में, तार नामक सप्तक जो शेष दोनों सप्तकों से ऊँचा होता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उच्च  : वि० [सं० उद्√चि(चयन करना)+ड] १. जिस का विस्तार ऊपर की ओर बहुत दूर तक हो। जैसे—उच्च शिखर। मुहावरा—उच्च के चंद्रमा होना=सौभाग्य और उन्नति के लिए उपयुक्त समय होना। २. जो किसी विशिष्ट मानक, मान या स्तर से आगे बढ़ा हुआ हो। जैसे—उच्च रक्त-चाप, उच्च विद्यालय,उच्च शिक्षा आदि। ३. जो अधिकार, पद आदि के विचार से औरों से ऊपर या उनसे बड़ा हों। जैसे—उच्च अधिकारी। ४. विभाग, श्रेणी आदि के विचार से औरों के आगे बढ़ा हुआ, ऊँचा और बड़ा। जैसे—उच्च आसन, उच्च कुल आदि। ५. आचार-विचार, नीति आदि की दृष्टि से महान। श्रेष्ठ। जैसे—उच्च आदर्श, उच्च विचार आदि। पुं० संगीत में, तार नामक सप्तक जो शेष दोनों सप्तकों से ऊँचा होता है।
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उच्च रक्त-चाप  : पुं० [सं० उच्च-चाप, ष० त०, उच्च-रक्तचाप, कर्म० स०] रक्त चाप का वह रूप जिसमें शरीर के रक्त का वेग बहुत अधिक बढ़ जाता है। (हाई ब्लडप्रेशर)।
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उच्च रक्त-चाप  : पुं० [सं० उच्च-चाप, ष० त०, उच्च-रक्तचाप, कर्म० स०] रक्त चाप का वह रूप जिसमें शरीर के रक्त का वेग बहुत अधिक बढ़ जाता है। (हाई ब्लडप्रेशर)।
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उच्च-ताप  : पुं० [कर्म० स०] विज्ञान में, ३५॰º से अधिक का ताप।
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उच्च-ताप  : पुं० [कर्म० स०] विज्ञान में, ३५॰º से अधिक का ताप।
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उच्च-न्यायालय  : पुं० [कर्म० स०] राज्य का वह प्रधान न्यायालय जिसमें कुछ विशेष प्रकार के मुकदमें चलाये जाते हैं तथा राज्य भर की छोटी अदालतों के निर्णयों का पुनर्विचार होता है। (हाई कोर्ट)
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उच्च-न्यायालय  : पुं० [कर्म० स०] राज्य का वह प्रधान न्यायालय जिसमें कुछ विशेष प्रकार के मुकदमें चलाये जाते हैं तथा राज्य भर की छोटी अदालतों के निर्णयों का पुनर्विचार होता है। (हाई कोर्ट)
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उच्च-वर्ग  : पुं० [कर्म० स०] समाज का अधिकतम धनिक तथा सुखी वर्ग। (अपर क्लास) शेष दो वर्ग मध्यम और निम्न कहलाते हैं।
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उच्च-वर्ग  : पुं० [कर्म० स०] समाज का अधिकतम धनिक तथा सुखी वर्ग। (अपर क्लास) शेष दो वर्ग मध्यम और निम्न कहलाते हैं।
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उच्चक  : वि० [सं० उच्च+क] १. बहुत अधिक या सबसे अधिक ऊँचा। २. ऊँचाई के विचार से उस निश्चित सीमा तक पहुँचनेवाला जिससे आगे बढ़ना या ऊपर चढ़ना निषिद्ध या वर्जित हो। (सींलिग) जैसे—सरकार ने गेहूँ का उच्चक मूल्य १६) मन रखा है।
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उच्चक  : वि० [सं० उच्च+क] १. बहुत अधिक या सबसे अधिक ऊँचा। २. ऊँचाई के विचार से उस निश्चित सीमा तक पहुँचनेवाला जिससे आगे बढ़ना या ऊपर चढ़ना निषिद्ध या वर्जित हो। (सींलिग) जैसे—सरकार ने गेहूँ का उच्चक मूल्य १६) मन रखा है।
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उच्चंड  : वि० [सं० उद्√चण्ड्(कोप)+अच्] बहुत अधिक उग्र या चंड। प्रचंड।
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उच्चंड  : वि० [सं० उद्√चण्ड्(कोप)+अच्] बहुत अधिक उग्र या चंड। प्रचंड।
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उच्चतम  : वि० [सं० उच्च+तमप्] जो अपेक्षाकृत सबसे ऊँचा हो। जिससे बढ़कर ऊँचा कोई न हो।, अथवा हो ही न सकता हो। पुं० संगीत में, तार से भी ऊँचा सप्तक जो केवल बाजों में हो सकता है, गले की पहुँच के बाहर होता है।
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उच्चतम  : वि० [सं० उच्च+तमप्] जो अपेक्षाकृत सबसे ऊँचा हो। जिससे बढ़कर ऊँचा कोई न हो।, अथवा हो ही न सकता हो। पुं० संगीत में, तार से भी ऊँचा सप्तक जो केवल बाजों में हो सकता है, गले की पहुँच के बाहर होता है।
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उच्चता  : स्त्री० [सं० उच्च+तल्-टाप्] १. उच्च होने की अवस्था या भाव। २. उत्तमता। श्रेष्ठता।
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उच्चता  : स्त्री० [सं० उच्च+तल्-टाप्] १. उच्च होने की अवस्था या भाव। २. उत्तमता। श्रेष्ठता।
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उच्चय  : पुं० [सं० उद्√चि (चयन करना)+अच्] १. चयन या इकट्ठा करने की क्रिया या भाव। २. समूह। ढेर। ३. अभ्युदय। ४. त्रिकोण का पार्श्व भाग।
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उच्चय  : पुं० [सं० उद्√चि (चयन करना)+अच्] १. चयन या इकट्ठा करने की क्रिया या भाव। २. समूह। ढेर। ३. अभ्युदय। ४. त्रिकोण का पार्श्व भाग।
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उच्चरण  : पुं० [सं० उद्√चर् (गति)+ल्युट-अन] [वि० उच्चरणीय, उच्चरित] ओष्ठ, कंठ, जिह्वा, तालु आदि के प्रयत्न से शब्द निकालने की क्रिया या भाव। गले से आवाज निकालना।
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उच्चरण  : पुं० [सं० उद्√चर् (गति)+ल्युट-अन] [वि० उच्चरणीय, उच्चरित] ओष्ठ, कंठ, जिह्वा, तालु आदि के प्रयत्न से शब्द निकालने की क्रिया या भाव। गले से आवाज निकालना।
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उच्चरना  : स० [सं० उच्चारण] गले और मुँह से कहना या बोलना। उच्चारण करना। उदाहरण—यह दिन-रैन नाम उच्चरै।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उच्चरना  : स० [सं० उच्चारण] गले और मुँह से कहना या बोलना। उच्चारण करना। उदाहरण—यह दिन-रैन नाम उच्चरै।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उच्चरित  : भू० कृ० [सं० उद्√चर्+क्त] १. जिसका उच्चारण किया गया हो। २. कहा हुआ।
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उच्चरित  : भू० कृ० [सं० उद्√चर्+क्त] १. जिसका उच्चारण किया गया हो। २. कहा हुआ।
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उच्चाकांक्षा  : स्त्री० [सं० उच्च-आकाक्षा, कर्म० स०] औरों से बहुत आगे बढ़ने अथवा कोई महत्त्वपूर्ण काम करने की आशंका। (एम्बिशन)
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उच्चाकांक्षा  : स्त्री० [सं० उच्च-आकाक्षा, कर्म० स०] औरों से बहुत आगे बढ़ने अथवा कोई महत्त्वपूर्ण काम करने की आशंका। (एम्बिशन)
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उच्चाकांक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० उच्च-आ√कांक्ष्(चाहना)+णिनि] जिसके मन में बहुत बड़ी या उच्च आकांक्षा हो। (एम्बिशन)
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उच्चाकांक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० उच्च-आ√कांक्ष्(चाहना)+णिनि] जिसके मन में बहुत बड़ी या उच्च आकांक्षा हो। (एम्बिशन)
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उच्चाट  : पुं० [सं० उद्√चट्(फूटना या फाड़ना)+घञ्] १. उचटने या उचाटने की क्रिया या भाव। २. चित्त का ऊब जाना और फलतः कहीं न लगना। उदासीनता। विरक्ति। उदाहरण—भई वृत्ति उच्चाट भभरि आई भरि छाती।—रत्नाकर।
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उच्चाट  : पुं० [सं० उद्√चट्(फूटना या फाड़ना)+घञ्] १. उचटने या उचाटने की क्रिया या भाव। २. चित्त का ऊब जाना और फलतः कहीं न लगना। उदासीनता। विरक्ति। उदाहरण—भई वृत्ति उच्चाट भभरि आई भरि छाती।—रत्नाकर।
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उच्चाटन  : पुं० [सं० उद्√चट्+णिच्+ल्युट्-अन] [वि० उच्चाटनीय, भू० कृ० उच्चाटित] १. कहीं चिपकी ,लगी या सटी हुई चीज खींचकर वहाँ से अलग करना या हटाना। उचाड़ना। २. उदासीनता या विरक्ति होना। मन उचटना। ३. एक प्रकार का तांत्रिक प्रयोग जिसमें मंत्र-यंत्र आदि के द्वारा किसी का मन किसी भी स्थान से या किसी व्यक्ति की ओर से हटाने का प्रयत्न किया जाता है।
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उच्चाटन  : पुं० [सं० उद्√चट्+णिच्+ल्युट्-अन] [वि० उच्चाटनीय, भू० कृ० उच्चाटित] १. कहीं चिपकी ,लगी या सटी हुई चीज खींचकर वहाँ से अलग करना या हटाना। उचाड़ना। २. उदासीनता या विरक्ति होना। मन उचटना। ३. एक प्रकार का तांत्रिक प्रयोग जिसमें मंत्र-यंत्र आदि के द्वारा किसी का मन किसी भी स्थान से या किसी व्यक्ति की ओर से हटाने का प्रयत्न किया जाता है।
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उच्चाटित  : भू० कृ० [सं० उद्√चट्+णिच्+क्त] १. उखाड़ा हुआ। उचाड़ा हुआ। २. जिसके ऊपर उच्चाटन का प्रयोग किया गया हो।
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उच्चाटित  : भू० कृ० [सं० उद्√चट्+णिच्+क्त] १. उखाड़ा हुआ। उचाड़ा हुआ। २. जिसके ऊपर उच्चाटन का प्रयोग किया गया हो।
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उच्चारण  : पुं० [सं० उद्√चर् (गति)+णिच्+ल्युट्-अन] १. मुँह से इस प्रकार शब्द निकालना कि औरों को सुनाई दे। २. मनुष्यों का गले और मुँह के भिन्न अंगों के संयोग से अक्षरों, व्यंजनों आदि के रूप में सार्थक शब्द निकालना। (आर्टिक्युलेन) विशेष—व्यावहारिक क्षेत्र में प्रायः ‘उच्चारण’ का प्रयोग केवल मनुष्यों के संबंध में और ‘उच्चरण’ का प्रयोग मनुष्यों के सिवा पशु-पक्षियों आदि के संबंध में भी होता है। ३. अक्षरों, वर्णों आदि के संयोग से बने हुए सार्थक शब्द कहने या बोलने का निश्चित और शुद्ध ढंग या प्रकार। (प्रोनन्सिएसन) जैसे—अभी तुम्हारा अँगरेजी (या संस्कृत) शब्दों का उच्चारण ठीक नहीं हो रहा है।
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उच्चारण  : पुं० [सं० उद्√चर् (गति)+णिच्+ल्युट्-अन] १. मुँह से इस प्रकार शब्द निकालना कि औरों को सुनाई दे। २. मनुष्यों का गले और मुँह के भिन्न अंगों के संयोग से अक्षरों, व्यंजनों आदि के रूप में सार्थक शब्द निकालना। (आर्टिक्युलेन) विशेष—व्यावहारिक क्षेत्र में प्रायः ‘उच्चारण’ का प्रयोग केवल मनुष्यों के संबंध में और ‘उच्चरण’ का प्रयोग मनुष्यों के सिवा पशु-पक्षियों आदि के संबंध में भी होता है। ३. अक्षरों, वर्णों आदि के संयोग से बने हुए सार्थक शब्द कहने या बोलने का निश्चित और शुद्ध ढंग या प्रकार। (प्रोनन्सिएसन) जैसे—अभी तुम्हारा अँगरेजी (या संस्कृत) शब्दों का उच्चारण ठीक नहीं हो रहा है।
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उच्चारणीय  : वि० [सं० उद्√चर्+णिच्+अनीयर्] (शब्द) जिसका उच्चारण हो सकता हो या होना उचित हो।
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उच्चारणीय  : वि० [सं० उद्√चर्+णिच्+अनीयर्] (शब्द) जिसका उच्चारण हो सकता हो या होना उचित हो।
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उच्चारना  : स० [सं० उच्चारण] मुँह से शब्द निकालना। उच्चारण करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उच्चारना  : स० [सं० उच्चारण] मुँह से शब्द निकालना। उच्चारण करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उच्चारित  : भू० कृ० [सं० उद्√चर्+णिच्+क्त] (शब्द) जिसका उच्चारण किया गया हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उच्चारित  : भू० कृ० [सं० उद्√चर्+णिच्+क्त] (शब्द) जिसका उच्चारण किया गया हो।
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उच्चार्य  : वि० [सं० उद्√चर्+णिच्+यत्] (शब्द) जिसका उच्चारण किया जा सके।
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उच्चार्य  : वि० [सं० उद्√चर्+णिच्+यत्] (शब्द) जिसका उच्चारण किया जा सके।
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उच्चार्यमाण  : वि० [सं० उद्√चर्+णिच्+शानच्] जिसका उच्चारण किया जाए अथवा किया जा सके।
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उच्चार्यमाण  : वि० [सं० उद्√चर्+णिच्+शानच्] जिसका उच्चारण किया जाए अथवा किया जा सके।
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उच्चास  : पुं० =उच्छ्वास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उच्चास  : पुं० =उच्छ्वास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उच्चित्र  : वि० [सं० उद्-चित्र, ब० स०] जिसमें या जिसपर बेल-बूटे या दूसरी आकृतियाँ बनी या बनाई गयी हो। (फीगर्ड) जैसे—उच्चित्र वस्त्र।
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उच्चित्र  : वि० [सं० उद्-चित्र, ब० स०] जिसमें या जिसपर बेल-बूटे या दूसरी आकृतियाँ बनी या बनाई गयी हो। (फीगर्ड) जैसे—उच्चित्र वस्त्र।
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उच्चैः  : अव्य० ०[सं० उद्√चि(चयन करना)+डैस्] ऊँची आवाज में। ऊँचे स्वर से।
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उच्चैः  : अव्य० ०[सं० उद्√चि(चयन करना)+डैस्] ऊँची आवाज में। ऊँचे स्वर से।
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उच्चैः श्रवा (वस्)  : पुं० [सं० ब० स०] इंद्र का सफेद घोड़ा, जो सात मुँहों और ऊँचे या खड़े कानोंवाला कहा गया है। वि० ऊँचा सुननेवाला। बहरा।
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उच्चैः श्रवा (वस्)  : पुं० [सं० ब० स०] इंद्र का सफेद घोड़ा, जो सात मुँहों और ऊँचे या खड़े कानोंवाला कहा गया है। वि० ऊँचा सुननेवाला। बहरा।
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