शब्द का अर्थ
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दाना :
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पुं० [फा० दानः] १. अन्न का कण या बीज। २. अन्न जो पकाकर खाया जाता है। अनाज। पद—दाना पानी। (देखें) मुहावरा—दाने-दाने को तरसना या मोहताज होना=कुछ भी भोजन न मिलने के कारण बहुत ही दीन भाव से कष्ट भोगना। दाना बदलना=एक पक्षी का अपने मुँह का दाना दूसरे पक्षी के मुँह में डालना। चारा बाँटना। दाना भरना या भराना=पक्षियों का अपने छोटे बच्चों के मुँह में अपनी चोंच से दाना डालना या रखना। ३. भाड़ में भूँजा हुआ अन्न। ४. वनस्पतियों आदि के बीज। जैसे—राई या सरसों का दाना। ५. कुछ विशिष्ट प्रकार की छोटी गोलाकार चीजों का वाचक शब्द। जैसे—घुँघरू, मूँगे या मोती का दाना, गले में पहनने के कंठे या माला के दाने। ६. कुछ विशिष्ट प्रकार के पदार्थों का गोलाकार छोटा कण। जैसे—घी, चीनी, दही या मलाई के ऊपर दिखाई देनेवाले दाने। ७. उक्त प्रकार की गोलाकार छोटी चीजों के साथ प्रयुक्त होनेवाला संख्या-सूचक शब्द। जैसे—चार दाना आम, तीन दाना काली मिर्च, दो दाना मुनक्का। ८. रोग, विकार आदि के कारण शरीर के चमड़े पर होनेवाले गोलाकार छोटे उभार। जैसे—खुजली या शीतला के दाने। ९. किसी तल पर दिखाई देनेवाले छोटे गोलाकार उभार। जैसे—नारंगी के छिलके पर के दाने, नकाशीदार बरतनों पर के दाने। वि० [फा०] [भाव० दानाई] बुद्धिमान। अक्लमंद। जैसे—नादान दोस्त से दाना दुश्मन अच्छा होता है। |
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दाना-चारा :
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पुं० [फा० दाना+हिं० चारा] जीव-जन्तुओं को दिया जानेवाला भोजन। |
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दाना-चीनी :
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स्त्री० [हिं०] वह चीनी जो महीन चूर्ण के रूप में नहीं, बल्कि कुछ मोटे कणों या दानों के रूप में होती है। |
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दाना-पानी :
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पुं० [फा० दाना+हिं० पानी] १. जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक खाने-पीने की चीजें। अन्न-जल। २. पेट भरने के लिए कुछ चीजें खाने या पीने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—छोड़ना।—मिलना। ३. भरण-पोषण का आयोजन। जीविका। ४. भाग्य की वह स्थिति जिसके कारण किसी को कहीं जाकर रहना और वहाँ कुछ खाना-पीना पड़ता हो, अथवा वहाँ रहकर जीविका का निर्वाह करना पडता हो। अन्न-जल। मुहावरा—(कहीं से किसी का) दाना-पानी उठना=भाग्य या विधि का ऐसा विधान होना जिससे किसी व्यक्ति को किसी स्थान से (कहीं और जाने के लिए) हटना पड़े। |
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दाना-बंदी :
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स्त्री० [फा० दान+बंदी] खड़ी फसल से उपज का अंदाज करने के लिए खेत को नापने का काम। |
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दानाई :
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स्त्री० [फा०] अक्लमंदी। बुद्धिमत्ता। |
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दानांतराय :
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पुं० [दान-अंतराय, ष० त०] जैनशास्त्र के अनुसार अंतराय या पाप-कर्म जिनके उदय होने पर मनुष्य दान करने में असमर्थ होता है। |
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दानादेश :
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पुं० [सं० दान-आदेश, च० त०] १. किसी को कुछ दान दिये जाने की आज्ञा। २. ‘देयादेश।’ |
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दानाध्यक्ष :
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पुं० [सं० दान-अध्यक्ष, ष० त०] मध्ययुग में किसी देशी राज्य का वह अधिकारी जो यह निश्चय करता था कि राजा या राज्य की ओर से किये कितना दान दिया जाना चाहिए। |
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