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ऋ  : देवनागरी वर्णमाला का सातवाँ स्वर-वर्ण, जिसका उच्चारण मूर्द्धा से होता है। संस्कृत में इसके ह्रस्व,दीर्घ,प्लुत तीनों प्रकार के उच्चारण होते हैं। पर हिंदी में इसका प्रस्तुत ह्रस्व रूप ही चलता है, शेष रूप नहीं चलते। आजकल हिंदी में इसका उच्चारण रि के समान ही होता है। स्त्री० [सं० ऋ (गमनादि)+क्विप्] १. देवताओं की माता, अदिति। २. निंदा।
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ऋकार  : पुं० [सं० ऋ+कार] ‘ऋ’ स्वर और उसकी ध्वनि।
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ऋक्  : स्त्री० [सं० ऋच् (स्तुति करना)+क्विप्] १. वेद की ऋचा। २. स्तुति। पुं०=ऋग्वेद।
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ऋक्-तंत्र  : पुं० [ष० त०] सामवेद का परिशिष्ट भाग।
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ऋक्-संहिता  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऋग्वेद के मंत्रों का वर्ग या संग्रह।
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ऋक्थ  : पुं० [सं०√ऋच् (स्तुति करना)+थक्] १. धन-संपत्ति। पूँजी। २. वह धन-संम्पत्ति या पूँजी जिसे कोई छोड़कर मरा हो। ३. सोना। स्वर्ण।
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ऋक्थग्राह  : पुं० [सं० ऋक्थ√ग्रह(ग्रहण करना)+अण्] दे० ‘ऋक्थभागी’।
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ऋक्थभागी (गिन्)  : पुं० [सं० ऋक्थ-भाग, ष० त०+इनि] किसी के द्वारा छोड़ी हुई संपत्ति का भागीदार। उत्तराधिकारी।
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ऋक्ष  : पुं० [सं०√ऋष् (गति)+स] १. भालू। रीछ। २. तारा। नक्षत्र। ३. वह नक्षत्र जिसमें किसी का जन्म हुआ हो। ४. श्योनाक वृक्ष। सोनापाढ़ा। ५. सप्त ऋषि। ६. दे० ‘ऋक्षवान’ (पर्वत)।
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ऋक्ष-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. तारिकाओं के राजा, चंद्रमा। २. रीछों के राजा जाबवान।
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ऋक्ष-नेमि  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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ऋक्ष-पति  : पुं०=ऋक्षनाथ।
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ऋक्ष-राज  : पुं० [ष० त०] जांबवान्।
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ऋक्षवान् (वत्)  : पुं० [सं० ऋक्ष्+मतुप् मव] रैवतक पर्वत का वह अश जो नर्मदा के किनारे-किनारे गुजरात तक चला गया है।
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ऋक्षा  : स्त्री० [सं० ऋक्ष+अच्-टाप्] उत्तर दिशा।
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ऋक्षीक  : वि० [सं० ऋक्ष्+ईकन] भालू की तरह मांस खानेवाला।
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ऋक्षीका  : स्त्री० [सं० ऋक्षीक+टाप्] एक देवी।
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ऋक्षेश  : पुं० [सं, ऋक्ष-ईश, ष० त०] १. चंद्रमा। २. जांबवान्।
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ऋग्-वेद  : पुं० [सं० कर्म० स०] चार वेदों में से एक जो सब से प्राचीन और पद्यमय है।
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ऋग्वेदी (दिन्)  : वि० [सं० ऋग्वेद+इनि] ऋःग्वेद का जानने या पढ़नेवाला अथवा उसका अनुयायी।
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ऋचा  : स्त्री० [सं० ऋच्+टाप्] १. पद्य में रचा हुआ वेद-मंत्र। २. स्तोत्र।
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ऋचिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० ऋजु+इमनिच्] सरलता।
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ऋचीक  : पुं० [सं०√ऋच् (स्तुति करना)+ईकन्] १. एक भृगुवंशीय ऋषि जो जमदग्नि के पिता थे। २. एक प्राचीन देश का नाम।
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ऋचीष  : पुं० [सं०√ऋच्+ईषन्] १. एक नरक का नाम। २. कड़ाही।
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ऋच्छ  : पुं० [सं० ऋक्ष] भालू। रीछ।
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ऋच्छरा  : स्त्री० [सं०√ऋच् (गमनादि)+अर-टाप्] १. बेड़ी। हथ-कड़ी। २. कुलटा या बद-चलन स्त्री।
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ऋजीक  : वि० [सं०√ऋज् (प्राप्त करना आदि)+ईकन्] १. मिला हुआ। मिश्रित। २. दूर किया या हटाया हुआ। ३. भ्रष्ट। पुं० १. इंद्र। २. साधन। ३. धूँआ।
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ऋजीष  : पुं० [सं०√अर्ज् (प्रयत्न)+ईषन्, ऋज् आदेश] १. लोहे का तसला। २. सोमलता छानने के बाद बची हुई सीठी। ३. किसी प्रकार की सीठी।
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ऋजु  : वि० [सं०√ऋज् (गति)+कु] [स्त्री० ऋज्वी] १. जो आकार के विचार से बिलकुल सीधा हो, कहीं से टेढ़ा या मुड़ा हुआ न हो। २. लाक्षणिक अर्थ में, (व्यक्ति) जिसमें छल-कपट न हो। ईमानदार और सच्चा। सरल। हृदय। (अँनिस्ट) ३. अनुकूल। ४. लाभकारी।
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ऋजु-काय  : वि० [ब० स०] जिसका शरीर ‘सीधा’ हो। पुं० कश्यप ऋषि।
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ऋजु-रोहित  : पुं० [कर्म० स०] इंद्र का धनुष जो सीधा और लाल रंग का कहा गया है।
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ऋजु-सूत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] जैन दर्शन में भविष्य और भूत को छोड़कर केवल वर्तमान को मानना तथा ‘नय’ और प्रमाणों द्वारा सिद्ध अर्थ और बातें ही ग्रहण करना।
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ऋजुकरण  : पुं० [सं० ] १. ऋजु या सीधा करने की क्रिया या भाव। २. शुद्ध या साफ करना। (रेक्टिफिकेशन, उक्त दोनों अर्थों में)
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ऋजुग  : वि० [सं०√ऋजुगम् (जाना)+ड] १. सीधा चलने या जानेवाला। २. सच्चा और सरल व्यवहार करने वाला। पुं० तीर। बाण।
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ऋजुता  : स्त्री० [सं० ऋज्+तल्-टाप्] १. ऋजु होने की अवस्था या भाव। सरलता। सीधापन। २. छल-कपट आदि से दूर रहने की प्रवृत्ति। ईमानदारी, सच्चाई और सज्जनता। (आँनेस्टी)
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ऋण  : पुं० [सं०√ऋ (गमन)+क्त] [वि० ऋणी] १. वह धन जो किसी से कुछ समय के लिए उधार-स्वरूप लिया गया हो। ब्याज पर लिया हुआ धन आदि। कर्ज। (डेट)। मुहावरा-ऋण उतरना=ऋण या कर्ज पूरा चुकता हो जाना। ऋण चढ़ना =ऋणी या देनदार बनना। सिर पर कर्ज हो जाना। ऋण पटना=ऋण उतरना। २. वह कार्य या कृत्य जो किसी उपकार या लाभ के बदले में किसी के प्रति आवश्यक या कर्त्तव्य रूप से किया जाने को हो। वह जिसका दाय या दायित्व किसी पर हो। जैसे—देव-ऋण, पितृ-ऋण आदि। ३. साधारण बोल-चाल में, किसी का किया हुआ उपकार या एहसान। ४. गणित में, घटाने या बाकी निकालने का चिन्ह (-) । धन का विपर्याय। वि० खाते, गणित आदि में जो ऋण के पक्ष का हो। विशेष दे० ‘नहिक’।
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ऋण-कर्ता (र्तृ)  : वि० [ष० त०] ऋण लेनेवाला।
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ऋण-ग्रस्त  : वि० [तृ० त०] जिस पर ऋण या कर्ज हो। ऋण के भार से दबा हुआ।
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ऋण-त्रय  : पुं० [ष० त०] देव-ऋण, ऋषि-ऋण और पितृऋण इन तीनों ऋणों का वर्ग या समूह।
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ऋण-दाता (तृ)  : वि० [ष० त०] ऋण देनेवाला।
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ऋण-दान  : पुं० [ष० त०] लिया हुआ ऋण चुकाना।
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ऋण-दास  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा दास जो उस व्यक्ति की दासता करता हो जिसने उसका सारा ऋण चुका कर उसे खरीदा हो।
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ऋण-पक्ष  : पुं० [ष० त०] गणित, बही-खाते, लेखे आदि में वह पक्ष, विभाग या स्तंभ जिसमें किसी को दी हुई वस्तु, उसका मूल्य, तिथि विवरण आदि लिखा जाता है। (क्रेडिट साइट)
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ऋण-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिस पर ऋण देने और लेने की शर्ते लिखी हों। (डिबेंचर)
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ऋण-मुक्त  : वि० [पं० त०] [भाव० ऋण-मुक्ति, ऋण-मोक्ष] जिसने ऋण चुका दिया हो। उऋण।
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ऋण-मोक्षित  : पुं० [पं० त०] =ऋण-दास।
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ऋण-लेख्य  : पुं० [ष० त०] ऋण-पत्र। तमस्सुक। दस्ताबेज।
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ऋण-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] =ऋण-शोधन।
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ऋण-शोधन  : पुं० [ष० त०] लिया हुआ ऋण चुकाना।
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ऋण-स्थगन  : पुं० [ष० त०] विधिक क्षेत्र में, उच्च न्यायालय या राज्य की वह आज्ञा जिसके अनुसार बैकों को यह अधिकार दिया जाता है कि वे लोगों का देन चुकाना कुछ समय के लिए स्थगित कर दें। (मॉरेटोरियम)
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ऋणग्रस्तता  : स्त्री० [सं० ऋणग्रस्त+तल्-टाप्] ऋण-ग्रस्त होने की अवस्था या भाव। (इन्डेटेडनेस)
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ऋणदायी (यिन्)  : वि० [सं० ऋण√दा (देना)+णिनि-युक्] ऋणदाता।
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ऋणांतक  : पु० [सं० ऋण-अतंक, ष० त०] मंगल ग्रह, जो ऋण चुकाने में सहायक माना गया हो।
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ऋणात्मक  : वि० [सं० ऋण-आत्मन्० ब० स०] =नहिक।
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ऋणादान  : पुं० [सं० ऋण-आदान, ष० त०] दिया हुआ ऋण वापस मिलना।
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ऋणार्ण  : पुं० [सं० ऋण-ऋण, मध्य० स०, वृद्धि] एक ऋण से मुक्त होने के लिए लिया जानेवाला दूसरा ऋण।
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ऋणिक  : पुं० [सं० ऋण+ष्ठन्-इक] ऋणी।
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ऋणिया  : वि०=ऋणी।
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ऋणी (णिन्)  : वि० [सं० ऋण+इनि] १. जिसने किसी से ऋण लिया हो। कर्जदार। देनदार। अधमर्ण। २. जिस पर किसी का उपकार या एहसान हो। अनुगृहीत। उपकृत।
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ऋत  : पुं० [सं०√ऋ (गति आदि)+क्त] १. उंछवृत्ति। २. मुक्ति। मोक्ष। ३. यज्ञ। ४. कर्मों का फल। ५. सत्य। ६. जल। पानी। वि० १. उज्जवल या दीप्त। २. पूजित। ३. ठीक और सच्चा।
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ऋत-धामा (मन्)  : वि० [ब० स०] सत्य में निवास करनेवाला। पुं० विष्णु।
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ऋत-ध्वज  : पुं० [ब० स०] शिव।
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ऋत-व्रत  : वि० [ब० स०] सत्य बोलना जिसका व्रत हो। सत्यवादी। पुं० सत्य बोलने का व्रत।
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ऋतंभर  : वि० [सं० ऋत√भृ (भरण करना)+खच्, मुम्] सत्य का धारण और पालन करनेवाला।। पुं० परमेश्वर।
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ऋतंभरा  : स्त्री० [सं० ऋतंभर+टाप्] सदा एकरस रहनेवाली सात्त्विक बुद्धि।
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ऋतवादी (दिन्)  : वि० [सं० ऋत√वद् (बोलना)+णिनि] =सत्यवादी।
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ऋतव्य  : वि० [सं० ऋतु+यत्] ऋतु-संबंधी। मौसमी।
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ऋति  : स्त्री० [सं०√ऋ(गति)+क्तिन्] १. गति। २. मार्ग। रास्ता। ३. कल्याण। मंगल। ४. अपवाद। निंदा। ५. स्पर्धा।
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ऋतु  : पुं० [सं०√ऋ+तु] १. प्राचीन भारत में, वैदिक कृत्य करने के लिए उपयुक्त और शुभ समय। २. गरमी, सरदी, वर्षा आदि के विचार से किसी देश या भूभाग की समय-समय पर बदलती रहनेवाली वातावरणिक स्थिति और उस स्थिति के अनुसार होनेवाला काल-विभाग। विशेष—प्राचीन भारत में, पहले तीन और फिर आगे चलकर पाँच, छः, बारह और चौबीस तक ऋतुएँ मानी जाती थीं। फिर बाद में दो-दो महीनों की छः ऋतुएँ स्थिर हुई थीं जो अब तक कुछ क्षेत्रों में मानी जाती है। यथा-वसंत, ग्रीष्म, बरसात और जाड़ा यही तीन ऋतुएं मानी जाती है। ३. किसी पेड़ या पौधे के फलने-फूलने के विचार से उसका उपयुक्त और निश्चित समय। जैसे—अब तो आम की ऋतु जाने को है। ४. रजोदर्शन के उपरांत का वह समय जिसमें स्त्रियाँ गर्भधारण के योग्य होती हैं। ५. स्त्रियों के मासिक धर्म या रजः स्राव के चार दिन। पद-ऋतुमती (देखें)।
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ऋतु-कर  : पुं० [ष० त०] शिव।
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ऋतु-काल  : पुं० [ष० त०] स्त्रियों में, रजोदर्शन के उपरांत १६ दिनों का वह समय जिसमें वे गर्भधारण के योग्य मानी गई हैं।
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ऋतु-गमन  : पुं० [स० त०] [वि० ऋतुगामी] ऋतुगामी स्त्री के साथ किया जानेवाला संभोग।
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ऋतु-चर्या  : स्त्री० [ष० त०] भिन्न-भिन्न वस्तुओं में उनके अनुसार और उपयुक्त आहार-विहार की व्यवस्था।
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ऋतु-दान  : पुं० [स० त०] १. ऋतु-काल बीतने पर संतान की इच्छा से किया जानेवाला संभोग। २. गर्भाधान।
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ऋतु-नाथ  : पुं० [ष० त०] वसंत।
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ऋतु-पति  : पुं० [ष० त०] वसंत।
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ऋतु-प्राप्त  : वि० [ब० त०] १. (स्त्री) जिसे रजो दर्शन हो चुका हो। २. (वृक्ष) जो फल देने के योग्य हो गया हो।
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ऋतु-प्राप्ति  : स्त्री० [ष० त०] स्त्री का रजोदर्शन।
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ऋतु-फल  : पुं० [ष० त०] विशिष्ट ऋतु में होनेवाले फल। जैसे—आम और खरबूजे जेठ-असाढ़ के ऋतु-फल हैं।
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ऋतु-भाग  : पुं० [कर्म० स०] किसी पदार्थ का छठा भाग या हिस्सा (ऋतुओं के छः विभागों के आधार पर)।
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ऋतु-मुख  : पुं० [ष० त०] किसी ऋतु के आरंभ होने का पहला दिन।
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ऋतु-राज  : पुं० [ष० त०] ऋतुओं में सब से अधिक आनंददायक ऋतु। बसंत-ऋतु।
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ऋतु-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान, जिसमें वायुमंडल में होनेवाले परिवर्तनों के आधार पर आँधी, वर्षा आदि के संबंध में भविष्यवाणी की जाती है।
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ऋतु-विपर्यय  : पुं० [ष० त०] एक ऋतु में उसके अनुकूल बातें न होकर अन्य ऋतु की बातें या लक्षण दिखाई देना। जैसे—गरमी के दिनों में सरदी या सरदी के दिनों में गरमी पड़ना।
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ऋतु-वेला  : स्त्री० [ष० त०] रजोदर्शन अथवा उसके बाद १६ दिनों तक गर्भाधान के लिए उपयुक्त समय।
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ऋतु-समय  : पुं० [ष० त०] =ऋतु-वेला।
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ऋतु-स्नाता  : वि० [स० त०] (स्त्री) जो रजोदर्शन के चौथे दिन स्नान करके शुद्ध हुई हो।
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ऋतु-स्नान  : पुं० [स० त०] ऋतुमती स्त्रियों में, रज-स्राव की समाप्ति पर अर्थात् चौथे दिन किया जानेवाला स्नान।
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ऋतुमती  : स्त्री० [सं० ऋतु+मतुप्-ङीष्] १. स्त्री, जिसे मासिक धर्म हुआ हो। रजस्वला। २. वह स्त्री जिसके रजोदर्शन के उपरांत १६ दिन न बीतें हों और फलतः गर्भ-धारण के योग्य हो।
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ऋतुवती  : स्त्री०=ऋतुमती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ऋत्विज्  : पुं० [सं०√ऋतुयज् (देव-पूजन करना)+क्विन्] [स्त्री० आत्विर्वजी] वह जिसका यज्ञ-कार्य के लिए वरण किया जाय। इनकी संख्या १६ होती है, जिनमें अध्वर्य्यु उद्गाता ब्रह्मा आदि मुख्य हैं।
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ऋद्दि-सिद्धि  : स्त्री० [द्व० स०] १. गणेश जी के साथ रहनेवाली दासियाँ या परिचारिकाएँ जिनके नाम ऋद्धि और सिद्धि हैं। २. सब प्रकार की समृद्धि और वैभव।
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ऋद्ध  : वि० [सं०√ऋध् (बढ़ना)+क्त] संपन्न। समृद्ध।
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ऋद्धि  : स्त्री० [सं०√ऋध्+क्तिन्] १. धन-धान्य आदि की अधिकता या प्रचुरता। संपन्नता। समृद्धि। २. गणेश की एक परिचारिका जो उक्त प्रकार की संपन्नता की देवी मानी गई है। ३. लक्ष्मी। ४. पार्वती। ५. पत्नी। भार्या। ६. सफलता। सिद्धि। ७.आर्या छंद का एक भेद जिसमें २६ गुरु और ५ लघु होते हैं। 8० एक लता जिसके कंद दवा के काम आता है।
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ऋद्धिकाम  : वि० [सं०√ऋद्धिकम् (चाहना)+अण्०] उन्नति या समृद्धि चाहनेवाला।
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ऋनिया  : वि०=ऋणी।
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ऋनी  : वि०=ऋणी।
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ऋभु  : पुं० [सं० ऋ√भू (होना)+डु] १. एक गणदेवता। २. देवता।
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ऋभुक्ष  : पुं० [सं० ऋभु√+क्षि (बसना)+ड] १. इंद्र। २. स्वर्ग। ३. वज्र।
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ऋषभ  : पुं० [सं०√ऋष्(गति)+अभच्] १. बैल। २. संगीत के सात स्वरों में से दूसरा। ३. एक प्रकार की जड़ी जो बल और वीर्य बढ़ानेवाली मानी गई है। ४. दक्षिण दिशा का एक पर्वत। ५. नर। ६. विष्णु का एक अवतार। वि० उत्तम। श्रेष्ठ।
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ऋषभ-कूट  : पुं० [कर्म० स०] दक्षिण भारत का एक पर्वत।
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ऋषभ-देव  : पुं० [कर्म० स०] १. विष्णु के २४ अवतारों में से एक जो भागवत के अनुसार राजा नाभि के पुत्र थे। २. जैन धर्म के आदि तीर्थंकर।
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ऋषभ-ध्वज  : पुं० [ब० स०] शंकर। शिव।
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ऋषभी  : स्त्री० [सं० ऋषभ+ङीष्] वह स्त्री जिसका रंग-ढंग पुरुषों का सा हो। मर्दानी औरत।
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ऋषि  : पुं० [सं०√ऋष् (गति)+इन्] १. वेद-मंन्त्रों का प्रकाश करनेवाले महापुरुष या मंत्र-द्रष्टा जो देवताओं, असुरों और मनुष्यों से भिन्न माने गये हैं। जैसे—अगस्त्य, अत्रि, वसिष्ठ आदि। २. आध्यात्मिक और भौतिक तत्त्वों का साक्षात्कार करनेवाला ज्ञानी, दूरदर्शी तथा त्यागी महापुरुष। ३. प्रकाश की किरण। ४. सात मुख्य ऋषियों के आधार पर ७ की संख्या का वाचक शब्द। (साहित्य)।
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ऋषि कुमार  : पुं० [ष० त०] ऋषि का पुत्र या लड़का।
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ऋषि-ऋण  : पुं० [ष० त०] हिंदू धर्म में तीन प्रकार के ऋणों में से एक जिससे मुक्त होने के लिए वेद आदि पढ़ने का विधान है।
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ऋषि-कल्प  : वि० [ष० त०] ऋषि के समान पूज्य, विचारशील और सदाचारी। ऋषि-तुल्य। जैसे—ऋषि-कल्प दादा भाई नौरोजी।
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ऋषि-कुल  : पुं० [ष० त०] वह आश्रम या विद्यालय जहाँ ब्रह्मचारियों को ऐसे ढंग से पढ़ाया-लिखाया और रखा जाता है कि वे आगे चलकर ऋषि-तुल्य हो सकें। गुरु-कुल।
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ऋषि-कुल्या  : स्त्री० [ष० त०] एक प्राचीन नदी (महाभारत)।
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ऋषि-गिरि  : पुं० [मध्य० स०] मगध का एक पर्वत।
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ऋषि-चांद्रायण  : पुं० [ष० त० या मध्य० स०] एक प्रकार का चांद्रायण व्रत।
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ऋषि-तर्पण  : पुं० [ष० त०] ऋषियों की तृप्ति के लिए उनके नामों पर किया जाने वाला जलदान या तर्पण।
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ऋषि-पंचमी  : स्त्री० [ष० त०] भादों के शुक्ल पक्ष की पंचमी।
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ऋषि-पत्तन  : पुं० [ष० त०] प्राचीन वाराणसी के पास का एक प्राचीन उपवन। (आधुनिक सारनाथ, जहाँ से गौतम बुद्ध ने धर्म-चक्र का प्रवर्त्तन किया था)
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ऋषि-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०] ऋषियों के ऋण से मुक्त होने के लिए किया जानेवाला यज्ञ, अर्थात् वेदों का अध्ययन।
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ऋषि-लोक  : पुं० [ष० त०] एक लोक जो सत्यलोक के पास माना गया है।
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ऋषि-हृदय  : वि० [ब० स०] ऋषियों के समान शुद्ध और सरल हृदय। परम सज्जन और सदाचारी।
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ऋषिक  : पुं० [सं० ऋषि+कन्] १. निम्न कोटि का ऋषि। २. एक प्राचीन जनपद। ३. उक्त प्रदेश का निवासी।
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ऋषीक  : पुं० [सं० ऋषि+ईकक्] १. ऋषि का पुत्र। २. एक प्राचीन पवित्र देश। ३. उक्त देश के निवासी।
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ऋषु  : वि [सं०√ऋष् (गमनादि)+कु] १. बड़ा। २. बलवान। ३. चतुर। पुं० १. सूर्य की किरण। २. जलती हुई आग। ३. मशाल। ४. ऋषि।
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ऋष्टि  : स्त्री [सं०√ऋष् (मारना)+क्तिन्] १. खड्ग। तलवार। २. अस्त्र। हथियार। ३. चमक। दीप्ति।
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ऋष्य  : पुं० [सं०√ऋष् (हिसा)+यत्० नि०] १. काले रंग का एक प्रकार का मृग। २. एक तरह का कोढ़।
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ऋष्य-केतन  : पुं० [ब० स०] =अनिरुद्ध।
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ऋष्य-केतु  : पुं० [ब० स०] =अनिरुद्ध।
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ऋष्य-मूक  : पुं० [ब० स०] दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध पर्वत।
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ऋष्य-श्रृंग  : पुं० [ब० स०] विभांडक ऋषि के पुत्र एक प्रसिद्ध ऋषि—जिनका विवाह राजा लोमपाद की कन्या शांता से हुआ था।
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