कंसक/kansak

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कसक  : स्त्री० [सं० कस्=आघात, चोट] १. मन में होनेवाला वह मानसिक कष्ट या वेदना जो किसी बीती या पुरानी दुःखद घटना या बात के स्मरण होने पर बहुत समय तक रह-रहकर होती रहती है। टीस। साल। २. हलका किंतु मीठा दर्द। ३. दूसरों के कष्ट या पीड़ा के कारण होनेवाली सहानुभूतिपूर्ण अनुभूति। उदा०—छुरी चलावत हैं गरे, जे बे-कसक कसाब।—रसनिधि। ४. मन में दबा हुआ ऐसा द्वेष या वैर जो रह-रहकर व्यथित करता हो और प्रायः बदला चुकाने के लिए प्रेरित करता रहता हो। मुहा०—कसक निकालना या मिटाना=बदला चुकाकर तृप्त या शांत होना। ५. उक्त प्रकार की कोई अभिलाषा, कामना या वासना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
कसकन  : स्त्री०=कसक।
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कसकना  : अ० [हिं० कसक] १. किसी पुरानी दुःखद बात का स्मरण होने पर रह-रहकर मन में कष्ट या व्यथा होना। कसक होना उदा०—काँटै लौं कसकत हिये, गड़ी कँटीली भौंह।—बिहारी। २. दूसरों के कष्ट का सहानुभूतिपूर्ण अनुभव या ज्ञान होना। उदा०—नंद-कुमारहिं देखि दुखी छतिया कसकी न कसाइन तेरी।—पद्माकर।
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कसकुट  : पुं० [हिं० काँस+कुट=टुकड़ा] ताँबे और जस्ते के मेल से बनी हुई एक प्रसिद्ध मिश्रित धातु जिसके बरतन आदि बनते हैं। काँसा।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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