शब्द का अर्थ
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भूमि :
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स्त्री० [सं०√भू+मि] १. यह सारी पृथ्वी जो सौर जगत् के एक ग्रह के रूप में है। (दे० ‘पृथ्वी’) २. पृथ्वी-तल के ऊपर का वह ठोस भाग जिस पर देश, नदियाँ, पर्वत आदि हैं और जिस पर हम सब लोग रहते और वनस्पतियाँ उगती हैं। जमीन। (लैंड) मुहा०—भूमि होना=पृथ्वी पर गिर पड़ना। ३. उक्त का काई ऐसा छोटा टुकड़ा जिस पर किसी का अधिकार हो और जिसमें कुछ उपज आदि होती हो। (एस्टेट) पद—भूमिधर। (दे०) ४. जगह। स्थान। जैसे—जन्म-भूमि, मातृ-भूमि। ५. ऐसी जमीन जिस पर खेतीबारी होती है। जैसे—भूमिधर। ६. कोई बड़ा देश या प्रान्त। जैसे—आर्यभूमि। ७. कोई ऐसा आधार जिसपर कोई दूसरी चीज बनी अथवा आश्रित या स्थित हो। क्षेत्र। जैसे—पृष्ठभूमि। ८. धन सम्पत्ति या वैभव। ९. मकान के ऐसे खंड जो ऊपर-नीचे के विचार से अलग-अलग होते हैं। मंजिल। १॰. कोई विशिष्ट प्रकार का ऐसा विषय जो किसी स्थिति के रूप में हो। जैसे—विश्वास भूमि, स्नेह-भूमि। ११. किसी प्रकार का विस्तार या उसकी सीमा। १२. योगाशास्त्र के अनुसार वे अवस्थाएँ जो क्रम-क्रम से योगी को प्राप्त होती हैं और जिनको पास करके वह पूर्ण योगी होता है। १३. जिह्वा। जीभ। १४. दे० ‘भूमिका’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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भूमि कंदक :
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पुं० [मध्य० स०] कुकुरमुत्ता। |
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भूमि-कंप :
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पुं० [सं० ष० त०] भूकंप। भूडोल। |
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भूमि-कुष्मांड :
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पुं० [सं० मध्य० स०] गरमी के दिनों में होनेवाला कुम्हड़ा जो जमीन पर होता है। भँई-कुम्हड़ा। |
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भूमि-खर्जूरी :
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स्त्री० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार की छोटी खजूर। |
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भूमि-गत :
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वि० [द्वि० त०] १. जमीन पर गिरा या पड़ा हुआ। २. जो भूमि की सतह के नीचे हो। ३. जो जन-साधारण के सामने से हटकर कहीं छिपा हो। (अंडर-ग्राउंड) |
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भूमि-गृह :
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पुं० [सं० मध्य० स०] तहखाना। |
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भूमि-चंपक :
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पुं० [सं० मध्य० स०] १. एक प्रकार का पौधा जिसकी छाल, पत्ते तथा जड़ें औषधि के रूप में प्रयुक्त होती हैं। भुइँचंपा। २. उक्त पौधे का फूल। |
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भूमि-चल :
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पुं० [सं० ष० त०] भूकंप। |
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भूमि-जल :
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पुं० [मध्य० स०] जमीन के नीचे रहने या होनेवाला पानी। |
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भूमि-जात :
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वि० [सं० पं० त०] जो भूमि से उत्पन्न हुआ हो। भूमिज। पुं० पेड़। वृक्ष। |
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भूमि-जीवी (विन्) :
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पुं० [सं० भूमि√जीव् (जीना+णिनि, उप० स०] १. वह जिसकी जीविका का आधार भूमि हो। कृषक। २. वैश्य। |
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भूमि-तल :
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पुं० [ष० त०] पृथ्वी का ऊपरी भाग या सतह। |
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भूमि-धर :
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पुं० [सं० ष० त०] १. पर्वत। पहाड़। २. शेष-नाग। ३. आज-कल वह किसान जिसने उचित धन देकर जमीन पर खेती-बारी करने का स्थायी अधिकार प्राप्त कर लिया हो। |
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भूमि-पति :
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पुं० [सं० ष० त०] राजा। |
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भूमि-पुत्र :
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पुं० [ष० त०] १. मंगल ग्रह। २. नरकासुर का एक नाम। ३. श्योनाक। सोना-पाढ़। |
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भूमि-पुत्री :
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स्त्री० [ष० त०] सीता। |
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भूमि-पुरंदर :
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पुं० [ष० त०] राजा दिलीप का एक नाम। |
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भूमि-भुक् (ज्) :
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पुं० [सं० भूमि√भुज् (उपभोग करना)+क्विप्] राजा। |
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भूमि-भोग :
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पुं० [ब० स०] वह राष्ट्र या राजा जिसके पास बहुत अधिक भूमि हो। |
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भूमि-लग्ना :
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स्त्री० [सं० त०] सफेद फूलोंवाली अपराजिता। |
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भूमि-लता :
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स्त्री० [मध्य० स०] शंख पुष्पी। |
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भूमि-लवण :
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पुं० [ष० त०] शोरा। |
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भूमि-लाभ :
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पुं० [ब० स०] मृत्यु। |
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भूमि-लेप :
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पुं० [ष० त०] गोबर। |
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भूमि-वर्द्धन :
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पुं० [ष० त०] मृत शरीर। शव। लाश। |
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भूमि-वल्ली :
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स्त्री० [मध्य० स०] भुँईं आँवला। |
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भूमि-संधि :
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स्त्री० [मध्य० स०] १. वह संधि जो परस्पर मिलकर कोई भूमि प्राप्त करने के लिए की जाय। २. शत्रु को कुछ भूमि देंकर उससे की जानेवाली सन्धि। |
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भूमि-संभवा :
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स्त्री० [ब० स०,+टाप्] जानकी। सीता। |
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भूमि-सात् :
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वि० [सं० भूमि+सात् (प्रत्य०)] जो गिर कर जमीन के साथ मिल गया हो। जैसे—भूकंप में मकानों का भूमिसात होना। |
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भूमि-सुत :
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पुं० [ष० त०] १. मंगल-ग्रह। २. नरकासुर। ३. केवाँच। कौंछ। ४. पेड़। वृक्ष। |
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भूमि-सुता :
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स्त्री० [ष० त०] जानकी जी। |
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भूमि-सुर :
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पुं० [ष० त०] ब्राह्मण। भूसुर। |
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भूमि-स्खलन :
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पुं०=भू-स्खलन। |
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भूमि-स्पर्श :
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पुं० [ब० स०] उपासना के लिए बौद्धों का एक प्रकार का आसन। वज्रासन। |
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भूमि-हार :
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पुं० [सं० भूमि+हिं० हार (प्रत्य०)] एक ब्राह्मण जाति को प्रायः उत्तर-प्रदेश और बिहार में बसती और प्रायः खेती-बारी से जीविका-निर्वाह करती है। |
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भूमिका :
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स्त्री० [सं० भूमि√कै+क,+टाप् अथवा भूमि+कन्,+टाप्] १. जमीन। भूमि। २. जगह। स्थान। ३. मकान के वे दंड जो एक दूसरे के ऊपर नीचे होते हैं। मंजिल। ४. योग में क्रम क्रम से प्राप्त होनेवाली उन्नत स्थितियों में से प्रत्येक। भूमि। ५. किसी प्रकार की रचना। ६. कोई ऐसा आधार जिस पर कोई चीज आश्रित या स्थित हो। पृष्ठभूमि। (बैक ग्राउंड) ७. आज-कल किसी ग्रंथ के आरंभ लेखक का वह वक्तव्य जिसमें उस ग्रंथ से सम्बन्ध रखनेवाली आवश्यक तथा ज्ञातव्य बातों का उल्लेख होता है। आमुख। मुखबंध। (प्रिफ़ेस) ८. कोई महत्त्वपूर्ण बात कहने से पहले कही जानेवाली वे बातें जिनके फल-स्वरूप उस महत्त्वपूर्ण बात का उपयुक्त परिणाम या फल होता या हो सकता हो। मुहा०—(किसी काम या बात की) भूमिका बाँधना=कुछ कहने से पहले उसे प्रभावशाली बनाने के लिए कुछ और बातें कहना। जैसे—जरा सी बात के लिए इतनी भूमिका मत बाँधा करो। ९. वेदान्त के अनुसार चित्त की पाँच अवस्थाएँ, जिनके नाम ये हैं- क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और विरुद्ध। १॰. नाटकों आदि में से किसी पात्र का अभिनय तथा कार्य। (पार्ट) जैसे—शिवा जी की भूमिका में मोहनवल्लभ ने बहुत प्रशंसनीय काम किया था। ११. मूर्तियों आदि का किया जानेवाला श्रृंगार या सजावट। |
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भूमिका-गत :
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पुं० [सं० द्वि० त०, उप० स०] वह जिसने नाटक में अभिनय करने के लिए कोई विशिष्ट वेश-भूषा धारण की हो। |
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भूमिज :
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वि० [सं० भूमि√जन्+ड] भूमि से उत्पन्न। पुं० १. मंगल ग्रह। २. सोना। स्वर्ण। ३. सीमा। ४. नरकासुर राक्षस। ५. भू-कदंब। |
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भूमिजंबु :
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पुं० [सं० मध्य० स०] छोटा जामुन। |
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भूमिजा :
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स्त्री० [सं० भूमि√जन्+ड,+टाप्] जानकी। सीता। |
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भूमित्व :
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पुं० [सं० भूमि+त्व] ‘भूमि’ का धर्म या भाव। |
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भूमिदेव :
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पुं० [सं० ष० त०] १. ब्राह्मण। राजा। |
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भूमिपाल :
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पुं० [सं० भूमि√पाल् (पालन करना)+णिचि+अच्] राजा। |
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भूमिपिशाच :
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पुं० [सं० ष० त०] ताड़ का पेड़। |
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भूमिभृत् :
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पुं० [सं० भूमि√भृ (भरण करना)+क्विप्, तुक्] राजा। |
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भूमिया :
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पुं० [हिं० भूमि+इया (प्रत्य०)] १. भूमि का मूल अधिकारी और स्वामी। २. जमींदार। ३. किसी देश का प्राचीन और मूल निवासी। ४. ग्राम-देवता। |
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भूमिरुह :
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पुं० [सं० भूमि√रुह् (ऊपर चढ़ना)+क] वृक्ष। |
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भूमिरुहा :
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स्त्री० [सं० भूमि√रुह्+टाप्] दूब। |
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