| शब्द का अर्थ | 
					
				| भोर					 : | पुं० [सं० विभावरी] प्रातःकाल। सबेरा। तड़का। पुं० [सं० भ्रम] धोखा। भ्रम। वि०=भोला (सीधा-सादा)। पुं० [देश०] १. एक प्रकार का बड़ा पक्षी जिसके पर बहुत सुन्दर होते हैं। यह जल तथा हरियाली बहुत पसन्द करता है और खेतों को बहुत अधिक हानि पहुँचाता है। २. एक प्रकार का सदाबहार वृक्ष जिसे ‘खभो’ भी कहते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| भोरा					 : | पुं० [देश०] एक तरह की मछली। पुं०=भोर। वि०=भोला (सीधा-सादा)। पुं० [हिं० भूल] धोखा। भुलावा। उदा०—दीन दुखी जो तुमको जाँचत सो दाननि के भोरे।—सत्यनारायन। वि० १. धोखे या भुलावे में आया हुआ। २. मोह या भ्रम में पड़ा हुआ। ३. भूला या खोया हुआ। उदा०—रची विरंचि विषय सुख भोरी।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| भोराई					 : | स्त्री० [हिं० भोरा+आई (प्रत्य०)] भोलापन। स्त्री० [हिं० भोराना+आई (प्रत्य०)] १. धोखा। भुलावा। २. भ्रम। | 
			
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				| भोराना					 : | स० [हिं० भँवर या भ्रम] किसी को धोखे या भ्रम में डालना। चकमा देना। अ० धोखे या भ्रम में आना या पड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| भोरानाथ					 : | पुं०=भोलानाथ (शिव)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) | 
			
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				| भोरी					 : | स्त्री० [देश०] पोस्ते के पौधे का एक रोग। वि० स्त्री०=भोली (भोला का स्त्री०)। | 
			
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				| भोरु					 : | पुं०=भोर। | 
			
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				| भोरे					 : | अव्य० [सं० भ्रम या हिं० भूल] भूलकर भी। उदा०—चहत न भरत भूपपद भोरे।—तुलसी। | 
			
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