| शब्द का अर्थ | 
					
				| परत					 : | स्त्री० [सं० परिवर्त्त=दोहराया जाना] १. किसी प्रकार के तल या स्तर का ऐसा विस्तार जो किसी दूसरी चीज के तल या स्तर पर कुछ मोटे रूप में चढ़ा, पड़ा या फैला हुआ हो। तह। जैसे—सफाई न होने के कारण पुस्तकों पर धूल की एक परत चढ़ चुकी थी। क्रि० प्र०—चढ़ना।—पड़ना। २. किसी लचीली वस्तु को दोहरा, चौहरा आदि करने पर, उसके बननेवाले खंडों या विभागों में से हर-एक। क्रि० प्र०—लगाना। ३. ऐसा कोई तल या विस्तार जो उसी तरह के कोई और तलों या विस्तारों के ऊपर या नीचे फैला हुआ हो। जैसे—(क) हर युग में बालू, मिट्टी आदि की एक नई परत चढ़ते-चढ़ते कुछ दिनों में ऊँची चट्टाने बन जाती हैं। (ख) खानों में से कोयले की एक परत निकाल लेने पर उसके नीचे दूसरी परत निकल आती है। स्त्री० [हिं० परतना] परतने की क्रिया या भाव। | 
			
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				| परतः (तस)					 : | अव्य० [सं० पर+तस्] १. दूसरे से। अन्य से। २. पीछे। बाद में। ३. आगे। परे। ४. पहले या मुख्य के बाद। दूसरे स्थान पर। (सेकन्डरिली) | 
			
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				| परतः प्रमाण					 : | पुं० [ब० स०] जो स्वतः प्रमाण न हो, बल्कि दूसरे प्रमाणों के आधार पर ही प्रमाण के रूप में दिखाया या माना जा सके। | 
			
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				| परतख					 : | वि०=प्रत्यक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| परतंगण					 : | पुं० [सं०] एक प्राचीन देश। (महाभारत) | 
			
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				| परतंगा					 : | स्त्री० [सं० प्रतिज्ञा] १. प्रसिद्धि। २. प्रतिष्ठा। मान। ३. पातिव्रत्य। सतीत्व। | 
			
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				| परतंचा					 : | स्त्री०=प्रत्यंचा (धुनष की डोरी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| परतच्छ					 : | वि०=प्रत्यक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| परतछ्छ					 : | वि०=प्रत्यक्ष। | 
			
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				| परतंत्र					 : | वि० [ब० स०] १. जो दूसरे के तंत्र या शासन में हो। २. पराधीन। परवश। पुं० १. उत्तम शास्त्र। २. उत्तम वस्त्र। | 
			
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				| परतना					 : | अ० [सं० परावर्तन] १. कहीं जाकर वहाँ से वापस आना। लौटना। २. पीछे की ओर घूमना। जैसे—परतकर देखना। मुहा०—परतकर कोई काम न करना=भूल कर भी कोई काम न करना। उदा०—मोती मानिक परत न पहरूँ।—मीराँ। ३. किसी ओर घूमना। मुड़ना। जैसे—दाहिनी ओर परत जाना। ४. उलटना। सं० [हिं० परत] परत के रूप में करना, रखना या लगाना। | 
			
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				| परतर					 : | वि० [सं० पर-तरप्] [भाव० परतरता] क्रम के विचार से जो ठीक किसी के बाद हुआ हो। | 
			
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				| परतरा					 : | वि०=परतर। | 
			
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				| परतल					 : | पुं० [सं० पट=वस्त्र+तल=नीचे] घोड़े की पीठ पर रखा जानेवाला वह बोरा जिसमें सामान भरा या लादा जाता है। गून। | 
			
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				| परतला					 : | पुं० [सं० परितन=चारों ओर खींचा हुआ] कपड़े या चमड़े की वह चौड़ी पट्टी जो कंधे से कमर तक छाती और पीठ पर से तिरछी होती हुई आती है तथा जिसमें तलवार लटकाई जाती है। | 
			
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				| परतषि					 : | वि०=प्रत्यक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| परता					 : | पुं०=पड़ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| परताजना					 : | पुं० [देश०] सुनारों का एक औजार जिससे वे गहनों पर मछली के सेहरे की तरह की नक्काशी करते हैं। | 
			
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				| परताना					 : | स० [हिं० परतना] १. वापस भेजना। लौटाना। २. घुमाना। मोड़ना। | 
			
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				| परताप					 : | पुं०=प्रताप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| परतारना					 : | स० [सं० प्रतारण] ठगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०= प्रतारणा। | 
			
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				| परताल					 : | स्त्री०=पड़ताल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| परतिंचा					 : | स्त्री०=प्रत्यंचा (धनुष की डोरी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| परतिज्ञा					 : | स्त्री०=प्रतिज्ञा। | 
			
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				| परती					 : | स्त्री० [?] वह चादर जिससे हवा करके अनाज के दानों का भूसा उड़ाते हैं। मुहा०—परती लेना=चादर से हवा करके भूसा उड़ाना। बरसाना। ओसाना। स्त्री०=पड़ती (भूमि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| परतीछा					 : | स्त्री०=प्रतीक्षा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| परतीति					 : | स्त्री०=प्रतीति। | 
			
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				| परतेजना					 : | सं० [सं० परित्यजन] परित्याग करना। छोड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| परतेला					 : | वि० [हिं० पड़ना] उबाले हुए रंग का घोल। (रंगरेज) | 
			
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				| परतो					 : | पुं० [फा०] १. प्रकाश। रोशनी। २. किरण। रश्मि। ३. किसी पदार्थ या व्यक्ति की पड़नेवाली छाया। परछाईं। ४. प्रतिच्छाया। प्रतिबिम्ब। | 
			
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				| परतोली					 : | स्त्री० [सं० प्रतोली] गली। | 
			
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				| परत्त					 : | अव्य [सं० पर+त्रल्] १. अन्य या भिन्न स्थान पर दूसरी जगह। २. परकाल में। दूसरे समय। ३. परलोक में। मरने पर। | 
			
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				| परत्र-भीरु					 : | वि० [सं० स० त०] जिसे परलोक का भय हो। | 
			
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				| परत्व					 : | पुं० [सं० पर+त्व] १. पर अर्थात् अन्य या गैर होने का भाव। २. पहले या पूर्व में होने का भाव। | 
			
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