शब्द का अर्थ
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					केतु					 :
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					पुं० [सं०√चाय् (देखना)+तु, कि० आदेश] १. ज्ञान। २. दीप्ति। चमक। ३. ध्वजा। ४. निशान। ५. पुराणानुसार राहु नामक राक्षस का कबंध जो भारतीय ज्योतिष में नौ ग्रहों में माना जाता है। ६. कभी-कभी आकाश में उदित होनेवाला एक तारा जिसके प्रकाश की एक पूँछ सी दिखाई देती हैं। पुच्छल तारा। (कामेट)।				 | 
			
			
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					केतु-कुंडली					 :
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					स्त्री० [ष० त०] बारह कोष्ठों का एक चक्र जिससे वर्ष के स्वामी का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। (ज्योतिष)				 | 
			
			
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					केतु-तारा					 :
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					पु०० [कर्म० स०]=पुच्छल तारा। (दे० ‘केतु ६.’)।				 | 
			
			
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					केतु-पताका					 :
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					स्त्री० [सं० त०] नौ कोष्ठों का एक चक्र जिससे वर्षेश का ज्ञान प्राप्त करते हैं (ज्योतिष)				 | 
			
			
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					केतु-यष्टि					 :
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					स्त्री० [ष० त०] ध्वजदंड।				 | 
			
			
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					केतु-रत्न					 :
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					पुं० [मध्य०स] लहसुनिया नामक रत्न।				 | 
			
			
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					केतु-वसन					 :
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					पुं० [ष० त०] पताका। ध्वजा।				 | 
			
			
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					केतु-वृक्ष					 :
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					पुं० [मद्य० स०] मेरु पर्वत के चारों ओर होनेवाला एक प्रकार का वृक्ष। (पुराण)।				 | 
			
			
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					केतुकी					 :
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					स्त्री०=केतकी (धान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					केतुजा					 :
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					स्त्री० [सं० केतु√जन् (उत्पन्न होना)+ड, टाप्] सुकेतु यक्ष की पुत्री ताड़का नामक राक्षसी।				 | 
			
			
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					केतुमती					 :
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					स्त्री० [सं० केतु+मतुप्, ङीष्] १. एक प्रकार का वर्णार्द्ध समवृत्त जिसके विषम चरणों में सगण, जगण, सगण और एक गुरु होता है। २. रावण की नानी का नाम।				 | 
			
			
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					केतुमान् (मन्)					 :
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					वि० [सं० केतु+मतुप्] [स्त्री० केतुमती] १. तेजस्वी। २. बुद्धिमान। ३. जिसके हाथ में पताका हो।				 | 
			
			
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