करण/karan

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करण  : पुं० [सं०√कृ (करना)+ल्युट्—अन] १. किसी कार्य को क्रियात्मक रूप देना। काम का रूप देकर पूरा करना। जैसे—केन्द्रीयकरण, राष्ट्रीयकरण। २. वह जो कुछ किया जाय। काम। ३. वह माध्यम या साधन जिससे कोई वस्तु उत्पन्न या निर्मित की जाय अथवा कोई काम पूरा किया जाय। काम करने के साधन। (इन्स्ट्रुमेण्ट) जैसे—औजार, हथियार आदि। ४. व्याकरण में एक कारक। (दे० ‘करण कारक’)। ५. विधिक क्षेत्र में, वह लेख्य जो किसी कार्य, प्रक्रिया, संविदा आदि का सूचक हो और जिसके द्वारा कोई अधिकार या दायित्व उत्पन्न, अंतरहित, अभिलिखित, निर्धारित, परिमित या विस्तारित होता हो। साधन-पत्र। (इन्स्ट्रुमेण्ट) जैसे—दान-पत्र, राजीनामा आदि करण हैं। ६. गणित में, सह संख्या जिसका पूरे अंकों में वर्गमूल न निकलता हो। ७. इंद्रिय। ८. देह। ९. अंतःकरण। १॰ स्थान। ११. हेतु। १२. नृत्य में, हाथ हिलाकर भाव बताने की क्रिया। इसके ये चार भेद हैं—आवेष्टित, उद्वेष्टित, व्यावर्त्तित और परिवर्त्तित। १३. गणित ज्योतिष की एक क्रिया। १४. एक संकर जाति जिसकी उत्पत्ति वैश्य पिता और शूद्रा माता से कही गई है। कहते हैं कि इस जाति के लोग लिखने-पढ़ने का काम करते थे। तिरहुत में अब भी करण लोग पाये जाते हैं। १५. कायस्थों का एक अवांतर भेद। १६. असम, बरमा, और स्याम की एक जंगली जाति।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
करण-कारक  : पुं० [सं० मयु० स०] व्याकरण में एक कारक जो वाक्य में आई हुई ऐसी संज्ञा के रूप तथा स्थिति का बोधक होता है जिससे वाक्य में बतलाई हुई क्रिया पूरी या संपन्न होती हो। इसके आगे ‘से’ विभक्ति लगती है। (इन्स्ट्रुमेण्टल केस) जैसे—‘हम पैर से चलते और हाथ से खाते हैं’ में ‘पैर’ और ‘हाथ’ करण कारक में हैं, क्योंकि चलने और खाने की क्रियाएँ उनके द्वारा होती हैं।
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करणाधिप  : पुं० [सं० करण-अधिप, ष० त०] १. करण (अर्थात् इंद्रियों) का स्वामी, आत्मा, २. करण (अर्थात् कार्यकर्त्ताओं) का अधिकारी या स्वामी। कार्याधिकारी, अफसर।
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करणि  : पुं० [सं० कर्णिकार] कनकचंपा का फूल। स्त्री० [सं० करण] १. काम। २. करतूत। करनी।
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करणी  : स्त्री० [सं० करण+ङीष्] १. करण नामक संकर जाति की स्त्री। २. गणित में, वह संख्या जिसका पूरा-पूरा वर्गमूल न निकल सके।
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करणीय  : वि० [सं०√कृ+अनीयर्] [स्त्री० करणीया] १. जो किये जाने या करने के योग्य हो। जो किया जाने को हो। २. जो कर्त्तव्यस्वरूप हो। जिसे करना आवश्यक हो।
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