शब्द का अर्थ
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					कलि					 :
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					पुं० [सं०√कल् (गिनना)+इन्] १. पुराणानुसार चार युगों में से अंतिम युग जो इस समय चल रहा है। और जो नैतिक तथा धार्मिक दृष्टि से परम निकृष्ट कहा गया है। (दे० ‘कलियुग’) २. कलह, क्लेश, दुराचार, पाप आदि की सूचक संज्ञा। ३. पुराणानुसार क्रोध का एक पुत्र जो अहिंसा के गर्भ से उत्पन्न हुआ था और जिसके भय तथा मृत्यु नाम के दो पुत्र थे। ४. एक पौराणिक गंधर्व जाति जिसे जूआ खेलने का बहुत शौक था। ५. शिव का एक नाम। ६. पिंगल में टगण का एक भेद जिसमें क्रम से दो गुरु और तब दो लघु (ऽऽ।।) होते हैं। ७. तरकश। तूणीर। ८. पासे का वह पहल या पार्श्व जिस पर एक ही बिंदी होती है। ९. बहेडे़ का फल या बीज। वि० काला। श्याम। क्रि० वि० [हिं० कल=सुख] १. आराम या चैन से। सुखपूर्वक। उदा०—सुऐ तहाँ दिन दस कलि काटी।—जायसी। २. निश्चयपूर्वक। उदा०—कै कलि कस्यप कूख जानि उपज्यौ किरनाकर।—चंदबरदाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					कलि-कर्म					 :
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					पुं० [ष० त०] १. निंदनीय या बुरा काम। २. युद्ध। संग्राम।				 | 
			
			
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					कलि-कारक					 :
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					वि० [ष० त०] १. झगड़ा करनेवाला। झगड़ालु। २. झगड़ा लगाने या वैर-विरोध करनेवाला। पुं० नारद मुनि का एक नाम।				 | 
			
			
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					कलि-तरु					 :
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					पुं० [मध्य० स०] १. पाप रूपी वृक्ष। २. बबूल का पेड़।				 | 
			
			
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					कलि-द्रुम					 :
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					पुं० [मध्य० स०] बहेड़े का पेड़।				 | 
			
			
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					कलि-नाथ					 :
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					पुं० [ष० त०] संगीत के एक आचार्य का नाम।				 | 
			
			
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					कलि-पुर					 :
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					पुं० [ष० त०] १. एक प्राचीन स्थान जहाँ पद्मराग या मानिक की प्रसिद्ध खान थी। २. उक्त स्थान का पद्मराग या मानिक।				 | 
			
			
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					कलि-प्रिय					 :
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					वि० [ब० स०] १. झगड़ालू। २. दुष्ट या नीच प्रकृति का। पुं० १. नारद मुनि। २. बन्दर। ३. बहेड़े का पेड़।				 | 
			
			
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					कलि-मल					 :
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					पुं० [ष० त०] १. कलुष। २. पाप।				 | 
			
			
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					कलि-युग					 :
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					पुं० [मयू० स०] पुराणानुसार चार युगों में से चौथा युग जो आज-कल चल रहा है। विशेष—कहा जाता है कि इसका आरम्भ ईसा के स्वर्गारोहण से ३१॰२ वर्ष पूर्व हुआ था; और यह सब मिलकर ४३२॰॰॰ वर्षों तक रहेगा। यह भी कहा गया है कि इस युग में धर्म का एक ही चरण रह जायगा और इस में अधर्म तथा पाप की बहुत प्रवलता रहेगी।				 | 
			
			
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					कलि-वर्ज्य					 :
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					वि० [स० त०] धर्म-शास्त्रों के अनुसार (काम या बात) जिसका अनुष्ठान या आचरण कलियुग में निषिद्ध या वर्जित हो० जैसे—अश्वमेघ, गोमेघ, मांस का पिंडदान, देवर से नियोग आदि बातें कलि-वर्ज्य हैं।				 | 
			
			
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					कलिअल					 :
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					पुं० [सं० कल-कल] १. पक्षियों के चहकने का शब्द। २. कल-रव। मधुरध्वनि। उदा०—कूझड़ियाँ कलिअल कियउ।—छोलामारू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					कलिक					 :
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					पुं० [सं० कल+ठन्—इक्] क्रौंच (पक्षी)।				 | 
			
			
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					कलिका					 :
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					स्त्री० [सं० कलि+कन्, टाप्] १. फूल का आरंभिक बिना खिला हुआ अंकुरा। कली। २. एक प्रकार का पुराना बाजा सिर पर चमड़ा मढ़ा होता था। वीणा का सब से नीचेवाला भाग। ४. संस्कृत में एक विशिष्ट प्रकार की पद—रचना, जो ताल और लय से युक्त होती है। ५. कलौंजी या मँगरैला नामक दाने या बीज। ६. बहुत छोटा अंश या भाग। ७. समय का वह बहुत छोटा भाग, जिसे कला या मुहूर्त कहते हैं।				 | 
			
			
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					कलिकान					 :
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					वि० [?] हैरान। परेशान। स्त्री०=कलिकानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					कलिकानी					 :
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					स्त्री० [?] परेशानी। हैरानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					कलिकापूर्व					 :
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					पुं० [कलिका-अपूर्व, मध्य० स०] कोई ऐसी बात जिसके आदि और अन्त अथवा अस्तित्व, मूल आदि का कुछ भी ज्ञान या निश्चय न हो। जैसे—जन्म, मृत्यु, स्वर्ग आदि।				 | 
			
			
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					कलिकारी					 :
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					स्त्री० [सं० कलि+कृ (करना)+अण्—ङीप्] कलियारी विष।				 | 
			
			
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					कलिकाल					 :
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					पुं० [मयु० स०] कलियुग।				 | 
			
			
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					कलिंग					 :
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					पुं० [सं० कलि√गम् (जाना)+ड] १. आधुनिक आंध्रप्रदेश के उस भाग का प्राचीन नाम जो समुद्र के किनारे-किनारे कटक से मद्रास तक फैला है। २. उक्त प्रदेश का निवासी। ३. सिरिस का पेड़। ४. पाकर वृक्ष। ५. तरबूजे। ६. कुटज। कुरैया। ७. कलिंगड़ा नामक राग। वि० कलिंग देश का।				 | 
			
			
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					कलिंगड़ा					 :
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					पुं० [सं० कलिंग] रात के चौथे पर में गाया जानेवाला संपूर्ण जाति का एक राग।				 | 
			
			
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					कलिंगा					 :
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					पुं० [सं० कलिंग] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी छाल रेचक होती है। तेवरी।				 | 
			
			
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					कलिंज					 :
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					पुं० [सं० क√लंज् (तिरस्कार करना)+अण्, नि० सिद्धि] नरकट (वनस्पति)।				 | 
			
			
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					कलिंजर					 :
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					पुं०=कालिंजर।				 | 
			
			
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					कलिजुग					 :
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					पुं०=कलियुग।				 | 
			
			
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					कलित					 :
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					वि० [सं०√कल्+क्त] १. धीरे से अथवा अस्पष्ट रूप से कहा हुआ। २. जिसका कलन (ज्ञान या परिचय) हो चुका हो। जाना हुआ। ज्ञात। विदित। ३. ग्रहण या प्राप्त किया हुआ। ४. सजाया हुआ। सज्जित। ५. मनोहर। सुंदर।				 | 
			
			
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					कलिंद					 :
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					पुं० [सं० कलि√दा (देना)+खच्, मुम्] १. सूर्य। २. हिमालय की वह चोटी जिससे यमुना नदी निकलती है। ३. तरबूज। ४. बहेड़ा।				 | 
			
			
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					कलिंद-तनया					 :
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					स्त्री० [सं० ष० त०]=कलिंदजा।				 | 
			
			
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					कलिंदजा					 :
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					स्त्री० [सं० कलिंद√जन् (पैदा होना)+ड—टाप्] कलिंग पर्वत की पुत्री अर्थात् उससे निकली हुई युमना नदी।				 | 
			
			
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					कलिंदी					 :
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					स्त्री०=कालिंदी (युमना नदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					कलिमल-सरि					 :
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					स्त्री० [प० त०] कर्मनाशा नदी।				 | 
			
			
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					कलिया					 :
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					पुं० [अं० कलियः] १. पशुओं का वह कच्चा मांस जो पकाकर खाया जाता हो। २. खाने के लिए पकाया हुआ मांस।				 | 
			
			
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					कलियाना					 :
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					अ० [हिं० कली] १. (पौधे या वृक्षों में) नई कलियाँ लगना। २. (पक्षियों का) नये परों से युक्त होना।				 | 
			
			
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					कलियारी					 :
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					स्त्री० [सं० कलिहारी] एक प्रकार का पौधा जिसकी जड़ की गाँठ बहुत जहरीली होती है।				 | 
			
			
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					कलियुगाद्या					 :
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					पुं० [कलियुग-आद्या, ष० त०] माघ की पूर्णिमा जिसमें कलियुग का आरंभ माना गया है।				 | 
			
			
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					कलियुगी (गिन्)					 :
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					वि० [सं० कलियुग+इनि] १. कलियुग में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। २. जिसमें कलियुग के गुण या विशेषताएँ (झूठ, पाप, बेईमानी आदि बातें ) मुख्य या स्पष्ट रूप से हों।				 | 
			
			
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					कलिल					 :
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					वि० [सं०√कल्+इलच्] १. मिला-जुला। मिश्रित। २. घना। ३. गहन। दुर्गम। पुं० १. ढेर। राशि। २. झुंड। समूह।				 | 
			
			
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					कलिहारी					 :
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					स्त्री० [सं० कलि√हृ (हरण करना)+अण्—ङीष्] कलियारी (पौधा)। वि० [सं० कलह+हारी (ा) प्रत्य०] बहुत अधिक झगड़ा करनेवाली। (स्त्री)।				 | 
			
			
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