बैठन/baithan

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बैठन  : स्त्री० [हिं० बैठना] १. बैठने की किया, ढंग या भाव। २. आसन। पुं०=बेठन।
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बैठना  : अ० [सं० वेशन, विष्ठ, प्रा० बिट्ठ+ना (प्रत्य०)] १. प्राणियों का अपने घुटने टेक या टाँगे मोड़कर शरीर को ऐसी स्थिति में करना या लाना कि धड़ सीधा ऊपर की ओर रहे और उसका सारा भार चूतड़ों और जाघों के नीचेवाले तल पर पड़े। शरीर का नीचेवाला आधा भाग किसी आधार पर टिका या रखकर पट्ठों के बल आसीन या स्थित होना। (खड़े रहने और लेटने या सोने से भिन्न) जैसे—कुरसी, चौकी या जमीन पर बैठना। विशेष—पक्षियों को बैठने के लिए प्रायः अपने पैर मोड़ने नहीं पड़ते और उनका खड़ा रहना तथा बैठना दोनों समान होते है। जब वे उड़ना छोड़कर जमीन या पेड़ की डाल पर खड़े होते हैं, तब उनकी वही स्थिति ‘बैठना’ भी कहलाती है। पर अंडे सेने के समय जब वे बैठते हैं, तब उनकी टाँगे भी मुड़ जाती है। पद—(कहीं या किसी के साथ) बैठना-उठना या उठना-बैठना=किसी के संग या साथ रहकर बात-चीत करना और समय बिताना। जैसे—उनका बैठना-उठना सदा से बड़े आदमियों के यहाँ (या साथ) ही रहा है। बैठते-उठते या उठते-बैठते=अधिकतर अवसरों पर। प्रायः। हर समय। जैसे—बैठते उठते। (या उठते-बैठते) ईश्वर का ध्यान रखना चाहिए। बैठे-बैठे= (क) अचानक। सहसा। उदा०—बैठे-बैठे हमें क्या जानिए क्या याद आया।—कोई शायर। (ख) बिना कुछ किये। जैसे—चलो, बैठे-बैठे तुम्हें भी सौ रुपये मिल गये। (ग) दें० ‘बैठे-बैठाये तुमने यह झगड़ा मोल ले लिया। मुहा०—बैठे रहना=कर्तव्य, कार्य आदि का ध्यान छोड़कर यथा-साध्य उससे अलग या दूर रहना। जैसे—तुम जहाँ जाते हों वही बैठ रहते हो। बैठे रहना= (क) कुछ भी काम-धंधा न करना। जैसे—छुट्टी के दिन वे घर पर ही बैठे रहते हैं, कहीं आते-जाते नहीं। (ख) किसी काम या बात में योग न देना अथवा हस्तक्षेप न करना। जैसे—मैं भी वहाँ चुपचाप बैठा रहा। कुछ बोला नहीं। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति या कार्य की सिद्धि के लिए आसन या स्थान ग्रहण करना। जैसे—(क) विद्यार्थी का पढ़ने के लिए (या परीक्षा में) बैठना। (ख) अधिकारी का काम के समय अपनी जगह पर या मालिक का गद्दी पर) बैठना। (ग) अपना चित्र अंकित कराने के लिए चित्रकार के सामने बैठना। (घ) चिड़ियों या मछलियों का अंडे सेने के लिए बैठना। ३. किसी का किसी पद या स्थान पर अधिकारी या स्वामी बनकर आसीन होना। जैसे—(क) उनके बाद उनका लड़का गद्दी पर बैठा। (ख) कल राज्य में नये राज्यपाल बैठेंगे। ४. जिस काम के लिए कोई उद्यत, तत्पर या सत्रद्ध हुआ हो, उससे अलग दूर या विरत होना अथवा संबंध छोड़ना। जैसे—(क) चुनाव के लिए जो चार उम्मेदार थे, उनमें से दो बैठ गये। (ख) अब उनके सभी सहायक और साथी बैठ गये हैं। ५. किसी प्रकार की सवारी पर आसीन या स्थित होना। जैसे—घोडे, नाव, मोटर या रेल पर बैठना। ६. किसी चीज का नीचेवाला अंश या भाग या जमीन में अच्छी तरह यथास्थान स्थित होना। ठीक तरह से लगना। जैसे—(क) यहाँ अभी एक खंभा और बैठेगा। (ख) इस जमीन में जड़हन (या धान) नहीं बैठेगा। ७. किसी स्थान पर जमकर या दृढ़तापूर्वक आसीन या स्थित होना। उदा०—हजरते दाग जहाँ बैठ गये, बैठ गये।—दाग। ८. स्त्रियों के संबंध में, किसी के साथ अवैध सम्बन्ध करके उसके घर में जाकर पत्नी के रूप में रहना। जैसे—विधवा होने पर वह अपने देवर के घर जा बैठी। ९. नर और मादा का संभोग करने के लिए किसी स्थान पर आना या होना, अथवा संभोग करना। (बाजारू) जैसे—इस बार यह कुतिया किसी बाजारू कुत्ते के साथ बैठी थी। १॰. किसी रखी जानेवाली अथवा अपने स्थान से हटी हुई चीज का उपयुक्त और ठीक रूप से उस स्थान पर जमना, फिर से आना या स्थित होना; जहाँ उसे वस्तुतः आना, रहना या होना चाहिए। जैसे—(क) धरन या पत्थर का अपनी जगह पर बैठना। (ख) टोपी या पगड़ी का सिर पर ठीक से बैठना। (ग) उखड़ी हुई नस या हड्डी का फिर से अपनी जगह पर बैठना। ११. जो ऊपर की ओर उठा या खड़ा हो, उसका गिर या हटकर नीचे आना या धराशायी होना। गिर पड़ना या जमीन से आ लगता। जैसे—(क) इस बरसात में पचासों मकान बैठ गये। (ख) कड़ाके की धूप या पाले से सारी फसल बैठ गई। (ग) भार की अधिकता के कारण नाव बैठ गई। १२. किसी काम, चीज या बात का अपने उचित या साधारण रूप में न चौपट या नष्ट हो जाना। जैसे—(क) लगातार कई बरसों तक घाटा होने के कारण उसका कारबार बैठ गया। (ख) अधिक व्यय और कुव्यवस्था के कारण संस्था बैठ गई। १३. तरल पदार्थ में घुली या मिली हुई चीज का निथर कर तल में जा लगना। जैसे—पानी में घोला हुआ चूना या रंग बैठना। १४. किसी उभारदार चीज का नष्ट या विकृत होकर कुछ गहरा या समतल हो जाना। पिचकना जैसे—(क) पुल्टिस लगाने से फोड़ा (या दवा लगाने से सूजन) बैठना। (ख) पुल्टिस लगाने से फोड़ा (या दवा लगाने से सूजन) बैठना। (ख) शीतला के प्रकोप से किसी की आँख बैठना। (ग) बीमारी या बुढ़ापे में गाल बैठना। १५. किसी चीज का गल, पिघल या सड़कर अपना गुण, रूप, स्वाद आदि गँवा देना। जैसे—(क) अधिक आँच लगने से गुड़ का बैठना। (ख) गंदे हाथ लगने से अचार का बैठना। (ग) पानी अधिक हो जाने से मात का बैठना। (घ) अधिक उमस के कारण अमरूद या आम बैठना। १६. नापने-तौलने, पड़ता निकालने या हिसाब लगाने पर किसी निश्चित मात्रा, मान, मूल्य आदि का ज्ञात अथवा स्थिर होना। जैसे—(क) तौलने पर गेहूँ का बोरा सवा दो मन बैठा। (ख) नाव और उसका सामान खरीदने में तीन सौ रुपये बैठे। (ग) घर तक ले जाने में यह कपड़ा तीन रुपये गज बैठेगा। १७. प्रहार आदि के लिए अस्त्र-शस्त्र, शारीरिक अंग अथवा ऐसी ही किसी चीज का चलाये जाने या फेंके जाने पर अपने ठीक लक्ष्य पर जाकर लगता। जैसे—(क) निशाने पर गोला या गोली बैठना। (ख) शरीर पर थप्पड़ या मुक्का बैठना। १८. ग्रहों, तारों आदि का आकाश में नीचे उतरना या उतरते हुए क्षितिज के नीचे जाना। अस्त होना। जैसे—सूर्य के बैठने का समय हो चला था। १९. अर्थ, उक्ति, कथन सिद्धांत आदि का कहीं इस प्रकार लगना कि उसका ठीक ठीक आशय या रूप समझ मे आ जाय अथवा वह उपयुक्त रूप से घटित या चरितार्थ हो। जैसे—(क) यहाँ इस चौपाई का ठीक अर्थ नहीं बैठता। (ख) आपका वह कथन (या सिद्धांत) यहाँ बिलकुल ठीक बैठता है। २॰ कार्यो, क्रियाओं आदि के सम्बन्ध में, हाथ का इस प्रकार अभ्यस्त होना कि सहज में स्वभावतः उससे ठीक और पूरा परिणाम निकले। जैसे—बाजे पर (या लिखने में) अभी उसका हाथ ठीक नहीं बैठता है। संयो० कि०—जाना। विशेष—‘बैठना’ क्रिया का प्रयोग कुछ मुख्य क्रियाओं के साथ संयोज्य क्रिया के रूप में प्रायः नीचे लिखे अर्थों में भी होता है। (क) अवधारण या अधिक निश्चय सूचित करने के लिए; जैसे—कोई चीज खो या गँवा बैठना। (ख) कार्य की पूर्णता सूचित करने के लिए; जैसे—कहीं जा बैठना या मालिक बन बैठना। (ग) अनजान में या सहसा होनेवाली आकस्मिकता सूचित करने के लिए; जैसे—कह बैठना, दे बैठना या मार बैठना और (घ) दृढ़ता या धृष्टता सूचित करने के लिए; जैसे—चढ़ बैठना, पूछ बैठना, बिगड़ बैठना।
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बैठनि  : स्त्री०=बैठन (बैठक)।
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बैठनी  : स्त्री० [हिं० बैठन] वह आसन या स्थान जिस पर बैठकर जुलाहे करघे से कपड़ा बुनते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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