काव/kaav

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काव  : सर्व०=कोई।
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कावर  : पुं० [सं० काम, प्रा० काव, गु० मरा० कावड़] नाविकों की एक प्रकार की छोटी बरछी जिससे वे बड़ी-बड़ी मछलियों का शिकार करते हैं।
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कावरी  : पुं० [?] रस्सी का फंदा जिसमें कोई चीज बाँधी जाय़। (लश०।)
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कावा  : पुं० [फा०] घोड़े को एक वृत्त में चक्कर देने की क्रिया या भाव। मुहावरा—कावा काटना=(क) घोड़े का (चलने या दौड़ने का अभ्यास करने के लिए) एक वृत्त में चक्कर लगाना। (ख) किसी अनुचित उद्देश्य की सिद्धि के लिए बराबर किसी स्थान पर या उसके आस-पास आते-जाते रहना। कावे देना=घोड़े को चलने या दौड़ने का अभ्यास कराने के लिए एक वृत्त में चक्कर खिलाना।
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कावेर  : पुं० [क=सूर्य-आ=ईषत्-वेर=अंग, ब० स०] केसर।
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कावेरी  : स्त्री० [सं० क-जल-वेर, ब० स० कवेर+अण्, ङीष्] १. दक्षिण भारत की एक प्रसिद्ध नदी। २. रंडी। वेश्या। ३. हल्दी। ४. संपूर्ण जाति की एक रागिनी।
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काव्य  : पुं० [सं० कवि+ष्यञ्] १. कविता (दे०) २. व्यापक अर्थ में किसी कवि की वह पद्यात्मक साहित्यिक रचना जिसमें ओजस्वी कोमल और मधुर रूप में ऐसी अनुभूतियाँ कल्पनाएँ और भावनाएँ व्यक्ति की गई हों। जो मन को मनोवेगों और रसों से परिपूर्ण करके मुग्ध करनेवाली हों। (पोएम)। विशेष—(क) काव्य हमारे यहाँ दो प्रकार का माना गया है-गद्यकाव्य और पद्यकाव्य परन्तु साधारणतः लोक में पद्यकाव्य ही काव्य कहलाता है। (ख) वर्णित विषय तथा आकार के विषय से पद्यकाव्य दो प्रकार का कहा गया है-खण्डकाव्य और महाकाव्य। (ग) प्रभाव या फल के विचार से अथवा रस का उपभोग करने वाली इन्द्रियों के विचार से भी इसके दो भेद माने गये हैं-दृश्य काव्य और श्रव्य काव्य। ३. ऐसा ग्रन्थ या पुस्तक जिसमें उक्त प्रकार की रचना हो। ४. रोला छंद का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण की ग्यारहवीं मात्रा लघु रहती है। इसकी छठीं आठवीं अथवा दसवीं मात्रा पर यति होना चाहिए। ५. [कवि+ण्य] शुक्राचार्य। ६. तामस मन्वन्तर के एक ऋषि।
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काव्य-लिंग  : पुं० [ष० त०] साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी बात को सिद्ध करने के लिए प्रमाण स्वरूप कोई कारण बतलाया जाता है। उदाहरण—पुत्र मेरे परवश हो, मंत्र में पडे हैं जब कृष्ण और कृष्णा के तब तो नियति अवलम्ब अब मेरी है।—लक्ष्मीनारायण मिश्र।
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काव्य-हास  : पुं० [ब० स०]=प्रहसन।
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काव्या  : स्त्री० [सं० √कव् (वर्णन करना)+ण्यत्, टाप्] १. अक्ल। बुद्धि। २. पूतना।
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काव्यार्थापत्ति  : स्त्री० [काव्०-अर्थापत्ति, ष० त०] साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी दुष्कर अर्थ की सिद्धि के वर्णन से साधारण अर्थ की सिद्धि स्वतः होने का कथन होता है। उदाहरण—तुम माता हो कि अन्य हो, पूजनीया मेरी हो सदैव जाति नारी की मातृभाव से ही पूजता मैं रहा।—लक्ष्मीनारायण मिश्र।
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