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म  : नागरी वर्णमाली का पचीसवाँ और पवर्ग का पंचम वर्ण जो भाषा-विज्ञान तथा उच्चारण की दृष्टि से ओष्ठ्य, अल्पप्राण, घोष, स्पर्श तथा अनुनासिक व्यंजन हैं। पुं० १. शिव। २. ब्रह्म। ३. विष्णु। ४. चंद्रमा। ५. यम। ६. समय। ७. विष। ८. संगीत में ‘मध्यम स्वर’ का संक्षिप्त रूप। ९. पिंगलशास्त्र में ‘मगण’ का संक्षिप्त रूप। अव्य० [सं० मा] नहीं। उदा०—(क) मूल म हारों म्हारा बाई।—गोरखनाथ। (ख) हर म करौ प्रति रायहर।—प्रिथीराज।
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मँ  : सर्व०=मैं। उदा०—मँ ही सकल अनरथ कर मूला।—तुलसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मअन  : पुं०=मदन (कामदेव)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मइँ, मइ  : सर्व=मैं।
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मइका  : पुं०=मायका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मइत्री  : स्त्री०=मैत्री।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मइमत  : वि०=मैमंत (मतवाला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मइया  : स्त्री०=मैय (माँ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मइल  : वि० मैला। स्त्री०=मैल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मई  : स्त्री० [सं० मयी] १. मय जाति की स्त्री। २. ऊँटनी। वि० स्त्री० सं० ‘मयी’ का विकृत रूप। स्त्री० अंगरेजी में मसीही वर्ष का पाँचवाँ महीना जो अप्रैल के उपरांत और जून से पहिले आता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मई दिवस  : पुं० [हिं+सं०] मई मास की पहली तारीख को श्रमिकों द्वारा मनाया जानेवाला एक अंतर्राष्ट्रीय समारोह जिसमें वे खुशियाँ मनाते, जुलूस निकालते तथा सुभीतों की रक्षा तथा वृद्धि के लिए अपना संघटन दृढ़ करते हैं।
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मउगा  : पुं० [?] [स्त्री० मउगी] १. पुरुष। मरद। २. नपुंसक। हिजड़ा।
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मउर  : पुं०=मौर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मउरना  : अ०=मौरना।
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मउरी  : स्त्री०=मौरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मउलना  : स०=मसलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मउलसिरी  : स्त्री०=मौलसिरी।
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मउसी  : स्त्री०=मौसी (माता की बहिन)।
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मकई  : स्त्री० [हिं० मक्का] १. प्रसिद्ध पौधा जिसकी बालों (भुट्टों) में से दाने निकलते हैं, जिनकी गिनती अन्नो में होती है। मक्का। २. उक्त पौधे के दाने।
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मकड़-जाल  : पुं० [हिं० मकड़ी+जाल] १. मकड़ी का बुना हुआ जाला। २. ऐसी बात या रचना जो विशेष रूप से दूसरों को फँसाने के लिए की या बनाई गई हो।
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मकड़ा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की घास। मधाना। खमकरा। मनसा। पुं०=नर मकड़ी।
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मकड़ाना  : अ० [हिं० मकड़ी] १. मकड़ी की तरह चलना। २. अकड़कर चलना।
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मकड़ी  : स्त्री० [सं० मर्कटक] १. एक प्रसिद्ध कीड़ा जो अपने मुँह में से निकाले हुए एक तरह के लसीले पदार्थ से चक्राकार जाल बुनता है और उसमें फँसी हुई मक्खियों आदि को खाता है। २. संतों की परिभाषा में माया।
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मकतब  : पुं० [अ० मक्तब] १. वह स्थान जहाँ बैठकर कोई कुछ लिखता-पढ़ता हो। २. छोटे बालकों के पढ़ने का स्थान। पाठशाला। मदरसा। चटसाल। ३. छोटे बच्चों को कराया जानेवाला शिक्षा का आरम्भ। विद्यारम्भ।
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मकतबखाना  : पुं० [अ० मक्तब+फा० खान] १. मकतब। पाठशाला। २. जुआड़ियों के अड्डे। (जुआरी)
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मकतबा  : पुं० [अ० मक्तबः] १. पुस्तकालय। २. पुस्तक विक्रय स्थान।
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मकतल  : पुं० [अ० मक़्तल] वध-स्थान। वध-भूमि।
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मकता  : पुं० [सं० मगध] मगध देश। (आईन अकबरी में मगध देश का यही नाम दिया गया है।) पुं० [अ० मक्तऽ] गजल के पहले शेर का पहला चरण।
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मकतूल  : वि० [अ० मक़्तूल] वधित। हत।
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मकदूनिया  : पुं० [अ० मक्दूनियः] बालकन का एक प्रदेश। सिक़ंदर यहीं राज्य करता था। (मेसिडोनिया)
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मकदूर  : पुं० [अ० मक़दूर] १. ताकत। शक्ति। सामर्थ्य। २. काबू। वश। ३. गुंजाइश। समाई। ४. घन-संपत्ति।
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मकना  : पुं० [अ० मिक़्नः] वह रंगीन ओढ़नी जिसे विवाह के समय दुल्हिन को पहनाया जाता है। (मुसलमान) पुं०=मकुना। (दे०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मकनातीस  : पुं० [अ०] [वि० मिकनातीसी] चुंबक पत्थर। २. चुंबक।
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मकफूल  : वि० [अ० मक़्फूल] १. ताले में बन्द किया हुआ। २. रेहन किया हुआ। गिरो रखा हुआ।
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मकबरा  : पुं० [अ० मक्बरः] १. वह कब्र जिस पर इमारत या गुंबद बना हो। २. कब्र पर बनी हुई इमारत या गुंबद।
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मकबूजा  : वि० [अ० मक़्बूजः] जिस पर क़ब्जा या अधिकार किया गया हो। अधिकृत।
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मकबूल  : वि० [अ० मक़्बूल] [भाव० मकबूलियत] १. जो कबूल कर लिया या मान लिया गया हो। स्वीकृत। २. जिसे सब लोग कबूल करते या मानते हों। मान्य और सर्वप्रिय। ३. पसंद किया हुआ। ४. रुचिकर।
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मकबूलियत  : स्त्री० [अ०] १. कबूल या स्वीकृत किये जाने की अवस्था या भाव। २. लोकप्रियता या सर्वप्रियता। ३. पसंद। रुचि।
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मकर  : पुं० [सं० मुख√कृ (फेंकना)+ट, पृषो० सिद्धि] [स्त्री० मकरी] १. मगर या घड़ियाल नामक प्रसिद्ध जल-जंतु जो कामदेव की ध्वजा का चिन्ह और गंगा जी तथा वरुण का वाहन माना गया है। २. बारह राशियों में से दसवीं राशि जिसमें उत्तराषाढ़ नक्षत्र के अन्तिम तीन पाद, पूरा श्रणण नक्षत्र और घनिष्ठा के आरम्भ के दो पाद हैं। उसकी आकृति मंकर (जंतु) के समान मानी गई है। ३. सौर माघ मास जो मकर संक्रांति से आरंभ होता है। उदा०—दासन मकर चैन होत है नदी न कौ।—सेनापति। ४. कुबेर की नौ निदियों में से एक निधी। ५. एक प्राचीन पर्वत। ६. मछली। ७. सुश्रुत के अनुसार कीड़ों और छोटे जीवों का एक वर्ग। ८. अस्त्र-शस्त्र आदि के वार निष्फल बनाने के लिए उन पर पढ़ा जानेवाला एक प्रकार का मंत्र। ९. प्राचीन भारत में, सैनिक व्यूह-रचना का एक प्रकार। १॰. छप्पय के उनतालिसवें भेद का नाम जिसमें ३२ गुरु, ८८ लघु, १२0 वर्ण की १५२ मात्राएँ अथवा ३२ गुरु, ८४ लघु, ११६ वर्ण, कुल १४८ मात्राएँ होती हैं। पुं० [फा० मक्र] १. छल। कपट। २. दूसरों को धोखे में रखने के लिए बनाई जानेवाली कोई स्थिति। क्रि० प्र०—रचना।—फैलाना। मुहा०—मकर साधना=छलपूर्वक दूसरों पर यह प्रकट करना कि हम बहुत ही हीन दशा में हैं।
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मकर-कुंडल  : पुं० [मध्य० स०] मकर के आकृति का कानों में पहनने का कुंडल।
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मकर-केतन  : पुं० दे० ‘मकर-केतु’।
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मकर-केतु  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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मकर-ध्वज  : पुं० [ब० स०] १. कामदेव। २. वैद्यक में चंद्रोदय नामक रसौषध। ३. लौंग। ४. पुराणानुसार अहिरावण का द्वारपाल जो हनुमान का पुत्र माना जाता है। मत्स्योदर।
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मकर-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. कामदेव। २. ग्राह नामक जल-जंतु।
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मकर-व्यूह  : पुं० [मध्यम० स०] एक प्रकार की सैनिक ब्यूह-रचना जिसमें सैनिक मकर के आकार में खड़े किये जाते हैं।
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मकर-संक्रांति  : स्त्री० [सं० स० त०] वह समय जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। यह पुण्य काल माना जाता है।
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मकर-सप्तमी  : स्त्री० [ष० त०] माघ शुक्ला सप्तमी।
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मकरंद  : पुं० [सं० मकर√अन्द् (बाँधना)+अण्, शक० पररूप] १. फूलों का रस जिसे मधुमक्खियाँ और भौंरे आदि चूसते हैं। २. फूल का केसर। ३. किंजल्की। कुन्द का पौधा या फूल। ४. संगीत में ताल के साठ मुख्य भेद में से एक। ५. वाम नामक सवैया-छंद का दूसरा नाम।
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मकरंदवती  : स्त्री० [सं० मकरन्द+मतुप्, वत्व,+ङीष्] पाटला लता।
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मकरराई  : स्त्री० [मकरा ?+राई] काली राई।
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मकरा  : पुं० [सं० वरक] महुआ नामक अन्न। पुं० [हिं० मकड़ा] १. भूरे रंग का एक कीड़ा जो दीवारों और पेड़ों पर जाला बनाकर रहता है। २. हलवाइयों की एक प्रकार की चौघड़िया जिससे सेव बनाया जाता है। यह एक चौकी होती है। ३. दे० ‘मकड़ा’।
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मकरांक  : पुं० [सं० मकर-अंक, ब० स०] १. कामदेव। २. समुद्र। ३. एक मनु का नाम।
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मकराकर  : स्त्री० [मकर-आकार, ष० त०] समुद्र।
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मकराकार  : वि० [मकर-आकार, ब० स०] मकर की आकृति जैसा।
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मकराकृत  : वि० [मकर-आकृत, सुप्सुपा स०] मकर की आकृति जैसा बनाया हुआ। जैसे—मकराकृत कुंडल।
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मकराक्ष  : पुं० [मकर-अक्षि, ब० स०,+षच्] खर नामक राक्षस का पुत्र जो रावण का भतीजा था।
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मकराज  : स्त्री०=कैंची।
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मकरानन  : पुं० [मकर-आनन्, ब० स०] शिव का एक अनुचर।
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मकराना  : पुं० [देश०] राजस्थान का एक प्रसिद्ध क्षेत्र जो संगमरमर की खान के लिए ख्यात है।
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मकराना  : स० [हिं० मुकरना का स० रूप०] १. किसी को मुकरने में प्रवृत्त करना। २. किसी को झूठा बनाना या सिद्ध करना। (क्व०) स० [?] मुक्त कराना। छुड़ाना।
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मकरालय  : पुं० [मकर-आलय, ष० त०] समुद्र।
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मकराश्व  : पुं० [मकर-अश्व, ब० स०] १. वरुण। २. तांत्रिकों का एक प्रकार का आसन जिसमें हाथ पैर पीठ की ओर कर लिए जाते हैं।
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मकरिका-पत्र  : पुं० [सं० उपमि० स०] मछली के आकार का बना हुआ चंदन का चिन्ह जो प्राचीन काल में स्त्रियाँ कनपटियों पर बनाती थीं।
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मकरी  : स्त्री० [सं० मकर+ङीष्] १. मकर या मगर नामक जल-जन्तु की मादा। २. एक प्रकार का वैदिक गीत। ३. चक्की में लगी हुई एक लकड़ी जो करीब आठ अंगुल की होती है। ४. जहाज में फर्श या खंभों आदि में लगा हुआ लकड़ी या लोहे का वह चौकोर टुकड़ा जिसके अगले दोनों भाग अँकुसे के आकार को होते हैं। स्त्री०=मकड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मकरूक  : भू० कृ० [अ०] कुर्क किया हुआ (माल)। आसंजित।
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मकरूज  : वि० [अ० मक़ूज] कर्जदार। ऋणी।
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मकरूह  : वि० [अ० मक्रूह] १. घृणित। २. अपवित्र। ३. खराब या गन्दा, बुरा। ४. (काम) जो इस्लाम के अनुसार निषिद्ध या बवर्जित हो।
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मकरेड़ा  : पुं० [हिं० मक्का+एड़ा (प्रत्य०)] भक्के के पौधे का डंठल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मकरौरा  : पुं०=मकोड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मकलई  : स्त्री० [मकालिया बंदरगाह से] एक प्रकार का गोंद जो अदन से आता है।
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मंकलक  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि। २. एक दक्ष का नाम। (महाभारत)
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मकलूम  : वि० [अ० मक़्लूब] उलटा हुआ। औंधा। पुं० वह शब्द या पद जो सीधा और उलटा दोनों ओर से पढ़ने पर समान हो। जैसे—दरद, सरस आदि।
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मकसद  : पुं० [अ० मक़्सिद] १. उद्देश्य। २. मनोरथ। ३. अभिप्राय।
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मकसूद  : वि० [अ० मक्सूदः] १. अभिप्रेत। २. उद्दिष्ट। पुं०=मकसद।
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मकसूम  : वि० [अ०] बांटा हुआ। विभक्त। पुं० १. भाग्य। किस्मत। तकदीर। २ गणित में भाज्य। ३. भाग। हिस्सा।
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मकाँ  : पुं०=मकान।
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मकाई  : स्त्री०=मकई (ज्वार)।
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मकान  : पुं० [अ०] [बहु० मकानात] १. गृह। घर। २. निवासस्थान। रहने की जगह। ३. मूल निवास-स्थान। जैसे—वह रहते तो हैं बम्बई में पर उनका मकान मथुरा में है।
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मकानदार  : पुं० [अ०+फा०] मकान मालिक।
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मकाम  : पुं०=मुकाम (स्थान)।
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मकु  : अव्य० [सं०√मंक्+ड बा० ?] १. विकल्प-वाचक शब्द। चाहे। २. बल्कि। वरन्। ३. हो सकता है कि। कदाचित्। शायद। ४. यदि ऐसा हो जाता तो अच्छा होता। उदा०—मकु तेहि मारग होइ परौं, कंत धरै जहँ पाउँ।—जायसी।
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मकुआ  : पुं० [हिं० मक्का] बाजरे के पत्तों का एक रोग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मकुट  : पुं०=मुकुट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मकुंद  : पुं०=मुकुंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मकुना  : पुं० [सं० मनाक=हाथी] [स्त्री० मकुनी] १. वह नर हाथी जिसके दाँत न हों अथवा छोटे छोटे दाँत हों। २. ऐसा वयस्क पुरुष जिसे मूँछें न निकली हों या बहुत कम निकली हों। (परिहास और व्यंग्य) वि० अपेक्षाकृत कम ऊँचाईवाला।
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मकुनी  : स्त्री० [देश०] १. आटे की लोई के अन्दर बेसन या चने की पीठी भर कर बनाई हुई कचौरी। बेसन की रोटी। २. चने का बेंसन और गेहूँ का आटा एक में मिलकर उसमें नमक, मेथी, मँगरैल आदि मिलाकर तथा भूमल पर सेंकर पकाई हुई बाटी। ३. मटर के आटे की रोटी।
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मंकुर  : पुं० [सं०√मंक् (भूषित करना)+उरच्] दर्पण।
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मकुर  : पुं० [सं०√मंक्+उरच्, पृषो० सिद्धि] १. कुम्हार का वह डंडा जिससे वह चाक चलाता है। २. बकुल। मौलसिरी। ३. दर्पण। मुकुर। शीशा। ४. फूल की कली।
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मकुष्ठ  : पुं० [सं० मकु√स्था+क] १. एक प्रकार का धान। २. मोठ नामक अन्न। बन मूँग।
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मकुष्ठक  : पुं० [सं० मकुष्ठ+कन्] मोठ नामक अन्न।
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मकूनी  : स्त्री०=मकुनी।
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मकूलक  : पुं० [सं०√मंक्+ऊलच्+कन्] १. कली। २. दंती का पेड़।
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मकूला  : पुं० [अ० मकूलः] १. उक्ति। कथन। वचन। २. कहावत। लोकोक्ति।
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मकेरा  : पुं० [हिं० मक्का] वह खेत जिसमें ज्वार या बाजरा बोया जाता है।
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मको  : स्त्री०=मकोय।
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मकोइ  : पुं०=मकोई।
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मकोइया  : वि० [हिं० मकोय+इया (प्रत्य०)] मकोय के रंग के समान। ललाई लिए हुए पीला रंग। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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मकोई  : स्त्री०=मकोय।
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मकोड़ा  : पुं० [देश०] १. हिन्दी ‘कीड़ा’ का अनुकरण वाचक शब्द। जैसे—कीड़ा-मकोड़ा। २. काले रंग का बड़ा च्यूँटा। (पश्चिम)
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मकोय  : स्त्री० [सं० काकमाता या काकमात्री] १. डेढ़-दो हाथ ऊँचा एक तरह का पौधा जिसमें छोटे-छोटे खट-मीठे फल लगते हैं। २. उक्त फल। रसभरी।
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मकोरना  : स०=मरोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मकोसल  : पुं० [देश०] एक प्रकार का सदाबहार ऊँचा वृक्ष जिसकी लकड़ी से नावें बनाई जाती हैं।
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मकोह  : स्त्री०=मकोय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मकोहा  : पुं० [सं० मतुठा या हिं० मकोय ?] प्रायः फसल को हानि पहुँचानेवाला एक प्रकार का लाल रंग का कीड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मक्कड़  : पुं० [हिं० मकड़ी] १. बड़ी मकड़ा। २. नर मकड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मक्कर  : पुं०=मकर (छल या घोखा)। पुं०=मकड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मक्का  : पुं० [अ० मक्कः सऊदी अरब की राजधानी जहाँ धार्मिक विचारों वाले मुसलमान हज्ज करने जाते हैं। यहीं मुहम्मद साहब का जन्म हुआ था। पुं०=मकई (ज्वार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मक्कार  : वि० [अ०] [भाव० मक्कारी] १. कपटी। छली। २. दूसरों को धोखा देने के लिए अपनी हीन स्थिति बनानेवाला।
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मक्कारी  : स्त्री० [अ०] १. मक्कार होने की अवस्था या भाव। २. कोई छल या धूर्ततापूर्ण कार्य।
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मक्की  : स्त्री० दे० ‘मकई’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मक्कुल  : पुं० [सं० मक्क (गति)+उलच्] शिलाजीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मक्कोल  : पुं० [सं०√मक्क+ओल] खड़िया।
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मक्खन  : पुं० [सं० भ्रक्षण] १. दूध, दही आदि को मथकर उसमें से निकाला जानेवाला एक प्रसिद्ध स्निग्ध सार पदार्थ जिसे तपाकर घी बनाया जाता है। नवनीत। (बटर) मुहा०—(किसी को) मक्खन लगाना=बहुत अधिक खुशामद या चापलूसी करना। कलेजे का मक्खन मला जाना=शत्रु की हानि देखकर प्रसन्नता और संतोष होना। कलेजा ठंडा होना। २. एक प्रकार का सेम (फली)।
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मक्खी  : स्त्री० [सं० मक्षिका] १. एक प्रसिद्ध छोटा कीड़ा जो प्रायः सारे संसार में पाया जाता है। यह प्रायः खाने-पीने की चीजों पर बैठकर उनमें संक्रामक रोगों के कीटाणु फैलाता है। मक्षिका। पद—मक्खीचूस, मक्खी-मार। मुहा०—जीती मक्खी निगलना=(क) जान-बूछकर कोई ऐसा अनुचित कृत्य या पाप करना जिसके कारण आगे चलकर बहुत बड़ी हानि हो। (ख) जान-बूझकर किसी के दोष आदि की ओर ध्यान न देना। नाक पर मक्खी न बैठने देना=(क) किसी को अपने ऊपर एहसान करने का तनिक भी अवसर न देना। (ख) अपने संबंध में कोई, ऐसा काम या बात न होने देना जिसमें किसी प्रकार की दीनता सूचित होती हो। मक्खी की तरह निकाल देना या निकाल फेंकना=किसी को किसी काम से बिलकुल अलग या दूर कर देना। मक्खी छोड़ना और हाथी निगलना=छोटे-छोटे पापों से बचना, पर बहुत बड़े-बड़े पाप करने में संकोच न करना। मक्खी मारना=बिलकुल खाली और निकम्मे बैठे रहना, अथवा तुच्छा और व्यर्थ के काम करना। २. मधु-मक्खी। ३. बंदूक के अगले भाग में वह उभरा हुआ अंश जिसकी सहायता से निशाना साधा जाता है।
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मक्खीचूस  : पुं० [हिं० मक्खी+चूसना] १. घी आदि में पड़ी हुई तक को चूस लेनेवाला व्यक्ति। २. लाक्षणिक अर्थ में बहुत बड़ा कंजूस।
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मक्खीदानी  : स्त्री० [हिं० मक्खी+फा० दानी] एक तरह का जालीदार कपड़े का बना हुआ संदूक जिसमें मक्खियाँ फँसाई जाती हैं।
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मक्खीमार  : पुं० [हिं० मक्खी+मारना] १. एक प्रकार का बहुत छोटा जानवर जो प्रायः मक्खियाँ मार मारकर खाया करता है। २. एक प्रकार की छड़ी जिसके सिरे पर चमड़ा लगा होता है। जिसकी सहायता से लोग प्रायः मक्खियाँ उड़ाते हैं। ३. बहुत ही घृणित व्यक्ति। वि० (चीज) जिसकी सहायता से मक्खियाँ मारी जाती हो। जैसे—मक्खीमार कागज।
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मक्खीलेट  : स्त्री० [हिं० मक्खी+लेट ?] एक प्रकार की जाली जिसमें मक्खी के आकार की बहुत छोटी छोटी बूटियाँ होती हैं।
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मक्र  : पुं० दे० ‘मकर’ (छल या धोखा)।
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मक्ष  : पुं० [सं०√मक्ष्+घञ्] १. अपना दोष छिपाना। २. क्रोध। ३. समूह।
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मंक्षण  : पुं० [सं०√मख् (गति)+ल्युट्—अन, पृषो० ख—क्ष] प्राचीन काल में युद्ध के समय जाँघ पर बाँधा जानेवाला एक तरह का कवच उरुत्राण।
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मक्षदृग  : पुं० [सं० मत्स्यदृग्] एक प्रकार का मोती जिसके विषय में लोगों की धारणा है कि इसके पहनने से पुत्र मर जाता है।
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मक्षिका  : स्त्री० [सं√मश् (शब्द करना)+सिकन्, पृषो० सिद्धि] १. मक्खी। २. शहद की मक्खी।
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मक्षिका-मल  : पुं० [ष० त०] मोम।
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मक्षिकासन  : पुं० [मक्षिका-आसन, ष० त०] शहद की मक्खी का छत्ता।
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मंक्षु  : अव्य० [सं०√मंख्+उन्, पृषो० ख्—क्ष्] १. चट-पट। तुरंत। शीघ्रता से। २. यथार्थ में। वस्तुतः।
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मक्सी  : पुं० [देश०] १. वह सब्जा घोड़ा जिसपर काले फूल या दाग हों। २. बिलकुल काले रंग का घोड़ा।
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मंख  : पुं० [सं०√मंख्+अच्] १. चारण। भाट। संस्कृत भाषा के एक प्रसिद्ध कोशकार।
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मख  : पुं० [सं०] यज्ञ।
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मख-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] यज्ञ के स्वामी, विष्णु।
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मख-पाल  : पुं० [सं० मख√पा (रक्षा करना)+णिच्+अण्] यज्ञ की रक्षा करनेवाला। यज्ञ-रक्षक।
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मख-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] यज्ञ करने का स्थान। यज्ञ-शाला।
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मख-स्वामी  : पुं० [सं० ष० त०] यज्ञ के स्वामी, विष्णु।
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मख़जन  : पुं० [अ० मरूज़न] १. कोष। खजाना। २. भंडार।
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मख़तूल  : पुं० [सं० महर्घ तूल] काला रेशम।
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मखत्राता  : वि० [सं० मखत्रातृ] जो यज्ञ की रक्षा करता हो। पुं० रामचन्द्र जिन्होंने विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा की थी।
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मखदूभी  : पुं० [अ०] पूज्य। सेव्य। (संबोधन)
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मख़दूम  : वि० [अ०] १. जिसकी खिदमत की जाय। २. जिसकी खिदमत या सेवा करना उचित हो। सेव्य। ३. पूज्य। मान्य। पुं० मालिक। स्वामी।
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मखदूश  : वि० [अ० मख़दूश] १. जिससे खदशा या खतरा अथवा भय हो। २. धूर्त्त।
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मखद्वेषी (षिन्)  : पुं० [सं० मख√द्विष् (द्वेष करना)+णिनि, उप० स०] राक्षस।
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मखधारी (रिन्)  : पुं० [सं० मख√धृ (धारण करना)+णिनि, उप० स०] यज्ञ करनेवाला।
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मखन  : पुं०=मक्खन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मखना  : पुं०=मकुना।
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मखनिया  : वि० [हिं० मक्खन+इया (प्रत्य०)] १. मक्खन-संबंधी मक्खन का। (क्व०) २. (दूध) जिसे मथकर उसमें से मक्खन निकाल लिया गया हो। सप्रेटा। ३. (दही) जो मक्खन निकाले हुए दूध को जमाकर बनाया गया हो। पुं० १. मक्खन बेचनेवाला व्यक्ति। २. उक्त दूध का जमाकर तैयार किया जानेवाला दही।
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मखनी  : स्त्री० [हिं० मक्खन] प्रायः एक बित्ता लम्बी एक प्रकार की मछली।
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मखफी  : वि० [अ० मख़्फ़ी] छिपा हुआ। गुप्त।
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मखमय  : पुं० [सं० मख+मयट्] विष्णु।
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मखमल  : स्त्री० [अ० मख़्मल] [वि० मखमली] १. एक तरह का बढ़िया, महीन, चिकना तथा रोएँदार कपड़ा। २. एक प्रकार की रंगीन दरी जिसके बीचोबीच एक गोल चँदोआ बना रहता है।
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मखमली  : वि० [अ० मखमल+ई (प्रत्य०)] १. मखमल का बना हुआ। जैसे—मखमली टोपी। २. मखमल का-सा कोमल और चमकीला। जैसे—मखमली किनारे की धोती।
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मखमसा  : पुं० [अ० मख्मसः] १. झगड़ा। २. झमेला। बखेड़ा। ३. डर। भय।
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मखरज  : पुं० [अ० मख़ज] १. उद्गम। स्रोत। २. मूल। ३. कंठ (अक्षर के उच्चारण का स्थान)।
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मखराज  : पुं० [सं० ष० त०] यज्ञों में श्रेष्ठ राजयूस यज्ञ।
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मखलूक  : पुं० [अ० मख़्लूक] १. ईश्वर की सृष्टि। संसार। जगत। २. मनुष्य। लोग।
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मखलूकात  : स्त्री० [अ० मख्लूक़ात] चराचर जगत और प्राणी वर्ग। सृष्टि के सब जीव और वनस्पतियाँ।
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मखलूत  : वि० [अ० मख्लूत] १. मिला-जुला। मिश्रित। २. गड्ड-मड्ड।
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मखवाल्क्य  : पुं० =याज्ञवल्क्य।
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मखसूस  : वि० [अ० मख्सूस] १. जो खास तौर पर या किसी विशेष कार्य के लिए अलग कर दिया गया हो। विशिष्ट। खास। २. प्रधान। प्रमुख।
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मखाग्नि  : स्त्री० [सं० मख-अग्नि, ष० त०] यज्ञ की संस्कृत अग्नि।
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मखाना  : पुं० [सं० मखान्न] तालमखाना। (देखें)।
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मखान्न  : पुं० [सं० मख-अन्न, सुप्सुपा स०] तालमखाना।
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मख़ालय  : पुं० [सं० मख-आलय, ष० त०] यज्ञ-शाला।
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मंखी  : स्त्री० [देश०] बच्चों के गले का एक गहना।
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मखी  : स्त्री०=मक्खी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मखीर  : पुं० [हिं० मक्खी] शहद। मधु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मखेश  : पुं० [सं० मख-ईश, ष० त०] राजयूस यज्ञ।
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मखोना  : पुं० [देश०] पुरानी चाल का एक प्रकार का कपड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मखौल  : पुं० [देश०] ऐसी मजेदार तथा व्यंग्यपूर्ण बात जो, प्रायः किसी को हास्यास्पद बनाने के लिए कही जाती है। क्रि० प्र०—उड़ाना।
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मखौलिया  : वि० [हिं० मखौल+इया (प्रत्य०)] १. मखौल-संबंधी। २. मखौल के रूप में होनेवाला। पुं० व्यक्ति जो मखौल करते रहने का अभ्यस्त हो।
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मंग  : पुं० [सं०√मंग्+अच्] नाव का अगला भाग। गलही। स्त्री०=माँग (सीमान्त)। पुं० [देश०] आठ की संख्या। (दलाल) वि० आठ। (दलाल) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मग  : पुं० [√मंग् (गति)+अच्, पृषो० सिद्धि ?] १. मगह देश। मगध। २. मगध का निवासी। ३. एक प्रकार के शाकद्वीपी ब्राह्मण। ४. पिप्लीमूल। पीपल। पुं०=मार्ग (रास्ता)। (मुहा० के लिए दे० ‘बाट’ और ‘रास्ता’)।
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मगज  : पुं० [अ० मग्ज] १. दिमाग। मस्तिष्क। मुहा०—(किसी का) मगज खाना=बहुत बक-बक करके तंग करना। मगज खाली करना=बहुत बक-बक कर या परिश्रम करके मस्तिष्क थकाना। मगज खौलना=क्रोध के कारण दिमाग या मस्तिष्क खराब होना। मगज चलना या चल जाना=(क) उन्माद या पागलपन का रोग होना। (ख) अभिमान आदि से मत्त होना। २. फलों आदि के अन्दर की गिरी। जैसे—बादाम का मगज।
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मगज-चट  : पुं० [हिं० मगज+चाटज] बकवादी। बकनेवाला।
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मगज-पच्ची  : स्त्री० [हिं० मगज+पचाना] सिर खपाना। सिर-पच्ची।
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मगजी  : स्त्री० [देश०] कपड़े के किनारे पर लगी हुई पतली गोट।
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मगण  : पुं० [सं० ष० त०] कविता के आठ गणों में से एक जिसमें ३ गुरु वर्ण होते हैं। लिखने में इसका स्वरूप यह है,—ऽऽऽ।
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मंगता  : पुं० [हिं० माँगना+ता (प्रत्य०)] भिखमंगा। भिक्षुक। वि० जो प्रायः किसी न किसी से कुछ माँगता रहता हो।
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मगद  : पुं०=मगदल (मिठाई)।
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मगदर  : पुं०=मगदल।
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मगदल  : पुं० [सं० मुग्द] उड़द (मूँग) के रवों को भूनकर, फेंटकर तथा चीनी मिलाकर बनाया जानेवाला लड्डू।
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मगदा  : वि० [सं० मग+दा (प्रत्य०)] मार्ग-प्रदर्शक।
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मगदूर  : पुं०=मकदूर (शक्ति)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मगध  : पुं० [सं० मग√धा (धारण)+क] [वि० मागध] १. दक्षिणी बिहार का प्राचीन नाम। २. उक्त देश का निवासी। ३. दे० ‘मागघ’।
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मगधाधिप  : पुं० [सं० मगध-अधिप, ष त०] १. मगध का राजा। २. जरासंध।
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मगधेश  : पुं० [सं० मगध+ईश, ष० त०] मगध देश का राजा। जरासंध।
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मगधेश्वर  : पुं० [सं० मगध-ईश्वर, ष० त०] मगधेश।
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मंगन  : पुं०=मंगता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मगन  : वि० [सं० मग्न] १. डूबा हुआ। २. बहुत अधिक आनन्द या प्रसन्नता में लीन। ३. किसी काम या बात में पूती तरह से लीन। जैसे—इस समय वह अपने काम में मगन है। ४. रीझा हुआ। लट्टू। ५. बेहोश। मूर्च्छित। (क्व०)
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मगनना  : स० [सं० मग्न] १. मग्न या प्रसन्न करना। २. किसी को मग्न करके अपने में लीन या आत्मसात् करना। उदा०—अगनि न दहै पवनु नहिं मगनै तसकरु नेरि न आवै।—कबीर। अ० मग्न होना।
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मंगना  : पुं०=मंगता। सं०=माँगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मगना  : अ० [सं० मग्न] १. मगन या लीन होना। तन्मय होना। २. डूबना।
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मँगनी  : स्त्री० [हिं० माँगना+ई (प्रत्य०)] १. माँगने की क्रिया या भाव। पद—मंगनी का=(पदार्थ) जो किसी अवसर पर काम चलाने के लिए माँग कर किसी से लिया गया हो और फिर लौटाया जाने को हो। २. उक्त के आधार पर मँगनी की चीज। ३. वह रस्म जिसमें वर और कन्या का विवाह निश्चित या पक्का किया जाय। (पश्चिम)
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मगमा  : [देश०] देशी कागज बनाने में उसके लिए तैयार किए हुए गूदे को धेने की क्रिया।
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मगर  : पुं० [सं० मकर] १. घड़ियाल। २. मछली। ३. मगर या मछली के आकार का कान में पहनने का एक प्रकार का गहना। ४. नेपाल में बसी हुई एक जाति। पुं० [सं० मग] अराकान देश जहाँ मग नामक जाति के लोग रहते थे। उदा०—खसिया मगर जहाँ लगि मले।—जायसी। अव्य० [फा०] १. लेकिन। परन्तु। पर। जैसे —आप कहते तो हैं, मगर यहाँ सुनता कौन है। २. किसी प्रकार भी। (क्व०) उदा०—चैन तुझ बिन मुझे नहीं आता। नहीं आता, मगर नहीं आता।—कोई शायर। मुहा०—अगर-मगर करना=(क) आना-कानी करना। (ख) तर्क-वितर्क करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मगर-बँस  : पुं० [हिं० मगर ?+बाँस] एक प्रकार का काँटेदार बाँस जो पश्चिमी घाट में होता है।
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मगर-मच्छ  : पुं० [हिं० मगर+मछली] १. मगर या घड़ियाल नामक प्रसिद्ध जल-जन्तु। ३. बहुत बड़ी मछली।
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मगरधर  : पुं० [सं० मगर-धर] समुद्र। (डिं०)
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मगरब  : पुं० [अ०] पश्चिम दिशा। पद—मगरब की नमाज=वह नमाज जो सूर्य अस्त होने के समय पढ़ी जाती है।
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मगरा  : वि० [अ० मग़रूर] १. अभिमानी। घमंडी। २. ढीठ। धृष्ट। ३. ढीला। मट्ठर। सुस्त। ४. अकर्मण्य। ५. जिद्दी। हठी। ६. उद्दंड। उद्दत। ७. चुप्पा। घुन्ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मगरापन  : पुं० [हिं० मगरा+पन (प्रत्य०) ‘मगरा’ होने की अवस्था या भाव।
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मगरी  : स्त्री० [देश०] १. ढालुएँ छप्पर के बीच का या सबसे ऊँचा भाग। २. छप्पर के उक्त अंश या भाग पर रखी जानेवाली मोटी लकड़ी या शहतीर। ३. कोई मोटी औ बहुत लंबी लकड़ी। लाठ। ५. आसपास की भूमि से ऊँचा स्थान। ६. मूल की आकृति का एक प्रकार का कंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मगरूर  : वि० [अ०] [भाव० मगरूरी] जिसे गरूर हो। घमंडी। अभिमानी।
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मगरूरी  : स्त्री० [अ० मगरूर+ई (प्रत्य०)] १. मगरूर होने की अवस्था या भाव। २. घमंड। अभिमानी।
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मगरो  : पुं० [देश०] नदी का ऐसा किनारा जिसमें बालू के साथ कुछ मिट्टी मिली हो और जो जोतने-बोने के योग्य हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मगरोसन  : स्त्री० [अ० मग्ज+रौशन] सुँघनी। नसवार।
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मंगल  : वि० [सं०√मंग् (गति)+अलच्] १. सुख-सौभाग्य आदि देनेवाला। २. हर तरह से भला। शुभ। पुं० १. कोई ऐसा काम या बात जो हर तरह से अभीष्ट और शुभ हो तथा सुख-सौभाग्य देनेवाली हो। २. कल्याण। भलाई। हित। जैसे—इससे सबका मंगल होगा। ३. हमारे सौर जगत का एक ग्रह जिसका व्यास ४२॰॰ मील, सूर्य से दूरी १४१॰॰॰॰॰॰ मील और जमीन से दूरी ३५॰॰॰॰॰॰। यह सूर्य की परिक्रमा ६८७ दिनों में करता है। (मार्स) ४. उक्त ग्रह के नाम पर सात वारों में से एक वार जो सोमवार और बुधवार के बीच में पड़ता है। ५. विष्णु। ६. कोई शुभ अवसर, पदार्थ या लक्षण। ७. विवाह। जैसे—पार्वती-मंगल। मुहा०—मंगल गाना=(क) विवाह अथवा ऐसे ही दूसरे शुभ अवसरों पर मांगलिक गीत गाना। आनंद के गीत गाना। (ख) विफल होकर चुपचाप बैठना। (व्यंग्य) जैसे—अगर हमारीं बात नहीं मानते हो तो बैठकर मंगल गाओ। ८. अग्नि का एक नाम। ९. आज-कल सफेद रंग की एक कठोर धातु जिसका उपयोग शीशे के समान बनाने में होता है। (मैंगनीज़)
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मंगल-कलश  : पुं०=मंगल-घट।
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मंगल-काम  : वि० [सं० मंगल√काम्+णिङ्+अच्] मंगल चाहनेवाला। शुभ-चिंतक।
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मंगल-क्षौम  : पुं० [मध्य० स०] किसी मांगलिक अवसर पर पहना जानेवाला वस्त्र विशेषतः रेशमी वस्त्र।
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मंगल-गान  : पुं० [ष० त०] विवाह आदि मंगल अवसरों पर गाये जानेवाले गीत।
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मंगल-गीत  : पुं० [ष० त०]=मंगल-गान।
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मंगल-गौरी  : स्त्री० [कर्म० स०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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मंगल-घट  : पुं० [मध्य० स०] मंगल अवसरों पर पूजा के लिए अथवा यों ही रखा जानेवाला जल से भरा हुआ घड़ा।
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मंगल-चंडिका  : स्त्री० [कर्म० स०] दुर्गा का एक नाम।
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मंगल-चंडी  : स्त्री० [कर्म० स०] एक देवी।
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मंगल-तूर्य  : पुं० [मध्य० स०] शुभ अवसर पर बजाया जानेवाला बाजा।
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मंगल-पाठ  : पुं० [ष० त०] मंगलाचरण।
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मंगल-पाठक  : पुं० [ष० त०] वह जो राजाओं की स्तुति आदि करता हो। बंदीजन। भाट।
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मंगल-प्रद  : वि० [सं० मंगल+प्र√दा (देना)+क] मंगलकारक। शुभ।
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मंगल-प्रदा  : स्त्री० [सं० मंगलप्रद+टाप्] १. हलदी। २. शमी वृक्ष।
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मंगल-भाषण  : पुं० [ष० त०] किसी अप्रिय अथवा अशुभ बात को प्रिय तथा शुभ रूप में कहने का प्रकार।
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मंगल-भेरी  : स्त्री० [मध्य० स०] मांगलिक अवसरों, उत्सवों आदि के समय पर बजाया जानेवाला ढोल।
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मंगल-यात्रा  : स्त्री० [च० त०] १. मागलिक कार्य के लिए होनेवाली यात्रा। २. आनंद-मंगल या मन-बहलाव के लिए कहीं जाना।
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मंगल-वाद  : पुं० [ष० त०] आशीर्वाद। आशीष।
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मंगल-वाद्य  : पुं० [मध्य० स०] मांगलिक अवसरों पर बजाये जानेवाले बाजे।
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मंगल-वार  : पुं० [ष० त०] सप्ताह का तीसरा दिन। सोमवार और बुध-वार के बीच का दिन। भौमवार।
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मंगल-सूत्र  : पुं० [मध्य० स०] कलाई पर बाँधा जानेवाला डोरा या तागा।
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मंगल-स्नान  : पुं० [मध्य० स०] किसी मांगलिक अवसर पर किया जानेवाला स्नान।
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मंगलकारक  : वि० [सं० ष० त०] मंगल अर्थात् भलाई या हित करनेवाला।
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मंगलकारी  : स्त्री० [सं० मंगल√कृ (करना)+ट+ङीष्] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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मंगलकारी रिन्)  : वि० [सं० मंगल√कृ+णिनि, उप० स०]=मंगलकारक।
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मंगलच्छाय  : पुं० [ब० स०] बड़ का पेड़।
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मंगलना  : स० [सं० मंगल=शुभ] किसी शुभ अवसर पर अग्नि आदि जलाना। प्रज्वलित करना। (मंगल-भाषित) जैसे—दीया मंगलना, होली मंगलना। उदा० दे० ‘मंगारना’ में। अ० प्रज्वलित होना। जलना।
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मंगलमय  : वि० [सं० मंगल+मयट्] जिससे सब प्रकार का मंगल ही होता हो। पुं० परमेश्वर।
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मंगला  : स्त्री० [सं० मंगल+अच्+टाप्] १. पार्वती। २. पतिव्रता स्त्री। ३. तुलसी। ४. दूब। ५. एक प्रकार का करंज।
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मंगला-मुखी  : स्त्री० [हिं०] वेश्या। रंडी। (परिहास)
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मंगला-व्रत  : पुं० [सं० ष० त०] १. शिव। २. पार्वती को प्रसन्न करने के उद्देश्य से रखा जानेवाला व्रत।
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मंगलागुरु  : पुं० [सं० मंगल-अगुरु, कर्म० स०] एक तरह का अगर (गन्ध द्रव्य)।
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मंगलाचरण  : पुं० [सं० मंगल-आचरण, ष० त०] १. किसी का कार्य श्रीगणेश करने से पहले पढ़ा-जानेवाला कोई मांगलिक मंत्र, श्लोक या पद्यमय रचना। २. ग्रंथ के आरंभ में मंगल की कामना तथा उसकी सफल समाप्ति के निमित्त लिखा जानेवाला पद्य।
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मंगलाचार  : पुं० [मंगल-आचार, ष० त०] १. मंगल कृत्य के पहले होनेवाला मंगल-गान या ऐसा ही और कोई कार्य। २. मंगलाचरण।
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मंगलाय  : पुं० [दलाली मंग=आठ+आय (प्राप्त०)] अठारह की संख्या। (दलाल)
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मंगलारंभ  : पुं० [सं० मंगल-आरंभ, ष० त०] मांगलिक कार्य का आरंभ। श्रीगणेश।
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मंगलालय  : पुं० [सं० मंगल-आलय, ष० त०] परमेश्वर।
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मंगलाष्टक  : पुं० [सं० मंगल-अष्टक, ष० त०] वे मंत्र जिनका पाठ विवाह के समय वर-वधू के कल्याण की कामना से किया जाता है।
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मंगलाह्निक  : पुं० [सं० मंगल-आह्निक, मध्य० स०] कल्याण के लिए प्रति दिन किया जानेवाला कोई मंगल कृत्य।
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मंगली (लिन्)  : वि० [सं० मंगल+इनि] १. (व्यक्ति) जिसकी जन्म कुंडली के पहले, चौथे, आठवें या बारहवें घर में मंगल ग्रह पड़ा हो। विशेष—कहते हैं कि ऐसा वर जल्दी ही विधुर हो जाता है और ऐसी कन्या जल्दी ही विधवा हो जाती है। २. (कुंडली) जिसके चौथे आठवें या बारहवें घर में मंगल बैठा हो।
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मगली एरंड  : पुं० [देश० मगली+हिं० एरंड] रतनजोत। बागबेरंडा।
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मंगलीय  : वि० [सं० मंगल+छ—ईय] १. मंगलकारक। २. भाग्यवान्।
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मगलूब  : वि० [अ० मग्लूब] १. पराजित। परास्त। २. अधीन। ३. दबैल। कमजोर। पुं० फारसी संगीत के आधार पर चौबीस शोभाओं में से एक।
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मंगलोत्सव  : पुं० [सं० मंगल-उत्सव, मध्य० स०] मांगलिक अवसरों पर होनेवाला उत्सव।
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मंगल्य  : वि० [सं० मंगल+यत्] १. मंगल या कल्याण करनेवाला। मंगल कारक। २. मनोहर। ३. सुन्दर। ४. सीधा-सादा। साधु। पुं० १. त्रायमाणा लता। २. अश्वत्थ। पीपल। ३. बिल्व। बेल। ४. मसूर। ५. जीवक वृक्ष। ६. नारियल। ७. कपित्थ। कैथ। ८. रीठ। करंज। ९. दही। १॰. चंदन। ११. सोना। स्वर्ण। १२. सिंदूर।
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मंगल्य-कुसुमा  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] शंखपुष्पी।
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मंगल्या  : स्त्री० [सं० मंगल्य+टाप्] १. दुर्गा का एक नाम। २. एक प्रकार का अगरु जिसमें चमेली की सी गंध होती है। ३. शमी वृक्ष। ४. सफेद बच। ५. रोचना। ६. शंखपुष्पी। ७. जीवंती। ८. ऋद्धिनामक लता। ९. हलदी। १॰. दूब।
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मँगवाना  : स० [हिं० माँगना का प्रेङे०] १. माँगने का काम दूसरे से कराना। किसी को माँगने में प्रवृत्त करना। जैसे—तुम्हारे ये लक्षण तुमसे भीख मँगवा कर छोड़ेंगे। २. किसी से यह कहना कि अमुक स्थान से अमुक वस्तु खरीद या माँग लाओ। जैसे—बाजार से कपड़ा या मित्र के यहाँ से पुस्तक मँगवाना। संयो० क्रि०—देना।—रखना।—लेना।
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मगस  : पुं० [सं० मग] शकद्वीप की एक प्राचीन योद्धा जाति का नाम। पुं० [देश०] पेरे हुए ऊख की सीठी। खोई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मगसिर  : पुं० [सं० मार्गशीर्ष] अगहन मास।
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मगह  : पुं० [सं० मगध] मगध देश।
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मगहपति  : पुं० [सं० मगधपति] मगध देश का राजा, जरासंध।
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मगहय  : पुं० [सं० मगध] मगध देश।
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मगहर  : पुं० [सं० मगध] मगध देश।
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मगही  : वि० [सं० मगह+ई (प्रत्य०)] १. मगध-संबंधी। मगध देश का। पुं० मगध या बिहार के कुछ भागों में होनेवाला एक प्रकार का बढ़िया पान।
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मँगाना  : स० [हिं० माँगना का प्रे०] १. लड़के या लड़की की मँगनी का संबंध स्थिर कराना। विवाह की बातचीत पक्की कराना। २. दे० ‘मँगवाना’।
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मँगारना  : सं०=मंगलना। उदा०—बिरह अगारिनि मँगारि हिय होरी सी।—घनानंद। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मगारिबी  : वि० [अ०] पश्चिम दिशा का। पश्चिमी।
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मँगियाना  : स० [हिं० माँग=सीमन्त] १. सिर के बालों में इस प्रकार कंघी करना कि जिससे मांग निकल आवे। २. अलग या विभक्त करना।
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मगु  : पुं० [सं० मार्ग] मग। मार्ग। पथ।
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मँगुरी  : स्त्री [?] एक प्रकार की छोटी मछली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंगेतर  : वि० [हिं० मँगनी+एतर (प्रत्य०)] १. (युवक या युवती) जिसकी मँगनी हो चुकी हो। २. (वह) जिसके साथ किसी की मँगनी हुई हो, अथवा विवाह होना निश्चित हुआ हो।
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मगोर  : स्त्री० [देश०] सींगी की तरह की एक प्रकार की मछली जो बिना छिलके की और कुछ लाली लिए हुए काले रंग की होती है। मंगुर।
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मँगोल  : पुं० [मंगोलिया प्रदेश से] मध्य एशिया और उसके पूरब की ओर (तातार, चीन, जापान में) बसने वाली एक जाति जिसका रंग पीला, नाक चिपटी और चेहरा चौड़ा होता है।
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मग्ग  : पुं० [सं० मार्ग] राह। रास्ता।
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मग्ज  : पुं० [अ०] १. मस्तिष्क। दिमाग। २. अक्ल। बुद्धि। ३. कुछ विशिष्ट फलों के अन्दर का कड़ा गूदा। गिरी। (मुहा० के लिए दे० ‘मगज’] मग्ज-रोगन
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मग्न  : वि० [सं०√मस्ज् (शुद्धि)+क्त] १. डूबा हुआ। २. किसी काम या बात में तन्मय। लीन। ३. खूब प्रसन्न। ४. नशे में चूर। मदमस्त। ५. नीचे की ओर झुका या दबा हुआ। जैसे—मग्न नासिका, मग्न स्तन। पुं० एक प्राचीन पर्वत।
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मग्नांशुक  : पुं० [सं० मग्न-अंशुक, कर्म० स०] १. ऐसा महीन कपड़ा जो गीला होने पर शरीर से चिपक जाता हो तथा जिसमें से शरीर के विभिन्न अंग साफ-साफ दिखाई पड़ते हों। २. चित्रकला में, वह अवस्था या चित्रण जिसमें गीला वस्त्र शरीर से चिपके हुए दिखाये जाते हैं। (वेट ड्रैपरी)
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मघई  : वि०, पुं०=मगही (पान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मघधा  : स्त्री० [सं० मगध+अच्+टाप्] पिप्पली।
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मघुर-फल  : पुं० [ब० स०] १. बौर का वृक्ष। बेर। २. तरबूज।
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मंच  : पुं० [सं०√मंच् (उच्च होना)+घञ्] १. खाट। खटिया। २. खाट की तरह बुनी हुई बैठने की छोटी पीढ़ी। मँचिया। ३. सभा-समितियों आदि में ऊँचा बना हुआ मंडल जिस पर बैठकर सर्व साधारण के सामने किसी प्रकार का कार्य किया जाय। (स्टेज) ४. रंगमंच। (स्टेज) ५. लाक्षणिक अर्थ में, कुछ विशिष्ट प्रकार के क्रिया-कलापों के लिए उपयुक्त क्षेत्र। जैसे—राजनीतिक मंच।
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मंच-मंडप  : पुं० [सं० उपमि० स०] मचान। (दे०)
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मंचक  : पुं० [सं० मंच+कन्]=मंच।
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मचक  : स्त्री० [हिं० मचकना] मचकने की क्रिया या भाव।
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मचकना  : अ० [मच मच से अनु०] मच-मच शब्द उत्पन्न होना। स० १. मच मच शब्द उत्पन्न करना। मचकाना। २. इस प्रकार दबाना कि मच-मच शब्द हो।
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मचका  : पुं० [हिं० मचकना] [स्त्री० अल्पा० मचकी] १. झोंका। २. धक्का। ३. झूले की पेंग।
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मचकाना  : स० [हिं० मचकना का स०] १. मच मच शब्द उत्पन्न करना। २. किसी को दबाते हुए मच मच शब्द करने में प्रवृत्त करना।
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मंचकाश्रय  : पुं० [सं० मंचक-आश्रय ब० स०] खटमल।
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मचकी  : स्त्री० [हिं० मचकना] छोटा झूला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मचक्रुक  : पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक यक्ष का नाम। २. कुरुक्षेत्र के समीप स्थिति एक प्राचीन तीर्थ।
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मंचन  : पुं० [सं० मंच से] [भू० कृ० स०] खटमल।
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मंचन  : पुं० [सं० मंच से] [भू० कृ० मंचित] किसी नाटक या रूपक का रंगमंच पर अभिनय करना या होना। जैसे—कई स्थानों पर इस नाटक का मंचन भी हो चुका है।
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मचना  : अ० [अनु०] १. जोरों से या धूमधाम से आरम्भ होना। जैसे—फाग या होली मचना। २. चारों ओर फैलना। छा जाना। जैसे—किसी बात की धूम मचना। स० मचकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मचमचहाट  : स्त्री० [हिं० मचमचाना+आहट (प्रत्य०)] १. मचमचाने की क्रिया या भाव। २. काम-वासना का बहुत अधिक आवेश।
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मचमचाना  : अ० [अनु०] काम-वासना के प्रबल आवेग में होना। बहुत अधिक कामातुर होना। स० इस प्रकार दबाना कि मच मच शब्द होने लगे। जैसे—कुरसी या पलंग मचमचाना।
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मचमची  : स्त्री०=मचमचाहट।
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मचल  : स्त्री० [हिं० मचलना] १. मचलने की क्रिया या भाव। २. मचलापन।
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मचलन  : स्त्री०=मचल।
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मचलना  : अ० [अनु०] १. किसी चीज की प्राप्ति के लिए मन का आतुर या उद्विग्न होना। २. प्रायः बच्चों का कोई चीज पाने या लेने के लिए आतुरता प्रदर्शित करते हुए हठ करना। संयो० क्रि०——जाना।—पड़ना। अ०=मचलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मचला  : वि० [हिं० मचलना, पं० मचला] १. मचलनेवाला। २. जो काम करने या बोलने के अवसर पर भी जान-बूझकर चुप रहे। जानबूझकर अनजान बननेवाला।
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मचलापन  : पुं० [हिं० मचला+पन (प्रत्य०)] १. किसी को चिढ़ाने या स्वयं दोषी बनने से बचने के लिए चुप रहने की अवस्था या भाव। २. दे० ‘मचल’।
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मचली  : स्त्री०=मितली (वमन का प्रवृत्ति)।
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मचवा  : पुं० [सं० मंच] १. खटिया या चौकी का पावा। २. नाव। दे० ‘मचिया’।
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मचान  : स्त्री० [सं० मंच+हिं० आन (प्रत्य०)] १. बाँसों, लट्ठों आदि के सहारे बनाया हुआ वह ऊँचा आसन जिसपर बैठकर शिकारी शिकार खेलते या कृषक खेतों की रखवाली करते हैं। २. ऊँची बैठक। मंच। ३. दीयट।
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मचाना  : स० [हिं० मचना का स०] १. आरंभ करना। जारी करना। २. चारों ओर फैलाना। स० [?] गंदा करना।
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मचामच  : स्त्री० [अनु०] किसी पदार्थ को दबाने से होनेवाला मचमच शब्द। हुमचने का शब्द।
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मंचिका  : स्त्री० [सं० मंचक+टाप्, इत्व] मचिया।
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मचिया  : स्त्री० [सं० मंच+इया (प्रत्य०)] १. छोटी खाट। २. बैठने की पीढ़ी।
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मचिलई  : स्त्री०=मचलापन।
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मंची  : स्त्री० [सं० मंच] खड़े बल से लगाई हुई लकड़ियों, खंभों आदि की वह रचना जिसके आधार पर कोई भारी चीज ठहराई या रखी जाती है। (पेडेस्टल)
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मचुला  : पुं० [देश०] गिरगिट्टी नामक वृक्ष जो प्रायः बागों में शोभा के लिए लगाया जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मचेरी  : स्त्री० [देश०] बैलों के जुए के नीचे की लकड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मचैग  : स्त्री०=मचान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मचोर  : स्त्री० [?] हिलने-डुलने के कारण लगनेवाला धक्का। हिचकोला। (बुन्देल) उदा०—बैलगाड़ी पर जब मचोरें बदन को सहलाती हुई जावेंगी तब बैकुण्ठ नजर आवेगा।—वृन्दावनलाल वर्मा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मचोला  : पुं० [देश०] बंगाल की दलदलों में होनेवाला एक प्रकार का पौधा जिससे सुहागा बनता है।
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मच्छ  : पुं० [सं० मत्स्य; प्रा० मच्छ] १. बहुत बड़ी मछली। मतस्य। २. दोहे का एक भेद जिसमें ७ गुरु और ३४ लघु मात्राएँ होती हैं। ३. रहस्य संप्रदाय में मन, जो सद्वृत्तियों को खा जाता है।
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मच्छ-असवारी  : पुं० [हिं० मच्छ+सवारी] कामदेव। मदन। (डिं०)
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मच्छ-घातिनी  : स्त्री० [हिं० मच्छ+सं० घातिनी] मछली फँसाने की लग्घी। बंसी।
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मच्छड़  : पुं० [सं० मशक] हवा में उड़नेवाला एक प्रसिद्ध छोटा कीड़ा जो भन भन करता रहता है। इसकी मादा काटती और खून चूसती है। पद—मच्छड़ की ईल=बहुत ही तुच्छ और हास्यपद वस्तु। वि० कृष्ण या। कंजूस।
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मच्छर  : पुं० [सं० मत्सर] १. डाह या द्वेष। मत्सर। २. क्रोध। गुस्सा। [डिं०) पुं०=मच्छड़।
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मच्छरता  : स्त्री० [सं० मत्सर+ता (प्रत्य०)] मत्सर। ईर्ष्या। द्वेष।
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मच्छरदानी  : स्त्री० [हिं० मच्छर-फा० दानी] मसहरी। (दे०)
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मच्छा  : पुं०=मच्छ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मच्छी  : स्त्री० १. दे० मछली। २. दे० ‘मक्खी’।
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मच्छी-काँटा  : पुं० [हिं० मच्छी+काँटा] १. ऐसी सिलाई जिसमें जोड़े जानेवाले कपड़े के टुकड़ों के बीच में जाली सी बन जाती है। २. कालीन में होनेवाली एक विशेष प्रकार की बुनावट।
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मच्छीमार  : पुं० [हिं० मच्छी+मार (प्रत्य)] मच्छुआ।
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मच्छोदरी  : स्त्री० [सं० मत्स्योदरी] व्यास जी की माता और शांतनु की भार्या, सत्यवती।
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मछ  : पुं०=मच्छ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मछंदर  : पुं० [सं० मत्येन्द्र] १. सुप्रसिद्ध योगी मत्स्येन्द्रनाथ। २. बहुत बड़ा मूर्ख और दुष्ट व्यक्ति। पुं०=मुंछदर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मछरंगा  : पुं० [हिं० मच्छ=मछली] मछली पकड़कर खानेवाला एक जल-पक्षी। राम-चिड़िया।
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मछरंझा  : पुं०=मछरंगा।
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मछरिया  : स्त्री० [सं० मत्स्य] १. एक प्रकार की बुलबुल। २. मछली।
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मछली  : स्त्री० [सं० मत्स्य; प्रा० मच्छ] १. सदा जल में रहने और अंडों से उत्पन्न होनेवाले जीवों का एक प्रसिद्ध और बहुत बड़ा वर्ग जिनमें फेफड़ों के स्थान पर गलफड़े होते हैं और जो पानी से बाहर निकालने पर प्रायः जल्दी मर जाते हैं। विशेष—अधिकतर मछलियों के शरीर में दोनों ओर पंख के समान अंग होते हैं, जिनसे वे जल में खूब तैर सकती हैं। इनकी अधिकतर जातियों का मांस सारे संसार में खाया जाता है। कुछ मछलियों की चरबी या तेल भी बहुत से कामों में आता है। पद—मछली का मोती=एक प्रकार का कल्पित मोती जिसके विषय में कहा जाता है कि यह मछली के पेट से निकलता है। २. मछली के आकार का बना हुआ सोने, चाँदी आदि का लटकन जो प्रायः कुछ गहनों में लगाया जाता है। ३. उक्त आकार-प्रकार की कोई रचना। ४. पुष्ट बाहों में दिखाई पड़नेवाला मांसल पेशियों का उभार। जैसे—उनकी बाँहों में मछलियाँ पड़ती थीं। क्रि० प्र०—पड़ना।
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मछली का दाँत  : पुं० [हिं०] गँडे के आकार के एक पशु का दाँत जो प्रायः हाथी दाँतक के समान होता है और उसी नाम से बिकता है।
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मछली की स्याही  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार का काला रोगन जो नकशे आदि बनाने के काम में आता है।
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मछली-गोता  : पुं० [हिं० मछली+गोता] कुश्ती का एक पेंच।
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मछली-डंड  : पुं० [हिं० मछली+डंड] एक प्रकार का डंड। (कसरत)
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मछलीदार  : पुं० [हिं० मछली+दार (प्रत्य०)] दरी की एक प्रकार की बुनावट। वि० जिसमें मछली के आकार-प्रकार की कोई रचना बना या लगी हो।
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मछलीमार  : पुं० [हिं० मछली+मार (प्रत्य०)] मछु्रआ।
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मछवा  : पुं० [हिं० मछली] १. वह नाव जिसपर बैठकर मछली का शिकार करते हैं। (लश०) २. मछुआ।
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मँछु  : पुं० [सं० मच्छ] मछली। उदा०—चेला मंछु, गुरु जर काछू।—जायसी।
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मछु्आ  : पुं० [हिं० मछ-उआ (प्रत्य०)] मछलियों का शिकार करनेवाला व्यक्ति। मछलियाँ पकड़ तथा बेचकर जीविका अर्जित करनेवाला व्यक्ति।
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मछेह  : पुं० [देश०] शहद की मक्खी का छत्ता।
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मजकूरात  : पुं० [फा० मज़्कूर] कहा हुआ कथित।
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मजकूरात  : पुं० [फा० मजकूरा] मध्य-युग में कुछ लोगों के सम्मिलित खेतों का वह लगान जिसका कुछ अंश गाँव के सार्वजनिक कार्यों में लगता था।
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मजकूरी  : पुं० [फा० मज़्कूरी] १. ताल्लुकेदार। २. चपरासी। ३. वह चपरासी या नौकर जिसे वेतन न मिलता हो और जो नौकरी पाने की आशा में ही काम करने लगा हो। ४. वह जमीन जिसका बँटवारा न हो सके और जो जन-साधारण के लिए छोड़ दी गयी हो।
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मजजूब  : पुं० [अ० ज़्जूब] बावलों की तरह ब्राह्म में लीन फकीर।
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मजदूर  : पुं० [फा० मज़्दूर] [स्त्री० मजदूरनी, मजदूरिन] १. वह व्यक्ति जो भाड़े पर शारीरिक परिश्रम संबंध कार्य करता हो। २. शारीरिक श्रम के द्वारा जीविका कमानेवाला कोई व्यक्ति। जैसे—इमारत बनाने, कल कारखानों में काम करनेवाले अथवा बोझ ढोनेवाला मजदूर।
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मजदूरी  : स्त्री० [फा० मज़्दूरी] १. मजदूर का काम। २. भाड़े या वेतन के रूप में दिया जानेवाला वह धन जो नियोक्ता मजदूर को उसके परिश्रम के बदले में देता है।
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मंजन  : पुं० [सं०√मंज् (चमकना)+ल्युट्—अन] वह बुकनी या चूर्ण जो दाँतों पर उँगली आदि से मला तथा रगड़ा जाता है। दाँत साफ करने का चूर्ण। पुं० =मज्जन (स्नान करना)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मज़न  : पुं०=मज्जन। पुं०=मार्जन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मँजना  : अ० [सं० मज्जन] १. (दाँतों का) मंजन से साफ किया जाना। २. (बरतनों के संबंध में) राखी आदि से माँजा तथा साफ किया जाना। ३. किसी काम या बात का, अभ्यास के कारण ठीक तरह से संपन्न या पूरा होना। जैसे—(क) लिखने में हाथ मँजना। (ख) मँजी हुई कविता पढ़ना।
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मजना  : अ० [सं० मज्जन] १. डूबना। निमज्जित होना। २. अनुरक्त होना। अ०=मँजना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मजनूँ  : वि० [अ० मज्नूँ] जिसे जनून या उन्माद हुआ हो। पागल। विक्षिप्त। पुं० १. अरब देश का एक प्रसिद्ध प्रेमी जिसका वास्तविक नाम कैसा था और जो लैला के प्रेम में पागल हो गया था। २. पागलों की तरह आचरण करनेवाला प्रेमी। दुबला-पतला या कमजोर व्यक्ति। (व्यंग्य) ४. बेद मजनू नामक वृक्ष।
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मजबह  : पुं० [अ० मज़्बह] वधस्थल]
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मज़बूत  : वि० [अ० मज़्बूत] [भाव० मजबूती] १. बनावट, रचना आदि के विचार से जो दृढ़ तथा पुख़्ता हो। २. जो अच्छी तरह या दृढ़तापूर्वक अपने स्थान पर जमा बैठा या लगा हो। ३. (व्यक्ति) जो शारीरिक दृष्टि से तगड़ा और हृष्ट-पुष्ट हो। शक्तिशाली।
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मजबूती  : स्त्री० [अ० मज़्बूती] १. मजबूत होने की अवस्था या भाव। दृढ़ता। पक्कापन। २. ताकत। बल। शक्ति। साहस। हिम्मत।
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मजबून  : पुं०=मजमून।
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मजबूर  : वि० [अ० मज़्बूर] १. जिस पर जब्र किया गया हो फलतः बाध्य। २. जिसका कुछ भी वश न चल रहा हो। विवश तथा निःसहाय।
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मजबूरन  : अव्य० [अ० मज्बूरन] मजबूर होने की या किये जाने पर। विवशतापूर्वक।
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मजबूरी  : स्त्री० [अ० मजबूर+ई (प्रत्य०)] १. मजबूर होने की अवस्था या भाव। लाचारी। विवशता। २. निःसहायता।
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मजमा  : पुं० [मज्मूअः] १. भीड़भाड़। २. तमाशबीनों का समूह।
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मजमुआ  : वि० [अ० मज्मूअ] १. एकत्र किया हुआ। संगृहीत। २. बहुतों को मिलाकर एक किया हुआ। पुं० १. किसी की समस्त कृतियों का एक स्थान पर किया हुआ संग्रह। २. खजाना। ३. जखीरा। ३. एक तरह का इत्र जिसमें कई तरह के इत्र मिले होते हैं।
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मजमूई  : वि० [अ०] इकट्ठा किया हुआ। सामूहिक।
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मजमून  : पुं० [अ० मजमून] कोई ऐसी बात जिस पर कुछ कहा, लिखा या सोचा-समझा जाय, अथवा कुछ कहा, लिखा या सोचा-समझा गया हो। विषय। मुहा०—मजमून तराशना=कोई विलक्षण बात या विषय अपनी कल्पना के बल से प्रस्तुत करना। मजमून बाँधना=कोई विषय अथवा नवीन विचार गठे हुए रू में गद्य या पद्य में लिखना। मजमून मिलना या लड़ना=दो अलग-अलग लेखकों का कवियों के वर्णित विषयों या भावों का संयोग से एक तरह का होना या आपस में मिल जाना।
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मजमूम  : वि० [अ० मज़्मूम] १. जिसकी मजम्मत या निन्दा की गई हो। निंदित। बुरा। खराब। २. अश्लील।
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मजम्मत  : स्भी० [अ०] १. निंदा। मज़म्मत। २. तिरस्कार।
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मंजर  : पुं० [सं० √मंज्+अर्] १. फूलों का गुच्छा। २. मोती। ३. तिलक वृक्ष।
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मंजरि  : स्त्री०=मंजरी।
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मंजरिका  : स्त्री०=मंजरी।
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मंजरित  : भू० कृ० [सं० मंजर+इतच्] १. मंजरियों से युक्त। २. पुष्पित।
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मंजरी  : स्त्री० [सं० मंजर+ङीष्] १. नया कल्ला। कोंपल। २. कुछ विशिष्ट पौधों के सींके में लगे हुए बहुत से दानों का समूह। जैसे—आम या तुलसी की मंजरी। ३. तुलसी। ४. तिलक वृक्ष। ५. मोती। ६. वाम नाम छंद का दूसरा नाम। ७. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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मज़री  : स्त्री० [देश०] एक तरह का झाड़।
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मंजरी-चामर  : पुं० [मध्य० स० या उपमि० स०] फलों की मंजरी से बना हुआ या उसकी तरह बना हुआ चामर।
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मंजरीक  : पुं० [सं० मंजरी+कन्] १. एक तरह का सुगंधित तुलसी का पौधा। २. मोती। ३. तिल का पौधा। ४. बेंत। ५. अशोक वृक्ष।
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मज़रूआ  : वि० [अ० मज़ूअः] जोता और बोया हुआ। पुं० जोता बोया हुआ खेत।
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मजरूब  : वि० [अ० मज़्रूब] जिस पर जरब या चोट लगाई गई हो। जिस पर आघात किया गया हो।
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मजरूह  : वि० [अ० मज़्रूह] १. चोट खाया हुआ। आहत। घायल। जख्मी। २. (बयान) जो जिरह में बिगड़ गया हो।
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मजल  : स्त्री०=मंजिल।
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मजलिस  : स्त्री० [अ० मज्लिस] [वि० मजलिसी] १. बहुत से लोगों के बैठने की जगह। २. किसी विशेष उद्देश्य से एक साथ बैठे हुए बहुत से लोगों का समाज। जैसे—गाने-बजाने की मजलिस। ३. सभा-समिति आदि का अधिवेशन। ४. सभा। क्रि० प्र०—जमना—बैठना।—लगना।
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मजलिसी  : वि० [अ० मज़्लिसी] १. मजलिस-संबंधी। मजलिस का। २. जो किसी मजलिस में सम्मिलित हो। ३. जो मजलिस के लिए उपयुक्त हो। मजलिस के योग्य। पुं० वह जिसे किसी मजलिस में आमंत्रित किया गया हो।
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मज़लूम  : पुं० [अ० मज़्हब] [वि० मजहबी] १. धार्मिक सम्प्रदाय। पंथ। मत। २. धर्म। उदा०—मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।—इकबाल।
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मजहबी  : वि० [अ० मज़्हबी] १. किसी मज़हब या धार्मिक संप्रदाय से संबंध रखनेवाला अथवा उसमें होनेवाला। २. धार्मिक। पुं० सिक्खों का एक वर्ग या सम्प्रदाय जिसमें अधिकतर चमार, मेहतर आदि हैं।
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मजहूल  : वि० [अ० मज्हूल] १. अज्ञात। नामालूम। २. सुस्त। निकम्मा। ३. थका हुआ। शिथिल।
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मजा  : पुं० [फा० मज़ः] १. किसी काम विशेषतः किसी चीज के भोग करने पर होनेवाली वह तृप्ति जिसमें मन और शरीर दोनों आनंद से भर उठते हैं। जैसे—(क) आज खेल में मजा था। (ख) हमने देहात का मजा पा लिया है। क्रि० प्र०—आना।—देखना।—मिलना।—लेना। पद—मजे में=(क) अच्छी तरह और सन्तोषजनक रूप में। जैसे—कलकत्ते में वह मजे में है। (ख) अच्छे और ठीक ढंग या प्रकार से। जैसे—अब तो लड़का मजे में अंगरेजी बोलने लगा है। मुहा०—मजा आ जाना या आना=ऐसी स्थिति उत्पन्न होना जिससे लोगों का यथेष्ट मनोरंजन हो अथवा वे विशिष्ट रूप से प्रसन्न हों। जैसे—आज तो इन लोगों की बातचीत (या नाच-गाने) में मजा आ गया। मजा (या मजे) उड़ाना=मनमाने ढंग से यथेष्ट आनंद और सुख भोग करना। मजा किरकिरा होना=सुखप्रद स्थिति में किसी प्रकार की बाधा या विघ्न होना। (किसी को मजा) चखाना या दिखाना=किसी को ऐसी स्थिति में लाना कि वह अपने किये हुए किसी काम का अच्छी तरह फल भोगे और दुःखी होकर पछताने लगे। मजा=लूटना= दे० ऊपर ‘मजा उड़ाना’। २. खाने पीने की चीजों से मिलनेवाला प्रिय स्वाद। जायका रस। मुहा०—किसी चीज या बात का मजा पड़ना=रस या सुख मिलने पर किसी चीज या बात का चसका लगना। ३. किसी चीज या बात की ऐसी स्थिति जिसमें वह परिपक्व होकर यथेष्ट आनंद या सुख देने के योग्य हो जाय। मुहा०—(किसी चीज का) मज़े पर आना=अच्छी तरह परिपक्व होकर पूर्ण रूप से सुखद होना। (किसी व्यक्ति का) मजे पर आना=ऐसी स्थिति में आना या होना कि मनमाना आचरण व्यवहार करके आनंद या सुख प्राप्त कर सके। ४. बातचीत आदि की ऐसी स्थिति जिससे लोगों का विशेष मनोरंजन होता या उन्हें सुख मिलता हो। जैसे—मजा तो तब हो जब आप भी उन लोगों के साथ पकड़े जायँ।
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मंजाई  : स्त्री० [हिं० माँजना] १. माँजे जाने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. माँजने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक।
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मजाक  : पुं० [अ० मज़ाक] १. हँसी-ठट्ठा। परिहास। मुहा०—(किसी का) मजाक उड़ाना=किसी को तुच्छ सिद्ध करने के लिए हँसी की बातें कहकर उपहासास्पद बनाना। उपहास करना। (किसी काम को) मजाक समझना=हँसी-खेल या खेलवाड़ समझना। पद—मजाक में=किसी विशिष्ट विचार से नहीं, बल्कि परिहास में या यों ही। २. किसी बात या विषय में होनेवाली स्वाभाविक प्रवृत्ति या रुचि।
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मजाकन  : अ० [अव्य० मज़ाकन] मज़ाक या परिहास के रूप में। हँसी के तौर पर।
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मजाकिया  : वि० [अ० मज़ाकियः] १. मजाक या परिहास से सम्बन्ध रखनेवाला। जैसे—मज़ाकिया मज़मून, मजाकिया शायरी। २. (व्यक्ति) जो बहुत अधिक या प्रायः मजाक करता रहता हो। मज़ाक-पसंद। क्रि० वि०=मज़ाकन।
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मजाज  : वि० [अ० मज़ाज] १. अवास्तविक। कल्पित या मिथ्या। २. अधिकार-प्राप्त पुं०=मिजाज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मजाजन  : अव्य० [अ० मजाज़न] १. अधिकारिक रूप से। १. नियम, विधि आदि के अनुसार। ३. काल्पनिक रूप में। ४. लाक्षणिक रूप में।
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मजाजी  : वि० [अ० मजाज़ी] १. अवास्तविक। कल्पित या मिथ्या। २. कृत्रिम। बनावटी। ३. सांसारिक। लौकिक।
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मंजाना  : स० [हिं० माँजना का प्रे०] १. किसी को माँजने में प्रवृत्त कला। २. अच्छी तरह साफ कराना। ३. अच्छी तरह अभ्यास कराना। जैसे—लिखने में लड़के का हाथ मँजाना।
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मँजार  : स्त्री० [सं० मार्जार] बिल्ली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मजार  : पुं० [अ० मजार] १. कोई दर्शनीय स्थल। २. विशेषतः किसी पीर, फकीर या महापुरुष की कब्र।
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मंजारी  : स्त्री० [सं० मार्जार] बिल्ली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मजारी  : स्त्री० [सं० मार्जार] बिल्ली। बिड़ाल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मजाल  : स्त्री० [अ० मजाल] शक्तिमत्ता। सामर्थ्य। जैसे—उसकी क्या मजाल है कि मेरे सामने बोले। (प्रायः नहिक प्रसंगों में प्रयुक्त)
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मँजावट  : स्त्री० [हिं० मँजना] १. माँजने या मँजने की अवस्था, क्रिया, ढंग या भाव। २. कोई काम करने में हाथ के मँजे हुए या अभ्यस्त होने की अवस्था या भाव।
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मंजि  : स्त्री० [सं०√मंज्+इन्] १. मंजरी। २. लता।
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मंजि-फला  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] केला।
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मंजिका  : स्त्री०√मंज्+ण्वुल्—अक्-टाप्, इत्व] वेश्या। रंडी।
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मंजिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० मंजु+इमानिच्] सुंदरता। मनोहरता।
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मंजिल  : स्त्री० [अ० मंजिल] १. यात्रा के मार्ग में बीच-बीच में यात्रियों के ठहरने के लिए बने हुए नियत स्थान। पड़ाव। मुहा०—मंजिल काटना=एक पड़ाव से चलकर दूसरे पड़ाव तक का रास्ता पार करना। मंजिल देना=कोई बड़ी या भारी चीज उठाकर ले चलने के समय रास्ते में सुस्ताने के लिए उसे कहीं उतारना या रखना। मंजिल मारना=(क) बहुत दूर से चलकर कहीं पहुँचना। (ख) कोई बहुत बड़ा काम या उसका कोई विशिष्ट अंश पूरा करना। २. वह स्थान जहाँ तक पहुँचना हो। अभीष्ट, उद्दिष्ट या नियत स्थान अथवा स्थिति। ३. ऊपर-नीचे बने हुए होने के विचार से मकान का खंड। मरातिब। जैसे—(क) दो (या तीन) मंजिल का मकान। (ख) तीसरी मंजिल की छत।
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मंज़िल  : स्त्री०=मंजिल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मंजिष्ठा  : स्त्री० [सं० मंजिमती+इष्ठन्, टि-लोप,+टाप्] मंजीठ नामक पेड़ और उसका फल।
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मंजिष्ठा-मेह  : पुं० [उपमि० स०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का प्रमेह जिसमें मंजीठ के पानी के समान मूत्र होता है।
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मंजिष्ठा-राग  : पुं० [ष० त०] १. मंजीठ का रंग। २. [उपमि० स०] पक्का या स्थायी अनुराग अथवा प्रेम।
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मजिस्टर  : पुं०=मजिस्ट्रेट।
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मजिस्ट्रेट  : पुं० [अं०] फौज़दारी अदालत का अफसर।
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मजिस्ट्रेटी  : स्त्री० [अं० मजिस्ट्रेट+ई (प्रत्य०)] १. मजिस्ट्रेट होने की अवस्था या भाव। २. मजिस्ट्रेट का कार्य या पद। ३. मजिस्ट्रेट की अदालत।
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मंजी  : स्त्री०=मंजरी। स्त्री० दे० ‘खाट’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मजीठ  : स्त्री० [सं० मंजिष्ठा] एक लता जिसके छोटे गोल फलों से लाल या गुलनार रंग तैयार किया जाता है।
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मजीठी  : वि० [हिं० मजीठ] मजीठ के रंग का। लाल। सुर्ख। पुं० उक्त प्रकार का रंग। स्त्री० दे० ‘मजेठी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मजीद  : वि० [अ० मज़ीद] १. जितना आवश्यक या उचित हो, उससे अधिक। ज्यादा। १. और भी।
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मंजीर  : पुं० [सं०√मंज्+ईरन्] १. नूपुर। घुँघरू। २. वह खंभा या लकड़ी जिसमें मथानी का डंडा बंधा रहता है। ३. पश्चिमी बंगाल की एक पहाड़ी जाति।
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मजीर  : स्त्री० [सं० मंजरी] मंजरी।
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मजीरा  : पुं० [सं० मंजीर] जोड़ी या ताल नाम का बाजा।
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मँजीरा, मंजीरा  : पुं० [सं० मंजीर] १. काँसे, पीतल आदि का बना हुआ एक प्रकार का बाजा जो दो छोटी कटोरियों के रूप में होता है, और जिसमें की एक कटोरी से दूसरी कटोरी पर आघात करके संगीत के समय ताल देते हैं। जोड़ी।
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मंजु  : वि० [सं० √मंज्+कु] सुंदर। मनोहर।
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मंजु मालिनी  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] मालिनी छंद का दूसरा नाम।
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मंजु-गर्त्त  : पुं० [स० ब० स०] नेपाल।
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मंजु-घोष  : पुं० [सं० ब० स०] १. तांत्रिकों के एक देवता का नाम। २. एक बौद्ध आचार्य। वि० मधुर ध्वनि में बोलनेवाला।
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मंजु-घोषा  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] एक अप्सरा का नाम।
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मंजु-तिलका  : स्त्री० [सं०] हंस-गति नामक मात्रिक छंद का दूसरा नाम।
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मंजु-पाठक  : पुं० [सं० कर्म० स०] तोता।
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मंजु-प्राण  : पुं० [सं० ब० स०] ब्रह्मा।
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मंजु-भद्र  : पुं०=मंजुघोष (आचार्य)।
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मंजुदेव  : पुं०=मंजुघोष (आचार्य)।
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मंजुनाशी  : स्त्री० [सं०] १. दुर्गा का एक नाम। ३. इंद्राणी का एक नाम। ३. सुंदर स्त्री।
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मंजुभाषी  : वि० [सं० मंजु√भाष् (बोलना)+णिनि] [स्त्री० मंजुभाषिणी] मधुर और प्रिय बातें करनेवाला।
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मंजुल  : वि० [सं० मंजु+लच्] सुन्दर। मनोहर। पं० १. जलाशय या नदी का किनारा। २. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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मंजुला  : स्त्री० [सं० मंजुल+टाप्] एक नदी का नाम।
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मंजुश्री  : पुं०=मंजुघोष (आचार्य)।
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मजूकर  : वि० [फा० मजूकर] कहा हुआ। कथित।
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मंजूर  : वि० [अ० मंजूर] जो मान लिया गया हो। स्वीकृत। जैसे—अरजी या छुट्टी मंजूर होना। पुं०=मयूर (मोर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मजूर  : पुं०=मयूर (मोर)। पुं०=मजदूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मजूरा  : पुं०=मजदूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंजूरी  : स्त्री० [अ० मंजूरी] मंजूर होने की अवस्था, क्रिया या भाव। स्वीकृति।
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मंजूषा  : स्त्री० [सं०√मस्ज-ऊषन्, नुम्] १. छोटा पिटारा या डिब्बा। पिटारी। २. पत्थर। ३. मंजीठ। ४. पक्षियों का पिंजरा। ५. हाथी का हौदा।
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मंजूसा  : स्त्री०=मंजूषा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मजूसा  : स्त्री०=मंजूषा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मजेज  : वि० [फा० मिज़ाज] दर्प। अहंकार।
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मजेजवंत  : वि० [हिं० मजेज+वंत (प्रत्य०)] दिमागवाला। अभिमानी।
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मजेठी  : स्त्री० [सं० मध्य] १. सूत कातने के चरखे में वह लकड़ी जो नीचे से उन दोनों डंडों को जोड़े रहती है। २. सूत कातने के चरखे की डोरी या रस्सी। जोत। माल।
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मजेदार  : वि० [फा० मजःदार] जिसमें विशेष मजा (आनंद, सुख या स्वाद) हो। जैसे—मजेदार बात, मजेदार मिठाई।
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मजेदारी  : स्त्री० [फा० मजःदार+ई (प्रत्य०)] मजेदार होने की अवस्था या भाव। वि०=मजेदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मज्ज  : स्त्री०=मज्जा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मज्जका  : स्त्री० [सं० मज्जा से] १. शरीर की हड्डी के अंदर का गूदा। (मेंड्यला)
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मज्जन  : पुं० [सं०√मस्ज् (शुद्ध होना)+ल्युट्-अन्, स्—ज्] १. स्नान। २. किसी बात या विषय की गहराई में डूबना या लीन होना।
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मज्जना  : अ० [सं० मज्जन] १. स्नान करना। नहाना। २. निमग्न या लीन होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मज्जा  : स्त्री० [सं०√मस्ज्+अच्+टाप्] १. शरीर के अन्तर्गत नली की हड्डी के अन्दर का गूदा जो कोमल और चिकना होता है। २. पेड़-पौधों, फलों आदि के अन्दर का सार-भाग। स्त्री० [सं० मंजरी] बौर। मंजरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मज्जा-रस  : पुं० [सं० ष० त०] पुरुष का वीर्य। शुक्र।
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मज्झ  : पुं० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ] मध्य। वि० मध्य का। बीच का। क्रि० वि० बीच या मध्य में। स्त्री० [सं० महिषी] भैंस। (पश्चिमः) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंझ  : अव्य०, पुं०=मध्य (बीच में)।
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मझ  : वि०, पुं०, क्रि० वि०=मध्य।
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मझक्का  : पुं० [हिं० माथा+झाँकना] वर पक्षवालों का विवाह के उपरान्त दुनल्हिन के घर जाकर की जानेवाली मुँह-देखनी की रसम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मँझधार  : स्त्री० [हिं० मंझली+धार] नदी के बीच की धारा। अव्य० नदी, समुद्र आदि की धारा के बीच में।
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मझधार  : स्त्री० [हिं० मझ-मध्य+धार] १. नदी आदि के बीच की धारा। २. किसी काम या बात के मध्य की स्थिति। मुहा०—(किसी को) मझधार में छोड़ना=(क) किसी को संकट की स्थिति में डालना। (ख) उक्त प्रकार की स्थिति में किसी का साथ छोड़ना। (कोई काम) मझधार में छोड़ना=अपूर्ण अवस्था में छोड़ना। अधूरा रहने देना।
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मँझना  : अ०=मँजना।
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मझरासिंगही  : पुं० [हिं० मझरा ?+सींग] बैलो की एक जाति।
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मँझरिया  : अव्य० [सं० मध्य०, हिं० माँझ] बीच में। मध्य में। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मँझला  : वि० [सं० मध्य, पुं० हिं० मँझ+ला (प्रत्य०)] [स्त्री० मंझली] वय, स्थिति आदि के विचार से बीच या मध्य का। जैसे—मँझला मकान (दो मकानों के बीच का मकान), मँझला लड़का।
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मझला  : वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+ला (प्रत्य०)] [स्त्री० मझली] १. मध्य का। २. अवस्था, आकार आदि के विचार से दो के बीच का। एक छोटे और एक बड़े के बीच का। जैसे—(क) मझला भाई। (ख) मझली पुस्तक।
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मँझा  : वि० [सं० मध्य; पा० मंझ] १. जो दो के बीच में हो। बीचवाला। २. दे० ‘मँझला’। पुं० [सं० मध्य०; पा० मज्झ] १. सूत कातने के चरखे में वह मध्य का अवयव जिसके ऊपर माल रहती है। मुँडला। २. अटेरन के बीच की लकड़ी। स्त्री० [सं० मध्य०; पा० मज्झ] वह भूमि जो गोयंड और पालों के बीच में पड़ती हो। पुं० [सं० मंच] १. पलंग। खाट। (पंजाब) २. चौकी। ३. मचिया। मुहा०—मंझा बैठना=एक ही आसन से या स्थिति में अच्छी तरह जम कर बैठना। पुं० [हिं० माँजना] वह पदार्थ जिससे रस्सी या पलंग की डोर माँजते हैं। माँझा। मुहा०—माँझा देना=डोरी, रस्सी आदि पर मंझा या माँझा लगाना।
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मंझाना  : स० [हिं० माँझ=बीच] बीच में डालना, रखना या लाना। अ० बीच में पड़ना या होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मझाना  : अ० [सं० मध्य] १. मध्य या बीच में आना या पहुँचना। २. प्रविष्ट होना। सं० १. मध्य या बीच में करना या लाना। २. प्रवेश कराना।
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मँझार  : स्त्री०, अव्य०=मँझधार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मझार  : क्रि वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+आर (प्रत्य०)] मध्य में। पुं० बीच या मध्य का अंश या भाग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मझावना  : अ०, स०=मझाना। अ०=मझियाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मझिया  : स्त्री० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+इया (प्रत्य०)] उन पट्टियों में से हर एक जो गाड़ी, सग्गड़ आदि के पेंदे में लगी रहती है।
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मझियाना  : स० [हिं० मास=मध्य+इयाना (प्रत्य०)] किसी चीड को मध्य में ले जाना। अ० नाव खेना। अ० स०=मझाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मँझियार  : वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ] मध्य का। बीच का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मझियारा  : वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+इयारा (प्रत्य०)] १. मध्य संबंधी। २. जो मध्य में स्थिति हो। बीच का। ३. मझला।
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मझु  : सर्व० १.=मैं। २.=मेरा।
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मझुआ  : पुं० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+उआ (प्रत्य०)] हाथ में पहनने की मठिया नामक चूड़ियों में कोहनी की ओर से पड़नेवाली दूसरी चूड़ी जो पछेला के बाद होती है।
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मझेरू  : पुं० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+एरू (प्रत्य०)] जुलाहों के ऊड़ी नामक औजार के बीच में लकड़ी।
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मझेला  : पुं० [देश०] एक तरह का सूजा जिससे मोची जूतों के तले सीते हैं। पुं०=झमेला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मँझोला  : वि० [सं० मध्य, पुं० हिं० मँझ+ओला (प्रत्य०)] आकार, मान आदि के विचार से बीच या मध्य का। जो न बहुत बड़ा ही हो और न बहुत छोटा ही हो। जैसे—मँझोला।
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मझोला  : वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ+ओला (प्रत्य०)] १. मध्यम आकार का। न बहुत छोटा और न बहुत बड़ा। २. मध्य या बीच का। मझला।
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मँझोली  : स्त्री०=मझोली।
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मझोली  : स्त्री० [हिं० मझोला] १. एक प्रकार की बैलगाड़ी जिसमें प्रायः जनानी सवारी बैठती है २. टेकुरी की तरह का एक औजार जिससे जूते की नोक सी जाती है।
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मट  : पुं०=मटका। उप० ‘मिट्टी’ का वह संक्षिप्त रूप जो समस्त पदों के आरंभ में लगता है। जैसे—मट-मैला।
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मट-पीला  : वि० [हिं० मट (उप०)+पीला] मटमैले या खाकी मिले पीले रंग का। कुछ पीलापन लिए हुए मिट्टी के रंग का।
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मट-मँगरा  : पुं० [हिं० मट (उप०)+मंगल] विवाह के पहले की एक रीति जिसमें स्त्रियाँ गाती-बजाती हैं।
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मटक  : स्त्री० [सं० मट=चलना+क (प्रत्य०)] मटकने की क्रिया, ढंग, मुद्रा या भाव। पद—चटक-मटक। २. गति। चाल। (क्व०)
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मटकना  : अ० [सं० मट=चलना] १. चलते या बातें करते समय कुछ नाज-नखरे तथा गर्वपूर्वक अपने को बार-बार हिलाने तथा लचकाते रहना। २. संकोचवश या और किसी कारण चल-विचल या इधर-उधर होना। उदा०—देखत रूप मदन मोहन को, पियत पियूख न मटके।—मीराँ। पुं० [हिं० मटका] १. छोटा मटका। २. पुरवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मटकनि  : स्त्री० [हिं० मटकना] १. मटकने की क्रिया या भाव। मटक। २. मटककर चली जानेवाली चाल। ३. गति। चाल। ४. नखरा। ५. नाच। नृत्य।
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मटका  : पुं० [हिं० मिट्टी+क (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० मटकी] मिट्टी का घड़ा। मट। माट।
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मटकाना  : स० [हिं० मटकना का स०] १. किसी को मटकने में प्रवृत्त करना। २. किसी अंग में मटक लाना। ऐसी स्थिति में किसी को लाना कि वह हिलने-डुलने तथा लचकने लगे। नाज-नखरे से किसी अंग का संचालन करना। जैसे—कमर मटकाना, आँखें मटकाना।
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मटकी  : स्त्री० [हिं० मटका] छोटा मटका। स्त्री० [हिं० मटका] मटकने या मटकाने की क्रिया या भाव। मटक। मुहा०—मटकी देना या मारना=स्त्रियों की तरह नखरे से आँखें, उँगलियाँ या हाथ हिलाकर इशारा या संकेत करना।
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मटकीला  : वि० [हिं० मटकना+ईला] (प्रत्य०)] १. मटक दिखाने या मटकनेवाला। २. जिसमें किसी प्रकार की मटक हो। मटक से युक्त।
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मटकौअल, मटकौवल  : स्त्री० [हिं० मटकाना+औवल (प्रत्य०) मटकने या मटकाने की क्रिया या भाव। जैसे—सूत न कपास जुलाहों से मटकौअल। (कहा०)
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मटक्का  : पुं० [हिं० मटकना या मटकाना] आँखें, उँगलियाँ, हाथ आदि मटकाने की क्रिया या भाव।
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मटखौरा  : पुं० [हिं० मट+खौर ?] एक प्रकार का हाथी जो दूषित माना जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मटना  : पुं० [देश०] एक प्रकार की ईख।
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मटमैला  : वि० [हिं० मिट्टी+मैला] मिट्टी के रंग का। खाकी।
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मटर  : पुं० [सं० मधुर या वर्तुल] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसकी फलियों में गोल दाने रहते हैं और जिनकी तरकारी आदि बनाई जाती है। २. उक्त पौधे की फली या दाना। (पी)
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मटर-गश्त  : स्त्री०, [हिं० मट्ठर=मंद+फा० गश्त] १. धीरे-धीरे घूमना। २. निश्चिन्त होकर प्रसन्नतापूर्वक व्यर्थ इधर-उधर घूमना।
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मटर-बोर  : पुं० [हिं० मटर+बोर=घुँघरू] मटर के बराबर घुँघरू जो पाजेब आदि में लगते हैं।
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मटरगश्ती  : स्त्री०=मटरगश्त।
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मटराला  : पुं० [हिं० मटर+आला (प्रत्य०)] एक में मिले हुए मटर और जौ के दाने अथवा उनका पीसा हुआ चूर्ण। वि०=मिटमैला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मटलनी  : स्त्री० [हिं० मिट्टी] कच्ची मिट्टी का बरतन।
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मटा  : पुं० [हिं० माटा] पेड़ों पर झुंडों में रहनेवाला एक तरह का लाल रंग का च्यूँटा।
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मटिआ  : वि०, पुं० स्त्री०=मटिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मटिआना  : अ०, स०=मटियाना।
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मटिया  : वि० [हिं० मिट्टी] १. मिट्टी का सा। २. मिट्टी का बना हुआ। जैसे—मटिया साँप। २. खाकी। मटमैला। पुं० मिट्टी का बरतन। स्त्री०=मिट्टी। पुं० [?] कजला या लटोरा नाम का पक्षी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मटिया-फूस  : वि० [हिं० मिट्टी+फूस] इतना अधिक जर्जर, वृद्ध और दुर्बल कि मानों मिट्टी और फूस के योग से बना हो।
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मटिया-मसान  : वि० [हिं० मटिया+मसान] १. बहुत ही तुच्छ या हीन। गया-बीता। २. टूटा-फूटा। नष्ट-प्राय। पुं० उजड़ा हुआ स्थान या खँडहर।
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मटिया-मेट  : पुं० दे० ‘मलिया-मेट’।
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मटियाना  : स० [हिं० मिट्टी] १. किसी चीज पर मिट्टी लगाना, अथवा मिट्टी से युक्त करना। २. (कपड़े) मिट्टी में लथेड़ना। ३. बरतन, हाथ आदि मिट्टी मलकर धोना और साफ करना। अ०=महटियाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मटियार  : पुं० [हिं० मिट्टी+आर (प्रत्य०)] चिकनी मिट्टीवाला प्रदेश जो बहुत अधिक उपजाऊ होता है।
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मटियारा दुम्मट  : स्त्री० [हिं०] ऐसी भूमि जिसमें मटियार और दुम्मट दोनों के तत्त्व हों। (क्ले लोम)
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मटियाला  : वि०=मटमैला।
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मटीला  : वि० [हिं० मट (उप०)+ईला (प्रत्य०)] १. जिसमें मिट्टी पड़ी या मिली हुई हो। जैसे—मटीला पानी। २. मटमैला।
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मटुक  : पुं०=मुकुट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मटुका  : पुं० [स्त्री० अल्पा० मटुकिया, मटुकी]=मटका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मट्टी  : स्त्री०=मिट्टी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मट्ठर  : वि० [सं० अठर=जो नशे में हो] चलने-फिरने और काम-धन्धा करने में सुस्त। काहिल।
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मट्ठा  : वि० [सं० मन्द] १. धीमा। मन्द। २. सुस्त। पुं०=मठा।
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मट्ठी  : स्त्री० [देश०] पूरी की तरह तला हुआ मैदे का बना हुआ एक मीठा पकवान।
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मंठ  : पुं० [सं०√मंठ+अच्] शीरे में पकाया हुआ एक तरह का पकवान।
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मठ  : पुं० [सं०√मठ् (निवास कनरा)+क] १. वह मकान जिसमें साधु-संन्यासी रहते हों। २. देवालय। मन्दिर। उदा०—मठ-पूतली पाखाण-मय।—प्रिथीराज।
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मठ-पति  : पुं० [ष० त०]=मठधारी।
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मठधारी (रिन्)  : पुं० [सं० मठ√धृ (रखना)+णिनि, उप० स०] वह साधु या महंत जो मठ का प्रधान अधिकारी हो। मठाधीश।
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मठर  : वि० [सं० मन् (जानना)+अरन्, न्=ठ्] जो नशे में हो। मद-मत्त। पुं० एक प्राचीन ऋषि।
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मठरना  : पुं० [?] कसेरों, सुनारों आदि का एक औजार जिससे वे धातु के पत्तरों या चद्दरों को पीटते हैं। अ० पत्तर, चद्दर आदि का उक्त उपकरण से पीटा जाना। स० दे० ‘मठारना’।
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मठरी (ली)  : स्त्री० [सं० मेठ] =मुट्ठ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मठा  : पुं० [सं० मथन] दही का वह घोल जिसमें से मक्खन निकाल लिया गया हो। तक्र। मही। लस्सी। मुहा०—मठे मूसल की हाँकना=बढ़-बढ़कर इधर-उधर की बातें कहना। उदा०—गया था, अब लगा है मठा मूसल की हाँकने।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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मठाधीश  : पुं० [सं० मठ-अधीश, ष० त०] मठ में रहनेवाले साधुओं का प्रधान। महन्त।
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मठान  : पुं०=मठरना (औजार)।
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मठारना  : स० [हिं० मठरना] १. कसेरों, सुनारों आदि का मठरना नामक औजार से पत्तरों या चद्दरों को पीटना। २. पत्तरों, चद्दरों आदि को पीट कर गोलाई में लाना। स० [?] १. गूँथे हुए आटे को इस प्रकार हाथों से मसलना तथा सँवारना कि उसमें लस उत्पन्न हो जाय। २. धीरे धीरे तथा बना-सँवार कर कोई बात कहना।
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मठारा  : पुं० [हिं मठारना] १. मठारने की क्रिया या भाव। २. किसी बात को सुधारने-सँवारते हुए उसकी पुष्टि करने की क्रिया या भाव। जैसे—उन्हें जो वक्तृता देनी थी, उसी पर मठारा दे रहे थे। क्रि० प्र०—देना।
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मठिया  : स्त्री० [हिं० मठ+इया (प्रत्य०)] छोटा मठ। स्त्री० [?] काँसे या फूल की बनी हुई चूड़ी।
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मठी (ठिन्)  : पुं० [सं० मठ+इनि] मठ का अधिकारी। मठाधीश। स्त्री० [हिं० मठ] छोटा मठ। मठिया।
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मठुलिया, मठुली  : स्त्री०=मट्ठी।
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मठोठा  : पुं० [?] कूएँ की जगत्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मठोर  : स्त्री० [हि० मट्ठा] १. वह बड़ी मटकी जिसमें दही मथा जाता है। २. नील पकाने का माठ।
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मठोरना  : स० [हिं० मठारना] १. किसी लकड़ी को खरीदने के लिए रंदा लगाकर ठीक करना। २. दे० ‘मठारना’।
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मठोलना  : स० [हिं० मठोला+ना (प्रत्य०] हास्त-मैथुन करना।
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मठोला  : पुं० [हिं० मुट्ठी+ओला (प्रत्य०)] मुट्ठी में लिंग पकड़कर उसे सहलाते हुए वीर्य-पात करना। हस्त-मैथुन। उदा०—लड्डू में न पेड़े में, न बर्फी में मजा है, जो मर्दे-मुजर्रद के मठोलों में मजा है।—नजीर।
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मठौरा  : पुं० [हिं मठोरना] एक प्रकार का रंदा जिससे लकडी रंद कर खरादने आदि के योग्य बनाते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंड  : पुं० [सं०√मंड् (भूषित करना)+अच्] १. मंडन करने की क्रिया या भाव। सजावट। २. उबले हुए चावलों का गाढ़ा पानी। भात का पानी। माँड। ३. रेंड का पेड़। ४. मेंढ़क। ५. सारभाग। ६. दूध या दही की मलाई। ७. मदिरा। शराब। ८. आभूषण। गहना। ९. एक प्रकार का साग। १॰. कुएँ की जगत। ११. श्वेतसार।
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मंड-हारक  : पुं० [सं० ष० त०] मद्य का व्यवसायी। कलवार।
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मड़आ  : पुं० [देश०] १. बाजरे की जाति का एक प्रकार का कदन्न जो बहुत प्राचीन काल से भारत में बोया जाता है। वैद्यक में इसे कसैला, कड़ुआ, हलका, बलवर्द्धक और रक्त-दोष को दूर करनेवाला माना गया है। २. एक प्रकार का पक्षी। पुं०=मंडुआ (मंडप)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मँड़ई  : स्त्री० [सं० मंडप] १. झोंपड़ी। २. कुटिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंडई  : स्त्री०=मंडी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मड़ई  : स्त्री० [सं० मंडपी] १. छोटा मंडप। २. कुटिया। झोंपड़ी। स्त्री०=मंडी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मडउआ  : पुं०=मडुआ (मंडप)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंडक  : पुं० [सं० मंड+कन्] १. मैदे की एक प्रकार की रोटी। २. माधवी लता। ३. संगीत में गीत का एक अंग। वि० मंडन या सजावट करनेवाला।
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मड़क  : स्त्री० [अनु०] किसी बात के अन्दर छिपा हुआ हेतु। भीतरी सूक्ष्म आशय।
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मंडन  : पुं० [सं०√मंड्+ल्युट्—अन] १. श्रृंगार करना। सजाना। २. तर्क या विवाद के प्रसंग में युक्ति आदि देकर किसी कथन या सिद्धान्त का पुष्टिकरण। जैसे—अपने पक्ष का मंडन। ‘खंडन’ का विपर्याय। वि० मंडित करनेवाला या सजानेवाला।
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मंडना  : स० [सं० मंडन] १. मंडित या सुसज्जित करना। श्रृंगार करना। अच्छी तरह सजाना। २. तर्क, विवाद आदि के समय युक्तिपूर्वक अपना पक्ष या समर्थन ठीक सिद्ध करते हुए लोगों के सामने उपस्थित करना। कोई बात अच्छी तरह प्रतिपादित और सिद्ध करना। ३. किसी रचना की रूपरेखा आदि तैयार करना या बनाना। ४. पूरी तरह से आच्छादित करना। छाना। ५. कोई बड़ा काम करना या ठानना। स० [सं० मर्दन] दलित या मर्दित करना। नष्ट करना। अ० [हिं० माँडना का अ०] १. भाँड़ा या लिखा जाना। जैसे—खाते में रकम मंडेना। २. किसी काम या बात में लीन होना। जैसे—सब लोग नाच-रंग में मंडे थे। स० [?] मानना। [डिं०] उदा०—आगमि सिसुपाल मंडिजै उद्धव।—प्रिथीराज।
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मँडनी  : स्त्री० [हिं० माँडना] अनाज के डंठलों को बेलों से रौंदवाने का काम। दँवरी।
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मंडप  : पुं० [सं० मंड√पा+क] १. वह छाया हुआ स्थान जहाँ बहुत से लोग धूप, वर्षा आदि से बचते हुए बैठ सकें। विश्राम-स्थान। २. किसी विशिष्ट काम के लिए छाया हुआ स्थान। जैसे—यज्ञ-मंडप, विवाह-मंडप। ३. आदमियों के बैठने योग्य चारों ओर से खुला, पर ऊपर से छाया हुआ स्थान। बारहदरी। ४. देवमंदिर का ऊपर का छाया हुआ गोलाकार अंश या भाग। ५. चंदोआ। शामियाना।
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मंडपक  : पुं० [सं० मंडप+कन्] [स्त्री० मंडपिका] छोटा मंडप।
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मंडपी  : स्त्री० [सं० मंडप+ङीष्] छोटा मंडप।
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मड़मड़ाना  : अ०, स०=मरमराना।
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मंडर  : पुं०=मंडल।
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मँडरना  : अ० [सं० मंडल] चारों ओर से घिरना। स० चारों ओर से घेरना।
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मँडराई  : स्त्री० [सं० मंडल] पक्षियों आदि का घेरा बाँध या मंडल बनाकर आकाश में उड़ने की क्रिया या भाव। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मँडराना  : अ० [सं० मंडल] १. मंडल या घेरा बाँधकर छा जाना। २. पक्षियों, फतिंगों आदि का किसी चीज के ऊपर तथा चारों ओर चक्कर लगाते हुए उड़ना। ३. लाक्षणिक अर्थ में लोभ या स्वार्थवश किसी के पास रह-रहकर या घूम-घूम कर पहुँचना। किसी व्यक्ति या स्थान के आसपास घूमते या चक्कर लगाते रहना।
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मड़राना  : अ०=मँड़राना।
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मंडरी  : स्त्री० [देश०] पयाल की बनी हुई गोंदारी या चटाई।
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मंडल  : पुं० [सं√मंड्+कलच्] १. चक्र के आकार का घेरा। गोलाई। वृत्त। जैसे—रास मंडल। मुहा०—मंडल बाँधना=गोलाकार घेरा बनाना। जैसे—(क) मंडल बाँधकर नाचना। (ख) बादलों का मंडल बाँधकर बरसना। २. किसी प्रकार की गोलाकार आकृति, रचना या वस्तु। जैसे—भू-मंडल। ३. चंद्रमा, सूर्य आदि के चारों ओर छाया का पड़नेवाला घेरा जो कभी कभी आकाश में बादलों की बहुत हल्की तह रहने पर दिखाई देता है। ४. किसी वस्तु का वह गोलाकार अंश जो दृष्टि के सम्मुख हो। जैसे—चंद्र-मण्डल, सूर्य-मंडल, मुख-मंडल। ५. चारों दिशाओं का घेरा जो गोल दिखाई देता है। क्षितिज। ६. प्राचीन भारत में १२ राज्यों का क्षेत्र, वर्ग या समूह। ७. प्राचीन भारत में चालिस योजन लंबा और बीस योजन चौड़ा क्षेत्र या भूखंड। ८. किसी विशिष्ट दृष्टि से एक माना जानेवाला क्षेत्र या भू-भाग। (ज़ोन) ९. कुछ विशिष्ट प्रकार के लोगों का वर्ग या समाज। (सर्किल) जैसे—मित्र-मंडल, राजकीय मंडल। १॰. एक प्रकार की गोलाकार सैनिक व्यूह-रचना। ११. एक प्रकार का साँप। १२. बघनखी नामक गंध-द्रव्य। १३. वह कक्ष या गोलाकार मार्ग जिस पर चलते हुए ग्रह चक्कर लगाते हैं। १४. शरीर की आठ संधियों में से एक। (सुश्रुत) १५. कुंदक। गेंद। १६. किसी प्रकार का गोल चिन्ह या दाग। १७. चक्र। १८. पहिया। १९. ऋग्वेद का कोई विशिष्ट खंड या भाग।
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मंडल-नृत्य  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] घेरा बाँधकर या मंडल के रूप में होनेवाला नृत्य।
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मंडल-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ब० स०,+क, टाप्, इत्व] रक्त पुनर्नवा। लाल गदहपूरना।
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मंडल-पुच्छक  : पुं० [सं० ब० स०,+कप्] एक जहरीला कीड़ा। (सुश्रुत)
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मंडल-वर्ष  : पुं० [सं० मध्य० स०] सारे देश में एक साथ होनेवाली वर्षा।
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मंडलक  : पुं० [सं० मंडल+कन्] १. किसी प्रकार की मंडलाकार आकृति, छाया या रचना। (डिस्क)। २. दर्पण। शीशा। ३. दे० ‘मंडल’।
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मंडलवर्ती (र्तिन्)  : पुं० [सं० मंडल√वृत्त (बरतना)+णिनि] प्राचीन भारत में, किसी मंडल या भू-भाग का शासक।
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मड़ला  : पुं० [सं० मंडल] अनाज़ रखने की छोटी कोठरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंडलाकार  : वि० [सं० मंडल-आकार, ब० स०] जो बिलकुल गोल न होकर बहुत कुछ गोल या गोले के समान हो। गोलाकार। (ऑर्विक्यूलर)
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मंडलाधिप  : पुं० [सं० मंडल-अधिप, ष० त०] दे० ‘मंडलेश्वर’।
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मंडलाधीश  : पुं० [सं० मंडल-अधीश, ष० त०] दे० ‘मंडलेश्वर’।
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मंडलाना  : अ०=मँडराना।
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मड़लाना  : अ०=मँडराना। उदा०—अनुपम शोभा पर उसकी कितने न भँवर मडलाते।—निराला।
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मंडलायित  : वि० [सं० मंडल+क्यङ्+क्त] गोलाकार। वर्त्तुल।
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मंडली  : स्त्री० [सं० मंडल+अच्+ङीष्] १. मनुष्यों की गोष्ठी या समाज। २. जीव-जंतुओं का झुड या दल। ३. एक ही प्रकार का उद्देश्य या विचार रखनेवाले अथवा एक ही तरह का काम करनेवाले लोगों का दल या समूह। जैसे—भजन-मंडली। ४. दूब। ५. गुरुच। गिलोय। पुं० [सं० मंडल+इनि] १. सुश्रुत के अनुसार साँपों के आठ भेदों में से एक भेद या वर्ग। २. वट वृक्ष। बड़ का पेड़। ३. बिड़ाल। बिल्ली। ४. नेवले की जाति का बिल्ली की तरह का एक जंतु जिसे बंगाल में खटाश और उत्तर प्रदेश में सेंधुआर कहते हैं। ५. सूर्य।
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मंडलीक  : पुं० [सं मांडलिक] एक मंडल या १२ राजाओं का अधिपति।
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मंडलीकरण  : पुं० [सं० मंडल+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट्—अन] १. मंडल या घेरा बनाना। २. कुंडली बनाना, बाँधना या मारना।
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मंडलेश्वर  : पुं० [सं० मंडल-ईश्वर, ष० त०] १. एक मंडल का अधिपति। २. प्राचीन भारत में १२ राजाओं का अधिपति। ३. साधु समाज में वह बहुत बड़ा साधु जो किसी क्षेत्र में सर्वप्रधान माना जाता हो।
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मंडव  : पुं० =मंडप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मँड़वा  : पुं० [सं० मंडप; प्रा० मंडव] १. किसी विशिष्ट कार्य के लिए छाकर बनाया हुआ स्थान। मंडप। २. वह खेल तमाशा जो किसी मंडप के अन्दर दिखलाया जाता हो। (पश्चिमी)
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मड़वा  : पुं० [सं० मंडप] १. मचान। २. मंडप। पद—मड़वे तक की गाँठ=विवाह के समय वर और वधू के दुपट्टों में बाँधी जानेवाली गाँठ।
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मड़वाना  : पुं० [हिं० मँडवा=मंडप] एक प्रकार का कर जो मध्य युग में जमींदार लोग अपनी असामियों से उनके यहाँ विवाह होने पर लिया करते थे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मड़वारी  : पुं०=मारवाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मड़हट  : पुं०=मरघट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मड़हा  : पुं० [सं० मंडप] मिट्टी या घास आदि का बना हुआ छोटा घर। पुं० [?] भूना हुआ चना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंडा  : स्त्री० [सं० मंड+अच्+टाप्] सुरा। पुं० [सं० मंडल] १. भूमि का एक मान जो दो बिस्वे के बराबर होता है। २. एक प्रकार की बँगला मिठाई। पुं० [हिं० मंडी] (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मड़ा  : पुं० [हिं० मढ़ी] बड़ी कोठरी। कमरा। पुं०=माँड़ा (नेत्रग्रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मड़ाइ  : पुं०=मड़ार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंडान  : स्त्री० [हिं० मंडना] १. मंडित करने की क्रिया या भाव। २. किसी बड़े कृत्य के आरम्भ में की जानेवाली व्यवस्था। ३. आयोजन। प्रबंध। इन्तजाम। जैसे—राज-तिलक या विवाह का मंडान। क्रि० प्र०—बाँधना।
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मँडार  : पुं० [सं० मंडल] १. गड्ढा। २. झावा, टोकरा या डलिया।
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मड़ार  : पुं० [देश०] १. तालाब। २. पोखरा।
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मंडित  : भू० कृ० [सं०√मंड् (सजाना) १. सजाया हुआ। विभूषित। २. ऊपर से छाया हुआ। आच्छादित। ३. भरा या पूरी तरह से युक्त किया हुआ। पूरित।
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मँड़ियार  : पुं० [देश०] झरबेरी नाम की कँकरीली झाड़ी।
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मड़ियार  : पुं० [हिं० मारवाड़ ?] मारवाड़ में बसी हुई क्षत्रियों की एक जाति।
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मंडी  : स्त्री० [सं० मंडप] वह बहुत बड़ा विक्रय-स्थल जहाँ थोक माल बेचने की बहुत-सी दुकानें हों। जैसे—अनाज की मंडी, कपड़े की मंडी। स्त्री० [सं० मंडल] दो बिस्से के बराबर जमीन की एक पुरानी नाप।
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मँडुआ  : पुं० [देश०] एक प्रकार का कदन्न। पुं० मँडवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंडूक  : पुं० [सं०√मंड्+ऊकण्] १. मेढ़क। २. एक प्राचीन ऋषि। ३. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा। ४. एक प्रकार का नृत्य। ५. संगीत में रुद्रताल के ग्यारह भेदों में से एक। ६. एक प्रकार का फोड़ा। ७. दोहा, छंद का पाँचवा भेद जिसमें १८ गुरु और १२ लघु अक्षर होते हैं।
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मंडूक-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] १. ब्राह्मी बूटी। २. मंजीठ।
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मंडूक-प्लुति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. मेंढक का छलाँगे लगाना। २. मेंढक की तरह छलाँगें लगाना।
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मंडूका  : स्त्री० [सं० मंडूक+टाप्] मंजिष्ठा। मंजीठ।
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मंडूकी  : स्त्री० [सं० मंडूक+ङीष्] १. ब्राह्मी। २. आदित्य-भक्ता।
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मंडूर  : पुं० [सं०√मंड्+ऊरच्] १. गलाये हुए लोहे की मैल। २. लौह-किट्ट। ३. वैद्यक में उक्त से बनाया हुआ एक प्रकार का रसौषध’।
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मड़ैया  : स्त्री०=मड़ई।
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मड़ोड़  : स्त्री०=मरोड़।
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मड़ोदी  : स्त्री० [हिं० मरोड़ना+ई (प्रत्य०)] लोहे की छोटी पेंचदार कटिया।
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मढ़  : वि० [हिं० मढ़ना] १. अड़कर बैठनेवाला। २. जल्दी अपनी जगह से न हिलनेवाला। ३. मूढ़। पुं०=मठ। उदा०—काकर घर, काकर मढ़ माया।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मढ़ना  : स० [सं० मंडन] [भाव० मढ़ाई] १. कोई चीज किसी दूसरी चीज पर चिपकाना, जड़ना, लगाना या सटाना। जैसे—किताब पर जिल्द या दीवार पर कागज मढ़ना। २. बहुत से गहनों से किसी को लादना। जैसे—आभूषणों से सुंदरी मढ़ी हुई थी। ३. कोई काम या बात बलपूर्वक किसी के जिम्मे लगाना। जैसे—किसी के सिर कोई काम मढ़ना। ४. व्यर्थ किसी के सिर कोई अपराध या दोष आरोपित करना। जैसे—काम तो तुमने बिगाड़ा, और कलंक मेरे सिर मढ़ रहे हो। क्रि० प्र०—डालना।—देना। अ० (काम या बात) आरंभ होना। अ०=मंडलाना। जैसे—आकाश में बादल मढ़ आये हैं।
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मढ़वाई  : स्त्री० [हिं० मढ़वाना] मढ़वाने का कार्य तथा पारिश्रमिक।
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मढ़वाना  : स० [हिं० मढ़ना का प्रे०] [भाव० मढ़वाई] मढ़ने का काम दूसरे से कराना।
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मढ़ा  : पुं० [हिं० मढ़ी] १. मिट्टी का बना हुआ छोटा घर। बड़ी मढ़ी। २. दे० ‘मढ़ा’।
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मँढ़ा, मंढ़ा  : पुं० [हिं० मढ़ना] १. कमख्वाब बुननेवालों का एक औजार। २. किसी विशिष्ट कार्य के लिए छाकर बनाया हुआ स्थान। मंडप। ३. लकड़ियों आदि का वह ढाँचा जो किसी तरह की बेल चढ़ावे के लिए खड़ा किया या बनाया जाता है। मुहा०—बेल-मँढ़े (मंढ़े) चढ़ना=किसी काम का ठीक तरह से चलने लगना या पूरा होना। जैसे—तुमने इतना बड़ा काम तो हाथ में ले लिया है, पर यह बेल मँढ़े नहीं चढ़ेगी।
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मढ़ाई  : स्त्री० [हिं० मढ़ना] मढ़ने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक।
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मढ़ाना  : स०=मढ़वाना।
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मढ़ी  : स्त्री० [सं० मठ] १. छोटा मठ। २. छोटा देवालय या मंदिर। ३. कुटिया। झोंपड़ी। ४. छोटा मंडप। ५. किसी संन्यासी के समाधि स्थल के समीप बनी हुई कुटिया।
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मढ़ैया  : वि० [हिं० मढ़ना+ऐया (प्रत्य०)] मढ़नेवाला। स्त्री०=मढ़ी।
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मणि  : स्त्री० [सं०√मण् (अव्यक्त शब्द)+इन्] १. बहुमूल्य रत्न। जवाहिर। २. किसी वर्ग का कोई सर्व-श्रेष्ठ पदार्थ या व्यक्ति। जैसे—रघुकुल मणि। ३. बकरी के गले में लटकनेवाली थाली। ४. पुरुष की इन्द्रिय का अगला भाग। ५. योनि का अगला भाग। ७. घड़ा।
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मणि-कर्णिका  : स्त्री० [मध्य० स०] १. मणियों से जड़ा हुआ कान में पहनने का गहना। २. काशी का एक प्रसिद्ध घाट। विशेष—पौराणिक कथा है कि शिव जी का मणि-जटित कुंडल उक्त स्थान पर उस समय गिरा था जब वे विष्णु की तपस्या से प्रसन्न होकर झूम उठे थे।
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मणि-कानन  : पुं० [ष० त०] गला। कंठ।
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मणि-कूट  : पुं० [ब० स०] कामरूप के पास का एक पर्वत (पुराण)।
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मणि-केतु  : पुं० [उपमि० स०] एक बहुत छोटा पुच्छल तारा जिसकी पूंछ दूध-सी सफेद मानी गई है।
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मणि-गुण  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार नगर और एक सगण होता है। शशिकला। शरभ।
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मणि-ग्रीव  : पुं० [ब० स०] कुबेर का एक पुत्र।
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मणि-जला  : स्त्री० [ब० स०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन नदी।
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मणि-तारक  : पुं० [ब० स०] सारस।
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मणि-दीप  : पुं० [सं० मणिदीप] १. मणिजटित दीपक। २. दीपक की तरह प्रकाश करनेवाला रत्न।
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मणि-द्वीप  : पुं० [मध्य० स०] पुराणानुसार रत्नों का बना हुआ एक द्वीप जो क्षीरसागर में है। इसी में त्रिपुर सुंदरी का निवास माना गया है।
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मणि-धनु (स्)  : पुं० [मध्य० स० या उपमि० स०] इन्द्र का धुनष।
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मणि-धर  : पुं० [ष० त०] सर्प। साँप।
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मणि-बंध  : पुं० [सुप्सुपा स०] १. एक नवाक्षरी वृत्त जिसके प्रति चरण में भगण, मगण और सगण होते हैं। २. कलाई। पहुँचा।
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मणि-बीज  : पुं० [ब० स०] अनार का पेड़।
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मणि-भद्र  : पुं० [ब० स०] एक यक्ष।
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मणि-भित्ति  : स्त्री० [ब० स०] शेषनाग का प्रासाद।
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मणि-मंडप  : पुं० [मध्य० स०] १. मणियों से सजाया हुआ मंडप। २. शेषनाद का प्रासाद।
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मणि-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. मणियों अर्थात् रत्नों की माला। २. लक्ष्मी। ३. चमक। ४. बारह अक्षरों का एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तगण, यगण, तगण, यगण होते हैं। ५. आभा। चमक।
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मणि-राग  : पुं० [ब० स०] १. हिंगुल। शिंगरफ। २. रत्न का रंग।
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मणि-राजी  : स्त्री० [ष० त०] मणियों का समूह। उदा०—देख बिखरती है मणिराजी, अरी उठा बेसुध चंचल।—प्रसाद।
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मणि-रोग  : पुं० [ष० त०] पुरुषेंद्रिय संबंधी एक रोग।
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मणि-शैल  : पुं० [ष० त०] मंदराचल के पूर्व में स्थित एक पर्वत (पुराण)।
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मणि-श्याम  : पुं० [स० त०] नीलम।
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मणि-सर  : पुं० [सुप्सुपा स०] मोतियों की माला।
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मणि-सोपानक  : पुं० [मध्य० स०] सोने के तार में पिरोये हुए मोतियों की ऐसी माला जिसके बीच में रत्न हों। (कौ०)
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मणिक  : पुं० [सं० मणि+कन्] १. मिट्टी का घड़ा। योनि का अग्रभाग। ३. स्फटिक निर्मित प्रासाद।
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मणिकार  : पुं० [सं० मणि√कृ (करना)+अण्] जौहरी।
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मणिगुण-निकर  : पुं० [सं० ष० त०] मणि-गुण नामक छंद का एक भेद जो उसके ८वें वर्ण पर विराम करने से बनता है।
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मणिच्छिद्रा  : स्त्री० [ब० स०] १. मेधा नाम की औषधि। २. ऋषभा नाम की ओषधि।
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मणिपुर  : पुं० [ष० त०] १. भारत तथा बर्मा की सीमा पर स्थित केन्द्र-शासित भारतीय प्रदेश। २. उक्त प्रदेश की राजधानी।
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मणिपूर  : पुं० [सं० मणिपुर] सुषुम्ना नाड़ी के अन्दर माने जानेवाले छः चक्रों में से तीसरा चक्र जो नाभिक्षेत्र में स्थित है।
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मणिभ  : पुं० [सं०] किसी तरह घोल को सुखाकर उसके बनाये हुए छोटे नुकीले कण। रवा (क्रिस्टल)।
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मणिभीकरण  : पुं० [सं०] ऐसी क्रिया करना जिससे कोई तरलघोल स्फटिक का रूप ग्रहण कर ले। निश्चित और ठोस आकार धारण करना (क्रिस्टेलाइजेशन)।
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मणिभू  : स्त्री० [ष० त०] वह क्षेत्र विशेषतः खान जिसमें रत्न हों।
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मणिभेघ  : पुं० [सं०] दक्षिण भारत का एक पर्वत (पुराण)।
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मणिमध्य  : पुं० [ब० स०] मणिबंध नामक छंद।
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मणिमय  : पुं० [सं० मणि+मयट्] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग। वि० मणि या मणियों से युक्त।
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मणिमान् (मत्)  : वि० [सं० मणि+मतुप्] ममि-युक्त। पुं० १. सूर्य। २. एक प्राचीन पर्वत।
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मणी  : स्त्री० [सं० मणि+ङीष्]=मणि।
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मणीचक  : पुं० [मणी√च्क (प्रतिघात करना)+अच्] १. चन्द्रकान्त मणि। २. पुराणानुसार शाक-द्वीप के एक वर्ष का नाम। ३. एक प्रकार की चिड़िया।
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मंत  : पुं० [सं० मंत्र] १. परामर्श। सलाह। २. मंत्र।
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मत  : पुं० [सं०√मज्+क्त] १. सोच-समझकर निश्चित की हुई बात। २. अपने निजी विचारों के रूप में किसी विषय के संबंध में कही या प्रकट की जानेवाली बात। सम्मति। जैसे—दूसरों को सब कोई मत देता है। ३. धर्म-ग्रंथों अथवा ऋषि-मुनियों द्वारा प्रतिपादित अथवा समर्थित कोई कथन या सिद्धांत। (डाक्ट्रिन) 4. किसी विशिष्ट ग्रंथ या महापुरुष के सिद्धांत का अनुयायी संप्रदाय। पंथ। ५. लोकतंत्र के क्षेत्र में, अपनी प्रतिनिधि चुनने के लिए किसी व्यक्ति अथवा समाज को प्राप्त वह अधिकार जिससे वह अपनी इच्छा, रुचि आदि के अनुकूल दो या अधिक व्यक्तियों, पक्षों आदि में से किसी एक या कुछ का अधिकारिक रूप में समर्थन कर सकता है। वोट (वोट)। विशेष—मत दो प्रकार से दिया जाता है। एक तो सभाओं आदि में खुले आम हाथ उठाकर और दूसरे गुप्त रूप में परचियाँ डालकर। ६. उक्त के द्वारा किसी का किया जानेवाला समर्थन। जैसे—इस चुनाव में समाजवादी उम्मीदवारों को १५000 मत मिले थे। स्त्री०=मति। अव्य० [सं० मा] निषेध-वाचक शब्द। न। नहीं। जैसे—वहाँ मत जाया करो।
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मत-क्षेत्र  : पुं० दे० ‘निर्वाचन-क्षेत्र’।
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मत-गणना  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘जनमत-संग्रह’।
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मत-दाता (तृ)  : पुं० [ष० त०] वह व्यक्ति जिसे लोकतंत्र के क्षेत्र में मत देने, विशेषतः निर्वाचन आदि में मत देने का अधिकार हो।
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मत-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह परची जिस पर किसी विशेष उम्मीदवार या पक्ष के समर्थन में चिन्ह आदि बनाकर उसे मतदान पेटिका में डाला जाता है (वोटिंग-पेपर)।
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मत-परिवर्तन  : पुं० [सं० ष० त०] अपना मत या विचार अथवा धर्म, संप्रदाय आदि छोड़कर दूसरा मत या विचार अथवा धर्म, संप्रदाय आदि ग्रहण करना। (कन्वर्सन)।
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मत-भेद  : पुं० [ष० त०] वह अवस्था जिसमें किसी दल, वर्ग या समूह के सदस्यों में किसी विषय में एक मत नहीं, बल्कि दो या कई मत होते हैं।
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मत-संग्रह  : पुं० [ष० त०] किसी प्रश्न पर मत-दान की परिपाटी के द्वारा लोगों के मत एकत्र करना।
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मत-सुन्न  : वि० [सं० मत-शून्य] मूर्ख।
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मत-स्वातंत्र्य  : पुं० [ष० त०] प्रत्येक व्यक्ति को अपना मत या विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता।
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मंतक  : पुं० [अं० मंतिक] तर्कशास्त्र।
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मतंग  : पुं० [सं०] १. हाथी। २. बादल। मेघ। ३. एक प्राचीन तीर्थ। ४. एक प्राचीन ऋषि जो शबरी के गुरु थे। ५. कामरूप के अग्नि-कोण का एक प्राचीन देश।
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मतंगज  : पुं० [सं०√मद् (मस्त होना)+अंगच्, द्—त्,+√जन्ड] हाथी।
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मतंगा  : पुं० [सं० मतंग] एक प्रकार का बाँस जो बंगाल और बरमा में होता है।
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मतंगी (गिन्)  : पुं० [सं० मतंग+इनि, दीर्घ] हाथी का सवार।
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मतदान  : पुं० [ष० त०] किसी विचारणीय विषय के संबंध में अथवा किसी प्रकार के चुनाव के समय किसी के पक्ष में अपना मत देने की क्रिया (वोटिंग)।
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मतदान-केन्द्र  : पुं० [ष० त०] वह केन्द्र या स्थान जहाँ निर्वाचन के समय किसी विशिष्ट क्षेत्र में मतदाता आकर मत देते हैं (पोलिंग स्टेशन)।
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मतदान-कोष्ठ  : पुं० [ष० त०] जिसमें रखी हुई पेटी में मत-पत्र छोड़ा जाता है (पोलिंग बूथ)।
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मतदान-पेटिका  : स्त्री० [ष० त०] वह पेटी जिसमें मतदाताओं द्वारा मत-पत्र छोड़े या डाले जाते हैं (बैलेट-बॉक्स)।
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मतना  : अ० [सं० मति+हिं० ना (प्रत्य०)] किसी विषय में अपना मत सम्मति निश्चित या प्रकट करना। अ०=मातना (उन्मत्त होना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मतबन्ना  : वि० [अ० मुतबन्नः] (सन्तान) जो औरस न हो, पर गोद लिया गया हो। दत्तक पुं० दत्तक पुत्र।
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मतरिया  : स्त्री० [हिं० माता] माता। माँ। मुहा०—मतरिया बहिनिया करना=किसी को माँ-बहन की गालियाँ देना और उससे ऐसी ही गालियाँ सुनना। वि० [सं० मंत्र] १. मंत्र देनेवाला। मंत्री। २. मंत्र से प्रभावित किया हुआ। मंत्रित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मतरुक  : वि० [अ०] त्याग किया या छोड़ा हुआ। त्यक्त। परित्यक्त।
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मतलब  : पुं० [अ० मतलबी] १. मन में रहनेवाला आशय या उद्देश्य। अभिप्राय। २. पद, वाक्य या शब्द का अर्थ। माने। ३. अपने भला या हित का विचार। स्वार्थ। पद—मतलब का यार=सदा अपने स्वार्थ का ध्यान रखनेवाला व्यक्ति। स्वार्थी। मुहा०—मतलब गाँठना—स्वार्थ साधन करना। (अपना) मतलब निकालनाँ=स्वार्थ सिद्ध करना। मतब हो जाना=(क) स्वार्थ सिद्ध हो जाना (ख) पूरी दुर्गति या दुर्दशा हो जाना (व्यंग्य)। ४. संपर्क। संबंध। वास्ता। जैसे—हमारा उनसे कोई मतलब नहीं है।
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मतलबिया  : वि०=मतलबी।
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मतलबी  : वि० [अ० मत्लबी+ई (प्रत्य०)] अपना ही मतलब निकालनेवाला। स्वार्थ-परायण। स्वार्थी। खुदगरज।
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मतला  : पुं० [अ० मत्ल] गज़ल का पहला शेर जिसके मिस्रे सानुप्रास होते हैं।
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मतली  : स्त्री०=मिचली।
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मतलूब  : वि० [अ० मत्लूब] १. चाहा हुआ। जिसकी इच्छा हो। अभिप्रेत। २. प्रिय।
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मतवा  : स्त्री०=माता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मतवार  : वि०=मतवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मतवाल  : स्त्री० [हिं० मतवाला] १. मतवालापन। मत्तता। २. मतवालों या पागलों की तरह का कोई काम। उदा०—करत मतवाल जहाँ सन्त जन सूरमा...।—कबीर।
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मतवाला  : वि०, पुं० [सं० मत्त+हिं० वाला (प्रत्य०)] [स्त्री० मतवाली] १. नशे आदि के कारण मस्त। नशे में चूर। २. किसी प्रकार के अभिमान या मद के कारण मस्त और ला-परवाह। ३. उन्मत्त। पागल। पुं० १. वह भारी पत्थर जो किले या पहाड़ पर से नीचे के शत्रुओं को मारने के लिए लुढ़काया जाता है। २. कागज का बना हुआ एक प्रकार का खिलौना जो जमीन पर फेकने से सीधा खड़ा रहकर इधर-उधर हिलता रहता है।
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मंतव्य  : वि० [सं०√मन् (मानना)+तव्यत्] मानने योग्य। माननीय। मान्य। पुं० १. किसी काम या बात के संबंध में वह विचार जो मन में स्थिर किया गया हो। मत। (इन्टेन्ट) २. उद्देश्य, सभा-समिति आदि में उपस्थित और स्वीकृति होनेवाला प्रस्ताव या निश्चिय। (रिजोल्यूशन) ३. सभा, समिति आदि द्वारा किया हुआ कोई निश्चय या निर्णय। ४. संकल्प।
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मतस्य-द्वीप  : पुं० [मध्य० स०] पुराणानुसार एक द्वीप।
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मतस्यनाशन  : पुं०=मत्स्यनाशक।
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मता  : पुं०=मत (विचार)। स्त्री०=मति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मताधिकार  : पुं० [मत-अधिकार; ष० त०] किसी चुनाव या विषय में मत (या वोट) देने का अधिकार जो शासन से प्राप्त हो। प्रतिनिधिक संस्थाओं के सदस्य या प्रतिनिधि निर्वाचित करने में वोट या मत देने का अधिकार (फ्रैंचाइज़)।
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मताधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० मताधिकार+इनि] मत देने का अधिकारी। वोटर।
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मताना  : अ० [सं० मत+हिं० ना (प्रत्य०)] मत्त या मस्त होना। उदा०—पाइ बहै कंज में सुगंध राधिका कौ, मंजु ध्याए कदलीबन मतंग लौ मताए हैं।—रत्ना। स० मत्त का मस्त करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मतानुज्ञा  : स्त्री० [मत-अनुज्ञा, ष० त०] २१ प्रकार के निग्रह स्थानों में से एक (न्याय-दर्शन)।
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मतानुयायी (यिन्)  : पुं० [सं० मत-अनुयायिन्, ष० त०] किसी मत का अनुयायी। मतावलंबी।
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मतारी  : स्त्री०=मतहारी (माता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मतार्थना  : स्त्री० [सं० मत-अर्थना] चुनाव आदि के अवसरों पर लोगों के पास जाकर उनसे अपने पक्ष में मत माँगने या उन्हें अपने अनुकूल करने की क्रिया या भाव (कैन्वेसिंग ऑफ वोट्स)।
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मतावलंबी (बिन्)  : पुं० [मत-अवलंबित, ष० त०] किसी मत, सिद्धान्त आदि का अनुयायी। जैसे—जैन मतावलंबी।
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मताही  : स्त्री० [हिं० माता=चेचक] चेचक या माता का रोग जो कहीं कुछ दूर तक फैला हो (पूरब)। क्रि० प्र०—फैलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मति  : स्त्री० [स०√मन्+क्तिन्] १. बुद्धि। अक्ल। २. राय। सम्मति। ३. इच्छा। कामना। ४. याद। स्मृति। ५. साहित्य में एक संचारी भाव। यह उस समय माना जाता है जब कोई अनुचित बात हो जाती है तब उसके बाद नीति की कोई बात सूझती है। वि० १. बुद्धिमान। २. चतुर। चालाक। अव्य०=मत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मति-दर्शन  : पुं० [सं० ष० त०] वह शक्ति जिसके अनुसार दूसरे की योग्यता का पता लगाया जाता है।
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मति-भ्रम  : पुं० [सं० ष० त०] अस्वस्थ अथवा विकृत बुद्धि या समझ के कारण होनेवाला वह भ्रम जिसके फलस्वरूप मनुष्य कुछ का कुछ समझने लगता है, अथवा उसे किसी अवास्तविक घटना या दृश्य का भान होने लगता है (हैल्यूसिनेशन)।
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मति-भ्रंश  : पुं० [सं० ष० त०] वह अवस्था जिसमें बुद्धि कुछ भी सोच-समझ सकने में असमर्थ होती है। बुद्धि-भ्रंश।
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मति-मंद  : वि० [सं० मंदमति] मूर्ख।
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मति-मांद्य  : पुं० [ष० त०] मति-मंद होने की अवस्था या भाव।
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मतिदा  : स्त्री० [सं० मति√दा (देना)+क,+टाप्] १. ज्योतिष्मती नाम की लता। २. सेमल। शालमलि।
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मतिन  : अव्य० [सं० मत् या वत् ?] सदृश। समान (पूरब)। अव्य०=मत (निषेधार्थक)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मतिभंगी (गिन्)  : वि० [सं० मति√भञ्ज् (नष्ट करना)+णिनि] मति या बुद्धि नष्ट करनेवाला।
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मतिमंत  : वि० [सं० मतिमत्] बुद्धिमान्। चतुर।
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मतिमान् (मत्)  : वि० [सं० मति+मतुप्] बुद्धिमान। समझदार।
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मतिमाह  : वि०=मतिमान्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मतिवंत  : वि०=मतिमंत।
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मती  : वि० [सं० मतिमान्] १. किसी प्रकार का मत या राय रखनेवाला। २. किसी मत या सम्प्रदाय का अनुयायी। स्त्री० [सं० मति]=मत (विचार या संप्रदाय)। अव्य०=मत (निषेधात्मक)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मतीरा  : पुं० [सं० मेट] तरबूज।
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मतीस  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बाजा।
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मतेई  : स्त्री० [सं० विमातृ मि० पं० मतरई=विमाता] माता की सौत। विमाता।
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मतैक्य  : पुं० [सं० मत+ऐक्य] किसी विषय में दो या अधिक व्यक्तियों का एक ही मत या राय होना। मत या विचार में होनेवाली एकता या समानता।
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मत्कुण  : पुं० [सं० कर्म० स०] खटमल।
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मत्त  : वि० [सं०√मद् (मतवाला होना)+क्त] १. नशे आदि में चूर। सुस्त। २. किसी बात की अधिकता के कारण जिसमें विवेक न रह गया हो। जैसे—धन-मत्त। ३. किसी प्रकार के मनोवेग के पूर्ण आवेश से युक्त। ४. किसी काम या बात के पीछे मतवाला। जैसे—रण-मत्त। ५. उन्मत्त। पागल। ६. बहुत अधिक प्रसन्न। पुं० १. मतवाला हाथी। २. धतूरा। ३. कोयल। स्त्री०=माया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मत्त-गयंद  : पुं० [सं० मत्त+हिं गजेन्द्र] सवैया छंद का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में ७ भगण और २ गुरु होते हैं।
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मत्त-मयूर  : पुं० [सं० मध्य० स०] पंद्रह अक्षरों का एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः यगण, मगण, सगण, और फिर मगण होता है।
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मत्त-वारण  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. बरामदा। २. आँगन के पास या सामने की छत। ३. मस्त हाथी। ४. सुपारी का चूर्ण।
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मत्तक  : वि० [सं० मत्त+कन्] जो कुछ-कुछ मत्त हो।
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मत्तकाशी  : वि० [सं०] [स्त्री० मत्तकाशिनी] अत्यन्त रूपवान। परम सुन्दर।
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मत्तकोकिल  : पुं० [सं० कर्म० स०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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मत्तता  : स्त्री० [सं० मत्त+तल्+टाप्] मत्त होने की अवस्था या भाव मस्ती।
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मत्तताई  : स्त्री०=मत्तता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मत्ता  : स्त्री० [सं० मत्त+टाप्] १. बारह अक्षरों का एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में मगण, भगण, सगण और एक गुरु होता है और ४, ६ पर यदि होती है। २. मदिरा। शराब। स्त्री० [सं० मत् का भाव] सं० मत का वह रूप जो भाव वाचक शब्द बनाने के लिए प्रत्यय के रूप में अन्त में लगता है। जैसे—नीति मत्ता, बुद्धिमत्ता आदि। स्त्री०=मात्रा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मत्ता-क्रीड़ा  : स्त्री० [सं० ब० स०] तेईस अक्षरों का एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः दो मगण, एक तगण, चार नगण एक लघु और एक गुरु अक्षर होता है।
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मत्था  : पुं० [सं० मस्तक] १. ललाट। मस्तक। माथा। २. किसी पदार्थ का अगला या ऊपरी भाग।
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मत्थे  : क्रि० वि० [हिं० माथा] १. मस्तक या सिर पर। २. किसी पर उत्तरदायित्व, भार आदि के रूप में। मुहा०—(किसी के) मत्थे मढ़ना=जबरदस्ती देना। जैसे—यह काम तुम्हारे मत्थे पड़ेगा। (कोई बात किसी के) मत्थे मढ़ना=बलात् किसी पर कोई दोष मढ़ना।
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मत्य  : पुं० [सं० मत+यत्] १. पटेला। हेंगा। २. ज्ञान-प्राप्ति का साधन।
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मंत्र  : पुं० [सं०√मंत्र+घञ् वा अच्] १. भारतीय वैदिक साहित्य में देवता से की जानेवाली वह प्रार्थना जिसमें उसकी स्तुति भी हो। विशेष—वैदिक काल में तंत्र तीन प्रकार के होते थे। जो छंदोबद्ध या पद्य के रूप में होते थे और जिनका उच्चारण उच्च स्वर में किया जाता था, उन्हें ‘ऋचा’ कहते थे। गद्य रूप में होनेवाले और मंद स्वर में कहे जानेवाले मंत्रों को ‘यजु’ कहते थे, और पद्य रूप में गाये जानेवाले मंत्रों को ‘साम’ कहते थे। इसके सिवा निरुक्त में मंत्रों के तीन और भेद बतलाये गये हैं। जिन मंत्रों में देवता को परोक्ष में मान कर प्रथम पुरुष में उनकी स्तुति की जाती है, वे ‘परोक्ष-कृत’ कहलाते हैं। जिनमें देवताओं को प्रत्यक्ष मान कर मध्यम पुरुष में उनकी स्तुति की जाती है, उन्हें ‘प्रत्यक्षकृत’ कहते हैं। और जिन मंत्रों में स्वयं अपने आप में आरोप करके और उत्तम पुरुष में स्तुति की जाती है, वे ‘आध्यात्मिक’ कहलाते हैं। वैदिक मंत्रों में प्रायः प्रार्थना और स्तुति के सिवा अभिशाप, आशीर्वाद, निंदा, शपथ आदि की भी बहुत सी बातें पाई जाती हैं। वैदिक काल में इसी प्रकार के मंत्रों के द्वारा यज्ञ-संबंधी सब कृत्य किये जाते थे। २. वेदों का वह संहिता नामक भाग जिसमें उक्त प्रकार के मंत्र संगृहीत हैं और जो उनके ब्राह्मण नामक भाग से भिन्न हैं। ३. कोई ऐसा शब्द, पद या वाक्य जो दैवी शक्ति से युक्त माना जाता हो और जिसका उच्चारण किसी देवता को प्रसन्न करके उससे अपनी कामना पूरी कराने के लिए किया जाता हो। विशेष—उक्त प्रकार के मंत्रों में जो एकाक्षरी और बिना स्पष्ट अर्थवाले होते हैं। उन्हें तंत्र शास्त्र में बीज-मंत्र कहते हैं। पद—मंत्र-तंत्र, यंत्र-मंत्र। ४. राय या सलाह। मंत्रणा। ५. कोई ऐसी बात जो किसी प्रकार का उद्देश्य सिद्ध करने के लिए किसी को गुप्त रूप से बतलाई, समझाई या सिखाई जाय। कार्य-सिद्धि का गुर, ढंग या नीति। जैसे—न जाने तुमने उसे कौन सा मंत्र बता (या सिखा) दिया है कि वह लोगों से अपना काम तुरंत करा लेता है।
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मंत्र-गूढ़  : पुं० [सं० स० त०] गुप्तचर। जासूस। भेदिया।
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मंत्र-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] वहा स्थान जहाँ बैठकर मंत्रणा या सलाह करते हैं।
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मंत्र-जल  : पुं० [सं० मध्य० स०] मंत्र से प्रभावित किया हुआ जल।
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मंत्र-जिह्व  : पुं० [सं० ब० स०] अग्नि।
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मंत्र-तंत्र  : पुं० [सं० द्व० स०] वे मंत्र जो कुछ विशिष्ट प्रकार की क्रियाओं के साथ जादू-टोने के रूप में किसी अभीष्ट सिद्धि के लिए पढ़े जाते हैं। विशेष—ऐसे मंत्र या तो तंत्रशास्त्र के क्षेत्र के होते हैं; या उनके अनुकरण पर मन-माने ढंग से बनाये हुए होते हैं।
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मंत्र-दीधिति  : पुं० [ब० स०] अग्नि। आग।
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मंत्र-द्रष्टा  : वि० [ष० त०] जो मंत्रों का अर्थ जानता हो। पुं० मंत्रों के अर्थ जानने और बतानेवाला ऋषि।
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मंत्र-धर  : पुं० [ष० त०] मंत्र का अधिष्ठाता ऋषि।
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मंत्र-धर  : पुं० [ष० त०] मंत्री।
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मंत्र-पति  : पुं० [ष० त०] मंत्र का अधिष्ठाता देवता।
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मंत्र-पूत  : भू० कृ० [तृ० त०] १. मंत्र द्वारा पवित्र किया हुआ। २. मंत्र पढ़कर फूँका हुआ।
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मंत्र-बीज  : पुं० [ष० त०] मूल मंत्र।
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मंत्र-भेदक  : पुं० [ष० त०] वह जो शासन के निश्चय, भेद या रहस्य दूसरों पर प्रकट कर देता हो। (ऐसा व्यक्ति, राज्य या राष्ट्र या शत्रु माना जाता है।)
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मंत्र-मूल  : पुं० [ब० स०] राज्य।
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मंत्र-यान  : पुं० [ब० स० या सुप्सुपा स० ?] बौद्धों की एक शाखा जिसके प्रवर्त्तक सिद्ध नागार्जुन माने जाते हैं। इसे वज्रज्यान (देखें) भी कहते हैं। इस शाखा में बुद्ध के उपदेशों का सारांश मंत्रों के रूप में जपा जाता है। विशेष—बौद्ध धर्म का तीसरा यान या मार्ग जो महायान के बाद चला था; और जिसमें कुछ मंत्रों के उच्चारण से ही निर्वाण प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता था।
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मंत्र-युद्ध  : पुं० [सुप्सुपा स०] केवल बातचीत या बहस के द्वारा शत्रु को वश में करने की क्रिया या प्रयत्न।
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मंत्र-योग  : पुं० [ष० त०] १. मंत्रों का प्रयोग। मंत्र पढ़ना। २. हठयोग में प्राणायाम करते हुए मंत्र या नाम जपना। शब्द योग। ३. इन्द्रजाल। जादू।
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मंत्र-विद्  : वि० [सं० मंत्र√विद् (जानना)+क्विप्] १. मंत्र जाननेवाला। मंत्रज्ञ। २. वेदज्ञ। ३. राज्य या शासन के रहस्य और सिद्धांत जाननेवाला।
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मंत्र-विद्या  : स्त्री० [ष० त०]=मंत्र-शास्त्र।
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मंत्र-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें भिन्न प्रकार के मंत्रों के द्वारा उसके कार्य सिद्ध करने की क्रियाएँ और विवेचन हो। तंत्र-शास्त्र।
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मंत्र-संस्कार  : पुं० [सं० ष० त०] १. मंत्रों की विधि से किया जानेवाला संस्कार। २. मंत्र-ग्रहण करने से पूर्व उसका किया जानेवाला संस्कार। (तंत्र) ३. विवाह।
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मंत्र-संहिता  : स्त्री० [ष० त०] वेदों का वह अंश जिसमें मंत्रों का संग्रह है।
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मंत्र-सिद्ध  : वि० [तृ० त०] १. जो मंत्रों के द्वारा सिद्ध किया गया हो। २. [ब० स०] जिसे मंत्र सिद्ध हो।
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मंत्र-सिद्धि  : स्त्री० [ष० त०] मंत्र-तंत्र का इस प्रकार सिद्ध होना कि उनसे उपयुक्त काम लिया जा सके।
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मंत्र-सूत्र  : पुं० [मध्य० स०] रेशम या सूत का वह तागा जो शरीर के किसी अंग में बाँधने के लिए मंत्र पढ़कर तैयार किया गया हो। गंडा।
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मंत्रकार  : पुं० [सं० मंत्र√कृ+अण्, उप० स०] मंत्र रचनेवाला। जैसे—मंत्रकार ऋषि।
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मंत्रज्ञ  : वि० [सं० मंत्र√ज्ञा (जानना)+क] १. मंत्र जाननेवाला। २. परामर्श या सलाह देने की योग्यता रखनेवाला। ३. भेद या रहस्य जाननेवाला।
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मंत्रण  : पुं० [सं०√मंत्र (गुप्त भाषण)+ल्युट्—अन] १. मंत्रणा या सलाह करना। २. परामर्श।
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मंत्रणा  : स्त्री० [√मंत्र् +णिच्+युच्—अन,+टाप्] १. किसी महत्त्वपूर्ण विषय के संबंध में आपस में होनेवाली बात-चीत या विचार-विमर्श। सलाह। २. उक्त बात-चीत या विचार-विमर्श के द्वारा स्थिर किया हुआ मत। मंतव्य। ३. किसी काम के संबंध में किसी को दिया जानेवाला परामर्श या सलाह। (एडवाईज़)
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मंत्रणा-परिषद्  : स्त्री० [सं० ष० त०] मंत्रणाकारों की ऐसी परिषद् जो किसी बड़े अधिकारी या शासन को मंत्रणा देती रहती हो। (ऐडवाइज़री कौंसिल)
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मंत्रणाकार  : पुं० [सं० मंत्रणा√कृ (करना)+अण्] वह जो किसी को उसके कार्यों के संबंध में मंत्रणा देता रहता हो। (एडवाईजर)
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मंत्रद  : वि० [सं० मंत्र√दा (देना)+क, उप० स०] परामर्श देनेवाला। पुं० वह गुरु जिसने गुरु-मंत्र दिया हो।
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मंत्रदर्शी (दर्शिन्)  : वि० [सं० मंत्र√दृश् (देखना)+णिनि, उप० स०] वेदवित्। वेदज्ञ।
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मंत्रवादी (दिन्)  : वि० [सं० मंत्र√वद् (कहना)+णिनिन लोप] १. मंत्रज्ञ। २. मंत्र उच्चारण करनेवाला।
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मंत्रालय  : पुं० [मंत्र-आलय, ष० त०] १. मंत्री का कार्यालय। २. आजकल शासन में, कर्मचारियों का वह विभाग जो किसी मंत्री के निर्देशन में काम करता हो। (मिनिस्टरी) जैसे—शिक्षा मंत्रालय।
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मंत्रि-पति  : पुं० [सं० ष० त०] प्रधान मंत्री।
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मंत्रि-परिषद्  : स्त्री० [ष० त०] किसी राज्य, संस्था आदि के मंत्रियों का समूह या समाहार। (कैबिनेट, काउन्सिल)
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मंत्रि-मंडल  : पुं० [ष० त०] किसी राज्य के मंत्रियों का मंडल, वर्ग या समूह (मिनिस्टरी)
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मंत्रित  : भू० कृ० [सं०√मंत्र्+क्त या मंत्र+इतच्] १. मंत्र द्वारा संस्कृत। अभिमंत्रित। २. जिसे मंत्र दिया गया हो।
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मंत्रिता  : स्त्री० [सं० मंत्रिन्+तल्+टाप्] १. मंत्री होने की अवस्था, पद या भाव। मंत्रित्व। २. मंत्री का कार्य।
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मंत्रित्व  : पुं० [सं० मंत्रिन्+त्व] मंत्री का कार्य या पद। मंत्री-पद।
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मंत्री (त्रिन्)  : पुं० [सं० मंत्र+इनि,] १. वह जो मंत्रणा अर्थात् परामर्श या सलाह देता हो। २. राजा का वह प्रधान अधिकारी जो उसे राजकार्यों के संबंध में परामर्श देता और राज-कार्यों का संचालन करता हो। अमात्य। ३. वह व्यक्ति जिसके आदेश और परामर्श से राज्य के किसी विभाग के सब काम-काज होते हों। (मिनिस्टर) जैसे—अर्थ-मंत्री, शिक्षा-मंत्री। विशेष—मंत्री और सचिव के अन्तर के लिए दे० ‘सचिव’ का विशेष। ४. किसी संस्था का वह प्रधान अधिकारी जिसके आदेश तथा परामर्श से उसके सब काम होते हों। (सेक्रेटरी) जैसे—सभा का मंत्री। ५. वह जो किसी उच्च अधिकारी के साथ रहकर उसके पत्र-व्यवहार तथा महत्त्व के कार्यों की व्यवस्था करता हो। सचिव। (सेक्रेटरी) ६. शतरंज में वजीर नाम की गोटी या मोहरा।
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मत्सर  : पुं० [सं०√मद्+सरन्] १. द्वेष। विद्वेष। २. द्वेष-जन्य और ईर्ष्यापूर्ण मानसिक स्थिति। ३. क्रोध। गुस्सा।
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मत्सरी (रिन्)  : पुं० [सं० मत्सर+इनि, दीर्घ] मत्सर करनेवाला व्यक्ति। जिसके मन में मत्सर हो।
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मत्स्य  : पुं० [सं०√मद्+स्यन्] १. मछली। २. विष्णु के दस अवतारों में से पहला अवतार जो मछली के रूप में हुआ था। ३. ज्योतिष में मीन नामक राशि। ४. नारायण। ५. प्राचीन विराट् देश का दूसरा नाम। ६. पुराणानुसार सुनहले रंग की एक प्रकार की शिला जिसका पूजन करने से मुक्ति होना माना जाता है। ७. छप्पय छंद के २३वें भेद का नाम। ८. दे० ‘मत्स्य-पुराण’।
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मत्स्य-गंधा  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] १. सत्यवती (व्यास की माता। २. जल-पीपल।
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मत्स्य-द्वादशी  : स्त्री० [मध्य० स०] अगहन सुदी द्वादसी।
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मत्स्य-नारी  : स्त्री० [कर्म० स०] १. वह जो आकृति में आधी मछली हो और आधी नारी। विशेषतः जिसका धड़ से ऊपरी भाग नारी का हो और शेष भाग मछली है। (एक प्रकार का काल्पनिक प्राणी) २. सत्यवती।
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मत्स्य-न्याय  : पुं० [ष० त०] १. यह मान्यता कि छोटों को बड़े अथवा दुर्बलों को सबल उसी प्रकार खा जाते हैं या नष्ट कर देते हैं जिस प्रकार बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को खा जाती हैं। २. अराजकों या आततायियों का राज्य।
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मत्स्य-पालन  : पुं० [ष० त०] मछलियाँ पालकर उनकी पैदावार बढ़ाने का काम (पिसीकल्चर)।
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मत्स्य-पुराण  : पुं० [मध्य० स०] अठारह पुराणों में से एक पुराण जो महापुराण माना जाता है।
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मत्स्य-बंध  : पुं [ष० त०] मछलियाँ पकड़नेवाला। मछुआ। धीवर।
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मत्स्य-बंधन  : पुं० [ष० त०] मछली पकड़ने की बंशी। कँटिया।
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मत्स्य-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] तांत्रिकों की एक मुद्रा।
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मत्स्य-राज  : पुं० [ष० त०] १. रोहू मछली। रोहित। २. विराट्-नरेश।
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मत्स्य-वेधनी  : स्त्री० [ष० त०] मछली फँसाने की बंसी। कँटिया।
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मत्स्य-संवर्धन  : पुं० [ष० त०] मत्स्य-पालन।
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मत्स्यजीवी (विन्)  : पुं० [सं० मत्स्य√जीव (जीना)+णिनि, उप० स०] मछुआ। धीवर।
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मत्स्यनाशक  : पुं० [ष० त०] कुरर पक्षी।
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मत्स्यनी  : स्त्री० [सं०] देशों की पाँच प्रकार की सीमाओं में से वह सीमा जो नदी या जलाशय आदि के द्वारा निर्धारित हो।
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मत्स्याक्षी  : स्त्री० [मत्स्य-अक्षि, ब० स०,+षच्,+ङीष्] १. सोम लता। ब्राह्मी बूटी। ३. गाँडर। दूब।
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मत्स्यादिनी  : स्त्री० [मत्स्य-आदिनी, सुप्सुपा स०] १. जल पीपल। ३. दे० ‘मत्स्याक्षी’।
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मत्स्यावतार  : पुं० [मत्स्य-अवतार, ष० त०] भगवान् विष्णु का पहला अवतार जिसमें उन्होंने मत्स्य का रूप धारण किया था।
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मत्स्याशन  : वि० [सं० मत्स्य√अश् (खाना)+ल्यु-अन] मछली खानेवाला। पुं० मछरंग नामक पक्षी।
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मत्स्यासन  : पुं० [मत्स्य-आसन, मध्य० स०, ष० त०] तांत्रिकों के अनुसार योग का एक आसन।
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मत्स्येन्द्रनाथ  : पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध हठयोगी महात्मा जो गोरखनाथ के गुरु थे।
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मत्स्योदरी  : स्त्री० [मत्स्य-उदरी, ब० स०,+ङीष्] सत्यवती। मत्स्यगंधा।
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मत्स्योपजीवी (विन्)  : पुं० [सं० मत्स्य,+उप√जीव् (जीना)+णिनि] मछुआ धीवर।
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मंथ  : पुं० [सं० √मंथ् (मथना)+घञ्] १. मथना। बिलोना। २. हिलाना। ३. मलना।। रगड़ना। ४. मारना-पीटना। ५. काँपना। कंपन। ६. मथानी। ७. सूर्य की किरण। ८. एक प्रकार का मृग। ९. एक प्रकार का पेय पदार्थ जो कई प्रकार के तरल पदार्थों को मथकर बनाया जाता था। १॰. दूध या जल में मिलाकर मथा हुआ सत्तू। ११. आँख का एक रोग जिसमें आँखों से पानी या कीचड़ बहता है। १२. एक प्रकार का ज्वर जो बाल-रोग के अन्तर्गत माना जाता है। मंथर।
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मंथ-पर्वत  : पुं० [सं० ष० त०] मंदर पर्वत।
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मंथ-शैल  : पुं० [ष० त०] मंदर पर्वत।
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मंथक  : पुं० [सं√मंथ्+ण्वुल्—अक] १. एक गोत्रकार मुनि का नाम। २. उक्त ऋषि के वंशज या अनुयायी। ३. चँवर डुलाने पर निकलनेवाली वायु। वि० मंथन करनेवाला।
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मंथज  : वि० [सं० मंथ्√जन् (उत्पन्न करना)+ड] मथने से उत्पन्न होनेवाला। मथकर निकाला जानेवाला। पुं० नवनीत।
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मंथन  : पुं० [सं०√मंथ्+ल्युट्—अन] १. वह प्रक्रिया जिससे दही को मथानी द्वारा चलाकर मक्खन निकाला जाता है। २. किसी गूढ़ या नवीन तत्त्व को खोज निकालने के लिए परिश्रमपूर्वक की जानेवाली छान-बीन। जैसे—शास्त्रों का मन्थन।
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मथन  : पुं० [सं०√मथ् (मथना)+ल्युट्—अन] १. मथने की क्रिया या भाव। बिलोना। २. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ३. गनियारी नामक वृक्ष। वि० १. नष्ट करनेवाला। २. मार डालने या बध करनेवाला। (यौ० के अन्त में) जैसे—मदन-मथन।
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मंथन-घट  : स्त्री० [सं० मंथन+ङीष्] मिट्टी का वह पात्र जिसमें दही मथा जाता है। मटकी।
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मथना  : स० [सं० मथन या मंथन] १. मथानी आदि के द्वारा दूध या दही को इस प्रकार चालाना या हिलाना कि उसमें से मक्खन निकल आये। संयो० क्रि०—डालन।—देना।—लेना। २. कई चीजों को हिला-डुलाकर एक से मिलाना। ३. अस्त-व्यस्त या नष्ट-भ्रष्ट करना। ४. कुछ जानने या पता लगाने के लिए जगह-जगह ढूँढ़ना या देखना। जैसे—(क) बड़े-बड़े शास्त्र मथना। (ख) किसी को ढूँढ़ने के लिए सारा शहर मथना। ५. कोई क्रिया बहुत अधिक या बार-बार करना। जैसे—तुम तो एक ही बात लेकर मथने लगते हो। ६. अच्छी तरह पीटना या मारना। पुं० मथानी। रई।
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मथनियाँ  : स्त्री०=मथनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मथनी  : स्त्री० [हिं० मथना] १. मथने की क्रिया या भाव। २. वह मटका जिसमें दही मथा जाता है। ३. मथानी। रई।
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मंथर  : वि० [सं०√मंथ्+अरन्] १. धीमा। मन्द। २. मट्ठर। सुस्त। ३. मन्द-बुद्धि। कम-समझ। ४. बड़ा और भारी। स्थूल। ५. टेढ़ा। वक्र। ६. अधम। नीच। पुं० १. बालों का गुच्छा। २. कोष। खजाना। ३. फल। ४. बाधा। रुकावट। ५. मंथानी। ६. क्रोध। गुस्सा। ७. दूब। ८. वैशाख का महीना। ९. भँवर। १॰. किला। दुर्ग। ११. मृग। हिरन। १२. नवनीत। मक्खन। १३. मंथ (देखें) नामक ज्वर।
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मंथरा  : स्त्री० [सं० मंथर+टाप्] रानी कैकेयी की एक प्रसिद्ध कुबड़ी दासी जिसके बहकावे में आकर उसने राजा दशरथ से दो वर माँगे थे और राम को वन-वास दिलाया था। २. १२0 हाथ लंबी, ६0 हाथ चौड़ी और ३0 हाथ ऊँची नाव। (युक्तिकल्पतरु)
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मथवाह  : पुं० [हिं० माता+वाह (प्रत्य०)] सिर में होनेवाला दर्द। पुं० महावत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मथाई  : स्त्री० [हिं० मथना+आई (प्रत्य०)] १. मथने की क्रिया या भाव। २. मथने की मजदूरी।
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मंथान  : पुं० [सं०√मंथ्+अनच्] १. बड़ी मथानी। २. महादेव। शिव। ३. मंदर पर्वत। ४. एक भैरव का नाम। ५. मथानी। ६. अमलतास। ७. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरम में दो तगण होते हैं।
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मंथानक  : पुं० [सं० मंथान+कन्] एक तरह की घास।
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मथाना  : स० [हिं० मथना] मथने का काम किसी दूसरे से कराना। अ० [दही आदि का) मथा जाना। पुं० बड़ी मथानी।
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मथानी  : स्त्री० [हिं० मथना] काठ का बना हुआ एक प्रकार का उपकरण जिसकी सहायता से दही मथकर मक्खन निकाला जाता है। मुहा०—मथानी पड़ना या बहना=खलबली मचना।
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मथाव  : पुं० [हिं० मथना+आव (प्रत्य०)] मथने की क्रिया या भाव।
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मथित  : भूं० कृ० [सं०√मथ् (मथना)+क्त] १. जिसका मंथन या मथन किया गया हो। मथा हुआ। २. घोलकर अच्छी तरह मिलाया हुआ।
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मंथिता (तृ)  : वि० [सं०√मंथ्+तृच्] [स्त्री० मंथिनी] जो मथानी से दही मथता हो। मथनेवाला।
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मथितार्थ  : पुं० [सं० मथित-अर्थ, कर्म० स०] १. वह अर्थ या आशय जो किसी विषय का मथन या मंथन करने पर निकलता है। २. सारांश।
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मंथिनी  : स्त्री० [सं० मंथ+इनि+ञीप्] दही मथने की मटकी।
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मंथिप  : वि० [सं० मंथिन्√पा (पीना)+क] मथा हुआ सोम पीनेवाला।
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मंथी (थिन्)  : वि० [सं० मंथ+इन्,] १. मंथन करने या मथनेवाला। २. कष्ट देनेवाला। पीड़क। पुं० मथा हुआ सोमरस।
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मथुरा  : स्त्री० [सं०√मथ् (मथना)+उरच्+टाप्] पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक प्रसिद्ध नगरी, जिसकी गिनती सात मोझदायिका पुरियों में होती है।
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मथुरिया  : वि० [हिं० मथुरा+इया (प्रत्य०)] मथुरा का। जैसे—मथुरिया चौबे।
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मथूल  : पुं०=मस्तूल। उदा०—जानी के सोक जल जान की मथूल किधौं।—रत्नाकर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मथौरा  : पुं० [हिं० मथना] बढ़इयों का एक उपकरण या औजार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मथौरी  : स्त्री० [हिं० माथा+औरी (प्रत्य०)] एक गहना जो स्त्रियाँ सिर पर पहनती हैं।
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मथ्य  : पुं०=माथा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंद  : वि० [सं०√मंद् (सुस्त पड़ना)+अच्] १. जिसकी गति, चाल, प्रवाह, वेग अपेक्षाकृत अपने वर्गवालों से कम या घटकर हो। धीमा। २. जिसमें अधिक उग्रता या तीव्रता न हो। जैसे—मंद ज्वर। ३. जो जल्दी या सहसा नहीं; बल्कि धीरे-धीरे अपना प्रभाव दिखाता हो। जैसे—मंद विष। ४. जिसमें जल्दी-जल्दी तथा अच्छी तरह काम करने की शक्ति या सामर्थ्य न हो। जैसे—मंद-बुद्धि। ५. बेवकूफ। मूर्ख। ६. खल। दुष्ट। पुं० १. वह हाथी जिसकी छाती और मध्य-भाग की बलि ढीली हो, पेट लंबा, चमड़ा मोटा, गला, कोख और पूछ की चैवरी मोटी हो। २. शनि नामक ग्रह। ३. यम। ४. अभाग्य या दुर्भाग्य। ५. प्रलय। पुं०=मद्य (शराब)। प्रत्य० [सं० भान् या मन् से फा०] किसी गुण या वस्तु से प्राप्त अथवा संपन्न। वाला। जैसे—दौलतमंद, गरजमंद, जरूरतमंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मद  : पुं० [सं०√मद्+अप्] १. मादक द्रव्य खाने या पीने से होनेवाली वह उद्वेगपूर्ण अवस्था जिसमें मस्तिष्क ठीक तरह से काम नहीं करता। नशा। २. अपनी किसी विशिष्टता या श्रेष्ठता के कारण उत्पन्न होनेवाली वह मानसिक स्थिति जिसमें मनुष्य औरों को इस प्रकार तुच्छ या हीन समझने लगता है, मानो उसने किसी मादक द्रव्य का सेवन किया हो। निदंनीय अहंकार या गर्व। यह अभिमान का एक निकृष्ट प्रकार माना जाता है। ३. उन्मत्तता। पागलपन। ४. अज्ञान या प्रमाद के कारण होनेवाला मतिभ्रम। ५. वह मानसिक अवस्था जिसमें यौवन अथवा किसी प्रकार की वासना के कारण उचित-अनुचित या भले-बुरे का विशेष ध्यान नहीं रह जाता। मस्ती। मुहा०—मद पर आना=(क) युवा होना। (ख) तीव्र या प्रबल उमंग में होना। (ग) काम-वासना से उन्मत्त होना। ६. वह गंधयुक्त द्राव से मतवाले हाथियों की कनपटियों से बहता है। दान। ७. मद्य। शराब। ८. कस्तूरी। ९. शहद। १॰. वीर्य। ११. कामदेव। मदन। वि० १. मतवाला। मत। २. बहुत अधिक प्रसन्न या मत्त। स्त्री० [अ०] १. वह लंबी लकीर जिसके नीचे लेखा या हिसाब लिखा जाता है। शीर्षक। २. लेखे या हिसाब का वह विशिष्ट भाग जो किसी कार्य या व्यक्ति के नाम से अलग रखा जाता है। खाता। जैसे—ये १0) भी इसी मद में लि जायँगे। ३. कार्य या कार्यालय का विभाग। सरिश्ता। ४. समुद्र की ऊँची लहर। ज्वार।
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मद-कर  : वि० [ष० ०त०] जिससे मद उत्पन्न हो। मद-कारक। पुं० धतूरा।
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मद-कल  : वि० [ब० स०] [स्त्री० मद-कला] १. मत्त। मतवाला। २. उन्मत्ता। पागल। ३. जो किसी प्रकार के मद से विह्वल हो रहा हो।
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मंद-गति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] ग्रहों की गति की वह अवस्था जब वे अपनी कक्षा में घूमते हुए सूर्य से दूर निकल जाते हैं। वि० [ब० स०] धीमे चलनेवाला।
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मद-गंध  : पुं० [ब० स०] १. छतिवन। २. मद्य। शराब।
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मद-गमन  : पुं० [ब० स०] भैंसा। महिष।
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मद-जल  : पुं० [सं० कर्म० स०] हाथी का मद। दान।
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मंद-ज्वर  : पुं० [सं० कर्म० स०] प्रायः आता रहनेवाला ऐसा ज्वर जिसमें शरीर का तापमान बहुत अधिक न बढ़े। धीमा या हल्का ज्वर। (स्लो फ़ीवर)
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मंद-धूप  : पुं० [सं० कर्म० स०] काला धूप। काला डामर।
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मद-प्रयोग  : पुं० [ष० त०] हाथियों का मद बहना।
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मद-प्रस्त्रवण्  : पुं० [ष० त०] दे० ‘मदप्रयोग’।
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मंद-फल  : पुं० [सं० ब० स०] गणित ज्योतिष में ग्रहों की गति का एक प्रकार का भेद।
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मद-मत्त  : वि० [सं० तृ० त०] १. (हाथी) जो मद बहने के कारण मस्त हो। २. मतवाला। मत्त।
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मद-लेखा  : स्त्री० [ष० त०] एक प्रकार की वर्णिक वृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में सात सात वर्ण होते हैं।
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मद-विक्षिप्त  : वि० [तृ० त०] मद से पागल। मदमस्त। पुं० मतवाला हाथी।
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मद-शाक  : पुं० [ब० स०] पोई का साग।
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मद-हेतु  : पुं० [ष० त०] धौ का पेड़।
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मंदऊ  : पुं० [देश०] घोड़े की गले की हड्डी सूजने का एक रोग।
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मंदक  : वि० [सं० मंद+कन्] मूर्ख। ना-समझ।
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मदक  : स्त्री० [हिं० मद+क (प्रत्य०)] तंबाकू की तरह पीने का एक मादक पदार्थ जो अफीम के योग से बनाया जाता है।
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मदकची  : पुं० [हिं० मादक+ची (प्रत्य०)] वह जो मदक पीता हो। मदक पीनेवाला।
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मदकट  : पुं० [सं० मद√कट् (प्रकट करना)+अच्] १. साँड़। २. नपुंसक।
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मदकी  : पुं०=मदकची।
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मदकृत्  : वि० [सं० मद√कृ (करना)+क्विप्+तुक्] १. उन्माद-कारक। २. मादक।
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मदखूला  : स्त्री० [अ० मद्खूलः] वह स्त्री जिसे बिना विवाह किये ही पत्नी बनाकर घर में रख ले। गृहीता। रखनी।
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मंदग  : वि० [सं० मंद√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० मंदगा] मंद गतिवाला। धीमी चालवाला। पुं० महाभारत के अनुसार शाकद्वीप के अन्तर्गत चार जन-पदों में से एक।
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मदंग  : पुं० [सं० मृदंग] एक प्रकार का बाँस।
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मदगंधा  : स्त्री० [सं० मदगंध+टाप्] १. मदिरा। शराब। २. अतसी। मलसी।
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मदगल  : वि० [सं० मदकल] मत्त। मस्त। पुं०=मदगल (मिठाई)।
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मदगलित  : वि० [सं० मदकल] मदमत्त। उदा०—गमे गमे मदगलित गुडंता।—प्रिथीराज।
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मंदट  : पुं० [सं० मन्द√अट्+अच्] देवदारु।
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मदत  : स्त्री०=मदद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंदता  : स्त्री० [सं० मंद+तल्+टाप्] १. मंद होने की अवस्था, कर्म या भाव। धीमापन। २. आलस्य। सुस्ती। ३. क्षीणता।
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मंदती  : स्त्री० [सं०] विकृत धैवत की चार श्रुतियों में से दूसरी श्रुति।
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मदद  : स्त्री० [अ०] १. वह कार्य या सेवा जो किसी कार्यकर्ता के काम के संपादन में की जाय। सहायता। २. वह धन जो किसी की उद्देश्य सिद्धि, जीविका, निर्वाह आदि के लिए उसे दिया जाय। ३. वे पदार्थ या व्यक्ति जो किसी काम को पूरा करने के लिए भेजे जायँ। ४. नौकरों, मजदूरों आदि को दिया या बाँटा जानेवाला पारिश्रमिक अथवा वेतन का कुछ अंश। क्रि० प्र०—बाँटना।
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मदद-खर्च  : स्त्री० [अ० मदद+फा० खर्च] १. वह धन जो किसी की सहायता के लिए दिया जाय। २. किसी काम के लिए अग्रिम दिया जानेवाला धन। पेशगी।
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मददगार  : वि० [अ० मदद+फा० गार (प्रत्य०)] मदद या सहायता करने वाला सहायक।
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मदंध  : वि०=मदांध।
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मदध्नी  : स्त्री० [सं० मद√हन् (मारना)+ट+ङीष्] पोई नाम का साग। पूतिका।
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मदन  : पुं० [सं०√मद्+णिच्+ल्यु—अन] १. काम-देव। २. रति-क्रीड़ा। संभोग। ३. कामशास्त्र के अनुसार एक प्रकार का आलिंगन जिसमें नायक अपना एक हाथ नायिका के गले में डालकर और दूसरा हाथ मध्यदेश में लगाकर उसका आलिंगन करता है। ४. महादेव के चार प्रधान अवतारों में से तीसरे अवतार का नाम। ५. ज्योतिषशास्त्र के अनुसार जन्म से सप्तम गृह का नाम। ६. एक प्रकार के गीत। ७. मैना नामक पक्षी। ८. मैनफल। ९. धतूरा। १॰. खदिर। खैर। ११. मौलसिरी। १२. भौंरा। १३. मोम। १४. अखरोट। १५. प्रेम। स्नेह। १६. रूपमाल नामक छंद का दूसरा नाम। १७. खंजन पक्षी।
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मदन-कंटक  : पुं० [सं० मध्य० स०] साहित्य में सात्विक रोमांच।
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मदन-कदन  : पुं० [ष० त०] शिव। महादेव।
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मदन-गृह  : पुं० [ष० त०] १. योनि। भग। २. फलित ज्योतिष के अनुसार जन्म कुंडली में सातवाँ स्थान। ३. मदनहर नामक छन्द।
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मदन-गोपाल  : पुं० [उपमि० स०] श्रीकृष्णचन्द्र का एक नाम।
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मदन-चतुर्दशी  : स्त्री० [मध्य० स०] चैत्र शुक्ल चतुर्दशी।
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मदन-ताल  : पुं० [ष० त०] संगीत में, एक प्रकार का ताल जिसमें पहले दो द्रुत और अंत में दीर्घ मात्रा होती है।
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मदन-त्रयोदशी  : स्त्री० [मध्य० स०] चैत्र शुक्ल त्रयोदशी।
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मदन-दमन  : पुं० [ष० त०] शिव का एक नाम।
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मदन-दिवस  : पुं० [ष० त०] मदनोत्सव का दिन। वसंत।
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मदन-दोला  : स्त्री० [ष० त०] संगीत में, इन्द्र ताल के छः भेदों में से एक।
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मदन-द्वादशी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] चैत्र द्वादशी जो मदन महोत्सव के अन्तर्गत है।
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मदन-नालिका  : स्त्री० [ष० त०] वह स्त्री जिसका विश्वास न हो। दुश्चरित्रा या भ्रष्टा स्त्री।
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मदन-पति  : पुं० [ष० त०] १. इन्द्र। २. विष्णु।
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मदन-पाठक  : पुं० [ष० त०] कोकिल।
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मदन-फल  : पुं० [सं० मध्य० स०] मैनफल।
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मदन-भवन  : पुं० [सं० ष० त०] योनि। भग।
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मदन-मनोरमा  : स्त्री० [उपमि० स०] केशव के मतानुसार सवैया का एक भेद जिसे दुर्मिल भी कहते हैं।
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मदन-मनोहर  : पुं० [उपमि० स०] दंडकवृत्त का एक भेद जिसे मनहर भी कहते हैं।
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मदन-मस्त  : पुं० [हिं० मदन+मस्त] १. जंगली सूरन का सुखाया हुआ टुकड़ा जिसका प्रयोग औषध में होता है। २. चंपा के फूल का एक भेद जिसकी गन्ध बहुत उग्र होती है।
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मदन-मोदक  : पुं० [ष० त०] केशव के मतानुसार सवैया छंद का एक भेद जिसे सुंदरी भी कहते हैं।
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मदन-मोहत्सव  : पुं० [ष० त०] प्राचीन भारत का एक उत्सव जो चैत्र शुक्ल-द्वादशी से चुतर्दशी पर्यन्त होता था।
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मदन-मोहन  : पुं० [ष० त०] कृष्णचन्द्र का एक नाम।
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मदन-ललिता  : स्त्री० [सुप्सुपा स०] एक प्रकार का वर्णक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सोलह वर्ग होते हैं।
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मदन-लेख  : पुं० [सं० मध्य० स०] प्रेमी और प्रेमिका के पारस्परिक प्रेम-पत्र।
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मदन-शलाका  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. मैना। ३. कोयल।
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मदन-सदन  : पुं० [ष० त०] १. भग। योनि। २. फलित ज्योतिष के अनुसार, जन्म-कुंडली का सातवाँ स्थान।
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मदन-सारिका  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] मैना।
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मदन-हर  : पुं० [ष० त०] = मदनहरा।
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मदन-हरा  : स्त्री० [सं० मदनहार+टाप्] चालीस मात्राओं के एक छंद का नाम।
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मदनक  : पुं० [सं० मदन+कन्] १. मदन वृक्ष। मैन फल। २. दमनक या दौना नाम का पौधा। ३. मोम। ४. खदिर। खैर। ५. मौलसिरी। ६. धतूरा।
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मदनबान  : पुं० [सं० मदनबाण] एक प्रकार का बेला और उसका फूल।
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मंदना  : अ० [सं० मन्द] १. मंद होना। धीमा पड़ना। २. सुस्त होना। ३. फीका या हलका पड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मदना  : स्त्री० [सं० मदन+टाप्] मैना।
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मदनांकुश  : पुं० [मदन-अंकुश, ष० त०] १. लिंग। २. नख-क्षत।
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मदनाग्रक  : पुं० [सं० मदन-अग्रक, ब० स०+कप्] कोदों।
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मदनांतक  : पुं० [मदन-अंतक, ष० त०] शिव।
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मदनांध  : वि० [मदन-अंध, तृ० त०] कामांध।
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मदनायुध  : पुं० [सं० मदन-आयुध, ष० त०] १. कामदेव का अस्त्र। २. भग। योनि।
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मदनारि  : पुं० [मदन-अरि, ष० त०] शिव।
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मदनालय  : पुं० [मदन-आलय, ष० त०] १. भग। योनि। २. फलित ज्योतिष के अनुसार जन्म-कुंडली में का सातवाँ स्थान।
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मदनावस्था  : स्त्री० [मदन, अवस्था, ष० त०] वह अवस्था जिसमें काम-वासना बहुत प्रबल हो।
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मदनास्त्र  : पुं० [मदन-अस्त्र, ष० त०]=मदनायुध।
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मदनी  : स्त्री० [सं० मदन+ङीष्] १. मद्य। शराब। २. कस्तूरी। ३. मेथी। ४. घौ।
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मदनीय  : वि० [सं०√मद्+अनीयर्] नशा उत्पन्न करने या लानेवाला मादक।
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मदनोत्सव  : पुं० [मदन-उत्सव, च० त० या ष० त०] मदन-महोत्सव।
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मदनोत्सवा  : स्त्री० [मदन-उत्सव, ब० स०,+टाप्] अप्सरा।
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मदनोद्यान  : पुं० [मदन-उद्यान , च० त० या ष० त०] प्रमोद-वन।
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मदपी  : वि०=मद्यप (शराबी)।
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मदफन  : पुं० [अ० मद्रफ़न] वह स्थान जहाँ मुरदे गाड़े जाते हैं। कब्रिस्तान। वि० १. जमीन में गाड़ा हुआ। गुह्य।
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मदभंजिनी  : स्त्री० [सं० मद√भञ्ज् (भंग करना)+णिनि+ङीष्] शतमूली।
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मंदभागी  : वि० [सं० मंदभाग्य] अभागा। बदकिस्मत।
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मदयंतिका  : स्त्री० [सं०√मद् (मतवाला होना)+णिच्—झच्+अन्त,+ङीष्+कन्+टाप्, ह्रस्व] मल्लिका।
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मदयित्नु  : पुं० [सं०√मद्+णिच्+इत्नुच्] १. कामदेव। २. मद्य। शराब। ३. कलवार।
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मंदर  : पुं० [सं०√मंद+अर्] १. पुराणानुसार एक पर्वत जिससे समुद्र मथा गया था। मन्दराचल। २. मंदार नामक वृक्ष। ३. स्वर्ग। ४. दर्पण। शीशा। ५. पुराणानुसार कुश द्वीप का एक पर्वत। ६. पुराणानुसार प्रासाद के बीस भेदों में से दूसरा भेद या प्रकार। ७. एक वर्णवृत का नाम जिसमें प्रत्येक चरण में एक भगण (ऽऽ।।) होता है। ८. मोतियों का वह हार जिसमें आठ या सोलह लड़ियाँ हों। वि०=मंद।
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मदर  : पुं० [सं० मंडल] मँडराने की क्रिया या भाव। उदा०—ब्रज पर मदर करत है काम।—सुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंदर-गिरि  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. मंदराचल पर्वत। २. मुंगेर के पास का एक पहाड़ जहाँ सीता-कुंड नाम का गरम पानी का कुंड और जैनों बौद्धों तथा हिन्दुओं के मंदिर हैं।
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मदरज  : पुं०=मकरंद।
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मदरसा  : पुं० [अ० मदरिसः] पाठशाला। विद्यालय।
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मँदरा  : वि० [सं० मंदर मि० पं० मँदरा=नाटा] [स्त्री० मँदरी] छोटे आकार का। नाटा। पुं० [सं० मंडल] एक प्रकार का बाजा जिसे मंडिल भी कहते हैं।
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मदरास  : पुं० १. दक्षिण भारत का एक प्रदेश जो अब कई राज्यों में विभक्त हो गया है। २. उक्त प्रदेश की एक प्रसिद्ध नगरी।
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मदरासी  : वि० [हिं० मदरास] मदरास का। पुं० मदरास का रहनेवाला।
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मँदरी  : स्त्री० [देश०] खाजे की जाति का एक पेड़।
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मंदला  : पुं०=मंदिल (बाजा)।
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मंदसान  : पुं० [सं०√मंद् (प्राप्त होना)+सानच्)] १. अग्नि। २. प्राण। ३. निद्रा। नींद।
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मदसार  : पुं० [सं० मद्√सृ (गति)+णिच्+अण्] शहतूत का पेड़।
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मदह  : स्त्री० [अ०] प्रशंसा। तारीफ।
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मदहेसहाबा  : स्त्री० [अ० मदह-ई-साहबः] मुहर्रम के दिनों में सुश्री संप्रदाय वालों द्वारा पढ़ी जानेवाली वे कविताएँ जिनमें मुहम्मद साहब और उनके साथियों की प्रशंसा होती है।
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मदहोश  : वि० [फा०] नशे के कारण जिसके होश ठिकाने न हों।
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मदहोशी  : स्त्री० [फा०] मदहोश होने की अवस्था का भाव।
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मंदा  : स्त्री० [सं० मन्द+टाप्] १. सूर्य की वह संक्रांति जो उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद और रोहिणी नक्षत्र में पड़े। २. बल्ली करंज। वि० [सं० मंद] [स्त्री० भाव० मंदी] १. मंद। धीमा। २. ढीला। शिथिल। ३. (शारीरिक अवस्था) जो ठीक न हो। ४. बिगड़ा हुआ। विकृत। ५. (बाजार या व्यापार) जिसमें तेजी न हो। जिसमें लेन-देन या क्रय-विक्रय बहुत कम हो रहा हो।
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मंदाकिनी  : स्त्री० [सं०√मंद्+आक, मंदाक+इनि वा मंद√अक् (गति)+णिनि+ङीष्] १. पुराणानुसार गंगा की वह धारा जो स्वर्ग में है। २. आकाश-गंगा। ३. सात प्रकार की संक्रांतियों में से एक। ४. चित्रकूट के पास बहनेवाली एक नदी। (महाभारत) ५. एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः दो-दो नगण और दो-दो रगण होते हैं।
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मंदाक्रांता  : स्त्री० [सं० मंद-आक्रान्ता, कर्म० स०] सत्रह अक्षरों का एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण, भगण, नगण और तगण और अंत में दो गुरु होते हैं।
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मंदाक्ष  : विय [सं० मंद-अक्षि,+षच्] संकुचित आँखोंवाला। पुं० लज्जा। शरम।
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मदाखिल  : स्त्री० [अ०] लगान।
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मदाखिलत  : स्त्री० [अ०] १. दाखिल होने की क्रिया या भाव। प्रवेश। २. बीच में दखल देने की क्रिया या भाव। ३. बँध।
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मदाखिलत बेजा  : स्त्री० [अ० मदाखिलत+फा० बेजा] १. अनुचित रूप से किया जानेवाला प्रवेश। २. अनुचित रूप से दखल देने की क्रिया या भाव। अनुचित हस्तक्षेप।
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मंदाग्नि  : स्त्री० [सं० मंद-अग्नि, कर्म० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें रोगी की पाचन शक्ति मंद पड़ जाती है, भूख कम लगती है और खाई हुई चीज जल्दी हजम नहीं होती।
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मदाढ्य  : पुं० [मद-आढ्य, तृ० त०] ताड़।
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मदांतक  : पुं० [अद-अंतक, ष० त०] मदात्यय नामक रोग।
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मंदात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० मंद-आत्मन्, ब० स०] १. मूर्ख। २. नीच।
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मदात्यय  : पुं० [सं० मद-अत्यय, ब० स०] बहुत अधिक मदिरा या शराब पीने के फल-स्वरूप उत्पन्न होनेवाले कई प्रकार के शारीरिक विकार (एल्कोहलिज़्म)।
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मदांध  : वि० [मद-अंध, तृ० त०] [भाव० मदांधता] मद अर्थात् किसी गुण आदि की अधिकता के फलस्वरूप जो अंधा या विवेकहीन हो रहा हो।
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मदांधता  : स्त्री० [सं० मदांध+तल्+टाप्] मदांध होने की अवस्था या भाव।
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मंदान  : पुं० [?] जहाज का अगला भाग। (लश०)
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मंदानल  : पुं० [सं० मंद-अनल, कर्म० स०] मंदाग्नि (रोग)।
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मंदाना  : अ० [हिं० मंद] मंद पड़ना या होना। स० मन्द या धीमा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मदानि  : वि० [?] कल्याण करनेवाला। मंगलकारक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मंदानिल  : पुं० [सं० मंद-अनिल, कर्म० स०] धीमे चलनेवाली हलकी और सुखद वायु।
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मंदार  : पुं० [सं०√मंद्+आरन्] १. स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक देव वृक्ष। २. आक। मदार। ३. स्वर्ग। ४. हाथ। ५. धतूरा। ६. हाथी। ७. बिन्ध्य पर्वत के पास का एक तीर्थ। ८. हिरण्य-कश्यप का एक पुत्र।
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मदार  : पुं० [सं०√मद्+आरन्] १. हाथी। २. सूअर। ३. एक प्रकार का गंध द्रव्य। ४. आक नाम का पौधा। वि० चालाक। धूर्त्त। पुं० [अ०] १. दौरा करने का रास्ता। भ्रमण-मार्ग। २. ग्रहों के भ्रमण का मार्ग। कक्षा। ३. आधार। आश्रय। पद—दार मदार। ४. मुसलमानों के एक पीर। पुं०=मदारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मदार-गदा  : पुं० [हिं० मदार+गदा] धूप में सुखाया हुआ मदार का दूध जो प्रायः औषध के रूप में काम आता है।
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मंदार-माला  : स्त्री० [सं० ष० त०] बाइस अक्षरों का एक वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सात तगण और अंत में एक गुरु होता है।
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मंदारक  : पुं० [सं० मंदार+कन्]=मंदार।
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मदारिया  : पुं० [देश०] एक प्रकार का मिट्टी का हुक्का। (अवध) पुं०=मदारी।
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मदारी  : पुं० [अ० मदार] १. वह जो बन्दर, भालू आदि नचाकर जीविका चलाता हो। कलंदर। २. जादू आदि के खेल दिखानेवाला बाजीगर।
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मंदालसा  : स्त्री०=मदालसा।
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मदालसा  : स्त्री० [सं०] पुराणानुसार विश्वावसु गंधर्व की कन्या जिसे पातालकेतु दानव ने उठा ले जाकर पाताल में रखा था।
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मदालापी (पिन्)  : पुं० [सं० मद+आ√लप् (बोलना)+णिनि] [स्त्री० मदालापिनी] कोकिला। कोयल।
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मदालु  : वि० [सं० मद+आलुच्] १. जिससे मद झरता हो। २. मस्त।।
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मदाह्व  : पुं० [मद-आह्व, ब० स०] कस्तूरी।
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मदि  : स्त्री० [सं०√मृद् (चूर्ण करना)+इनि, पृषो० सिद्धि] हेंगा। पटेला।
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मंदिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० मंद+इमनिच्,] १. मंदता। धीमापन। २. शिथिलता। सुस्ती। ३. अल्पता। कमी।
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मदिया  : स्त्री० [फा० मादा] पशुओं में स्त्री जाति। स्त्री जाति का जानवर। मादा। जैसे—कबूतर की मदिया=कबूतरी।
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मंदिर  : पुं० [सं०√मंद्+किरच्] १. रहने का घर। मकान। २. वह घर या मकान जिसमें पूजन आदि के लिए कोई मूर्ति स्थापित हो। देवालय। ३. किसी विशिष्ट शुभ कार्य के लिए बना हुआ भवन या मकान। जैसे—विद्या-मंदिर। ४. नगर। शहर। ५. छावनी। ६. समुद्र। ७. घोड़े की जाघ का पिछला भाग।
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मदिर  : स्त्री० [सं०√मद्+किरच्] लाल खैर। वि० मद से भरा हुआ। उदा०—गूँजते हुए मदिर धुन में वासना के गीत।—प्रसाद।
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मंदिर-पशु  : पुं० [सं० मध्य० स०] बिल्ली।
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मंदिरा  : स्त्री० [सं० मन्दिर+टाप्] १. घुड़साल। अश्वशाला। २. मँजारी नाम का बाजा।
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मदिरा  : स्त्री० [सं० मदिर+टाप्] १. कुछ विशिष्ट प्रकार के अन्नों, फलों, रसों आदि को सड़ाकर उनका भभके से खींचकर निकाला जानेवाला नशीला रस। २. शराब। २. कामदेव की पत्नी। रति। ३. बाइस अक्षरों का एक वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में सात भगण और अंत में एक गुरु होता है। इसे मालिनी, उमा और दिवा भी कहते हैं।
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मदिराक्ष  : वि० [मदिर-अक्ष, ब० स०+अच्] [स्त्री० मदिराक्षी] मस्त आँखोंवाला। मत्तलोचन।
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मदिराभा  : स्त्री० [मदिरा-आभा, ष० त०] मदिरा की आभा या आभास। जैसे—स्वर्णोदय सी अंतर्मन में मदिरामा भरती तुम क्षण में।—पंत।
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मदिरायत  : वि० [सं० मदिरायतन] मद से भरा हुआ। मदिर। जैसे—मदिरायत नयन।
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मदिरालय  : पुं० [मदिरा-आलय, ष० त०] शराबखाना। कलवरिया।
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मदिरालस  : वि० [सं० मदिरा-अलस, तृ० त०] [स्त्री० मदिरालसा] अधिक शराब पीने के बाद जिसे बहुत आलस्य आ रहा हो।
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मंदिल  : पुं० [सं० मंदिर] १. घर। मकान। २. देव-मंदिर। देवालय। ३. वह धन जो व्यापारी लोग किसी चीज का दाम चुकाने के समय किसी बड़े मन्दिर में भेजने के लिए काट लेते हैं। क्रि० प्र०—काटना। पुं०=मंदल (बाजा)।
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मंदी  : स्त्री० [हिं० मंद] १. मंद होने की अवस्था या भाव। २. बाजार की वह स्थिति जिसमें चीजों की दर या भाव उतर रहा हो। ३. बाजार की वह स्थिति जिसमें चीजें कम बिकती हों या रोजगार कम चलता हो। ‘तेजी’ का विपर्याय। ४. अर्थ-शास्त्र में, बाजार की वह स्थिति जिसमें लोगों की क्रयशक्ति कम होने के कारण चीजों की बिक्री घटने लगती है।
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मदी  : स्त्री०=मदि।
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मदीना  : पुं० [अ० मदीनः] अरब का एक प्रसिद्ध नगर जहाँ इस्लाम के प्रवर्तक मुहम्मद साहब की समाधि है।
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मदीय  : वि० [सं० अस्मद्+छ—ईय, मदादेश] [स्त्री० मदीया] मेरा।
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मंदील  : पुं० [हिं० मुंड] एक प्रकार का सिरबंद जिस पर जरदोजी का काम बना रहता है। पुं०=मंदिल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मदीला  : वि० [सं० मद+हिं० ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० मदीली] १. मद से युक्त। मदिर। २. नशा लानेवाला। नशीला।
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मदुकल  : पुं० [?] ऐसा दोहा जिसके प्रत्येक चरण में १३ गुरु और २२ लघु मात्राएँ हों। गयंद।
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मंदुरा  : स्त्री० [सं√मंद्+उरच्+टाप्] १. अश्व-साला। घुड़साल। २. चटाई।
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मदुरा  : पुं० [?] काठ का बना हुआ एक प्रकार का कड़ा जो योगी हाथ में पहनते हैं।
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मंदोच्च  : पुं० [सं० मंद-उच्च, कर्म० स०] ग्रहों की एक प्रकार की गति जिससे राशि आदि का संशोधन करते हैं।
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मदोत्कट  : वि० [सं० मद-उत्कट, तृ० त०] मद से उन्मत्त। पुं० मस्त हाथी।
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मंदोदर  : वि० [सं मंद-उदर, ब० स०] [स्त्री० मंदोदरी] छोटे या पतले पेटवाला।
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मंदोदरी  : स्त्री० [सं० मंदोदरी+ङीष्] रावण की पटरानी जो मय दानव की कन्या थी।
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मदोदाग्र  : वि० [सं० मद-उदग्र, तृ० त०] मत्त। मतवाला।
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मदोद्धत  : वि० [सं० मद-उद्धत, तृ० त०] १. मदोन्मत्त मत्त। २. बहुत बड़ा अभिमानी या घमंडी।
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मदोन्मत्त  : वि० [सं० मद-उन्मत्त, तृ० त०] १. जो मद या नशे के कारण उन्मत्त हो रहा हो। मदांध। २. जो धन, बल आदि की अधिकता के फलस्वरूप बहुत घमंडी हो, इसलिए जिसे भले-बुरे का ज्ञान न रह गया हो।
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मँदोवै  : स्त्री०=मंदोदरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मदोवै  : स्त्री०=मंदोदरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मंदोष्ण  : वि० [सं० मंद-उष्ण, कर्म० स०] कम या थोड़ा गरम। कुनकुना।
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मद्गु  : पुं० [सं०√मस्ज् (डूबना)+ड] १. एक प्रकार का जल-पक्षी। २. पेड़ों पर रहनेवाला एक प्रकार का जंतु। ३. मंगुर या मद्गुरी नाम की मछली। ४. एक प्रकार का साँप। ५. एक प्रकार का जहाज जो जल-युद्ध में काम आता था। ६. एक पुरानी वर्ण-शंकर जाति।
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मद्गुर  : पुं० [सं०√मद्+उरच्, नि० सिद्धि] १. मंगुर या मंगुरी नामक मछली। २. मद्गु नामक संकर जाति।
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मद्द  : स्त्री०=मद (विभाग)।
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मद्दत  : स्त्री०=मदद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मद्दा  : वि०=मंदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मद्दाह  : वि० [अ०] [भाव० मद्दाही] मदह अर्थात् प्रशंसा या स्तुति करनेवाला।
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मद्दी  : स्त्री०=मंदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मद्दू  : पुं० [सं० ककुद] साँड़ का डिल्ला।
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मद्दूसाही  : पुं० [हिं० मधुसाह] ताँबे का एक प्रकार का पुराना सिक्का जो प्रायः एक पैसे के बराबर होता था।
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मद्धम  : वि० १. =मद्धिम। २.=मध्यम।
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मद्धिक  : पुं० [सं०] दाख से बनाई हुई शराब। द्राक्ष।
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मद्धिम  : वि० [सं० मध्यम] १. गतिण गुण आदि के विचार से जिसमें तेजी या प्रखरता न हो। सामान्य अवस्था की अपेक्षा कम तेज या कम प्रखर। हलका। जैसे—मद्धिम चाल, मद्धिम रोशनी।
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मद्धे  : अव्य [सं० मध्ये] १. मध्य या बीच में। २. में। ३. किसी विभाग या विषय के क्षेत्र या मद में। जैसे—सौ रुपए मकान की मरम्मत मद्धे खरच हुए।
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मद्य  : पुं० [सं०√मद्+यत्] मदिरा। शराब। सुरा (वाइन)।
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मद्य-पान  : [ष० त०] मद्य पीने की क्रिया या भाव। शराब पीना।
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मद्य-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] धातकी। धौ।
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मद्य-बीज  : पुं० [ष० त०] १. शराब के लिए उठाया हुआ खमीर। पाँस। २. वह पदार्थ जिसके द्वारा खमीर या पाँस उठाया जाता है।
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मद्य-मंड  : पुं० [ष० त०]=मद्यपाशन।
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मद्यप  : वि० [सं० मद्य√पा (पीना)+क] जो मद्यपान करता हो। मद्य पीने का अभ्यस्त। शराबी।
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मद्यपाशन  : पुं० [सं० मद्यप-अशन, ष० त०] मद्य के साथ खाई जानेवाली चटपटी चीज। चाट। गजक।
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मद्यवासिनी  : स्त्री० [सं० मद्य-वास, ष० त०+इनि+ङीष्] धातकी। धौ।
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मद्यसंधान  : पुं० [ष० त०] भभके से शराब खींचने की प्रक्रिया।
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मंद्र  : पुं० [सं०√मंद्+रक्] १. गंभीर ध्वनि। जोर का शब्द। २. संगीत में तीन प्रकार के स्वरों से एक जो अपेक्षया धीमा या मंद होता है। ३. मृदंग
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मद्र  : पुं० [सं०√मद्र+रक्] १. पंचनद में स्थित एक प्राचीन जनपद। २. उक्त जनपद का शासक। ३. मद्र जनपद का निवासी।
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मद्र-सूता  : स्त्री० [सं० ष० त०] माद्री।
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मद्रक  : वि० [सं० मद्र+कन्] १. मद्र जनपद-संबंधी। २ मद्र देश में उत्पन्न। पु० १. मद्र जनपद का शासक। २. मद्र देश का निवासी।
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मंद्रकर  : वि० [सं० मद्र√कृ+खच्, मुमागम] मंगलकारक। शुभ।
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मद्रकार  : वि० [सं० मद्र√कृ (करना)+अण्] मंगलकारक। शुभ।
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मंद्राज  : पुं० [सं०] [स्त्री० मंद्राजिन] १. दक्षिण का एक प्रधान नगर जो पूर्वी घाट के किनारे है। २. उक्त नगर के आसपास का प्रदेश जो अब कई राज्यों में बँट गया है। मदरास।
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मंद्राजी  : वि०, पुं०=मदरासी।
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मद्रास  : पुं०=मदरास।
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मद्रासी  : वि०, पुं०=मदरासी।
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मध  : पुं० [सं०√मंध् (गति)+अच्, पृषो० सिद्धि] १. एक प्राचीन द्वीप का नाम। २. एक प्राचीन देश। ३. आनंद। ४. दे० ‘मधा’। ५. धन। ६. पुरस्कार। ७. एक पौधा और उसका फूल।
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मध  : पुं० १.=मध्य। २.=मद्य। ३. मधु। अव्य० [सं० मध्य] में।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मधई  : वि० [सं० मद्य+हिं० ई (प्रत्य०)] शराब पीनेवाला। शराबी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मधथ  : पुं०=मध्यस्थ। उदा०—दुहु दिश मधथ दिवाकर भले।—विद्यापति।
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मधप-तृण  : पुं० [कर्म० स०] ईख।
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मधपायी (यिन्)  : पुं० [सं० मधु√पा (पीना)+णिनि, युक्] भौंरा। वि० मधु पीनेवाला।
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मधवा (वन्)  : पुं० [सं० मह् (पूज्य)+क्वनिन्, ह—घ] १. इंद्र। २. सातवें द्वापर के व्यास। ३. उल्लू।
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मधवाजित्  : पुं० [सं० मधवजित्] इन्द्र। (डिं०)
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मधवाप्रस्थ  : पुं० [सं० मधवप्रस्थ] इन्द्रप्रस्थ (नगर)।
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मधवारिपु  : पुं० [सं० मधवरिपु] इन्द्र का शत्रु। मेघनाद।
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मधव्य  : पुं० [सं० मधु+यत्] वैशाख मास।
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मधा  : स्त्री० [सं०√मह्+घ+टाप्] १. २७ नक्षत्रों में से दसवाँ नक्षत्र जो पाँच तारों का है। (हिं० में यह प्रायः पुल्लिंग की तरह प्रयुक्त होता है) २. छोटा पीपल।
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मधा-त्रयोदशी  : स्त्री० [मध्य० स०] भाद्र कृष्ण त्रयोदशी।
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मधाना  : पुं० [देश०] एक प्रकार की बरसाती घास। मकड़ा। (देखें।)
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मधाना  : पुं० [देश०] एक प्रकार की घास। मकड़ा।
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मधाभव  : पुं० [सं० मधा√भू (होना)+अच्] शुक्र (ग्रह)।
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मधारना  : स० [हिं० माघ+आरना (प्रत्य०)] आगामी वर्षा ऋतु में धान बोने के लिए माघ के महीने में हल चलाना।
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मधि  : स्त्री० [सं० मध्य०] १. मध्य में होने की अवस्था या भाव। २. सुख-दुःख, स्वर्ग-नरक आदि को समान भाव से देखने की अवस्था, क्रिया या भाव। अव्य० मध्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मधिम  : वि० १.=मद्धिम। २.=मध्यम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मधियाती  : वि० [सं० मध्यवर्ती] बीच में रहने या होनेवाला। बीच का। उदा०—जेते मधियाती सब तिन सौं मिलाय छूट्यौ—सेनापति।
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मधु  : पुं० [सं०√मन् (जानना)+नु, धु—आदेश] १. शहद। २. जल। पानी। ३. मदिरा। ४. फूलों का रस। मकरंद। ५. वसंत ऋतु। ६. चैत का महीना। ७. दूध। ८. मिसरी। ९. मक्खन। १॰. घी। ११. अशोक वृक्ष। १२. महुआ। १३. मुलेठी। १४. अमृत। १५. शिव का एक नाम। १६. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में दो लघु अक्षर होते हैं। १७. संगीत में एक राग जो भैरव राग का पुत्र माना जाता है। १८. एक दैत्य जिसे विष्णु ने मारा था और जिसके कारण उनका नाम ‘मधुसूदन’ पड़ा था। वि० १. मीठा। २. मधुर। ३. स्वादिष्ट। स्त्री० जीवंती का पेड़।
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मधु-ऋतु  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वसंत ऋतु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मधु-कंठ  : वि० [ब० स०] जिसके गले में मिठास हो। पुं० कोकिल। कोयल।
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मधु-कर  : पुं० [ष० त०] १. भौंरा। २. कामुक व्यक्ति। ३. भँगरा।
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मधु-कर्कटिका  : स्त्री० [उपमि० स०] १. बिजौरा नींबू। २.
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मधु-कर्कटी  : स्त्री० [उपमि० स०] १. बिजौरा नीबू २ खजूर का फल।
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मधु-कुल्या  : स्त्री० [ष० त०] कुश द्वीप की एक नदी। पुराण।
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मधु-कृत  : पुं० [सं० मधु√कृ+क्विप्, तुक्] १. भौंरा। २. मधुमक्खी।
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मधु-कैटभ  : पुं० [द्वं० स०] मधु और कैटभ नामक दो दैत्य जो विष्णु के कान की मैल से उत्पन्न हुए माने गये हैं। (पुराण)
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मधु-कोष  : पुं० [ष० त०] शहद की मक्खी का छत्ता। मधु-चक्र।
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मधु-क्षीर  : पुं० [ब० स०] खजूर का पेड़।
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मधु-गंध  : पुं० [ब० स०] १. अर्जुन (वृक्ष)। २. मौलसिरी।
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मधु-गायन  : पुं० [ब० स०] कोयल।
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मधु-गुंजन  : पुं० [ब० स०] सहिंजन का वृक्ष।
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मधु-घोष  : पुं० [ब० स०] कोकिल। कोयल।
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मधु-चक्र  : पुं० [ष० त०] शहद की मक्खियों का छत्ता।
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मधु-चंद्र  : पुं० [सं० मधु-चन्द्र] नव-विवाहित वर और वधू का वह समय जो वे सब काम-धन्दों से छुट्टी लेकर और किसी रमणीक स्थान में प्रायः घर के लोगों से अलग रहकर आनन्द-भोग में बिताते हैं (हनीमून)। विशेष—यह शब्द अँग्रेजी के ‘हनीमून’ का तदर्थीय है, जिसका मूल अर्थ था—विवाह के बाद का पहला महीना, परन्तु जो आजकल इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है और जो ऊपर ‘मधु-चंद्र’ का बतलाया गया है।
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मधु-जीवन  : पुं० [ब० स०] बहेड़ा (वृक्ष)।
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मधु-त्रय  : पुं० [ष० त०] शहद, घी और चीनी का समाहार।
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मधु-दीप  : पुं० [सं० मधु√दीप् (चमकना)+क] कामदेव।
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मधु-दूत  : पुं० [ष० त०] आम का पेड़।
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मधु-दूती  : पुं० [ष० त०] पाटला।
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मधु-द्रव  : पुं० [ब० स०] लाल सहिंजन का वृक्ष।
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मधु-द्रुम  : पुं० [मध्य० स०] १. महुए का पेड़। २. आम का पेड़।
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मधु-धूलि  : स्त्री० [ष० त०] खाँड़। शक्कर।
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मधु-धेनु  : स्त्री० [मध्य० स०] दान के लिए कल्पित शहद की गाय।
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मधु-पटल  : पुं० [ष० त०] शहद की मक्खियों का छत्ता।
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मधु-पति  : पुं० [ष० त०] श्रीकृष्ण।
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मधु-पर्क  : पुं० [ब० स०] १. दही, घी, जल, शहद और चीनी का समाहार जिसका भोग देवता को लगाया जाता है। २. तंत्र के अनुसार घी, दही और मधु का समूह जिसका उपयोग तांत्रिक पूजन में होता है।
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मधु-पर्क्य  : वि० [सं० मधुपर्क+य] जिसके सामने मधुपर्क रखा जा सके। मधुपर्क का अधिकारी या पात्र।
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मधु-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०,+ङीष्] १. गुरुच। २. गंभारी नाम का पेड़। ३. नीली नाम का पौधा।
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मधु-पीलु  : पुं० [कर्म० स०] अखरोट (वृक्ष)।
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मधु-पुर  : पुं० [ष० त०] मथुरा (नगरी)।
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मधु-पुष्प  : पुं० [ब० स०] १. महुआ। २. अशोकवृक्ष। ३. सिरिस नामक वृक्ष। ४. मौलसिरी।
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मधु-पुष्पा  : स्त्री० [सं० मधुपुष्प+टाप्] १. नागदंती। २. धौ का पेड़।
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मधु-प्रमेह  : पुं०=मधु-मेह।
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मधु-प्रिय  : पुं० [ब० स०] १. बलराम। २. भुँइ जामुन।
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मधु-फल  : पुं० [ब० स०] मीठा नारियल।
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मधु-बहुल  : पुं० [ब० स०] १. वासंती लता। २. सफेद जूही।
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मधु-बीज  : पुं० [ब० स०] अनार।
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मधु-मक्खी  : स्त्री० [सं० मधुमक्षिका] मक्खी की तरह का एक छोटा पतिंगा जो फूलों पर मँडराता और उनका रस चूसता है। यह समूहो में तथा छत्ता बनाकर रहता है और उसमें शहद एकत्र करता है। यह प्राणियों को डंक भी मारता है।
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मधु-मक्षिका  : स्त्री० [मध्य० स०] मधुमक्खी।
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मधु-मज्जन  : पुं० [ब० स०] अखरोट (वृक्ष)।
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मधु-मल्ली  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] मालती।
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मधु-मस्तक  : पुं० [सं० स०] प्राचीन काल का एक तरह का मैदे का पकवान जो मधु में डुबोकर खाया जाता था।
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मधु-माधव  : पुं० [द्व० स०] १. मालश्री, कल्याण और मल्लार के मेल से बना हुआ एक शंकर राग। २. बसंत के दो मास—चैत्र और बैसाख।
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मधु-माधवी  : स्त्री० [मध्य० स०] १. संगीत में, एक रागिनी जो भैरव राग की सहचरी मानी जाती है। २. वासंती लता। ३. एक प्रकार की पुरानी शराब।
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मधु-माध्वीक  : पुं० [मध्य० स०] शराब।
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मधु-मारक  : पुं० [ष० त०] भौंरा।
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मधु-यष्टि  : स्त्री० [कर्म० स०] १. जेठी मधु। मुलेठी। २. ईख। ऊख।
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मधु-यष्टिका  : स्त्री० [सं० मधुयष्टि+ङीष्] मुलेठी।
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मधु-यष्टी  : स्त्री० [सं० मधुयष्टि+ङीष्] मुलेठी।
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मधु-रस  : पुं० [ब,० स०] ईख।
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मधु-रसिक  : पुं० [ष० त०] भौंरा।
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मधु-रिपु  : पुं० [ष० त०] मधुराक्षस के शत्रु, विष्णु।
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मधु-रीछ  : पुं० [हिं० मधु-रीछ] दक्षिणी अमेरिका का रीछ की तरह का एक जंगली जंतु जो ऊँचाई में कुत्ते के बराबर होता है। यह प्रायः वृक्षों पर चढ़कर मधुमक्खियों के छत्ते का रस चूसता है, इसी से इसका यह नाम पड़ा है।
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मधु-लोलुप  : पुं० [सं० स० त०] भौंरा।
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मधु-वन  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] १. मथुरा के पास युमना के किनारे का एक वन जहाँ सत्रुघ्न ने लवण नामक दैत्य को मारकर मधुपुरी स्थापित की थी। २. ब्रज में यमुना तट पर स्थित एक वन। २. किष्किन्धा में स्थित एक वन। ४. वह वन जहाँ प्रेमी और प्रेमिका मिलते हों। ५. कोयल।
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मधु-वल्ली  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. मुलेठी। २. करेला।
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मधु-वार  : पुं० [ष० त०] १. मद्य या शराब पीने का दिन। २. बार-बार शराब पीने का क्रम। शराब का दौर। ३. मद्य। शराब।
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मधु-वाही (हिन्)  : पुं० [सं० मधु√वह (ढोना)+णिनि, उप, स०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन नद।
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मधु-व्रत  : पुं०[ब० स०] भौंरा।
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मधु-शर्करा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. शहद से बनाई हुई शक्कर। २. सेम। लोबिया।
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मधु-शाक  : पुं० [ब० स०] महुए का वृक्ष।
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मधु-शिग्नु  : पुं० [मध्य० स०] सोभांजन। सहिजन।
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मधु-शिष्ट  : पुं० [ष० त०] मोम।
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मधु-शेष  : पुं० [ब० स०] मोम।
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मधु-श्रावणी  : स्त्री० [सं०] १. मिथिला का एक पर्व जो सावन शुक्ल द्वितीया को मनाया जाता है। इसमें नव विवाहिता वधू को जलती बत्ती से दागते हैं। यदि फफोले अच्छे पड़ें तो समझा जाता है कि इसका सुहाग बहुत दिनों तक बना रहेगा।
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मधु-सख  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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मधु-संभव  : पुं० [ब० स०] १. मोम। २. दाख।
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मधु-सहाय  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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मधु-सारथि  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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मधु-सिक्थक  : पुं० [ब० स०+कप्] १. एक प्रकार का विष। २. मोम।
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मधु-सुहृद  : पुं० [ष० त०] कामदेव।
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मधु-स्थान  : पुं० [ष० त०] मधुमक्खियों का छत्ता।
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मधु-स्रव  : पुं० [ब० स०] १. महुए का वृक्ष। २. पिंडखजूर का पेड़।
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मधु-स्रवा  : स्त्री० [सं० मधुस्रव+टाप्] १. संजीवनी बूंटी। २. मुलेठी। ३. मूर्वा लता। ४. हंसपदी लता।
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मधु-स्राव  : पुं० [ब० स०] महुए का वृक्ष।
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मधु-स्वर  : पुं० [ब० स०] कोयल।
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मधु-हंता (तृ)  : पुं० [ष० त०] मधुसूदन (दे०)।
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मधुआ  : पुं० [?] आम के बौर में होनेवाला एक प्रकार का रोग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मधुक  : पुं० [सं० मधु+कन् वा मधु√कै+क] १. महुए का पेड़। २. महुए का फल। ३. मुलेठी।
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मधुकरी  : स्त्री० [सं० मधुकर+ङीष्] १. मधुकर की मादा। भौरी। २. साधु-संन्यासियों की वह भिक्षा जो केवल पके हुए अन्न (चावल-दाल, रोटी आदि) के रूप में होती है। क्रि० प्र०—माँगना। ३. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। ४. आटे के पेड़ की पकाई हुई रोटी। बाटी। भौंरिया। लिट्टी।
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मधुकरी (रिन्)  : पुं० [सं०√कृ+णिनि, उप० स०] मधुमक्खी। पुं० [हि० मधुकरी] वह संन्यासी जो मधुकरी माँगता या ग्रहण करता हो।
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मधुका  : स्त्री० [सं० मधु+कन्+टाप्] १. मुलेठी। २. मधुर। शहद। ३. कृष्णपणीं लता।
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मधुकार  : पुं० [सं० मधु√कृ (करना)+अण्] १. मधुमक्खी। २. मधुपर्णी।
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मधुच्छिष्ट  : पुं० [मधु-उच्छिष्ट, ष० त०] मोम।
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मधुज  : वि० [सं० मधु√जन् (उत्पत्ति)+ड] मधु से उत्पन्न। पुं० मोम।
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मधुजा  : स्त्री० [सं० मधुज+टाप्] १. मिश्री। २. पृथ्वी।
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मधुजित्  : पुं० [सं० मधु√जि (जीतना)+क्विप्, तुक्] विष्णु।
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मधुत्व  : पुं० [सं० मधु+त्व] मधु का भाव। शहद की मिठास।
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मधुद्र  : पुं० [सं० मधु√द्रा (जाना)+क] भौंरा।
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मधुप  : पुं० [सं० मधु√पा (पीना)+क] १. भौंरा। २. शहद की मक्खी ३. उद्धव का एक नाम। वि० मधु पीनेवाला।
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मधुफलिका  : स्त्री० [सं० मधुफल+कन्+टाप्, इत्व] मीठी खजूर।
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मधुबन  : पुं० [सं० मधुवन] १. ब्रजभूमि का एक बन। २. सुग्रीव के उपवन का नाम।
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मधुभाजन  : पुं० [ष० त०] मध्य या शराब पीने का प्याला। चषक।
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मधुभार  : पुं० [सं०] एक प्रकार का मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में आठ मात्राएँ होती हैं और अंत में जगण होता है।
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मधुमती  : स्त्री० [सं० मधु+मतुप्+ङीष्] १. योग साधन में, समाधि की वह अवस्था जो रज और तम के नष्ट होने तथा सत् का पूर्ण प्रकाश होने पर प्राप्त होती है। २. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसका प्रत्येक चरण दो नगण और एक गुरु होता है। ३. मधु दैत्य की कन्या और इक्ष्वाकु के पुत्र हर्यश्व की पत्नी का नाम। ४. तांत्रिकों के अनुसार एक प्रकार की नायिका जिसका उपासना और सिद्धि से मनुष्य जहाँ चाहे आ-जा सकता है। ५. एक प्राचीन नदी जो नर्मदा की शाखा थी। ६. गंगा नदी।
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मधुमथन  : पुं० [सं० मधु√मथ्+ल्यु—अन] मधु नामक दैत्य को मारनेवाले, विष्णु।
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मधुमाखी  : स्त्री०=मधु-मक्खी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मधुमात  : पुं० [सं०] संगीत में एक राग जो भैरव राग का सहचर माना जाता है।
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मधुमात सारंग  : पुं० [सं०] संगीत में मधुमात और सारंग के योग से बना हुआ एक संकर राग जिसके गाने का समय दिन में १७ दंड से २0 दंड तक माना जाता है।
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मधुमाधव सारंग  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. मधुमाधव और सारंग के योग से बना हुआ ओड़व जाति का एक संकर राज जिसमें धैवत और गांधार वर्जित है।
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मधुमान (मत्)  : वि० [सं० मधुमत्] [स्त्री० मधुमती] १. जिसमें मधु या शहद वर्तमान हो अथवा मिलाया हुआ हो। २. मधुर। मीठा। ३. मन को प्रसन्न, संतुष्ट या सुखी करनेवाला। प्रिय और सुखद।
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मधुमालती  : स्त्री० [मध्य० स०] मालती (लता)।
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मधुमासी  : स्त्री०=मधुमक्खी। उदा०—कुल कुटुंबी आन बैठे मनहु मधुमासी।—मीराँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मधुमूल  : पुं० [कर्म० स०] रतालु नामक कंद।
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मधुमेह  : पुं० [ब० स०] एक प्रसिद्ध राग जो अगन्याशय में मधुसूदनी (देखें) के कम बनने के कारण होता है और जिसमें मूत्र अधिक शर्करा युक्त होकर प्रायः धीरे-धीरे और अधिक मात्रा में या अधिक देर तक होता है (डायबटीज)।
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मधुमेही (हिन्)  : पुं० [सं० मधुमेह+इनि] वह जिसे मधुमेह रोग हो।
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मधुर  : वि० [सं० मधु√रा (देना)+क] [स्त्री० मधुरा] १. जिसका स्वाद मधु के समान हो। मीठा। २. जो सब प्रकार की कटुताओं से रहित, और मधु के समान मीठा जान पड़े। जैसे—मधुर वचन। ३. जो कठोरता, कर्कशता आदि से रहित होने के कारण बहुत भला जान पड़ता हो। जैसे—वीणा का मधुर स्वर। उदा०—मधुर मधुर गरजत घन घोरा।—तुलसी। ४. जो अपनी मनोहरता, सुन्दरता आदि के कारण प्रिय और भला लगता हो। जैसे—मधुर मूर्ति। ५. जो गति या चाल के विचार से धीमा या मन्द हो। जैसे—मधुर-गति। ६. धीर और शांत। ७. जो काम करने में बहुत मट्ठर या सुस्त हो। जैसे—मधुर पशु। पुं० १. किसी मीठी चीज का या किसी प्रकार का मीठा रस। २. लाल रंग की ईख। लाल ऊख। ३. गुड़। ४. बादाम। ५. जीवक। वृक्ष। ६. जंगली बेर। ७. महुआ। ८. मटर। ९. धान। १॰. काकोली। ११. लोहा। १२. जहर। विष।
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मधुर ज्वर  : पुं० [कर्म० स०] मंद-ज्वर।
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मधुर-कंटक  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार की मछली जिसे कजली कहते हैं।
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मधुर-कर्कटी  : स्त्री० [कर्म० स०] मीठा नीबू।
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मधुर-जंबीर  : पुं० [कर्म० स०] मीठी जंबीरी नींबू।
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मधुर-त्रय  : पुं० [ष० त०] शहद, घी और चीनी, तीनों का समाहार।
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मधुर-त्रिफला  : स्त्री० [कर्म० स०] दाख (या किशमिश), गंभारी और खजूर इन तीनों का समाहार।
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मधुर-त्वच्  : पुं० [ब० स०] धौ का पेड़।
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मधुर-फला  : स्त्री० [सं० मधुरफल+टाप्] मीठा नींबू।
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मधुर-श्रवा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] पिंडखजूर।
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मधुर-स्वर  : पुं० [ब० स०] गंधर्व।
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मधुरई  : स्त्री०=मधुरता (माधुर्य)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मधुरक  : पुं० [सं० मधुर+कन्] जीवक वृक्ष।
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मधुरता  : स्त्री० [सं० मधुर+तल्+टाप्] मधुर होने की अवस्था, गुण या भाव। माधुर्य।
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मधुरत्व  : पुं० [सं० मधुर+त्व] मधुरता।
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मधुरसा  : स्त्री० [सं० मधुरस+टाप्] १. मूर्वालता। २. दाख। ३. गंभारी। ४. दूधिया घास। ५. शतपुष्पी। ६. गंधप्रसारिणी लता।
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मधुरा  : स्त्री० [सं० मधुर+टाप्] १. मथुरा नगरी। २. मदरास प्रांत का एक प्राचीन नगर जो अब मदुरा कहलाता है। २. मीस्र नींबू। ३. मुलेठी। ४. मीठी खजूर। ५. शतावर। ६. महामेदा। ७. मेदा। ८. शतपुष्पी। ९. पालक का साग। १॰. सेम। ११. काकोली। १२. केले का पेड़। १३. सौंफ। १४. मसूर।
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मधुरा  : वि० [सं० मधुर] [स्त्री० मधुरी] मधुर। उदा०—लंबा टीका मधुरी बानी। दगाबाज की यही निशानी (कहा०)। स्त्री० साहित्य में वह शब्द-योजना जिससे रचना में माधुर्य या मिठास आती है। स्त्री० १.=मदुरा। २. मथुरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मधुराई  : स्त्री०=मधुरता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मधुराकर  : पुं० [मधुर-आकर, ष० त०] ईख। ऊख।
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मधुराज  : पुं० [सं० ष० त०] भौंरा।
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मधुराना  : अ० [सं० मधुर+हिं० आना (प्रत्य०)] १. मधुर होना। २. फलों तथा खाद्य वस्तुओं के संबंध में, मिठास से युक्त होना मीठा होना। स० मधुर बनाना।
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मधुरान्न  : पुं० [मधुर-अन्न, कर्म० स०] १. मीठा अन्न। २. मिठाई मिष्ठान्न।
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मधुराम्लक  : पुं० [मधुर-अम्लक, कर्म० स०] अमड़ा।
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मधुरालापा  : स्त्री० [मधुर-आलाप, ब० स०+टाप्] मैना पक्षी।
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मधुरिका  : स्त्री० [सं० मधुर+कन्+टाप्, इत्व] सौंफ।
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मधुरित  : भू० क० [सं० मधुर+इतच्] १. मिठास से युक्त किया हुआ २. मधुर रूप में लाया हुआ।
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मधुरिन  : पुं० [सं० मधुर से] ग्लिसरीन (तरल पदार्थ)।
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मधुरिमा  : स्त्री० [सं० मधुर+इमनिच्] मधुर होने की अवस्था या भाव। मधुरता। वि०=मधुर।
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मधुरी  : स्त्री० [सं० मधुर] मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला एक तरह का पुराना बाजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)स्त्री० [सं० माधुरी] १. मधुरता। २. शराब।
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मधुरोदक  : पुं० [मधुर-उदक, कर्म० स०] १. मधु मिश्रित जल। २. (ब० स०] पुराणानुसार सात समुद्रों में से अंतिम समुद्र जो मीठे जल का और पुष्कर द्वीप के निकट चारों ओर स्थित कहा गया है।
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मधुल  : पुं० [सं० मधु√ला (लेना)+क] मदिरा। वि०=मधर।
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मधुलिका  : स्त्री० [सं० मधुल+कन्+टाप्, इत्व] १. प्राचीन काल में मधुली नामक गेहूँ के पास से तैयार की जानेवाली मदिरा। २. राई। ३. फूलों का पराग। ४. कार्तिकेय की एक मातृका।
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मधुली  : पुं० [सं० मधुलिका] भाव प्रकाश के अनुसार एक प्रकार का गेहूँ।
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मधुवटी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष् ?] एक प्राचीन स्थान (महा०)।
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मधुवंती  : स्त्री० [सं० मधुवती] संगीत में टोढ़ी ठाट की एक रागिनी।
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मधुष्ठील  : पुं० [सं० मधु√ष्ठीव् (फेंकना)+क, पृषो० लत्व] महुए का वृक्ष।
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मधुसूदन  : पुं० [सं० मधु√सूद्+णिच्+ल्यु—अन] १. मधु नामक दैत्य को मारनेवाले, विष्णु। २. भौंरा।
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मधुसूदनी  : स्त्री० [सं० मधूसूदन+ङीष्] १. पालक का साग। २. आज-कल शरीर के अन्दर अग्नाशय में बननेवाला वह तत्त्व जिसके अभाव या कमी के कारण शरीर में शर्करा का ठीक समवर्त्तन नहीं होने पाता, रक्त विषाक्त होने लगता है और मूत्र सम्बन्धी अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होने लगते हैं। २. उक्त तत्त्व से बनाई जानेवाली एक प्रसिद्ध दवा (इन्स्युलिन)।
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मधूक  : पुं० [सं०√मद्+ऊक, नि० सिद्धि] १. महुए का पेड़, फूल और फल। २. मुलेठी। ३. भ्रमर।
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मधूक-पर्णा  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] अमड़ा।
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मधूक-शर्करा  : स्त्री० [ष० त०] वह शक्कर जो महुए के रस से बनाई गई हो।
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मधूकरी  : स्त्री०=मधुकरी।
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मधूख  : पुं०=मधूक।
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मधूत्थ  : पुं० [सं० मधु+उत्√स्था (ठहरना)+क] मोम।
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मधूपन्ना  : स्त्री० [मधु-उत्पन्ना, ब० स०] १. चैत्र की पूर्णिमा। २. [ष० त०] वसंतोत्सव।
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मधूल  : पुं० [सं० मधु√उर् (प्राप्त होना)+क, र—ल] जल-महुआ।
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मधूलक  : पुं० [सं० मधूल+कन्] १. जल-महु्आ। २. मद्य। शराब।
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मधूलिका  : स्त्री० [सं० मधूल+कन्+टाप्, इत्व] १. मूर्वा (लता)। २. मुलेठी। ३. एक प्रकार की घास। मधुली नामक गेहूँ। ५. उक्त गेहूँ से बनाई जानेवाली मदिरा।
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मधूली  : पुं० [सं० मधूल+ङीष्] १. आम का पेड़। २. जल में उत्पन्न होनेवाली मुलेठी। ३. मध्यदेश में होनेवाला एक प्रकार का गेहूँ। मधुली।
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मधूस्थित  : पुं० [मधूस्थि, पं० त०] मोम।
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मधोना  : पुं०=[स्त्री० मधोनी] मधवा (इन्द्र)। पुं०=मेघौना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मधोनी  : स्त्री० [सं० मधवन्+ङीष्] मघवा अर्थात् इन्द्र की पत्नी। इन्द्राणी। शची।
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मध्य  : पुं० [सं०√मन्+यक्, नि० सिद्धि] १. किसी चीज के बीच का भाग। २. शरीर का मध्यभाग। कटि। कमर। ३. वह जो किसी विशिष्ट दल या पक्ष में न हो। तटस्थ। निष्पक्ष। उदा०—बूझि मित्र और मध्य गति तस तब करिहिउँ आइ।—तुलसी। ४. संगीत में, तीन सप्तकों में से बीचवाला सप्तक जिसके स्वरों का उच्चारण स्थान वक्षस्थल और कंठ का भीतरी भाग कहा गया है। विशेष—साधारणतः गाना-बजाना इसी सप्तक से आरंभ होता है। जब स्वर ऊँचे होकर और आगे बढ़ते हैं, तब वे ‘तार’ नामक सप्तक में पहुँचते हैं। और जब स्वर इस सप्तक से नीचे होकर उतरने लगते हैं, तब ‘मंद्र’ नामक सप्तक में पहुँच जाते हैं। ५. नृत्य में वह गति जो न बहुत तेज हो और न बहुत धीमी। ६. सुश्रुत के अनुसार १६ वर्ष से ७0 वर्ष तक की अवस्था। ७. आपस में होनेवाला अन्तर। दूरी या फरक। ८. पश्चिम दिशा। ९. विश्राम। १॰. दस अरब की संख्या की संज्ञा। वि० १. बीच में रहने या होनेवाला। बीच का। २. जो बहुत अच्छा भी न हो और बहुत बुरा भी न हो, फलतः काम चलाने लायक। ३. अधम। नीच।
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मध्य पद-लोपी  : पुं०=मध्य पद-लोपी (समास)।
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मध्य-कुरु  : पुं० [मध्य से] उत्तर कुरु और दक्षिण कुरु के मध्य में स्थित एक प्राचीन देश।
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मध्य-खंड  : पुं० [मध्य० स०] ज्योतिष में, पृथ्वी का वह भाग जो उत्तरी क्रांतिवृत्त और दक्षिणी क्रांतिवृत्त के बीच में पड़ता है।
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मध्य-गंध  : पुं० [ब० स०] आम का वृक्ष।
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मध्य-जीवकल्प  : पुं० [कर्म० स०] भू-विज्ञान के अनुसार इस पृथ्वी की रचना के इतिहास में, पाँच कल्पों में से चौथा कल्प जो पुरा कल्प के बाद और आज से प्रायः बारह से बीस करोड़ वर्ष पहले था और जिसमें अनेक प्रकार के विशाल काय जन्तुओं तथा पक्षियों की सृष्टि हुई थी (मेसोडोइक एरा)। विशेष—शेष चार कल्प ये हैं—आदि कल्प, उत्तर कल्प, पुरा कल्प और नव कल्प।
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मध्य-तापिनी  : स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम।
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मध्य-देह  : पुं० [सं० कर्म० स०] उदर। पेट।
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मध्य-पात  : पुं [सं०] १. ज्योतिष में एक प्रकार का पात। २. परिचय करानेवाली बात या लक्षण। पहचान।
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मध्य-पूर्व  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. यूरोप वालों की दृष्टि से एशिया या दक्षिण पश्चिमी तथा अफ्रीका का उत्तर-पूर्वी भाग (मिडिल ईस्ट)। २. उक्त भाग में स्थित राज्यों का समाहार।
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मध्य-प्रत्यय  : वि० [सं० ब० स०] किसी के बीच या मध्य में बैठाया या लगाया हुआ। पुं० व्याकरण में कोई ऐसा अक्षर या शब्द जो प्रत्यय के रूप में किसी दूसरे शब्द के बीच में लगकर उसके अर्थ में कोई विशेषता उत्पन्न करता हो। मर्सग। (इन्फिक्स)।
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मध्य-यव  : पुं० [सं० कर्म० स०] प्राचीन काल का एक परिमाण जो पीली सरसों के छः दानों की तौल के बराबर होता था।
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मध्य-युग  : पुं० [सं० कर्म० स०] [वि० मध्ययुगीन] १. प्राचीन युग और आधुनिक युग के बीच का युग या समय। २. एशिया युरोप आदि के इतिहास में, ईसवी छठी से पन्दहवीं शताब्दी तक का काल या समय (मिडिल एजेज़)। ३. आधुनिक भारतीय इतिहास में, मुसलमानी शासन काल का समय।
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मध्य-रेखा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] ज्योतिष और भूगोल में वह रेखा जिसकी कल्पना देशांतर निकालने के लिए की जाती है।
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मध्य-लोक  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. पृथ्वी। २. जैनों के अनुसार वह मध्यवर्ती लोक जो मेरु पर्वत पर १000४0 योजन की ऊँचाई पर है।
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मध्य-स्थल  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. मध्यप्रदेश। कमर।
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मध्यक  : वि० [सं० मध्य से] १. मध्य या बीच में रहने या होनेवाला। २. जो न बहुत बड़ा हो और न बहुत छोटा हो। मझोले आकार का।
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मध्यका  : स्त्री० [सं० मध्य से] दे० ‘माध्यिक’।
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मध्यग  : वि० [मध्य√गम् (जाना)+ड] बीच में पड़ने या स्थित होनेवाला पुं० दलाल।
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मध्यगत  : भू० कृ० [द्वि० त०] मध्य में आया या लाया हुआ।
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मध्यगति  : स्त्री० [मध्य० स०] तटस्थता की वह नीति या स्थिति जिसमें किसी से न तो विशेष मित्रता ही होती है और न लडाई या झगड़ा बखेड़ा ही।
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मध्यता  : स्त्री० [सं० मध्य+तल्+टाप्] मध्य होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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मध्यदेश  : पुं० [मध्य० स०] १. किसी चीज का बीचवाला भाग। २. शरीर का मध्य भाग। कटि। ३. प्राचीन भारत का यह विस्तृत मध्य भाग जिसके उत्तर में हिमालय, पूर्व में बंगाल, दक्षिण में महाराष्ट्र, पश्चिम में पंजाब और सिंध, तथा पश्चिम-दक्षिण में गुजरात था।
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मध्यम  : वि० [सं० मध्य+म] १. जो विपरीत कोणों, दिशाओं या सीमाओं के बीच में हो। मध्य का। बीच का। २. न बहुत बड़ा और न बहुत छोटा। वि०=मद्धिम। पुं० १. संगीत के सात स्वरों में से चौथा स्वर जिसका मूल स्थान नासिका, अंतः स्थान कंठ और शरीर में उत्पत्ति स्थान वक्षस्थल माना गया है २. वह उपपति जो नायिका की चेष्टाओं से ही उसके मन का भाव जान ले और उसके क्रोध दिखलाने पर अनुराग न प्रकट करे। यह साहित्य में तीन प्रकार के नायकों में से एक है। ३. एक प्रकार का हिरन। ४. संगीत में एक प्रकार का राग। ५. दे० ‘मध्य देश’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मध्यम पद-लोपी (पिन्)  : [सं० मध्यम-पद, कर्म० स०, मध्यम्पद] व्याकरण में एक प्रकार का समास जिसमें पहले पद से दूसरे पद का संबंध बतलानेवाला शब्द अध्याहृत लुप्त रहता है। लुप्त पद-समास।
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मध्यम-पुरुष  : पुं० [सं० कर्म० स०] व्याकरण में वक्ता की दृष्टि में उस व्यक्ति का वाचक सर्वनाम जिससे वह कुछ कह रहा हो। (सेकेंड पर्सन)। जैसे—तू, तुम, आप।
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मध्यम-मार्ग  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. दो चरम सीमाओं या परस्पर विरोधी मार्गों अथवा साधनों के बीच का ऐसा मार्ग या साधन जिसमें दोनों पक्षों या विचार-धाराओं का उचित समाधान या सामंजस्य होता हो। बीच का रास्ता (वाया-मीडिया)। २. महात्मा बुद्ध द्वारा प्रतिपादित एक प्रसिद्ध मत या सिद्धांत।
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मध्यम-राजा (जन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह राजा जो कई परमात्मा विरोधी राजाओं के मध्य में हो।
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मध्यम-लोक  : पुं० [सं० कर्म० स०] पृथ्वी।
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मध्यम-वर्ग  : पुं० [सं० कर्म० स०] मनुष्य समाज के आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से विभाजित वर्गों (उच्च, मध्यम और निम्न) में से हुद्धि प्रधान एक वर्ग जो सामान्य आर्थिक स्थित तथा सामाजिक स्थितिवाला समझा जाता है और उच्च वर्ग (धनी वर्ग) और निम्नवर्ग (श्रमिक वर्ग) के बीच में माना जाता है (मिडिल क्लास)।
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मध्यम-संग्रह  : पुं० [सं० कर्म० स०] पर-स्त्री को फुसलाने तथा अपने वश में करने के विचार से उसे गहने-कपड़े आदि भेजना (मिताक्षरा)
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मध्यम-साहस  : पुं० [सं० कर्म० स०] मनु के अनुसार पाँच सौ पणोतक का अर्थ-दंड या जुरमाना।
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मध्यमता  : स्त्री० [सं० मध्यम+तल्+टाप्] मध्यम होने की अवस्था या भाव।
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मध्यमा  : स्त्री० [सं० मध्यम+टाप्] १. हाथ की बीचवाली उँगली। २. साहित्य में वह नायिका जो अपने प्रिय के द्वारा हित अथवा अहित का व्यवहार देखकर उसके प्रति वैसा ही हित अथवा अहित का व्यवहार करती हो। ३. २४. हाथ लंबी, १२ हाथ चौड़ी और ८ हाथ ऊँची नाव (युक्तिकल्पतरु)। ४. रजस्वला स्त्री। ५. कनियारी। ६. छोटा जामुन। ७. काकोली।
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मध्यमागम  : पुं० [सं० मध्यम-आगम, कर्म० स०] बौद्धों के चार प्रकार के आगमों में से एक।
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मध्यमान  : पुं० [सं०] [वि० मध्य-मानिक] १. लेखे या हिसाब में बराबर का। औसत। पड़ता। मध्यक। २. परस्पर विपरीत दिशाओं में स्थित दो बिंदुओं या संख्याओं के ठीक बीचोबीच में स्थित बिन्दु या संख्या। (मीन) जैसे—यदि कहीं का तापमान घटकर ९५ अंश तक और बढ़कर १0५ अंश तक पहुँच जाता हो तो वहाँ के ताप-मान का मध्यमान १00 अंश होगा। वि० १. दे० ‘मध्यक’। २. दे० ‘मध्या’। ३. संगीत में, एक प्रकार का ताल जिसमें ८ ह्रस्व अथवा ४ दीर्घ मात्राएँ होती हैं और ३ आघात और १ खाली होता है।
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मध्यमाहरण  : पुं० [सं०] बीज गणित की वह क्रिया जिसके अनुसार कोई आयत्त-मान माना जाता है।
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मध्यमिका  : स्त्री० [सं० मध्यम+कन् टाप्, इत्व] रजस्वला स्त्री०।
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मध्यमीय  : वि० [सं० मध्यम+छ—ईय] मध्यम।
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मध्ययुगीन  : वि० [सं० मध्ययुग+ख—ईन] मध्ययुग-सम्बन्धी। मध्ययुग का (मेडीवल)
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मध्यवर्ती (तिन्)  : वि० [सं० मध्य√वृत् (बरतना)+णिनि] १. जो मध्य में वर्तमान या स्थित हो। बीच का। २. जो दो पक्षों के बीच में रहकर उनमें से सम्बन्ध स्थापित करता हो (इन्टरमिडिअरी)।
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मध्यविवरण  : पुं० [सं० ष० त०] बृहत्संहिता के अनुसार सूर्य या चन्द्रग्रहण के मोक्ष का एक प्रकार जिसमें सूर्य या चन्द्रमा का मध्य भाग पहले प्रकाशित होता है।
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मध्यसर्ग  : पुं०=मध्य-प्रत्यय।
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मध्यसूत्र  : पुं०=मध्यरेखा।
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मध्यस्थ  : वि० [सं० मध्य√स्था (ठहरना)+क] [भाव० मध्यस्थता] जो बीच या मध्य में स्थित हो। बीच का। पुं० १. वह जो दो विरोधी पक्षों या व्यक्तियों के बीच में पड़कर उनका झगड़ा या विवाह निपटाता हो। आपस में मेल या समझौता करानेवाला व्यक्ति (मीडियेटर)। २. वह जो दो दलों या पक्षों के बीच में रहकर उनके पारस्परिक व्यवहार या लेन-देन में कुछ सुभीते उत्पन्न करके स्वयं भी कुछ लाभ उठाता हो (मिडिलमैन)। जैसे—उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच में व्यापारी, अथवा राज्य और कृषकों के बीच में जमींदार आदि। ३. वह जो दोनों विरोधी पक्षों में से किसी पक्ष में न हो। उदासीन। ४. वह जो अपनी हानि न करता हुआ दूसरों का उपकार करता हो।
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मध्यस्थता  : स्त्री० [सं० मध्यस्थ+तल्—टाप्] मध्यस्थ होने की अवस्था या भाव (मीडिएशन)। २. मध्यस्थ का काम और पद।
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मध्या  : स्त्री० [सं० मध्य+टाप्] १. साहित्य में स्वकीया नायिका के तीन भेदों में से एक जिसमें काम और लज्जा की समान स्थिति मानी गई है। स्वकीया के अन्य दो भेद हैं—मुग्धा और प्रगल्भा। २. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन अक्षर होते हैं। इसके आठ भेद हैं। ३. बीच की उँगली। मध्यमा।
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मध्यांतर  : पुं० [सं० मध्य+अंतर] १. दो घटनाओं वस्तुओं आदि के मध्य या बीच के अंतर। २. उक्त प्रकार के अंतर के कारण बीतनेवाला समय। ३. किसी काम या बात के बीच में सुस्ताने आदि के लिए निकाला या नियत किया हुआ थोड़ा-सा समय (इन्टर्वल)।
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मध्यान  : पुं०=मध्याह्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मध्यालु  : पुं० [सं० मधु-आलु, कर्म० स०] एक प्रकार के पौधे की जड़ जो खाई जाती है।
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मध्यावकाश  : पुं० [सं० मध्य+अवकाश]=मध्यांतर।
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मध्याह्न  : पुं० [सं० मध्य-अहन्, एकदेशि त० स०] १. दिन के ठीक बीच का वह समय जब सूर्य सबसे ऊपर आ जाता है। २. उक्त समय के बाद का थोड़ी देर तक का समय।
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मध्याह्नोतर  : पुं० [सं० मध्य अहन-उत्तर, ष० त०] मध्याह्न के ठीक बादवाला समय। तीसरा पहर।
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मध्ये  : अव्य०=मद्धे (देखें)।
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मध्व  : पुं० दे० ‘मध्वाचार्य’। पुं०=मधु।
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मध्वक  : पुं० [सं० मध्व+कन्] मधुमक्खी।
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मध्वल्  : पुं० [सं० मधु√अल् (पर्याप्त)+अण्] बार-बार और बहुत शराब पीना।
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मध्वाचार्य्य  : पुं० [सं० मध्व-आचार्य, कर्म० स०] दक्षिण भारत के एक प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य जिन्होंने माध्व या मध्वाचारि नामक संप्रदाय का प्रावर्तन किया था। इनका समय ईसवी बारहवीं शताब्दी के लगभग माना जाता है।
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मध्वाधार  : पुं० [सं० मधु-आधार, ष० त०] मधुमक्खियों का छत्ता।
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मध्वावास  : पुं० [सं० मधु-आवास, ष० त०] आम का पेड़।
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मध्वासव  : पुं० [सं० मधू-आसाब, तृ० त०] महुए के रस के पाँस से बनाई जानेवाली मदिरा।
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मध्वासवनिक  : पुं० [सं० मध्वासवन+ठन्—इक] शराब बनाने तथा बेचनेवाला। कलवार।
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मध्विजा  : स्त्री० [सं० मधु√ईज् (प्राप्त होना)+क, पृषो० ह्रस्व,+टाप्] मद्य।
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मन  : पुं० [सं० दे० ’मनः’] १. प्राणियों के अंतःकरण का वह अंश जिससे वे अनुभव, इच्छा, बोध, विचार और संकल्प-विकल्प करते हैं। विशेष—(क) शास्त्रीय दृष्टि से उन सभी शक्तियों का उद्गम या मूल है जिनके द्वारा हम सब काम करते, सब बातें जानते और याद रखते तथा सब कुछ सोचते-समझते हैं। इसीलिए वैशेषिक ने इस उभयात्मक अर्थात् कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों के गुणों से युक्त माना है। यह आत्मा, शरीर तथा हृदय तीनों से भिन्न एक स्वतंत्र तत्त्व है, और अंतःकरण और चार वृत्तियों में से एक वृत्ति के रूप में माना गया है। (शेष तीन वृत्तियाँ चित्त, बुद्धि और अहंकार हैं।) परन्तु योग-शास्त्र में इसी को चित्त कहा गया है। शरीर के अंत के साथ इसका भी अंत हो जाता है। (ख) भाषिक क्षेत्र में यह अर्थ और प्रयोग की दृष्टि से बहुत व्यापक शब्द है। अनभूति, अनुराग, उत्साह, प्रकृति, प्रवृत्ति, विचार, संकल्प आदि अनेक प्रसंगों में इसका प्रयोग होता है, और इसके बहुत से मुहावरे उक्त बातों से सम्बद्ध हैं। कुछ अवस्थाओं में यह चित्त और हृदय के पर्याय के रूप में भी प्रयुक्त होता है। पद—मन का मारा=बहुत ही उदास, खिन्न और हतोत्साह। मन का मैला=जिसके मन में कपट, द्वेष, वैर आदि दूषित भाव प्रबल होते हों। मन ही मन=अपने हृदय में और चुपचाप। बिना किसी से कुछ कहे-सुने। मुहा०—(किसी से) मन अटकना=श्रृंगारिक क्षेत्र में, किसी से अनुराग या प्रेम का सम्बन्ध होना। मन अपनाना=अपने मन को अपने वश में करना या धैर्य धारण करते हुए शांत करना। उदा०—सूर श्याम देखैं बिनु सजनी कैसे मन अपनाऊँ।—सूर। (किसी पर) मन आना=किसी के प्रति काम-पूर्ण अनुसार या वासना उत्पन्न होना। (किसी से) मन उलझना=दे० ऊपर किसी से मन अटकना’। मन कचोटना=कष्ट, पश्चात्ताप, वियोग आदि के कारण मन में क्लेष या दुःख होना। (किसी काम, चीज या बात के लिए) मन करना=इच्छा य प्रवृत्ति होना। जी चाहन। जैसे—आज तो खीर खाने को हमारा मन करता है। मन की मन में रहना=(क) मन की बात दूसरे पर प्रकट करने के अवसर न मिलना (ख) इच्छा, कामना आदि की तृप्ति या पूर्ति न होना। जैसे—मैंने कई बार उनसे मिलना चाहा, पर मन की मन में ही रह गई; अर्थात् उनसे किसी प्रकार भेंट न हो सकी। मन के लड्डू खाना=ऐसी बात सोचकर प्रसन्न होना जिसका पूरा होना असंभव हो। व्यर्थ की आशा पर प्रसन्न होना। मन खराब होना=(क) मन में कोई कुरुचि या विरक्त करनेवाली बात या भावना उत्पन्न होना। जैसे—तुम्हारी दुष्टताओं से सबका मन खराब होता है। (ख) शरीर अस्वस्थ या रोगयुक्त होना। (ग) कै या मिचली मालूम होना। (किसी से) मन खोलना=दुराव छोड़कर किसी पर अपना उद्देश्य या विचार प्रकट करना। (किसी काम, चीज या बात पर) मन चलना=इच्छा या प्रवृत्त होना। जैसे—बीमारी में तरह-तरह की चीजों पर मन चलता है (अर्थात् तरह-तरह की चीजें खाने को जी चाहता है)। (किसी का) मन टटोलना=बातों ही बातों में किसी के भावों, विचारों आदि से परिचित होने का प्रयत्न करना। मन टूटना=उत्साह, उमंग, साहस आदि का नाश या ह्रास होना। (किसी काम चीज या बात पर) मन डालना=कुछ करने, पाने आदि के लिए मन चंचल होना। चित्त चलायमान होना। (किसी को) मन तोड़ना=उत्साह या उमंग में बाधक होकर उसका अंत करना। हतोत्साह करना। (किसी काम या बात में) मन देना=अच्छी तरह चित्त या मन लगाना। जैसे—हम काम मन देकर किया करो। (किसी को) अपना मन देना=(क) किसी के प्रति अपने मन के भाव प्रकट करना। (ख) किसी पर पूर्णरूप से अनुरक्त होना। प्रेम के कारण किसी के वश में होना। आसक्त होना। मन धरना=ध्यान देना। मन लगाना। (किसी से) मन फट जाना या फिर जाना=किसी के अनुचित कृत्य या व्यवहार के कारण उससे विरक्त होना। मन फेरना=किसी काम या बात से मन हटाना। किसी और प्रवृत्ति न होने देना। मन बढ़ना=उत्साह या साहस बढ़ना। (अपना) मन बढ़ाना=मन को अधिक प्रवृत्त करना। (किसी का) मन बढ़ाना=उत्तेजित या उत्साहित करना। बढ़ावा देना। मन बहलाना=खिन्न या दुःखी चित्त को किसी काम में लगाकर खेद और दुःख दूर करके आनंदित या प्रसन्न करना। मन बिगड़ना=दे० ऊपर ‘मन खराब होना’। (अपना) मन बूझना=मन में ढारस, तृप्ति, धैर्य, शांति या संतोष होना। (किसी का) मन बूझना=किसी के मन की थाह लेना। मन भर जाना=अंधा जाना। तृप्ति होना। विशेष अनुराग या प्रवृत्ति न रह जाना। (किसी काम या बात से) मन भरना=(क) प्रतीत न होना। (ख) तृप्ति या संतोष होना। (ग) अधिक तृप्ति होने के कारण अनुराग या प्रवृत्ति न रह जाना। मन भाना=मन को अच्छा या भला जान पड़ना। मन भारी होना=मन में किसी प्रकार की अस्वस्थता का अनुभव या बोध होना। (किसी की ओर से) मन भारी होना=दुःख, द्वेष आदि के कारण किसी के प्रति पहले का-सा अनुराग न रह जाना। मन मानना=किसी काम या बात के संबंध में, मन में तृप्ति निश्चय या संतोष होना अथवा निश्चिततापूर्वक उसकी ओर प्रवृत्त होना। जैसे—मन माने तो सौदा पक्का कर लो। (किसी से) मन मानना=किसी के साथ अनुराग या प्रेम होना। उदा०—(क) सखी री शायम सों मन मान्यौ।—सूर। (ख) राम नाम जाका मन माना।—तुलसी। (अपना) मन मानना=(ख) प्रवृत्तियों को दबाकर मन को वश में करना या रखना। इच्छा या मन का भाव दबाना या रोकना। (ख) मन की उमंग पूरी न होने के कारण उदास या खिन्न होना। उदा०—मौन गहौ, मन मारे रहो, निज प्रीतम की कहौं कौन कहानी।—प्रताप। (किसी से) मन मिलाना=(क) प्रकृति, प्रवृत्ति, रुचि, विचार आदि की समानता के कारण किसी से आत्मीयता का संबंध होना। जैसे—मन मिले का मेला। (कहा०) (ख) श्रृंगारिक दृष्टि से अनुराग या प्रेम होना। मन में आना=(क) किसी काम या बात के लिए मन में कोई भाव या विचार उत्पन्न होना। जैसे—आज मन में आया कि चलकर तुम से मिल आऊँ। (ख) कोई बात ध्यान या समझ में न आना। अच्छा या ठीक मालूम होना। उदा०—और देत कछु मन नहि आवै।—सूर। (ग) मन पर किसी बात का प्रभाव पड़ना। उदा०—ता सों उन कटु बचन सुनाये, पै ताके मन कछु न आये।—सूर। मन में जमना या बैठना=उचित या ठीक जान पड़ना। मन में ठानना=निश्चय करना। दृढ़ संकल्प करना। मन में धरना=दे० भपर ‘मन में ठानना’। मन में बसना=बहुत अच्छा लगने या पसन्द आने के कारण मन में बराबर ध्यान बना रहना। (कोई बात) मन में भरना=हृदयंकम करना। मन में जमाकर रखना। (कोई बात) मन में रखना=(क) अच्छी तरह छिपाकर रखना। किसी पर प्रकट न होने देना। (ख) अच्छी तरह ध्यान में या स्मरण में रखना। मन में लाना=(क) विचार करना। सोचना। (ख) कोई काम करने का विचार या संकल्प करना। जैसे—अगर मन में लाओ तो तुम जरूर यह काम कर सकते हो। (किसी से) मन मैला करना=किसी की ओर से अपने मन में दुर्भाव द्वेष या वैर-विरोध रखना। (किसी से) मन मोटा होना=दे० ऊपर (किसी की ओर से) मन भारी होना’। मन मोड़ना=प्रवृत्ति या विचार को एक ओर हटाकर दूसरी ओर लगाना। (किसी का) मन रखना=किसी को प्रसन्न रखने के लिए उसकी इच्छा पूरी करना। मन रहना या रह जाना=इच्छा या कार्य की ऐसी आंशिक पूर्ति होना कि निराश या हताश न होना पड़े। (किसी काम या बात में) मन लगाना=पूरा अवधान या ध्यान होना। चित्त का प्रवृत्त या संलग्न होना। जैसे—संगीत में उनका मन लगता है। (किसी स्थान पर) मन लगाना=भला जान पड़ने के कारण रहने की इच्छा होना या जी न ऊबना। (किसी काम या बात में) मन लगाना=अच्छी तरह ध्यान देते हुए या मनोयोगपूर्वक संलग्न होना। (किसी व्यक्ति से) मन लगाना=किसी से अनुराग या प्रेम करना। मन लाना=(क) मन लगाना। जी लगाना। (ख) मन में निश्चय या संकल्प करना। (किसी का) मन लेना=(क) किसी के मन की भीतरी बातों की थाह या पता लेना। जैसे—आज वह भी मेरा मन लेने आये थे, पर मैंने उन्हें इधर-उधर की बातों में टाल दिया। (ख) किसी को अपनी ओर अनुरक्त या प्रवृत्त करना। (ग) किसी को किसी रूप में अपने अधिकार या वश में करना मन से उतरना=ध्यान या स्मृति में न रह जाना। भूल जाना। विस्मृत होना। (किसी का) मन हरना=किसी को अपने प्रति मुग्ध या मोहित करना। मन हरा होना=खिन्न या दुःखी मन का प्रफुल्लित या प्रसन्न होना। (किसी का मन) हाथ में लेना या करना=किसी का मन अपने अधिकार या वश में करना। अपना अनुगामी, प्रेमी या भक्त बनाना। मन होना=इच्छा होना। पुं० [सामीमिनः वैदिक सं० मना] १. चालीस सेर की तौल या परिमाण। २. उक्त तौल या परिमाण का बाट। पुं०=मणि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनः (नस्)  : पुं० [सं०√मन् (मानना)+असुन्] मन।
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मनः कल्पित  : वि० [सं० तृ० त०] मनगढ़ंत। फरजी।
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मन-चाहता  : वि० [हिं० मन+चाहना] [स्त्री० मनचाहती] १. जो मन के अनुकूल हो। २. जिसे मन चाहे। प्रिय।
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मन-चाहा  : वि० [हिं० मन+चाहना] [स्त्री० मनचाहती] १. जो मन के अनुकूल हो। २. जिसे मन चाहे। प्रिय।
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मन-चाहा  : वि० [हिं० मन+चाहना] [स्त्री० मनचाही] १. जिसे मन चाहता हो। जैसे—मन-चाहा काम, मनचाही नौकरी। २ इच्छानुसार किया हुआ।
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मन-चीतना  : वि०=मन-चीता।
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मन-चीता  : वि० [हिं० मन-चेतना] [स्त्री० मनचीती] मन में चाहा और सोचा हुआ।
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मन-परेखा  : पुं० [हिं०] १. मन में होनेवाला मान-अपमान आदि का विचार और अपमान के कारण होनेवाला क्षोभ। २. आशा। भरोसा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मन-भंग  : पुं० [सं० मनोभंग] बदरिका आश्रम के पास का एक पर्वत।
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मन-भरौती  : स्त्री० [हिं० मन भरना] १. मन भरने की क्रिया या भाव। मनस्तोष। खुशामद। चापलूसी। उदा०—अफसरों के बंगले पर जाना और सलाम बोलकर मनभरौती कर आना।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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मन-भाया  : वि० [सं० मन+हिं० भाना] [स्त्री० मन-भाई] १. जो मन भाता या रुचिकर प्रतीत होता हो। मन को भाने या अच्छा लगनेवाला। २. प्रिय। प्यारा।
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मन-भावता  : वि०=मन-भाया।
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मन-भावन  : वि०=मनभाया। उदा०—सावन की मन भावन की, घिरि आइ बदरिया।—गीत।
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मन-मति  : वि० [मन+मति] अपने मन का काम करनेवाला। स्वेच्छाचारी।
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मन-मत्त  : वि०=मैमंत (मदमत्त)।
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मन-मथ  : पुं० =मन्मथ (कामदेव)।
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मन-मानता  : वि० [हिं० मन+मानना] १. मनमाना। २. मनचाहा।
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मन-मुखी (खिन्)  : वि० [सं० मन+मुखी] मनमाना काम करनेवाला स्वेच्छाचारी।
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मन-मुटाव  : पुं०=मनमोटाव।
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मन-मोटाव  : पुं० [सं० मन+हिं० मोटाव] द्वेष आदि के फलस्वरूप होनेवाली वह स्थिति जिसमे किसी दूसरे से कुछ खिंचा रहता है।
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मन-मोदक  : पुं० [हिं० मन-मोदक] केवल अपना मन प्रसन्न करने के लिए बनाई हुई ऐसी कल्पना जिसका कोई वास्तविक आधार न हो।
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मन-मोहन  : वि० [सं०] [स्त्री० मनमोहनी] १. मन को मोहनेवाला। २. प्रिय। प्यारा। पुं० श्रीकृष्ण।
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मन-मौज  : पुं० [सं० मन+मौज] १. मन की तरंग। १. हार्दिक प्रसन्नता। ३. अपनी प्रसन्नता या सुख के लिए किया जानेवाला काम या खेल।
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मन-मौजी  : वि० [हिं० मनमौज] १. अपने मन में उठी तरंग के अनुसार काम करनेवाला। २. अपनी प्रसन्नता के उद्देश्य से कोई विशेष आचरण या व्यवहार करनेवाला।
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मन-रोचन  : वि० [सं० मनरोचन] मन को मुग्ध करनेवाला। सुन्दर।
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मनई  : पुं० [स० मानव] मनुष्य।
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मनउती  : स्त्री०=मनौती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनकना  : अ० [अनु०] १. हिलना-डोलना। चेष्टा करना। हाथ-पैर चलाना। अ०=मिनकना।
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मनकरा  : वि० [हि० मणि+कर (प्रत्य०)] चमकदार। चमकीला।
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मनका  : पुं० [सं० मणिक] १. धातु, लकड़ी, आदि का वह गोल या अंडाकार छोटा टुकड़ा जिसके बीचोबीच छेद होता है तथा जो माला के रूप में पिरोया जाता है। एक साथ पिरोये जानेवाले बहुत से मनके माला का रूप धारण कर लेते हैं। २. माला। सुमरनी। उदा०—करका मन का छोड़कर मनका मनका फेर। पुं० [सं० मन्यका=गले की नस] गरदन के पीछे की वह हड्डी जो रीढ़ के ठीक ऊपरी भाग में होती है। मुहा०—मन का ढलना या ढलकना=आसन्न मृत्यु के समय रोगी की गरदन टेढ़ी हो जाना।
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मनकामना  : स्त्री०=मनःकामना (मनोरथ)।
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मनकुमार  : पुं० [सं० मनःकुमार] कामदेव। उदा०—कुवलय-दल सुकुमार तन, मन-कुमार जय भार।—मतिराम।
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मनकूल  : वि० [अ० मन्कूल] १. जिसकी प्रतिलिपि तैयार कर ली गई हो। नकल किया हुआ। प्रतिलिपित। २. (सम्पत्ति) जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाई जा सके। चल। पद—मनकूला जायदाद=चल संपत्ति।
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मनकूहा  : वि० स्त्री० [अ० मन्कूहः] (स्त्री) जिसका विवाह हो चुका हो। जो ब्याही हुई हो। परिणीता। विवाहिता।
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मनःक्षेप  : पुं० [सं० ष० त०] मन में होनेवाला उद्वेग।
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मनगढ़ंत  : वि० [हिं० मन=गढ़ना] मन द्वारा गढ़ा हुआ। फलतः कल्पित स्त्री०=कल्पित या मिथ्या बात।
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मनचला  : वि० [सं० मन+हिं० चलना] [स्त्री० मनचली] १. (व्यक्ति) जिसका मन आकर्षक तथा सुन्दर वस्तुओं की प्राप्ति के लिए ललचा उठता हो। २. (व्यक्ति) जो प्रायः किसी आकर्षक तथा सुन्दर वस्तु की प्राप्ति के लिए किसी प्रकार की जोखिम का काम करने के लिए प्रस्तुत हो जाय। ३. कामुक तथा रसिक स्वभाववाला।
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मनचाहे  : अव्य० [हिं० मन-चाहा] इच्छानुसार।
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मनजात  : पुं० [सं० मनोजात] कामदेव।
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मनतोरवा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।
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मनन  : पुं० [सं०√मन् (मानना)+ल्युट्—अन] १. मन लगाकर कोई काम सोचना या समझना। २. किसी विषय में सब अंगों पर अच्छी तरह विचार करते हुए उसे समझने के लिए किया जानेवाला प्रयत्न या प्रयास। चिंतन। (कन्टेम्प्लेशन)। जैसे—आध्यात्मिक ग्रंथों या राजनीतिक समस्याओं का मनन। ३. वेदांत शास्त्रानुसार सुने हुए वाक्यों पर बार बार विचार करना और प्रश्नोत्तर या शंका-समाधान द्वारा उसका निश्चय करना।
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मनन-शील  : वि० [सं० ब० स०] जो स्वाभावतः मनन करने में प्रवृत्त रहता हो।
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मननाना  : अ० [मन मन से अनु०] गुँजारना। गूँजना।
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मनःपति  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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मनःपर्याप्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] मन से संकल्प विकल्प या बोध प्राप्ति करने की शक्ति।
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मनःपर्याय  : पुं० [सं० ष० त०] सत्य का बोध होने से ठीक पहलेवाली स्थिति (जैन)।
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मनःपूत  : वि० [सं० तृ० त०] १. पवित्र मन या शुद्ध आत्मावाला। २. मन की दृष्टि से जो पवित्र तथा शुद्ध हो। ३. जितना मन चाहता हो उतना।
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मनःप्रसूत  : वि० [सं० स० त०] १. मन में उत्पन्न होनेवाला। २. कल्पित।
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मनःप्रीति  : स्त्री० [सं० ष० त०] मन की प्रसन्नता।
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मनःभव  : वि० [सं० मनोभव] १. मन से उत्पन्न। २. कल्पित।
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मनमाना  : वि० [सं० मन+हि० मानना] १. (व्यक्ति) जो अपनी इच्छा को सर्वोपरि महत्त्व देता हो; और किसी की इच्छा बात या राय को कुछ भी महत्त्व न देता हो। २. (आचार या व्यवहार) जो अपनी इच्छा से तथा बिना किसी सुख-सुभीते का ध्यान रखे किया गया हो।
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मनमानी  : स्त्री० [हिं० मन-माना] १. मनमाना कार्य। २. वह स्थिति जिसमें बिना औचित्य आदि का विचार किये मन-माने ढंग से काम किया जाय।
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मनरंज  : वि०=मनरंजन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मनरंजन  : वि० [हिं० मन+रंजन] मनोरंजन करनेवाला। मन को प्रसन्न करनेवाला। पुं०=मनोरंजन।
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मनलाडू  : पुं०=मनमोदक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनवाँ  : पुं० [देश०] देव-कपास। रामकपास। नरमा। पुं०=मन।
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मनवांछित  : वि०=मनोवांछित।
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मनवाना  : सं० [हिं० मनाना का प्रे०] १. किसी को कुछ मान लेने में प्रवृत्त या विवश करना। २. मनाने का काम किसी दूसरे से कराना।
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मनःविश्लेषण  : पुं०=मनोविश्लेषण।
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मनःशक्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] मानसिक शक्ति। मनोबल।
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मनशा  : स्त्री० [अ० मन्शा] १. आशय। मतलब। २. उद्देश्य। प्रयोजन। ३. इच्छा। इरादा। संकल्प।
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मनःशास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०]=मानस शास्त्र। मनोविज्ञान।
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मनःशिल  : पुं० [सं० मनस्√शिल् (आकर्षित करना)+क] मैनसिल (खनिज द्रव्य)।
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मनःशिला  : स्त्री० [सं० मनःशिल+टाप्] मैनसिल।
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मनसना  : स० [सं० मनस्यन] १. मन में इच्छा विचार या संकल्प करना। उदा०—मनसई नारि किया तन छारा।—गोरखनाथ। २. मन में दृढ़ निश्चय या संकलन करना। ३. कोई चीज दान करने के उद्देश्य से सामने रखकर या हाथ में लेकर विधि से संकल्प या मंत्र पढ़ना।
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मनसब  : पुं० [अ० मंसब] १. राज्य, शासन आदि में ऐसा ऊँचा पद जिसके साथ कुछ विशिष्ट अधिकार भी प्राप्त हो। २. कर्त्तव्य। कर्म। कृत्य। ३. अधिकार। इख्तियार।
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मनसबदार  : पुं० [अं० मंसब+फा० दार] वह जो किसी मनसब अर्थात् ऊँचे पद पर आसीन हो।
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मनःसंस्कार  : पुं० [सं० ष० त०] मन का परिष्कार।
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मनसा  : स्त्री० [सं० मनस्+अच्+टाप्] एक देवी जो पुराणानुसार जरत्कारु मुनि की पत्नी और आस्तीक की माता थी तथा कश्यप की पुत्री और बासुकी की बहन थी। वह साँपों के कुल की अधिष्ठात्री मानी गई है। वि० १. मन से उत्पन्न। २. मन-सम्बन्धी। मन का। क्रि० वि० मन के द्वारा। मन से। स्त्री० [अ० मंशा] १. इरादा। विचार। २. अभिलाषा। कामना। ३. मन। ४. बुद्धि। ५. अभिप्राय। ६. उद्देश्य। स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जो बहुत तेजी से बढ़ती और पशुओं के लिए बहुत पुष्टिकारक समझी जाती है। मकड़ा। मधाना। खमकरा।
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मनसा-पंचमी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] आषाढ़ की कृष्णपंचमी। इस दिन मनसा देवी का उत्सव होता है।
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मनसाकर  : वि० [हिं० मनसा+सं० कर (प्रत्य०)] मनोवांछित फल देनेवाला। मनोकामना पूर्ण करनेवाला।
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मनसाना  : अ० [हिं० मनसा] उमंग में आना। तरंग में आना। स० [हिं० मनसना का प्रे०] किसी को कुछ मनसने में प्रवृत्त करना। मनसवाना।
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मनसायन  : वि० [हिं० मानपस=मनुष्य+आयन (प्रत्य०)] १. ऐसी स्थिति जिसमें कुछ लोगों के रहने के कारण अच्छी चहल-पहल हो। क्रि० प्र०—रखना। २. चहल-पहल की ओर मन लगने की जगह। गुलजार।
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मनसाराम  : पुं० [सं० मनस्-राम] बोल-चाल में, अपने मन और फलतः व्यक्तित्व की संज्ञा। जैसे—चलो मनसाराम कोई जगह ढूँढ़ें।
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मनसि  : अध्य० [हिं० मन] १. मन में। २. हृदय में।
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मनसिज  : पुं० [सं० मनसि√जन् (उत्पन्न करना)+ड] १. कामदेव। २. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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मनसूख  : वि० [अ० मंसूख] [भाव० मंसूखी] १. रद्द किया हुआ। २. टाला हुआ। ३. परित्यक्त।
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मनसूखी  : स्त्री० [अ० मन्सूखी] मनसूख होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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मनसूबा  : पुं० [अ० मन्सूबः] १. कोई काम करने से पहले मन में सोची जानेवाली युक्ति। क्रि० प्र०—ठानना।—बाँधना। २. इरादा। विचार।
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मनसूर  : वि० [अ० मन्सूर] विजेता। पुं० ९वीं शताब्दी का एक प्रसिद्ध सूपी संत जो अपने को अनहलक (अहं ब्रह्मास्मि) कहता था और इसीलिए जो सूली पर चढ़ा दिया गया था।
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मनसेधू  : पुं० [सं० मनुष्य] पुरुष। आदमी (पूरब)।
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मनस्क  : वि० [सं०] [भाव० मनस्कता] १. जिसका मन किसी विशिष्ट समय में किसी ओर प्रवृत्त हुआ या लगा हो। जैसे—अन्य-मनस्क। २. जिसका मन किसी कार्य या विषय की ओर अनुरक्त या प्रवृत्त हो। कुछ करने, जानने आदि की इच्छा से युक्त (माइन्डेड)। जैसे—अब वे संगीत मनस्क होने लगे हैं।
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मनस्कता  : स्त्री० [सं० मनस्क+तल्+टाप्] मनस्क होने की अवस्था या भाव।
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मनस्कांत  : वि० [सं० ष० त०] १. जो मन के अनुकूल हो। मनोनुकूल। २. प्रिय। प्यारा। पुं० मन की अभिलाषा या इच्छा। मनोरथ।
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मनस्काम  : पुं० [सं० ष० त०] मन की अभिलाषा। मनोरथ।
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मनस्ताप  : पुं० [सं० ष० त०] १. मनःपीड़ा। आंतरिक दुःख। २. अनुताप। पश्चाताप। पछतावा।
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मनस्ताल  : पुं० [सं० ष० स०] १. हरताल। २. दुर्गा की सवारी के सिंग का नाम।
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मनस्तोष  : पुं० [सं० ष० त०] १. मन में होनेवाला तोष या तृप्ति। २. आवश्यकता, इच्छा, शंका, संशय आदि की पूप्ति या निवारण के फलस्वरूप मन में होनेवाली शान्ति। तुष्टि (सैटिस्फ़ैक्शन)।
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मनस्विता  : स्त्री० [सं० मनस्विन्+तल्+टाप्] मनस्वी होने की अवस्था या भाव।
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मनस्विनी  : स्त्री० [सं० मनस्+विनि+ङीष्] १. मृकंडु ऋषि की पत्नी का नाम। २. प्रजापति की एक पत्नी।
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मनस्वी  : (स्विन्) वि० [सं० मनस्+विनि] [स्त्री० मनस्विनी] १. श्रेष्ठ मन से सम्पन्न। बुद्धिमान्। उच्च विचारवाला। २. मनमाना आचरण करनेवाला। स्वेच्छाचारी। पुं० शरभ।
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मनहर  : वि० [हिं० मन+हरना या सं० मनोहर] मन हरनेवाला। मनोहर। उदा०—गिरने से नयनों से उज्ज्वल आँसू के कन मनहर।—प्रसाद। पुं० घनाक्षरी छंद का एक नाम।
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मनहरण  : पुं० [हिं० मन+हरण] १. मन हरने की क्रिया या भाव। २. पन्द्रह अक्षरों का एक वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में पाँच सगण होते हैं। इसे नलिनी और भ्रमरावली भी कहते हैं। वि०=मनोहर।
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मनहरन  : वि० पुं०=मनहरण।
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मनहंस  : पुं० [हिं० मन+हंस] पंद्रह अक्षरों का एक वर्णिक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक सगण, दो जगण, भगण और अंत में रगण होता है।
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मनहार  : वि०=मनोहारी।
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मनहारी  : वि०=मनोहारी।
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मनहुँ  : अव्य० [हि० मानना या मानों] मानों। जैसे। यथा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मनहूस  : वि० [अ० मन्हूस] १. अशुभ। बुरा। २. अभागा। बदकिस्मत। ३. जिसमें चमक-दमक, रौनक या सरस जीवन का कोई लक्षण न हो। जैसे—मनहूस आदमी, मनहूस मकान।
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मना  : वि० [अ०] १. जिसके संबंध में निषेध हो। निषिद्ध। जैसे—यहाँ तमाकू या बीड़ी पीना मना है। २. जो कोई काम करने से रोका गया हो। वारण किया हुआ। जैसे—लड़कों को मना कर दो, यहाँ शोर न करें।
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मनाइन  : स्त्री० [?] वह स्त्री जो शुभ-अशुभ सभी प्रकार के कर्मों के विधि-विधान जानती हो और इसलिए स्त्री-समाज में मान्य हो (पूरब)।
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मनाई  : स्त्री०=मनाही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनाकु  : वि०=मनाक (थोड़ा)। उदा०—जेहिं बखान मति सक्ति मनाकू।—नूरमोहम्मद।
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मनाक्  : वि० [सं०√मन् (ज्ञान करना)+आक्] १. बहुत जरा-सा अल्प। थोड़ा। २. धीमा। मन्द।
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मनादी  : स्त्री०=मुनादी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनाना  : सं० [हिं० मानना का प्रे०] १. किसी को कुछ मानने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम करना कि जिससे कोई कुछ मान ले। २. किसी को किसी काम या बात के लिए उद्यत, तत्पर या राजी करना। ३. जो किसी कारण से अप्रसन्न हो गया या रूठ गया हो उसे मीठी-मीठी बातें करके अपने अनुकूल बनाना और प्रसन्न करना। ४. अपनी त्रुटि या दोष मानकर उसके लिए क्षमा माँगना। उदा०—या भूल-चूक अपनी पहले मनाऊँ।—मैथिलीशरणगुप्त। ५. किसी प्रकार की कामना आदि की पूर्ति या कार्य की सिद्धि के लिए ईश्वर या देवी-देवता से प्रार्थना करना। जैसे—मैं तो ईश्वर से यही मानता हूँ कि वह आप को सद्बुद्धि दे। ६. प्रार्थना या स्तुति करना। उदा०—ताके युग पद कमल मनाऊँ, जासु कृपा निरमल मति पाऊँ।—तुलसी
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मनायी  : स्त्री० दे० ‘मनावी’।
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मनार  : पुं०=मीनार।
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मनाल  : पुं० [सं० मृणाल] शिमले की पहाड़ियों पर रहनेवाला एक तरह का चकोर पक्षी।
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मनावन  : पुं० [हिं० मनाना] १. असंतुष्ट या रूठे हुए को मनाने की क्रिया या भाव।
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मनावी  : स्त्री० [सं० मनु+ङीष्, औव्] मनु की स्त्री का नाम।
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मनाही  : स्त्री० [अ०] १. मना करने या होने की क्रिया या भाव। २. कोई काम न करने की आज्ञा। निषेध। रोक।
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मनि  : स्त्री०=मणि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनिकरा  : वि० [सं० मणि+कर] १. सुन्दर। २. देदीव्यमान। चमकीला। उदा०—दुइज लिलाट अधिक मनिकरा।—जायसी।
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मनिका  : पुं०=मनका (माला का)।
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मनित  : भू० कृ० [सं०√मन् (जानना)+क्त, इत्व] जात। उत्पन्न।
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मनिधर  : पुं०=मणिधर।
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मनिया  : स्त्री० [सं० माणिक्य, हिं० मनिका] १. मालाका दाना। गुरिया। मनका। २. गले में पहनने की कंठी या माला।
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मनियार  : वि० [हिं० मणि+आर (प्रत्य०)] १. उज्जवल। चमकीला। २. शोभनीय। ३. दर्शनीय। सुन्दर। पुं०= मनिहार। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मनिहार  : पुं० [हिं० मणिकार; प्रा० मनियार] स्त्री० मनिहारिन, मनिहारी चूड़ी बनानेवाला। चुड़िहारा।
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मनिहारी  : स्त्री० [हिं० मनिहार] सूई, तागा, शीशा, कंघे चूड़ियाँ आदि फुटकर सामान बेचने का काम। स्त्री० मनिहार का स्त्री०।
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मनी  : स्त्री० [सं० मणि] १. मणि। २. वीर्य। ३. अहं०। उदा०—तजे सचुच के भानु भानु तजि मान मनी के।—सेनापति। स्त्री० [हिं० मन=४0 सेर] खेत की उपज की बटाई का वह प्रकार जिसमें जमीन का मालिक प्रति बीघे कुछ मन पैदावार में से ले लेता है।
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मनीआर्डर  : पुं० [अं०] १. डाकखाने के द्वारा कहीं कुछ रुपये भेजने की एक प्रकार की व्यवस्था जिसमें पानेवाले को घर बैठे रुपए मिल जाते हैं। २. वह पत्रक जिसे भरकर उक्त उद्देश्य से डाकखाने में दिया जाता है।
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मनीक  : पुं० [सं०√मन्+कीकन्] अंजन (आँखों का)।
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मनीजर  : पुं०=मनेजर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनीबैग  : पुं० [अं०] रुपए-पैसे रखने का छोटा डिब्बा, थैली या बटुआ।
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मनीर  : स्त्री० [देश०] मोरनी।
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मनीषा  : स्त्री० [सं० मनस्-ईषा, ष० त०, पररूप] १. मन या मस्तिष्क की वह विशिष्ट शक्ति जिससे वह इच्छा, कामना, सोच-विचार आदि करता है। मानसिक शक्ति (फैकल्टी)। २. फलतः (क) अभिलाषा या इच्छा। (ख) अकल या बुद्धि।
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मनीषिका  : स्त्री० [सं० मनीषा+कन्+टाप्, इत्व] मनीषा।
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मनीषिता  : स्त्री० [सं० मनीषिन्+तल+टाप्] १ मनीषी होने की अवस्था या भाव। २. बुद्धिमत्ता।
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मनीषी (षिन्)  : वि० [सं० मनीषा+इनि] १. ज्ञानी। २. बुद्धिमान्। ३. पंडित। विद्वान्। ४. यथेष्ट मनन और विचार करनेवाला। विचारशील।
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मनु  : पुं० [सं०√मन्+उ] १. ब्रह्मा के पुत्र जो मनुष्यों के मूल पुरुष माने जाते हैं। विशेष—(क) वेदों में मनु को ही यज्ञों का आदि प्रवर्तक भी माना गया है। पुराणों में यह भी कहा गया है कि जब एक बार महाप्रलय के समय सारी पृथ्वी जलमग्न हो गई थी तब मनु ही एक नाव पर चढ़कर डूबने से बचे थे; और उन्हीं से सारी मानव जाति उत्पन्न हुई थी। पुराणों में यह भी कहा गया है कि प्रत्येक महाप्रलय के उपरांत मनु ही मानव जाति की उत्पत्ति करते हैं। इसीलिए प्रत्येक मन्वन्तर के अलग-अलग मनुओं के नाम ये हैं, स्वायंभुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसार्विण, ब्रह्मा सार्विण, धर्मसावर्णि, रुद्रसावणि, देवसार्वणि और इन्द्रसार्वणि, (ख) इस्लामी, मसीही आदि सभी पौराणिक कथा में मनु के समकक्ष नूह और नोहा है। २. विष्णु। ३. ब्रह्मा। ४. अन्तःकरण। ५. अग्नि। ६. मंत्र। ७. एक रुद्र का नाम। ८. जैनों के एक जिन देव। ९. चौदह मन्वन्तरों के मनुओं के आधार पर १४ की संख्या का सूचक शब्द। स्त्री० १. मनु की स्त्री०। मनावी। २. वन-मेथी। अव्य०=मनहुँ (मानों)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनु-जात  : वि० [सं० पं० त०] मनु से उत्पन्न। पुं० मनुष्य।
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मनु-युग  : पुं० [सं० ष० त०] मन्वंतर।
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मनु-श्रेष्ठ  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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मनु-स्मृति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] मनु द्वारा प्रणीत एक प्रसिद्ध ग्रंथ जिसकी गिनती धर्मशास्त्र में होती है। मानव-धर्मशास्त्र।
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मनुआँ  : पुं०=मानव (मनुष्य)। पुं० [?] देव कपास। नरमा।
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मनुख  : पुं०=मनुष्य।
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मनुग  : पुं० [सं० मनु√गम् (प्राप्त होना)+ड] प्रियव्रत के पौत्र और द्युतिमान के पुत्र का नाम।
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मनुज  : पुं० [सं० मनु [जन् (उत्पन्न करना)+ड] [स्त्री० मनुजा, मनुजी] मनुष्य।
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मनुजाद  : वि० [सं० मनुजअद् (खाना)+अश्] नप-भक्षक। मनुष्यों को खानेवाला पुं०=राक्षस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनुजाधिप  : पुं० [सं० मनुज-अधिप, ष० त०] राजा।
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मनुष  : पुं० [सं० मनुष्य] १. मनुष्य। २. स्त्री० का पति। स्वामी।
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मनुषी  : स्त्री० [सं० मनुष्य+ङीष्, य लोप] स्त्री।
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मनुष्य  : पुं० [सं० मनु+यत्, षुक्-आगम] जरायुज जाति का एक स्तनपायी प्राणी जो अपने मस्तिष्क या बुद्धि बल की अधिकता के कारण सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। आदमी। नर।
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मनुष्य-गणना  : स्त्री० [सं० ष० त०] जन-गणना।
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मनुष्य-गति  : स्त्री० [सं० ष० त०] जैन शास्त्रानुसार वह कर्म जिसे करने से मनुष्य बार बार मरकर मनुष्य का ही जन्म पाता है। ऐसे कर्म पर-स्त्री-गमन, माँस-भक्षण चोरी आदि बतलाये गये हैं।
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मनुष्य-धर्मा (र्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] कुबेर।
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मनुष्य-यज्ञ  : पुं० [सं० ष० त०] मनुष्य, विशेषतः अभ्यागत व्यक्ति का किया जानेवाला आदत-सत्कार। अतिथियज्ञ। नृयज्ञ।
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मनुष्य-रथ  : पुं० [सं० मध्य० स०] प्राचीन काल में वह रथ जिसे मनुष्य (पशु नहीं) खींचते थे। नर-रथ।
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मनुष्य-लोक  : पुं० [सं० ष० त०] यह जगत् जिसमें मनुष्य (देवता नहीं) रहते हैं। मर्त्य-लोक। भूलोक।
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मनुष्य-शीर्ष  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार की जहरीली मछली जिसका सिर आदमी के सिर की तरह होता है (टेटाओडन)।
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मनुष्यकार  : पुं० [सं० मनुष्य+कार] उद्योग। प्रयत्न।
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मनुष्यता  : स्त्री० [सं० मनुष्य+तल्+टाप्] १. मनुष्य होनी की अवस्था या भाव। आदमीपन। २. सज्जन मनुष्य के लिए सभी आवश्यक और उपयोगी गुणों का समूह। २. वे बातें जो किसी मनुष्य को शिक्षित और सभ्य समाज में उठने-बैठने के लिए आवश्यक होती हैं।
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मनुष्यत्व  : पुं० [सं० मनुष्य+त्व] १. मनुष्य होने की अवस्था या भाव। मनुष्यता। २. मनुष्यों के लिए आवश्यक और उपयुक्त गुणों (दया, प्रेम, सहृदयता आदि) से युक्त होने की अवस्था या भाव।
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मनुस (ा)  : पुं० [सं० मनुष्] [भाव० मनुसाई] १. आदमी। मनुष्य। २. नौ-जवान। युवक। ३. स्त्री० का पति। स्वामी। ४. पौरुष से युक्त व्यक्ति। मर्द।
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मनुसाई  : स्त्री० [हिं० मनुस+आई (प्रत्य०)] १. मनुष्यत्व। २. मनुष्यों का फलतः शिष्टातापूर्ण व्यवहार। ३. पौरुष।
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मनुसाना  : अ० [हिं० मनुस] १. पौरुष का भाव जगना। २. क्रोधान्वित होना। स० १. किसी में पौरुष का भाव जगाना। २. क्रुद्ध या क्रोधित करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनुहर  : स्त्री०=मनुहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनुहार  : स्त्री० [हिं० मान+हरना] १. किसी रूठे हुए व्यक्ति को मनाने तथा उसका मान छुड़ाने के लिए की जानेवाली विनती या मीठी-मीठी बातें। २. इस प्रकार की विनती करने की क्रिया, प्रयत्न या भाव। ३. खुशामद। ४. तुष्टि। तृप्ति। ५. आदर-सत्कार।
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मनुहारना  : स० [हिं० मनुहार] १. रूठे हुए व्यक्ति से मीठी-मीठी बातें करके उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न करना। मनाना। २. निवेदन, प्रार्थना या विनती करना। ३. आदर-सत्कार करना। ४. खुशामद करना।
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मनुहारी  : वि० [हिं० मन+हरना] [स्त्री० मनुहारिन] जो बात-बात पर रूठता हो तथा जिसे प्रसन्न करने के लिए बार बार मनुहारी करनी पड़ती हो। उदा०—पासा सार खेलि कित कौन मनुहारिन सो, जीति मनुहारि हारि आयो हो।—पद्माकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनूरी  : स्त्री० [अ० मुनौवर] एक प्रकार की बुकनी जो मुरादाबादी कलई के बरतनों को उजला करने में काम आती है। यह धातु गलाने की पुरानी घरियों को कूटकर बनाई जाती है।
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मने  : अव्य० हिं० मानों का पुराना रुप। वि०=मुझे (गुज० और रात०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनेजर  : पुं० दे० ‘व्यवस्थापक’।
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मनों  : अव्य० [हिं मानना] १. मान लेना पड़ता है कि। २. ऐसा भासित होता है कि। मानों।
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मनो-भ्रंश  : पुं० [सं०] एक तरह का रोग जिसमें बुद्धि ठीक तरह से और पूरा काम नहीं करती। (डिमोन्शिया)
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मनोकामना  : स्त्री० [सं० मनःकामना] मन में रहनेवाली कामना। अभिलाषा।
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मनोगत  : भू० कृ० [सं० द्वि० त०] मन में आया या उठा हुआ (विचार)। पुं० १. कामदेव। मदन। २. काम वासना। ३. विचार।
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मनोगति  : स्त्री० [सं० मनस्-गति, ष० त०] १. मन की गति। चित्त-वृत्ति। २. अभिलाषा। इच्छा।
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मनोगुप्ता  : स्त्री० [सं० मनस्-गुप्ता, तृ० त०] मैनसिल।
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मनोग्रंथि  : स्त्री० [सं] आधुनिक मनोविश्लेषण के अनुसार इच्छाओं और स्मृतियों का एक तंत्र जिससे मन में पुंजीभूत धारणाओं की ऐसी गाँठ-सी बँध जाती है जो दमित होने पर भी अनजान में ही और प्रच्छन्न रूप से मनुष्य के वैयक्तिक आचरणों और व्यवहारों को प्रभावित करती रहती है (काम्पलेक्स)। विशेष—कहा गया है कि यह ऐसे विचारों और संवेगों का पुंज है जिन्हें मनुष्य को समय-समय पर आंशिक या पूर्ण रूप से दमन करना पड़ता है। ऐसे विचार अनजान में ही अचेतन मन में घर कर लेते हैं; और इन्हीं के वशवर्ती होकर वह धार्मिक नैतिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में अनेक प्रकार के असाधारण तथा विलक्षण कार्य करने लगता है। मनोग्रंथियाँ मनुष्य के मन की उन वृत्तियों के अंग बन जाती हैं, और मनुष्य अपने आप को औरों से छोटा या बड़ा समझने लगता है, भूत-प्रेत, स्वर्ग-नरक आदि पर विश्वास करने लगता है, नये ढंग और नई बातें निकालने का प्रयत्न करता है; अपने सामने अनोखे आदर्श रखने और विचित्र सिद्धांत बनाने लगता है; आदि आदि। यह भी कहा गया है कि इनका बहुत ही सूक्ष्मरूप मनुष्य में जन्मजात होता है; और आगे चलकर बढ़ता या विकसित होता रहता है। किसी मनोग्रंथि की तीव्रता या प्रबलता के फलस्वरूप मनुष्य को अनेक प्रकार के विकट मानसिक विकार तथा शारीरिक रोग भी हो जाते हैं।
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मनोग्राही (हिन्)  : वि० [सं० मनस्√ग्रह्+णिनि, उप० स०] [स्त्री० मनोग्राहिणी] मन को अपनी ओर खींचनेवाला।
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मनोज  : पुं० [सं० मानस्√जन् (उत्पन्न करना)+ड] कामदेव। मदन।
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मनोज  : वि० [सं० मनस्√ज्ञा (जानना)+क] [स्त्री० मनोज्ञा] मनोहर। सुंदर। पुं० कुन्द का पौधा और फूल।
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मनोज-वृद्धि  : स्त्री० [सं० ब० स०] कामवृद्धि नामक क्षुप। कामज्ञ।
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मनोजव  : वि० [सं० मनस्-जब, ब० स०] १. मन के समान वेगवान्। अत्यन्त वेगवान्। २. वितृतुल्य। बड़ों के समान। पुं० १. विशद। २. रुद्र के एक पुत्र का नाम। ३. एक प्राचीन तीर्थ ४. छठें मन्वन्तर के इन्द्र का नाम। ५. अनिल या वायु के एक पुत्र जो उसकी शिवा नाम की पत्नी से उत्पन्न हुआ था।
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मनोजवा  : स्त्री० [सं० मनोजव+टाप्] १. कलिहारी। करियारी। २. स्कंद की माता का नाम। ३. क्रौंच द्वीप की एक नदी। ४. अग्नि की एक जिह्वा का नाम।
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मनोज्ञता  : स्त्री० [सं० मनोज्ञ+तल्+टाप्] सुंदरता। मनोहरता। खूबसूरती।
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मनोज्ञा  : स्त्री० [सं० मनोज्ञ+टाप्] १. कलौंजी। २. मँगरैला। ३. जावित्री। ४. मदिरा। शराब। ५. आवर्तकी। बाँध ककोड़ा। ६. कोई सुन्दरी स्त्री, विशेषतः राजकुमारी।
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मनोदंड  : पुं० [सं० मनस्-दंड, ष० त०] मन की वृत्तियों का विरोध। मनोनिग्रह।
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मनोदत्त  : वि० [सं० मनस्-दत्त, तृ० त०] १. जो अभी प्रत्यक्ष रूप में तो नहीं पर मन से दिया जा चुका हो। जिसे देने का मन में संकल्प कर लिया गया हो। २. जिसका मन किसी काम में पूरी तरह लग रहा हो। दत्त-चित्त।
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मनोदशा  : स्त्री० [सं० मनोदश+टाप्] किसी कार्य या विषय के प्रति होनेवाले राग-विराग या प्रवृत्ति-विरति आदि के विचार से समय विशेष पर होनेवाली मन की अवस्था या दशा (मूड)।
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मनोदाह  : पुं० [सं० मनस्-दाह, ष० त०] मन में होनेवाला दुःख मनस्ताप।
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मनोदाही (हिन्)  : वि० [मनस्√दह् (जलना)+णिनि] मन में सन्ताप उत्पन्न करनेवाला।
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मनोदुष्ट  : वि० [सं० मनस्-दुष्ट, तृ० त०] दुष्ट प्रकृति।
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मनोदेवता  : पुं० [सं० मनस्-देवता, ष० त०] अन्तःकरण। विवेक।
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मनोदौर्बल्य  : पुं० [सं० मनस्-दौर्बल्य, ष० त०] १. मन में होनेवाली किसी प्रकार की दुर्बलता (मेन्टल वीकनेस)। २. उक्त दुर्बलता का सूचक कोई कार्य।
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मनोध्यान  : पुं० [सं० ष०] सम्पूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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मनोनयन  : पुं० [सं० मनस्-नयन, स० त० या तृ० त०] [भू० कृ० मनोनीत] १. कोई बात या विचार मन में लाना या उस पर कुछ सोचना। २. अपनी इच्छा, रुचि आदि के अनुसार किसी को चुनना अथवा नामांकित, नियुक्त या प्रतिष्ठित करना।
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मनोनिग्रह  : पुं० [सं० मनस्-निग्रह, ष० त०] विषय-वासनाओं में प्रवृत्त होने से मन को रोकना। मन को वश में रखना।
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मनोनीत  : भू० कृ० [सं० मनस्-नीत, तृ० त०] १. मन में आया हुआ विचार आदि)। २. जिसका मनोनयन हुआ या किया गया हो।
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मनोनुकल  : वि० [सं० मनस्-अनुकूल, ष० त०] मन चाहता हो वैसा। इच्छा या मन के अनुसार।
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मनोन्मनी  : स्त्री० [सं० ?] योग-साधन में वह अवस्था जिसमें मन सारी चंचलता छोड़कर पूर्ण रूप से शान्त और स्थिर हो जाता है। विशेष—कबीर साहित्य में ‘उन्मनी’ का प्रयोग इसी अर्त में हुआ है।
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मनोबल  : पुं० [सं० मनस्-बल, ष० त०] १. मानसिक बल। २. आत्मिक शक्ति।
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मनोभंग  : पुं० [सं० मनस्-भंग, ष० त० मन की शान्ति में पड़नेवाला विघ्न। जैसे—खिन्नता, निराशा, विषाद आदि।
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मनोभव  : पुं० [सं० मनस्√भू (होना)+अच्] कामदेव।
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मनोभाव  : पुं० [सं० मनस्-भाव, ष० त०] मन में उत्पन्न होने या रहनेवाला भाव या विचार। (सेन्टीमेन्ट)
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मनोभिराम  : वि० [सं० मनस्-अभिराम, ष० त०] मनोज्ञ। सुन्दर।
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मनोभू  : पुं० [सं० मनस्√भू (होना) क्वप्] कामदेव। मदन।
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मनोमय  : वि० [सं० मनस्+मयट्] १. मन से युक्त। २. मानसिक।
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मनोमय-कोश  : पुं० [सं० कर्म० स०] वेदान्त में आत्मा को आवृत्त रखनेवाला पाँच कोशों में से तीसरा कोश जिसमें मन, अहंकार और कर्मेन्द्रियाँ अंतर्भूत मानी जाती हैं। इसी को बौद्ध दर्शन संज्ञा स्कंध कहते हैं।
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मनोमल  : पुं० [सं मनस्-मल ष० त०] मन में होनेवाला कोई दूषित भाव या विचार।
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मनोमालिन्य  : पुं० [सं० मनस्-मालिन्य, ष० त०] मन में रहनेवाला दुर्भाव या बैर-विरोध जो जल्दी उभपर प्रकट न होता हो। मनमुटाव। रंजिश।
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मनोमोही (हिन्)  : वि० [सं० मनस्√मुह् (मुग्ध होना)+णिच्+णिनि [स्त्री० मनोमोहिनी] मन को मोहनेवाला। उदा०—मनो मोहिनी है वह मनोरमा है।—निराला।
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मनोयोग  : पुं० [सं० मनस्-योग, ष० त०] किसी काम या बात में मन को एकाग्र करके लगाना। चित्त की वृत्ति का विरोध करके एकाग्र करना और उसे किसी एक काम या बात में लगाना।
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मनोयोनि  : पुं० [सं० मनस्-योनि, ब० स०] कामदेव।
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मनोरंजक  : वि० [सं० मनस्-रंजक, ष० त०] मनोरंजन करनेवाला। मन को बहलाकर प्रसन्न करनेवाला। मन का रंजन करनेवाला, फलतः जिससे समय बहुत आनन्दपूर्क व्यतीत होता है।
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मनोरंजन  : पुं० [सं० मनस्-रंजन, ष० त०] [वि० मनोरंजक, मनोरंजनी] १. मन का रंजन। दिल-बहलाव। २. कोई ऐसा कार्य या बात जिससे समय बहुत ही आनंदपूर्वक व्यतीत होता है। (इन्टरटेनमेन्ट; उक्त दोनों अर्थों में)। ३. एक प्रकार की बंगला मिठाई।
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मनोरंजन-कर  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का कर जो मनोरंजन चाहनेवाले व्यक्तियों को किसी व्यावसायिक मनोरंजक कार्यक्रम में सम्मिलित होने क समय देना पड़ता है। (इन्टरटेनमेंट टैक्स)
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मनोरथ  : पुं० [सं० मनस्-रथ, ब० स०] [वि० मनोरथिक] अभिलाषा वांछा। इच्छा।
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मनोरथ तृतीया  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] चैत्र शुक्ल तृतीया जो व्रत का दिन कहा गया है।
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मनोरथ द्वादशी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] चैत्र शुक्ल पक्ष की द्वादशी जो व्रत का दिन कहा गया है।
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मनोरथिक  : वि० [सं० मानोरथिक] १. मनोरथ से सम्बन्ध रखनेवाला। मनोरथ का। २. मनोरथ के रूप में होनेवाला।
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मनोरम  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कपास।
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मनोरम  : वि० [सं० मनस्√रम् (रमण करना)+णिच्+अण्, उप० स०] [स्त्री० मनोरमा] जिसमें मन रमने लगे। सुंदर। पुं० सखी छंद का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में, ५, ४ और ५ के अंतर पर विराम कुल चौदह मात्राएँ हैं।
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मनोरमा  : स्त्री० [सं० मनोरम+टाप्] १. सात सरस्वतियों में से चौथी सरस्वती। २. गौतम बुद्ध की एक शक्ति। ३. दस दस वर्णों के चरणों वाला एक छंद जिसके प्रत्येक चरण का पहला, दूसरा, तीसरा, सातवाँ और नवाँ वर्ण लघु होता है। तथा अन्य वर्ण गुरु होते हैं। (छंदोमंजरी) ४. महाकवि चन्द्रशेखर के अनुसार आर्या के ५७ भेदों से एक जिसमें १२ गुरु और २२ लघु वर्ण होते हैं। ५. दस अक्षरों का एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरम में नगण, रगण और अंत में गुरु होता है। ६. केशव के मतानुसार चौदह अक्षरों का एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक पाद में ४ सगण और अंत में दो लघु होते हैं। ७. केशव के अनुसार बोधक छंद का एक नाम जिसके प्रत्येक चरण में ४ भगण और दो गुरु होते हैं। ८. सूदन के अनुसार दस अक्षरों का एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन तगण और एक गुरु होता है। ९. गोरोचन।
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मनोरा  : पुं० [सं० मनोहर] पूजा आदि के उद्देश्य से बनाई जानेवाली गोबर की मूर्ति।
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मनोरा-झूमक  : पुं० [?] स्त्रियों का एक प्रकार का देहाती लोक गीत।
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मनोराज  : पुं० मनोराज्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनोराज्य  : पुं० [सं० मनस्-राज्य, मध्य० स०] १. मन रूपी राज्य। २. मनमाने सुखो की मन में की जानेवाली कल्पना। ३. कल्पना से खड़ा किया हुआ कोई सुन्दर तथा सुखद आयोजन।
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मनोरिया  : स्त्री० [हिं० मनोहर] एक प्रकार की सिकड़ी या जंजीर जिसकी कड़ियों पर चिकनी चपटी दाल या घुंडी जड़ी रहती है और जिसमें घुंघरुओं के गुच्छे लगातार वंदनवार की तरह टाँगते या लटकाते हैं।
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मनोलीला  : स्त्री० [सं० मनस्-लीला, ष० त०] ऐसी कल्पित अद्भुत बात जिसका कोई आधार न हो (फैन्टन)।
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मनोवती  : स्त्री० [सं० मनस्+मतुप्, म—व+ङीष्] १. पुराणानुसार मेरु पर्वत पर की एक नगरी। २. चित्रांगद विद्याधर की एक कन्या।
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मनोवांछा  : स्त्री० [सं० मनस्-वांछा, ष० त०]=मनोकामना।
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मनोवांछित  : भू० कृ० [सं० मनस्-वांछित्, तृ० त०] जो मन में चाहा गया हो। अभिलषित्। इच्छित।
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मनोविकार  : पुं० [सं० मनस्-विकार, ष० त०] १. मन में उठनेवाला कोई भाव या विचार। मन में होनेवाला कोई आवेग।
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मनोविज्ञान  : पुं० [सं० मनस्-विज्ञान, ष० त०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें मनुष्य के मन उसकी विभिन्न अवस्थाओं तथा क्रियाओं, उस पर पड़नेवाले प्रभावों आदि का अध्ययन तथा विवेचन होता है (साइकॉलोजी)।
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मनोविश्लेषण  : पुं० [सं० मनस्-विश्लेषण, ष० त०] आधुनिक मनोविज्ञान की वह शाखा जिसमें कुछ विशिष्ट प्रकार के रोगों और विकारों का उपचार या चिकित्सा यह मानकर की जाती है कि वे रोग कुछ मनोवेगों का दमन करने से उत्पन्न होते हैं (साइको-एनैलैसिस)। विशेष—इसका आविष्कार फ्रायड तथा उसके परवर्ती मनोवैज्ञानिकों ने किया था। इसमें रोगी के पूर्व-इतिहास का परिचय प्राप्त करके रोग का निदान किया जाता है और तब मनोवैज्ञानिक ढंग से उसका उपचार या चिकित्सा की जाती है
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मनोवृत्ति  : स्त्री० [सं० मनस्-वृत्ति, ष० त०] वह मानसिक शक्ति या स्थिति जिसके कारण मनुष्य किसी ओर प्रवृत्त होता अथवा उससे हटता है (मैन्टैलिटी)।
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मनोवेग  : पुं० [सं० मनस्-वेग, ष० त०] मन में उत्पन्न होनेवाला तीव्र विकार।
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मनोवैकल्य  : पुं० [सं० मनस्-वैकल्य, ष० त०] मनुष्य की वह मानसिक अवस्था जिसमें ठीक तरह से मानसिक विकास न होने के कारण बुद्धि परिष्कृत नहीं होने पाती, और इसीलिए ठीक तरह से अपना कार्य करने के योग्य नहीं होती (मेन्टल डिफ़ीशिएन्सी)।
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मनोवैज्ञानिक  : वि० [सं० मनोविज्ञान+ठक्-इक] मनोविज्ञान से सम्बन्ध रखनेवाला (साइकॉलाजिकल)। पुं० वह जो मनोविज्ञान का ज्ञाता है (साइकॉलोजिस्ट)।
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मनोव्यथा  : स्त्री० [सं० मनस्-व्यथा, ष० त०] मन में होनेवाली व्यथा। मानसिक कष्ट।
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मनोव्याधि  : स्त्री० [सं० मनस्-व्याधि, ष० त०] मन का मानस मेंहोने वाले रोग।
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मनोव्यापार  : पुं [सं० मनस्-व्याधि, ष० त०] मन या मानस में होनेवाले रोग।
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मनोव्यापार  : पुं० [सं० मनस्-व्यापार, ष० त०] मन की क्रिया। संकल्प-विकल्प। विचार।
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मनोषित  : भू० कृ० [सं० मनीषा+इचत्] मनोभिलाषित। वांछित।
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मनोसर  : पुं० [सं० मन] मन की वृत्ति। मनोविकार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मनोहत  : वि० [सं० मनस्-हत्, तृ० त०] जिसका मन टूट गया हो। निराश।
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मनोहर  : वि० [सं० मनस्-हर० त०] [स्त्री० मनोहरता] १. मन हरनेवाला। २. मनोज्ञ। सुन्दर। पुं० १. छप्पय छंद का एक भेद। २. एक संकर राग। ३. कुंद का पौधा और उसका फूल। ४. सोना। स्वर्ण।
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मनोहरता  : स्त्री० [सं० मनोहर+तल्+टाप्] मनोहर होने की अवस्था या भाव। सुंदरता।
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मनोहरताई  : स्त्री०=मनोहरता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनोहरा  : स्त्री० [सं० मनोहर+टाप्] १. जाती पुष्प। २. सोनजूही। ३. त्रिशिर की माता का नाम। ४. स्वर्ग की एक अप्सरा का नाम।
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मनोहरी  : स्त्री० [हिं० मनोहर] कान में पहनने की एक प्रकार की छोटी बाली।
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मनोहंस  : पुं० [सं०] एक प्रकार का सम-वृत्त वर्मिक छंद जिसमें प्रत्येक चरण में एक सगण, दो नगण, एक भगण और एक रगण होता है (कलहंस नामक छन्द से भिन्न)।
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मनोहारी (रिन्)  : वि० [सं० मनस्√हृ (हरण)+णिनि] [स्त्री० मनोहारिणी] मनोहर। चित्ताकर्षक। सुन्दर।
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मनोह्लादी (दिन्)  : वि० [सं० मनस्√ह्लाद (प्रसन्न होना)+णिनि] [स्त्री० मनोह्लदिनी] १. मन को आह्लादित या प्रसन्न करनेवाला। २. मनोहर। सुंदर।
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मनोह्वा  : स्त्री० [सं० मनस्√ह्वा (बुलाना)+कटाप्] मनःशिला। मैनसिल।
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मनौ  : अव्य०=मानौं०।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मनौअल  : स्त्री० [हिं० मानना] मन में कोई बात मानने या धारण करने की क्रिया या भाव। स्त्री० [हिं० मानना] क्रुद्ध अथवा रूठे हुए को मनाने की क्रिया या भाव। जैसे—मान-मनौअल।
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मनौती  : स्त्री० [हिं० मानना+औती (प्रत्य०)] १. रूठे हुए को मनाने की क्रिया या भाव। मनुहार। २. देवी-देवता के प्रति की जानेवाली यह प्रतिज्ञा या संकल्प कि अमुक मनोरथ सिद्ध हो जाने पर हम आपकी अमुक प्रकार से पूजा करके आपको प्रसन्न करेंगे। दे० ‘मन्नत’। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—मनाना।
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मन्नत  : स्त्री० [हिं० मानना] किसी देवी-देवता की पूजा करने की वह प्रतिज्ञा या संकल्प जो किसी विशिष्ट कामना की पूर्ति के लिए किया जाता है। मानता। मनोती। मुहा०—मन्नत उतारना या बढ़ाना=उक्त प्रकार की पूजा की प्रतिज्ञा पूरी करना। मन्नत मानना=यह प्रतिज्ञा करना कि अमुक कार्य हो जाने पर अमुक पूजा की जायगी।
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मन्ना  : पुं० [देश०] बाँस आदि में से रसनेवाला एक तरह का मीठा निर्यास।
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मन्नाना  : अ० [हि० मान या मन] १. (साँप का) फन उठाना। २. मन में बहुत अप्रसन्न या नाराज होना।
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मन्मथ-लेख  : पुं० [सं० मध्य० स०] प्रेमी या प्रेमिका को विरह सम्बन्धी लिखा जानेवाला प्रेंम-पत्र।
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मन्मथारि  : पुं० [सं० मन्मथ-अरि, ष० त०] कामदेव के शत्रु; शिव।
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मन्मथालय  : पुं० [सं० मन्मथ-आलय, ष० त०] १. आम का पेड़। २. कामुकों का विहार-स्थल।
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मन्मथी  : पुं० [सं०√मंथ्+अच्, पृषो० सिद्धि] १. कामदेव। २. कामवासना। ३. कपित्थ। कैथ। ४. साठ संवत्सरों में से उन्नीसवाँ संवत्सर।
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मन्मथी (थिन्)  : वि० [सं० मन्मथ+इनि] कामी। कामुक।
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मन्मयानंद  : पुं० [सं० मन्मथ+आ√नंद् (प्रसन्न होना)+णिच्+अच्] एक प्रकार का आम जिसे महाराज चूत भी कहते हैं।
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मन्य  : वि० [सं०√समास के अन्त में प्रयुक्त होनेवाला पद] समस्त पदों के अन्त में अपने आपको मानने या समझनेवाला। जैसे—अहंमन्य, पंडित-मन्य।
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मन्या  : स्त्री० [सं०√मन्+क्यप्+टाप्] गरदन की एक नस।
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मन्या-स्तंभ  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का रोग जिसमें गले पर की मन्या नामक शिरा कड़ी हो जाती है और गरदन इधर-उधर नहीं, घूम सकती और भीषण ज्वर होता है। गरदन तोड़ बुखार (मेनेजाइटिस)।
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मन्यु  : पुं० [सं०√मन् (ज्ञान करना)+युच्] १. स्त्तोत्र। २. कर्म। ३. दुःख या शोक। ४. यज्ञ। ५. क्रोध। गुस्सा। ६. अभिमान। अहंकार। ७. दीनता। ८. अग्नि। ९. शिव।
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मन्यु-देव  : पुं० [सं० ष० त०] १. क्रोध का अभिमानी देवता। २. एक प्राचीन ऋषि।
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मन्युमान् (मत्)  : वि० [सं० मन्यु+मतुप्] क्रोध, अहंकार या दैन्य से युक्त (व्यक्ति)।
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मन्वंतर  : पुं० [सं० मनु-अंतर, ष० त०] १. इकहत्तर चतुर्युगियों का काल। ब्रह्मा के एक दिन का चौदहवाँ भाग। २. अकाल। दुर्भिक्ष। ३. दे० ‘मनु’।
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मन्वंतरा  : स्त्री० [सं० मन्वन्तर+अच्+टाप्] प्राचीन काल का एक प्रकार का उत्सव जो आषाढ़ शुक्ल दशमी, श्रावण-कृष्ण अष्टमी और भाद्र शुक्ल तृतीया को होता था।
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मन्हियार  : पुं०=मनिहार।
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मन्होला  : पुं० [देश०] तमाल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मफरूर  : वि० [अ० मफ़्रूर] पलायित। भागा हुआ।
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मम  : सर्व० [सं० मा+उम या अहं का षष्टी एक वचन रूप] मेरा।
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ममता  : स्त्री० [सं० मम+ताल्+टाप्] १. यह भाव या विचार कि अमुक [पदार्थ या व्यक्ति) मेरा है, ‘मम’ का भाव, ममत्व। २. परम आत्मीयता के कारण मन में होनेवाला प्रेम या स्नेह। जैसे—पिता या माता को सन्तान के प्रति होनेवाली ममता। ३. मन में होनेवाला किसी प्रकार का मोह या लोभ। ४. अभिमान। गर्व।
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ममता-युक्त  : वि० [सं० तृ० त०] १. जिसके मन में किसी के प्रति ममता हो। २. अभिमानी। ३. कंजूस। कृपण।
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ममत्व  : पुं० [सं० मम+त्व] १. ‘मम’ का भाव। ममता। अपनापन। २. स्नेह। ३. अभिमान। घमंड।
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ममनून  : वि० [अ०] कृतकृत्य। अनुगृहीत।
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ममरखी  : स्त्री० [फा० मुबारकी] १. मुबारकबादी। बधाई। २. बधावा।
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ममरी  : स्त्री० [सं० बरबरी] बनतुलसी। बबई।
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ममाखी  : स्त्री०=मधु-मक्खी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ममाना  : पुं० [हिं० मामा] मामा का घर। मनिऔरा।
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ममिया  : वि० [हिं० मामा+इया (प्रत्य०)] जो संबंध में मामा या मामी के स्थान पर पड़ता हो। ममेरा। जैसे—ममिया ससुर, ममिया सासु।
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ममियाउर  : पुं०=मामियौरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ममियौरा  : पुं० [हि० मामा+औरा (प्रत्य०)] मामा का घर। ममाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ममिला  : पुं०=मामला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ममीरा  : पुं० [अ० मामीरान] हलदी की जाति के एक पौधे की जड़ जिसकी कई जातियाँ होती हैं। यह आँख के रोगों की बहुत अच्छी ओषधि मानी जाती है।
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ममोला  : पुं० [देश०] १. धोबिन नामक छोटा पक्षी जिसके पेट पर काली धारियाँ होती हैं। २. छोटा, प्यारा बच्चा।
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मम्मा  : पुं० [अनु०] १. स्त्रियों का स्तन। छाती। २. जल। पानी (छोटे बच्चे)। पुं०=मामा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मय  : पुं० [सं०√मय् (शीघ्र जाना)+अच्] [स्त्री० मयी] १. ऊँट। २. खच्चर। ३. घोड़ा। ४. आराम। सुख। ५. एक प्राचीन देश का नाम। ६. पुराणानुसार एक प्रसिद्ध दानव जो बहुत बड़ा शिल्पी था। इसे असुरों और दैत्यों का शिल्पी मानते हैं। कहते हैं कि मन्दोदरी इसी की कन्या थी। ७. अमेरिका के मोक्सिको नामक देश के प्राचीन मूल अधिवासी जो प्राचीन काल में उन्नत और सभ्य समझे जाते थे। प्रत्य० [सं०] तद्दित का एक प्रत्यय जो तद्रूप विकार और प्राचुर्य अर्थ में शब्दों के साथ लगा जाता है। और ज नीचे लिखे अर्थ देता है— १. किसी चीज या बात से अच्छी तरह पूर्ण। भरा हुआ या युक्त। जैसे—आनन्दमय। २. आधार या आश्रय के रूप में होनेवाला। जैसे—अन्नमय कोश, प्राणमय कोश। स्त्री० दे० ‘मैं’ (शराब)।
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मय-सुता  : स्त्री० [सं० ष० त०] मय दानव की कन्या; मन्दोदरी।
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मयंक  : पुं० [सं० मृगाँक] चन्द्रमा।
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मयंक-मुख  : वि० [हिं० मयंक+मुख] [स्त्री० मयंकमुखी] चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखवाला।
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मयगल  : पुं० [सं० मंदकल, प्रा० मयगल] मत्त हाथी। मदमत्त हाथी।
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मयत्री  : स्त्री०=मैत्री (मित्रता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मयंद  : पुं० [सं० मृगेन्द्र] १. शेर। सिंह। २. रामकी सेना का एक बन्दर।
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मयंदी  : स्त्री० [देश०] लोहे की वह छोटी सामी जो गाड़ी में चक्के की नाभि के दोनों ओर उस छेद के मुँह पर खोदकर बैठाई जाती है जिसमें धुरे का सिरा रहता है।
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मयन  : पुं० [सं० मदन] कामदेव।
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मयनी  : स्त्री०=मैना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मयमंत, मयमत्त  : वि० [सं० मदमत्त] मस्त। मदमत्त।
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मयस्सर  : वि० [अ०] १. हाथ में आया हुआ। प्राप्त। लब्ध।
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मया  : स्त्री० [सं०√मय्+क+टाप्] चिकित्सा। इलाज। स्त्री० [सं० माया] १. माया। भ्रमजाल। २. ममता के कारण होनेवाला स्नेह। प्रेम का पाशा या बन्धन। २. अनुग्रहपूर्ण मनोभाव। प्रेम-भाव। उदा०—जा कहुँ मया करहु भलि सोई।—जायसी। ४. जगत्। संसार। ५. जीवनी-शक्ति। प्राण। ६. सांसारिक धन-सम्पत्ति।
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मयाजिय  : वि० [सं० मायाजीव] १. जिसके मन में माया या मोह हो। २. अनुग्रह या कृपा का भाव रखनेवाला।
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मयार  : वि० [सं० माया; हिं० माया] [स्त्री० मयारी] दयार्द्र। दयालु।
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मयारी  : स्त्री० [देश०] १. वह शाखा या धरन जिसपर हिंडोले की रस्सी लटकाई जाती है। २. धरन।
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मयारू  : वि०=मयार (दयार्द्र])।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मयी  : स्त्री० [सं० मय+ङीष्] ऊँटनी। अव्य० सं० ‘मय’ का स्त्री०। जैसे—दयामयी माता।
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मयु  : पुं० [सं०√मय् (गमन् करना)+कु वा√मि (मान करना)+उ] १. किन्नर। २. मृग। हिरन।
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मयु-राज  : पुं० [सं० ष० त०] कुबेर।
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मयूख  : पुं० [सं०√मा (मान)+ऊख, मय्-आदेश] १. किरण। रश्मि। २. चमक। दीप्ति। ३. प्रकाश। रोशनी। ४. ज्वाला। लपट। ५. शोभा। ६. काँटा या कील। ७. पर्वत। पहाड।
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मयूर  : पुं० [सं० मयू√रु (शब्द)+क, पृषो० सिद्धि] [स्त्री० मयूरी] १. मोर। २. मयूर-शिखा नामक क्षुप। ३. पुराणानुसार सुमेरु पर्वत के अन्दर का एक पर्वत।
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मयूर-केतु  : पुं० [सं० ब० स०] स्कंद का एक नाम।
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मयूर-गति  : पुं० [सं० ब० स०] चौबीस अक्षरों की एक वृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में आदि में पाँच यगण, फिर मगण, यगण और अन्त ममें भगण होता है (य य य य य म य भ)।
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मयूर-ग्रीवक  : पुं० [सं० ब० स०+कन्, हृस्व] तूतिया।
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मयूर-नृत्य  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का नाच जिसमें थिरकन अधिक होती है।
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मयूर-पदक  : पुं० [सं० ष० त०] नखाघात। नखक्षत।
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मयूर-रथ  : पुं० [सं० ब० स०] कार्तिकेय। स्कंद।
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मयूर-शिखा  : स्त्री० [सं० ब० स०] मोरा शिखा नामक क्षुप।
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मयूरक  : पुं० [सं०] १. अपामार्ग। चिचड़ा। २. तूतिया। ३. मयूर। मोर। ४. मयूर। शिखा नामक क्षुप।
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मयूरगामी (मिन्)  : पुं० [सं० मयूर√गम् (जाना)+णिनि,] मयूर। पर सवारी करनेवाले कार्तिकेय।
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मयूरचढ़  : पुं० [सं० ब० स०] मयू शिखा।
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मयूरचूड़ा  : स्त्री० [सं० मयूरचूड़ा+टाप्] मयूर शिखा नामक क्षुप।
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मयूरजंघ  : पुं० [सं० ब० स०] सोनापाढ़ा। श्योनाक।
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मयूरिका  : स्त्री० [सं० मयूर+ठन्—इक, +टाप्] १. अंबष्ठा। मोइया। २. एक प्रकार का जहरीला कीड़ा।
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मयूरेश  : पुं० [सं० मयूर-ईश, ष० त०] कार्तिकेय।
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मयेश्वर  : पुं० [सं० मय-ईश्वर, ष० त०] मय दानव।
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मर  : पुं० [सं०√मृ (मरण)+अप्] १. मृत्यु। २. मृत्यु-लोक। संसार। ३. पृथ्वी। स्त्री०=मुरा। वि० १. जो मरता या मर सकता हो। मरणशील। २. मृतक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मर-चिरैया  : स्त्री०=उल्लू (पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मर-पुरी  : स्त्री० [हिं० मरना+पुरी]=यमपुरी। उदा०—तू मरपुरी न कबहूँ देखी।—जायसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मरक  : पुं० [सं०√मृ (मरण)+अप्+कन्] लोक में फैलनेवाला कोई ऐसा घातक या संक्रामक रोग जिसके कारण बहुत से लोग जल्दी मर जाते हैं। मरी। महामारी (ऐपिडेमिक)। स्त्री० [हिं० मरक] १. भेद। रहस्य। २. आकर्षण। खिचाव। ३. मन में दबा रहनेवाला द्वेष या वैर। मुहा०—मरक काढ़ना=बदला लेना। बैर चुकाना। ४. मन की उमंग या हौसला। ५. दे० ‘मड़क’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मरक-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०]=महामारी विज्ञान।
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मरकज  : पुं० [अ० मर्कजी] १. वृत्त का केन्द्र २. कोई केन्द्र स्थल; विशेषतः व्यापारिक केन्द्रस्थल। ३. राजधानी।
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मरकजी  : वि० [अ० मर्जज़ी] केन्द्र-सम्बन्धी। केन्द्रीय।
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मरकट  : पुं०=मर्कट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मरकत  : पुं० [सं० मर√कतृ (तरना)+ड] पन्ना नामक रत्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मरकताल  : पुं० [देश०] समुद्र की तरंगों के उतार की सबसे अन्तिम अवस्था। भाटा की चरम जो प्रायः अमावस्या और पूर्णिमा से दो-चार दिन पहले होती है।
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मरकना  : वि०=मर-खाना। अ०=भड़कना। स०=भुड़काना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मरकहा  : वि० [हिं० मारना+हा (प्रत्य०)] [स्त्री० मरकही] मारनेवाला (पशु)।
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मरकाना  : स० [हिं० मरकना] १. दबाकर चूर करना। इतना दबाना कि मरमराहट का शब्द उत्पन्न हो। २. दे० ‘मुड़काना’।
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मरकी  : स्त्री० [हिं० मरना] १. मरी। महमारी। २. मृत्यु।
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मरकूम  : वि० [अ० मर्कम] लिखित। लिखा हुआ।
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मरकोटी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मिठाई।
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मरखंडा  : वि०=मरकना (मरकहा)।
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मरखना  : वि० [हिं० मारना+खना (प्रत्य०)] जल्दी गुस्से में आकर मार बैठनेवाला। मरकहा। जैसे—मरखना बैल या साँड़। २. (व्यक्ति) जिसे मारने-पीटने की आदत पड़ गई हो।
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मरखम  : पुं० [हिं० मल्लखंभ] १. वह खूँटा जो कातर में गाड़ा जाता है। २. दे० ‘माल खंभ’।
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मरखौका  : वि० [हिं० मरा+खाना] [स्त्री० मरखौकी] मरे हुए जीवों का मांस खानेवाला। वि० [हिं० मार+खाना] [स्त्री० मरखौकी] जो प्रायः मार खाते रहने का अभ्यस्त हो। बहुत मार खानेवाला
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मरगजा  : वि० [हिं० मलना+गींजना] [स्त्री० मरगजी] मला-दला। मसला हुआ। मलित-दलित। पुं०=मलगजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मरगी  : स्त्री० [हिं० मरना+मि० फा० मर्ग] महामारी। मरी।
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मरगील (ला)  : पुं० [अ०] गाने में ली जानेवाली गिटकरी। स्वर-कंपन (संगीत)। क्रि० प्र०—भरना।—लेना।
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मरघट  : पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ चिताएँ जलती हों। वि० १. मरकट। २. दे० ‘मनहूस’।
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मरचा  : पुं०=मिर्च।
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मरचोआ  : पुं [देश०] एक प्रकार की तरकारी जिसका व्यवहार युरोप में अधिकता से होता है।
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मरज़  : पुं० [अ० मर्ज़] १. रोग। बीमारी। २. ख़राब आदत। बुरी टेव। लत।
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मरजाद  : स्त्री० [सं० मर्य्यादा] १. मर्यादा। २. सीमा। हद। ३. प्रतिष्ठा। सम्मान। ४. सामाजिक परिपाटी, रीति या विधान। ५. परिमाण। माप। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मरजादा  : स्त्री०=मरजाद (मर्यादा)।
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मरजिया  : वि० [हिं० मरना+जीना] १. एक बार मरकर फिर से जीनेवाला। २. मृत-प्राय। ३. जो मरने-जीने की परवाह न करता हो। पुं० समुद्र तल पर पड़ी हुई वस्तुएँ निकालनेवाला गोताखोर।
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मरजी  : स्त्री० [अ० मर्ज़ी] १. इच्छा। कामना। २. किसी काम, बात या व्यक्ति के प्रति होनेवाला अनुकूल मनोभाव या वृत्ति। जैसे—हम तो आपकी मरजी से ही यह काम करेंगे। ३. अनुज्ञा। अनुमति। मुहा०—मरजी मिलना या पटना=(क) एक राज्य होना। सहमत होना। (ख) स्वभाव या प्रवृत्ति का एक-सा होना।
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मरजीवा  : वि०, पुं०=मर-जिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मरण  : पुं० [सं०√मृ (मरना)+ल्युट्—अन] १. मरने की क्रिया या भाव। मौत। २. साहित्य में एक संचारी भाव जो विरही की उस अवस्था का सूचक होता है जब वह विरह में मरणासन्न-सा रहता है।
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मरण-गति  : स्त्री० [ष० त०] आबादी या जन-संख्या के विचार से उसके अनुपात में होनेवाली मृत्युओं की दर या हिसाब (डेथ रेट)। जैसे—अमुक देश की मरण-गति धीरे-धीरे घट (या बढ़) रही है।
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मरण-प्रमाणक  : पुं० [सं० ष० त०] व्यक्ति का मरण सूचित करनेवाला प्रमाण-पत्र।
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मरण-शील  : वि० [सं० ब० स०] मर जाना जिसका धर्म या स्वभाव हो। जो अन्त में अवश्य मरता हो। मरण-धर्मा।
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मरण-शुल्क  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘मत्युकर’।
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मरणधर्मा  : वि०=मरणशील।
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मरणाशंसा  : स्त्री० [सं० मरण-आशंसा, ष० त०] शीघ्र मरने की इच्छा जल्दी मरने की कामना। (जैन)
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मरणाशौच  : पुं० [सं० मरण-अशौच, ष० त०] घर में किसी की मृत्यु होने के कारण सम्बन्धियों आदि की लगनेवाला सूतक। अशौच।
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मरणीय  : वि० [सं० मरण+छ-ईय] १. जो मरने को हो या मरने के समीप हो। मर्त्य। २. जिसका मरना अवश्यम्भावी हो।
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मरणोन्मुख  : वि० [सं० मरण-उन्मुख; ष० त०] जो मर रहा हो या जल्दी मरने को हो। मृत्युवाला।
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मरत  : पुं० [सं०√मृ(जाल)+अतच्, गुण] मृत्यु। मौत।
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मरतबा  : पुं० [अ० मर्तबः] १. पद। पदवी। २. दफा। पारी। बार। जैसे—दूसरी मरतबा।
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मरतबान  : पुं० [सं० अमृतबान] चीनी मिट्टी का बना हुआ एक प्रसिद्ध आधान।
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मरता  : वि० [हिं० मरना] जो मरने के सन्निकट हो। जैसे—मरता क्या नहीं करता। (कहा०)। पद—मरते जीते=बहुत ही कठिनता से और जैसे-तैसे। मरते दम तक=प्राण निकलने के समय तक। जीवन के अन्तिम क्षणों तक। मरते मरते=(क) ठीक मृत्यु के समय। जैसे—(क) वह मरते-मरते यह बात कह गया था। (ख) ठीक मृत्यु से समय तक। जैसे—वह मरते मरते मर गया, पर कभी कभी किसी से दबा नहीं।
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मरंद  : पुं०=मकरंद।
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मरद  : पुं० [फा० मर्द] १. पुरुष। २. वीर पुरुष। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मरदई  : स्त्री० [हिं० मर्द+ई (प्रत्य०)] १. मनुष्यत्व। आदमीयत। २. बहादुरी। वीरता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मरदन  : पुं०=मर्दन।
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मरदना  : स० [सं० मर्दन] १. मसलना। २. ध्वस्त या नष्ट करना। ३. गूँधना। माँडना। सानना।
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मरदनिया  : पुं० [हिं० मर्दना] वह सेवक जो बड़े आदमियों के अंगों में तेल आदि मला करता है। मालिश करनेवाला आदमी।
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मरदानगी  : स्त्री० [फा० मर्दानगी] १. मरद अर्थात् पुरुष होने की अवस्था या भाव। पुरुषत्व। २. वीरता। शूरता।
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मरदाना  : वि० [फा० मर्दानः] [स्त्री० मरदानी] १. मरद या पुरुष-सम्बन्धी। पुरुष या पुरुषों का। जैसे—मरदाना लिबास, मरदानी पोशाक। २. मरदों जैसा। वीरों जैसा। जैसे—मरदाना बार। पुं० शूर-वीर।
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मरदी  : स्त्री० [फा० मर्दी] १. मनुष्यता। २. पौरुष। ३. कामशक्ति। जैसे—ना-मरदी।
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मरदुआ  : पुं० [फा० मर्द] मरद या पुरुष के लिए अपेक्षा-सूचक संज्ञा (स्त्रियाँ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मरदुम  : पुं०=मर्दुम (आदमी)।
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मरदूद  : वि० [अ० मर्दूद] १. निकाला हुआ। बहिष्कृत। २. तिरस्कृत। ३. पाजी। लुच्चा। ४. नीच। पुं० बहुत ही तुच्छ या हीन व्यक्ति।
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मरन  : स्त्री०=मरण।
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मरना  : अ० [सं० मरण] १. जीव-जंतुओं या प्राणियों के शरीर में से जीवनी शक्ति या प्राण का सदा के लिए निकल जाना जिसके फलस्वरूप उनकी सभी शारीरिक क्रियाएँ या व्यापार बन्द हो जाते हैं। आयु या जीवन का अंत या समाप्त होना। मृत्यु को प्राप्त होना। जान निकलना। जैसे—महामारी से (या युद्ध में) लोगों का मरना। पद—मरना-जीना—(देखें स्वतंत्र पद)। मुहा०—मरने तक की छुट्टी (या फुरसत) न होना=कार्य की अधिकता के कारण तनिक भी अवकाश न होना। नाम को भी साँस लेने या सुस्ताने का समय न मिलना। २. वनस्पतियों, वृक्षों आदि का कुम्हला या मुरक्षाकर इस प्रकार सूख जाना कि फिर वे खिलने-पनपने, फूलने-फलने या हरे-भरे रहने के योग्य न हो सकें। जैसे—अधिक गरमी पड़ने या वर्षा न होने से बाद के बहुत से पौधे मर गये। विशेष—प्राणियों और वनस्पतियों की उक्त प्रकार की अवस्था प्राकृतिक कारणों से भी होती है और भौतिक कारणों से भी। ३. इतना अधिक कष्ट या दुःख भोगना कि मानो शरीर का अंत हो जाने की नौबत या बारी आ रही हो। जैसे—उन्होंने जन्म भर मर मर कर लाखों रुपये कमाये पर वे धन का सुख न भोग सके। उदा०—देव पूजि हिदू मुए (मरे) तुरुक मुए (मरे) हज जाइ।—कबीर। ४. किसी काम या बात के लिए बहुत अधिक चिन्तित या प्रयत्नशील रहना और परेशान या हैरान होना। जैसे—हम तो लड़के के सुधार के लिए मरे जाते हैं और वह ऐरे-गैरे लोगों के साथ घूमता-फिरता रहता है। मुहा०—(किसी के लिए) मरना-पचना=बहुत अधिक कष्ट सहना। उदा०—बहि बहि मरहु निजस्वारथ, जम कौ डंड सह्यो।—कबीर। मर मिटना=(क) प्रयत्न करते-करते बहुत बुरी दशा में पहुँचना या दुर्दश भोगना। जैसे—हम तो इस काम के लिए मर मिटे, और आपके लेखे अभी कुछ हुआ ही नहीं। (ख) पूर्ण रूप से अपना अन्त या विनाश करना। जैसे—हमने तो ठान लिया है कि देश-सेवा के लिए मर मिटेंगे। मर रहना=थक या हारकर हताश हो जाना और कुछ करने-धरने के योग्य न रह जाना। मर लेना=प्रयत्न करते-करते असह्य कष्ट भोजना। (किसी काम या बात के लिए) मरे जाना=(क) इतना अधिक चिन्तित या व्याकुल होना कि मानो उसके बिना जीवन या शरीर चल ही न सकता हो। जैसे—तुम तो मकान बनवाने के पीछे मरे जाते हो। (ख) बहुत अधिक कष्ट या दुःख भोगना। जैसे—हम तो सूद चुकाते चुकाते मर जाते हैं। उदा०—अब तो हम साँस के लेने में मरे जाते हैं।—कोई शायर। (ग) ऐसी स्थिति में आना या होना कि मानो शरीर में प्राण ही न हों। मृतक के समान असमर्थ या निष्क्रिय हो जाना। जैसे—वह तो लज्जा (या संकोच) के मारे मरा जाता है और तुम उसके सिल पर चढ़े जा रहे हो। ५. व्यावहारिक क्षेत्र में, किसी काम या बात को सबसे अधिक आवश्यक या महत्वपूर्ण समझते हुए उसके लिए सब प्रकार के कष्ट भोगने या त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहना या होना। जैसे—भले आदमी तो अपनी इज्जत (या बात) पर मरते हैं। ६. श्रृंगारिक क्षेत्र में किसी के प्रेम में इतना अधिक अधीर होना कि उसके विरह में मानों प्राण निकल रहे हों या जीना दूभर हो रहा हो। किसी के प्रेम में बहुत ही विकल या विह्वल रहना (प्रायः ‘पर’ विभक्ति के साथ प्रयुक्त)। जैसे—वे जन्म भर सुन्दर स्त्रियों पर मरते रहे। ७. भारतीय खेलों में, खेलाड़ियों का किसी निश्चित क्रिया, नियम या विधान के अनुसार या फलस्वरूप खेल में सम्मिलित रहने के योग्य न रह जाना। जैसे—कबड्डी के खेल में खेलाड़ियों का मरना। ८. कुछ विशिष्ट खेलों में गोटी, मोहरे आदि का उक्त प्रकार से खेले जाने योग्य न रह जाना और बिसात आदि पर से हटा दिया जाना। जैसे—चौसर के खेल में गोटी या शतरंज के खेल में ऊँट, घोड़ा या वजीर मारना। ९. किसी प्रकार नष्ट होना। न रह जाना। १॰. किसी चीज या किसी दूसरी चीज में या किसी स्थान में इस प्रकार विलीन होना या समाना कि ऊपर या बाहर से जल्दी उसका पता न चले। जैसे—छत या दीवार में पानी मरना। ११. किसी पदार्थ का अपनी क्रिया, शक्ति आदि से रहित या हीन होना। जैसे—आग मरना (बुझना या मन्द होना), पानी छिड़कने पर धूल मरना, (उड़ने योग्य न रह जाना या बैठ जाना), १२. मन या शरीर के किसी वेग का दबकर नहीं के समान होना। बहुत ही धीमा होना या समाना कि ऊपर या बाहर से जल्दी उसका पता न चले। जैसे—छत या दीवार में पानी मरना। ११. किसी पदार्थ का अपनी क्रिया, शक्ति आदि से रहित या हीन होना। जैसे—आग मरना (बुझना या मन्द होना), पानी छिड़कने पर धूल मरना, (उड़ने योग्य न रह जाना या बैठ जाना), १२. मन या शरीर के किसी वेग का दबकर नहीं के समान होना। बहुत ही धीमा होना या मन्द पड़ना। जैसे—भूख मरना, प्यास मरना, उत्साह या मन मरना। १३. किसी से पराजित या परास्त होकर उसके अधीन या वश में होना (क्व०)। वि० [स्त्री० मरनी] १. मरनेवाला। २. मरण या मृत्यु की ओर अग्रसर होनेवाला। जो जल्दी ही मरने को हो। मरणासन्न या मरणोन्मुख। उदा०—जाहि ऊब क्यों न, मति भई मरनी।—सूर।
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मरना-जीना  : पुं० [हिं०] गृहस्थी में प्रायः होती रहनेवाली किसी की मृत्यु, सन्तान की उत्पत्ति, जनेऊ, ब्याह आदि कृत्य जिनमें आपसदारी के लोगों के यहाँ आना-जाना पड़ता है। जैसे—मरना-जीना तो सभी के यहां लगा रहता है।
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मरनि  : स्त्री०=मरनी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मरनी  : स्त्री० [हिं० मरना] १. मृत्यु। मौत। २. वह स्थिति जिसमें घर का मनुष्य मरा हो और उसके अन्त्येष्टि आदि संस्कार हो रहे हौं। जैसे—मरनी-करनी तो सबके घर होती है। २. किसी के मरने पर मनाया जानेवाला शोक। ४. बहुत अधिक कष्ट, दुःख या परेशानी। पद—मरनी-करनी=मृत्यु और मृतक की अन्त्येष्टि क्रिया।
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मरबुली  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पहाड़ी कन्द जिसके टुकड़े गज गज भर गहरे गड्ढे खोद कर बोये जाते हैं।
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मरभुक्खा  : वि० [हिं० मरना+भूखा] १. भूख का मारा हुआ। २. भुक्खड़। ३. कंगाल।
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मरम  : पुं०=मर्म।
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मरमर  : पुं० [फा० मर्मर] एक तरह का सफेद पत्थर।
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मरमरा  : वि० [अनु०] जो सहज में टूट जाय। जरा-सा दबाने पर मरमर का शब्द करके टूट जानेवाला। पुं० एक प्रकार का पक्षी। पुं० [हिं० मल या अनु०] वह पानी जो थोड़ा खारा हो।
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मरमराना  : अ० [अनु०] टूटने के समय दाब पा कर मरमर शब्द करना। स० इस प्रकार तोड़ना या दबाना कि मरमर शब्द हो।
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मरमली  : स्त्री० [देश०] छोटे आकार का एक वृक्ष जिसकी लकड़ी कड़ी और बहुत टिकाऊ होती है।
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मरमी  : वि० [सं० मर्म] किसी का मर्म जाननेवाला। मर्मज्ञ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मरम्म  : पुं०=मर्स। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मरम्मत  : स्त्री० [अ,] १. क्षत, टूटी-फूटी अथवा बिगड़ी हुई वस्तु को फिर से ठीक करके अच्छी स्थिति में लाने का काम (रिपेयर्स)। २. लाक्षणिक अर्थ में, वह मार-पीट जो किसी को सीधे रास्ते पर लाने के लिए की जाय।
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मरम्मत-तलब  : वि० [अ०] जिसमें मरम्मत की आवश्यकता हो। मरम्मत किये जाने के योग्य।
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मरम्मती  : वि० [हिं० मरम्मत] १. (पदार्थ) जिसकी मरम्मत करने की आवश्यकता हो। मरम्मत-तलब। २. (पदार्थ) जिसकी मरम्मत की जा चुकी हो।
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मरल  : पुं० [देश०] दो हाथ लम्बी एक प्रकार की मछली।
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मरवट  : स्त्री० [हिं० मरना] वह माफी जमीन जो किसी के मारे जाने पर उसके उत्तराधिकारियों को भरण-पोषण के लिए दी गई हो। स्त्री० [देश०] पटुए की एक कच्ची छाल जो निकालकर सुखाई गई हो। सन का उलटा।
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मरवा  : पुं=मरुआ (पौधा)।
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मरवाना  : स० [हिं० मारना का प्रे०] १. किसी को मारने-पीटने का काम किसी दूसरे से कराना। २. वध या हत्या कराना (बाजारू)। संयो० क्रि०—डालना।
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मरसा  : पुं० [सं० मारिश] एक प्रकार का साग जिसकी पत्तियाँ गोल, झुर्रीदार और कोमल होती हैं।
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मरसिया  : पुं० [अ० मर्सियः] १. कर्बला के मैदान में शहीद होनेवाले इमाम हुसेन और उनके साथियों की स्मृति में लिखा हुआ शोक-गीत २. किसी मृत व्यक्ति की स्मृति में लिखा हुआ शोक-गीत। ३. रोना-पीटा। क्रि० प्र०—पढ़ना।
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मरहट  : पुं०=मरघट। पुं० दे० ‘मोठ’ (कदन्न)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मरहटा  : पुं० [सं० महाराष्ट्र] १. उन्तीस मात्राओं के एक मात्रिक छंद का नाम जिसमें १0. ८, और १२ पर विश्राम होता है तथा अन्त में एक गुरु और लघु होता है। २. दे० ‘मराठा’।
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मरहठा  : पुं० दे० ‘मराठा’।
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मरहठी  : वि०, स्त्री०=मराठी।
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मरहबा  : अव्य० [अ० मर्हबा] १. शाबाश। धन्य।
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मरहम  : पुं० [अ० मर्हम] ओषधियों का वह गाढ़ा और चिकना लेप जो घाव या फोड़े पर उसे भरने या ठीक करने के लिए लगाया जाता है। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। पद—मरहम-पट्टी=(क) आघात की चिकित्सार्थ घाव पर मरहम और पट्टी लगाना। २. जीर्ण-शीर्ण या टूटी-फूटी चीज की साधारण मरम्मत।
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मरहमत  : स्त्री० [अ० मर्हमत] १. कृपा। अनुग्रह। २. कृपापूर्वक किया जानेवाला प्रदान।
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मरहला  : पुं० [अ० मर्हलः] १. वह स्थान जहां यात्री रातके समय ठहरते हैं। पड़ाव। टिकान। २. कुटिया। झोंपड़ी। ३. दरजा। मरातिब। ४. कोई बहुत कठिन या विकट काम। क्रि० प्र०—डालना।—तै करना।—निपटना।—प़ना।
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मरहून  : वि० [अ० मर्हून] बन्धक या रेहन रखा हुआ।
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मरहूम  : वि० [अ० मर्हम] [स्त्री० मर्हमा] जो मर गया हो। दिवंगत स्वर्गवासी।
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मराठा  : पुं० [सं० महाराष्ट्र] १. महाराष्ट्र देश का निवासी। २. महाराष्ट देश का अब्राह्मण निवासी।
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मराठी  : स्त्री० [सं० महाराष्ट्री] महाराष्ट्र देश की भाषा। वि० मराठों का। पद—मराठी घिस-घिस=ऐसी भद्दी अवस्था जिसमें हर काम में व्यर्थ बहुत देर लगती हो।
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मरातिब  : पुं० [अ०] १. उत्तरोत्तर या क्रमात् आनेवाली अवस्थाएँ २. अधिकार युक्त पद। दरजा। ३. तह। पृष्ठ। ४. मकान। मंजिल। जैसे—तीन मरातिब का मकान। ५. झंडा। ध्वजा। पताका। (किसी के उच्च पद की सूचक) ६. दे० ‘माही मरातिब’।
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मराना  : स० [हिं० मारना का प्रे०] १. मारने का काम किसी दूसरे से कराना। मरवाना। २. संभोग कराना। (बाजारू)
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मराय  : पुं० [सं०] १. एकाह यज्ञ। २. एक प्रकार का साम।
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मरायल  : वि० [हिं० मारना+आयल (प्रत्य०)] १. जिसने मार खाई हो। पीटा हुआ। २. जिसमें कुछ भी तत्त्व या जीवनी-शक्ति न हो। निस्सार। मरियल। पुं० घाटा। टोटा (क्व०)। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना।—लगना।
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मराल  : पुं० [सं० मृ+आलच्] १. एक प्रकार की बतख जो हलकी ललाई लिये सफेद रंग की होती है। २. हंस। ३. कारंडव पक्षी। ४. घोड़ा। ५. हाथी। ६. अनार का बाग। ७. काजल। ८. बादल। मेघ। ९. दुष्ट या पाजी व्यक्ति।
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मरासी  : पुं०=मिरासी।
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मरिखम  : पुं०=माल खंभ।
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मरिच  : पुं० [सं०√मृ (मरण)+इच्, बा०] मिरिच।
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मरिचा  : पुं० [सं० मरिच] १. बड़ी लाल मिर्च। २. मिर्च।
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मरिंद  : पुं० १. दे० ‘मलिंद’। २. दे० ‘मरंद्’।
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मरियम  : स्त्री० [अ० मर्यम] १. वह बालिका जिसका विवाह न हुआ हो। कुमारी कन्या। ३. पतिव्रता और साध्वी स्त्री। ३. ईसा मसीह की माता का नाम। पद—मरियम का पंजा=एक प्रकार की सुगंधित वनस्पति जिसका आकार हाथ के पंजे का-सा होता है। विशेष—प्रायः इसका सूखा पत्ता प्रसव के समय प्रसूता के सामने पानी में रख दिया जाता है जो धीरे-धीरे फैलने लगता है। कहते हैं कि इसे देखते रहने से प्रसव जल्दी होता है। पर वास्तव में प्रसूता का ध्यान बँटाने के लिए ऐसा किया जाता है।
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मरियल  : वि० [हिं० मरना+इयल (प्रत्य०)] १. इतना अधिक दुर्बल कि मरा हुआ-सा आन पड़े। बे-दम। पट—मरियल-ट्टू—कमजोर तथा सुस्ती आदमी।
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मरी  : स्त्री० [सं० मारी] एक ऐसा घातक और संक्रामक रोग जिसमें एक साथ बहुत से लोग मरते हैं। मरक। महामारी। स्त्री० [हिं० मारना] एक प्रकार का भूत। स्त्री० [देश०] साबूदाने का पेड़।
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मरीचि  : पुं० [सं०√मृ+ईचि] १. एक प्रसिद्ध प्राचीन ऋषि जी भृगु के पुत्र और कश्यप के पिता थे। २. एक मरुत का नाम। विशेष—मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वसिष्ठ ये सात सप्तर्षि कहलाते हैं। ३. एक प्राचीन मान जो ६. त्रसरेणु के बराबर होता है। ४. किरण। मयूख। ५. कान्ति। चमक। ६. दे० ‘मरीचिका’।
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मरीचि (चिन्)  : वि० [सं० मरीचि+इनि] [स्त्री० मरीचिनी] जिसमें किरणें हों। किरण युक्त। पुं० १. सूर्य। २. चन्द्रमा।
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मरीचि-गर्भ  : पुं० [सं० ब० स०] १. सूर्य। २. दक्ष सावर्णि मन्वन्तर में होनेवाले एक प्रकार के द्वताओं का गण।
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मरीचि-जल  : पुं० [सं० कर्म० स०] मृग-तृष्णा।
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मरीचि-तोय  : पुं० [सं० कर्म० स०] मगतृष्णा।
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मरीचिका  : स्त्री० [सं० मरीचि+कन्+टाप्] १. गरमी के दिनों में बहुत तेज धूप के समय वातावरण की विशिष्ट स्थितियों के कारण दिखाई देनेवाले कुछ भ्रामक दृश्य। मृग-तृष्णा। जैसे—रेगिस्तान में दूरी पर जलाशय दिखाई देना या आकाश में नगर अथवा वन दिखाई देना। विशेष—प्रायः ऐसा भ्रामक दृश्य देखकर यात्री या पशु उन तक पहुँचने के लिए बहुत दूर तक चले जाते हैं पर अन्त में उन्हें थककर निराश ही होना पड़ता है। २. वह स्थिति जिसमें मनुष्य व्यर्थ की आशा या कल्पना के कारण किसी क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ता जाता है और अन्त में विफल-मनोरथ तथा हताश होता है। मृगतृष्णा। मृगमरीचिका (मिराज)। ३. किरण। मयूख।
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मरीचिमाली (लिन्)  : पुं० [सं० मरीचिमाला+इनि] सूर्य।
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मरीज  : वि० [अ० मरीज़] [स्त्री० मरीजा] रोगी। बीमार।
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मरीना  : पुं० [स्पेनी० मेरिनो] एक प्रकार का बहुत मुलायम ऊनी पतला कपड़ा जो मेरीना नामक भेड़ के ऊन से बनता है।
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मरु  : पुं० [सं०√मृ+उ] १. ऐसी भूमि जहाँ जल न हो। और केवल बलुआ मैदान हो। मरुस्थल। रेगिस्तान। २. ऐसा पर्वत जिसमें जल न होता हो। ३. मारवाड़ प्रदेश। ४. मरुआ नामक पौधा। ५. नरकासुर का साथी एक असुर।
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मरु-कूप  : पुं० [सं० ष० त०] मरुस्थल या रेगिस्तान का कुआँ जिसमें जल नहीं होता।
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मरु-जात  : स्त्री [सं० मरुज+टाप्] मरुस्थल में होनेवाली इंद्रायण की जाति की एक लता।
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मरु-जाता  : स्त्री० [सं० पं० त०] कौंछ।
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मरु-धर  : पुं० [सं० ष० त०] मारवाड़।
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मरु-नक्षिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] मक्खी की तरह का एक पतिंगा जो प्रायः अंधेरे और ठंडे स्थान में रहता है। यह फुदकता ही है, उड़ नहीं सकता। कालज्वर का संक्रमण प्रायः इसी के द्वारा है (सैड़फ्लाई)।
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मरु-भूरुह  : पुं० [सं० ष० त०] करील।
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मरुआ  : पुं० [सं० मरुव] बन-तुलसी की जाति का एक पौधा जो बागों में लगाया जाता है। पुं० [?] १. बँडेर। २. लकड़ी या धरन जिसमें हिंडोला लटकाया जाता है। ३. माँड़। पीच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मरुक  : पुं० [सं० मरु+कन्] १. मोर। मयूर। २. एक प्रकार का हिरन। स्त्री० [हिं० मुड़काना] १. मुड़कने की क्रिया या भाव। २. उत्तेजना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मरुकांतार  : पुं० [सं० ष० त०] रेगिस्तान।
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मरुज  : पुं० [सं० मरु√जन (उत्पन्न करना)+ड] १. नख नामक सुगंधित द्रव्य। २. बाँस का कल्ला।
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मरुतवान  : पुं०=मरुतत्वान्। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मरुत्  : पुं० [सं०√मृ+उत्] १. एक देवगण का नाम। वेदों में इन्दें रुद्र और वृश्नि का पुत्र लिखा है। २. राजा बृहद्रथ का एक नाम। ३. वायु। हवा। ४. प्राण। ५. सोना। स्वर्ण। ६. सौंदर्य। ७. मरुआ नाम का पौधा। ८. ऋत्विक्। ९. गणिवन। १॰. असवर्ग। ११. दे० ‘मरुत’।
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मरुत्कर  : पुं० [सं० ष० त०] राममाष। उड़द।
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मरुत्गण  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार के देव-गण जिनकी संख्या पुराणों में ४९ कही गई है।
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मरुत्त  : पुं० [सं० मरुत्+तप्] पुराणानुसार एक चन्द्रवंशी राजा जो महाराज करंधर का पौत्र और अवीक्षित का पुत्र था।
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मरुत्तक  : पुं० [सं० मरुत√तक् (हँसना)+अच्] मरुआ (पौधा)।
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मरुत्पत्ति  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र।
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मरुत्पथ  : पुं० [सं० ष० त०]+अच् (प्रत्य०)] आकाश।
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मरुत्प्लव  : पुं० [सं० मरुत्√प्लु (कूदना)+अच्] सिंह। शेर।
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मरुत्फल  : पुं० [सं० ष० त०] ओला।
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मरुत्वाती  : स्त्री० [सं० मरुत्वत्+ङीष्] धर्म की पत्नी जो प्रजापति की कन्या थी।
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मरुत्वान् (त्वत्)  : पुं० [सं० मरुत् वल्व] १. इन्द्र। २. हनुमान।
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मरुत्सरव  : पुं० [सं० ष० त०,+टच्, प्रत्य०] १. इन्द्र। २. अग्नि।
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मरुत्सहाय  : पुं० [सं० ब० स०] अग्नि।
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मरुत्सुत  : पुं० [सं० ष० त०] १. हनुमान। २. भीम।
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मरुथल  : पुं०=मरुस्थल।
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मरुदांदोल  : पुं० [सं० मरुत्-आंदो, ष० त०] धौंकनी।
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मरुदिष्ट  : पुं० [सं० मरुत्-इष्ट, ष० त०] गूगुल।
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मरुद्भवा  : स्त्री० [सं० मरु-उद्भव, ब० स०,+टाप्] १. जवासा। २. कपास। ३. एक प्रकार का खैर का वृक्ष।
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मरुद्रथ  : पुं० [सं० मरुत्-रथ, ब० स०] घोड़ा।
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मरुद्रुम  : पुं० [सं० ष० त०] १. विट्खदिर। २. बबूल।
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मरुद्वर्त्म (न्)  : पुं० [सं० मरुत-वर्त्मन, ष० त०] आकाश।
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मरुद्वाह  : पुं० [सं० मरुत-वाह, ब० स०] १. धूँआ। २. आग।
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मरुद्विप  : पुं० [सं० ष० त० या स० त०] ऊँट।
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मरुद्वीप  : पुं० [सं० ष० त०] मरुस्थल के बीच में कोई हरा-भरा क्षेत्र। ऐसा छोटा उपजाऊ प्रदेश जो मरुस्थल में हो।
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मरुधन्वा (न्वन्)  : पुं० [सं० ब० स०, अनङ्-आदेश] मरुभूमि। मरुस्थल।
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मरुभूमि  : स्त्री० [सं० ष० त०] रेतीला तथा जल-विहीन प्रदेश। रेगिस्तान।
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मरुरना  : अ०=मरुड़ना (मरोड़ा जाना)। स०=मरोड़ना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मरुव  : पुं० [सं० मरु√वा (प्राप्त होना)+क] मरुआ।
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मरुवक  : पुं० [सं० मरुव+कन्] १. दौना या मरुआ नाम का पौधा। २. मैनी नाम का कँटीला पेड़। ३. तिल का पौधा। ४. बाघ नामक जन्तु। ५. राहु ग्रह।
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मरुवा  : पुं०=मरुआ।
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मरुसंभव  : पुं० [सं० ब० स०] एक तरह की मूली।
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मरुसंभवा  : स्त्री० [सं० मरुसंभव+टाप्] १. महेंद्र वारुणी। २. एक प्रकार का खैर। ३. एक प्रकार का कनेर। ४. छोटा जवासा।
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मरुस्थल  : पुं० [सं० ष० त०] वह बहुत बड़ा प्राकृतिक मैदान जिसमें मिट्टी की जगह बालू या रेत ही हो। रेगिस्तान (डिज़र्ट)।
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मरुस्था  : स्त्री० [सं० मरु√स्था (ठहरना+क+टाप्] छोटा जवासा।
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मरू  : वि० [सं० मेरु या हिं० मरना] मुश्किल। कठिन। पद—मरुकर (करि)=अनेक प्रकार के उपाय करके और बहुत कठिनता से। उदा०—ता कहँ तौ अब लौं बहराई कै राखी स्वगइ मरु करि मैं हैं।—केशव। स्त्री० [सं० मूर्च्छना] संगीत में एक ग्राम से दूसरे ग्राम तक जाने में सातों स्वरों का आरोह अवरोह करना। दे० ‘मूर्च्छना’।
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मरूक  : पुं० [सं०√मृ (मरना)+ऊक्] १. एक प्रकार का मृग। २. मयूर। मोर।
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मरूरा  : पुं०=मरोड़ा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मरूल  : पुं० [सं० मुर्व] गोरचकरा। मरूर।
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मरेठी  : स्त्री० [?] वह मोटी तथा मजबूत रस्सी जिससे खेतों में हेंगा खींचा जाता है। स्त्री०=मराठी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मरोड़  : पुं० [हिं० मरोड़ना] १. मरोड़ने की क्रिया या भाव। २. मरोड़ने के कारण पड़नेवाला बल। ३. किसी प्रकार का घुमाव-फिराव या चक्कर। पद—मरोड़ की बात=घुमाव-फिराव या चक्कर की कोई बात। मुहा०—मरोड़ खाना=(क) चक्कर खाना। (ख) उलझन में पड़ना। ४. दुःख, व्यथा, दुर्भाव आदि के फलस्वरूप मन में होनेवाला क्षोभ या कपट। मुहा०—मरोड़ खाना या गहना=अभिमान, क्रोध आदि के कारण क्षुब्ध रहना। ५. अनपच के कारण पेट में रह-रहकर होनेवाली ऐंठन जिससे पीड़ा भी होती है। पेचिस। मुहा०—मरोड़ खाना=पेट में ऐंठन और पीड़ा होना।
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मरोड़ना  : स० [हिं० मोड़ना] १. किसी चीज में घुमाव, बल आदि डालने के उद्देश्य से उसे कुछ जोर से घुमाना। जैसे—किसी का कान मरोड़ना। २. किसी चीज को ऐसी स्थिति में लाना कि उसमें कुछ तनाव या ऐंठन आ जाय। जैसे—अंग मरोड़ना (अंगड़ाई लेना)। उदा०—सब अंग मरोरि मुरो मन में झरि पूरि रही रस मैं न भई।—गुमान। ३. गरदन मरोड़कर मार डालना। ४. पीड़ा देना। दुःख पहुँचाना।
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मरोड़फली  : स्त्री० [हिं० मरोड़+फली] मुर्रा। अवतरनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मरोड़ा  : पुं०=मरोड़।
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मरोड़ी  : स्त्री० [हिं० मरोड़नी] १. ऐंठन। घुमाव। बल। मरोड़। २. खींचातानी। ३. उबटन, मैल आदि का वह पतला तथा बल खाया हुआ टुकड़ा जो शरीर को मलने तथा रगड़ने पर छूटता है। हाथ से मलकर बनाई हुई गीले आटे की बत्ती।
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मर्क  : पुं० [सं०√मक् (गति)+अच्] १. शरीर। देह। २. प्राण। ३. बन्दर।
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मर्कक  : पुं० [सं० मर्क+कन्] १. मकड़ा। २. हड़गीला पक्षी।
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मर्कट  : पुं० [सं०√मर्क्+अटज्] १. बंदर। २. मकड़ा। ३. हड़गीला। ४. एक प्रकार का विष। ५. दोहे का वह भेद जिसमें १७ गुरु और १४ लघु मात्राएँ होती हैं। ६. छप्पय का एक भेद।
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मर्कट-तिंदुक  : पुं० [सं० मध्य० स०] कुपीलु।
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मर्कट-पिप्पली  : स्त्री० [सं० ष० त०] अपमार्ग। चिचड़ा।
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मर्कट-प्रिय  : पुं० [सं० ष० त०] खिरनी का पेड़ और उसका फल।
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मर्कट-वास  : पुं० [सं० ष० त०] मकड़ी का जाला।
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मर्कट-शीर्ष  : पुं० [सं० ष० त०] हिंगुल।
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मर्कटक  : पुं० [सं मर्कटजे कन्] १. बंदर। २. मकड़ा। ३. एक प्रकार की मछली। ४. मड़आ नामक कदन्न। ५. मकरा नामक घास।
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मर्कटपाल  : पुं० [सं० मर्कट√पाल् (बचाना)+णिच्+अच्] सुग्रीव।
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मर्कटी  : स्त्री० [सं० मर्कट+ङीष्] १. बंदरी। मादा बन्दर। बँदरिया। २. मकड़ी। ३. केवाँच। कौंछ। ४. अपामार्ग। चिचड़ा। ५. अजमोदा। ६. एक प्रकार का करंज। ७. छंदशास्त्र में ९ प्रत्ययों में से अन्तिम प्रत्यय जिसके द्वारा मात्रा के प्रस्तार में छंद के लघु, गुरु, कला और वर्णों की संख्या का परिज्ञान होता है।
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मर्कटेंदु  : पुं० [सं० मर्कट-इंदु, स० त०] कुचला।
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मर्कत  : पुं०=मरकत।
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मर्कर  : पुं० [सं०√मर्क्+अर्] भृंगराज। भँगरा।
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मर्करा  : स्त्री० [सं० मर्कर+टाप्] १. सुरंग। २. तहखाना। ३. बरतन। ४. बाँझ स्त्री।
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मर्ची  : स्त्री०=मिर्च।
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मर्ज  : पुं०=मरज।
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मर्जी  : स्त्री०=मरजी।
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मर्त  : पुं० [सं०√मृ (मरण)+तन्] १. मनुष्य। २. दे० ‘मर्त्यलोक’।
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मर्तबा  : पुं० =मरतबा।
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मर्तबान  : पुं० [दक्षिणी बरमा के मर्तबान नगर के नाम पर] १. चीनी मिट्टी आदि का बना हुआ एक प्रकार का गोलाकार आधान। २. धातु आदि का बना हुआ कोई ऐसा लम्बा पात्र जिसमें दवाएँ, रासायनिक पदार्थ आदि रखें जाते हैं। ३. एक प्रकार का बढ़िया केला।
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मर्त्य  : पुं० [सं० मर्त+यत्] १. मनुष्य। २. शरीर। ३. दे० ‘मर्त्यलोक’।
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मर्त्य-धर्मा (मैन्)  : वि० [ब० स०] मरणशील।
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मर्त्यमुख  : पुं० [ब० स०] [स्त्री० मर्त्यमुखी, मर्त्य-मुख ङीष्] किन्नर।
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मर्त्यलोक  : पुं० [ष० त०] यह संसार जिसमें सबको अंत में मरना पड़ता हैं।
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मर्द  : पुं० [फा० मि, सं० मर्त्त और मर्त्य] १. मनुष्य। प्राणी। २. पौरुष से युक्त और वीर व्यक्ति। ३. पति। स्वामी। वि० वीर और साहसी। पद—मर्द आदमी=वीर पुरुष।
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मर्द-बच्चा  : पुं० [फा०] बहादुर। वीर।
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मर्दक  : वि० [सं०√मृ (चूर्ण)+णिच्+ण्वुल्-अक] मर्दन करनेवाला। मर्दनकारक।
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मर्दन  : पुं० [सं०√मृद्+णिच्+ल्युट-अन] १. शरीर पर कोई स्निग्ध पदार्थ या ओषधि रगड़कर मलने की क्रिया या भाव। २. इस प्रकार किसी चीज को मलना या रगड़ना कि वह क्षत-विक्षत हो जाय। ३. कुचलना। रौंदना। ४. नष्ट-भ्रष्ट करना। ५. कुश्ती के समय एक मल्ल का दूसरे मल्ल की गर्दन आदि पर हाथों से घस्सा लगाना। ६. रसेश्वर दर्शन के अनुसार अठारह प्रकार के रस संस्कारों में से दूसरा संस्कार। इसमें पारे आदि को ओषधियों के साथ खरल करते या घोंटते हैं। घोंटना। ७. पीसना या रगड़ना। वि० [स्त्री० मर्दिनी] १. मर्दन करनेवाला।। २. नष्ट-भ्रष्ट करनेवाला। (याँ० के अन्त में) जैसे—मधु मर्दन।
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मर्दना  : स० [सं० मर्दन] १. मालिश करना। मलना। २. तोड़ मरोड़कर नष्ट करना। ३. चूर-चूर करना। ४. अंग-भंग करना। खंडित करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मर्दबाज  : वि० [फा] पुंश्चली (स्त्री)।
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मर्दल  : पुं० [सं०√मृद्+घ, मर्द√ला (लेना)+क] मृदंग की तरह का पुरानी चाल का एक बाजा। आज-कल बँगला में ‘मादल’ कहलाता है।
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मर्दानगी  : स्त्री०=मरदानगी।
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मर्दाना  : वि० पुं० =मरदाना।
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मर्दाया-मार्ग  : पुं० [ष० त०] वेद-विहित कर्मों का आचरण करते हुए ज्ञान-प्राप्ति का प्रयत्न करना।
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मर्दित  : भू० कृ० [सं०√मृद्+णिच्+क्त] १. जिसका मर्दन किया गया हो या हुआ हो। २. तोड़ा-फोड़ा हुआ। ३. ध्वस्त या नष्ट किया हुआ।
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मर्दी  : स्त्री०=मरदी।
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मर्दुम  : पुं० [फा०] मनुष्य।
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मर्दुमशुमारी  : स्त्री० [फा०] मनुष्य-गणना।
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मर्दुमी  : स्त्री० [फा०] १. मनुष्यता। १. पौरुष। वीरता। ३. पुंस्त्व।
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मर्दूद  : वि० दे० ‘मरदूद’।
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मर्म  : पुं० [सं०√मृ+मणिन्] १. स्वरूप। २. भेद। रहस्य। ३. संधि-स्थान। ४. किसी बात के अन्दर छिपा हुआ तत्त्व। ५. प्राणियों के शरीर में वह स्थान जहाँ आघात पहुँचने से अधिक वेदना होती है और मृत्यु तक की सम्भावना होती है। ६. हृदय।
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मर्म-प्रहार  : पुं० [सं० स० त०] ऐसा आघात या प्रहार जो मर्म स्थान पर हो।
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मर्म-भेद  : पुं० [ष० त०] १. मर्मस्थल पर किया जानेवाला आघात। २. दूसरों के भेद या रहस्य का किया जानेवाला उद्घाटन।
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मर्म-भेदक  : वि० [ष० त०] १. मर्म भेदनेवाला। २. हृदय विदारक।
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मर्म-भेदन  : पुं [ष० त०] १. मर्मस्थल पर आघात करना। २. बाण। तीर।
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मर्म-भेदी (दिन्)  : वि० [सं० मर्म√भिद् (फाड़ना)+णिनि] १. मर्म स्थल अर्थात् हृदय पर आघात करनेवाला (शब्द या बात) २. दुःखी तथा संतृप्त करनेवाला।
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मर्म-वचन  : पुं० [ष० त०] ऐसा कथन, बात या वचन जो मर्म या हृदय पर आघात करनेवाला हो।
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मर्म-वाक्य  : पुं० [ष० त०] १. रहस्य की बात। २. दे० ‘मर्मवचन’।
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मर्म-विदारण  : पुं० [ष० त०] मर्मच्छेदक।
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मर्म-स्थल  : पुं० [ष० त०] १. शरीर का कोई ऐसा अंग जिस पर आघात लगने से बहुत अधिक पीड़ा होती है और जिससे मनुष्य मर भी सकता है। जैसे—अण्डकोश, कंठ, कपाल आदि। २. हृदय जिस पर किसी की बात का आघात लगता है।
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मर्म-स्थान  : पुं० [स० त०] मर्म का स्थान अर्थात् मर्म। (देखें)
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मर्मग  : वि० [सं० मर्म√गम् (प्राप्त होना)+ड] नुकीला तथा तीव्र।
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मर्मघाती (तिन्)  : वि० [सं० मर्म√हन् (मारना)+णिनि, न्-त्] मर्म पर आघात करनेवाला।
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मर्मघ्न  : वि० [मर्म√हन् (मारना)+टक्, ह-घ] अत्यन्त कष्टप्रद।
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मर्मचर  : पुं० [सं० मर्म√हन् (प्राप्त होना)+ट] हृदय।
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मर्मच्छिदक  : वि० [सं० ष० त०] मर्मभेदक। मर्म भेदनेवाला।
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मर्मच्छेदन  : पुं० [सं० ष० त०] १. प्राणघातक। जान लेना। २. मर्मस्थल पर ऐसा आघात करना जिससे बहुत अधिक कष्ट हो।
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मर्मच्छेदी (दिन)  : वि० [सं० मर्म√छिद् (छेदना)+णिनि] मर्मछेदी।
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मर्मज्ञ  : वि० [सं० मर्म√ज्ञा+क] किसी बात का मर्म या गढ़ रहस्य जानेवाला।
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मर्मर  : पुं० [सं०√मृ+अरन्, मुट्-आगम] १. पत्तों के हिलने से होनेवाली खड़खड़ाहट। २. ऐसा कलफदार कपड़ा जिससे मर्मर शब्द निकलता हो। पुं० दे० ‘मर्मर’।
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मर्मरित  : भू० कृ० [सं० मर्मर+इतच्] मर्मर ध्वनि करता हुआ।
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मर्मरी  : स्त्री० [सं० मर्मरी+ङीष्] १. एक तरह का देवदारु। २. हलदी।
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मर्मरीक  : पुं० [सं० मर्मर+ईकन्] १. निर्धन व्यक्ति। २. दुष्ट व्यक्ति।
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मर्मविद्  : वि० [सं० मर्म√विद् (जानना)+क्विप्] मर्म या तत्त्व जाननेवाला। मर्मज्ञ।
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मर्मवेदी (दिन्)  : वि० [सं०√मर्म√विद् (जानना)+णिनि] मर्मज्ञ।
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मर्मवेधी (धिन्)  : वि० [सं० मर्म√विध् (छेदना)+णिनि] मर्म भेदी।
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मर्मस्पर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० मर्म√स्पृश्+णिनि] [स्त्री० मर्मस्पर्शिनी, भाव० मर्मस्पर्शिता] मर्म को स्पर्श करने अर्थात् उस पर प्रभाव डालनेवाला।
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मर्माघात  : वि० [सं० मर्म-आघात, स० त०] मर्म-स्थल पर होनेवाला आघात। हृदय पर लगने-वाली गहरी चोट।
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मर्मातिग  : वि० [सं० मर्म√अति-गम् (जाना)+ड] भेद या रहस्य जानने के लिए की जानेवाली खोज।
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मर्मान्तक  : वि० [सं० मर्म-अंतक, ष० त०] मर्म तक पहुँचकर उस पर अनिष्ट प्रभाव डालनेवाला। मर्मभेदक।
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मर्माहत  : वि० [सं० मर्म-आहत, स० त०] जिसके मर्म अर्थात् हृदय को कड़ी चोट पहुँची हो।
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मर्मिक  : वि० [सं० मर्म+ठन्—इक] मर्मविद्। मर्मज्ञ।
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मर्मी  : वि० [सं० मर्म] मर्म या रहस्य जाननेवाला।
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मर्मोद्धाटन  : पुं० [सं० मर्म—उद्धाटन, ष० त०] मन या रहस्य प्रकट करना।
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मर्य  : पुं० [सं०√मृ (मरण)+यत्] मनुष्य।
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मर्या  : स्त्री० [सं० मर्य+टाप्] सीमा।
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मर्याद  : स्त्री० [सं० मर्या√दा (देना)+क] १. दे० ‘मर्य्यादा’। २. रीत-रिवाज। रसम। ३. चाल-ढाल। ४. रंग-ढंग। ५. विवाह के उपरान्त होनेवाला ‘बढ़ार’ नामक भोज। मुहावरा—मर्याद रहना=बरात का विवाह के तीसरे दिन ठहर कर ‘बढ़ार’ नामक भोज में सम्मिलित होना।
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मर्यादा  : स्त्री० [सं० मर्याद+टाप्] १. सीमा। हद। २. नदी का किनारा। तट। ३. लोक में प्रचलित व्यवहार और उसके नियम आदि। ४. सदाचार। ५. गौरव। प्रतिष्ठा। मान ६. धर्म। ७. दो या अधिक आदमियों में होनेवाला निश्चय या प्रतिज्ञा। समझौता।
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मर्यादा-वचन  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसा कथन जिसमें अधिकार कर्त्तव्य प्रदेश, स्थान आदि की सीमाओं का निर्देश हो।
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मर्यादाचल  : पुं० [सं० मर्याद-अचल, मध्य० स०] सीमा पर स्थित पर्वत। सीमा सूचक पर्वत। सीमान्त पर्वत।
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मर्यादाबंध  : पुं० [सं० ष० त०] १. अधिकार की रक्षा। २. नजरबन्दी (अपराधियों आदि की) वि० जो मर्यादाओं से बँधा हुआ हो।
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मर्यादी (दिन्)  : वि० [सं० मर्य्यादा+इनि] १. मर्यादा से युक्त। मर्यादावाला। २. सीमित।
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मर्री  : स्त्री० [हिं० मरना] वह भूमि जो कर्ज लेनेवालों ने सूद के बदले में महाजन को दी हो।
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मर्श  : पुं० [सं०√मृश् (छूना)+घञ्] १. मनन। २. मत। सम्मत्ति। राय।
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मर्शन  : पुं० [सं०√मृश्+ल्युट-अन] १. विचार करना। २. सलाह देना। ३. रगड़ना।
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मर्ष  : पुं० [सं०√मृष् (सहन करना)+घञ्] १. क्षमा। शान्ति। २. धैर्य। ३. सहनशीलता।
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मर्षण  : पुं० [सं०√मृष्+ल्युट-अन] १. क्षमा करना। माफी। २. रगड़ना। मर्षण। वि० १. ध्वंस या नाश करनेवाला। २. दूर करने, रोकने या हटानेवाला (यौं० के अन्त में)।
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मर्षणीय  : वि० [सं०√मृष्+अनीयर] जिसका मर्षण हो सके, या मर्षण करना उचित हो। मर्षण के योग्य।
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मर्षित  : भू० कृ० [सं०√मृष् (क्षमा करना)+क्त] १. सहा हुआ। २. क्षमा किया हुआ।
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मर्हूम  : वि० [अ०] जो मर गया हो। दिवंगत। स्वर्गीय।
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मल  : पुं० [सं०√मल्+अच्] १. मैल। कीट। जैसे—धातुओं का मल। २. शरीर से निकलनेवाली मैल या विकार। जैसे—कफ, पसीना, विष्ठा आदि। ३. गुह। विष्ठा। ४. दोष। विकार। ५. पाप। वि० १. गंदा मलीन। २. दुष्ट। अव्य० हाथियों को उठाने के लिए किया जानेवाला शब्द (महावत)।
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मल-ज्वर  : पुं० [सं० मध्य० स०] मल के रुकने के कारण होनेवाला ज्वर।
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मल-दूषित  : वि० [सं० तृ० त०] मलिन। मैला।
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मल-द्वार  : पुं० [सं० ष० त०] १. शरीर की वे इंद्रियाँ जिनसे मल निकलते हैं। २. गुदा। गाँड़।
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मल-धात्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] बच्चों का मल-मूत्र धोनेवाली धाय।
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मल-पतंग  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का छोटा कीड़ा जो वर्षा ऋतु के आरंभ में उत्पन्न होता और प्रायः मल के छोटे-छोटे टुकड़े इधर-उधर लुढ़काता फिरता है।
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मल-परीक्षा  : स्त्री० [सं० ष० त०] रोगी के मल (गुह) की वह वैज्ञानिक परीक्षा या विश्लेषण जिससे यह पता चलता है कि उसके शरीर में किस किस रोग के कीटाणु हैं (स्टूल एग्जामिनेशन)।
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मल-पृष्ठ  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीन भारत में पुस्तक का ऊपरी तथा पहला पृष्ठ जो जल्दी मैला हो जाता था।
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मल-मास  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. वह अमांत मास जिसमें संक्राति न पड़ती हो। दो संक्रान्तियों के बीच में पड़ने वाला चांद्रमास। विशेष—चांद्रगणना के अनुसार प्रायः तीसरे या चौथे वर्ष बारह की जगह तेरह महीने भी होते हैं। यही तेरहवाँ महीना (जो वर्ष के बीच में पड़ता है) अधिमास, अधिक मास, मलमास या पुरूषोत्तम कहलाता है। इस मास में कोई शुभ काम करने का विधान नहीं है। २. क्षयमास।
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मल-रुचि  : वि० [स० ब० त०] १. दूषित रुचिवाला। २. पापी।
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मल-रोधक  : वि० [स० ष० त०] जो पेट के अन्दर के मल को रोके कब्जियत करनेवाला। काबिज।
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मल-रोधन  : पुं० [स० ष० त०] पेट या आतों में मल रोकना। कोष्ठबद्धता। कब्जियत।
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मल-वासा  : स्त्री० [ब० स०] ऋतुमती या रजस्वला स्त्री।
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मल-विनाशनी  : स्त्री० [स० ब० त०] १. शंखपुष्पी। २. क्षार।
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मल-विसर्जन  : पुं० [ष० त०] पाखाना फिरना। हगना।
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मल-वेग  : स्त्री० [स० ष० त०] अतीसार।
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मल-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] पेट या आंतों में रूके मल का गुदा के रास्ते बाहर निकल आना।
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मलकना  : अ० [अनु०] १. हिलना-डोलना। २. मटकना। ३. इतराना। ४. चमकना। स०= मलकाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मलकरन  : पुं० [देश०] बरतनों पर रेखाएँ खींचने का एक उपकरण।
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मलका  : स्त्री० [अ० मलिकः] १. महारानी। २. रानी। ३. बहुत ही सुन्दर स्त्री।
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मलकाछ  : पुं० [हिं० मल्ल+काछ] देवताओं के श्रृंगार के लिए एक प्रकार की कछनी जिसमें तीन झब्बे लगे होते हैं।
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मलकाना  : स० [अनु०] १. हिलाना-डुलाना। जैसे—आँख मलकाना। २. बहुत ठमक ठमककर या रक-रुककर बातें करना। अ०=इतराना। पुं० [अ० मलिक] मुसलमानो की एक जाति। (पहले ये लोग राजपूत थे)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मलकीट  : पुं० [सं० ष० त०] १. बहुत ही गन्दी चीजों या जगहों में रहनेवाला कीड़ा। ३. बहुत ही घृणित और नीच आदमी।
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मलकुल मौत  : पुं० =मल्कुल मौत।
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मलकूत  : पुं० [अ०] [वि० मलकूती] १. इस्लामी धर्म-शास्त्र के अनुसार ऊपर के नौ लोकों में से दूसरा लोक। २. फरिश्तों के रहने का लोक। देवलोक।
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मलखंना  : पुं० [सं० मल्ल+सेन] आल्हा-ऊदल का चचेरा भाई। पुं० दे० ‘मलकाना’। वि० [सं० मल+हिं० खाना] १. मल अर्थात् विष्ठा खाने वाला। २. बहुत ही गन्दा और मलिन (व्यक्ति)।
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मलखंभ  : पुं० =माल-खंभ।
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मलखम  : पुं० [सं० मल्ल+हिं० खंभा] १. पुरानी चाल के कोल्हू में लकड़ी का एक खूँटा जो कातर या पाट में कोल्हू से दूसरी छोर पर गाड़ा जाता है। २. दे० ‘माल-खंभ’।
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मलखानी  : स्त्री० [हिं० मलखम] वह ऊँचा और सीधा पतला खंभा जिस पर बेंत से मालखंभ की कसरत की जाती है।
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मलंग  : पुं० [फा०] १. निश्चित तथा मस्त रहनेवाले एक तरह के मुसलमान फकीरों की संज्ञा। २. निश्चिंत तथा मस्त रहनेवाला व्यक्ति। वि० १. मन-मौजी। २. निश्चित। ३. ला-परवाह। पुं० [देश] पीले रंग की चोंचवाला बगला।
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मलगजा  : वि० [हिं० मलना+मींजना] १. मला-दला हुआ। मरगजा। २. मैला-कुचैला। ३. किसी की तुलना में मंद और हीन। उदाहरण—सबै मरगजे मुँह करी, इहीं मरगजे चीर।—बिहारी। पुं० बेसन में लपेटकर तेल, या घी में तला हुआ बैगन का पतला टुकड़ा या फाँक।
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मलंगा  : पुं० १. दे० ‘मलंग’। २. दे० ‘तूतमलंगा’। वि० =मलंग।
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मलगिरी  : पुं० [हिं० मलयागिरि] एक प्रकार का हल्का कत्थई रंग। चन्दन की तरह का रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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मलंगी  : पुं० [फा० मलंग] नमक बनाने का काम करनेवाला मजदूर।
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मलगोबा  : पुं० [तु० मल्गोबा] १. गीली चीजें। २. एक प्रकार की पकी हुई दाल जिसमें दही भी मिला होता है। ३. पीब। मवाद। ४. कूड़ा-करकट। ५. गंदगीपन।
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मलघन  : पुं० [सं० मलघ्न] एक प्रकार का कचनार, जो लता के रूप में होता है।
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मलघ्ना  : वि० [सं० मल√हन् (मारना)+टक, कुत्व] [स्त्री० मलघ्नी] मलनाशक। पुं० १. एक प्रकार का कचनार। २. सेमल का मुसला।
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मलघ्नी  : स्त्री० [सं० मलघ्न+ङीष्] नागदौना।
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मलज  : पुं० [सं० मल√जन् (उत्पन्न करना)+ड] पीब। मवाद।
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मलझन  : पुं० [देश] एक प्रकार की बेल जो बागों में लगाई जाती है।
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मलट  : पुं० [अं० मैलेट] लकड़ी का हथौड़ा।
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मलता  : वि० [हिं० मलना] [स्त्री० मलती] १. मला या घिसा हुआ। (सिक्का)। जैसे—मलता पैसा या रुपया। २. जो मले-दले जाने के कारण खराब हो गया हो। उदाहरण—मैला मलता इह संसारा।—कबीर।
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मलद  : पुं० [सं०] वाल्मीकीय रामायण के अनुसार एक प्रदेश जहाँ ताड़का रहती थी।
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मलद्रावी (विन्)  : वि० [मल√द्रु (संचलन करना)+णिच्+णिनि, वृद्धि, दीर्घ, नलोप] मल को द्रवित करने या गलानेवाला। पुं० जमालगोटा।
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मलधारी (रिन्)  : पुं० [सं० मल√धृ (धारण करना)+णिनि] एक प्रकार के जैन साधु जो शौच के उपरांत जल से गुदा नहीं धोते।
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मलना  : स० [सं० मर्दन] १. कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ पर पोतने या लगाने के उद्देश्य से उस पर बार-बार कुछ जोर से रगड़ना। जैसे—(क) कपड़े पर साबुन मलना। (ख) शरीर पर तेल मलना। २. लेप करना। ३. इस प्रकार रगड़ते हुए दबाना कि चूर-चूर हो जाय। जैसे—सुरती मलना। ४. खुजलाने आदि के उद्देश्य से हाथ फेरना। जैसे—आँख मलना। ५. एक चीज को दूसरी चीज पर बार-बार आगे पीछे या इधर-उधर रगड़ते हुए ले जाना। जैसे—हाथ मलना (पश्चात्ताप आदि के समय) ६. उमेठना। मरोड़ना। जैसे—किसी का कान मलना।
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मलनी  : स्त्री० [हिं० मलना] आठ दस अंगुल लंबा दो अंगुल चौड़ा सुडौल और चिकना बाँस का टुकड़ा जिससे कुम्हार बरतनों की फालतू मिट्टी काटकर निकालते हैं।
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मलपट  : पुं० [सं० मल√हिं० पट=चित्र] १. चित्र-कला में ऐसा चित्र जिसमें केवल चेहरा दिखाया गया हो, शरीर के और अंग न दिखाये गये हों। २. दे०‘मल-पट्ट’।
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मलपट्ट  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी चीज को धूल से बचाने के लिए उस पर चढ़ाया जानेवाला कपड़ा कागज या ऐसी ही और कोई चीज। २. दे० ‘मल-पट्ट’।
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मलपू  : पुं० [सं० मल√पू (पवित्र करना)+क्विप्०] जंगली गूलर। कठूमर।
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मलबा  : पुं० [हिं० मल] १. गिरे हुए मकान की टूटी-फूटी ईंटें, मिटटी मसाला आदि जो फेंकवाया जाता है। २. भूगोल विज्ञान में चट्टानों की सतह पर से टूट-फूटकर गिरे हुए कंकड़ों का समूह। विखंड। राशि। (डेट्रटिस) ३. कूडा करकट। पुं० एक तरह का वृक्ष।
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मलभुज्  : पुं० [सं० मल√भुज् (खामा)+क्विप्, कुत्व] कौआ। वि० मलखानेवाला।
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मलभेदिनी  : स्त्री० [सं० मल√भिद् (पृथक करना)+णिनि+ङीष्] कुटकी।
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मलमल  : स्त्री० [सं० मलमल्लक] एक तरह का बढ़िया महीन सूती कपड़ा।
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मलमला  : पुं० [देश] फुलके का साग। वि० १. बहुत ही कोमल। २. उदास या खिन्न। पुं० दे० ‘मलोला’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मलमलाना  : स० [सं० मलना] [भाव० मलमलाहट] १. बार बार हलका स्पर्श करना। धीरे-धीरे मलना। २. (आँख या पलक) बार बार खोलना या बन्द करना। ३. बार बार गले लगाना या आलिंगन करना। ४. (मन में) पश्च्त्ताप करना। पछताना।
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मलमलाहट  : स्त्री० [हिं० मलमला] १. मलमले होने की अवस्था या भाव। २. उदासी। खिन्नता। ३. पश्च्ताप करना। पछताना।
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मलमलाहट  : स्त्री० [हिं० मलमला] १. मलमले होने की अवस्था या भाव। २. उदासी। खिन्नता। ३. पश्चाताप। पछतावा।
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मलमा  : पुं० १. =मलबा। २. मुलम्मा।
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मलय  : पुं० [सं०√मल्+कथन्] १. दक्षिणी भारत का एक प्रसिद्ध पर्वत जो पुराणों में सात कुलपर्वतों मे गिनाया गया है। २. उक्त पर्वत के आस पास का प्रदेश जो आज-कल मलाबार कहलता है। ३. उक्त देश का निवासी। ४. उक्त प्रदेश में होनेवाला सफेद चन्दन। ५. नन्दन कानन। ६. पुराणानुसार एक उप-द्वीप। ७. गरुड़ का एक पुत्र। पहाड का कोई पार्श्व प्रदेश। शैलाग्र। ९. छप्पय छन्द का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में २५ गुरु, १0२ लघु कुल १२७ वर्ण या १५२ मात्राएं अथवा २५ गुरु ९८ लघु कुल १२३ वर्ण या १४८ मात्राएं होती हैं।
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मलय-गिरी  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. मलय नामक पर्वत जो दक्षिण में है। २. उक्त पर्वत पर होनेवाला चन्दन। ३. असम के कामरूप के आसपास का प्रदेश का पुराना नाम। ४. दार चीनी की तरह का एक वृक्ष। ५. भूरापन लिए लाल रंग। वि० भूरापन लिए हुए लाल रंग का।
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मलय-द्रुम  : पुं० [मध्य० स०] १. चन्दन। २. मदन या मैनी नामक का पेड़।
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मलय-मारुत  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. संगीत में कर्नाट की पद्धति का एक राग। २. मलय समीर।
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मलय-वासिनी  : स्त्री० [सं० मलय√वस् (निवास करना)+णिनि०] दुर्गा।
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मलय-समीर  : पुं० [मध्य० स०] १. मलय पर्वत की ओर से आने वाली हवा जिसमें चन्दन की सुगंध मिली होती है। २. अच्छी और बढ़िया हवा।
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मलयज  : पुं० [सं० मलय√जन् (उत्पन्न करना)+ड०] १. चंदन। २. राहु नामक ग्रह। वि० मलय पर्वत में उत्पन्न होनेवाला।
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मलया  : स्त्री० [सं० मलय+टाप्] १. त्रिवृत्ता। निसोथ। २. सोमराजी। बकुची।
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मलयागिरि  : पुं० =मलयगिरि।
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मलयाचल  : पुं० [मलय-अचल, कर्म० स०] मलय पर्वत।
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मलयानिल  : पुं० [मलिन-अनिल, कर्म० स०] १. मलय पर्वत की ओर से आनेवाली वायु। दक्षिण की वायु। ३. शीतल और सुगंधित वायु। ३. वसंत ऋतु की वायु।
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मलयालम  : पुं० [ता मलय=पर्वत+अलम=उपत्यका] आधुनिक केरल राज्य का एक प्रदेश। स्त्री० उक्त प्रदेश की भाषा।
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मलयालि  : पुं० [ता० मलयालम] मलयालम में बसनेवाली एक पहाड़ी जाति का नाम।
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मलयाली  : वि० [ता० मलयालम] १. मलाबार देश का। मलाबार देश सम्बन्धी। २. मलाबार में उत्पन्न। पुं० मलाबार का निवासी। स्त्री० मलाबार की भाषा।
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मलयुग  : दे० [कर्म० स० या ष० त०] कलियुग।
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मलयेशिया  : पुं० [मलय+एशिया] दक्षिण-पूर्वी एशिया का एक नवीन संघ राज्य जिसके अन्तर्गत मलाया, सारवाक बोर्नियों और सिंगापुर है। इसकी स्थापना १६ दिसबर, १९६३ को हुई थी।
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मलयोद्भव  : पुं० [सं० मलय-उदभव, ब० स०] चंदन।
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मलराना  : स० [हिं० मल्हारना] चुमकारना। पुचकारना मल्हराना। उदाहरण—कोऊ दुलरावै मलरावै हलरावै कोउ चुटकी बजावै कोऊ देति करतारें हैं।—पद्याकर।
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मलवा  : वि० [?] स्वाद रहित और अरुचि उत्पन्न करनेवाला।
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मलवाना  : सं० [हिं० मलना का प्रे०] [भाव० मलवाई] मलने का काम दूसरे से कराना। मलने में किसी को प्रवृत्त करना।
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मलषंकी (किन्)  : वि० [सं० मलपंक, ष० त०+इनि] १. मलिन। मैला। २. कीचड़ आदि से बना हुआ।
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मलसा  : पुं० [स० मल्लक] घी रखने का एक तरह का बड़ा कुप्पा।
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मलहंता (हंतृ)  : पुं० [ष० त०] सेमल का मूसल।
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मलहम  : पुं० [अं० मर्हम] घाव पर लगाने के लिए औषध का लेप। मरहम।
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मलहर  : पुं० [स० ष० त०] जमालगोटा।
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मलहारक  : पुं० [स० ष० त०] भंगी। मेहरतर।
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मला  : स्त्री० [स० मल+अच्+टाप्] १. चमड़ा। २. चमड़े से बना हुआ पदार्थ। २. काँसा नामक धातु। ३. भू-आंवला। ४. बिच्छू का डंक। ५. आँवा हल्दी।
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मलाई  : स्त्री० [हिं० मलना] १. मलने की क्रिया या भवा। २. मलने का पारिश्रमिक या मजदूरी। स्त्री० [देश] १. वह गाढ़ा चिकना अंश जो दूध उबालने पर उसके ऊपर जमने और तैरने लगता है० दूध की साढ़ी। क्रि० प्र०—आना।—जमना। पड़ना। २. किसी चीज का उत्तम सार भाग। पुं० दूध की मलाई या साढ़ी की तरह का सफेद रंग जिसमें कुछ हलकी बादामीयत भी रहती है।
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मलाकर्शी (र्षिन्)  : पुं० [स०मल+आ√कृष् (घसीटना)+णिनि, दीर्घ, नलोप] [स्त्री० मलाकर्षिणी] भंगी। मेहतर।
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मलाका  : स्त्री० [स० अमल√अक् (जाना)+अच्+टाप्] १. कामिनी। स्त्री। २. रंडी। वेश्या। ३. दूती। ४. मादा हाथी। हथिनी।
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मलाट  : पुं० [स० मलपट्ट] एक प्रकार का मोटा तथा मजबूत कागज जिसमें छापे, लिखाई आदि के काम आनेवाले कागजों के दस्ते या रीम लपेटे जाते हैं।
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मलान  : वि० =म्यान। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मलानि  : स्त्री०=म्लानि। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मलापह  : वि० [स० मल+अप्√हन् (मारना)+ड] [स्त्री० मलापहा] १. मलनाशक। २. पापनाशक।
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मलापोह  : पुं० [सं०] मल या पाखाना कहीं से हटाकर दूर फेंकने का काम।
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मलाबार  : पुं० [सं० मलय+वार=किनारा] आधुनिक केरल राज्य का एक प्रदेश।
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मलाबारी  : वि० [हिं० मलाबार] मलाबार-सम्बन्धी। पुं० मलाबार का निवासी।
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मलामत  : स्त्री० [अ०] १. किसी के कोई बुरा कार्य करने पर की जानेवाली उसकी निन्दा या भर्त्सना। पद—लानत-मलामत। २. खिड़की। डाँट। ३. मल। गंदगी। क्रि० प्र०—निकलना।
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मलामती  : वि० [फा०] १. जिसकी मलामत की गयी हो। २. जो मलामत किये जाने के योग्य हो। दुतकारे या फटकारे जाने का पात्र।
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मलायतन  : वि० =मलिन।
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मलायन  : वि=मलिन।
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मलाया  : पुं० [सं० मलय] बर्मा के दक्षिण में स्थित एक द्वीप।
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मलार  : पुं० [सं० मल्लार] संगीत शास्त्रानुसार एक प्रसिद्ध राग जो वर्षा ऋतु में सायंकाल अथवा रात के समय गाया जाता है। मुहावरा—मलार गाना=बहुत निश्चित और प्रसन्न होकर कुछ कहना, विशेषतः गाना। जैसे—आप दिन भर बैठे मलार गाया करते हैं।
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मलारि  : पुं० [स० मलअरि, ष० त०] क्षार।
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मलारी  : स्त्री० [सं० मल्लारी] बसंत राग की एक रागिनी (संगीत)।
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मलाल  : पुं० [अ०] १. मन में होनेवाला दुःख। रंज। मुहावरा—(दिल का) मलाल निकालना=कुछ कह-सुनकर अथवा बक-झककर मन में दबा हुआ दुःख कम करना। २. पश्चात्ताप। ३. उदासीनता।
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मलावरोध  : पुं० [सं० मल-अवरोध, ष० त०] १. मल का रुकना। २. पेट से मल का ठीक तरह से नहीं, बल्कि बहुत रुक-रुककर निकलने का रोग। कब्जियत।
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मलावह  : पुं० [सं० मल-आ√वह (ढोना)+अच्] कुछ विशिष्ट प्रकार के पापों का समाहार। (मनु०)
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मलाशय  : पुं० [सं० मल-आशय, ष० त०] शरीर में अँतड़ियों के नीचे का वह भाग जिसमें शौच के समय बाहर निकलने से पहले मल या गुह एकत्र होता है। (रेक्टम्)।
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मलाह  : पुं० =मल्लाह। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मलाहत  : स्त्री० [अ०] १. सलोनापन। लावण्य। सौंदर्य। २. कोमलता।
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मलिक  : पुं० [अ० स्त्री० मलिका] १. राजा। अधीश्वर। २. मुसलमानों की एक जाति। ३. पंजाब में रहनेवाली हिन्दुओं की एक जाति।
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मलिका  : स्त्री० [अ० मलिकः] १. मलका। महारानी। २. अधीश्वरी। स्त्री०=मल्लिका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मलिकान  : पुं० [हिं० मालिक] १. नौकर की दृष्टि से उसके मालिक का घर। २. मालिक के घर के लोग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मलिक्ष  : पुं० =म्लेच्छ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मलिंग  : पुं० [सं० मलिंद] भौंरा।
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मलिच्छ  : पुं० =म्लेच्छ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मलित  : पुं० [देश] सुनारों की एक छोटी कूँची।
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मलित्व  : पुं० ० [सं० मलिन+त्व०] मलिनता।
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मलिन  : वि० [सं०√मल+इनच्] [स्त्री० मलिना, मलिनी] [भाव० मलिनता] १. मल से युक्त। २. मैला-कुचैला। गंदा। ३. खराब। बुरा। ४. धुएँ या मिट्टी के रंग का। मट-मैला। ५. दुष्कर्म या पाप करनेवाला। पापी। ६. (ज्योति या प्रकाश) जिसमें उज्जवलता कम हो। धीमा। मंद। मद्धिम। ७. उदास। म्लान। पुं० १. एक प्रकार के साधु जो मैले-कुचैले कपड़े पहनते हैं। पाशुपत। २. तक्र। मठा। ३. सोहागा। ४. अगर। चन्दन। ५. गौ का ताजा दूध। ६. हंस। ७. उपकरणों आदि का दस्ता। मूठ। हत्या। ८. दोष। ९. पाप। १॰. रत्नों की चमक और रंग का फीका और धुँधला होना जो उनका दोष माना जाता है।
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मलिन-सुख  : पुं० [सं० ब० स०] १. अग्नि। २. बैल की दुम या पूँछ। ३. प्रेत। वि० १. विवाह मुख अर्थात् चेहरा मलिन या उदास हो। २. क्रूर। निर्दय। ३. खल। दुष्ट।
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मलिनता  : स्त्री० [सं० मलिन्+तल्+टाप्] मलिन होने की अवस्था या भाव।
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मलिना  : स्त्री० [सं० मलिन+टाप्] १. रजस्वला स्त्री। २. लाल शक्कर। ३. छोटी भटकटैया।
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मलिनाई  : स्त्री०=मलिनता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मलिनाना  : अ० [हिं० मलिन] १. मलिन या मैला होना। २. म्लान या उदास होना। स० १. मैला या मलिन होना। २. म्लान या उदास करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मलिनाबुं  : पुं० [सं० मलिन-अंबु, कर्म० स०] स्याही।
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मलिनावास  : पुं० [मलिन-आवास, ष० त०] मजदूरों या गरीबों की गंदी बस्तियाँ। (स्लम)।
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मलिनिया  : स्त्री०=मालिन (माली की स्त्री)।
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मलिनी  : स्त्री० [सं० मल+इनि+ङीष्] रजस्वला स्त्री।
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मलिनीकरण  : पुं० [सं० मलिन+च्वि, इत्व, दीर्घ√कृ (करना)+ल्युट-अन] १. मलिन करने की क्रिया या भाव। २. पापों की एक कोटि का नाम। मलावह।
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मलिम्लुच  : पुं० [सं० मलिन√म्लुच् (प्राप्त होना)+क] १. मलमास। २. अग्नि। आग। ३. चोर। ४. वायु। हवा। ५. वह जो पंचयज्ञ न करता हो।
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मलिया  : स्त्री० [सं० मल्लिक या मल्लका हिं० मरिया] १. तंग मुँह का मिट्टी का एक प्रकार का बरतन जिसमें घी, दूध, दही आदि पदार्थ रखे जाते हैं। २. गोटी के खेल में वह चौकोर या तिकोना चक्र जो गोटियाँ रखने के लिए बनाया जाता है। पद—मलिया मेट (देखें)। ३. घेरा। चक्कर। मुहावरा—मलिया बाँधना=रस्सी को मोड़कर बाँधना (लश०)।
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मलिया-मेट  : पुं० [हिं० मलिया+मिटाना] उसी तरह का किया जानेवाला लेप या विनाश जैसा कि लड़के मलिया बनाने के बाद उसे मिटाकर करते हैं। पूरी तरह से किया जानेवाला नाश। सर्वनाश।
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मलिष्ठ  : वि० [सं० मल+इष्ठन्] अत्यन्त मलिन।
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मलिष्ठा  : स्त्री० [सं० मलिष्ठ+टाप्] रजस्वला स्त्री।
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मलीदा  : वि० [फा० मालीदः] मला हुआ मर्दित। पुं० १. रोटी या पकवान को चूर-चूर करके और अच्छी तरह मल कर बनाया जानेवाला एक प्रकार का खाद्य पदार्थ जो चूरमे की तरह होता है। २. गुड़ का मला हुआ आटा जो प्रायः हाथियों को खिलाया जाता है। ३. एक प्रकार का ऊनी वस्त्र जो बहुत मुलायम और गरम होता है।
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मलीन  : वि० [सं० मलिन] १. मैला। २. खिन्न या दुःखी होने के कारण उदास।
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मलीनता  : स्त्री०=मलिनता।
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मलीह  : वि० [अ०] १. नमकीन। २. सलोना।
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मलू  : स्त्री० [सं० मालु] १. मलघन नामक कचनार। २. उक्त की छाल जो बहुत कड़ी होती है और ऊन रँगने के काम आती है।
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मलूक  : पुं० [?] १. एक प्रकार की कीड़ा। २. एक प्रकार का पक्षी। ३. बौद्ध शास्त्रों में एक बहुत बड़ी संख्या की संज्ञा। ४. दे० ‘अमलूक’। वि० [?] मनोहर। सुन्दर।
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मलूल  : वि० [अ०] १. खिन्न। दुःखी। २. उदास।
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मलूहा  : पुं० [?] संगीत में, एक प्रकार का राग।
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मलूहा केदार  : पुं० [मलूहा+सं० केदार] संगीत में बिलावल ठाठ का एक राग।
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मलेक्ष  : पुं० =म्लेच्छ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मलेच्छ  : पुं० म्लेच्छ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मलेपंज  : पुं० [देश] बूढ़ा घोड़ा।
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मलेरिया  : पुं० [अं०] एक तरह का ज्वर जो मच्छरों के काटने से उत्पन्न होता है। जूड़ी बुखार।
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मलेशिया  : पुं० [अ० मिलिशिया] १. एक प्रकार का कपड़ा जो विगत महायुद्ध में प्रचलित हुआ था। २. दे० ‘मलयेशिया’।
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मलै  : पुं० =मलय। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मलैयन  : वि० [अ० मुलय्यिन] १. मुलायम करने या बनानेवाली। २. रेचक। पुं० १. रेचक ओषधि। २. पेट से निकलनेवाली वह हवा जिसके फलस्वरूप मल पेट से निकलता है।
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मलोत्सर्ग  : पुं० [सं० मल-उत्सर्ग, ष० त०] मलत्याग। हगना।
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मलोलना  : अ० [हिं० मलोला] मन में किसी काम या बात के लिए दुःखी होना या पछताना। उदाहरण—जानि पै गो टेक परे कौन धौं मलौलिहै।—घनानन्द।
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मलोला  : पुं० [अ० मलाल या मलूल] १. मानसिक व्यथा। दुःख। रंज। मुहावरा—मलोला या मलोले आना=रह-रहकर दुःख या पश्चात्ताप होना। मलोले खाना=मन ही मन कष्ट सहना। (मन) के मलोले निकालना=कुछ कह-सुनकर मन का कष्ट या व्यथा कम या दूर करना। २. मन में दबी हुई ऐसी कामना जो रह-रहकर विकल करती हो। अरमान। क्रि० प्र०—आना।—उठना। निकलना।—निकालना।
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मल्कुल-मौत  : पुं० [अ०] वह देवदूत जो जीवों के प्राण लेता है।
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मल्ल  : पुं० [सं० मल्ल+अच्] १. एक प्राचीन प्रसिद्ध जाति। विशेष—इस जाति के लोग द्वन्द्व युद्ध में बड़े निपुण होते थे, इसीलिए द्वन्द्वयुद्ध का नाम मल्लयुद्ध और कुश्ती लड़नेवालों का नाम मल्ल पड़ा है। २. पहलवान। ३. एक संकर जाति। ४. एक प्राचीन जनपद।
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मल्ल-क्रीड़ा  : स्त्री० [सं० ष० त०] मल्लयुद्ध। कुश्ती।
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मल्ल-तरु  : पुं० [सं० मध्य० स०] चिरौंजी।
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मल्ल-ताल  : पुं० [सं० मध्य० स०] संगीत में एक प्रकार का ताल जिसमें पहले चार लघु और तब दो द्रुत मात्राएँ होती है।
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मल्ल-नाग  : पुं० [सं० उपमि० स०] १. ऐरावत। २. कामसूत्र के रचयिता वास्त्यायन का एक नाम।
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मल्ल-भूमि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. मलद नामक देश। २. कुश्ती लड़ने का स्थान। अखाड़ा।
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मल्ल-युद्ध  : मल्लों का युद्ध। कुश्ती।
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मल्ल-विद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] कुश्ती के दाँव-पेंच।
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मल्ल-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] मल्लभूमि। अखाड़ा।
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मल्लक  : पुं० [सं० मल्ल+कन्] १. दाँत। २. दीअट। ३. दीमक। दीआ। पात्र। बरतन। ५. नारियल की खोपड़ी का बना हुआ प्याला।
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मल्लखंभ  : पुं० =मालखंभ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मल्लज  : पुं० [सं० मल्ल√जन्+ड] काली मिर्च।
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मल्ला  : स्त्री० [सं० मल्ल+टाप्] १. स्त्री। २. मल्लिका। चमेली। २. पत्र-वल्ली नाम की लता। पुं० [देश] १. करघे में के हत्थे का ऊपरी भाग जिसे पकड़कर हत्था चलाया जाता है। २. एक प्रकार का लाल रंग जो कपड़े को लाल या गुलाबी रंग के माठ में बचे हुए रंग में डुबाने से आता है।
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मल्लार  : पुं० [सं० मल्ल√ऋ (प्राप्त होना)+अण्] वर्षा ऋतु में गाया जानेवाला एक प्रसिद्ध राग। मलार।
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मल्लारि  : पुं० [सं० मल्लअरि, ष० त०] १. कृष्ण। २. शिव। स्त्री०=मल्लारी।
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मल्लारी  : स्त्री० [सं० मल्लार+ङीष्] वर्षाऋतु में सवेरे के समय गायी जानेवाली एक रागिनी।
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मल्लाह  : पुं० [अ०] [स्त्री० मल्लाहिन, भाव, मल्लाही] वह जो नदी में नाव खेकर अपनी जीविका अर्जित करता हो। केवट। माँझी।
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मल्लाही  : वि० [फा०] मल्लाह सम्बन्धी। मल्लाह का। स्त्री०१. मल्लाह होने की अवस्था या भाव। २. मल्लाह का कार्य, पेशा या पद। ३. तैरने के समय दोनों हाथ चलाने का एक विशेष ढंग। ४. उक्त ढंग से की जानेवाली तैराई। ५. मल्लाहों की तरह की गंदी और भद्दी गालियाँ। उदाहरण—उन्होंने घूर-घूर कर लड़कियों को मल्लाही सुनाना शुरू किया।—अजीम बेग चुगताई। क्रि० प्र०—सुनाना।
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मल्लि  : पुं० [सं०√मल्ल+इन] जैनों के एक जिन। स्त्री०=मल्लिका।
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मल्लि-गंधि  : पुं० [सं० ब० स, इत्व] अगर।
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मल्लि-नाथ  : पुं० [सं०] १. जैनियों के उन्नीसवें तीर्थकार का नाम। २. ई० १४ वीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध टीकाकार। रघुवंश, कुमारसंभव, मेघदूत, नैषधचरित आदि अनेक ग्रंथों पर इन्होंने टीकाएँ लिखी थीं।
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मल्लिक  : पुं० [सं० मल्लि+कन्] १. एक प्रकार का हंस जिसकी चोंच तथा टाँगे भूरे रंग की होती है। २. जुलाहों की ढरकी। ३. माघ मास। पुं० =मलिक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मल्लिका  : स्त्री० [सं० मल्लिक+टाप्] १. चमेली। २. एक प्रकार का बेला। ३. आठ अक्षरों का एक वर्णिक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक-एक रगण, जगण गुरु और लघु होता है। ४. सुमुखी वृत्त का एक नाम।
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मल्लिकाक्ष  : पुं० [सं० मल्लिका-अक्षि, ब० स० षच्] १. एक प्रकार का घोड़ा जिसकी आँख पर सफेद धब्बे होते हैं। २. उक्त प्रकार का सफेद धब्बा। ३. एक प्रकार का हंस। मल्लिक।
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मल्लिकार्जुन  : पुं० [सं०] एक शिवलिंग जो श्रीशैल पर प्रतिष्ठित है।
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मल्ली  : स्त्री० [सं०√मल्ल+ङीष्] १. मल्लिका। २. सुन्दरी नामक वृत्त का दूसरा नाम।
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मल्लु  : पुं० [सं०√मल्ल (धारण करना)+उ० बा०] १. भालू। २. बन्दर।
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मल्हनी  : स्त्री० [हिं० देश] एक तरह की नाव।
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मल्हपंत  : स्त्री० [हिं० मल्हपना] इठलाते हुए और नखरे से धीमे-धीमे चलने की क्रिया या भाव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मल्हपना  : अ० [?] कुछ कहते हुए और इठलाते हुए चलना।
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मल्हरना  : अ०=मल्हाना।
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मल्हा  : स्त्री० [देश] वृक्षों पर चढनेवाली एक बेल जो उन्हें बहुत अधिक हानि पहुँचाती हैं। मौला।
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मल्हाना  : स०=मल्हारना।
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मल्हार  : पुं० [हिं० मल्हारना] १. मल्हारने की क्रिया या भाव। २. लाड़-प्यार। दुलार। पुं० =मलार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मल्हारना  : स० [सं० मल्ह=गोस्तन] [भाव० मल्हार] १. दुलार करते हुए किसी को, विशेषतः बच्चों को, कुछ समझाना या प्रेरित करना। २. चुमकारना।
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मल्हू  : वि० =मल्लू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मवक्किल  : पुं० [अ० मुवक्किल] १. वह व्यक्ति जो वकील को अपना मुकदमा लड़ने के लिए सौंपता है। वकील का आसामी। २. वह जो अपना कार्य किसी को सौंपता हो।
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मवन  : पुं० =मौन। उदाहरण—मेटिये भगवत व्यथा, हँसि भेंटिये तिज मवन।—भगवत रसिक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मवर्रिखा  : वि० [अ० मवर्रिखः] लिखित।
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मवस्सर  : वि० =मयस्सर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मवाजिब  : पुं० [अ० मुवज्जब का बहु० रूप] १. उचित रूप से प्राप्य धन। २. वेतन।
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मवाजी  : वि० [अ० मुवाजी] १. बराबर। २. बराबरी का।
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मवाद  : पुं० [अ०] १. सामग्री। सामान। मसाला। २. प्रमाण। ३. घाव में से निकलनेवाली पीब।
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मवारि  : स्त्री० [सं० मुकुल] मौर।
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मवाली  : पुं० [?] १. दक्षिण भारत की एक अर्घ सभ्य जाति। २. इस जाति का व्यक्ति।
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मवास  : पुं० [?] १. आश्रय। शरण। २. कुछ समय के लिए कहीं ठहरना। टिकना। बसेरा। उदाहरण—कुछ पतंग गिरिवर गह्यो मीना मैन मवास।—बिहारी। ३. किला। दुर्ग। ४. किले के परकोटे आदि पर लगे हुए बाँस, पेड़ आदि।
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मवासी  : पुं० =मवेशी।
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मवासी  : स्त्री० [हिं० मवास का स्त्री० अल्पा०] १. छोटा गढ़। मुहावरा—मवासी तोड़ना= (क) किला तोड़ना तथा उस पर अधिकार करना। (ख) विजय प्राप्त करना। पुं० [हिं० मवास+ई (प्रत्यय)] गढ़पति। वि० मवास-संबंधी। किले का।
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मवेशी  : पुं० [अ० मवाशी] चौपाये, विशेषतः गाय, बैल आदि चौपाये जिन्हें मनुष्य पालता है। पद—मवेशी खाना=वह स्थान, विशेषतः घेरा जहाँ पालतू चौपाये रखे जाते हैं।
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मश  : पुं० [सं०√मश् (गुन-गुन शब्द करना)+अच्] १. वह जो मश-मश करता हो। मच्छर। २. क्रोध।
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मशक  : पुं० [सं० मश्+कन्] १. मच्छर २. शरीर पर निकलनेवाला मसा। ३. शकद्वीप का एक प्रदेश। स्त्री० बकरी आदि की खाल का बना हुआ पानी भरने का थैला। स्त्री०=मशक।
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मशक-कुटी  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह छोटा चौरा जिससे मच्छर हाँके जाते हैं।
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मशकहरी  : स्त्री० [सं० मशक√हृ (हरण करना)+अच्, गुण,+ङीष्] मसहरी।
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मशकी (किन्)  : पुं० [सं० मसक+इनि] गूलर का पेड़।
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मशकूक  : वि० [अ०] जिस पर शक किया गया या किया जा रहा हो। संदिग्ध।
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मशक्कत  : स्त्री० [मशक्कत] १. कठिन परिश्रम। कड़ी मेहनत। २. व्यायाम के द्वारा किया जानेवाला परिश्रम। ३. कष्ट। दुःख।
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मशगला  : पुं० [अ० मश्गलः] १. व्यापार। २. कोई काम, विशेषतः समय बिताने तथा मन-बहलाव के लिए किया जानेवाला काम। ३. दिल-बहलाव।
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मशगूल  : वि० [अ० मश्गूल] काम या व्यापार में लगा हुआ। प्रवृत्त या व्यस्त।
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मशरिक  : पुं० [अ० मश्रिक] पूर्व दिशा। पूरब।
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मशरिकी  : वि० [अ० मश्रिकी] पूर्वी देशों में होने अथवा उनसे संबंध रखनेवाला। पूरब का।
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मशरु  : पुं० [अ० मशरुअ] एक प्रकार का धारीदार रेशमी कपड़ा।
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मशरू  : पुं० [मश्रूअ] जो इस्लामी धर्मशास्त्र के अनुकूल या अनुरूप हो।
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मशरूह  : वि० [अ० मश्रूह] १. जिसकी शरह या टीका की गयी हो। २. विवरणसहित तथा विस्तारपूर्वक कहा हुआ।
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मशविरा  : पुं० [अ० मश्वुराः] किसी से या बहुत से लोगों से किया जानेवाला परामर्श।
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मशहूर  : वि० [अ० मश्हूर] जिसकी खूब शोहरत हो। प्रख्यात। प्रसिद्ध। विख्यात।
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मशहूरी  : स्त्री० [अ०] प्रसिद्धि। शोहरत।
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मंशा  : स्त्री० [अ० मि० सं० मनस्] १. इच्छा। इरादा। २. अभिप्राय। उद्देश्य।
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मशान  : पुं० =श्मशान (मरघट)।
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मशाल  : पुं० [अ० मशआल] जलाने की एक लम्बी लकड़ी जिसके एक सिरे पर कपड़ा लपेटा जाता है और प्रकाश के लिए जलाया जाता है।
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मशालची  : पुं० [अ० मशाल+फ़ा० ची] [स्त्री० मशालचिन] वह जो जलती हई मसाल लेकर दिखलाता हुआ चलता हो।
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मशीखत  : स्त्री० [अ० मशीखत] १. बड़प्पन २. अभिमान। घमंड। ३. शेखी।
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मशीन  : स्त्री० [अ०] यंत्र। कल।
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मशीन-मैन  : पुं० [अं०] १. मशीन चलानेवाला कारीगर। २. विशेषतः छापेखाने में छापे की मशीन चलानेवाला कारीगर।
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मशीनगन  : स्त्री० [अं०] एक प्रकार का चक्राकार बन्दूक जिसमें साधारण बन्दूक की तुलना में बहुत अधिक गोलियाँ लगातार चलती हैं।
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मशीनरी  : स्त्री० [अं०] १. मशीनों कासमूह। २. मशीनों के कलपुरजे।
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मशीर  : तं० [अ०] मशविरा देनेवाला। परामर्श-दाता। सलाहकार।
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मश्क  : स्त्री० [फा] १. अभ्यास करने या सिद्ध होने के लिए किसी काम बार-बार करना। अभ्यास। २. बार-बार करते रहने पर होनेवाले किसी काम का अभ्यास। स्त्री०=मशक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मश्मूल  : वि० [अ०] किसी के साथ शामिल किया हुआ। सम्मिलित।
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मश्शाक  : वि० [अ० मश्शाक़] [भाव० मश्शाकी] जिसे कोई काम या बात अच्छी तरह मश्क हो। अभ्यस्त।
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मष  : पुं० =मख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मषि  : स्त्री० [स०√मष्+इन्] १. काजल। २. सुरमा। ३. स्याही।
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मषि-कूपी  : स्त्री० [सं० ष० त०+ङीष्] दावात।
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मषि-घंटी  : स्त्री० [सं० ष० त०+ङीष्] दावात।
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मषि-प्रसू  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. दावात। २. कलम।
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मषिधान  : पुं० [सं० ष० त०] दावात।
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मषिमणि  : स्त्री० [सं० ष० त०] दावात।
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मषी  : स्त्री०=मषि।
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मष्ट  : वि० [सं० मष्ठ, प्रा० मष्ट=मट्ठ] १. संस्कारशून्य। २. जो भूल गया हो। ३. जो बिलकुल चुप हो। मौन। मुहावरा—मष्ट धारना, मारना या साधना=जान-बूझ कर चुप रहना। कुछ न कहना। मचला बनना।
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मस  : स्त्री० [सं० श्मश्रु] मूँछ निकलने के पहले उसके स्थान पर की बालों की हलकी रेखा या रोमावली। क्रि० प्र०—निकलना। मुहावरा—मस भींजना या भीनना=ऊपरी होंठ पर मूँछों का उगना आरंभ होना। पुं० [सं० मास] हिं० ‘मास’ का संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक पदों के आरम्भ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे—मसवास=मसोपवास। पुं०=मशक (मच्छर) स्त्री०=मसि (स्याही लिखने की) उदाहरण—धरती समुद्र दुहै मस भरई।—जायसी। पुं० [सं०] १. तौल। २. माप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मस-खवा  : पुं० [हिं० मांस+खाना] वह जो मांस खाता हो मांसाहारी।
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मसऊद  : वि० [अ०] १. भाग्यवान। २. प्रसन्न। ३. पवित्र।
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मसक  : स्त्री० [हिं० मसकना] १. मसकने की क्रिया या भाव। २. किसी चीज के मसकने के कारण उस पर बननेवाला चिन्ह या पड़नेवाली दरार। स्त्री०=मशक (पानी भरने की)। पुं० =मशक (मच्छर)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसकत  : स्त्री०=मशक्कत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसकना  : स० [अनु] १. खिंचाव या दबाव में डालकर कपड़े को इस प्रकार विकृत करना कि उसकी बुनावट के सूत-टूटकर अलग या दूर हो जायँ। २. किसी चीज को इस प्रकार दबाना कि वह बीच में ही फट जाय या उसमें दरार पड़ जाय। ३. इस प्रकार जोर से दबाना कि बीच में से कुछ खंड अलग हो जायँ। ४. दे० ‘मसलना’। संयो० क्रि०—डालना।—देना। अ० १. कपड़े आदि का (दबाव पड़ने के कारण) बीच-बीच में कुछ फट य टूट जाना। २. अपने स्थान से खिसकना या हटना। जैसे—तुमसे मसका भी जाता नहीं, तुम काम क्या करोगे। ४. चिंतित या दुखी होना। संयो क्रि०—जाना।
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मसकरा  : पुं० =मसखरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसकला  : पुं० [अ० मिस्कल] [स्त्री० अल्पा० मसकली] १. लोहे का वह उपकरण जिससे रगड़कर तलवारें आदि चमकायी जाती है। २. तलवार आदि चमकाने की क्रिया या भाव।
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मसकली  : स्त्री०=मसकला।
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मसका  : पुं० [फा० मस्कः] १. नवनीत। मक्खन। २. ताजा निकाला हुआ घी। ३. दही का पानी। ४. बँधा हुआ पारा। तु० [हिं० मसकना] १. चूने की बरी का वह चूर्ण जो उस पर पानी छिड़कने पर हो जाता है। २. सुनारों की परिभाषा में, कायस्थ।
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मसखरा  : पुं० [अ० मस्खरः] १. वह जो अपनी क्रिया-कलापों, बातों आदि से दूसरों को बहुत हँसाता हो। हँसी-विनोद की बातें कहनेवाला व्यक्ति। २. वह जो दूसरों की नकलें उतारता हो।
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मसखरापन  : पुं० [अ० मसखरा+हिं० पन (प्रत्यय)] मसखरा होने की अवस्था या भाव।
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मसखरी  : स्त्री० [अ० मसखरा+ई (प्रत्यय)] वह क्रिया, चुहुल या हँसी की बात जिसका उद्देश्य दूसरों को हँसाना हो। ठट्ठा। दिल्लगी।
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मसजिद  : स्त्री० [फा० मसजिद] १. सिजदा करने अर्थात् ईश्वर के आगे सिर झुकाने का स्थान। २. वह भवन या स्थान जिसमें मुसलमान नमाज पढ़ते तथा ईश्वर की वंदना करते हैं। मसीत।
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मसटि  : स्त्री० दे० ‘मष्ट’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मसड़ी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का पक्षी। स्त्री०=मिसरी। (डिं०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसती  : पुं० [हिं० मस्त] हाथी। (डिं०) स्त्री०=मस्ती। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसन  : पुं० [सं०] १. तौल। २. माप। ३. औषधि। ४. चोट० पुं० [देश] एक प्रकार का टकुआ जिससे ऊन के कई तागे एक साथ मिलाकर बँटे जाते हैं।
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मसनद  : स्त्री० [अ० मस्नद] १. एक प्रकार का गोल, लंबोतरा तथा बड़ा तकिया। गाव-तकिया। २. वह स्थान जहाँ उक्त प्रकार का तकिया रखा रहता है। ३. अमीरों और बड़े आदमियों के बैठने की गद्दी।
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मसनद-नशीन  : पुं० [अ० मसनद+फा० नशीं] १. मसनद पर बैठनेवाला अर्थात् अमीर, रईस या राजा। २. तख्तनशीं। सिंहासनासीन।
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मसनवी  : स्त्री० [अ० मस्नवी] उर्दू साहित्य में वह कविता जिसमें कई शेर होते हैं। इन शेरों में अंत्यानुप्रास नहीं होता।
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मंसना  : स०=मनसना।
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मसना  : स० [हिं० मसलना] १. मसलना। २. गूँधना।
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मसनूई  : वि० [अ० मस्नुई] १. कृत्रिम। बनावटी। २. अप्राकृतिक। ३. मिथ्या।
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मंसब  : पुं० [अ०] १. बड़े अधिकारी या कार्य-कर्ता का पद। ओहदा। २. किसी पद या स्थान पर रहकर किया जानेवाला कर्तव्य या काम।
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मसमुंद  : वि० [हिं० मस्त+मुंड] ऐसी खींचा तानी जिसमें धक्कम-धक्का भी हो।
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मसयारा  : पुं० [हिं० मशाल] १. वह जो मशालें जलाता हो। २. मशालची। ३. मशाल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मसरफ  : पुं० [अ० मस्रफ़] उपयोग। प्रयोजन।
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मसरू  : पुं० =मशरू (देशी कपड़ा)।
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मसरूका  : वि० [अ० मसरूकः] चोरी किया या चुराया हुआ। जैसे—माल मसरूका।
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मसरूफ  : वि० [अ० मस्रूफ] काम में लगा हुआ। निरत। संलग्न।
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मसरूफफियत  : स्त्री० [अ० मस्रूफ़ियत] मसरूफ होने की अवस्था या भाव।
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मसल  : स्त्री० [अ०] कहावत। लोकोक्ति।
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मसलति  : स्त्री०=मसलहत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसलन  : स्त्री० [हिं० मसलना] मसलने की क्रिया या भाव। उदाहरण—मैं वह हलकी सी मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली।—प्रसाद। अव्य० [अ० मस्लन] उदाहरण के रूप में। उदाहरणार्थ। जैसे। यथा।
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मसलना  : स० [हिं० मलना] १. किसी नरम चीज को हाथ, हथेली या उँगलियों से दबाते हुए रगड़ना। मलना। २. जोर से इस प्रकार कोई चीज दबाना कि वह टूट-फूट जाय। ३. गूँथना। ४. सानना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।
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मसलहत  : स्त्री० [अ० मस्लहत] १. किसी काम या बात का ऐसा बुद्धिमत्तापूर्ण शुभ उद्देश्य या हेतु जो ऊपर से देखने पर समझ में न आता हो। २. परामर्श। ३. हित। भलाई।
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मसलहतन्  : अव्य० [अ०] छिपे हुए शुभ उद्देश्य या हेतु से। जैसे—हमने मसलहतन् तुम्हें वहाँ भेजा था।
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मसला  : पुं० [अ० मस्सलः] १. कहावत। लोकोक्ति। २. समस्या। मुहावरा—मसला हल होना=समस्या का निराकरण होना।
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मसवास  : पुं० [हिं० मास+वास (प्रत्यय)] वह स्थान जहाँ प्रसूता स्त्री प्रसव के बाद एक मास रहती हो।
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मसवास  : पुं० [हिं० मास+वास] विरक्तों, संन्यासियों आदि का वह नियम या व्रत जिसके अनुसार किसी स्थान पर अधिक से अधिक एक मास तक रहते और तब वहाँ से दूसरी जगह चले जाते हैं। पुं० दे० ‘मासोपवास’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसवासी  : पुं० [सं० मासवासी] एक स्थान पर केवल एक मास तक निवास करनेवाला विरक्त। स्त्री० वेश्या। पुं०=मासोपवासी (देखें)।
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मसविदा  : पुं० दे० ‘मसौदा’।
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मसहरी  : स्त्री० [सं० मसकहरी] १. जलीदार कपड़े का बना हुआ एक प्रकार का चौकोर आवरण जो खाट या पलंग के ऊपर इसलिए टाँगा जाता है कि मच्छर अन्दर आकर सोनेवाले को तंग न करे। २. ऐसा पलंग जिसके चारों पायों पर इस प्रकार का जालीदार कपड़ा टाँगने के लिए ऊँची लकड़ियाँ या छड़ लगे हों। ३. बड़ी खटिया। पलंग।
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मसहार  : पुं० =माँसाहारी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मसहुर  : वि० =मशहूर (प्रसिद्ध)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंसा  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घा जो बहुत शीघ्रता से बढ़ती और पशुओं के लिए बहुत पुष्टिकारक समझी जाती है। मकड़ा। स्त्री०=मंशा (अभिप्राय या उद्देश्य)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसा  : पुं० [सं० मशक] बिन्दु के आकार का शरीर पर होनेवाला काला चिन्ह। पुं० =मस्सा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसान  : पुं० [सं० श्मशान] १. शव जलाने का स्थान। मरघट। मुहावरा—मसान जगाना=श्मशान में बैठकर तांत्रिक प्रयोगों के द्वारा भूत-पिशाचों आदि वश में या सिद्ध करने का प्रयत्न करना। मसान पड़ना=श्मशान की सी उदासी और सन्नाटा छाना। २. श्मसान में रहनेवाले भूत-पिशाच आदि। ३. युद्ध भूमि या रण-क्षेत्र जिसमें श्मशान की तरह लाखों का ढेर लगा रहता है।
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मसाना  : पुं० [अ० मसानः] मूत्राशय। बस्ति। पुं० =मसान (श्मशान)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसानिया  : वि० [हिं० मसान+इया (प्रत्यय)] १. मसान-संबंधी। मसान का। २. मसानों में अथवा उनकी सहायता से सिद्ध किया हुआ। पुं० १. वह व्यक्ति विशेषतः डोम जो मसानों में रहता हो। २. मसान में रहकर भूत-प्रेत सिद्ध करनेवाला तांत्रिक। ३. अर्थ-पिशाची। कंजूस।
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मसानी  : स्त्री० [सं० श्मशानी] डाकिनी। पिशाचिनी।
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मसार  : पुं० [सं०] नीलम। इंद्रनीलमणि।
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मसाल  : स्त्री० १. =मशाल। २. =मिशाल।
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मसाल-दुम्मा  : पुं० [हिं० मशाल+दुम] एक प्रकार का पक्षी जिसकी दुम काली होती है।
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मसालची  : पुं० [हिं० मसाला+ची (प्रत्यय)] वह जो वाबर्चीखानों आदि में मिर्च-मसाले पीसने तथा इसी तरह के छोटे-मोटे काम करता हो। पुं० =मशालची।
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मसालहत  : स्त्री० [अ०] १. मेल-मिलाप। २. सुलह। २. समझौता।
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मसाला  : पुं० [फा० मसालह] १. चीजें जिनकी सहायता से कोई चीज तैयार होती हो। सामग्री। जैसे—किताब लिखने या मुकदमा चलाने के लिए ढूँढ़-ढूँढ़कर मसाला इकट्ठा करना। २. औषधियों, रासायनिक द्रव्यों आदि का तैयार किया हुआ वह मिश्रण जिसका उपयोग किसी विशिष्ट कार्य के लिए होता है। जैसे—पान का मसाला, मकान बनाने का मसाला (गारा, चूना आदि) ३. धनियाँ, मिर्च, लौंग, हींग आदि वे पदार्थ जिनका उपयोग दाल, तरकारी आदि को सुगंधित और स्वादिष्ट करने में होता है। ४. सलमा-सितारे बाँकड़ी, गोखरू आदि चीजें जो कपड़ों पर शोभा के लिए बेल-बूटों आदि के रूप टाँकी जाती है। जैसे—अँगिया, ओढ़नी, साड़ी आदि में लगाया जानेवाला मसाला। ५. किसी काम य बात का आधार-भूत साधन। जैसे—लोगों को दिल्लगी उड़ाने का अच्छा मसाला मिल गया। ६. आतिशबाजी जो कई तरह के मसालों से बनती है। ७. युवती और सुन्दरी परन्तु दुश्चरित्रा स्त्री। (बाजारू)। ८. मंगल-भाषित रूप में तेल। जैसे—लालटेन का मसाला खत्म हो गया है, लेते आना। विशेष—प्रायः किसी के चलते समय तेल का नाम लेना अशुभ समझा जाता है, इसीलिए प्रायः स्त्रियाँ इसे मसाला कहती हैं।
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मसाली  : स्त्री० [?] रस्सी। डोरी। (लश०)।
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मसाले का तेल  : पुं० [हि० मसाला+तेल] एक प्रकार का सुंगधित तेल जो साधारण तिल के तेल में कपूर, कचरी, बाल-छड़ आदि मिलाकर बनाया जाता है।
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मसालेदार  : वि० [हिं० मसाला+फा० दार] १. जिसमें मसाला पड़ा हुआ हो। जैसे—मसालेदार चना, मसालेदार तरकारी। २. झगड़ा आदि लगाने अथवा किसी को प्रसन्न करने के लिए बना-सँवार कर अथवा बढ़ा-चढ़ाकर किया जानेवाला (कथन या बात)।
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मसाहत  : स्त्री० [अ०] १. नापता। पैमाइश। २. क्षेत्रमिति।
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मसाहति  : स्त्री०=मसाहत।
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मसि  : स्त्री० [सं०√मस्+इन्] १. रोशनाई। २. काजल। ३. कालिख। ४. निर्गुड़ीं का फल।
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मसि-कूपी  : स्त्री० [सं० ष० त०] दावात।
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मसि-जल  : पुं० [सं० ष० त०] रोशनाई।
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मसि-धान  : पुं० [सं० ष० त०] दावात।
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मसि-पण्य  : पुं० [सं० ब० स०] लेखक।
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मसि-पथ  : पुं० [सं० ब० स०] कलम।
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मसि-बिंदु  : पुं० [सं० ष० त०] दावात।
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मसि-बिंदु  : पुं० [सं० ष०त] काजल, कालिख आदि की वह बिन्दी जो स्त्रियाँ बच्चों के गाल, माथे आदि पर उन्हें नजर से बचाने के लिए लगाती हैं। दिठौना।
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मसि-बुंदा  : पुं० [सं० मसिबिंदु] मसिबिंदु।
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मसि-मणि  : स्त्री० [सं० मध्य०स] दावात।
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मसि-मुख  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसके मुँह पर कालिख पुती या लगी हो, अर्थात् कलमुँहा। २. दुष्कर्म करनेवाला।
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मसिऔरा  : पुं० [हिं० मांस+औरा (प्रत्यय)] मांस के योग से बना हुआ कोई खाद्य पदार्थ।
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मसिकर  : पुं० [सं० ष० त०] मसि अर्थात् स्याही बनानेवाला व्यक्ति।
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मसित  : भू० कृ० [सं०√मस् (परिवर्तन)+क्त, इत्व] चूर किया हुआ।
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मसिंदर  : पुं० [अ० मेसेंजर] जहाज में, लंगर उठाने का रस्सा। (लश०)।
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मसिदानी  : स्त्री० [सं० मसि+फा०दानी] दावात।
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मसियर  : स्त्री०=मशाल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसियाना  : अ० [हिं० मांस] शरीर का भली-भाँति मांस से भर जाना। शरीर का मांसल होना। स० ऐसी क्रिया करना जिसमें किसी का शरीर मांसल अर्थात् हृष्ट-पुष्ट हो जाय।
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मसियार  : स्त्री०=मशाल।
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मसियारा  : पुं० =मशालची।
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मसिल  : पुं० =मैनसिल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसी  : स्त्री०=मसि।
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मसीका  : पुं० [हिं० माशा] १. आठ रत्ती का मान। माशा। २. चवन्नी। (दलाल)।
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मसीत  : स्त्री०=मसजिद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसीद  : स्त्री०=मसजिद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसीना  : स्त्री० [सं०√मस् (परिवर्तन)+इनच्-दीर्घ, पृषो०+टाप्] अलसी। पुं० [?] मोटा अनाज। कदन्न। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसीला  : वि० [हिं० मस+ईला (प्रत्यय)] जिसकी मसें निकल अर्थात् भींज रही हों। नवयुवक। वि० [स्त्री० मसीली] दे० ‘मांसल’।
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मसीह  : पुं० [अ०] हजरत ईसा। मसीहा।
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मसीहा  : पुं० [अ० मसीह] १. वह जिसमें रोगियों को नीरोग करने और मृतकों को जीवित करने की शक्ति हो। २. ईसाई धर्म के प्रवर्त्तक ईसा-मसीह। ३. उर्दू, फारसी कविताओं में प्रेम-पात्र की संज्ञा या उसके लिए सम्बोधन।
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मसीहाई  : स्त्री० [अ०] १. मसीहा का काम या भाव। मसीहापन। २. मुर्दों को जिंदा करना। ३. मसीहा की सी वह अलौकिक शक्ति जिससे रोगी चंगे होते और मृतक जी उठते हैं।
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मसीही  : वि० [अ० मसोह+फा०ई (प्रत्यय)] ईसा मसीह सम्बन्धी। ख्रिप्टीय। पुं० ईसा मसीह का अनुयायी। ईसाई।
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मसुर  : पुं० =मसूर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसुरिया  : स्त्री०=मसूरिका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसुरी  : स्त्री०=मसूर।
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मसू  : अव्य० [हिं० मरू, पं०मसाँ-मसाँ=कठिनता से] कठिनाई से। मुश्किल से। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मंसूख  : वि० [अ०] [भाव० मंसूखी] (आज्ञा या निश्चय) जो रदकर दिया गया हो।
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मंसूखी  : स्त्री० [अ०] मंसूख अर्थात् रद किये जाने की क्रिया, दशा या भाव।
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मसूड़ा  : पुं० [सं० श्मश्रु] मुँह का वह मांसल अंग जिसमें दाँत जमे होते हैं।
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मसूढ़ी  : स्त्री० [देश] धातु गलाने की भट्ठी।
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मंसूबा  : पुं०=मनसूबा।
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मँसूर  : वि० [अ०] १. जिसे ईश्वरीय सहायता मिली हो। २. विजयी।
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मसूर  : पुं० [सं०√मस्+ऊरन्] एक प्रकार का अन्न जो द्विदल और चिपटा होता है और जिसका रंग मटमैला होता है। इसकी प्रायः दाल बनती है।
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मसूरक  : पुं० [सं० मसूर+कन्] गोल तकिया।
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मसूरति  : पुं० =मुहुर्त्त। उदाहरण—म्लेच्छ मसूरति सत्ति कै बंच कुररनी बार।—चंदबरदाई।
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मसूरा  : स्त्री० [सं०√मस् (परिणाम)+ऊरन्+टाप्] १. वेश्या। रंडी। २. मसूर नामक अन्न। ३. उक्त अन्न की दाल। ४. उक्त दाल की बनी हुई बड़ी। पुं० =मसूड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसूरिका  : स्त्री० [सं० मसूरा+कन्+टाप्, इत्व] १. चेचक का एक भेद जिसमें शरीर पर मसूर के बराबर दाने निकलते हैं। खसरा। २. कुटनी। दूती।
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मसूरी  : स्त्री० [सं० मसूर+ङीष्] मसूरिका नामक रोग। पुं० [देश] एक प्रकार का पेड़ जो कद में छोटा होता है और शिशिर ऋतु में जिसके पत्ते झड़ जाते हैं। स्त्री०=मसूर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसूल  : पुं० =महसूल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसूला  : पुं० [देश] एक प्रकार की पतली लम्बी नाव।
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मसूस  : स्त्री० [हिं० मसूसना] १. मन मसूसने की क्रिया या भाव। २. मन में दबा रहनेवाला कष्ट या दुःख।
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मसूसन  : स्त्री० [हिं० मसूसना] मन मसूसने की क्रिया या भाव। आंतरिक व्यथा।
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मसूसना  : अ० [हिं० मरोड़ना, या फा० अफसोस, प्र० मसोस] १. मरोड़ना। ऐंठना। २. निचोड़ना। ३. मनोवेग को दबाना या रोकना। ४. अच्छी तरह भरा हुआ। उदाहरण—रस में मसूसी रही आलस निवारि कै।—भारतेंदु। अ०=मसोसना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसृण  : वि० [सं० मस्√ऋण (दीप्त होना)+क, पृषो० सिद्धि] १. चिकना। २. मुलायम। ३. चमकीला।
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मसृणा  : स्त्री० [सं० मसृण+टाप्] अलसी।
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मसेरा  : वि० [सं० मसि] [स्त्री० मसेरी] काले रंग का। काला। उदाहरण—वा कटाच्छ ते लिखै मसेरी-नूर मुहम्मद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मसेवरा  : पुं० =मसिऔरा।
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मसोढ़ा  : पुं० [देश] सोना, चाँदी आदि गलाने की घरिया (कूमाऊँ। पुं० =मसूड़ा।
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मसोसना  : अ० [फा० अफसोस] १. मन ही मन कुढ़ना। २. मनोवेग को दबाना या रोकना। अ०=मसूसना।
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मसोसा  : पुं० [फा० अफसोस, हिं, ०मसोसना] १. मन में होनेवाला दुःख या रंज। मानसिक दुःख। २. पश्चात्ताप। पछतावा।
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मसौदा  : पुं० [अ० मसव्विदः] १. लेख, ०लेख्या आदि का व आरम्भिक रूप जिसमें आगे चलकर कुछ काट-छाँट या परिवर्तन किया जाने को हो या किया जा सकता हो। पांडुलिपि। मसविदा। २. किसी काम या बात के संबंध में पहले से सोचा जानेवाला उपाय या युक्ति। क्रि० प्र०—निकालना। मुहावरा—मसौदा गाँठना या बाँधना=अच्छी तरह सोचकर तरकीब या युक्ति निकालना और योजना बनाना।
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मसौदेबाज  : पुं० [अ० मसौदा+फा० बाज (प्रत्यय)] १. अच्छी युक्ति सोचनेवाला। २. चालाक। धूर्त।
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मसौरा  : पुं० =मसिऔरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मस्कर  : पुं० [सं०√मस्क+अरच्] १. वंश। खानदान। २. गति। चाल। ३. ज्ञान। जानकारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मस्करा  : पुं० =मसखरा।
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मस्करी (रिन्)  : पुं० [सं० मस्कर+इनि] १. संन्यासी। २. भिक्षु। ३. चंद्रमा। स्त्री०=मसखरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मस्का  : पुं० =मसका।
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मस्कुर  : पुं० =मसूड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मस्खरा  : पुं० =मसखरा।
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मस्जिद  : स्त्री०=मसजिद।
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मस्त  : वि० [फा०] [भाव० मस्ती] १. जो नशे में चूर हो। मदोन्मत। २. जो मद या नशे से युक्त या प्रभावित हो। जैसे—मस्त आँखें। ३. किसी प्रकार के मद से युक्त। जैसे—अपनी जवानी में मस्त। ४. जो किसी पर रीझा हो। किसी के गुण, सौंदर्य आदि पर अनुरक्त। ५. किसी बात या विषय में पूरी तरह से लीन। ६. निश्चित और लापरवाह।
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मस्त-मौला  : पुं० =मस्तराम।
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मस्तक  : पुं० [सं०√मस्+तकन्] मनुष्य के शरीर का सबसे ऊपरी और पशु-पक्षियों के शरीर का सबसे आगेवाला भाग जिसमें आँखें, मुँह कान आदि होते हैं। भाल। मुहावरा—मस्तक ऊँचा रखना= (क) बहुत अच्छा और सम्मानपूर्ण कार्य करना। (ख) प्रतिष्ठा और सम्मानपूर्वक रहना।
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मस्तकी  : स्त्री०=मस्तगी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मस्तगी  : स्त्री० [अ० मस्तकी] एक प्रकार का बढ़िया पीला गोंद जो कुछ सदाबहार पेड़ों के तनों को पोंछकर निकाला जाता है। रूमी मस्तगी।
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मस्तराम  : पुं० [फा०+हिं०] वह व्यक्ति जो अपने विचारों, कार्यों आदि में मस्त हो और सांसारिक झगड़ों-प्रपंचों में न पड़ता हो।
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मस्तरी  : स्त्री० [सं० भस्रा] धातु गलाने की भट्ठी (पश्चिम)।
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मस्तान  : वि० =मस्ताना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मस्ताना  : वि० [फा० मस्तान] [स्त्री० मस्तानी] १. मस्तों का सा। जैसे—मस्ताना रंग-ढंग, मस्तानी चाल। २. मत्त। मस्त। अ० मस्ती में आना। मस्ती में भरना। स० मस्ती में लाना। मस्त करना।
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मस्तिक  : पुं० =मस्तिष्क। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मस्तिकी  : स्त्री०=मस्तगी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मस्तिष्क  : पुं० [सं० मस्त√इष्+क, पृषो० सिद्धि] १. मस्तक के अन्दर का गूदा। २. वह मानसिक शक्ति जिसके द्वारा मनुष्य सोचने-समझने आदि का काम करता है। दिमाग। (ब्रेन)। वि० [सं०] १. मस्तिष्क संबंधी। मस्तिष्क का। २. मस्तिष्क में रहने या होनेवाला।
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मस्ती  : स्त्री० [फा०] १. मस्त होने की अवस्था या भाव। मतवालापन। क्रि० प्र०—आना।—उठना।—उतरना।—चढ़ना।—में आना। मुहावरा—मस्ती झड़ना=कष्ट आदि में पड़ने के कारण मस्ती दूर होना। मस्ती झाडना=इतना कष्ट देना कि मस्ती दूर हो जाय। २. सम्भोग की ऐसी प्रबल इच्छा या काम-वासना कि भले-बुरे का विचार न रह जाय। मुहावरा—मस्ती झाडना या निकालना=किसी के साथ प्रसंग करके काम वासना शान्त करना। ३. मद। जैसे—हाथी की मस्ती, ऊँट की मस्ती। क्रि० प्र०—टपकना।—बहना। ४. वह स्राव जो कुछ विशिष्ट वृक्षों, पत्थरों आदि में कुछ विशेष अवसरों पर होता है। जैसे—नीम की मस्ती, पहाड की मस्ती। क्रि० प्र०—टपकना।—बहना।
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मस्तु  : पुं० [सं०√मस् (परिणाम)+तुन्] १. दही का पानी। २. फटे हुए दूध का पानी।
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मस्तूरी  : स्त्री० [सं० भस्रा] धातु गलाने की भट्ठी।
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मस्तूल  : पुं० [पूर्त्त] बड़ी नावों आदि के बीच का वह बड़ा खम्भा जिसमें झंडा या पाल बाँधा जाता है।
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मस्सा  : पुं० =मसा।
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महँ  : अव्य० [सं० मध्य] में।
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मह  : वि० [सं] १. महा। बहुत बड़ा। महत्। २. अति। बहुत। अव्य०=महँ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महँई  : वि० [सं० महान] बड़ा। महान्। अव्य०=महँ (में)।
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महँक  : स्त्री०=महक।
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महक  : स्त्री० [सं० महक्क] १. दूर तक फैलनेवाली सुगंध। जैसे—कमरा इत्र से या उद्यान फूलों से महक रहा था। २. (प्रिय या अप्रिय) गंध या वास। जैसे—जलते हुए कपड़े की महक।
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महकदार  : वि० [हिं० महक+फा० दार (प्रत्यय)] जिसमें महक या सुगंध हो।
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महँकना  : अ०=महकना।
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महकना  : पुं० [हिं० महक+ना (प्रत्यय)] महक या गंध देना।
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महकमा  : पुं० [अ० महकमः] १. कचहरी। न्यायालय। २. शासनिक दृष्टि से उसका कोई विशिष्ट विभाग।
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महकान  : स्त्री०=महक।
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महकाना  : स० [हिं० महक] १. महक या सुगंध से युक्त करना। २. महक या सुगंध चारों ओर फैलाना।
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महकाली  : स्त्री० [सं० महाकाली] पार्वती (डिं)।
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महकीला  : वि० [हिं० महक+ईला (प्रत्यय)] जो महक रहा हो। जिसमें से महक निकलती हो।
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महकूम  : वि० [अ० महकूम] १. जिसे हुकुम दिया गया हो। २. शासित। पुं० प्रजा। रिआया। पुं० [?] सूर्य। (डिं०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महँगा  : वि० [सं० महार्घ] [स्त्री० भाव० महँगी] १. जिसका मूल्य उचित या साधारण से अधिक हो। महुमूल्य। २. जिसका मूल्य पहले की अपेक्षा अधिक हो। अपेक्षाकृत अधिक दामवाला। ३. जिसे प्राप्त करने के लिए आवश्यकता से अधिक व्यय करना, कष्ट उठाना या बदनामी या हानि सहनी पड़ी हो। जैसे—यह मंत्रित्व आपको बहुत महँगा पड़ा है।
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महँगाई  : स्त्री० [हिं० महँगा] १. महँगी के कारण नौकरों को वेतन के अतिरिक्त दिया जानेवाला मासिक धन या भत्ता (डियरनेस एलाउन्स) २. दे० ‘महँगी’।
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महँगी  : स्त्री० [हिं० महँगा] १. महँगे होने की अवस्था या भाव। २. ऐसा समय जिसमें चीजों का भाव अधिक बढ़ गया हो। पहले की अपेक्षा अधिक मूल्य पर वस्तुएं बिकने की स्थित। ३. अकाल। दुर्भिक्ष। क्रि० प्र०—पड़ना।
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महज  : अव्य० [अ० महज़] १. केवल। निरा। जैसे—यह तो महज पानी है। २. केवल। मात्र। सिर्फ। जैसे—यह तौ महज पागलपन है।
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महजर  : पुं० [अ० महजर] लोगों के हाजिर होने का स्थान।
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महजरनामा  : पुं० [महजर+फा० नामः] १. वह प्रार्थना पत्र जो बहुत से आदमियों की ओर से दिया जाय। २. वह साक्ष्य पत्र जिसमें बहुत से गवाहों की गवाही हो।
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महजित  : स्त्री०=मसजिद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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महज्जन  : पुं० =महाजन।
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महटिआना  : स० [हिं० मिट्टी+आना (प्रत्यय)] सुनी अनसुनी करना।
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महँड़ा  : पुं० [देश] भुना हुआ चना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महण  : पुं० [सं० महावर्ण] समुद्र। सागर उदाहरण—महण मथे मूँ लीघ महमहण।—प्रिथीराज।
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महंत  : पुं० [सं० महत्=बड़ा] [भाव० मंहती] वह संन्यासी (या साधु) जो अपने समाज अथवा किसी मठ का प्रधान हो वि० =महत् (बहुत बड़ा)।
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महतम  : पुं० [सं० महत्तम] मालिक। स्वामी।
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महतमाइन  : स्त्री० [हिं० महत्तम] मालकिन। स्वामिनी।
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महतवान  : पुं० [देश०] करघे में पीछे की ओर लगी हुई वह खूँटी जिसमें ताने को पीछे की ओर खीचें रखनेवाली डोरी लपेटकर बाँधी जाती है। हथेला। पिंडा।
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महता  : पुं० [सं० महत्] गाँव का मुखिया। महतो। स्त्री० [सं० महत्ता] १. महत्ता। २. अभिमान। ३. एक प्राचीन नदी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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महंताई  : स्त्री०=महंती। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महताब  : पुं० [फा० माहताब] १. चंद्रमा। २. एक तरह का जंगली कौआ। मतूरी। स्त्री० १. चन्द्रिका। चाँदनी। २. महताबी नाम की आतिशबाजी। ३. जहाज पर रात में संकेत के लिए जलायी जानेवाली एक प्रकार की नीली रोशनी।
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महताबी  : स्त्री० [फा०] १. मोमबत्ती के आकार की एक तरह की आतिशबाजी जिसके जलने से तेज सफेद प्रकाश होता है। २. प्रासादों आदि के आगे के बाग के बीच का गोल चबूतरा जिस पर बैठकर चाँदनी का आनन्द लिया जाता है। ३. चकोतरा। (पूरब)।
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महताम  : वि० [सं० महत्तम] श्रेष्ठ। बड़ा। उदाहरण—आय रह्यो महताम।—जटमल।
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महतारा  : पुं० [हिं० महतारी (माता)का पुं०] पिता। बाप। (क्व०) उदाहरण—अवतारी सब अवतारन को महतारी महतारो।
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महतारी  : स्त्री० [सं० माता] माता। माँ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महंति  : वि० =महत् (बहुत बड़ा) उदाहरण—मनसि विचारि एक ही महंति।—प्रिथीराज।
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महंती  : स्त्री० [हि० महंत+ई (प्रत्यय)] महंत का काम, पद या भाव। उदाहरण—भारी विपति महंती आई, लगन राम सों छूटी।
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महती  : स्त्री० [सं० महत्+ङीष्] १. नारद की वीणा का नाम। २. बृहती। बन-भंटा। ३. महत्त्व। महिमा। ४. कुश द्वीप की एक नदी। ५. एक प्रकार का रोग जिसमें हिचकी आती है और उसके फलस्वरूप छाती में पीड़ा होती है। ६. योनि के फैलने का रोग (वैद्यक)।
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महती-द्वादशी  : स्त्री० [सं० मध्य० स अथवा न्यस्त पद] श्रवण नक्षत्र में पडऩेवाली भाद्र शुक्ल द्वादशी।
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महतु  : पुं० =महत्त्व। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महतो  : पुं० [हिं० महता] १. मालिक। स्वामी। २. सरकार। ३. कुछ गयावाला पंडों की एक उपाधि। ४. कहार। (बिहार)। ५. गाँव का मुखिया। ६. किसी मंडली या समाज का मुखिया।
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महत्  : वि० [सं०√मह्+अति] १. बहुत बड़ा। महान। २. सर्वश्रेष्ठ। पुं० १. दार्शनिक क्षेत्रों में प्रकृति का आरम्भिक या मूल विकार। महत्तत्व। २. ब्रह्म। ३. राज्य। ४. जल। पानी। पुं० =महत्त्व।
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महत्कथ  : पुं० [सं० महती-कथा, ब० स०] खुशामदी।
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महत्तत्त्व  : पुं० [सं० महत्त-तत्व, कर्म० स०] १. दार्शनिक क्षेत्र में प्रकृति का पहला बिकार या कार्य। विशेष—सांख्यकार ने कहा है कि पहले-पहल जब तक जगत सुषुप्तावस्था से उठा, या जागा था, तब सबसे पहले इसी महत्तत्त्व का आविर्भाव हुआ था। इसी को दार्शनिक परिभाषा में बुद्धि-तत्त्व भी कहते हैं। २. कुछ तांत्रिकों के अनुसार संसार के सात त्तत्वों में से सबसे अधिक सूक्ष्म तत्त्व। ३. जीवात्मा।
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महत्तनु  : पुं० =महत्तत्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महत्तम  : वि० [सं० महत्+तमप्] १. जिसका महत्व सबसे अधिक आँका, माना या समझा जाता हो। २. सबसे बड़ा। (ग्रेटेस्ट)।
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महत्तम-समापवर्त्तक  : पुं० [कर्म० स०] गणित में वह बड़ी से बड़ी संख्या जिसका भाग दो या अन्य संख्याओं में पूरा-पूरा हो सके।
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महत्तर  : वि० [सं० महत्+तरप्] किसी की अपेक्षा अधिक महत्व वाला। पुं० शूद्र।
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महत्तरक  : पुं० [सं० महत्तर+कन्] दरबारी। मुसाहब।
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महत्ता  : स्त्री० [सं० महत्त+तल्+टाप्] महत्त्व।
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महत्त्व  : पुं० [सं० महत्+त्व] १. महत् या महा अर्थात् सबसे बड़े होने की अवस्था या भाव। २. बड़प्पन। बड़ाई। श्रेष्टता। ३. किसी काम, बात या चीज की वह अवस्था जिसमें वह अर्थ, उपयोग, परिणाम, प्रभाव, मूल्य आदि के विचार से औरों से बहुत बढ़कर मानी या समझी जाती है। (इम्पार्टेन्स) जैसे—महत्त्व का विचार, महत्त्व का समाचार आदि।
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महत्त्वपूर्ण  : वि० [सं० तृ० त०] जिसका कुछ या अधिक महत्त्व हो।
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महत्त्वाकांक्षा  : स्त्री० [सं० महत्त्व-आकांक्षा, ष० त०] दे० ‘उच्चाकांक्षा’।
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महँदी  : स्त्री०=मेंहदी।
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महदी  : वि० [अ० महदी] १. जिसे दीक्षा मिली हो। दीक्षित। २. धर्मनेता। पुं० बारहवें इमाम। (मुसलमान)
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महदूद  : वि० [अ० महदूद] १. जिसकी हद बँधी हो। सीमाबद्ध। सीमित। २. घिरा हुआ। ३. कुछ। चंद।
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महदूम  : वि० [अ० महदूम] १. नष्ट। २. ध्वस्त।
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महदेश्वर  : पुं० [हिं०] मैसूर में होनेवाली बैलों की एक जाति।
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महद्वारुणी  : स्त्री०=महेंद्रवाणी (लता)।
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महन  : पुं० =मथना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महना  : स०=मथना। पुं० [हिं० मथना] बड़ी मथानी। पं०=मेहना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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महना-मत्थन  : पुं० [हिं० महना=मथना] १. बार-बार किसी बात पर तर्क करते चलना। २. व्यर्थ की बहुत अधिक तकरार या हुज्जत।
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महनिया  : पुं० [हिं० महना=मथना+इया (प्रत्यय)] मथनेवाला।
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महनीय  : वि० [सं०√मह्+अनीयर] [भाव० महनीयता] १. महान। २. पूजनीय। पूज्य। मान्य।
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महनु  : पुं० [हिं० महना] १. मंथन करनेवाला। २. विनाशक।
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महफा  : पुं० [?] एक प्रकार की पालकी।
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महफिल  : स्त्री० [अ० महफ़िल] १. मजलिस सभा। समाज। २. वह समाज या स्थान जिसमें नाच-रंग हो रहा हो। क्रि० प्र०—जमना।—लगना। ३. इस्लामी धार्मिक क्षेत्र में, उपासना या साधना का स्थान। ४. सूफियों की परिभाषा में संसार।
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महफूज  : वि० [अ० महफूज] १. जिसकी हिफाजत की गयी हो। २. आवश्यकता के लिए बचाकर रखा हुआ।
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महबूब  : पुं० [अ० महबूब] [स्त्री० महबूबा] वह जिससे प्रेम किया जाय। प्रेमपात्र। प्रिय।
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महबूबा  : स्त्री० [अं० महबूबा] प्रेमपात्री। प्रेयसी।
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महमंत  : वि० [सं० महा+मत्त] १. मस्त। २. उन्मत।
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महमद  : पुं० =मुहम्मद। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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महमदी  : वि० [अ० मुहम्मदी] मुसलमान संबंधी।
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महमह  : क्रि० वि० [हिं० महकना] मह-मह करते हुए। सुगंधि के साथ।
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महमहण  : तुं० [सं० महीमथन] विष्णु। (डि०)। उदाहरण—महण मथे मूँ लीध महमथण।—प्रिथीराज।
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महमहा  : वि० [हिं० महमह] महकदार सुगंधित।
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महमहाना  : अ० [हिं० महमह अथवा महकना] गमकना। सुगंधि देना। स० महक या सुगंधि से युक्त करना।
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महमा  : स्त्री०=महिमा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महमान  : पुं० =मेहमान।
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महमानी  : स्त्री०=मेहमानी।
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महमाय  : स्त्री० [सं० महामाया] पार्वती (डिं०)।
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महमिल  : पुं० [अ० महमिल] वह कजावा जिसमें स्त्रियाँ बैठती हों।
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महमूद  : वि० [अ० महमूद] जिसकी हमद् अर्थात् प्रशंसा की गयी हो। प्रशंसित।
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महमूदी  : स्त्री० [फा० महमूदी] एक तरह की मलमल। वि० महमूद सम्बन्धी।
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महमेज  : स्त्री० [फा० मेहमेज] जूते की एड़ी में लगायी जानेवाली नाल। (घुड़सवारी के समय इसी से घोडे के पेट में आघात करके उसे एड़ लगायी जाती है)।
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महम्मद  : पुं० =मुहम्मद।
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महम्मदी  : वि० पुं० =मुहम्मदी।
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महर  : पुं० [सं० महत्] [स्त्री० महरि] १. ब्रज में बोला जानेवाला एक आदरसूचक शब्द जिसका प्रयोग विशेषतः जमींदारों और वैश्यों आदि के संबंध में होता है। २. एक प्रकार का पक्षी। ३. दे० ‘महरा’। वि० =महमहा (सुगंधित)। पुं० [फा०] वह रकम जो निकाह के समय दुल्हिन को देनी निश्चित की जाती है। (मुसलमान)। क्रि० प्र०—बँधना।—बाँधना।
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महरबान  : पुं० =मेहरबान।
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महरम  : पुं० [अ० मह्रम] १. कन्या की दृष्टि से ऐसा व्यक्ति जिससे उसका विवाह न हो सकता हो। २. वह जो भीतरी रहस्य से परिचित हो। हार्दिक मित्र। स्त्री० [?] १. अंगिया। २. अंगिया की कटोरी।
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महरा  : पुं० [हिं० महता] [स्त्री० महरी] १. कहार। २. मुखिया। सरदार। ३. पूज्य या श्रेष्ठ व्यक्ति। वि० १. प्रधान। मुख्य। २. पूज्य या श्रेष्ठ।
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महराई  : स्त्री० [हिं० महर+आई (प्रत्यय)] १. महर होने की अवस्था या भाव। २. प्रधानता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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महराज  : पुं० =महाराज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महराजा  : पुं० =महाराज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महराण  : पुं० [सं० महार्णव] समुद्र। (डिं०)
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महराना  : पुं० [हिं० महर+आना (प्रत्यय)] महरों के रहने की जगह, महल्ला या गाँव। पुं० =महाराणा। अ०=मेहराना।
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महराब  : स्त्री०=मेहराब।
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महरि  : स्त्री० [हिं० महर] १. एक प्रकार का आदरसूचक शब्द जिसका व्यवहार ब्रज में किसी प्रतिष्ठित स्त्री, विशेषतः सास के लिए होती है। २. घर की मालकिन। गृह-स्वामिनी। ३. ग्वालिन (चिड़िया)। स्त्री०=मेहर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महरी  : स्त्री० [देश] ग्वालिन। चिड़िया। स्त्री० हिं० ‘महरा’ का स्त्री।
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महरुआ  : पुं० [देश] जस्ता। (सुनार) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महरू  : पुं० [देश] १. चंडू पीने की नली। २. एक प्रकार का वृक्ष।
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महरूम  : वि० [अ० मह्रूम] १. जिसे की चीज न मिल सकी हो। जो कुछ पाने से रह गया हो। वंचित। २. अभागा।
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महरूमी  : स्त्री० [अ० मह्रूमी] १. महरूम होने की अवस्था या भाव। २. बदकिस्मती।
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महरेटा  : पुं० [हिं० महर+एटा (प्रत्यय)] [स्त्री० महरेटी] १. महर अर्थात् मुखिया या सरदार का बेटा। २. श्रीकृष्ण।
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महरेटी  : स्त्री० [हिं० महरेटा] वृषभानु महर की लड़की राधिका।
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महर्घ  : वि० =महार्घ।
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महर्घता  : स्त्री०=महार्घता।
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महर्लोक  : पुं० [सं० कर्म० स०] पुराणानुसार भू, भ्रुवः आदि चौदह लोकों में से एक। विशेष—अरविन्द दर्शन में यह लोक ऊपर के तीन लोकों—सत् चित् और आनन्द तथा नीचे के तीन लोकों, भू, भ्रुवः स्वः के मध्य में माना गया है, और इसी में प्रति-मानस (देवों) का निवास माना गया है।
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महर्षभी  : स्त्री० [सं० महती-ऋषभी, कर्म० स०] कौंछ। केवाँच।
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महर्षि  : पुं० [सं० महत्-ऋषि, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा ऋषि। ऋषीश्वर। जैसे—वेदव्यास २. संगीत में एक प्रकार का राग जो भैरव के आठ पुत्रों में से एक कहा गया है।
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महर्षिका  : स्त्री० [हिं० महर्षि+कन्+टाप्] भटकटैया।
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महल  : पुं० [अ०] १. राजाओं, रईसों आदि के रहने का बहुत बड़ा मकान। भवन। प्रासाद। २. अंतःपुर। रनिवास। ३. बहुत बड़ा और सजा हुआ कमरा। ४. अवसर। मौका। ५. बड़ी मधुमक्खी। सारंग। ६. पत्नी। बीबी।
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महल-सरा  : स्त्री० [अ० महल+फा० सरा] अंतःपुर। जनानाखाना। रनिवास।
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महलम  : पुं० [अ, मह्लम] वह जिसके पास ईश्वर कोई विशेष सन्देश भेजे। उदाहरण—विद्यापति छवि मान मलहम जुगपति चिरे जीवे जीवयु।—विद्यापति।
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महलाठ  : पुं० [देश] एक प्रकार का पक्षी जिसकी दुम लम्बी, ठोर काली, छाती, खैरी पीठ खाकी रंग की और पैर काले होते हैं। इसे कोकैया और मुटरी भी कहते हैं।
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महली  : पुं० [हिं० महल] १. वह जनखा, जो महलों में पहरा देता तथा बेगमों की सेवा करता हो। २. कंचुकी।
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महली-पटैला  : पुं० [हिं० महल+पटैला] एक प्रकार की बड़ी नाव जिस पर केवल, लकड़ी, पत्थर आदि लादे जाते हैं।
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महल्ला  : पुं० [अ० महल्लः] शहर का कोई विभाग जिसमें बहुत से मकान तथा कई गलियाँ होती है टोला। पाड़ा।
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महल्लेदार  : पुं० [अ, महल्लः+फा० दार (प्रत्यय)] १. महल्ले का चौधरी या प्रधान। २. चमार, भंगी, मेहतर आदि जो अलग-अलग महल्लों में सफाई करते हैं।
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महल्लेदारी  : स्त्री० [हिं० महल्लेदार] एक ही महल्ले में रहनेवालों में होनेवाला बरताव या लेन-देन।
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महशर  : पुं० [अ० महसर] १. कयामत। प्रलय। २. कयामत का दिन।
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महसार  : स्त्री०=महासीर (मछली)।
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महसिल  : पुं० [अ० मुहस्सिल] तहसील वसूल करनेवाला। उगाहनेवाला।
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महसीर  : स्त्री०=महासीर (मछली)।
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महसूद  : वि० [अ० महसूद] १. जिससे हसद या ईर्ष्या की गयी हो। २. ईर्ष्या किये जाने योग्य।
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महसूर  : वि० [अ० महसूर] घेरे में पड़ा हुआ। घिरा हुआ।
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महसूल  : पुं० [अ० महसूल] १. किसी चीज पर लगनेवाला किसी प्रकार का कर या शुल्क। २. कोई चीज कहीं भेजने का किराया या भाड़ा। ३. जमीन की मालगुजारी या लगान।
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महसूली  : वि० [अ० महसूली] जिस पर किसी प्रकार का महसूल लगा हो या लग सकता हो। महसूल के योग्य। स्त्री० भूमि जिस पर लगान देना पड़ता हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महसूस  : वि० [अ० महसूस] जिसका एहसास (अर्थात् किसी ज्ञानेन्द्रिय के द्वारा ज्ञान) हुआ हो। जैसे—किसी चीज या बात की कमी महसूस होना।
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महाँ  : अव्य०=महँ। वि० =महा।
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महा  : वि० [सं०] १. बहुत अधिक। अत्यन्त। २. बड़ा। महान्। ३. सबसे बढ़कर। सर्वश्रेष्ठ। पं० [हिं० महना=मथना] मठा। छाछ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महा कुमार  : पुं० [सं० महत्-कुमार, कर्म० स०] युवराज।
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महा डाकपाल  : पुं० [हिं०] वह डाकपाल जिसके निरीक्षण में किसी राज्य या प्रदेश के अन्य सब डाकपाल काम करते हों। (पोस्टमास्टर-जनरल)।
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महा-प्रभाव  : वि० [सं०] [स्त्री० महा-प्रभावा] दूसरों को अपना झूठा प्रभाव दिखलाकर उन पर आतंक जमाने या रोब गाँठनेवाला।
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महा-संक्रांति  : स्त्री० [सं० महती-संक्रांति, कर्म० स०] मकर संक्रांति।
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महाई  : स्त्री० [सं० मथन, हिं० महना+आई (प्रत्यय)] १. महने अर्थात् मथने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। २. नील की मथाई।
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महाउत  : पुं० =महावत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महाउर  : पुं० =महावर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महाकच्छ  : पुं० [सं० महत्-कच्छ, ब० स०] १. समुद्र। सागर। २. वरूण देवता। ३. पर्वत। पहाड़। ४. एक प्राचीन देश।
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महाकंद  : पुं० [सं० महत्-कंद० कर्म० स०] १. लहसुन। २. प्याज।
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महाकपि  : पुं० [सं० महत्-कपि, कर्म० स०] १. शिव का एक अनुचर। २. एक बोधिसत्व का नाम।
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महाकपित्थ  : पुं० [सं० महत्-कपित्थ, कर्म० स०] १. बेल का वृक्ष। २. लाल लहसुन।
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महाकपोत  : पुं० [सं० महत्-कपोत, कर्म० स०] एक तरह का जहरीला साँप।
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महाकंबु  : पुं० [सं० महत्-कंबु, ब० स०] शिव।
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महाकर  : पुं० [सं० महत्-कर, ब० स०] एक बोधिसत्त्व का नाम। वि० १. लम्बे हाथोंवाला। २. अधिक आय करनेवाला।
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महाकरंज  : पुं० [सं० महत्-करंज, कर्म० स०] एक प्रकार का बड़ा करंज।
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महाकर्ण  : पुं० [सं० महत्-कर्ण, ब० स०] १. शिव २. नाग।
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महाकर्णा  : स्त्री० [सं० महाकर्ण+टाप्] कार्तिकेय की एक मातृका।
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महाकर्णिकार  : पुं० [सं० महत्-कर्णिकार, कर्म० स०] अमलतास।
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महाकल्प  : पुं० [सं० महत्-कल्प, कर्म० स०] ब्रह्मा कल्प। (पुराण)।
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महाकांत  : पुं० [सं० महत्-कांत, कर्म० स०] शिव।
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महाकांता  : स्त्री० [सं० महती-कांता, कर्म० स०] पृथ्वी।
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महाकाय  : पुं० [सं० महत्-काय० ब० स०] १. शिवजी का नंदी नामक गण और द्वारपाल। २. विष्णु। ३. हाथी। वि० बहुत बड़ी काया या शरीरवाला।
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महाकार्तिकी  : स्त्री० [सं० महती-कार्तिकी, कर्म० स०] कार्तिक की वह पूर्णिमा जो रोहिणी नक्षत्र में हो।
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महाकाल  : पुं० [सं० महत्-काल, कर्म० स०] १. सृष्टि और प्राणियों का अंत करने वाले, महादेव या शिव का एक रूप। २. सारा समय जो विष्णु के समान अनंत और अखंड है ३. शिव का एक गण जो कुछ पुराणों में शिव का पुत्र कहा गया है। ४. प्राचीन भारत में सूर्योंदय का प्रामाणिक और मानक काल जो उज्यिनी के सूर्योदय काल के अनुरूप और उसके आधार पर माना जाता था। ५. उक्त के आधार पर उज्जयिनी में स्थित शिव का एक प्रसिद्ध मन्दिर।
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महाकाली  : स्त्री० [सं० महाकाल+ङीष्] १. महाकाल-स्वरूप शिव की पत्नी जिसके पाँच मुख और आठ भुजाएँ मानी जाती है। २. दुर्गा की एक प्रसिद्ध मूर्ति या रूप। ३. शक्ति की एक अनुचरी। ४. जैनों के अनुसार सोलह विद्या-देवियों में से एक जो अवसर्पिणी के पाँचवें अर्हत् की देवी हैं।
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महाकाव्य  : पुं० [सं० महत्-काव्य, कर्म० स०] बहुत बड़ा और विस्तृत काव्य-ग्रंथ। विशेष—भारतीय साहित्य में पहले महाकाव्य वह कहलाता था जिसमें किसी व्यक्ति के आदि से अन्त तक के पूरे जीवन का विस्तृत विवरण होता था। पर बाद में साहित्यकारों ने इसके सम्बन्ध मे कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगा दिये थे, यथा—यह श्रृंखला-बद्ध होने के सिवा सर्ग-बद्ध भी होना चाहिए, इसके नायक देवता, राजा या धीरोदात्त क्षत्रिय होना चाहिए, इसमें वीर, शान्त तथा श्रृंगार रसों में से कोई एक रस प्रधान होना चाहिए, बीच-बीच में प्रसंगवश और रस भी होने चाहिए, अनेक प्रकार के प्राकृतिक दृश्यों और शोभाओं मानव या लौकिक जीवन के भिन्न-भिन्न अंगो, कार्यों, घटनाओं आदि का भी वर्णन होना चाहिए, आदि आदि। इस दृष्टि से महाभारत और रामायण तो महाकाव्य हैं ही, कालिदास कृत रघुवंश, माघ-कृत शिशुपाल वध, भारवि-कृत, किरातार्जुनीय और हर्ष-कृत नैषध-चरित भी महाकाव्य की श्रेणी में आ जाते हैं। पर आज-कल वह बहुत बड़ा काव्य भी महाकाव्य मान लिया जाता है जो कवित्य की दृष्टि से बहुत उच्च कोटि का हो और जिसमें बहुत से विषयों का सुन्दर रूप में वर्णन हो।
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महाकाश  : पुं० [सं० महत्-आकाश, कर्म० स०] १. पूरा आकाश। २. [ब० स०] एक पर्वत का नाम।
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महाकुमुदा  : स्त्री० [सं० महती-कुमुदी, कर्म० स०] गंभारी।
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महाकुल  : पुं० [सं० महत्-कुल, कर्म० स०] उच्च कुल। वि० [ब० स] महाकुलीन।
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महाकुलीन  : वि० [सं० महाकुल+ख-ईय] ऊँचे कुल में जन्मा हुआ।
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महाकुष्ठ  : पुं० [सं० महत्-कुष्ठ, कर्म० स०] कुष्ठ का वह भेद जिसमें हाथ-पैर की उँगलियाँ गलने तथा गलकर गिरने लगती हैं गलित। कुष्ठ।
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महाकृच्छ  : पुं० [सं० महत्-कृच्छ्र, कर्म० स०] १. विष्णु का एक नाम। २. घोर तपस्या।
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महाकृष्ण  : पं० [सं० महत्-कृष्ण, कर्म० स०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का बहुत जहरीला साँप। पुं० शिव।
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महाकोश  : पुं० [सं० महत्-कोश, ब० स०] शिव।
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महाकोशातकी  : स्त्री० [सं० महती-कौशातकी, कर्म० स०] निनुआँ या घीआ नाम की तरकारी।
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महाक्रतु  : पुं० [सं० महत्-क्रुत, कर्म० स०] बहुत बड़ा यज्ञ। राजसूय यज्ञ।
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महाक्रोध  : पुं० [सं० महत्-क्रोध, ब० स०] शिव।
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महाक्ष  : पुं० [सं० महत्-अक्षि-ब० स० षच्] १. शिव। २. विष्णु।
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महाक्षीर  : पुं० [सं० महत्-क्षीर, ब० स०] ईख।
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महाखर्व  : पुं० [सं० महत्-खर्व, कर्म० स०] सौ खर्व की संख्या।
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महागंगा  : स्त्री० [सं० , कर्म० स०] एक प्राचीन नदी (महा०)।
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महागज  : पुं० [सं० महत्-गज, कर्म० स०] दिग्गज।
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महागणनाध्यक्ष  : पुं० =महालेखापाल।
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महागणपति  : पुं० [सं० महत्-गणपति, कर्म० स०] शिव का एक अनुचऱ। गणेश।
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महागद  : पुं० [सं० महत्-गद, कर्म० स०] १. ज्वर। बुखार। २. कठिन रोग। ३. एक औषध।
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महागंध  : पुं० [सं० महत्-गंध, ब० स०] १. चन्दन। २. कुटज। ३. जलबेंत।
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महागंधा  : स्त्री० [सं० महागंध+टाप्] १. केवड़ा। २. नागबला। ३. चामुंडा देवी।
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महागर्त्त  : पुं० [सं० महत्-गर्त, ब० स०] विष्णु।
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महागर्भ  : पुं० [सं० महत्-गर्भ, ब० स०] १. विष्णु। २. शिव।
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महागिरि  : पुं० [सं० महत्-गिरि, कर्म० स०] बहुत बड़ा पहाड़।
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महागीत  : पुं० [सं० महत्-गीत, ब० स०] शिव।
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महागुण  : पुं० [सं० महत्-गुण, ब० स०] अति गुणकारी।
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महागुनी  : पुं० =महोगनी।
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महागुरु  : पुं० [सं० महत्-गुरु, कर्म० स०] माता, पिता और गुरु इन तीनों का समाहार।
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महागुल्मा  : स्त्री० [सं० महत्-गुल्म, ब० स०+टाप्] सोमलता।
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महागोधूम  : पुं० [महत्-गोधूम, कर्म० स०] बड़े दाने का गेहूँ।
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महाग्रंधिक  : पुं० [सं० महत्-ग्रंथिक, कर्म० स०] वह औषधि जिसके सेवन से रोग निश्चित रूप से रुक जाय।
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महाग्रह  : पुं० [सं० महत्-ग्रह, कर्म० स०] राहु।
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महाग्रीव  : पुं० [सं० महती-ग्रीवा, ब० स०] १. शिव। २. शिव का एक अनुचर। ३. पुराणानुसार एक देश का नाम। ४. ऊँट।
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महाघूर्णा  : स्त्री० [सं० महती-घूर्ण, ब० स०,+टाप्] शराब। मदिरा।
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महाघृत  : पुं० [सं० महत्-घृत, कर्म० स०] बहुत पुराना घी।
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महाघोष  : पुं० [सं० महत्-घोष, कर्म० स०] १. भारी शब्द। २. [ब० स०] बाजार। हाट।
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महाघोषा  : स्त्री० [सं० महाघोष+टाप्] काकड़ा सिंघी।
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महाचक्रवर्ती (र्तिन्)  : पुं० [सं० महत्-चक्रवर्तिन, कर्म० स०] बहुत बड़ा चक्रवर्ती राजा। सम्राट।
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महाचंचु  : पुं० [सं० महती-चञ्चु, ब० स०] चेंच।
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महाचंड  : पुं० [सं० महत्-चंड, कर्म० स०] १. यम के दूत। २. शिव का एक गण। वि० =प्रचंड।
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महाचंडा  : स्त्री० [सं० महाचंड+टाप्] चामुंडा।
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महाचपला  : स्त्री० [सं० महती-चपला, कर्म० स०] ऐसा आर्या छंद जिसमें दोनों दलों में चपला छंद के लक्षण हों।
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महाचमू  : पुं० [सं० महती-चमू, कर्म० स०] बहुत बड़ी सेना।
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महाचार्य  : पुं० [सं० महत्-आचार्य, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा आचार्य। २. शिव।
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महाचिति  : स्त्री० दे० ‘महा-शक्ति’।
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महाचेतन  : पुं० [सं० महत्-चेतन, कर्म० स०] वह सर्वप्रमुख चेतना-शक्ति जो सारे विश्व और उसमें के प्राणियों तथा पदार्थों में प्याप्त हैं।
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महाच्छाय  : पुं० [सं० महती-छाया, ब० स०] बड़ का पेड़। वट वृक्ष।
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महाजन  : पुं० [सं० महत्-जन, कर्म० स०] १. मनुष्यों का समूह। जनता। २. बहुत बड़ा आदमी। श्रेष्ठ व्यक्ति। ३. मुखिया। ४. धनवान् व्यक्ति० ५. वह व्यक्ति (क) जो सूद पर रुपये उधार देने का व्यवसाय करता हो। (ख) जिससे सहायता के रूप में अधिक धन प्राप्त किया जा सकता हो।
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महाजनी  : वि० [सं० महाजन+हिं० ई (प्रत्यय)] महाजन-संबंधी। महाजनों में होनेवाला। स्त्री० १. महाजनों का पेशा या व्यवसाय। सूद पर रुपये उधार देने का कारबार। २. एक विशेष लिपि जिसमें महाजन लेन-देन का हिसाब रखते हैं। बही-खाते में प्रयुक्त होनेवाली लिपि।
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महाजंबीर  : पुं० [सं० महत्-जंबीर, कर्म० स०] कमला नींबू।
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महाजंबु  : पुं० [सं० महती-जंबु, कर्म० स०] जामुन का बड़ा तथा पुराना पेड़।
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महाजल  : पुं० [सं० महत्-जल, ब० स०] समुद्र।
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महाजाल  : पुं० [सं० महत्-जाल, कर्म० स०] १. मछलियाँ पकड़ने का बहुत बड़ा जाल। २. किसी को धोखे में फँसाने के लिए फैलाया हुआ बहुत बड़ा जाल या सोची हुई युक्ति। ३. मध्य-युग में एक प्रकार का बढ़िया कागज जो मछलियाँ पकड़ने के पुराने जालों को सड़ाकर बनाया जाता था।
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महाजिह्व  : पुं० [सं० महती-जिह्वा, ब० स०] शिव।
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महाज्ञानी (निन्)  : पुं० [सं० महत्-ज्ञानिन्, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा ज्ञानी पुरुष। २. शिव।
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महाज्यैष्ठी  : स्त्री० [सं० महती-ज्यैष्ठी, कर्म० स०] ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा।
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महाज्योतिष्मती  : स्त्री० [सं० महती-ज्योतिष्मती, कर्म० स०] बड़ी माल-कँगनी।
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महाज्वाल  : पुं० [सं० महती-ज्वाला, ब० स०] १. हवन की अग्नि। २. महादेव। ३. एक नरक का नाम। वि० बहुत अधिक चमकता हुआ।
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महाडोल  : पुं० [सं० महा+हिं० डोला] वह बहुत बड़ी पालकी जिसमें कई स्त्रियाँ एक साथ बैठ सकती थीं। शिविका। उदाहरण—महाडोल दुलहिन के चारी। देहु बताय होउ उपकारी।—रघुराज।
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महातत्त्व  : पुं० =महत्तत्त्व।
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महातपा (पस्)  : पुं० [महत-तपस्, ब० स०] बहुत बड़ा तपस्वी।
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महातम  : पं०=माहात्म्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महातल  : पुं० [सं० महत्-तल, कर्म० स०] पुराणानुसार पृथ्वी के नीचे माने जानेवाले सात तलों (लोकों) में से छठा तल। (ये सात तल इस प्रकार हैः—अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल, और पाताल।
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महातारा  : स्त्री० [सं० महती-तारा, कर्म० स०] एक देवी। (तंत्र)
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महातिक्त  : पं० [सं० महत्-तिक्त, ब० स०] १. महानिबं। बकायन। २. चिरायता।
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महातीक्ष्ण  : वि० [सं० महत्-तीक्ष्ण, कर्म० स०] १. बहुत तेज। २. कडुआ या झारदार। पुं० भिलावाँ।
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महातीक्ष्णा  : स्त्री० [सं० महती-तीक्ष्णा, कर्म० स०] भिलावाँ।
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महातेज (जस्)  : पुं० [सं० महत्-तेजस्, कर्म० स०] १. शिव। २. पारा। ३. योद्धा। वि० १. जिसमें बहुत अधिक तेज हो। परम तेजवान्। २. पराक्रमी तथा शक्तिशाली।
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महात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० महत्-आत्मन्, ब० स०] १. पवित्र आत्मा। शुद्ध हृदय तथा उच्च विचारोंवाला व्यक्ति। जैसे—महात्मा ईसा, महात्मा बुद्ध, महात्मा गाँधी आदि। २. बहुत बड़ा तपस्वी, विरत्त और संन्यासी या साधु। ३. परमात्मा। ४. पितरों का एक गण या वर्ग। ५. शिव० ६. दे० ‘महत्तत्व’।
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महात्याग  : पुं० [सं० महत्-त्याग, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा त्याग। २. महादान। (दे०)।
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महात्यागी (गिन्)  : पुं० [सं० महात्याग+इनि] १. बहुत बड़ा त्यागी या दानी। २. शिव।
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महात्रिफला  : स्त्री० [सं० महती-त्रिफला, कर्म० स०] बहेडा, आँवला और हड़ इन तीनों का समाहार (वैद्यक)।
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महादंड  : पुं० [सं० महत्-दंड, कर्म० स०] १. यम के हाथ का दंड। २. यम के दूत। ३. बहुत बड़ा या कठोर दंड।
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महादंडधारी (रिन्)  : पुं० [सं० महादंड√धृ (रखना)+णिनि] यमराज।
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महादंत  : पुं० [सं० महत्-दंत, ब० स०] १. महादेव। २. हाथी। ३. [कर्म० स०] हाथी-दांत। वि० बहुत बड़े-बड़े दाँतोवाला।
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महादशा  : स्त्री० [सं० महती-दशा, कर्म० स०] फलित ज्योतिष में वह सारा समय जिमसें मोटे हिसाब से किसी एक ग्रह की पूरी अवस्थिति रहती और फल-भोग चलता रहता है। जैसे—आज-कल इस कुंडली में शनि की महादशा के अन्तर्गत बुध की दशा चल रही है।
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महादंष्ट्र  : पुं० [सं० महती-दंष्ट्रा, ब० स०] १. शिव। २. विद्याधर।
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महादान  : पुं० [सं० महत्-दान, कर्म० स०] १. पुराणानुसार सोने की गौ या घोड़ा आदि तथा पृथ्वी आदि पदार्थों का दान जिससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। २. बहुत बड़ा दान। ३. ग्रहण आदि के समय किया जानेवाला दान।
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महादारु  : पुं० [सं० महत्-दारू, ब० स०] देवदारु।
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महादूत  : पुं० [सं० महत्-दूत, कर्म० स०] यमदूत।
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महादेव  : पं० [सं० महत्-देव, कर्म० स०] सबसे बड़े देव, शिव।
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महादेवी  : स्त्री० [सं० महती-देवी, कर्म० स०] १. पार्वती। २. दुर्गा। ३. प्राचीन भारत में पटरानी की उपाधि या संज्ञा।
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महादेश  : पुं० [सं० महत्-देश, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा देश। २. पृथ्वी के पाँच बड़े स्थल-विभागों में से हर एक महाद्वीप। जैसे—एशिया, युरोप, अफरीका आदि। (कान्टिनेन्ट)।
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महादैत्य  : पुं० [सं० महत्-दैत्य, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा दैत्य। २. एक दैत्य (पुराण)।
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महाद्रावक  : पुं० [सं० महत्-द्रवाक, कर्म० स०] वैद्यक में एक प्रकार की औषधि जो सोना-मक्खी, रसांजन समुद्रफेन सज्जी आदि से बानायी जाती है।
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महाद्रुम  : पुं० [सं० महत्-द्रुम, कर्म० स०] १. पीपल। २. ताड़। ३. महुआ। ४. पुराणानुसार एक देश या वर्ष।
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महाद्वार  : पुं० [सं० महत्-द्वार, कर्म० स०] प्रासाद या मंदिर का बाहरी और सबसे बड़ा द्वार। सदर फाटक।
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महाद्वीप  : पुं० [सं० महत्-द्वीप, कर्म० स०] १. पुराणानुसार पृथ्वी के निम्न सप्त विभागों में से हर एक-जंबु, प्लक्ष, शाल्मकि, कुश, क्रौंच, शाक और फुष्कर। २. बहुत बड़ा द्वीप। वि० दे० ‘महादेश’।
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महाद्वीपीय  : वि० [सं० महाद्वीप+छ-ईय] महाद्वीप सम्बन्धी। महाद्वीप का।
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महाधन  : वि० [सं० महत्-धन, ब० स०] १. बहुमूल्य। २. बहुत बड़ा धनी। पुं० १. सोना। स्वर्ण। २. धूप नामक गन्ध-द्रव्य। ३. खेती-बारी। कृषि।
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महाधनी  : स्त्री० [सं० महती-धमनी, कर्म० स०] शरीर के अन्दर की वह सबसे बड़ी धमनी जो हृदय के बाँये निलय से (ऊपर और नीचे की ओर) निकलकर शरीर की अन्य सभी धमनियों में रक्त का संचार करती है। (आओर्टा)
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महाधनु (ष्)  : पुं० [सं० महत्-धनुष, कर्म० स०] शिव।
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महाधातु  : पुं० [सं० महत्-धातु, कर्म० स०] १. शिव। २. सोना। स्वर्ण। ३. मेरू (पर्वत)।
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महाधिकार-पत्र  : पुं० [सं० महत्-अधिकार, कर्म० स० महाधिकार-पत्र, ष० त०] वैयक्तित तथा राजनैतिक स्वंतन्त्रता प्रदान करनेवाला वह प्रसिद्ध अधिकारपत्र जो ब्रिटेन के राजा जाँन से सन् १२१५ ई० में लिखाया गया था। (मैग्ना कार्टा)।
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महाधिबक्ता (क्तृ)  : पुं० [महत्-अधिवक्तृ, कर्म० स०] आधुनिक विधिक क्षेत्र में किसी राज्य का वह प्रमुखतम अधिकारी जो उस राज्य के शासकीय विवादों मे उच्च न्यायालय के सामने राजकीय पक्ष उपस्थित करने के लिए नियत होता है। (एडवोकेट जनरल)
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महाध्वनिक  : पुं० [सं० अध्वन्+ठक्,—इक, आध्वनिक, महत्-आध्वनिक, कर्म० स०] वह जो पुण्य काल के लिए हिमालय गया हो और कहीं मर गया हो। वि० मृत।
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महानक  : पुं० [सं० महत्-आनक, कर्म० स०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिस पर चमड़ा मढ़ा होता था।
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महानगर  : पुं० [सं० महत्-नगर, कर्म० स०] बहुत बड़ा नगर।
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महानगर-पालिका  : स्त्री० [ष० त०] महापालिका।
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महानट  : पुं० [सं० महत्-नट, कर्म० स०] सर्वश्रेष्ठ नट। शिव।
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महानंद  : पुं० [सं० महत्-आनन्द, कर्म० स०] १. अत्यंत आनंद। २. [ब० स०] मगध के नंद वंश का एक प्रसिद्ध राजा ३. मोक्ष।
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महानद  : पुं० [सं० महत्-नद, कर्म० स०] १. पुराणानुसार एक नद का नाम। २. एक प्राचीन तीर्थ।
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महानदी  : स्त्री० [सं० महती-नदी, कर्म० स०] १. बहुत बड़ी और विशेष पवित्र नदी। जैसे—गंगा, यमुना, कृष्णा आदि। २. एक नदी जो बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
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महानन्दा  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] १. शराब। मदिरा। २. माघ शुक्ल नवमी। ३. बंगाल की एक नदी जो दार्जिलिंग के पास से निकली है।
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महानरक  : पुं० [महत्-नरक, कर्म० स०] पुराणानुसार २१ नरकों में से पाँचवाँ नरक।
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महानवमी  : स्त्री० [सं० महत्-अनस्, कर्म० स०] आश्विन शुक्ल नवमी जिस दिन दुर्गा की पूजा बहुत धूमधाम से होती है।
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महानस  : पुं० [सं० महत्-नस, कर्म० स०, टच्] पाकशाला। रसोई-घर।
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महानसावलेही  : पुं० [सं० ष० त०] वह जिसके छूने से चौका या रसोई अपवित्र हो जाती हो।
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महानाटक  : पुं० [सं० महत्-नाटक, कर्म० स०] वह बहुत बड़ा नाटक जिसमें दस अंक हो।
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महानाद  : पुं० [सं० महद्-नाद, कर्म० स०] १. घोर शब्द। २. [ब० स०] हाथी। ३. ऊँट। ४. शेर। सिंह। ५. बादल। मेघ। ६. शंख। ७. बड़ा ढोल। ८. शिव वि० बहुत जोर का शब्द करनेवाला।
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महानाभ  : पुं० [सं० महत्-नाभि, ब० स+अच्] १. एक मंत्र जिसके बल से शत्रु द्वारा फेकें हुए शस्त्र व्यर्थ किये जाते हैं। २. हिरण्यकशिपु का एक पुत्र।
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महानारायण  : पुं० [सं० महत्-नारायण, कर्म० स०] विष्णु।
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महानास  : पुं० [सं० महती-नासिका, ब० स०] महादेव।
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महानिद्रा  : पुं० [सं० महती-निद्रा, कर्म० स०] मृत्यु।
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महानिधान  : पुं० [सं० महत्-निधान, कर्म० स०] बुभुक्षित धातुभेदी पारा।
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महानिंब  : स्त्री० [महत्-निंब, कर्म० स०] नीम की जाति का एक पेड़। बकायन।
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महानियम  : पुं० [सं० महत्-नियम, ब० स०] विष्णु।
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महानियुक्त  : पुं० [सं० महत्-नियुक्त, कर्म० स०] एक बहुत बड़ी संख्या। (बौद्ध)।
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महानिर्वाण  : पुं० [सं० महत्-निर्वाण, कर्म० स०] वह स्थिति जिसमें जीव की सत्ता का पूर्ण नाश हो जाता है। बौद्धों में इसके अधिकारी केवल अर्हत या बुद्धगण माने गये हैं।
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महानिशा  : स्त्री० [सं० महती-निसा, कर्म० स०] १. रात्रि का मध्य भाग। २. प्रलय की रात। ३. दुर्गा।
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महानीच  : पुं० [सं० महत्-नीच, कर्म० स०] धोबी। रजक।
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महानींबू  : पुं० [सं० महा+हिं० नीबूं] बिजौरा नींबू।
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महानीम  : स्त्री०=महानिंब (बकायन)।
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महानील  : पुं० [सं० महत्-नील, कर्म० स०] १. भृगराज पक्षी। २. एक प्रकार का बढ़िया नीलम। ३. एक प्रकार का गुग्गुल। ४. एक प्रकार का सांप। ५. एक प्राचीन पर्वत। ६. सौ नील की संख्या।
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महानीली  : स्त्री० [सं० महती-नील, कर्म० स०] नीली अपराजिता।
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महानुभाव  : पुं० [महत्-अनुभाव, ब० स०] [भाव० महानुभावता] १. बहुत बड़ा व्यक्ति। २. उच्च विचारवाला तथा सत्यनिष्ठ व्यक्ति।
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महानुभावता  : स्त्री० [सं० महानुभाव+तल्+टाप्] महानुभाव होने की अवस्था या भाव।
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महानृत्य  : पुं० [सं० महत्-नृत्य, कर्म० स०] १. तांडव नृत्य। २. शिव।
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महानेत्र  : पुं० [सं० महत्-नेत्र, ब० स०] शिव।
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महान् (हत्)  : वि० [सं०√मह्+अति] १. बहुत बड़ा। विशाल। २. बहुत अधिक बढ़कर या श्रेष्ठ। उच्चकोटि का।
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महान्यायवादी  : पुं० [सं०] आजकल विधिक क्षेत्र में, किसी राज्य या राष्ट्र का वह प्रधान अधिकारी जिसे लोगों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाइयाँ करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त हो। (एटर्नी-जनरल)
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महापंक  : पुं० [सं० महत्-पंक, कर्म० स०] बहुत बड़ा पाप। महापाप। (बौद्ध)।
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महापक्ष  : पुं० [सं० महत्-पक्ष, ब० स०] १. गरुड़। २. एक प्रकार का राजहंस। वि० १. बड़े-बड़े परोंवाला। २. जिसके पक्ष या दल की संख्या बहुत अधिक हो।
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महापक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० महापक्ष+इनि] उल्लू।
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महापंचमूल  : पुं० [सं० पंचमूल, द्विगु, स०, महत्-पंचमूल, कर्म० स०] वैद्यक में बेल, अरनी, सोनापाढ़ा, काश्मरी और पाटला इन पाँचों वृक्षों की जड़ों का समाहार।
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महापंचविष  : पुं० [सं० पंच-विष, द्विगु, स० महत्-पंचविष, कर्म० स०] वैद्यक में, श्रृंगी, कालकूट, मुस्तक, बछनाग और शंखकर्णी इन पाँचों विषों का समाहार।
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महापंचागुंल  : पुं० [सं० पंच-अंगुल, द्विगु, स०महत्-पंचागुंल, कर्म० स०] लाल अरंडी या रेंड़ का वृक्ष।
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महापथ  : पुं० [महत्-पथिन, कर्म० स० समासान्त अच्] १. बहुत बड़ा लम्बा-चौड़ा मार्ग। २. महाप्रस्थान का पथ। विशेष—प्राचीनकाल में मनुष्य स्वर्ग-प्राप्ति के उद्देश्य से हिमालय की किसी ऊँची चोटी पर जाते थे और उस पर से कूदकर प्राण त्यागते थे। ऐसी चोटी के पथ या मार्ग को महापथ कहते थे। ३. स्वर्गारोहण का साधन अर्थात् मृत्यु। ४. केदारनाथ और उसकी यात्रा। ५. एक नरक।
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महापथ-गमन  : पुं० [सं० ष० त०] मरण। मृत्यु।
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महापथिक  : पुं० [सं० कर्म० स०] प्राचीन काल में वह व्यक्ति जो स्वर्गारोहण की दृष्टि से हिमालय पर्वत पर जाता था।
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महापद्म  : पुं० [सं० ब० स०] १. कुबेर की नौ निधियों में से एक निधि। २. कुबेर का अनुचर एक किन्नर। ३. आठ दिग्गजों में से एक दिग्गज जो दक्षिण दिशा में स्थित है। ४. हाथियों की एक जाति। ५. एक प्रकार का फनदार सांप। ६. एक प्रकार का दैत्य। ७. सफेद कमल। ८. महाभारत काल का एक नगर जो गंगा के किनारे था। ९. जैनों के अनुसार महाहिमवान् पर का एक जलाशय। १॰. सौ पद्य की संख्या। ११. मगध के नन्दवंश का अंतिम सम्राट।
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महापवित्र  : पुं० [सं० महत्-पवित्र, कर्म० स०] विष्णु।
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महापातक  : पुं० [सं० महत्-पातक, कर्म० स०] वह बहुत बड़ा तथा घोर पाप जिसके फल-भोग के लिए मनुष्य को नरक में जाना पड़ता है।
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महापातकी (किन्)  : पुं० [सं० महापातक+इनि] वह जिसने महापातक किया हो।
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महापातर  : पुं० =महापात्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महापात्र  : पुं० [सं० महत्-पात्र, कर्म० स०] १. वह ब्राह्मण जो मृत व्यक्ति का दाह कर्म करता है तथा उसके सम्बंधियों से श्राद्ध का दान लेता है। महाब्राह्मण २. महामन्त्री। महामात्य। पुं० [सं० महत्-पाद, ब० स०] शिव।
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महापाप  : पुं० [सं० महत्-पाप, कर्म० स०] बहुत बड़ा पाप। महापातक।
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महापालिका  : स्त्री० [महा नगरपालिका का संक्षिप्त रूप] १. प्रमुख तथा अधिक जनसंख्या वाले नगर की स्वायत्त शासनिक इकाई, जिसे नगरपालिका की अपेक्षा अधिक अधिकार प्राप्त होते हैं। (सिटी कारपोरेशन)। २. नगर-महापालिका द्वारा शासित भू- भाग।
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महापाली  : स्त्री०=महापालिका।
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महापाश  : पुं० [सं० महत्-पाश, ब० स०] पुराणानुसार एक प्रकार का यमदूत।
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महापाशुपत  : पुं० [सं० महत्-पाशुपत, कर्म० स०] १. शैवों का एक प्राचीन संप्रदाय जिसमें पशुपति की उपासना होती थी। २. बकुल। मौलसिरी।
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महापीठ  : पुं० [सं० महत्-पीठ, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा पीठ या पुण्यस्थान। जैसे—कामरूप किसी समय तांत्रिकों का महापीठ माना जाता था। २. वह पवित्र आधार या स्थान जहाँ किसी देवी, देवता की प्रतिमा प्रतिष्ठित हो। मूर्ति का आधार। ३. उन प्रसिद्ध स्थानों में से हर एक जहाँ सती के शव के अंग कटकर गिरे थे। ४. शंकर मठ। ५. कोई बहुत बड़ा स्थान।
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महापीलु  : पुं० [सं० महत्-पीलु, कर्म० स०] एक प्रकार का पीलु वृक्ष।
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महापुट  : पुं० [सं०] वैद्यक में भस्म, रस आदि तैयार करने की एक विधि।
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महापुण्य  : पुं० [सं० महत्-पुण्य, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा पुण्य। २. एक वोधिसत्व का नाम।
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महापुण्या  : स्त्री० [सं० महापुण्य+टाप्] एक नदी (पुराण)।
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महापुत्र  : पुं० [सं० महत्-पुत्र, कर्म० स०] पुत्र का पुत्र। पोता।
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महापुर  : पुं० [सं० महत्-पुर, कर्म० स०] १. प्राचीन काल में वह पुर या नगर जो प्राचीर से रक्षित होता था। २. एक प्राचीन तीर्थ।
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महापुराण  : पुं० [सं० महत्-पुराण, कर्म० स०] अठारह पुराणों में से एक जिसके रचयिता व्यास थे।
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महापुरी  : स्त्री० [सं० महती-पुरी, कर्म० स०] राजधानी।
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महापुरुष  : पुं० [सं० महत्-पुरुष, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा तथा उच्च विचारोंवाला पुरुष। २. नारायण। ३. व्यंग्यार्थ में दुष्ट व्यक्ति।
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महापुष्प  : पुं० [सं० महत्-पुष्प, ब० स०] १. कुंद का वृक्ष। २. काला मूँग। ३. लाल कनेर। ४. एक प्रकार का कीड़ा। (सुश्रुत)
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महापुष्पा  : स्त्री० [सं० महापुष्प+टाप्] अपराजिता (लता)।
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महापूजा  : स्त्री० [सं० महती-पूजा, कर्म० स०] आश्विन के नवरात्र में की जानेवाली दुर्गा की पूजा।
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महापृष्ठ  : पुं० [सं० महत्-पृष्ठ, ब० स०] ऊँट।
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महाप्रजापति  : पुं० [सं० महत्-प्रजापति, कर्म० स०] विष्णु।
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महाप्रतिहार  : पुं० [सं० महत्-प्रतिहार, कर्म० स०] १. प्राचीन काल का एक उच्च राजकर्मचारी जो आज-कल के कोतवाल के समान होता था। २. मुख्य द्वारपाल।
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महाप्रलय  : पुं० [सं० महत्-प्रलय, कर्म० स०] वह प्रलय जिसमें सब लोकों उनके निवासियों, देवताओं तथा ब्रह्मा का भी नाश हो जाता है।
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महाप्रशासक  : पुं० [सं० महत्-प्रशासक, कर्म० स०] वह प्रशासक जिसके निरीक्षण तथा अधीनता में अन्य प्रशासक काम करते हों। (ऐडमिनिस्ट्रेटर-जनरल)।
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महाप्रसाद  : पुं० [सं० महत्-प्रसाद, कर्म० स०] १. देवी-देवता को चढ़ाया हुआ प्रसाद। २. जगन्नाथ जी को चढ़ाया हुआ भात। ३. मांस आदि ऐसे खाद्य पदार्थ वैष्णव अखाद्य पदार्थ समझते हैं। (परिहास और व्यंग्य) ४. सिक्खों में पकाया हुआ मांस। महाप्रसाद।
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महाप्रस्थान  : पुं० [सं० महत्-प्रस्थान, कर्म० स०] १. प्राचीन काल में स्वर्गारोहण के उद्देश्य से महापथ के द्वारा की जानेवाली दुर्गम पर्वतों की यात्रा। २. मृत्यु। मौत।
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महाप्राण  : पुं० [सं० महत्-प्राण, ब० स०] व्याकरण के अनुसार ऐसा वर्ण जिसके उच्चारण में प्राण-वायु का विशेष व्यवहार करना पड़ता है। जैसे—क्, ख्, छ्, झ्, ठ्, ढ्, थ्, घ्, फ्, भ्, श्, ष्, स् और ह्।
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महाप्रुभु  : पुं० [सं० महत्-प्रभु, कर्म० स०] १. ईश्वर। २. शिव। ३. विष्णु। ४. इन्द्र। ५. राजा। ६. संन्यासी। ७. स्वामी बल्लभाचार्य। ८. चैतन्य।
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महाफल  : वि० [सं० महत्-फल, ब० स०] १. (वृक्ष) जिसमें बहुत अधिक फल लगतें हों। २. (कार्य) जिसका बहुत अच्छा और अधिक फल मिलता हो।
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महाफला  : स्त्री० [सं० महाफल+टाप्] कडुआ कद्दू।
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महाबकी  : स्त्री० [सं० महती-बकी, कर्म० स०] पूतना राक्षसी का एक नाम। उदाहरण—महाबकी जिमि आवति राति।—नंददास।
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महाबल  : वि० [सं० महत्-बल, ब० स०] १. अत्यन्त बलवान्। बहुत बड़ा शक्तिशाली। पुं० १. पित्तरों का एक गण। २. गौतम बुद्ध। ३. वायु। ४. शिव के एक अनुचर। ५. सीसा नामक धातु।
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महाबला  : स्त्री० [सं० महाबल+टाप्] १. सहदेवी नाम की जड़ी। पीली सहदेइया। २. पीतल। ३. धौ का पेड़। ४. नील का पौधा। ५. कार्तिकेय की एक मृतका। ६. एक बहुत बड़ी संख्या की संज्ञा।
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महाबली (लिन्)  : वि० [सं० महत्-बलिन, कर्म० स०] बहुत बड़ा बलवान्। पुं० मुगल सम्राट अकबर के लिए तत्कालीन दरबारियों आदि का एक सम्बोधन।
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महाबाहु  : वि० [सं० महत्-बाहु, ब० स०] १. लम्बी भुजाओंवाला। २. बलवान्। शक्तिशाली। पुं० १. विष्णु। २. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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महाबुद्धि  : वि० [सं० महती-बुद्धि, ब० स०] १. बहुत बुद्धिमान। २. चालाक। धूर्त्त। पुं० एक प्रकार का वैदिक छन्द।
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महाबोधि  : पुं० [सं०√बुध् (जानना)+इन्, महत्बोधि, कर्म० स०] १. महात्मा बुद्ध द्वारा अर्जित किया हुआ ज्ञान। २. बुद्धदेव।
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महाब्रती (तिन्)  : पुं० [सं० महाब्रत+इनि] १. वह जिसने महाव्रत धारण किया हो। २. शिव।
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महाब्राह्मण  : पुं० [सं० महत्-ब्राह्मण, कर्म० स०] १. महापात्र। (दे०) २. निकष्ट ब्राह्मण।
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महाभद्रा  : स्त्री० [सं० महत्-भद्र, ब० स०,+टाप्] १. गंगा। २. काश्मरी।
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महाभाग  : वि० [सं० महत्-भाग, ब० स०] महाभागी।
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महाभाग  : स्त्री० [सं० महाभागा+टाप्] कश्यप की पत्नी। अदिति। दाक्षायणी।
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महाभागवत  : पुं० [सं० महत्-भागवत, कर्म० स०] १. परम वैष्णव। २. पुराणानुसार ये बारह प्रसिद्ध भक्त-मनु, सनकादि, नारद, कपिल, जनक, ब्रह्मा, बलि, भीष्म, प्रह्लाद, शुकदेव, धर्मराज और शम्भु। ३. श्रीमद्भागवत पुराण। ४. एक प्राचीन छंद।
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महाभागी (गिन्)  : वि० [सं० महाभाग+इनि] अत्यन्त भाग्यवान्।
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महाभाट  : पुं० [सं० महत्-भाट, कर्म० स०] भाटों का एक वर्ग जो साधारण भाटों में उच्च माना जाता है।
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महाभारत  : पुं० [सं० महत्-भारत, कर्म० स० अथवा महाभार√तन्+ड] १. महर्षि व्यास-रचित एक प्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक महाकाव्य जिसमें कौरवों और पांडवों के युद्ध का वर्णन है, और जिसे हिन्दू अपना प्रामाणिक धर्मग्रन्थ मानते हैं। विशेष—यह १८ पर्वों में विभक्त है और इसमें प्रायः ८0 हजार से अधिक श्लोक हैं। इसमें तत्त्व-ज्ञान कर्म, राजनीति व्यवहार आदि के संबंध की भी बहुत सी-अच्छी बातें हैं। कहते हैं कि पहले इसका नाम ‘जय’ काव्य था बाद में वेशम्पायन ने इसे कुछ बढ़ाकर इसका नाम ‘भारत’ रखा और तब भौति ने इसमें बहुत सी कथाएँ तथा बातें बढ़ाकर इसे वर्तमान रुप दिया और इसे ‘महाभारत’ नाम दिया। २. कौरवों और पांडवों का वह बहुत बड़ा युद्ध जिसका वर्णन उक्त ग्रन्थ में हुआ है। ३. कोई बहुत बड़ा युद्ध या लड़ाई-झगड़ा। ४. कोई बहुत बड़ा और विस्तृत विवरणवाला ग्रन्थ।
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महाभाव  : पुं० [सं० महत्-भाव, कर्म० स०] वैष्णव धर्म में ईश्वर का वह चरम रूप जो स्नेह, मान, प्रणय राग और अनुराग की अवस्था पार कर चुकने पर प्राप्त होता है।
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महाभाष्य  : पुं० [सं० महत्-भाष्य, कर्म० स०] पाणिनी कृत अष्टाध्यायी पर लिखा हुआ पतंजलि का भाष्य ग्रन्थ।
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महाभिक्षु  : पुं० [सं० महत्-भिक्षु, कर्म० स०] भगवान् बुद्ध।
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महाभियोग  : पुं० [सं० महत्-अभियोग, कर्म० स०] राज्य के किसी प्रमुख विशेषतः सर्वप्रमुख शासनिक अधिकारी पर चलाया जानेवाला मुकदमा। (इम्पीचमेंट)।
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महाभिषव  : पुं० [सं० महत्-भिषव, कर्म० स०] सोमरस।
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महाभीत  : पुं० [सं० महत्-भीत, कर्म० स०] १. राजा शांतनु का एक नाम। २. भृंगी (द्वारपाल)।
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महाभीता  : स्त्री० [महाभीत+टाप्] लाजवंती। लज्जालु।
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महाभीम  : पुं० [सं० महत्-भीम, कर्म० स०] १. राजा शांतनु का एक नाम। २. शिव का भृंगी नामक द्वारपाल। वि० अत्यन्त भयंकर।
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महाभीरू  : पुं० [सं० महत्-भीरू, कर्म० स०] ग्वालिन नाम का बरसाती कीड़ा। वि० बहुत अधिक डरपोक।
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महाभीष्म  : पुं० [सं० महत्-भीष्म, कर्म० स०] राजा शांतनु का एक नाम।
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महाभुज  : वि० [सं० महत्-भुजा०, स] आजानुबाहु।
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महाभूत  : पुं० [सं० महत्-भूत, कर्म० स०] १. भारतीय दर्शन में पृथ्वी आकाश, जल आदि पाँचों तत्त्व या भूत। २. आधुनिक विज्ञान में वह मूल तत्त्व या परम द्रव्य जो सभी तत्वों या भूतों में समान रूप से पाया जाता है और उन सबका मूल कारण है। (मैटर)
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महाभूमि  : स्त्री० [सं० महती-भूमि, कर्म० स०] प्राचीन भारत में वह भूमि जो सार्वजनिक उपयोग में आती थी और जिस पर किसी व्यक्ति-विशेष का अधिकार नहीं होता था। (पब्लिक प्लेस)
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महाभृगं  : पुं० [सं० महत्-भृंग, कर्म० स०] नीले फूलोंवाला भंगरा।
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महाभैरव  : पुं० [सं० महत्-भैरव, कर्म० स०] शिव।
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महाभैरवी  : स्त्री० [सं० महती-भैरवी, कर्म० स०] तांत्रिकों की एक विद्यादेवी।
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महाभोग  : पुं० [सं० महत्-भोग, कर्म० स०] १. अत्यन्त भोग। २. [ब० स०] साँप।
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महाभोगा  : स्त्री० [सं० महाभोग+टाप्] दुर्गा।
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महाभोगी (गिन्)  : पुं० [सं० महाभोग+इनि] बड़े फनवाला साँप।
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महाभोज  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में विदर्भ से महीशूर (मैसूर) तक के बड़े-बड़े राजाओं की उपाधि।
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महामंडल  : पुं० [सं० महत्-मंडल, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा मंडल। २. वह मंडल जिसके अधीनस्थ अन्य मंडल हों।
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महामणि  : पुं० [सं० महत्-मणि, कर्म० स०] अत्यन्त बहुमूल्य रत्न।
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महामति  : वि० [सं० महती-मति, ब० स०] बहुत बड़ा बुद्धिमान। पुं० १. गणेश। २. एक बोधिसत्व।
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महामंत्र  : पुं० [सं० महत्-मंत्र, कर्म० स०] १. वेद का कोई मंत्र। २. वह मंत्र जो अपना प्रभाव या पल अवश्य दिखलाता हो। ३. अच्छा और बढ़िया परामर्श या सलाह।
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महामंत्री (त्रिन्)  : पुं० [सं० महत्-मंत्रिन्, कर्म० स०] १. सबसे बड़ा मंत्री। २. प्राचीन काल में राज्य या साम्राज्य का प्रधान मंत्री।
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महामत्स्य  : पुं० [सं० महत्-मत्स्य, कर्म० स०] बहुत बड़ी मछली।
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महामद  : पुं० [सं० महत्-मद, ब० स०] मस्त हाथी।
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महामना (नस्)  : वि० [सं० महत्-मानस, ब० स०] जिसका मन या अन्तःकरण बहुत उच्च स्तर पर या और सब प्रकार से शुद्ध हो। उदारचित्त। जैसे—महामना मालवीय जी।
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महामह  : पुं० [सं० महत्-मह, कर्म० स०] महोत्सव।
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महामहिम (न्)  : वि० [सं० महत्-महिमन्, कर्म० स०] जिसकी महिमा बहुत अधिक हो। विशेष—इसका प्रयोग आज-कल अग्रेंजी के ‘हिज एक्सलेन्सी’ की तरह या उसके स्थान पर होने लगा है।
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महामहोपाध्या  : पुं० [सं० महत्-महोपाध्याय, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा गुरु, पंडित या विद्वान। २. एक उपाधि जो अंगरेजी शासन में संस्कृत के प्रकांड पंडितों को दी जाती थी।
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महामाई  : स्त्री० [सं० महा+हिं० माई] १. दुर्गा। २. काली।
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महामात्य  : पुं० [सं० महत्-अमात्य, कर्म० स०] महामंत्री।
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महामात्र  : पुं० [सं० महती-मात्रा, ब० स०] [स्त्री० महामात्री] १. प्राचीन भारत में, एक प्रकार का उच्चपदस्थ राजकीय अधिकारी। २. महामंत्री। ३. महावत। वि० १. बड़ा। २. उच्च कोटि का। ३. धनवान्।
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महामान्य  : वि०, [सं० महत्-मान्य, कर्म० स०] बहुत अधिक माननीय।
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महामाय  : वि० [सं० महती-माया, ब० स०] अत्यन्त मायावी। पुं० १. शिव। २. विष्णु।
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महामाया  : स्त्री० [सं० महती-माया, कर्म० स०] १. वह सांसारिक भ्रम जिसके फलस्वरूप यह मिथ्या जगत् वास्तविक सा प्रतीत होता है। २. प्रकृति। ३. दुर्गा। ४. गंगा। ५. गौतम बुद्ध की माता। ६. एक छंद। पुं० विष्णु। वि० मायावी।
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महामारी  : स्त्री० [सं० महत्√मृ (मरना)+णिच्+अण्+ङीष्] १. ऐसा संक्रामक रोग जिससे बहुत अधिक लोग मरें। मरक। मरी। (एपिडेमिक) जैसे—हैजा, चेचक आदि। २. महाकाली का एक नाम।
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महामारी विज्ञान  : पुं० [सं०] वह आधुनिक विज्ञान जिसमें इस बात का विचार होता है कि मरक या महामारियाँ किन कारणों से और कैसे फैलती है और उन्हें कैसे रोका या कम किया जा सकता है। (एपिडेमियालोजी)
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महामार्ग  : पुं० [सं० महत्-मार्ग, कर्म० स०] बहुत बड़ा मार्ग या रास्ता। वह बहुत बड़ा या लम्बा रास्ता जिस पर से होकर कोई चीज आती जाती हो। जैसे—गंगा या यमुना का महामार्ग। २. परलोक या स्वर्ग का रास्ता। महापथ। (दे०)
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महामाल  : पुं० [सं० महती-माला, ब० स०] शिव।
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महामालिनी  : स्त्री० [सं० महती-मालिनी, कर्म० स०] नाराच (छंद)।
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महामाष  : पुं० [सं० महत्-माष, कर्म० स०] बड़ा उड़द।
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महामांस  : पुं० [सं० महत्-मांस, कर्म० स०] १. गौ का कोश्त। गोमांस। २. मनुष्य का मांस।
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महामुख  : पुं० [सं० महत्-मुख, ब० स०] १. घड़ियाल। २. नदी का मुहाना। ३. शिव।
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महामुद्रा  : स्त्री० [सं० महती-मुद्रा, कर्म० स०] १. योग-साधना में एक विशिष्ट प्रकार की मुद्रा या अंगों की स्थिति। २. तांत्रिक उपासना में वह सिद्ध योगिनी जिसे साधक अपनी सहचरी बनाकर साधना करता है। कहते हैं कि महामुद्रा की साधना कर लेने पर साधक सब प्रकार के बाह्म अनुष्ठानों से मुक्त हो जाता है। ३. बौद्ध तांत्रिकों के अनुसार भगवती नैरात्मा जिसकी उपासना परम सुखद कही गयी है और जिसकी साधना में सफल होने पर ही साधक की गिनती सिद्धाचार्यों में होती है। ४. एक बहुत बड़ी संख्या की संज्ञा।
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महामुनि  : पुं० [सं० महत्-मुनि, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा और मुनियों में श्रेष्ठ मुनि। जैसे—अगस्त्य, व्यास आदि। २. गौतम बुद्ध। ३. कृपाचार्य। ४. काल। ५. एक जिन देव। ६. तुम्बुरु नामक वृक्ष।
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महामूर्ति  : स्त्री० [सं० महती-मूर्ति, ब० स०] १. विष्णु। २. न्यायमूर्ति।
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महामूल  : पुं० [सं० महत्-मूल, कर्म० स०] प्याज।
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महामूल्य  : पुं० [सं० महत्-मूल्य, ब० स०] माणिक। वि० १. बहुमूल्य। कीमती। २. महँगा।
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महामृग  : पुं० [सं० महत्-मृग, कर्म० स०] १. सबसे बड़ा पशु, हाथी। २. बहुत बड़ा पशु। ३. शरम।
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महामृत्युंजय  : पुं० [सं० महत्-मृत्युंजय, कर्म० स०] १. शिव। २. शिव का अकाल-मृत्यु-निवारक एक मंत्र। ३. एक औषधि।
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महामेद  : पुं० [सं० महत्-मेद, कर्म० स०] महामेदा।
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महामेदा  : स्त्री० [सं० महामेदा+टाप्] एक प्रकार का कंद जो देखने में अदरक के समान होता है।
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महामेध  : पुं० [सं० महती-मेधा, ब० स०] शिव।
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महामेधा  : स्त्री० [सं० महामेध+टाप्] दुर्गा।
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महामोह  : पुं० [सं० महत्-मोह, कर्म० स०] अत्यन्त या घोर मोह।
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महामोहा  : स्त्री० [सं० महामोह+अच्+टाप्] दुर्गा।
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महाय  : वि० [सं० महा] १. बहुत बड़ा। महान्। २. बहुत अधिक महा। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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महायक्ष  : पुं० [सं० महत्-यक्ष, कर्म० स०] १. यक्षों का राजा। २. एक प्रकार के बौद्ध देवता।
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महायज्ञ  : पुं० [सं० महत्-यज्ञ, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा यज्ञ। २. हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार नित्य किये जानेवाले पाँच प्रमुख धार्मिक कर्म। पंचयज्ञ।
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महायम  : पुं० [सं० महत्-यम, कर्म० स०] यमराज।
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महायात्रा  : स्त्री० [सं० महती-यात्रा, कर्म० स०] मृत्यु।
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महायान  : पुं० [सं० महत्-यान, कर्म० स०] १. उत्तम, प्रशस्त और श्रेष्ठ मार्ग। २. बौद्ध धर्म की वह भक्ति प्रधान शाखा या सम्प्रदाय जो हीनयान की तुलना में बहुत श्रेष्ठ माना जाता था और जिसका आरम्भ सम्भवतः कनिष्क के समय हुआ था। इसमें उदारता, परोपकार, सदाचार आदि तत्त्वों की प्रधानता थी। बोधिसत्व की भावना और बुद्ध भगवान् की प्रतिमाएँ बनाकर उनकी पूजा करने की प्रणाली इसी मत से निकली थी। यह नामकरण बौद्धों की पूर्वी शाखा ने किया था।
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महायानी (निन्)  : वि० [सं० महायान+इनि] महायान सम्बन्धी। महायान का। पुं० महायान मत या सम्प्रदाय का अनुयायी।
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महायुग  : पुं० [सं० महत्-युग, कर्म० स०] चारों ओर का समूह। चौकड़ी।
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महायुत  : पुं० [सं० महत्-अयुत, कर्म० स०] सौ अयुत की संख्या की संज्ञा।
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महायुद्ध  : पुं० [सं० महत्-युद्ध, कर्म० स०] बहुत बड़े तथा व्यापक भू-भाग में लड़ा जानेवाला ऐसा युद्ध जिमसें अनेक राष्ट्र सम्मिलित हों और जिसमें बहुत अधिक नर-संहार तथा विनाश हो। (ग्रेट बार)। जैसे—प्रथम या द्वितीय महायुद्ध।
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महायुध  : पुं० [सं० महत्-आयुध, ब० स०] शिव।
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महायोगी (गिन्)  : पुं० [महत्-योगिन्, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा योगी। २. शिव। ३. विष्णु। ४. मुर्गा।
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महायोगेश्वर  : पुं० [सं० महत्-योगेश्वर, कर्म० स०] पितामह, पुलस्त्य वसिष्ठ पुलह अंगिरा ऋतु और कश्यप जो बहुत बड़े ऋषि और योगी माने गये हैं।
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महायोगेश्वरी  : स्त्री० [सं० महती-योगेश्वरी, कर्म० स०] १. दुर्गा। नागदौन।
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महायोजन  : पुं० [सं० महत्-आयोजन, कर्म० स०] बहुत बड़ा आयोजन। महत् आयोजन।
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महायोनि  : स्त्री० [सं० महती-योनि, कर्म० स० या ब० स०] योनि के अधिक फैलने का एक रोग (वैद्यक)।
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महार  : स्त्री०=मुहार (ऊँट की नकेल)।
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महारक्त  : पुं० [सं० महत्-रक्त, कर्म० स०] मूँगा।
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महारजत  : पुं० [सं० महत्-रजत, कर्म० स०] १. सोना। २. धतूरा।
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महारजन  : पुं० [महत्-रजन्, कर्म० स०] १. कुसुम का फूल। २, सोना। स्वर्ण।
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महारण्य  : पुं० [सं० महत्-अरण्य, कर्म० स०] बहुत बड़ा या भारी जंगल।
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महारत  : स्त्री० [फा०] १. हस्तकौशल। २. निपुणता। ३. अभ्यास।
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महारत्न  : पुं० [सं० महत्-रत्न, कर्म० स०] मोती, हीरा, वैदूर्य्य, पद्यराग, गोमेद, पुष्पराग, पन्ना, मूँगा और नीलम इन नौ रत्नों में से हर एक।
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महारथ  : पुं० [सं० महत्-रथ, ब० स०] महारथी।
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महारथी (थिन्)  : पुं० [महत्-रथिन्, कर्म० स०] प्राचीन भारत में वह बहुत बड़ा योद्धा जो अकेला दस हजार योद्धाओं से लड़ सकने में समर्थ माना जाता था।
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महारथ्या  : स्त्री० [सं० महती-रथ्या, कर्म० स०] चौड़ी और बड़ी सड़क।
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महारनी  : स्त्री०=मुहारनी।
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महारंभ  : वि० [सं० महत्-आरंभ, ब० स०] १. बहुत बड़े काम का श्रीगणेश करनेवाला। २. बड़ा काम।
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महारस  : पुं० [सं० महत्-रस, ब० स०] १. काँजी। २. ऊख। ३. खजूर। ४. कसेरू। ५. जामुन। ६. पारा। ७. अभ्रक। ८. ईगुर। ९. कांतिसार लोहा। १॰. सोना-मक्खी। ११. रूपा-मक्खी।
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महाराग  : पुं० [सं० महत्-राग, कर्म० स०] वज्रयानी तांत्रिक साधना में वह राज या परम अनुराग जो साधक के मन में महामुद्रा के प्रति होता है। कहते हैं कि बिना इस प्रकार का राग उत्पन्न हुए इस जन्म में बोधि की प्राप्ति असम्भव होती है।
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महाराज  : पुं० [सं० महत्-राजन्, कर्म० स०] [स्त्री० महारानी] १. बहुत बड़ा राजा। अनेक राजाओं का प्रधान राजा। २. गुरु, धर्माचार्य पूज्य ब्राह्मण आदि के लिए सम्बोधन सूचक पद। ३. भोजन बनाने वाला ब्राह्मण रसोइया। ४. अंगरेजी शासनकाल में बड़े राजाओं को दी जानेवाली उपाधि।
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महाराजाधिराज  : पुं० [सं० महत्-राजधिराज, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा राजा। २. अंगरेजी शासन में एक प्रकार की उपाधि जो प्राय बड़े राजाओं को मिलती थी।
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महाराजिक  : पुं० [सं० महती-राजि, ब०स०+कप्] एक प्रकार के देवता जिनकी संख्या कहीं २२६ और कहीं ४000 कही गई है।
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महाराज्ञी  : स्त्री० [सं० महती-राज्ञी, कर्म० स०] १. दुर्गा। २. महारानी।
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महाराज्य  : पुं० [सं० महत्-राज्य, कर्म० स०] बहुत बड़ा राज्य। साम्राज्य।
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महाराज्यपाल  : पुं० [सं० महत्-राज्यपाल, कर्म० स०] किसी बहुत बड़े देश या राज्य के द्वारा नियुक्त वह सबसे बड़ा अधिकारी जिसके अधीन कई प्रांतीय या प्रादेशिक राज्यपाल हों। (गवर्नर जनरल)।
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महाराणा  : पुं० [सं० महा+हिं० राणा] मेवाड०, चित्तौर और उदयपुर के राजाओं की उपाधि।
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महारात्रि  : स्त्री० [सं० महती-रात्रि, कर्म० स०] १. महाप्रलवाली रात, जबकि ब्रह्मा का लय हो जाता है। २. तांत्रिकों के अनुसार ठीक आधी रात बीतने पर दो मुहुर्तों का समय जो बहुत ही पवित्र मसझा जाता है। ३. दुर्गा।
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महारावण  : पुं० [सं० महत्-रावण, कर्म० स०] पुराणानुसार वह रावण जिसके हजार मुख और दो हजार भुजाएँ थीं।
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महारावल  : पुं० [सं० महा+हिं० रावल] जैसलमेर, डूँगरपुर आदि राज्यों के राजाओं की उपाधि।
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महाराष्ट्र  : पुं० [सं० महत्-राष्ट्र, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा राष्ट्र। २. दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध प्रदेश जो अब भारत का एक राज्य है तथा जिसकी राजधानी बम्बई है। ३. उक्त राज्य का निवासी। मराठा।
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महाराष्ट्री  : स्त्री० [सं० महाराष्ट्र+अच्+ङीप्] १. मध्ययुग में एक प्रकार की प्राकृत भाषा जो महाराष्ट्र देश में बोली जाती थी। २. दे० ‘मराठी’। ३. जल-पीपल।
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महाराष्ट्रीय  : वि० [सं० महाराष्ट्र+छ-ईय] महाराष्ट्र-सम्बन्धी। महाराष्ट्र का।
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महारुद्र  : पुं० [सं० महत्-रुद्र, कर्म० स०] शिव।
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महारुरु  : पुं० [सं० महत्-रुरु, कर्म० स०] मृगों की एक जाति।
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महारूख  : पुं० [सं० महावृक्ष] १. सेंहुड़। थूहर। २. एक प्रकार का सुन्दर जंगली वृक्ष।
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महारूप  : पुं० [सं० महत्-रूप, ब० स०] शिव।
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महारूपक  : पुं० [सं० महत्-रूपक, कर्म० स०] साहित्य में रूपक या नाटक का एक प्रकार या भेद।
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महारोग  : पुं० [सं० महत्-रोग, कर्म० स०] बहुत बड़ा प्रायः असाध्य रोग।
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महारोगी (गिन्)  : वि० [सं० महत्-रोगिन्] किसी महारोग से पीड़ित।
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महारौद्र  : पुं० [सं० महत्-रौद्र, कर्म० स०] १. शिव। २. बाइस मात्राओं वाले छन्दों की सामूहिक संज्ञा।
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महारौरव  : पुं० [सं० महत्-रौरव, कर्म० स०] १. पुराणानुसार एक नरक का नाम। २. एक प्रकार का साम।
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महार्घ  : वि० [सं० महत्-अर्घ, ब० स०] [भाव० महार्घता] १. बहुमूल्य। २. महँगा।
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महार्घता  : स्त्री० [सं० महार्घ+तल्+टाप्] महार्घ होने की अवस्था या भाव।
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महार्घ्य्  : वि० =महार्घ।
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महार्णव  : पुं० [सं० महत्-अर्णव, कर्म० स०] १. महासागर। २. शिव। ३. पुराणानुसार एक दैत्य जिसे भगवान् ने कूर्म अवतार में अपने दाहिने पैर से उत्पन्न किया था।
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महार्द्रक  : पुं० [सं० महत्-आर्द्रक, कर्म० स०] १. जंगली अदरक। २. सोंठ।
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महार्बुद  : पुं० [सं० महत्-अबुर्द, कर्म० स०] सौ करोड़ की संख्या।
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महार्ह  : पुं० [सं० महत्-अर्ह, ब० स०] सफेद चन्दन। वि० =महार्घ।
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महाल  : पुं० [अ० महल का बहु० रूप] १. महल्ला। टोला। २. कोई ऐसी चीज या जगह जिसमें एक ही तरह के बहुत से जीव एक साथ रहते हों जैसे—शहद की मक्खियों का महाल अर्थात् छत्ता। ३. जमीन के बन्दोबस्त के काम के लिए किया हुआ जमीन का ऐसा विभाग, जिसमें कई गाँव होते हैं। ४. मध्य युग में ऐसी जमींदारी जिसमें बहुत सी पट्टियाँ या हिस्सेदार होते थे। वि० =मुहाल (बहुत कठिन या दुष्कर)।
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महालक्ष्मी  : स्त्री० [सं० महती-लक्ष्मी, कर्म० स०] १. लक्ष्मी देवी की एक मूर्ति। २. एक कन्या जो दुर्गापूजा के उत्सव में दुर्गा का रूप धारण करती हैं। ३. नारायण की एक शक्ति। ४. एक प्रकार का वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन रगण होते हैं।
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महालय  : पुं० [सं० महत्-आलय, कर्म० स०] १. महाप्रलय। २. पितृपक्ष। ३. तीर्थ। ४. नारायण।
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महालया  : स्त्री० [सं० महालय+टाप्] आश्विन् कृष्ण अमावस्या, यह पितृ-विसर्जन का दिन है।
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महालिंग  : पुं० [सं० महत्-लिंग, ब० स०] महादेव।
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महालेखापाल  : पुं० [सं० महत्-लेखापाल, कर्म० स०] वह लेखपाल जिसकी अधीनता तथा निरीक्षण में अन्य लेखपाल विशेषतः किसी सार्वजनिक विभाग के सब लेखपाल काम करते हों। (अकाउंटेंट जनरल)।
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महालोक  : पुं० [सं० महत्-लोक, कर्म० स०]ऊपर से सात लोकों में से चौथा लोक। महालोक।
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महालोध्र  : पुं० [सं० महत्-लोध्र, कर्म० स०] पठानी लोध।
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महालोल  : पुं० [सं० महत्-लोल, कर्म० स०] कौआ।
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महालौह  : वि० [सं० महत्-लौह, कर्म० स०] चुम्बक।
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महावक्ष (क्षस्)  : पुं० [सं० महत्-वक्षस्, ब० स०] महादेव।
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महावट  : पुं० [सं० महत्-वट, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा वट वृक्ष। २. पुराणानुसार एक वट वृक्ष जिसके साथ मनु ने प्रलयकाल में नौका बाँधी थी। स्त्री० [हिं० माघ+वट (प्रत्यय)] माघ के महीने में होनेवाली वर्षा।
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महावत  : पुं० [सं० महापात्र] हाथीवान्। फीलवान।
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महावन  : पुं० [सं० महत्-वन, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा वन या जंगल २. वृन्दावन के अंतर्गत एक वन।
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महावर  : पुं० [सं० महावर्ण] लाख से तैयार किया जानेवाला एक तरह का गहरा चटकीला लाल रंग जिससे स्त्रियाँ अपने पैर चित्रित करती तथा तलुए रंगती हैं।
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महावराह  : पुं० [सं० महत्-वराह, कर्म० स०] विष्णु का तीसरा अवतार जिससे उन्होंने वाराह रूप धारण किया था।
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महावरी  : वि० [हिं० महावर] १. महावर संबधी। २. महावर के रंग का। स्त्री० वह छोटा फाहा जिससे पैरों में महावर लगाया जाता है।
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महावरेदार  : वि० =मुहावरेदार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महावल्ली  : स्त्री० [सं० महत्-वल्ली, कर्म० स०] माधवी (लता)।
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महावस  : पुं० [सं० महती-वसा, ब० स०] १. मगर। २. सूँस।
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महावस्त्र  : पुं० [सं०] १. सब कपड़ों के ऊपर अबा, कबा आदि की तरह पहना जानेवाला वह कपड़ा जो साधारण कपड़ों से अधिक चौड़ा तथा लम्बा होता है। और किसी बहुत बड़े अधिकार, पद आदि का सूचक होता है। (रोब)। २. दे० ‘खिलअत’।
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महावाक्य  : पुं० [सं० महत्-वाक्य, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा वाक्य। कोई महत्त्वपूर्ण वाक्य या मंत्र। जैसे—सोऽहं, तत्त्वमसि आदि। ३. दान देते समय पढ़ा जानेवाला मन्त्र या संकल्प।
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महावाणिज्यदूत  : पुं० [सं० महत्-वाणिज्यदूत, कर्म० स०] किसी देश का वह वाणिज्य दूत जो किसी अन्य देश की राजधानी में रहता हो और जो उस देश में स्थित अपने यहाँ के अन्य वाणिज्य दूतों का प्रधान हो। (काँन्सल-जनरल)।
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महावात  : पुं० [सं० महत्-वात, कर्म० स०] बहुत जोरों से या तेज चलनेवाली हवा। जैसे—झंझा तूफान प्रवात आदि।
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महावाद  : पुं० [सं० महत्-वाद, कर्म० स०] महत्त्वपूर्ण वाद-विवाद। शास्त्रार्थ।
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महावादी (दिन्)  : वि० [सं० महावाद+इनि] महावाद-संबंधी। पुं० वह जो शास्त्रार्थ करता हो।
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महावारुणी  : स्त्री० [सं० महत्-वारुणी, कर्म० स०] गंगा-स्नान का एक पर्व या योग जो शनिवार के दिन चैत्र कृष्ण त्रयोदशी पड़ने पर होता है।
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महावाहन  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक बहुत बड़ी संख्या की संज्ञा।
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महाविक्रम  : पुं० [सं० महत्-विक्रम, ब० स०] सिंह। शेर। वि० बहुत बड़ा बलवान या विक्रमी।
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महाविद्या  : स्त्री० [सं० महती-विद्या, कर्म० स०] १. इन दस देवियों में से हर एक-काली, तारा, षोड़षी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मांतगी और कमलात्मिका। (तंत्र)। २. दुर्गा। ३. गंगा।
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महाविद्यालय  : पुं० [सं० महत्-महाविद्यालय, कर्म० स०] वह बड़ा विद्यालय जिसमें ऊँची कक्षाओं की पढ़ाई होती है। (कालेज)
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महाविद्येश्वरी  : स्त्री० [सं० महती-विद्येश्वरी, कर्म० स०] दुर्गा की एक मूर्ति या रूप।
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महाविभूति  : पुं० [सं० महती-विभूति, ब० स०] विष्णु।
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महाविल  : पुं० [सं० महत्-विल, कर्म० स०] १. आकाश। २. अंतःकरण।
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महाविष  : पुं० [सं० महत्-विष, ब० स०] वह बहुत अधिक जहरीला सांप जिसके काटते ही मृत्यु हो जाय।
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महाविषुव  : पुं० [सं० महत्-विषुव, कर्म० स०] सूर्य के मीन से मेष राशि में प्रवेश करने का समय।
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महावीचि  : पुं० [सं० महत्-वीचि, ब० स०] मनु के अनुसार एक नरक का नाम।
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महावीर  : वि० [सं० महत्-वीर, कर्म० स०] बहुत बड़ा वीर। पुं० १. हनुमान जी। २. शेर। सिंह। ३. गरुड़। ४. देवता। ५. वज्र। ६. घोड़। ७. बाज नामक पक्षी। ८. मनु के पुत्र मरवानल का एक नाम। ९. गौतम बुद्ध। १॰. रानी त्रिशला के गर्भ से उत्पन्न राजा सिद्धार्थ के पुत्र जो जैनियों के चौबीसवें और अंतिम जिन या तीर्थंकर माने जाते हैं।
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महावीर-चक्र  : पुं० [मध्य० स०] स्वतंत्र भारत में सेना के किसी वीर को रणभूमि में असामान्य वीरता दिखाने पर केन्द्रीय पदक या राष्ट्रपति की ओर से दिया जानेवाला एक विशेष पदक जो परमवीर चक्र से कुछ घटकर माना जाता है।
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महावीर्य  : पुं० [सं० महत्-वीर्य, ब० स०] १. ब्रह्मा। २. एक बुद्ध का नाम। ३. जैनियों के एक अर्हत्। ४. तामस शौच्य मन्वंतर के एक इंद्र। ५. वाराही कंद।
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महावीर्या  : पुं० [सं० महावीर्य+टाप्] १. सूर्य की पत्नी संज्ञा का एक नाम। २. महा-शतावरी। ३. वन-कपास।
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महावृक्ष  : पुं० [सं० महत्-वृक्ष, कर्म० स०] १. सेंहुड़। २. करंज। ३. ताड़। ३. महापीलु।
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महावेग  : पुं० [सं० महत्-वेग, ब० स०] १. शिव। २. गरुड।
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महावेगा  : स्त्री० [सं० महावेग+टाप्] स्कंद की अनुचरी एक मातृका।
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महाव्याधि  : स्त्री० [सं० महत्-व्याधि, कर्म० स०] बहुत कठिन और प्रायः अचिकित्स्य रोग।
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महाव्याहृति  : स्त्री० [सं० महती-व्याह्रति, कर्म० स०] ऊपर स्थित भूःभ्रुव और स्वः इन तीनों लोकों का समाहार।
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महाव्योम  : पुं० [सं० महत्-व्योमन, कर्म० स०] वह सारा अनन्त व्योम जिसमें सारा ब्रह्मांड स्थित है। (फर्मामेन्ट)
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महाव्रण  : पुं० [सं० महत्-व्रण, कर्म० स०] १. कभी अच्छी न होनेवाला व्रण। २. नासूर।
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महाव्रत  : पुं० [सं० महत्-व्रत, कर्म० स०] १. ऐसा व्रत जो लगातार १२ वर्षों तक चलता रहे। २. आश्विन की दुर्गा पूजा या नवरात्र।
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महाशक्ति  : स्त्री० [सं० महती-शक्ति, कर्म० स०] १. विश्व की रचना या सृष्टि करनेवाली मूल शक्ति। २. दुर्गा का एक नाम। ३. प्रकृति। ४. आज-कल कोई बहुत बड़ा या परम प्रबल राष्ट्र जिसकी सैनिक शक्ति बहुत बड़ी हो। (ग्रेट पावर) पुं० १. कार्तिकेय। २. शिव।
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महाशंख  : पुं० [सं० महत्-शंख, कर्म० स०] १. बहुत बड़ा शंख। २. ललाट। ३. कनपटी की हड्डी। ४. मनुष्य की ठठरी। ५. कुबेर की नौ निधियों में से एक निधि। ६. एक प्रकार का साँप। ७. सौ शंख की संख्या की संज्ञा।
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महाशठ  : पुं० [सं० महत्-शठ, कर्म० स०] पीला धतूरा।
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महाशतावरी  : स्त्री० [सं० महती-शतावरी, कर्म० स०] बड़ी शतावरी। सतावर।
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महाशय  : पुं० [सं० महत्-आश्रय, ब० स०] १. उच्च और दार आशयों, या विचारों वाला व्यक्ति। सज्जन। (प्रायः भले आदमियों के नामों के साथ आदरार्थक प्रयुक्त। २. समुद्र। सागर।
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महाशय्या  : स्त्री० [सं० महती-शय्या, कर्म० स०] १. राजाओं के सोने की शय्या। २. सिंहासन।
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महाशल्क  : पुं० [सं० महत्-शल्क, ब० स०] झींगा। मछली।
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महाशाखा  : स्त्री० [सं० महती-शाखा, ब० स०] नागबला।
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महाशासन  : पुं० [सं० महत्-शासन, कर्म० स०] १. ऐसी आज्ञा जिसका पालन अनिवार्य हो। २. राजा का वह मंत्री जो उसकी आज्ञाओं या दानपत्रों आदि का प्रचार करता हो।
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महाशिव  : पुं० [सं० महत्-शिव, कर्म० स०] महादेव।
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महाशीता  : स्त्री० [सं० महती-शीता, कर्म० स०] शतमूली।
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महाशुक्ति  : स्त्री० [सं० महती-शुक्ति, कर्म० स०] सीपी।
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महाशुक्ला  : स्त्री० [सं० महती-शुक्ला, कर्म० स०] सरस्वती। (देवी)
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महाशुभ्र  : पुं० [सं० महत्-शुम्र, कर्म० स०] चाँदी।
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महाशून्य  : पुं० [सं० महत्-शून्य, कर्म० स०] आकाश।
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महाशोण  : पुं० [सं० महत्-शोण, कर्म० स०] सोन (पद)।
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महाश्मशान  : पुं० [सं० महत्-श्मशान, कर्म० स०] काशी नगरी। विशेष—ऐसा कहा जाता है कि काशी के मणिकर्णिका घाट पर चौबीसों घंटे एक न एक शव जलता रहता है।
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महाश्रावणिका  : स्त्री० [सं० महती-श्रावणिका, कर्म० स०] गोरखमुंडी।
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महाश्वास  : पुं० [सं० महत्-श्वास, कर्म० स०] १. एक प्रकार का श्वास रोग। २. मरने के समय का अन्तिम श्वास।
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महाश्वेता  : स्त्री० [सं० महती-श्वेता, कर्म० स०] १. सरस्वती (देवी)। २. दुर्गा। ३. सफेद शक्कर। ४. सफेद अपराजिता।
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महाषष्ठी  : स्त्री० [सं० महती-षष्ठी, कर्म० स०] १. दुर्गा। २. सरस्वती। (देवी)।
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महाष्टमी  : स्त्री० [सं० महती-अष्टमी, कर्म० स०] आश्विन शुक्ला अष्टमी।
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महासत्ता  : स्त्री० [सं० महती-सत्ताकर्म० स०] एक विश्व व्यापिनी। सत्ता। (जैन)।
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महासत्त्व  : पुं० [सं० महत्-सत्त्व, ब० स०] १. कुबेर। २. शाक्य मुनि। ३. एक बोधिसत्व।
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महासन  : पुं० [सं० महत्-आसन, कर्म० स०] सिंहासन।
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महासभा  : स्त्री० [सं० महती-सभा, कर्म० स०] १. कोई बहुत बड़ी सभा। २. हिन्दू महासभा नामक एक भारतीय दल। ३. राष्ट्र-संघ के तत्वावधान में होनेवाली वह सभा जिसमें सम्बद्ध समस्त राष्ट्र के प्रतिनिधि सम्मिलित होते हैं।
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महासभाई  : पुं० [सं० महासभा+हिं०, आई (प्रत्यय)] (हिन्दू) महासभा (दल)। का सदस्य या कार्यकर्ता।
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महासमुद्र  : पुं० [सं०] प्रादेशिक समुद्र को छोड़कर शेष समुद्र का वह सारा विस्तार जिमसें सभी देशों के जहाज बिना रोक-टोक आ-जा सकते हैं। (हाई सी)
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महासर्ग  : पुं० [सं० महत्-सर्ग, कर्म० स०] प्रलय के उपरान्त होनेवाली सृष्टि।
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महासर्ज  : पुं० [सं० महत्-सर्ज, कर्म० स०] कटहल का वृक्ष।
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महासंस्कार  : पुं० [सं० महत्-संस्कार, कर्म० स०] मृतक की अत्येष्टि-क्रिया।
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महासंस्कारी (रिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] सत्रह मात्राओं के छंदों की संज्ञा।
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महासागर  : पुं० [सं० महत्-सागर, कर्म० स०] १. वह समस्त जल-राशि जो इस लोक के स्थल भाग को चारों ओर से घेरे हुए हैं। २. उक्त के पाँच प्रमुख विभागों (अतलांतक, प्रशांत, भारतीय, उत्तर, ध्रुवीय और दक्षिण ध्रुवीय) में से हर एक।
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महासांतपन  : पुं० [सं० महत्-सांतपन, कर्म० स०] एक प्रकार का व्रत जिसमें पाँच दिनों तक क्रम से पंचगव्य, छठे दिन कुश का जल पीकर और सातवें दिन उपवास करते हैं।
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महासांधिविग्रहिक  : पुं० [सं० महत्-सांधिविग्रहिक, कर्म० स०] गुप्त कालीन भारत का वह उच्च अधिकारी जिसे दूसरे राज्यों से संधि और विग्रह करने का अधिकार होता था।
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महासामंत  : पुं० [सं० महत्-सामंत, कर्म० स०] सामंतों का सरदार।
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महासारथि  : पुं० [सं० महत्-सारथि, ब० स०] अर्जुन।
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महासाहसिक  : पुं० [सं० महत्-साहसिक, कर्म० स०] चोर। वि० अत्यधिक साहसी।
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महासिद्धि  : स्त्री० [सं० महती-सिद्धि, कर्म० स०] योग में, विशिष्ट साधना के उपरांत प्राप्त होनेवाली ये आठ सिद्धियाँ—अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व और वशित्व।
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महासिरा  : पुं० =मुहासिर (घेरा)।
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महासिल  : पुं० [अ] १. वह धन जो हासिल या प्राप्त किया गया हो। २. आय। आमदनी। ३. मालगुजारी। लगान।
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महासिंह  : पुं० [सं० महत्-सिंह, कर्म० स०] वह सिंह जिसपर दुर्गा देवी सवारी करती हैं।
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महासीर  : पुं० [देश] एक प्रकार की मछली।
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महासुख  : पुं० [सं० महत्-सुख, कर्म० स०] १. साधकों को सिद्धि प्राप्त हो जाने पर मिलनेवाला परमानन्द। मैथुन। रति। ३. श्रृंगार ४. गौतम बुद्ध का एक नाम।
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महासूक्ष्मा  : स्त्री० [सं० महती-सूक्ष्मा, कर्म० स०] रेत।
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महासेन  : पुं० [सं० महती-सेना, ब० स०] १. शिव। २. कार्तिकेय। ३. बहुत बड़ी सेना का सेना-नायक।
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महास्कंध  : पुं० [सं० महत्-स्कंध, ब० स०] ऊँट।
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महास्कंधा  : स्त्री० [सं० महास्कंध+टाप्] जामुन का वृक्ष।
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महास्थली  : स्त्री० [सं० महत्-स्थली, कर्म० स०] पृथ्वी।
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महास्नायु  : पुं० [सं० महती-स्नायु, कर्म० स०] शरीर की प्रधान रक्तवाहिनी नाड़ी।
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महास्पद  : वि० [सं० महत्-आस्पद, ब० स०] १. उच्चपदस्थ। २. शक्तिशाली।
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महाहनु  : पुं० [सं० महती-हनु, ब० स०] १. शिव। २. तक्षक जाति का एक प्रकार का साँप।
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महाहंस  : पुं० [सं० महत्-हंस, कर्म० स०] १. एक प्रकार का हंस। २. विष्णु।
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महाहस्त  : पुं० [सं० महत्-हस्त, ब० स०] शिव।
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महाहास  : पुं० [सं० महत्-हास, कर्म० स०] अट्टाहास।
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महाहि  : पुं० [सं० महत्-अहि, कर्म० स०] वासुकि (नाग)।
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महाहिक्का  : स्त्री० [सं० महती-हिक्का, कर्म० स०] अत्यधिक अर्थात् कुछ समय तक निरंतर हिचकी होते रहने का रोग।
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महिं  : अव्य०=महँ (में)।
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महि  : स्त्रीं० [सं०√मह् (पूजा)+कुन्, -अक+टाप्] १. पृथ्वी। २. कुहरा। पाला। हिम।
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महिक्षित  : पुं० [सं० मही√क्षि (निवास या हिंसा)+क्विप्-तुक्-आगम] राजा।
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महिख  : पुं० =महिष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महिदास  : पुं० =महीदास।
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महिधर  : पुं० =महीधर।
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महिनंदिनी  : स्त्री० दे० ‘महीपुत्री’।
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महिपाल  : पुं० =महीपाल।
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महिपुत्र  : पुं० =महीपुत्र (मंगल)।
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महिफल  : पुं० [सं० मघुफल] मधु। शहद।
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महिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० महत्+इमनिच्] १. महत्त्वपूर्ण होने की अवस्था या भाव। गौरव। २. महत्ता की होनेवाली प्रसिद्धि। ३.वह स्थिति जिसमें किसी की क्रियाशीलता, प्रभावोत्पादकता आदि की प्रसिद्धि तथा मान्यता लोक में होती है। ४. उक्त क्रियाशीलता तथा प्रभावोत्पादकता। जैसे—यह तीर्थ या गीता की महिमा थी। ५. आठ सिद्धियों में से एक जिसकी प्राप्ति होने पर मनुष्य इच्छानुसार अपना विस्तार कर लेता है।
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महिमाधर  : वि० [सं० महिमधर] =महिमावान्।
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महिमावान्  : वि० [सं० महिमवान्] महिमा से युक्त। महिमावाला। पुं० पित्तरों का एक गण या वर्ग।
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महिम्न  : पुं० [सं० महि√म्ना (अभ्यास)+क] शिव का एक प्रसिद्ध स्तोत्र जिसे पुष्पदंताचार्य ने रचा था।
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महिय  : स्त्री०=मही।
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महियाँ  : अव्य० [सं० मध्य०, प्रा०मज्झ=माँह] =महिं (में)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महिया  : पुं० [हिं० महना] [स्त्री० महिमारी] ग्वाला। स्त्री ऊख के रस का फेन।
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महियाउर  : पुं० [हि० मही=मठा+चाउर=चावल] दही के मठे में पकाया हुआ चावल। महेरा।
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महिर  : पुं० [पु० मह+इलच्, ल=र] सूर्य।
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महिराँण  : पुं० [सं० महार्णव] समुद्र। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महिरावण  : पुं० [सं०] पुराणानुसार एक राक्षस का नाम।
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महिला  : स्त्री० [सं०√मह+इलच्+टाप्] १. स्त्री। औरत। २. स्त्री के लिए प्रयुक्त होनेवाला एक आदरसूचक शब्द। ३. प्रियंगु (लता)। ४. रेणुका नामक गन्ध द्रव्य।
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महिश्लखरी  : स्त्री० [?] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में अट्ठाइस मात्राएँ और चौदह मात्राओं पर यति होती है।
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महिष  : पुं० [सं०√मह्+टिषच्] [स्त्री० महिषी] १. भैंसा। २. वह राजा जिसका अभिषेक शास्त्रानुसार हुआ हो। ३. एक प्राचीन वर्णसंकर जाति। ४. एक साम का नाम। ५. कुश द्वीप का एक पर्वत।
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महिष-कंद  : पुं० [सं० मध्य० स०] भैंसा कंद।
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महिष-ध्वज  : पुं० [सं० ब० स०] १. यमराज। २. जैनों के एक अर्हत्।
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महिष-मंडल  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में आधुनिक हैदराबाद के दक्षिण भाग का एक नाम।
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महिष-वल्ली  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] छिरेटा (लता)।
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महिष-वाहन  : पुं० [सं० ब० स०] यमराज।
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महिषध्नी  : स्त्री० [सं० महिष√उहन् (मारना)+टक्+ङीष्] दुर्गा।
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महिषमर्दिनी  : स्त्री० [सं० महिष√मृद् (मर्दन करना)+णिनि+ङीष्] दुर्गा का एक नाम और रूप।
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महिषाकार  : वि० [सं० महिष-आकार, ब० स०] १. भैसें के आकार का। २. बहुत बड़े डील-डौलवाला।
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महिषाक्ष  : पुं० [सं० महिष-अक्षि, ब० स०+षच्] १. भैंसा। २. गुग्गुल।
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महिषाछ्न  : पुं० [सं० महिष√अर्द (मर्दन करना)+ल्युट-अन] कार्तिकेय।
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महिषासुर  : पुं० [सं० महिष-असुर, मध्य० स०] भैसें के से मुँहवाला एक प्रसिद्ध दैत्य जो रम्भ नाम दैत्य का पुत्र था। इसका वध दुर्गा ने किया था। (पुराण)।
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महिषी  : स्त्री० [सं० महिष+ङीष्] १. भैंस। २. राजा की वह पटरानी जिसका उसके साथ अभिषेक हुआ हो। ३. सैरिध्री। ४. एक प्रकार की औषधि।
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महिषी-कंद  : पुं० [सं० मध्य०स] भैंसा कंद। शुभ्रालु
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महिषी-प्रिया  : पुं० [सं० ष० त०] शूकी (घास)।
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महिषेश  : पुं० [सं० महिष-ईश, ष० त०] १. यमराज। २. महिषासुर। (दे०)।
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महिषोत्सर्ग  : पुं० [सं० महिष-उत्सर्ग, ष० त०] एक प्रकार का यज्ञ।
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महिष्ठ  : वि० [सं०√मह (पूजा)+इष्ठन्] १. बहुत बड़ा। २. महिमापूर्ण।
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महिसुर  : पं०=महीसुर।
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मही  : स्त्री० [सं०√मह+अच्+ङीष्] १. पृथ्वी। २. पृथ्वी के आधार पर एक की संख्या। ३. मिट्टी। ४. खाली स्थान। अवकाश। ५. नदी। ६. सेना। फौज। ७. समूह। ८. गाय। गौ। ९. एक प्रकार का छंद जिसमें एक लघु और एक गुरू मात्रा होती है। जैसे—मही, लगी इत्यादि। पुं० [हिं० मथितः] मट्ठा।
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मही-तल  : पुं० [सं० ष० त०] पृथ्वी। संसार।
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मही-पुत्र  : पुं० [ष० त०] मंगल ग्रह।
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मही-पुत्री  : स्त्री० [ष० त०] सीता जी।
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मही-प्राचीर  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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मही-भर्त्ता (भर्तृ)  : पुं० [ष० त०] [स्त्री० महीभत्री] पृथ्वी (के निवासियों) का भरण पोषण करनेवाला, राजा।
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मही-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] पृथ्वी। भूमंडल।
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मही-सुत  : पुं० [ष० त०] मंगल ग्रह।
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मही-सुता  : स्त्री० [ष० त०] सीता जी।
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मही-सुर  : पुं० [स० त०] ब्राह्मण।
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मही-सूनु  : पुं० [ष० त०] मंगल ग्रह।
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महीख़ड़ी  : स्त्री० [देश] सिकलीगरों का एक औजार।
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महीज  : पुं० [सं० मही√जन् (उत्पन्न करना)+ड०] १. मंगल ग्रह। २. अदरक।
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महीदास  : पुं० [सं० ष० त०] ऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता एक प्रसिद्ध ऋषि।
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महीदेव  : पुं० [सं० ष० त०] भू-देव। ब्राह्मण।
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महीधर  : पुं० [सं० ष० त०] १. पर्वत। पहाड़। २. शेषनाग। ३. बौद्धों के अनुसार एक देवपुत्र। ४. एक प्रकार का वार्णिक वृत्त जिसमें चौदह बार क्रम लघु और गुरु आते हैं।
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महीध्र  : पुं० [सं० मही√धृ (धारण करना)+क] महीधर।
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महीध्रक  : पुं० [सं० महीध्र√कन्] =महीध्र।
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महीन  : वि० [सं० महत्+झीन] (सं० क्षीण) १. जिसका घेरा तल या विस्तार इतना कम या थोड़ा हो कि सहसा दिखायी न दे। सूक्ष्म ‘मोटा’ का विपर्याय। जैसे—महीन काम, महीन निशान। २. बहुत ही पतला या बारीक। झीना। जैसे—कपड़े का महीन पोत। पद—महीन काम=ऐसा काम जिसे करने में बहुत आँख गड़ाने और सावधानी रखने की आवश्यकता होती हो। जैसे—सीना-पिरोना, चित्रकारी, नक्काशी आदि। ३. (स्वर) जो बहुत कम ऊँचा या तेज हो। कोमल धीमा। मंद। जैसे—महीन आवाज। पुं० [सं०] राजा।
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महीना  : पुं० [सं० मास या मि०, फा० माह] १. काल का एक प्रसिद्ध परिमाण जो वर्ष के बारहवें अंश के बराबर और प्रायः तीस दिनों का होता है। मास। माह। २. हर महीने अर्थात् महीना भर काम करने के बदले मिलनेवाला वेतन या वृत्ति। ३. स्त्रियो का रजोधर्म या मासिक धर्म जो प्रायः महीन-महीने पर होता है। मुहावरा—(स्त्री का) महीने से होना=रजोधर्म से होना। रजस्वला होना।
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महीप  : पुं० [सं० मही√पा (रक्षा)+क] राजा।
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महीपति  : पुं० [सं० ष० त०] राजा।
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महीपाल  : पुं० [सं० मही√पाल् (पालन)+णिच्+अण्] राजा।
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महीभुक् (भुज्)  : पुं० [सं० मही√भुज् (उपभोग करना)+क्विप्, कृत्व] राजा।
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महीभृत्  : पुं० [सं० मही√भृ (पालन करना)+क्विप्, तुक्] १. राजा। २. पर्वत। पहाड़।
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महीम  : पुं० [देश] एक प्रकार का गन्ना।
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महीयान (यस्)  : वि० [सं० महत्+ईयसुन] [स्त्री० महीयसी] १. किसी की तुलना में अधिक बड़ा। २. महान् ३. शक्तिशाली।
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महीर  : स्त्री० [हिं० मही] १. मक्खन को तपाने पर निकलनेवाली तलछट। २. महेरा। (दे०)।
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महीरावण  : पुं० [सं०] १. अद्भुत रामायण के अनुसार रावण के एक पुत्र का नाम। २. महिरावण।
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महीरूह  : पुं० [सं० मही√रूह (उत्पन्न होना)+क] वृक्ष।
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महीलता  : स्त्री० [सं० स० त०] केंचुआ।
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महीश  : [पुं० मही-ईश, ष० त०] राजा।
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महुँ  : अव्य=महँ।
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महु  : पु०=मधु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महुअर  : पुं० [सं० मधुकर, प्रा०महुअर] १. सँपेरों का एक प्रकार का बाजा जिसे तुमड़ी या तूँबी भी कहते हैं। २. एक प्रकार का इंद्रजाल का खेल जो उक्त बाजा बजाकर किया जाता है और जिसमें खिलाड़ी अपने प्रतिद्वन्द्वी को अपनी इच्छा के वश में करके अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट देने का प्रयत्न करता है। स्त्री० [हिं० महुआ] १. वह भेड़ जिसका ऊन कालापन लिए लाल रंग का होता है। २. महुए को पीसकर उसके चूर्ण से बनायी जानेवाली रोटी।
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महुअरि  : स्त्री०=महुअर।
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महुअरी  : स्त्री० [हिं० महुआ] महुए के रस से साने हुए आटे की पकायी हुई रोटी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महुआ  : पुं० [सं० मधूक, प्रा०महुअ] १. बलुई भूमि में होनेवाला एक वृक्ष जिसका कांड चिकना तथा धूसरित होता है और फूल सफेद तथा पीले रंग के होते हैं तथा पत्ते रोएँदार होते हैं। २. इस वृक्ष के छोटे, मीठे, सफेद फल जो खाये जाते हैं, और उनके पांस से शराब बनायी जाती है। ३. धूसरित रंग का बैल। ४. हलका पीला रंग। पुं० =सुभरा (मछली)। वि० [हिं० महना=मथना] मथा हुआ। जैसे—महुआ दही। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महुआ-दही  : पुं० [हिं० महना=मथना+दही] वह मथा हुआ दही जिसमें से मक्खन निकाल लिया गया हो।
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महुआरी  : स्त्री० [हिं० महुआ+आरी] वह स्थान जहाँ महुए के बहुत से वृक्ष हों।
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महुकम  : वि० =मुहकम (पक्का)।
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महुम्म  : वि० [हिं० महुआ] महुए के रंग का। हलके पीले रंग का।
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महुर  : वि०=मधुर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महुरेठी  : स्त्री०=मुलेठी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महुर्छा  : पुं० =महोछा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महुला  : वि० [हिं० महुआ] [स्त्री० महुली] महुए के रंग का। हलका पीला। पुं० १. हलका पीला रंग। २. हलके पीले रंग का बैल।
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महुवर  : पुं० =महुअर।
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महुवा  : पु०=महुआ।
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महूख  : पुं० [सं० मधूक] १. महुए का पेड़ और उसका फल। २. मुलेठी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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महूम  : स्त्री०=मुहिम। उदाहरण—दिग विजय काज महूम की।—पद्माकर।
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महूरत  : पुं० =मुहुर्त। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महूष  : पुं० =मधूख (महुआ)।
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महे  : अव्य० [सं० मध्य] में। अन्दर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महेंद्र  : पुं० [सं० महत्-इंद्र, कर्म० स०] १. विष्णु। २. इन्द्र।
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महेंद्राल  : स्त्री०=महेंद्री (नदी)।
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महेंद्री  : स्त्री० [सं०] गुजरात प्रदेश की एक नदी।
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महेर  : पुं० [देश] १. झगड़ा। बखेड़ा। २. व्यर्थ की देर या विलम्ब। क्रि० प्र०—करना।—डालना। पुं० =महेरा। स्त्री०=महेरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महेरा  : पुं० [हिं० मही+एरा (प्रत्यय)] १. दही। मठा। २. दही में पकाया हुआ चावल। खेसारी का आटा या ऐसी ही और कोई चीज। पुं० १. महेर। २. महेला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महेरी  : स्त्री० [हिं० महेरा] १. उबाली हुई ज्वार जिसे लोग नमक मिर्च से खाते हैं। २. दही के साथ पकाया हुआ चावल। महेरा। वि० [हि०महेर] १. झगड़ा-बखेडा खड़ा करनेवाला। २. व्यर्थ देर लगानेवाला।
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महेल  : पुं० =महल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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महेला  : पुं० [हि०माष] चने, उड़द, मोठ आदि को उबालकर और घी, गुड आदि डालकर बनाया हुआ वह मिश्रण जो पशुओं को खिलाया जाता है। वि० [?] सुन्दर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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महेलिया  : स्त्री० [सं० महल्लिका] माल ढोनेवाली एक प्रकार की बड़ी नाव।
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महेश  : पुं० [सं० महत्-ईश, कर्म० स०] १. ईश्वर। २. शिव।
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महेश-बंधु  : पुं० [सं० ष० त०] बैल।
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महेशान  : पुं० [सं० महत्-ईशान, कर्म० स०] [स्त्री० महेशानी] शिव।
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महेशानी  : स्त्री० [सं० महेसान+ङीष्] १. पार्वती। २. दुर्गा।
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महेशी  : स्त्री०=महेश्वरी (पार्वती)।
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महेश्वर  : पुं० [सं० महत्-ईश्वर, कर्म० स०] [स्त्री० महेस्वरी] १. ईश्वर। २. शिव। ३. सफेद महार। ४. सोना स्वर्ण।
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महेश्वरी  : स्त्री० [सं० महत्-ईश्वरी, कर्म० स०] दुर्गा।
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महेषुधि  : वि० [सं० महत्-इषुधि, ब० स०] बहुत बड़ा धनुर्धारी।
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महेष्वास  : पुं० [सं० महत्-इष्वास, कर्म० स०] बहुत बड़ा धनुर्धारी।
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महेस  : पुं० =महेश।
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महेसिया  : पुं० [हिं० महेश] एक प्रकार का बढ़िया अगहनी धान।
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महेसी  : स्त्री०=महेश्वरी।
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महेसुर  : पुं० १. =महेश्वर। २. =माहेश्वर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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महैत  : वि० [हिं० महा] पूरी तरह से व्याप्त। ओतप्रोत।
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महैला  : स्त्री० [सं० महती-एला, कर्म० स०] बड़ी इलायची।
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महोक  : पुं० =मधूक (महुआ)। पुं० =महोखा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महोक्ष  : पुं० [सं० महत्-उक्षन, कर्म० स०+अच्] १. बड़ा बैल। २. कामशास्त्र में वृषभ जाति का पुरुष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महोख  : पुं० =मधूक (महुआ)। पुं० =महोखा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महोखा  : पुं० [सं० मधूक] कौए के आकार का एक पक्षी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महोगनी  : पुं० [अ०] एक प्रकार का बहुत बड़ा पेड़ जो सदा हरा रहता है। इसके फल खाये जाते हैं और लकड़ी इमारत के काम आती है।
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महोच्चार  : पुं० [सं० महत्-उच्चार, कर्म० स०] ऊँचा या घोर शब्द। घोष। उदाहरण—भूल गये देवता उदय का महोच्चार था मैं ही।—दिनकर।
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महोच्छव  : पुं० १. =महोछा। २. =महोत्सव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महोछा  : पुं० [सं० महोत्सव] १. महोत्सव। २. एक उत्सव जिसमें खत्री संप्रदाय बाबा लालू जसराम की पूजा करते हैं। यह श्रावणमास के कृष्ण पक्ष में होता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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महोछ्व  : पुं० १. =महोछा। २. =महोत्सव।
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महोटी  : स्त्री० [सं० ब० स०+ङीष्] कटैया।
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महोती  : स्त्री० [हिं० महुआ] महुए का फल। कुलेंदी।
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महोत्का  : पुं० =महोल्का।
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महोत्सव  : पुं० [सं० महत्-उत्सव, कर्म० स०] बहुत बड़ा उत्सव या समारोह।
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महोदधि  : पुं० [सं० महत्-उदधि, कर्म० स०] समुद्र।
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महोदय  : पुं० [महत्-उदय, ब० स०] [स्त्री० महोदया] १. अधिपति। स्वामी। २. महानुभाव महाशय। ३. अपने से बड़े व्यक्ति के लिए अथवा औपचारिक रूप से किसी अच्छे व्यक्ति के लिए प्रयुक्त किया जानेवाला एक आदरसूचक संबोधन। ४. स्वर्ग। ५. महाफूल। ६. कान्यकुब्ज प्रदेश का एक नाम।
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महोदया  : स्त्री० [सं० महोदय+टाप्] नागबला। गुलशनकारी। गंगरेन। स्त्री० सं० ‘महोदय’ का स्त्री०।
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महोदर  : पुं० [सं० महत्-उदर, ब० स०] १. शिव। २. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ३. एक असुर का नाम। ४. एक नाग का नाम। वि० बहुत बड़े पेटवाला।
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महोदरी  : वि० स्त्री० [सं० महोदरी+ङीष्०] बड़े पेटवाली। स्त्री० भगवती का एक नाम।
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महोदार  : वि० [सं० महत्-उदार, कर्म० स०] बहुत अधिक उदार।
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महोद्यम  : वि० [सं० महत्-उद्यम, ब०स०] बहुत बड़ा उद्यम या बड़े-बड़े काम करनेवाला।
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महोना  : पुं० [हिं० मुँह] पशुओं के मुंह आदि पकने का एक रोग।
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महोन्नत  : वि० [सं० महत्-उन्नत, कर्म० स०] बहुत अधिक उन्नत या ऊँचा।
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महोपाध्याय  : पुं० [सं० महत्-उपाध्याय, कर्म० स०] बहुत बड़ा अध्यापक या पंडित।
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महोबा  : पुं० [देश] बुन्देलखंड का एक प्राचीन नगर जो हमीरपुर जिले में है।
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महोबिया  : वि० =महोबी।
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महोबी  : वि० [हिं० महोबा+ई (प्रत्यय)] १. महोबे का। महोबा सम्बन्धी। २. महोबे में होनेवाला। पुं० महोबे का निवासी।
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महोरग  : पुं० [सं० महत्-उरग, कर्म० स०] बहुत बड़ा सांप।
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महोरस्क  : वि० [सं० महत्-उरग, ब०स०+कप्] जिसका वक्षःस्थल विशाल हो।
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महोर्मि  : स्त्री० [सं० महती-ऊर्मि, कर्म० स०] बहुत ऊँची या बड़ी लहर।
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महोला  : पुं० [अ० मुहेल] १. हीला-हवाला। बहाना। २. चकमा। धोखा।
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महौजस्क  : वि० [सं० महत्-ओजस्, ब० स०+कप्] बहुत अधिक तेजस्वी। बहुत तेजवान्।
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महौजा (जस्)  : वि० [सं० महत्-ओजस्, ब० स०] बहुत अधिक तेजस्वी। पुं० एक असुर जो काल का पुत्र था।
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महौध  : पुं० [सं० महत्-ओघ, कर्म० स०] समुद्र की बाढ़ या तूफान।
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महौली  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारत के काम आती है।
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महौषध  : पुं० [सं० महत्-औषध, कर्म० स०] १. बहुत बड़ी और प्रायः पूरा गुण दिखानेवाली औषधि। २. भुंजित खर। भूम्माहुल्य। ३. सोंठ। ४. लहसुन। ५. बाराही कन्द। गेंठी। बछनाग। ६. पीपल। ७. अतीस।
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महौषधि  : स्त्री० [सं० महती-औषधि, कर्म० स०] १. कुछ विशिष्ट औषधियों का चूर्ण जो महास्नान या अभिषेकादि के जल में मिलाया जाता है। २. दूब। ३. संजीवनी। ४. लजालू नाम की लता।
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महौषधी  : स्त्री० [सं० महती-औषधि, कर्म० स०] १. सफेद भटकटैया। २. ब्राह्मणी। ३. कुटकी। ४. अतिबला। ५. हिल मोचिका।
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मह्यो  : पुं० [हिं० मही] मट्ठा। छाछ।
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माँ  : स्त्री० [सं० अंबा या माता] जन्म देनेवाली, माता। जननी। पद—माँ-जाया। अव्य०=में। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मा  : स्त्री० [सं०√मा+क्विप्] १. माता। माँ। २. लक्ष्मी। ३. ज्ञान। ४. प्रकाश। रोशनी। ५. चमक। दीप्ति। अव्य, नहीं। मत। (निषेधार्थक)। पुं० [अ० मा०] १. पानी। २. अर्क। जैसे—माउल्लहम।
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माँ-जाया  : पुं० [हिं० माँ+जाया=जात] [स्त्री० माँजायी] माँ से उत्पन्न, अर्थात् सगा भाई। सहोदर।
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माइ  : स्त्री०=माई (माता)। स्त्री०=माया। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माइक  : पुं० [अं०] =ध्वनिवर्धक।
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माइका  : पुं० =मायका।
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माइक्रोफोन  : पुं० [अं०] ध्वनिवर्धक।
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माइट  : पुं० [?] ईख की पत्तियाँ खानेवाला एक तरह का कीड़ा।
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माई  : स्त्री० [सं० मातृ] १. माता। २. देवी। ३. वैवाहिक अवसरों पर मातृपूजन के काम आनेवाली एक तरह की छोटी पूजा। स्त्री०=मामी। स्त्री० [?] बेटी। पुत्री। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माई  : स्त्री० [सं० मातृ] १. माता। जननी। माँ। २. मातातुल्य विशेषतः कोई बूढ़ी स्त्री। ३. औरत। स्त्री। पद—माई का लाल=ऐसा व्यक्ति जो जोखिम त्याग या वीरता प्रदर्शन के लिए प्रस्तुत हो। स्त्री० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष और उसका फल जो माजू से मिलता जुलता होता है।
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माउल्लहम  : पुं० [अ० माउल्लहम्] हकीमी चिकित्सा में दवाओं में गोश्त मिलाकर खींचा हुआ अर्क।
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माँकड़ी  : स्त्री० [हिं० मकड़ी] १. कमखाब बुननेवालों का एक औजार जिसमें डेढ़-डेढ़ बालिश्त की पाँच तीलियाँ होती है। २. पतवार के ऊपरी सिरे पर लगी हुई और दोनों ओर निकली हुई एक लकड़ी। ३. जहाज में रस्से बाँधने के खूंटे आदि का बनाया हुआ ऊपरी भाग। ४. दे० ‘मकड़ी’।
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माकंद  : पुं० [सं०√मा+क्विप्=मा=परिमित कन्द, ब० स०] आम का वृक्ष। पुं० =मानकंद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माकंदी  : स्त्री० [सं० माकन्द+ङीष्] १. आँवला। २. पीला चन्दन। ३. एक प्राचीन नगरी।
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माकर  : वि० [सं० मकर+अण्] १. मकर संबंधी। २. मकर से उत्पन्न।
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माकरा  : स्त्री० [सं० माकर+टाप्] मरुआ।
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माकरी  : स्त्री० [सं० माकर+ङीष्] माघ शुक्ला सप्तमी।
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माकल  : स्त्री० [देश] इंद्रायन नामक लता।
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माकूल  : वि० [अ० माकूल] १. उचित। ठीक। वाजिब। २. यथेष्ठ। ३. योग्य। लायक। ४. उत्तम। अच्छा। बढ़िया। पद—ना-माकूल (देखें)। ५. जिसने वाद-विवाद में प्रतिपक्षी की बात मान ली हो। जो निरुतर हो गया हो। कायल।
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माकूलियत  : स्त्री० [अ० माकूलीयत] माकूल होने की अवस्था या भाव।
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माक्षिक  : पुं० [सं० मक्षिका+अण्] १. शहद। मधु। २. सोना-मक्खी। ३. रूपा मक्खी। ४. लोहे या ताँबे का एक प्रकार का रासायनिक विकार (पाइराइट)। वि० [सं०] १. मक्षिका संबंधी। २. मक्खियों द्वारा बनाया हुआ।
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माक्षिकज  : पुं० [सं० माक्षिक√जन् (उत्पन्न करना)+ड] मोम।
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माक्षिकाश्रय  : पुं० [सं० माक्षिक-आश्रय, ष० त०] मोम
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माक्षीक  : पुं० [सं० माक्षिका+अण्, नि० दीर्घ]=माक्षिक।
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माँख  : पुं० =माख (अप्रसन्नता)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माख  : पुं० [सं० मक्ष] १. अप्रसन्नता। नाराजगी। २. अभिमान। घमंड। ३. पश्चाताप। पछतावा। ४. अपना अपराध या दोष छिपाने का प्रयत्न। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माँखण  : पुं० =मक्खन (राग)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माखता  : पुं० =माख (दे०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माखन  : पुं० =मक्खन। पद—माखनचोर=श्रीकृष्ण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँखना  : अ०=माखना (क्रोध करना)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माखना  : अ० [हिं० माख] १. मन में अप्रसन्न या दुःखी होना। २. क्षुब्ध होना। ३. पश्चात्ताप करना।
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माँखा  : पुं० [सं० मक्षिका] मच्छर। उदाहरण—तू उँबरी जेहि भीतर माँखा।—जायसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माखा  : पुं० [हिं० मक्खी] नरमक्खी।
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माँखी  : स्त्री०=मक्खी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माखी  : स्त्री० [सं० माक्षिक] सोनामक्खी। स्त्री०=मक्खी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माखो  : स्त्री० [हिं० मुख] १. लोगों में फैलनेवाली चर्चा। जनरव। स्त्री०=मधुमक्खी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँग  : स्त्री० [हिं० माँगना] १. माँगने की क्रिया या भाव। याचना। २. अर्थशास्त्र में वह स्थिति जिसमें लोग (क्रेता) कोई चीज किसी निश्चित मूल्य पर खरीदना चाहते हों। ३. किसी निश्चित मूल्य पर तथा किसी निश्चित अवधि में क्रेताओं द्वारा किसी चीज की खरीदी या चाही जानेवाली मात्रा। ४. बिक्री या खपत आदि के कारण किसी पदार्थ के लिए लोगों को होनेवाली आवश्यकता या चाह। जैसे—बाजार में देशी कपड़ों की माँग बढ़ रही हैं। ५. किसी से आधिकारिक रूप में या दृढ़तापूर्वक यह कहना कि हमें अमुक-अमुक सुविधाएँ, मिलनी चाहिए। (डिमांड) जैसे—दुकानदारों की माँग, मजदूरों की माँग, राजनीतिक अधिकारों की माँग। स्त्री० [सं० मार्ग] १. सिर के बालों को विभक्त करके बनायी जानेवाली रेखा। सीमांत। पद—माँग-चोटी, माँग-जली, माँग-पट्टी। मुहावरा—माँग उजड़ना=विवाहिता स्त्री का विधवा होना। माँग कोख से सुखी रहना या जुड़ाना=स्त्रियों का सौभाग्यवती और संतानवती रहना (आर्शीवाद) माँग पारना या फारना=केशों को दो और करके बीच में माँग निकालना। माँग बाँधना=कंघी-चोटी या केश-विन्यास करना। माँग सँवारना=कंघी करके वाल सँवारना। २. किसी पदार्थ का ऊपरी भाग। सिरा। (क्व०) ३. सिल का वह ऊपरी भाग जिस पर पिसी हुई चीज रखी जाती है। ४. नाव का अगला भाग। दुम सिरा। ५. दे० ‘मांगी’।
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माँग-चोटी  : स्त्री० [हिं०] स्त्रियों का केश-विन्यास।
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माँग-जली  : स्त्री० [हिं०] विधवा। राँड़।
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माँग-टीका  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का माँग-फूल जिसमें मोतियों की लड़ी लगी रहती है।
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माँग-पट्टी  : स्त्री०=माँग-चोटी।
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माँग-पत्र  : पुं० [हिं०+सं०] वह पत्र जिस पर कोई व्यापारी को यह लिखता है कि आप हमें अमुक-अमुक वस्तुएँ भेज दें। (आर्डर फार्म) २. वह पत्र जिसमें किसी से अधिकारपूर्वक यह कहा जाय कि अमुक चीज मुझे दे दो।
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माँग-फूल  : पुं० [हिं०] मांग में लगाया जानेवाला एक प्रकार का टीका।
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माँग-भरी  : वि० स्त्री० [हिं० माँग+भरना] सधवा। सुहागिन।
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मागध  : वि० [सं० मगध+अण्] मगध संबंधी। पुं० १. एक प्राचीन जाति जो मनु के अनुसार वैश्य के वीर्य से क्षत्रिय कन्या के गर्भ से उत्पन्न है। २. मगध के राजा जरासन्ध का एक नाम। ३. जीरा। ४. पिप्पलीमूल।
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मागध-पुर  : पुं० [सं० ष० त०] मगध की पुरानी राजधानी, राजगृह।
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मागधक  : पुं० [सं० मगध+बुञ्-अक] १. मगध देश का निवासी। २. मागध। ३. भाट।
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मागधा  : स्त्री० [सं० मगध+टाप्] १. मगध की राजकुमारी। २. पिप्पली।
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मागधिक  : वि० [सं० मगध+ठक्—इक] मगध-संबंधी। मगध का। पुं० १. मगध का राजा। २.मगध का निवासी।
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मागधी  : स्त्री० [सं० मगध+अण्+ङीष्] १. मगध देश की प्राचीन प्राकृत भाषा। २. जूही। यूथिका। ३. चीनी। शक्कर। ४. छोटी इलायची। ५. पिप्पली।
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माँगन  : पुं० [हिं० माँगना] १. माँगने की क्रिया या भाव। २. मँगता। भिखमंगा। भिक्षुक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माँगनहार  : पुं० [हिं० माँगना] माँगनेवाला। पुं० =मंगता (भिखमंगा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँगना  : स० [सं० मार्गण=याचना] १. किसी से यह कहना कि आप हमें अमुक वस्तु या कुछ धन दें। याचना करना। जैसे—मैंने उनसे एक पुस्तक माँगी थी। २. खरीदने के उद्देश्य से किसी से कुछ लाकर प्रस्तुत करने या दिखाने के लिए कहना। जैसे—दुकानदार से पुस्तक माँगना। ३. किसी से कोई आकांक्षा पूरी करने के लिए कहना। याचना या प्रार्थना करना। ४. अपनी कन्या या पुत्र के साथ विवाह करने के लिए किसी से उसके पुत्र या कन्या के सम्बन्ध में प्रस्ताव करना। ५. किसी से अधिकारपूर्वक यह कहना कि तुम हमें इतना धन या अमुक वस्तु उधार दो। ६. भिक्षा माँगना। हाथ पसारना। पुं० दी हुई वस्तु वापस देने के लिए किसी से कहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मागरमाटी  : स्त्री०=मट-मँगरा (विवाह की रस्म)।
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मांगल-गीत  : पुं० [हिं० मांगल्य गीत] वह शुभ गीत जो विवाह आदि मंगल अवसरों पर गाये जाते हैं।
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मांगलिक  : वि० [सं० मंगल+ठक्-इक, वृद्धि] १. मंगल करनेवाला। शुभ। २. मंगल कार्यों से संबंध रखनेवाला। जैसे—मांगलिक कृत्य। पुं० वह जो नाटक आदि विशिष्ट अवसरों पर मंगल पाठ करता हो।
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मांगल्य  : वि० [सं० मंगल+ष्यञ्, वृद्धि] शुभ। मंगलकारक। पुं० ‘मंगल’ की अवस्था या भाव। मंगलता।
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मांगल्य-काया  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] १. दूब। २. हलदी। ३. ऋद्धि नामक औषधि। ४. गोरोचन। ५. हरीतकी। हर्रे।
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मांगल्य-कुसुमा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] शंखपुष्पी।
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मांगल्य-प्रवरा  : स्त्री० [सं० स० त०] बच।
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मांगल्या  : स्त्री० [सं० मांगल्य+टाप्] १. गोरोचन। २. जीवंती। ३. शमी।
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माँगा  : पुं० [हिं० माँगना] माँगने विशेषतः मँगनी माँगने की क्रिया या भाव। वि० [हिं० माँगी] मँगनी, माँगा हुआ। मँगनी का।
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मागि  : पुं० =मार्ग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँगी  : स्त्री० [सं० मार्ग० हिं० माँग] धुनियों की धुनकी में वह लकड़ी जो उसकी उस डाँड़ी के ऊपर लगी रहती है जिस पर ताँत चढ़ाते हैं।
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मागी  : स्त्री० [?] औरत। स्त्री। (पूरब)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँगुर  : स्त्री० [?] एक प्रकार की मछली।
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माघ  : पुं० [सं० माधी+अण्] १. १०वाँ सौर मास और ११वाँ चांद्रमास जो पूस के बाद और फागुन से पहले पड़ता है। २. संस्कृत के एक प्रसिद्ध महाकवि जो ईसवीं १0 वीं शती में हुए थे, और जिनका बनाया ‘शिशुपाल वध’ संस्कृत का एक प्रसिद्ध महाकाव्य है। ३. कुंद का फूल।
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माघी  : वि० [सं० मघा+अण्+ङीष्] माघ संबंधी। स्त्री० माघ मास की पूर्णिमा। कलियुग का आरम्भ इसी तिथि से माना जाता है।
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माँच  : पुं० [देश] १. पाल में हवा लगने के लिए चलते हुए जहाज का रूख कुछ तिरछा करना। (लश०) २. पाल के नीचेवाले कोने में बँधा हुआ वह रस्सा जिसकी सहायता से पाल को आगे बढाकर या पीछे हटाकर हवा के रूख पर करते हैं। (लश०) स्त्री०=माच। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माच  : पुं० [सं० मा√अंच+क] मार्ग। रास्ता। पुं० [सं० मंच या हिं० मचना] मालवा में प्रचलित एक प्रकार का ग्राम्य अभिनय या लोक-नाटक जो खुले मैदान मे खेला जाता है। इसमें प्रायः भाव-संगीत के द्वारा ग्राम्य जीवन की घटनाएं दिखायी जाती है। पुं० =मचान।
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माँचना  : अ० [हिं० मचना] १. प्रसिद्ध होना। २. लीन होना। उदाहरण—स्याम प्रेम रस माँची।—सूर। अ०=मचना। स०=मचाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माचना  : अ०-मचना। स०=मचाना।
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माचल  : पुं० [सं० मा√चल् (चलना)+अच्] १. ग्रह। २. बीमारी। रोग। ३. कैदी। बंदी। ४. चोर। वि० [हिं० मचलना] बहुत अधिक चमलनेवाला फलतः हठी। वि० =मचला।
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माँचा  : पुं० [सं० मंच, संज्ञा] [स्त्री० अल्पा० माँची] १. पलंग। खाट। २. बैठने की पीढ़ी। ३. मचान।
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माचा  : पुं० [सं० मंच] बैठने की पीढ़ी या बड़ी मचिया जो खाट की तरह बुनी होती है। माँचा।
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माचिका  : स्त्री० [सं० मा√अंच् (जाना)+क+कन्+टाप्, इत्व] १. मक्खी। २. अमड़ा या आमड़ा नामक वृक्ष और उसका फल।
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माचिस  : स्त्री० [अं० मैचेस] दीया सलाई।
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माची  : स्त्री० [सं० मंच] १. हल का जुआ। २. बैलगाड़ी में वह स्थान जहाँ गाड़ीवान बैठता है और अपना सामान रखता है। ३. खाट की तरह बुनी हुई बैठने की पीढ़ी। मचिया।
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माँछ  : स्त्री० [सं० मस्त्य] मछली। पुं० =माँच। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माछ  : पुं० [सं० मत्स्य] मछली। पुं० =मच्छर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँछना  : अ० [सं० मध्य] घुसना। पैठना। (लश०)
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माँछर  : स्त्री०=मछली। पुं० =मच्छड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माछरी  : स्त्री०=मछली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँछली  : स्त्री०=मछली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँछी  : स्त्री०=मक्खी।
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माछी  : स्त्री० [सं० मक्षिका] मक्खी। स्त्री०=मछली। स्त्री०=मछिया (बंदूक की)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँज  : स्त्री० [देश] १. दलदली भूमि। २. कछार। तराई। ३. नदी के खिसकने के कारण निकली हुई भूमि। गंग-बरार।
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माज  : पुं० =माँजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माजन  : पुं० =मज्जन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँजना  : सं० [सं० मज्जन] १. कोई चीज अच्छी तरह साफ करने के लिए किसी दूसरी चीज से उसे अच्छी तरह मलना या रगड़ना। जैसे—बरतन माँजना। २. जुलाहों का सूत चिकना करने के लिए उस पर सरेस का पानी रगड़ना। ३. डोर या नख पर मांझा लगाना। ४. कुम्हारों का थपुए के तवे पर पानी देकर उसे ठीक करने के लिए किनारे झुकाना। ५. किसी काम या चीज का अभ्यास करना। जैसे—(क) लिखने के लिए हाथ माँजना। (ख) गाने के लिए गीत या राग माँजना।
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माँजर  : पुं० =पंजर (ठठरी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माजरा  : पुं० [अ०] १. हाल। घटना। २. घटना का विवरण। ३. बोलचाल में कोई विशिष्ट किंतु अज्ञात बात (किसी की दृष्टि से)।
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माजरिगंधा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] मुद् गपर्णी।
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माँजा  : पुं० [देश] पहली वर्षा का फेन जो मछलियों के लिए मादक कहा गया है। पुं० =माँझा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँजिष्ठ  : वि० [सं० मंजिष्ठा+अण्] १. मजीठ से बना हुआ। २. मजीठ के रंग का। ३. मजीठ सम्बन्धी। मजीठ का। पुं० एक प्रकार का मूत्र-रोग या प्रमेह जिसमें मजीठ के रंग का पेशाब होता है।
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माजी  : वि० [अ० मजी] १. गुजरा या बीता हुआ। गत। २. समय के विचार से भूतकाल सें सम्बद्ध। पुं० व्याकरम में भूतकाल।
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माजू  : पुं० [फा०] १. एक प्रकार की झाड़ी जो यूनान और फारस आदि देशों में बहुतायत से होती है। २. उक्त झाड़ी का फल जो औषधि के काम आता है। (हकीमी)। पुं० [?] ऐसा वर या व्यक्ति जिसकी पहली विवाहिता स्त्री मर चुकी हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माजून  : स्त्री० [अ] १. हकीमी में, शहद, शक्कर आदि के योग से बना हुआ दवाओं का अवलेह। २. उक्त प्रकार का अवलेह जिसमें भांग पीस कर मिलायी गयी है।
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माजूफल  : पुं० [फा० माजू+सं० फल] माजू नामक झाड़ी का गोटा या गोंद जो ओषधि तथा रँगाई के काम आता है। मादा-फल।
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माजूल  : वि० [मअजूल] १. अपदस्थ। २. पदच्युत।
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माँझ  : अव्य० [सं० मध्य] में। भीतर। बीच। पुं० १. अन्तर। फर्क। २. नदी के बीच में निकली हुई रेतीली भूमि।
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माझ  : अव्य० पुं० =माँझ (मध्य)। सर्व० [स्त्री० माझी] मेरा।
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माँझा  : पुं० [सं० मध्य] १. नदी के बीच की सूखी जमीन या टापू। २. वृक्ष का तना। ३. वे कपड़े जो वर और कन्या को विवाह से पहले पहनाये जाते हैं। ४. पगड़ी पर लगाया जानेवाला एक तरह का आभूषण। ५. एक प्रकार का ढाँचा जो गोड़ाई के बीच में रहता है और जो पाई को जमीन पर गिरने से रोकता है। (जुलाहे)। पुं० [हिं० माँजना]लेई, शीशे की बुकनी आदि का वह रूप जो डोर या नख पर उसे तेज तथा धारदार करने के लिए चढ़ाया जाता है। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—देना। पुं० १. =माँझा। (बड़ी खाट) २. =माँजा (फेन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँझिल  : वि० [सं० मध्य] मध्य का। बीच का। क्रि० वि० बीच या मध्य में।
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माँझी  : पुं० [सं० मध्य, हिं० माँझ] केवट। मल्लाह। पुं० =मध्यस्थ। पुं० [?] बलवान (डिं०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँट  : पुं० [सं० मट्ठक] १. मिट्टी का बड़ा बरतन। मटका। कुंडा। २. घर के ऊपर की कोठरी। अटारी। कोठा।
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माट  : पुं० [हिं० मटका] १. रंगरेजों के रंग घोलने का मिट्टी का बड़ा बरतन। मुहावरा—माट बिगड़ जाना या बिगड़ना= (क) किसी का स्वभाव ऐसा बिगड़ जाना कि उसका सुधार असम्भव हो। (ख) किसी काम या बात का पूरी तरह से बिगड़कर नष्ट-भ्रष्ट हो जाना। २. दही रखने की मटकी। पुं० [देश] एक प्रकार की वनस्पति जिसका व्यवहार तरकारी के रूप में होता है।
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माटा  : पुं० [हिं० मटा] लाल रंग का च्यूँटा जिसके झुंड आम के पेड़ों पर रहते हैं। पुं० =मटका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माटी  : स्त्री० [हिं० मिट्टी] १. मिट्टी। २. बैलों के संबंध में, साल भर की जोताई या उसकी मेहनत। जैसे—यह बैल चार माटी का चला है। ३. पाँच तत्त्वों में से पृथ्वी नामक तत्त्व। ४. शरीर जो मिट्टी का बना हुआ माना जाता है। ५. मृत। शरीर। लाश। शव।
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माँठ  : पुं० [सं० मट्टक] १. मटका। २. कुंडा। ३. नील घोलने का बड़ा मटका।
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माठ  : पुं० [हिं० मटकी] मटकी। पुं० [?] एक प्रकार की मिठाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माठर  : पुं० [सं०√मठ्+अरन्+अण्] १. सूर्य के एक पारिपार्श्वक जो यम माने जाते हैं। २. वेद-व्यास। ३. ब्राह्मण। ४. कताल। कलवार। वि० =मट्ठर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माठा  : वि० [हिं० मीठा] १. मधुर। २. गम्भीर। २. कंजूस। (डिं०) पुं० =मठा या मट्ठा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माठाधूपा  : पुं० [सं० मधुर+ध्रुपद] ध्रुपद का एक भेद
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माँठी  : स्त्री० [देश] फूल नामक धातु की ढली हुई एक प्रकार की चूड़ियाँ जो देहाती स्त्रियाँ पहनती हैं। स्त्री०=मठरी या मठ्ठी (पकवान)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माठी  : स्त्री० [देश] एक तरह की कपास।
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माठू  : पुं० [हिं० मिट्ठू] १. बंदर। वानर। २. तोता। वि० निर्बुद्धि। मूर्ख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँड़  : पुं० [सं० मण्ड] उबाले या पकाये हुए चावलो में से बाकी बचा हुआ पानी जो गिरा या निकाल दिया जाता है। पसाव। पीच। स्त्री० [हिं० माँड़ना] १. माँड़ने की क्रिया या भाव। २. एक प्रकार का राग जिसका प्रचलन राजस्थान में अधिक है। ३. एक प्रकार की रोटी। उदाहरण—झालर माँड़ आए घिउ पोए।—जायसी।
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माड़  : पुं० [सं०] ताड़ की जाति का एक पेड़। पुं० =माँड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँड़ना  : स० [सं० मंडन] १. मर्दन करना। मसलना। २. गूँधना। सानना। जैसे—आटा माँड़ना। ३. लेप करना। पोतना। ४. सजाना या सँवारना। ५. अन्न की बालों में से दाने झाड़ना। ६. ठानना। किसी प्रकार की क्रिया संपन्न करना अथवा उसका आरम्भ करना। जैसे—खाते या बही में कोई रकम माँड़ना, अर्थात् चढ़ाना या लिखना। मुहावरा—पग माँड़ना=पैर रोकना। ठहरना। रुकना। उदाहरण—आयी हूँ पग माँड़ि अहीर।—प्रिथीराज। बाद माँड़ना= (क) हठ करना। (ख) विवाद या बहस करना। उदाहरण—जाणे वाद माँड़ियों जीपण।—प्रिथीराज। ७. दे० ‘मलाना’।
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माड़ना  : स० [सं० मंडन] १. मंडित करना। भूषित करना। २. धारण करना० पहनना। ३. आदर-सम्मान करना। ४. मचाना। ५. माँड़ना। ६. मलना। मसलना। ७. रौंदना। अ० घूमना-फिरना। टहलना। अ० स०=माँड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँड़नी  : स्त्री० [सं० मंडन, हिं० माँड़ना] १. माँडऩे की क्रिया या भाव। २. किनारा। हाशिया। ३. मगजी। गोट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांडलिक  : पुं० [सं० मंडल+ठक्, ठ=इक, वृद्धि] १. मंडल का प्रधान प्रशासक २. वह छोटा राजा जो किसी चक्रवर्ती या बड़े राजा के अधीन हो और उसे कर देता हो। ३. शासन का कार्य। वि० मंडल संबंधी।
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माँड़व  : पुं० =मंडप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माड़व  : पुं० =मंडप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांडवी  : स्त्री० [सं०] राजा जनक के भाई कुशध्वज की कन्या जिसका विवाह राजा दशरथ के पुत्र भरत से हुआ था।
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मांडव्य  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि जिनको बाल्यावस्था के किये हुए अपराध के कारण यमराज ने सूली पर चढ़वा दिया था। २. एक प्राचीन जाति। ३. एक प्राचीन नगर।
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माँड़ा  : पुं० [स० मंड] १. आँख में झिल्ली पड़ने का एक रोग० २. इस प्रकार आँख में पड़नेवाली झिल्ली। पुं० [हिं० माँड़ना=गूँधना] १. एक प्रकार की बहुत पतली पूरी जो मैदे की होती है और घी में पकती हैं। लुच्ची। २. पराठा या पराठा नामक पकवान। ३. उलटा या चीला नामक पकवान। पुं० =मँड़वा (मंडप)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माड़ा  : वि० [सं० मंद] १. खराब। निकम्मा। २. दुर्बल शरीर का। दुबला-पतला। ३. बीमार। रोगी। ४. बहुत थोड़ा।
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माँड़ी  : स्त्री० [सं० मंड] १. भात का पसाव या माँड़ जो प्राय कपड़े या सूत पर कलफ करने के लिए लगाते हैं। २. उक्त काम के लिए बनाया जानेवाला जुलाहों का एक प्रकार का घोल या मिश्रण। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—देना।—लगाना।
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माड़ी  : स्त्री० १. =मंडप। २. =माँड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांडूक  : पुं० [सं० मंडूक+अण्] प्राचीन काल के एक प्रकार के ब्राह्मण जो वैदिक मंडूक शाखा के अंतर्गत होते थे।
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मांडूकायनि  : पुं० [सं० मंडूक+फिञ्, फ-आयन] एक वैदिक आचार्य।
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मांडूक्य  : पुं० [सं० मंडूक+यञ्, वृद्धि] एक प्रसिद्ध उपनिषद्। वि० मंडूक सम्बन्धी।
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मांढ़  : पुं० [सं० मंडप] स्त्रियों का पीहर। मायका। दाहरण-नयरी नड़ें माँढ़े बीचई।—नरपतिनाल्ह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँढ़ा  : पुं० =माँड़व।
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माढ़ा  : पुं० [सं० मंडप] घर के ऊपर का चौबारा जिसकी छत मंडप जैसी होती है। पुं० =मठा या मट्ठा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माढ़ी  : स्त्री० [हिं० मँढ़ी] मचिया। स्त्री०=मढ़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माण  : पुं० =मान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माणक  : पुं० [सं०√मान् (पूजा)+घञ्, +कन्, नि० णत्व] मानकंद।
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माणना  : अ० स० १. =माँड़ना। २. माड़ना।
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माणव  : पुं० [सं० मनु+अण्, न=ण, वृद्धि] १. मनुष्य। २. बालक। लड़का। ३. ऐसा हार जिसमें १६ लड़ें हों।
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माणव-विद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] जादू-टोना। तंत्र-मंत्र। (कौ)।
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माणवक  : पुं० [सं० माणव+कन्] १. सोलब वर्ष की अवस्थावाला युवक। २. तुच्छ या हीन व्यक्ति। ३. नाटा या बौना व्यक्ति। ४. बालक। लड़का। ५. विद्यार्थी। ६. सोलह लड़ोंवाली मोतियों की माला।
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माणवक-क्रीड़ा  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः नगण, मगण और दो लघु होते हैं।
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माणस  : पुं० =मानुस (मनुष्य)। पुं० =मानस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माणिक  : पुं० =माणिक्य।
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माणिक्य  : पुं० [सं० मणि+कन्+ष्यञ्] १. लाल नामक रत्न। २. एक प्रकार का केला। वि० सब में श्रेष्ठ।
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माणिक्या  : स्त्री० [सं० माणिक्य+टाप्] छिपकली।
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माणिबंध  : पुं० [सं० मणिबन्ध+अण्] सेंधा नमक।
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माणिमंथ  : पुं० [सं० मणिमंथ+अण्] सेंधा नमक।
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माँत  : वि० [सं० मत्त] १. मत्त। मस्त। २. मस्ती आदि के कारण बेसुध। ३. उन्मत्त। पागल। वि० [सं० मन्द] जिसका रंग या शोभा बहुत कम हो गयी हो। फीका। पड़ा हुआ। वि० [फा० मांदः] १. थका हुआ। २. हारा हुआ।
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मात  : वि० [अ] १. जो मर गया हो। मरा हुआ। २. हारा हुआ। पराजित। स्त्री० १. शतरंज के खेल में वह स्थिति जब कोई पक्ष बादशाह की मिलनेवाली शह को न बचा सकता हो और उस प्रकार उसकी हार हो जाती है। मुहावरा—मात करना= (क) शतरंज के खेल में विपक्षी को हराना। (ख) किसी युग, कार्य या बात में किसी से बढ़-चढ़कर होना। मात खाना= (क) शतरंज के खेल में हार होना। (ख) पराजित होना। २. पराजय। वि० [सं० मत्त] मतवाला। उदाहरण—मात निमत सब गरजहिं बाँधे।—जायसी। स्त्री०=माता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मातंग  : पुं० [सं० मतंग+अण्] १. हाथी। २. चांडाल। ३. किरात आदि किसी असभ्य जाति का व्यक्ति। ४. एक ऋषि। ५. अश्वत्थ पीपल। ६. संवर्त्तक मेघ।
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मातंगी  : स्त्री० [सं० मांतग+ङीष्] १. पार्वती। २. वसिष्ठ की पत्नी। ३. चांडाल जाति की स्त्री। ४. दस महाविद्याओं में से एक। (तंत्र)।
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मातदिल  : वि० [अ० माउतदिल] १. (पदार्थ) जिसका गुण या तासीर न तो अधिक गरम हो और न अधिक ठंढ़ी। समशीतोष्ण। २. जिसमें कोई बात आवश्यकता से अधिक या कम न हो। मध्यम प्रकृति का। संतुलित।
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माँतना  : अ०=मातना (मत होना)।
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मातना  : अ० [सं० मत्त] १. मस्त या मत्त होना। २. नशे मे चूर होना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मातबर  : वि० [अ० मोतबर] [भाव० मातबरी] जिसका एतबार किया जा सके। विश्वसनीय। विश्वस्त।
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मातबरी  : स्त्री० [अ० मोतबरी] मातबर अर्थात् विश्वसनीय होने की अवस्था या भाव। विश्वसनीयता।
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मातम  : पुं० [फा०] १. मृतक का शोक। मृत्युशोक। २. मृत्युशोक के कारण होनेवाला रोना-पीटना। ३. किसी बहुत बड़ी या अशुभ घटना का दुःख या शोक। क्रि० प्र०—मनाना।
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मातम-पुर्सी  : स्त्री० [फा०] मृतक के संबंधियों के यहाँ जाकर प्रकट की जानेवाली सहानुभूति।
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मातमी  : वि० [फा०] १. मातम संबंधी। २. शोकसूचक। जैसे—मातमी पोशाक। ३. मातम के रूप में होनेवाला। ४. मातम करनेवाला।
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मातमुख  : वि० [डिं] मूर्ख।
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मातरि-पुरुष  : पुं० [सं० स० त० विभक्ति का अलुक] वह जो अपनी मां के सामने अपनी वीरता का बखान करे, पर बाहर कुछ भी न कर सके।
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मातरिश्वा  : पुं० [सं०] १. पवन। वायु। २. एक प्रकार की अग्नि।
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मातलि  : पुं० [सं० मतल+इञ्] इंद्र का सारथी।
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मातहत  : वि० [अ] [भाव० मातहती] जो किसी के अधीन हो। पुं० अधीनस्थ। कर्मचारी।
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मातहतदार  : पुं० [अ+फा०] जमीन का वह मालिक जो दूसरे बड़े मालिक के अधीन हो।
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मातहती  : स्त्री० [अ] मातहत होने की अवस्था या भाव।
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माँता  : वि० =माता (मत्त)।
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माता (तृ)  : स्त्री० [स०√मान् (पूजा)+तृच्, नि, न-लोप] १. जन्म देनेवाली स्त्री। जननी माँ। २. आदरणीय, पूज्य या बड़ी स्त्री। ३. प्राचीन भारत में वेश्याओं की दृष्टि से वब वृद्धा स्त्री जो उनका पालन-पोषण करती थी और नाच-गाना आदि सिखाकर उनसे पेशा कराती थी। खाला। ४. चेचक या शीतला नामक रोग। ५. गौ। ६. जमीन। भूमि। ७. विभूति। ८. लक्ष्मी। ९. इंद्रवारुणी। १॰. जटामासी। वि० [सं० मत्त] [स्त्री० माती] मदमस्त। मतवाला।
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मातामह  : पुं० [सं० मातृ+डामहच्] [स्त्री० मातामहो] किसी कीमाता का पिता। नाना।
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मातिल-सूत  : पुं० [सं० ब० स०] इंद्र।
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मातु  : स्त्री०=माता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मातुल  : पु० [सं० मातृ+डुलच्] [स्त्री० मातुला, मातुलानी] १. माता का भाई मामा। २. धतूरा। ३. एक प्रकार का धान। ४. एक प्रकार का साँप। ५. मदन नामक वृक्ष।
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मातुला  : स्त्री०=मातुलानी।
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मातुलानी  : स्त्री० [सं० मातुल+ङीष्+आनुक्] १. मामा की स्त्री। मामी। २. भाँग।
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मातुली  : स्त्री० [सं० मातुल+ङीष्] १. मामा की पत्नी। मामी। २. भाँग।
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मातुलुंग  : पुं० [सं० मातुल√गम्+खच्, मुम्, पृषो० सिद्धि] बिजौरा नींबू।
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मातुलेय  : पुं० [सं० मातुली+ठक्-एय] [स्त्री० मातुलेयी] मामा का लडका। ममेरा भाई।
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मातृ  : स्त्री० [सं० दे० ‘माता’] जननी। माता।
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मातृ-गण  : पुं० [ष० त०] सात अथवा आठ मातृकाओं का गण या वर्ग।
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मातृ-चक्र  : पुं० [ष० त०] मातृकाओं का समूह।
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मातृ-तंत्र  : पुं० [ष० त०] कुछ प्राचीन जातियों में वह सामाजिक व्यवस्था जिसमें गृह की स्वामिनी माता मानी जाती थी और वह घरेलू व्यवस्था भी करती थी। (मैट्रिआर्की)।
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मातृ-तीर्थ  : पुं० [मध्य० स०] हथेली में छोटी उँगली के मूल का उभरा हुआ स्थान। (ज्योतिषी)
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मातृ-देश  : पुं० [सं० ष० त०] १. मृतभूमि। २. विशेषतः विदेशों में जाकर बसे हुए लोगों की दृष्टि से उनके पूर्वजों की मातृभूमि।
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मातृ-नंदन  : पुं० [सं० ष० त०] १. कार्तिकेय। २. महाकरंज।
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मातृ-पूजा  : स्त्री० [ष० त०] विवाह के दिन से पहले छोटे-छोटे मीठे पुए बनाकर पितरों का किया जानेवाला पूजन।
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मातृ-प्रणाली  : स्त्री०=मातृ-तंत्र।
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मातृ-बंधु  : पुं० [ष० त०] माता के संबंध का अथवा मातृपक्ष का कोई आत्मीय।
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मातृ-भाषा  : स्त्री० [ष० त०] १. किसी व्यक्ति की दृष्टि से उसकी माँ द्वारा बोली जानेवाली भाषा जिसे वह माँ की गोद में ही सीखने लगता है। २. किसी व्यक्ति की दृष्टि से वह भाषा जो उसकी राष्ट्रीयता के अन्य लोग बोलते हों।
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मातृ-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान या देश जिसमें किसी का जन्म हुआ हो और इसीलिए जो उसे माता के समान प्रिय समझता हो।
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मातृ-मंडल  : पुं० [ष० त०] दोनों आँखों के बीच का स्थान।
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मातृ-माता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. माता की माता। नानी। २. दुर्गा।
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मातृ-मुख  : वि० [ब० स०] हर काम या बात में माता का मुँह ताकनेवाला अर्थात् जड़मति। मूर्ख।
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मातृ-यज्ञ  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का यज्ञ जो मातृकाओं के उद्देश्य से किया जाता है।
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मातृ-रिष्ट  : पुं० [सं० ष० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार एक दोष जिसके कारण प्रसव के उपरान्त माता पर संकट आता या उसके प्राण जाने का भय होता है।
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मातृ-वत्सल  : पुं० [सं० ष० त०] कार्तिकेय।
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मातृ-शासित  : वि० [सं० तृ० त०] माता के शासन मे ही ठीक तरह से रहनेवाला, अर्थात् मूर्ख।
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मातृ-ष्वसा (सृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] मौसी। माँ की बहन।
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मातृ-सत्रा  : स्त्री० [सं०] =मातृतंत्र।
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मातृ-सपत्नी  : स्त्री० [सं० ष० त०] सौतेली माता। विमाता।
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मातृ-स्तन्य  : पुं० [सं० ष० त०] माँ का दूध।
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मातृ-हत्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. माँ को मार डालना। (मैट्रिसाइड)। २. माँ को मार डालने से लगनेवाला पाप।
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मातृक  : वि० [सं० समास में] १. माता-सबंधी। माता का। २. माता के पक्ष से प्राप्त होनेवाला (अधिकार, व्यवहार आदि) ‘पितृक’ का विरुद्धार्थक (मैट्रिआर्कल)। पुं० १. मामा। २. ननिहाल। वि० सं० ‘मात्रिक’ का अशुद्ध रूप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मातृक-च्छिद  : पुं० [सं० मातृ-क=शिर, ष० त०, मातृक√छिद् (काटना)+क, तुक्] परशुराम।
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मातृक-प्रणाली  : स्त्री० दे० ‘मातृ-तंत्र’।
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मातृका  : पुं० [सं० मातृ+कन्+टाप्] १. जननी। माता। २. गौ। ३. दूध पिलानेवाली दाई। धाय। ४. सौतेली माँ। उपमाता। ५. तांत्रिकों की एक प्रकार की देवियाँ जिनकी संख्या मात कही गयी है। ६. वर्णमाला की बारहखड़ी। ७. ठोढ़ी पर की आठ विशिष्ट नसें। ८. वह स्त्री जो लड़कियों, दाइयों आदि के कामों को देख-रेख करती हो। (मेट्रन)।
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मातृका-क्रम  : पुं० दे० ‘अक्षर क्रम’।
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मातृत्व  : पुं० [सं० मातृ+त्व] मातृ या माता अर्थात् संतानवती होने की अवस्था पद या भाव। (मैटर्निटी)।
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मातृपक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] किसी की माता के पूर्वजों का कुल या पक्ष। ननिहाल।
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मातृष्वसेय  : पुं० [सं० मातृष्वस्+ढक्, एय] [स्त्री० मातृष्वसेयी] मौसेरा भाई।
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मांत्र  : वि० [सं० मंत्र+ठक्, ठ-इक] १. वह जो मंत्रों का पाठ करने में पारंगत हो। २. वह जो मंत्र-तंत्र आदि का अच्छा ज्ञाता हो।
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मात्र  : अव्य० [सं०√मा (मान)+त्रण्] इस, इन या इतने से अधिक दूसरा नही। जैसे—(क) मात्र एक रुपया मुझे मिला है। (ख) मात्र १५ आदमी वहाँ पहुँचे। (ग) सब चुप रहे, मात्र बोलनेवाले अधिकारी गण थे।
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मात्रक  : पुं० [सं० मात्र+कन्] १. वह निश्चित मात्रा या मान जिसे एक मानकर उसी के हिसाब से या मेल से अन्य चीजों की संख्या निर्धारित की जाय। इकाई। (यूनिट)। २. किसी समूह की कोई एक वस्तु या अंग। ३. वह जिसकी भिन्न या स्वतन्त्र सत्ता हो। (यूनिट)।
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मात्रा  : स्त्री० [सं० मात्र+टाप्] १. लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई दूरी, विस्तार संख्या आदि जानने या निश्चित करने का परिमाण या साधन। २. कोई ऐसा मानक उपकरण या साधन जिससे कोई चीज तौली या नापी-जोखी जाती हो। परिमाण या माप जानने का साधन। ३. किसी वस्तु का ठीक आयतन, तौल या नाप। परिमाण। ४. किसी पूरी या समूची इकाई का उतना अंश या भाग जितना अपेक्षित, आवश्यक या प्रस्तुत हो। जैसे—(क) वहां सभी पदार्थ बहुत अधिक मात्रा में रखे थे। (ख) दाल में नमक कुछ अधिक मात्रा में पड़ गया है। ४. औषधि आदि का उतना अंश या परिमाण जितना एक बार में खाया जाता हो या खाया जाना अपेक्ष्य हो या उचित हो। ६. किसी चीज का नियत या निश्चित छोटा भाग। ७. उतना काल या समय जितना एक ह्रस्व अक्षर का उच्चारण करने में लगता है। ८. उच्चारण, संगीत आदि में काल का उतना अंश जितना किसी विशिष्ट ध्वनि के उच्चारण में लगता है। ९. बारह खड़ी लिखने में वह स्तर-चिन्ह जो किसी अक्षर के ऊपर नीचे या आगे-पीछे लगता है। जैसे—ह्रस्व इ की मात्रा और दीर्घ ऊ का मात्रा। १॰. संगीत में उतना काल जितना एक स्वर के उच्चारण में लगता है। ११. संगीत मे ताल का नियत या निश्चित विभाग। जैसे—तीन मात्राओं का ताल, चार मात्राओं का ताल। १२. इंद्रिय, जिसके द्वारा विषयों का ज्ञान होता है। १३. अंग। अवयव। १४. किस वस्तु का बहुत छोटा कण या अणु। १५. आवृत्ति रूप। १६. बल। शक्ति। १७. राजाओं के वैभव के सूचक घोड़े, हाथी आदि परिच्छद। १८. कान में पहनने का एक प्रकार का घोडा।
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मात्रा-वृत्त  : पुं० [मध्य० स०] मात्रिक छन्द।
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मात्रा-स्पर्श  : पुं० [ष० त०] विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग।
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मात्रासम  : पुं० [स० त०+कन्] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ और अन्त में गुरु होता है।
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मात्रिक  : वि० [सं० मात्रा+ठक्-इक] १. मात्रा-संबंधी। २. किसी एक इकाई से सम्बन्ध रखनेवाला। एकात्मक। (युनिटरी)। ३. जिसमें मात्राओं की गणना या विचार होता है। जैसे—मात्रिक छन्द।
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मात्रिक-छंद  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह छंद जिसके चरणों की गठन मात्राओं का ध्यान रखकर की गयी हो।
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मात्सर  : वि० [सं० मत्सर+अण्] मत्सरयुक्त।
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मात्सर्य  : पुं० [सं० मत्सर+ष्यञ्] मत्सर का भाव। ईर्ष्या। डाह।
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मात्स्य  : वि० [सं० मत्स्य+अण्] मछली-संबंधी। मछली का। पुं० एक प्राचीन ऋषि।
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मात्स्य-न्याय  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसी स्थिति जिसमें बड़ा या शक्तिशाली छोटे या दुर्बल को उसी प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है।
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मात्स्यिक  : पुं० [सं० मतस्य+ठक्-इक] मछली मारनेवाला। मछुआ। वि० मत्स्य या मछली से सम्बन्ध रखनेवाला।
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माथ  : पुं० =माथा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माथ-बंधन  : पुं० [हिं० माथा+सं० बंधन] १. सिर पर लपेटने या बाँधने का कपड़ा। जैसे—पगड़ी, साफा आदि। २. स्त्रियों की चोटी बाँधने की डोरी। चोटी। पराँदा।
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माथना  : सं०=मथना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मांथर्य  : पुं० [सं० मंथर+ष्यञ्] १. मंथर होने की अवस्था या भाव। मंथरता। धीमापन। २. सुस्ती।
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माँथा  : पुं० [सं० मस्तक] माथा। सिर।
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माथा  : पुं० [सं० मस्तक] १. सिर का अगला भाग। मस्तक। पद—माथा-पच्ची, माथा-पिट्टन। मुहावरा—(किसी के आगे या सामने) माथा घिसना=बहुत दीनता या नम्रतापूर्वक मिन्नत या खुशामद करना। माथा टेकना=सिर झुकाकर प्रणाम करना। माथा ठनकना= (क) सिर में हलकी धमक या पीड़ा होना। (ख) लाक्षणिक रूप में पहले से ही किसी दुर्घटना या बाधा होने की आसंका होना। माथा रगड़ना=दे० ऊपर माथा घिसना। माथे चढ़ना=शिरोधार्य करना। (किसी के) माथे का टीका होना=कोई ऐसी विशेषता होना जिसके कारण महत्त्व या श्रेष्ठता प्राप्त हो। माथे पर बल पड़ना=आकृति से अप्रसन्नता, रोष आदि प्रकट होना। माथे भाग होना=भाग्यवान् होना। (कोई चीज किसी के) माथे मारना=बहुत उपेक्षापूर्वक या तुच्छ भाव से देना। जैसे—वह रोज तमाशा करता है, उसकी किताब उसके माथे मारो। २. ऐसा अंकन या चित्र जिसमें केवल मुख और मस्तक बना हो, धड आदि शेष अंग न दिखाये गये हों। विशेष—शेष मुहावरों के लिए देखे सिर के मुहावरा। ३. किसी पदार्थ का अगला और ऊपरी भाग। जैसे—नाव का माथा। मुहावरा—माथा मारना=जहाज का वायु के विपरीत जोर मारकर चलना (लश०) पुं० [देश] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।
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माथा-पच्ची  : स्त्री० [हिं० माथा+पचाना] किसी काम या बात के लिए बहुत अधिक बोलने या समझने-समझाने के लिए होनेवाला ऐसा परिश्रम जिससे जी ऊब जाय या शरीर थक जाय। सिर-पच्ची।
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माथा-पिट्टन  : स्त्री० [सं० माथा+पीटना] १. दुःख आदि के समय अपना सिर पीटने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘माथा-पच्ची’।
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माथुर  : पुं० [सं० मथुरा+अण्०] [स्त्री० मथुरानी] १. मथुरा का निवासी। २. मथुरा में रहनेवाले चतुर्वेदी ब्राह्मण। चौबे। २. कायस्थों में एक जाति या वर्ग। ४. वैश्यों में एक जाति या वर्ग। ४. मथुरा और उसके आस-पास का प्रदेश। ब्रज-मंडल। वि० मथुरा-संबंधी। मथुरा का।
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माथे  : क्रि० वि० [हिं० माथा] मस्तक पर। अव्य०=मत्थे।
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माथै  : अव्य०=मत्थे। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँद  : वि० [सं० मंद] १. जो उदास या फीका पड़ गया हो। जिसका रंग उतर गया या हलका पड़ा गया हो। मलिन। २. फीका। श्री-हीन। ३. किसी की तुलना में घटकर या हलका। क्रि० प्र०—पड़ना। ४. दबा या हारा हुआ। पराजित। मात। स्त्री० [देश] १. गोबर का ढेर जो सूख गया हो और जलाने के काम में आता हो। २. जंगलों पहाड़ों आदि में सुरंग की तरह की कोई ऐसी प्राकृतिक स्थान जिसमें कोई हिंसक पशु रहता हो।
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माद  : पुं० [सं०√मद् (मत्त होना)+घञ्] १. अभिमान। २. प्रसन्नता। हर्ष। ३. मद। मत्तता। पुं० [?] छोटा रस्सा। (लश०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मादक  : वि, ० [सं०√मद्+ण्वुल्-अक] मद के रूप में होनेवाला। फलतः नशा लानेवाला। नशीला। पुं० १. नशा उत्पन्न करनेवाला पदार्थ। जैसे—अफीम, भाँग, शराब आदि। २. प्राचीन काल का एक प्रकार का असत्र। कहते है कि इसके प्रयोग से शत्रु में प्रमाद उत्पन्न होता था। ३. एक प्रकार का हिरन।
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मादकता  : स्त्री० [सं० मादक+तल्+टाप्] मादक होने की अवस्था या भाव।
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माँदगी  : स्त्री० [पा०] १. माँदा होने की अवस्था या भाव। १. बीमारी। रोग। ३. थकावट।
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मादन  : पुं० [सं०√मद्+णिच्+ल्युट-अन, वृद्धि] १. मदन नामक वृक्ष। २. कामदेव। मदन। ३. लौंग। ४. धतूरा। वि० =मादक। उदाहरण—जैसे असंख्य मकुलों का मादन विकास कर आया।—प्रसाद।
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मादनी  : स्त्री० [सं० मादन+ङीष्] १. भाँग। २. मदिरा। शराब। ३. नशा लानेवाली कोई चीज। उदाहरण—बिना मादनी का जग जीवन बिना चाँदनी का अंबर।
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मादनीय  : वि० [सं०√मद्+णिच्+अनीयर] मादक। नशीला।
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माँदर  : पुं० =मर्दल (बाजा)।
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मादर  : स्त्री० [सं० मातृ से फा०] माँ। माता। पुं० =मादल या मर्दल नामक बाजा। उदाहरण—मंदिर वेगि सँवारा मादर तर उछाह।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मादरजाद  : वि० [फ़ा०] १. जन्म का। जैसे—मादरजाद अंधा। २. जैसा जन्म के समय रहा हो, ठीक वैसा। जैसे—मादरजाद नंगा। ३. एक ही माता से उत्पन्न (दो या अधिक)। सगा सहोदर।
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मादरिया  : स्त्री०=मादर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मादरी  : वि० [फा०] माता-संबंधी। माता का।
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मादल  : पुं० [सं० मर्दल] पखावज की तरह का एक बाजा।
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माँदा  : वि० [फा० मांदः] १. बीमार। रोग आदि से ग्रस्त। पद—थका-मांदा। २. छोड़ा हुआ। बचा हुआ।
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मादा  : पुं० [फा० मादः] स्त्री जाति की जीव या प्राणी। जैसे—साँड़ की मादा गाय कहलाती है। पुं० =माद्दा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांदार  : वि० [सं० मंदार+अण्] मंदार (मदार) संबंधी।
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मादिक  : वि० =मादक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मादिकता  : स्त्री०=मादकता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मादिन  : स्त्री०=मादा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मादी  : स्त्री०=मादा।
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मादीन  : स्त्री०=मादा।
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माद्दा  : पुं० [अ० माद्दः] १. वह मूल तत्त्व या द्रव्य जिससे सारे संसार की सृष्टि हुई है। २. वह मूल पदार्थ जिससे कोई दूसरा पदार्थ बना हो। ३. व्याकरण में शब्द का मूल या व्युत्पत्ति। ४. वह गुण, तत्त्व, योग्यता अथवा पात्रता जिससे मनुष्य कुछ करने-धरने या समझने-भूझने के योग्य होता है। ५. फोड़े में से निकलनेवाली पीब। मवाद। ६. किसी चीज के अन्दर भरा हुआ कोई दोष या विकार।
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माद्दी  : वि० [अ०] १. माद संबंधी। मादा का। २. भौतिक। जड़। ३. पैदाइशी।
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मांद्य  : पुं० [सं० मंद+ष्यञ्] १. मंद होने की अवस्था या भाव। मंदता जैसे—अग्नि मांद्य। २. दुर्बलता। ३. कमी। न्यूनता। ४. बीमारी। रोग। ५. मूर्खता।
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माद्रवती  : स्त्री० [सं०] १. राजा परीक्षित की स्त्री का नाम। २. पांडु की दूसरी पत्नी का नाम। माद्री।
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माद्री  : स्त्री० [सं० मद्र+अण्+ङीप्] मद्र देश के राजा की कन्या जो राजा पांडु से ब्याही गयी थी। नकुल और सहदेव इसी के पुत्र थे।
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माद्रेय  : पुं० [सं० माद्री+ढक्, ढ-एय] माद्री के पुत्र नकुल और सहदेव।
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माधव  : वि० [सं० मधु+अण्] १. मधु संबंधी। २. मधु ऋतु सम्बन्धी। ३. मधु राक्षस का (वंशज)। पुं० [सं० ष० त०] १. कृष्ण। २. वैशाख मास। ३. बसंत ऋतु। ४. महुआ। ५. काला उड़द। ६. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में ८ जगण होते हैं। ७. एक प्रकार का राग जो भैरव राग के आठ पुत्रों में से एक माना गया है ८. एक प्रकार का संकर राग जो मल्लाह, बिलावल और नट-नारायण के योग से बना है।
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माधवक  : पुं० [सं० माधव+वुञ्-अक] महुए की शराब।
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माधविका  : स्त्री० [माधवी+कन्+टाप्, ह्रस्व] माधवी लता।
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माधवी  : स्त्री० [सं० माधव+ङीप्] १. एक तरह का प्राचीन पेय पदार्थ जो मधु से बनाया जाता था। २. एक प्रसिद्ध लता जिसमें सुगंधित फूल लगते हैं। ३. उक्त लता के फूल। ४. संगीत में, ओडव जाति की एक रागिनी जिसमें गांधार और धैवत वर्जित है। ५. वाम नामक सवैया छन्द का एक भेद। ६. तुलसी। ७. दुर्गा। ८. कुटनी। दूती। ९. शहद की चीनी।
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माधवी-लता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] माधवी नामक सुगंधित फूलों की लता।
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माधवोद्भव  : पुं० [सं० माधव-उद्भव, ब० स०] खिरनी का पेड़।
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मांधाता (तृ)  : पुं० [सं० माम्√धे (पाना)+तृच्] अयोध्या का एक प्राचीन सूर्यवंशी राजा जो दिलीप के पूर्वजों में से था।
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माधी  : पुं० [देश] एक प्रकार का राग।
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माधुक  : पुं० [सं० मधुक+अण्] १. मैत्रेयक नाम की वर्णसंकर जाति। २. महुए की शराब।
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माधुकर  : वि० स्त्री० [स० मधुकर+अण्] [स्त्री० माधुकरी] मधुकर या भौंरे की तरह का।
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माधुपार्किक  : पुं० [स० मधुपर्क+ठक्-इक] वह पदार्थ जो मधुपर्क देने के समय दिया जाता है। वि० १. मधुपर्क सम्बन्धी। मधुपर्क का। २. अतिथि को आदपूर्वक दिया जानेवाला।
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माधुर  : पुं० [सं० मधुर+अण्] मल्लिका। चमेली।
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माधुरई  : स्त्री०=मधुरता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माधुरता  : स्त्री०=मधुरता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माधुरी  : स्त्री० [सं० माधुर्य+ङीष्, य लोप] १. मधुर होने की अवस्था या भाव। मधुरता। २. मिठास। ३. मिठाई। ४. शराब।
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माधुर्य  : पुं० [सं० मधुर+ष्यञ्] १. मधुर होने की अवस्था या भाव। मधुरता। २. शोभा से युक्त सुन्दरता। ३. मिठास। ४. पांचाली रीति के अन्तर्गत काव्य का एक गुण। ५. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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माधैया  : पुं० =माधव। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माधो  : पुं० =माधव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माधौ  : पुं० =माधव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माध्य  : पुं० [सं० माघ+यत्] कुंद का फूल।
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माध्य  : वि० [सं० मध्य+अण्] मध्य का। बिचला। पुं० १. कई संख्याओं आदि के जोड़ को गिनती की उन संख्याओं से भाग देने पर निकलनेवाला भाग-फल जो उन सब संख्याओं का औसत या मध्यमान सूचित करता है। बराबर का पड़ता। औसत। (एवरेज)। उदाहरणार्थ यदि किसी विद्यालय की पहली कक्षा में ३॰, दूसरी कक्षा में २५, तीसरी कक्षा में २॰, चौथी कक्षा में १५ और पाँचवी कक्षा में १॰ विद्यार्थी हों तो सब मिलाकर १॰॰ विद्यार्थी हुए। कक्षाएँ कुल ५ हैं, अतः १॰॰ को ५ से भाग देने पर भाग-फल २॰ होगा। इस आधार पर कहा गया कि विद्यालय की प्रत्येक कक्षा में विद्यार्थियों का माध्य २॰ है। २. दे० ‘मध्यमान’।
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माध्यकर्षण  : पुं० [सं० माध्य-आकर्षण, कर्म० स०] भौतिक विज्ञान में यह तत्त्व या सिद्धान्त कि पृथ्वी और उसके चारों ओर के आकाश या वातावरण में जितने पदार्थ हैं, वे सब पृथ्वी के केन्द्र की ओर आकृष्ट होते हैं—पृथ्वी का मध्यभाग या केन्द्र उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करता हैं। प्रत्येक पदार्थ गिरने पर पृथ्वी की ओर आकृष्ट होता है, वह इसी माध्याकर्षण का परिणाम है। (ग्रैविटी)।
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माध्यंदिन  : पुं० [सं० मध्य+दिनण्, पृषो० नुम्] मध्याह्न। दोपहर।
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माध्यंदिनी  : स्त्री० [सं० माध्यंदिन+ङीष्] शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा।
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माध्यंदिनीय  : पुं० [सं० माध्यंदिन+छ-ईय] नारायण। परमेश्वर।
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माध्यम  : वि० [सं० मध्यम+अण् या मध्य+मण्] मध्य का। बीचवाला। पुं० १. वह तत्त्व जिसके द्वारा कोई क्रिया संपन्न होती है, कोई परिणाम या फल निकलता हो अथवा किसी प्रकार का प्रभाव उत्पन्न होता हो। किसी क्रिया का मध्यवर्ती उपाय या साधन २. वह भाषा जिसके द्वारा शिक्षा दी जाय। ३. (कला के क्षेत्र में) वह पदार्थ जिसके आधार या सहायता से कोई कृति प्रस्तुत की जाय। ४. वह व्यक्ति जिसमें किसी अन्य व्यक्ति की आत्मा पाकर कुछ समय के लिए ठहरती और अपनी बातें, उत्तर आदि उसी व्यक्ति के द्वारा प्रकट करती या कहती हो।
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माध्यमिक  : वि०=माध्यमिक।
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माध्यमिक  : पुं० [सं० मध्यम+ठक्-इक] १. बौद्धों के महायान की दो शाखाओं में से एक शाखा (दूसरी शाखा योगाचार) है जिसका मत है कि सब पदार्थ शून्य से उत्पन्न होते है और अंत में शून्य हो जाते हैं। २. मध्य देश। ३. मध्य देश का निवासी। वि० =माध्य।
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माध्यमिक शिक्षा  : स्त्री० [कर्म० स०] प्रारम्भिक शिक्षा के उपरांत और उच्च शिक्षा के पहले दी जानेवाली शिक्षा (सेकेंडरी एजुकेशन) विशेष—मुख्यतः पाँचवी कक्षा से १0वीं या ११वीं कक्षाओं तक दी जानेवाली शिक्षा।
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माध्यस्थ  : पुं० [सं० मध्य√स्था (ठहरना)+क+अण्] १. मध्यस्थ। बिचवई। २. मध्यस्थता। ३. दलाल। ४. प्रेमी और प्रेमिका का दूतत्व करनेवाला व्यक्ति। कुटना। ५. विवाह करानेवाला ब्राह्मण। बरेखी।
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माध्याह्निक  : पुं० [सं० मध्याह्न+ठक्-इक] ठीक मध्याह्न के समय किया जानेवाला धार्मिक कृत्य।
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माध्यिक  : वि० [सं०] १. मध्य-सम्बन्धी। मध्य का। २. बीच में रहने या होनेवाला। पुं० १. किसी क्रम या श्रृंखला के ठीक बीच का वह बिन्दु जिसके ऊपर और नीचे दोनो ओर गिनती के विचार से बराबर इकाइयाँ हों। (मीडियन)। जैसे—१, २, ३, ४ और ५ में ३ माध्यिक है।
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माध्व  : वि० [सं० मध्व+अण्] १. मधुनिर्मित। २. बसंत सम्बन्धी। पुं० १. विष्णु। २. कृष्ण। ३. बसंत। ४. वैशाख। ५. मध्वाचार्य द्वारा चलाया हुआ एक वैष्णव संप्रदाय। ६. महुए का पेड़। ७. काला मूँग।
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माध्वक  : पुं० [सं० माध्वीक, पृषो, ई-अ] महुए की शाखा।
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माध्विक  : पुं० [सं० मधु+ठक्-इक, वृद्धि] वह जो मधु-मक्खियों के छत्तों में से शहद इकट्ठा करने का काम करता हो।
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माध्वी  : स्त्री० [सं० मधु+अण्+ङीष्] १. एक तरह की लता जिसमें सुगंधित फूल लगते हैं। माधवी लता। २. महुए की शराब। ३. मदिरा। शराब। ४. पुराणानुसार एक नदी का नाम। ५. मधुर-कंटक नामक मछली। ६. वाम नामक छंद।
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माध्वीक  : पुं० [सं० माध्वी+कन्] १. महुए की शराब। २. दाख की शराब। ३. मकरंद। ४. सेम।
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माध्वीका  : स्त्री० [सं० माध्वीक+टाप्] सेम।
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मान  : पुं० [सं०√मान् (पूजा)+घञ्] १. प्रतिष्ठा। सम्मान। इज्जत। पद—मान-महत, मान-हानि। मुहावरा—(किसी का) मान रखना=ऐसा काम करना जिससे किसी की प्रतिष्ठा बनी रहे। २. अपनी प्रतिष्ठा या सम्मान अथवा गौरव का उचित अभिमान या ध्यान। आत्म-गौरव या आत्मप्रतिष्ठा का मन में रहनेवाला भाव या विचार। ३. अनुचित और निंदनीय रूप में होनेवाला अभिमान। घमंड। शेखी। मुहावरा—(किसी का) मान मथना= अच्छी तरह दबाकर या पीड़ित करके अभिमान और प्रतिष्ठा नष्ट करना। ४. मन में होनेवाला विकार जो अपने प्रिय व्यक्ति को अनुचित तथा फलस्वरूप उस व्यक्ति के प्रति उदासीनता होने लगती है रूठने की क्रिया या भाव। विशेष—स्त्रियाँ प्रायः ईर्ष्यावश अपने पति या प्रेमी के प्रति रूठे हुए होने का जो भाव व्यक्त करती हैं, साहित्य में विशिष्ट रूप से वही मान कहलाता है। पद—मान-मोचन। मुहावरा—मान मनाना=रूठे हुए व्यक्ति का मान दूर करके उसको मनाना। मान मोड़ना=मान का त्याग करना। रूठा न रहना। पुं० [सं०√मा (मापना)+ल्युट-अन] १. मापने या नापने की क्रिया या भाव। २. मापने या नापने पर ज्ञात होनेवाला परिमाण। मापफल। ३. वह मानक दंड या पात्र जिसके द्वारा कोई चीज तौली या नापी जाती है। तौल, नाप आदि जानने का साधन। जैसे—गज, सेर आदि। ४. ऐसा काम या बात जिससे कोई चीज या बात प्रमाणिक अथवा सिद्ध हो जाती है। ५. तुल्यता। समानता। ६. किसी काम या बात के संबंध में ऐसी योग्यता या शक्ति जिससे वह काम या बात पूरी उतर सके या उस पर ठीक तरह से वश चल सके। जैसे—यह काम उनके मान का नहीं हैं, अर्थात् इस काम के लिए जिस योग्यता या शक्ति की अपेक्षा है उसका उनमें अभाव है। मुहावरा—(किसी के) मान रहना=किसी के आश्रय या भरोसे में रहना। किसी के बल या सहारे पर अच्छी तरह जीवन-निर्वाह करना या समय बिताना। जैसे—यदि आज उन्हें कुछ हो जाता तो मैं किसके मान दिन बिताती। (स्त्रियाँ)। ७. पुष्कर द्वीप का एक पर्वत। ८. उत्तर दिशा का एक देश। ९. ग्रह। १॰. मंत्र। ११. संगीत शास्त्र के अनुसार ताल में का विराम जो सम, विषम, अतीत और अनागत चार प्रकार का होता है।
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मान कच्चू  : पुं० =मानकंद।
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मान-चित्र  : पुं० [सं० ष० त०] किसी चिपटे तल पर किया हुआ रेखाओं का ऐसा अंकन जिसमें किसी भू-भाग की नदियों, पहाड़ों, नगरों आदि के स्थान, विस्तार आदि दिखाये गये हों। किसी स्थान का बना हुआ नक्शा (मैप)। जैसे—एशिया का मानचित्र।
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मान-चित्रक  : पुं० [सं०] वह जो मानचित्र बनाता या मान-चित्रण करता हो।
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मान-चित्रण  : पुं० [सं०] मानचित्र अर्थात् नक्शे बनाने की कला या विद्या (मैपिंग)।
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मान-दंड  : पुं० [सं० ष० त०] १. मान नापने का कोई उपकरण। २. लाक्षणिक रूप में कोई ऐसा कल्पित परिमाण जिससे दूसरी बातों का महत्त्व या मूल्य आँका जाता हो।
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मान-देय  : पुं० [सुप्सुपा स०] किसी काम या सेवा के बदले में आदरपूर्वक दिया जानेवाला धन। (आनरेरियम)।
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मान-धन  : पुं० [ब० स०] १. वह जो अपने मान या प्रतिष्ठा को सबसे अधिक मूल्यवान समझता हो। आत्म-सम्मान या ध्यान रखनेवाला। २. अभिमानी। घमंडी।
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मान-भाव  : पुं० [ष० त०] १. वह अवस्था जिसमें कोई मान करके या रूठकर बैठा हो। २. चोंचला। नखरा।
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मान-मंदिर  : पुं० [स० त०] १. दे० ‘मानगृह’। २. वह स्थान, जिसमें ग्रहों आदि का वेध करने के यंत्र तथा सामग्री हों। वेधशाला। विशेष—जयपुर के महाराज मानसिंह ने काशी, दिल्ली, उज्जैन आदि में अपने नाम पर कुछ वेधशालाएँ बनवायी थी, उन्हीं के आधार पर अब वेधसाला मात्र को मान-मंदिर कहने लगे हैं।
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मान-मनौअल  : स्त्री० [हिं० मान=अभिमान+मनाना] रूठकर बैठनेवाले या रूठे हुए को मनाने की क्रिया या भाव।
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मान-मनौती  : स्त्री०[हिं० मान+मनौती] १. मानता। मनौती। २. पारस्परिक प्रेमपूर्वक सम्बन्ध। ३. दे० ‘मान-मनौअल’।
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मान-मरोर  : स्त्री० दे० ‘मन-मुटाव’।
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मान-महत  : पुं० [सं० मान-महत्व] प्रतिष्ठा और बड़प्पन।
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मान-महत्  : वि० [ब० स०] बहुत बड़ा अभिमानी या घमंडी।
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मान-मोचन  : पुं० [ष० त०] (साहित्य में) मान करनेवाले प्रिय को मनाकर समझा-बुझाकर उसका मान छुड़ाना और उसे अपने प्रति प्रसन्न करना।
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मान-रंध्रा  : स्त्री० [सं० ब० स+टाप्] प्राचीन काल की जल-घड़ी जिसका व्यवहार समय जानने के लिए होता था।
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मान-हंस  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में स, ज, ज, भ, र होते हैं।
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मान-हानि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. कोई ऐसा काम या बात जिसमें किसी का अपमान या अप्रतिष्ठा होती हो और जो सामाजिक आदि दृष्टियों से अनुचित और निन्दनीय हो। २. इस प्रकार होनेवाली मानहानि। (डिफेमेशन)।
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मानक  : पुं० [स० मान+कप्] मानकच्चू। मानकंद। पुं० [सं० मान से] विशिष्ट वस्तुओं के आकार, प्रकार महत्त्व आदि जाँचने का कोई आधिकारिक आदर्श, मानदंड या रूप। (स्टैन्डर्ड)।
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मानक समय  : पुं० [सं०] दिन-रात आदि के समय का वह विभाजन जो किसी क्षेत्र या देश में आधिकारिक रूप से मानक माना जाता हो। (स्टैंडर्ड टाइम)।
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मानक-काल  : पुं० [सं०] दे० ‘मानक समय’।
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मानकंद  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. एक तरह का कंद। मानकच्चू। २. सालिब मिश्री नामक कंद।
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मानकित  : भू० कृ० [हिं० मानक से] मानक के रूप में किया या लाया हुआ। (स्टैंडर्डाइज़ड)।
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मानकीकरण  : पुं० [सं०] एक ही प्रकार या वर्ग की बहुत सी वस्तुओं के गुण, महत्त्व आदि का मानक रूप स्थिर करने की क्रिया या भाव। (स्टैण्डर्डाइजेशन)। जैसे—बटखरों का मानकीकरण, जजों का मानकीकरण।
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मानगृह  : पुं० [सं० ष० त०] १. प्राचीन राजमहलों में वह कमरा जिसमे राजा से रूठी हुई रानी मान करके बैठती थी। २. साहित्य में वह स्थान जहाँ पर नायिका मान करके बैठी हुई हो।
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मानचित्रांकन  : पुं० [सं० मानचित्र-अंकन, ष० त०] मानचित्र बनाने और रेखाचित्र अंकित करने की कला या विद्या।
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मानचित्रावली  : स्त्री० [सं० मानचित्रा-अवली, ष० त०] पृथ्वी, भीखण्डों, देशों, प्रांतो आदि के भौगोलिक चित्रों का पुस्तकाकार समूह। मानचित्रों का संकलन या संग्रह। (एटलस)।
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मानज  : पुं० [सं० मान√जन् (उत्पत्ति)+ड] क्रोध। वि० मान से उत्पन्न।
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मानतरू  : पुं० [सं० मध्यम०स०] खेतपापड़ा।
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मानता  : स्त्री०=मनौती। क्रि० प्र०—उतारना।—चढ़ाना।—मानना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मानद  : पुं० [सं० मान√दा (देना)+क] विष्णु। वि० मान या प्रतिष्ठा देने या बढ़ानेवाला।
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मानधाता  : पुं० =मांघाता (एक सूर्यवंशी राजा)।
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मानन  : पुं० [सं०√मान्+ल्युट-अन] १. मान करने की क्रिया या भाव। २. आदर या सम्मान करना।
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मानना  : अ० [सं० मानन] १. मन से यह समझ लेना कि जो कुछ कहा या किया गया है, अथवा जो कुछ प्रस्तुत है वह उचित है ठीक समझकर अंगीकृत या गृहीत करना। जैसे—मैं मानता हूँ कि इसमें आपका की दोष नहीं है। २. मन में किसी प्रकार की धारणा या विचार स्थिर करना। जैसे—आप तो जरा सी बात में बुरा मान गये। ३. किसी प्रकार की आज्ञा, आदेश, विधान आदि को ठीक समझकर उसके अनुकूल आचरण या व्यवहार करना। जैसे—वह सीधी तरह से नहीं मानेगा। स० १. किसी बात को अंगीकृत, ग्रहण या स्वीकार करना। जैसे—किसी की बात मानना। २. किसी काम बात या विषय के संबंध में तर्क के निर्वाह के लिए कुछ समय के लिए वस्तु-स्थिति के विपरीत कामना करना। जैसे—मान लीजिए कि उसने आकर आपसे क्षमा माँग ली, तो फिर क्या होगा। ३. किसी को पूज्य या श्रेष्ठ समझकर उसके प्रति मन में आदर, श्रद्धा या विश्वास रखना। जैसे—आर्य-समाजी हो जाने पर भी वे सनातन धर्म की बहुत सी बातें मानते थे। ४. किसी को विशिष्ट रूप से गुणी, योग्य या समर्थ समझना। जैसे—(क) मैं तो उसे बहादुर मानूँगा जो यह काम पूरा कर दिखलाये। (पूरब)। (ख) ऐसे गैरे लोगों को मैं कुछ नही मानता। ५. किसी प्रकार के आचरण, विधान आदि को निर्वाह या पालन के योग्य समझना और उसका अनुसरण करना। जैसे—(क) किसी का अनुरोध या आग्रह मानना। (ख) जन्माष्टमी या शिवरात्रि मानना। ६. मनौती या मन्नत के रूप में प्रतिज्ञा या संकल्प करना। जैसे—(क) काली जी को बकरा मानो तो लड़का जल्दी अच्छा हो जायेगा। (ख) मैंने हनुमान जी को सवा सेर लड्डू माना है, अर्थात् यह संकल्प किया है कि अमुक काम हो जाने पर सवा सेर लड्डू चढ़ाऊँगा। ७. श्रृंगारिक क्षेत्र में, किसी के प्रति यथेष्ट अनुराग या प्रेम रखना। किसी पर आसक्त होना। जैसे—दुश्चरित्रा स्त्रियाँ कभी एक को मानती है तो कही दूसरे को मानने लगती हैं। (बाजारू)। ८. सहन करना। सहना। उदाहरण—उपजत दोष नैन नहिं सूझत, रवि की किरन उलूक न मानत।—सूर। ९. किसी बात या स्थिति को अपने लिए अनुकूल, ठीक या हितकर समझते हुए शांति और सुखपूर्वक रहना। जैसे—कुत्ते या बिल्ली का पोस मानना। उदाहरण—कबहूँ मन विश्राम न मान्यो।—तुलसी।
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माननीय  : वि० [सं०√मान्+अनीयर] जिसका मान सम्मान करना आवश्यक या उचित हो। आदरणीय। पुं० बड़े लोगों के नाम या पद के पहले उपाधि के रूप में प्रयुक्त पद। (आँनरेबुल) जैसे—माननीय मंत्री महोदय।
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मानपत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जो किसी का आदर या सम्मान करने के लिए उसे भेट किया जाता है और जिसमें उसके सत्कार्यों, सद्गुणों आदि की स्तुति रहती है। अभिनन्दन पत्र।
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मानपात  : पुं० =मानकंद।
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मानव  : वि० [सं० मनु+अण्] मनु से संबंधित अथवा उससे उत्पन्न। पुं० १. मनुष्य। २. मनुष्य जाति। ३. १४ मात्राओं के छंदों की संज्ञा। इनके ६१० भेद हैं।
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मानव-देव  : पुं० [सं० ष० त०] राजा।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
मानव-पति  : पुं० [सं० ष० त०] राजा।
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मानव-भूगोल  : पुं० [सं० ] भूगोल शास्त्र का वह अंग जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि प्राकृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों का मानव जाति पर क्या प्रभाव पड़ता है। (एन्थ्रोपोजिएग्रेफी)।
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मानव-वर्जित  : वि० [सं० तृ० त०] जिसका कुछ भी मान या प्रतिष्ठा न हो अर्थात् तुच्छ या नीच।
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मानव-विज्ञान  : पुं० =मानव-शास्त्र।
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मानव-व्यापार  : पुं० [ष० त०] मनुष्यों को बेचने-खरीदने का काम।
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मानव-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] १. मनुष्यों की उत्पत्ति, उनकी जातियों उनके स्वाभावों आदि का विवेचन करनेवाला शास्त्र। (एन्थ्रोपालोजी) २. अर्थशास्त्र, इतिहास, दर्शन, पुरातत्व, मनोविज्ञान, राजनीति, संगीत, संस्कृति, साहित्य आदि से संबंध रखनेवाले वे सभी शास्त्र जो मुख्यतः मानव-जाति की उन्नति, विकास आदि में सहायक होते हैं। (ह्यू-मैनिटिक्स)।
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मानव-शास्त्री (स्त्रिन्)  : पुं० [सं० मानवशास्त्र+इनि] मानव शास्त्र का ज्ञाता या पंडित। (एन्थ्रोपालोजिस्ट)।
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मानव-शास्त्रीय  : वि० [सं० मानवशास्त्र+छ-ईय] मानव-शास्त्रपर्वत।
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मानवक  : पुं० =माणवक।
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मानवता  : स्त्री० [सं० मानव+तल्+टाप्] १. मनुष्य जाति। २. मानव होने की अवस्था या भवा। ३. मनुष्य के आदर्श तथा स्वाभाविक गुणो, भावनाओं आदि का प्रतीक या समूह।
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मानवतावाद  : पुं० [ष० त०] [वि० मानवतावादी] वह लौकिक सिद्धान्त जिसमे यह माना जाता है कि संसार के सभी मनुष्यों का समान रूप में कल्याण होना चाहिए और सबको उन्नत करके संतुष्ट तथा सुखी रखने की व्यवस्था होनी चाहिए। (ह्यू-मैनिज़्म)
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मानवतावादी (दिन्)  : वि० [सं० मानवतावाद+इनि] मानवतावाद संबंधी। (ह्यू मैनिस्ट)। पुं० वह जो मानवतावाद के सिद्धान्तों का अनुयायी और पोषक या समर्थक हो। (ह्यू मैनिटेरियन)।
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मानवती  : स्त्री० [मानवत्+ङीष्] साहित्य में वह नायिका जो नायक से रुष्ट या असंतुष्ट होने पर मान करती हो या मान करके बैठी हो।
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मानवत्  : पुं० [सं० मान+मतुप्, म-व] [स्त्री० मानवती] रूठा हुआ।
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मानवाचल  : पुं० [सं० मानव-अचल, मध्य, स०] पुराणानुसार एक पर्वत।
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मानवी  : स्त्री० [सं० मानव+ङीष्] १. मानव-जाति की स्त्री। नारी। २. पुराणानुसार स्वयंभुव मनु की कन्या का नाम। वि० =मानवीय।
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मानवीकरण  : पुं० [सं० मानव+च्वि, इत्व, दीर्घ√कृ+ल्युट—अन] १. किसी वस्तु को मानव अर्थात् मनुष्य का रूप देने की क्रिया या भाव। मानुषीकरण। (ह्यूमेनिजेशन)। जैसे—कथा-कहानियों में पशु-पक्षियों आदि का होनेवाला मानवीकरण। २. कला, धर्म आदि के क्षेत्र में यह मानकर कि पदार्थों में राग-द्वेष आदि मानव-गुण होते हैं, उन्हें मानव के रूप में कल्पित और प्रस्थापित करना।
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मानवीय  : वि० [सं० मानव+छ—ईय] १. मानव-संबंधी। मानव या मनुष्य का। २. मनुष्योचित (ह्यू मेन)।
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मानवेंद्र, मानवेश  : पुं० [सं० मानव-इंद्र, मानव-ईश, ष० त०] राजा।
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मानःशिल  : वि० [सं० मनःशिल+अण्] १. मनःशिला या मैनसिल सम्बन्धी। २. मैनसिल के रंग में रँगा हुआ।
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मानस  : वि० [सं० मानस+छ-ईय] १. मन से उत्पन्न। मनोभव। २. मन में सोचा या विचारा हुआ। जैसे—मानस चित्र। क्रि० वि० मन के द्वारा। मन से। पुं० १. आधुनिक मनोविज्ञान में, मनुष्य की वह आंतरिक सत्ता जिसमें अनुभूतियाँ, विचार और संवेदनाएँ होती है। इसी का सबसे अधिक चेतन, परिचित तथा प्रत्यक्ष रूप चेतना कहलाता हैं। मन। (माइंड) विशेष—इसके चेतन, अवचेतन, अतिचेतन आदि कुछ और अंग या पक्ष भी माने गये हैं। २. मन में होनेवाला संकल्प-विकल्प। ३. मानसरोवर। ४. कामदेव। ५. संगीत में एक प्रकार का राग। ६. आदमी। मनुष्य। ७. चर। दूत। ८. शाल्मली द्वीप का एक वर्ष। ९. पुष्कर द्वीप का एक पर्वत।
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मानस-तीर्थ  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा मन जो राग, द्वेष आदि से बिलकुल रहित हो गया हो।
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मानस-पुत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह संतान जिसकी उत्पत्ति मात्र इच्छा से हुई हो, शारीरिक सम्भोग से न हुई हो। जैसे—सनक आदि ब्रह्मा के मानस-पुत्र कहे जाते हैं।
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मानस-पूजा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] पूजा के दो प्रकारों में से वह जिसमें मन से ही सब कृत्य किये जाते हैं, लौकिक उपचारों या साधनों का साहार नहीं लिया जाता है।
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मानस-विज्ञान  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह विज्ञान या शास्त्र, जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि मनुष्य का मन किस प्रकार अपने काम करता है। (मेन्टल साइन्स)।
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मानस-व्रत  : पुं० [सं० मध्य० स०] अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि व्रत जिनका पालन मन से ही होता है।
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मानस-शास्त्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] मनोविज्ञान।
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मानस-संन्यासी (सिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] दशनामी संन्यासियों का एक उपभेद।
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मानस-सर (स्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] मानसरोवर।
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मानस-हंस  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में स, ज, ज, भ, र होता है। इसे मानहंस तथा रणहंस भी कहते हैं।
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मानसचारी (रिन्)  : पुं० [सं० मानस√चर् (गति)+णिनि] मानसरोवर के आसपास रहनेवाला हंस।
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मानसता  : स्त्री० [सं०] १. मन का भाव या स्थिति। २. वह विशेष स्थिति या वृत्ति जिसके वशवर्ती होकर मनुष्य किसी कार्य या विचार में प्रवृत्त होता है। मनोवृत्ति। (मेन्टैलिटी)।
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मानसर  : पुं० =मानसरोवर।
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मानसरोवर  : पुं० [सं० मानस-सरोवर] १. तिब्बत के क्षेत्र में एक प्रसिद्ध झील जो कैलास पर्वत के नीचे हैं और जो बहुत पवित्र तथा बड़े तीर्थों में मानी जाती है। २. हठयोग में सहस्रार चक्र जिसे कैलास भी कहते हैं और इसी दृष्टि से जिसमें उस भाव सरोवर की भी कल्पना की गयी जिसमें निर्लिप्त चित्तरूपी हंस विहार करता है।
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मानसालय  : पुं० [सं० मानस-आलय, ब० स०] हंस।
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मानसिक  : वि० [सं० मानस+ठक्—इक] १. मन की कल्पना से उत्पन्न। २. मन में होने या मन से संबंध रखनेवाला। जैसे—मानसिक रोगी, मानसिक कष्ट। ३. जिसमें सोच-विचार तथा मनन की अधिक अपेक्षा हो। (शारीरिक से भिन्न)। जैसे—मानसिक कार्य। पुं० विष्णु का एक नाम।
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मानसिक-चिकित्सालय  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह चिकित्सालय जहाँ पर मानसिक रोगियों का उपचार किया जाता है। (मेन्टल हॉस्पिटल)।
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मानसिकी  : स्त्री०=मानस-विज्ञान। (मनोविज्ञान)।
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मानसी  : स्त्री० [सं० मानस+ङीप्] १. वह पूजा जो मन ही मन की जाय। मानसपूजा। २. एक विद्या देवी का नाम। वि० =मानसिक।
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मानसी-गंगा  : स्त्री० [सं०] ब्रज में गोवर्धन पर्वत के पास का एक सरोवर।
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मानसूत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] करघनी।
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मानसून  : पुं० दे० ‘मानसून’।
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मानहुं  : अव्य० =मानो। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माना  : पुं० [इब] कुछ विशिष्ट प्रकार के वृक्षों बांसों आदि का गोंद या निर्यास जो चिकित्सा के काम आता है। मन्ना। स० [सं० मान] १. नापना, मापना या तौलना। २. जाँचना। पुं० अन्न आदि नापने का पात्र। अ०=अमाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माना-मथ  : पुं० =महना-मथन।
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मानांकन  : पुं० दे० ‘मूल्यांकन’।
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मानाथ  : पुं० [सं० कर्म० स०] लक्ष्मी के पति। विष्णु।
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मानाभिषेक  : पुं० [सं०] किसी बड़े अधिकारी या प्रधान व्यक्ति के अधिकारारूढ़ होने की क्रिया अथवा उससे संबंध रखनेवाला सामारोह। (इन्वेस्टिचर)।
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मानिक  : पुं० [सं० माणिक्य] १. लाल रंग के एक मणि के नाम। कुरुविंद। पदमराग। ३. आठ पल की एक पुरानी तौल।
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मानिक-खंभ  : पुं० [हिं० मानिक+खम्भा] १. वह खूँटा जो कांतर के किनारे गड़ा रहता है। मरखम। २. विवाह के समय मंडप के बीच में गाड़ा जानेवाला खम्भा। ३. दे० ‘मालखंभ’।
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मानिक-जोड़  : पुं० [हिं० मानिक+जोड़] एक प्रकार का बगुला जिसकी चोंच और टाँगे अधिक लम्बी होती हैं।
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मानिक-रेत  : स्त्री० [हिं० मानिक+रेत] मानिक का चूरा, जिससे गहने साफ किये जाते हैं।
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मानिकचंदी  : स्त्री० [सं० मानिकचंद] एक तरह की छोटी सुपारी।
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मानिका  : स्त्री० [सं०√मन् (गर्व करना)+णिच्+ण्वुल्-अक+टाप्, इत्व] १. मद्य। शराब। २. आठ पल या साठ तोले की एक पुरानी तौल।
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मानित  : भू० कृ० [सं० मान+इतच्] जिसका मान होता हो। प्रतिष्ठित। सम्मानित।
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मानिता  : स्त्री० [सं० मानित+टाप्] १. मानित्व। सम्मान। २. गौरव ३. अहंकार। घमंड।
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मानिंद  : वि० [फा०] सदृश। वि० =माननीय या मान्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मानिनी  : वि० स्त्री० [सं० मान+इनि+ङीष्] सं० ‘मानी’ का स्त्री। मान (अभिमान या गर्व) करनेवाली। स्त्री० साहित्य में वह नायिका जो नायक का दोष देखकर उससे रूठ गयी हो या मान कर रही हो।
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मानी (निन्)  : वि० [सं० मान+इनि] [स्त्री० मानिनी] १. जिसमें मान हो। मानवाला। २. अपने मान या प्रतिष्ठा का अधिक या यथेष्ठ ध्यान रखनेवाला ३. किसी गुण या बात का अभिमान करनेवाला। अभिमानी। घमंडी। ४. मान करने या रूठनेवाला। ५. जिसका लोग मान या सम्मान करते हों माननीय। जैसे—शहर के सभी धनी-मानी वहाँ आये थे। ६. मन लगाकर काम करनेवाला। मनोयोगी। पुं० [सं०] साहित्य में श्रृंगार रस का आलम्बन वह नायक जो बहुत बड़ा अभिमानी हो। स्त्री० [सं०] १. घड़ा। २. चक्की के नीचेवाले पाट के बीचो-बीच लगी रहनेवाली वह लकड़ी जिसके चारों ओर ऊपरवाला पाट घूमता है। ३. कुदाल, वसूले आदि का वह छेद जिसमें बेंट लगायी जाती है। ४. किसी चीज में बनाया हुआ वह छेद जिसमें कुछ जड़ा जाय। ५. किसी तरह का छेद या सूराख। ६. अन्न नापे का एक मान या तौल जो सोलह सेर की होती थी। पुं० [अ० मानो] १. पद, वाक्य, शब्द आदि का अभिप्राय या आशय। अर्थ। माने। २. भेद या रहस्यमूलक तत्त्व का आशय। तात्पर्य। मतलब। ३. उद्देश्य। प्रयोजन।
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मानुख  : पुं० =मनुष्य। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मानुष  : वि० [सं० मनु+अञ्, षुक्] [स्त्री० मानुषी] मनुष्य संबंधी। मनुष्य का। पुं० १. आदमी। मनुष्य। २. प्रमाण के तीन भेदों में से एक।
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मानुषक  : वि० [सं० मनुष्य+वुञ्-अक] मनुष्य-संबंधी। मनुष्य का।
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मानुषता  : स्त्री० [सं० मानुष+तल्+टाप्] मनुष्य होने की अवस्था या भाव। आदमीयत। मनुष्यत्व।
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मानुषिक  : वि० [सं० मनुष्य+ठञ्, बुद्धि, य-लोप] १. मनुष्य सम्बन्धी। २. मनुष्यों का। (असुरों, देवताओं आदि की तरह का नहीं)।
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मानुषी  : स्त्री० [सं० मानुष+ङीष्] स्त्री। औरत। वि० =मानुषीय। जैसे—मानुषी चिकित्सा।
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मानुषी-चिकित्सा  : स्त्री० [सं० न्यस्तपद] वैद्यक में तीन प्रकार की चिकित्साओं में से एक। मनुष्यों के उपयुक्त चिकित्सा।
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मानुषीकरण  : पुं० =मानवीकरण।
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मानुषीय  : वि० [सं० मानुष+छ-ईय] मनुष्य-संबंधी।
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मानुष्य  : वि० [सं० मनुष्य+अण्, वृद्धि] १. मनुष्य-संबंधी। २. मनुष्य या मनुष्यों में पाया जाने या होनेवाला।
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मानुष्यक  : वि० [सं० मनुष्य+वुञ्-अक] मनुष्य-संबंधी।
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मानुस  : पुं० =मनुष्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माने  : पुं० [अ० मानी] अर्थ। आशय।
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मानो  : अव्य० [हिं० मानना] एक अव्यय जिसका प्रयोग नीचे लिखे अर्थ या भाव सूचित करने के लिए होता है। (क) अनुरूपता या तुल्यता के विचार से यह समझ लो कि। जैसे—वह मनुष्य क्या था मानों देवता था (ख) स्थिति आदि के विचार से कल्पना करो या मान लो कि। जैसे—हम लोग समझ लें कि मानो हम वही बैठे हैं।
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मानोखी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की चिड़िया।
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मानोपाधि  : स्त्री० [सं० मान+उपाधि] वह उपाधि या खिताब जो किसी का मान बढ़ाकर उसे सम्मानित करने के लिए दिया जाय। (टाइटिल ऑफ आनर)।
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मानौ  : अव्य० =मानो। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मान्य  : वि० [सं०√मान्+ण्यत्] [स्त्री० मान्या] १. (बात) जिसे मान सकें। माने जाने के योग्य। २. (व्यक्ति) जिसका मान या सम्मान करना आवश्यक या उचित हो। मान या सम्मान का अधिकारी या पात्र। ३. प्रार्थना के रूप में उपस्थित किये जाने के योग्य। प्रार्थनीय। पुं० १. विष्णु २. शिव। ३. मैत्रावरुण।
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मान्य औषध कोश  : पुं० [सं०] दे० ‘भेषज संग्रह’।
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मान्य-व्यक्ति  : पुं० दे० ‘ग्राह्य-व्यक्ति’।
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मान्य-स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] आदर या मान्य का कारण।
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मान्यता  : स्त्री० [सं० मान्य+तल्+टाप्] १. मान्य होने की अवस्था या भाव। २. किसी विषय में माने और स्थिर किये हुए तत्त्व या सिद्धांत। जैसे—कविता के स्वरूप के सम्बन्ध में उनकी कुछ मान्यताएँ बहुत ही अनोखी (या नयी) हैं। ३. सिद्धांत प्रथा आदि के रूप में मानने योग्य कोई तत्व, तथ्य या बात। ४. किसी बड़ी संस्था द्वारा किसी दूसरी छोटी संस्था के संबंध में यह मान लिया जाना कि वह प्रामाणिक है और उसके किये हुए कार्य ठीक समझे जायँगे। ५. वह अवस्था जिसमें उक्त प्रकार की बातें मान ली जाती है और उसके अनुसार छोटी संस्था को बड़ी संस्था के अंग के रूप में काम करने का अधिकार मिल जाता है। (रिकाग्निशन)।
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मान्सून  : पुं० [अ० मौसिम] १. भारतीय महासागर और दक्षिणी एशिया में चलनेवाली एक हवा जो अप्रैल से अक्तूबर तक दक्षिण-पश्चिम की ओर से तथा अक्तूबर से अप्रैल तक उत्तर-पश्चिम की ओर से बहती है। २. वह समय जब यह हवा दक्षिण-पश्चिम की ओर से बहती है और जिसके फलस्वरूप पृथ्वी के अधिकतर भागों में खूब वर्षा होती है। पावस।
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माप  : स्त्री० [हिं० मापना] १. मापने या नापने की क्रिया या भाव। नाप। पद—माप-तौल। २. मापने या तौलने पर ज्ञात होनेवाला परिमाण, मात्रा या मान। ३. वह मान जिससे कोई पदार्थ मापा जाय। मान।
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माप-तौल  : स्त्री० [सं० +हिं०] १. मापने, तौलने आदि की क्रिया या भाव। २. अच्छी तरह जाँच या परखकर चीज का महत्त्व, मान, मूल्य आदि जानने या निर्धारित करने की क्रिया या भाव।
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मापक  : वि० [सं०√मा+णिच्, पुक्, +ण्वुल्-अक] माप करने या नापनेवाला। जैसे—दुग्ध-मापक। पुं० १. वह जो मापने या नापने का काम करता हो। २. वह जो तौलने का काम करता हो। ३. वह पात्र जिसमें भरकर कोई चीज नापी-जोखी जाती हो। ३. वह यंत्र जिसके द्वारा किसी प्रवाहित होनेवाले तत्त्व या पदार्थ की मात्रा, मान, वेग आदि की नाप होती हो। (मीटर) जैसे—विद्युत-मापक।
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माँपना  : अ० [हिं० माँतना] नशे में चूर होना। मत्त होना। मातना। स०=मापना (नापना)।
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मापना  : स० [सं० मापन] १. किसी पदार्थ के विस्तार, आयत या वर्गत्व और घनत्व का किसी नियत मान के आधार पर परिमाण जानना या जानने के लिए कोई क्रिया करना। नापना। २. किसी मान या पैमाने में भरकर द्रव, चूर्ण या आन्नादि पदार्थों को नापना। जैसे—दूध मापना, चूना मापना। अ० मातना (मत्त होना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मापनी  : स्त्री० [सं० मापन से०] मापने अर्थात् नापने-जोखने, तौलने आदि की क्रिया या भाव। (मेज़रमेन्ट)।
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मापांक  : पुं० [सं०] आज-कल भौतिक विज्ञान में, वह परिमाण या मान जो किसी अमूर्त परिणाम, प्रभाव या शक्ति (लचीलापन, तन्यता) की किसी निश्चित इकाई या माप के आधार पर जाना या स्थिर किया जाता है। (माँडयूलस)
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माफ  : वि० [अ० माफ] जिसे क्षमा किया गया हो या माफी दी गई हो।
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माफकत  : स्त्री० [अ० मुवाफिकत] १. अनुकूलता। २. मेल। मैत्री। पद—मेल-माफकत।
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माफिक  : वि० [अ० मुवाफिक] १. अनुकूल। अनुसार। २. उपयुक्त। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना।—होना।
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माफिकत  : स्त्री०=माफकत।
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माफिल  : पुं० [?] एक प्रकार का खट्टा नींबू।
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माफी  : स्त्री० [अ० माफी] १. माफ करने की क्रिया या भाव। क्षमा। क्रि० प्र०—चाहना।—माँगना।—मिलना। २. ऐसी भूमि जिसका कर लेना जमींदार, राजाया सरकार ने छोड़ दिया या माफ कर दिया हो। पद—माफीदार। (देखें)।
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माफीदार  : पुं० [अ०+फा०] वह जिसे ऐसी जमीन मिली हो जिसका कर शासन ने माफ कर दिया हो।
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माम  : पुं० [सं० माम्] १. ममता। ममत्व। २. अहंकार। ३. अधिकार। ४. बल। शक्ति। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मामता  : स्त्री० [सं० ममता] १. आत्मीयता। अपनापन। २. आत्मीयता के कारण होनेवाला प्रेम या स्नेह। ममता। ममत्व। जैसे—माँ की ममता बच्चे पर होती है।
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मामरी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का पेड़ जो हिमालय की तराई में राबी नदी से पूर्व की ओर, मद्रास तथा मध्यभारत में होता है। रूही।
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मामलत, मामलति  : स्त्री० [अ० मुआमितल] १. बात। मामला। २. विवादास्पद बात या विषय जो विचार के लिए उपस्थित हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मामला  : पुं० [अ० मुआमिलः] १. आपस में मिलकर तै या निश्चित की हुई कोई ऐसी बात जिस पर अमल करना पड़े या जिसे कार्य-रूप में परिणत करना हो। २. आपस में होनेवाले काम, व्यवहार या व्यापार। जैसे—क्रय-विक्रय, लेन-देन आदि। मुहावरा—मामला बनाना=ऐसी स्थिति लाना जिसमें कोई काम पूरी तरह हो जाय। कार्य-सिद्धि की व्यवस्था करना। ३. उलझन या झगड़े का कोई ऐसा काम या बात जिसके संबंध में किसी प्रकार का आचरण, विचार या व्यवहार होने को हो या होना आवश्यक हो। प्रधान अथवा मुख्य बात या विषय। जैसे—आज-कल उनके सामने एक बहुत बड़ा मामला आ गया है। मुहावरा—मामला तै करना=उक्त प्रकार के काम के सम्बन्ध में बात-चीत करके निपटारा या निश्चय करना। मामला बनाना या साधना=विकट और विचारणीय विषय का संतोषजनक रूप मे निकाकरण करना। ४. आपस में पक्की या तै की हुई बात। निर्णीत और निश्चय किया हुआ तथ्य। ५. ऐसी विवादास्पद जिसके संबंध में विचार हो रहा हो या होने को हो। मुकदमा व्यवहार। जैसे—इधर वकील साहब ने कई बड़े-बड़े मामले जीते हैं। (मुहाव० के लिए दे० मुकदमा के मुहावरा) ६. युवती और सुन्दरी स्त्री। (बाजारू)। ७. स्त्री०-प्रसंग। मैथुन। सम्भोग। मुहावरा—मामला बनाना=पर-स्त्री के साथ मैथुन या सम्भोग करना।
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मामा  : पुं० [सं० माम, मामका, पा० मामको, प्रा० मामअ] [स्त्री० मामी] संबंध के विचार से माँ का भाई। स्त्री० [फा०] घर की नौकरानी। परिचायिका। दासी।
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मामागीरी  : स्त्री० [फा०] १. मामा अर्थात् दूसरों की रोटी पकानेवाली स्त्री का काम या पद। २. बुढ़िया स्त्री। बूढ़ी।
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मामिला  : पुं० =मामला।
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मामी  : स्त्री० [सं० मा, निषेधार्थक] अपने ऊपर लगाया हुआ आरोप या दोष न मानने की अवस्था, क्रिया या भाव। मुहावरा—मामी पीना=अपने ऊपर लगाये हुए आरोप या दोष पर ध्यान न देकर चुप रह जाना अथवा मुकर जाना। स्त्री० हिं० मामा का स्त्री० रुप। संबंध के विचार से मामा की पत्नी।
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मामू  : पुं० =मामा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मामूर  : वि० [अ०] १. जिसे आदेश दिया गया हो। २. नियुक्त किया हुआ। ३. पूरी तरह से भरा हुआ। ४. आबाद। ५. समृद्ध।
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मामूल  : पुं० [अ०] १. नित्य-नियम। २. ऐसा काम या बात जो साधारणतः सभी अवसरों पर अमल अर्थात् व्यवहार में लायी जाती है। सभी अवसरों पर साधारण रूप में होती रहनेवाली बात या व्यवहार। दस्तूर। पद—मामूल के दिन=स्त्रियों के रजोधर्म के या रजस्वला होने के दिन। (मुसल० स्त्रियाँ) उदाहरण—हर महीने में कुढ़ाते थे, मुझे फूल के दिन, बारे अबकी तो मेरे टल गये मामूल के दिन।—रंगीन। ३. रीति-रिवाज। परिपाटी। प्रथा। ४. वह धन जो किसी को परिपाटी, प्रथा, रिवाज आदि के अनुसार मिलता हो। ५. अभिचार आदि द्वारा बेसुध किया हुआ व्यक्ति।
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मामूली  : वि० [अ०] १. नित्य-नियम-संबंधी। २. प्रायः होता रहनेवाला। ३. जिसमें कोई महत्त्व की विशेषता न हो। औसत दरजे का। साधारण।
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मामोला  : पुं० [?] वीरबघूटी। (राज०) उदाहरण—मामोली बिदलौ कुँकूँमै।—प्रिथीराज।
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मायँ  : अ०=महिं (बीच)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माय  : पुं० [सं० माया+अच्] १. पीताम्बर। २. असुर। स्त्री० [सं० माता] १. माता। माँ। २. बड़ीया आदरणीय स्त्री के लिए सम्बोधन का शब्द। स्त्री०=मादा। अव्य०=माहिं (बीच में)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मायक  : पुं० [सं० माय+कन्] मायावी। पुं० =मायका।
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मायका  : पुं० [सं० मातृ+क (प्रत्यय)] विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके माता-पिता का घर और परिवार। नैहर। पीहर।
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मायण  : पुं० [सं० माया++युच्—अन] वेद का भाष्य करनेवाले सायण के पिता का नाम।
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मायन  : पुं० [सं० मातृका] १. मातृका-पूजन और पितृ-निमंत्रण संबंधी एक कृत्य जो विवाह से पहले किया जाता है। २. उक्त दिन होनेवाला कृत्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मायनी  : स्त्री० दे० ‘मायाविनी’। पुं० =माने (अर्थ)।
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मायल  : वि० [अ० माइल] १. जो किसी ओर प्रवृत्त हुआ हो। जैसे—किसी पर दिल मायल होना, अर्थात् किसी की ओर अनुरक्त होना। २. आसक्त। ३. किसी प्रकार के झुकाव या प्रवृत्ति से युक्त। जैसे—सुरखी मायल काला रंग अर्थात ऐसा काला जिसमें लाल रंग की भी कुछ झलक हो।
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माया  : स्त्री० [सं०√मा+य+टाप्] १. कोई काम करने या कोई चीज बनाने की अलौकिक अथवा असाधारण कला या शक्ति। जैसे—इन्द्र अपनी माया अनेक रूप धारण करता है। २. बहुत ही उत्कृष्ट या प्रखर बुद्धि। प्रज्ञा। ३. कोई ऐसी कृति, रचना या रूप जिससे लोग धोखे या भ्रम में पड़ते हों। छलपूर्ण तथ्य या बात। जैसे—इंद्रजाल या जादूगीरी। ४. वेदांत में वह ईश्वरीय शक्ति जिससे इस नामरूपात्मक सारे दृश्य जगत् की सृष्टि हुई है। विशेष—वेदांत दर्शन का सिद्धांत है कि यह सारी सृष्टि अमूर्त और नित्य ब्रह्मा से उत्पन्न हुई है, फिर भी यह वास्तविक नहीं हैं। उस ब्रह्मा की अलौकिक शक्ति से ही यह हमें दृश्य जगत् के रूप में दिखायी देती हैं। पुराणों में इसी माया पर चेतन धर्म का आरोप करके इसे स्त्री के रूप में माना और ब्रह्मा की सहधर्मचारिणी कहा है। इसी कारण लोग मोहवश अवस्तु को वस्तु और अवास्तविक को वास्तविक और मिथ्या को सत्य समझने लगते हैं। वह वस्तुतः भ्रम मात्र है। सांख्याकार ने इसी को प्रकृति या प्रधान कहा है। शैव दर्शन में इसे आत्मा को बंधन में रखनेवाले चार पाशो (जालों या फंदो) मे से एक पाश माना है, और वैष्णवों ने इसे विष्णु की नौ शक्तियों के अंतर्गत एक शक्ति कहा है। परवर्ती काल मे कुछ लोग इसे अनृत की और कुछ लोग अधर्म की कन्या कहने लगे थे और मृत्यु की जननी या माता मानने लगे थे। बौद्ध इसे २४ दुष्ट मनोविकारों मे से एक मनोविकार या वासना मानते हैं। पर सब बातों का सारांश यही है कि यह मूर्तिमान भ्रम है और लोगों को धोखे में रखकर ईश्वर या मुक्ति से विमुख रखनेवाली है। इसीलिए जितने काम, चीजें या बातें वास्तव में कुछ और होती है, पर देखने में कुछ और, उन सबका अन्तर्भाव माया में ही होता है। हिंदू धर्म मे देवी-देवताओं की इच्छा, प्रेरणा या शक्ति से जो अद्भुत अलौकिक या विलक्षण लीला-पूर्ण कृत्य होते हैं, उन सबकी गिनती उन देवी-देवताओं की माया में ही होती है। ५. उक्त के आधार पर अज्ञान या अविद्या। ६. उक्त के फलस्वरूप और भ्रम या मोह-वश किसी के प्रति होनेवाला अनुराग, प्रेम या स्नेह। ममता। ममत्व। ७. किसी प्रकार की अवास्तविक और मिथ्या धारणा या विचार। (इल्यूजन) ८. उक्त के कारण किसी के प्रति मन में उत्पन्न होनेवाला अनुग्रह या दया का भाव। उदाहरण—भलेहि आई अब माया की जै।—जायसी। ९. कपट। छल। फरेब। जैसे—माया-मृग। १॰. धोखा। भ्रम। ११. ऐसी गूढ़ और विलक्षण बात जो जल्दी समझ में न आये अथवा जिसे समझने के लिए बहुत मानसिक परिश्रम करना पड़े। जैसे—माया-वर्ग। १२. इंद्रजाल। जादूगीरी। पद—मायाकार, मायाजीवी। १३. राजनीतिक चाल या दाँव-पेंच। १४. अनुग्रह। कृपा। १५. दया। मेहरबानी। १६. लक्ष्मी देवी। १७. धन-संपत्ति। दौलत। जैसे—उनके पास लाखों रुपयों की माया है। १८. कोई आदरणीय और पूज्य स्त्री। १९. मय दानव की कन्या जो विश्रवा को ब्याही थी। २॰.गौतम बुद्ध की माता मायादेवी। २१. गया नामक नगरी। २२. इंद्रवज्रा नामक वर्णवृत्त का एक उपभेद जो इंद्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के मेल से बनता है। इसके दूसरे तथा तीसरे चरण में प्रथम वर्ण लघु होता है। २३. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः भगण, तगण, मगण, भगण और एक गुरु वर्ण होता है। स्त्री० [हिं० माता] माता। माँ। जननी। उदाहरण—बिनवै रतनसेन की माया।—जायसी।
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माया-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] दक्षिण भारत का एक तीर्थ।
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माया-धर  : पुं० [ष० त०] मायाबी।
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माया-पति  : पुं० [ष० त०] ईश्वर। परमेश्वर।
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माया-पात्र  : पुं० [हिं० माया=धन+सं० पात्र] धनवान्। अमीर।
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माया-फल  : पुं० [ष० त०] माजूफल।
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माया-मंत्र  : पुं० [ष० त०] सम्मोहन क्रिया।
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माया-मोह  : पुं० [सं० माया√मुह्+णिच्+अच्] शरीर से निकला हुआ एक कल्पित पुरुष जिसने असुरों का दमन किया था। (पुराण०)
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माया-वर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] गणित में वह बड़ा वर्ग जिसमें कई छोटे-छोटे वर्ग होते हैं, और उन छोटे-छोटे वर्गों मे से हर एक में कुछ अंक या संख्याएँ किसी ऐसे विशिष्ट क्रम से रखी होती हैं कि हर ओर से अर्थात् खड़े बेड़े तथा तिरछे वर्गों की संख्याओं का जोड़ एक ही आता है। (मैजिक स्क्वेयर)।
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माया-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्म को सत्य और जगत् को मिथ्या मानने का सिद्धांत।
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माया-वादी (दिन्)  : पुं० [सं० माय-वाद+इनि] मायावाद का सिद्धान्त माननेवाला व्यक्ति। वि० मायावाद-सम्बन्धी।
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माया-वीज  : पुं० [सं० ष० त०] ‘ह्री’ नामक तांत्रिक मंत्र।
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माया-सीता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] सीता-हरण से पूर्व सीता द्वारा राम की आज्ञा से धारण किया गया मायावी रूप।
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माया-सुत  : पुं० [सं० ष० त०] माया देवी के पुत्र गौतम बुद्ध।
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मायाकार  : पुं० [सं० माया√कृ+अण्] =मायाजीवी।
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मायाचार  : पुं० [सं० माया√चर् (गति)+अण्] मायावी।
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मायाजीवी (विन्)  : पुं० [सं० माया√जीव् (जीना)+णिनि] ऐँद्रजालिक। जादूगर।
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मायाति  : स्त्री० [सं० मया√अत् (निरन्तर गमन)+इण्] तांत्रिकों की वह नर-बलि जो अष्टमी या नवमी के दिन दुर्गा को प्रसन्न तथा संतुष्ट करने के उद्देश्य से दी जाती थी। (तांत्रिक)
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मायादेवी  : स्त्री० [सं०] गौतम बुद्ध की माता का नाम।
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मायावती  : स्त्री० [सं० मायावत्+ङीष्] कामदेव की स्त्री, रति।
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मायावत्  : पुं० [सं० माया+मतुप्+वत्व] १. मायावी। २. राक्षस। ३. कंस का एक नाम।
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मायावर  : वि० [ष० त०] माया करनेवाला। उदाहरण—अभिनय करते विश्वमंच पर तुम मायावर।—पंत। पुं० १. ईश्वर। २. ऐंद्रजालिक। जादूगर।
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मायावान् (वत्)  : वि० =मायावी।
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मायाविनी  : स्त्री० [सं० माया+विनि+ङीप्] छल या कपट करनेवाली स्त्री० ठगिनी।
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मायावी (विन्)  : वि० [सं० माया+विनि] [स्त्री० मायाविनी] १. माया-सम्बन्धी। २. माया के रूप मे होनेवाला। ३. जादू आदि से संबंध रखनेवाला। पुं० १. वह जो अनेक प्रकार की मायाएँ रचने अर्थात् तरह-तरह के रहस्यमय कृत्य करके लोगों को चकित करने तथा धोखे में रखने में कुशल या दक्ष हो। ३. बहुत बड़ा कपटी या धोखेबाज। ३. बिड़ाव। बिल्ला। ४. ईश्वर या परमात्मा का एक नाम। ५. मय दानव के पुत्र के नाम।
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मायाशय  : वि० [सं० माया+आशय, ष० त०] माया से अभिभूत। उदाहरण—सुरभिति दिशि-दिशि कवि हुआ धन्य मायाशय।—निराला।
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मायिक  : वि० [सं० माया+ठन्-इक] १. माया-संबंधी। २. मायावी। अवास्तिवक पर वास्तविक-सा दिखायी पड़नेवाला। ३. माया करने या दिखानेवाला। मायावी। पुं० माजूफल।
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मायी (यिन्)  : पुं० [सं० माया+इनि] १. माया का अधिष्ठाता। परब्रह्म। ईश्वर। २. माया दिखानेवला। मायावी। ३. जादूगर। स्त्री०=माई (माता)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मायु  : पुं० [सं०√मि (फेंकना)+उण्, आत्व, युक्] १. पित्त। २. आवाज। शब्द। ३. वाक्य।
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मायुक  : वि० [सं० मायु+कन्] शब्द करनेवाला।
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मायूर  : पुं० [सं० मयूर+अञ्, वृद्धि] १. मयूर। मोर। २. वह रथ जिसे मयूर खींचकर ले चलते हों। वि० मयूर संबंधी। मोर का।
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मायूरक  : पुं० [सं० मायूर+कन्] मोर पकड़नेवाला बहेलिया।
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मायूरा  : स्त्री० [सं० मायूर+टाप्] कटूमर।
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मायूरी  : स्त्री० [सं० मायूर+ङीष्] अजमोदा।
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मायूस  : वि० [अ०] [भाव० मायूसी] निराश। हताश।
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मायूसी  : स्त्री० [अ०] मायूस होने की अवस्था या भाव। निराशा।
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मार  : पुं० [सं०√मृ (मरना)+घञ्] १. कामदेव। २. जहर। विष। ३. धतूरा। ४. बाधा। विघ्न। स्त्री० [हिं० मारना] १. मारने अर्थात् चोट पहुँचाने या पीटने की क्रिया या भाव। जैसे—मार के आगे भूत भागता है। पद—मार-काट, मारधाड़, मार-पीट, मार-मार। (दे० स्वतन्त्र पद)। क्रि० प्र०—खाना।—पड़ना।—पिटना। २. किसी प्रकार अथवा किसी रूप में होनेवाला आघात या प्रहार। कोई ऐसा काम या बात जो कष्ट पहुँचानेवाला अथवा नाशया हानि करनेवाला हो। जैसे—गरीबी कीमार, रोटी की मार। उदाहरण—बड़ी मार कबीर की चित्त से दिया उतार।—कबीर। विशेष—ऐसा अवसरों पर मार का आशय यही होती है कि उसके फलस्वरुप मनुष्य की दशा बहुत ही दीन-हीन तथा शोचनीय हो जाती है अक्ल की मार, शामत की मार सरीखे प्र्योगों में मार का आशय यही होती है कि चाहे किसी चीज या बात के अभाव से हो, चाहे आधिक्य से मनुष्य की दशा बहुत बुरी हो जाती है। गरीबी की मार में गरीबों के आधिक्य का भाव है, और रोटी की मार मे रोटी के अबाव का ईश्वर या खुदा की मार में कोप या प्रकोप का भाव प्रधान है। ३. उतनी दूरी जहाँ तक कोई चलाया या फेंका हुआ अस्त्र जाकर पहुंचता और अपना काम करता या प्रभाव दिखलाता है। (रेंज) जैसे—इस बदूक की मार एक हजार गज है। ४. निशाना। लक्ष्य। ५. दे० मार-पीट। जैसे—गाँववालों में अकसर मारपीट होती रहती है। ६. किसी प्रकार का प्रभाव या फल नष्ट करनेवाली चीज या बात। मारक तत्त्व। जैसे—खुजली की मार घी हैं अर्थात् घी से खुजली दब या मिट जाती है। अव्य० १. बहुत अधिकता से। अत्यन्त। जैसे—तुमने तो सबेरे से मार आफत मचा रखी हैं। स्त्री० [देश] काली मिट्टी की जमीन। स्त्री०=माला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मार-काट  : स्त्री० [हिं० मारना+काटना] १. एक-दूसरे को मारने और काटने की क्रिया या भाव। २. युद्ध या लड़ाई जिसमें आदमी मारे और काटे जाते हैं।
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मार-धाड़  : स्त्री० [हिं०] १. बहुत से लोगों के तेजी से आगे बढ़कर किसी पर आक्रमण करना। जैसे—मुगल सेना मार-धाड़ करती हुई बढ़ती चली आ रही थी। २. गड़बड़ी की वह स्थिति जिसमें लोग बहुत जल्दी अपने काम मे या इधर-उधर दौड़ने-धूपने मे लगे हों।
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मार-पीट  : स्त्री० [हिं० मारना+पीटना] वह लड़ाई जिसमें लड़नेवाले एक-दूसरे को मारते-पीटते हैं।
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मार-पेंच  : पुं० [हिं० मारना+पेंच] धूर्त्तता। चाल-बाजी।
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मारक  : वि० [सं०√मृ+णिच्+ण्वुल्-अक] १. जान से मार डालनेवाला। २. पीड़क। ३. प्रभाव, वेग विष आदि को दबाने या नष्ट करनेवाला। (एन्टीडोट)।
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मारकंडेय  : पुं० =मार्कंडेय।
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मारका  : पुं० [अं० मार्क] १. चिन्ह। निशान। २. किसी प्रकार की पहचान के लिए लगाया जानेवाला चिन्ह या निशान। ३. वह विशिष्ट चिन्ह या निशान जो बड़े व्यापारी अपने बनवाये हुए पदार्थों पर उसकी विशिष्टता की पहचान के लिए लगाते हैं। छाप। पुं० [अ० मारिकः] १. युद्ध। लड़ाई। कोई बहुत बड़ी और महत्त्व पूर्ण घटना। ३. कोई बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण काम। पद—मारके का=बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण।
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मारकीन  : स्त्री० [अं० नैनकिन्] एक तरह का साधारण कपड़ा।
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मारकुवा  : वि० =मरकहा (मारनेवाला)।
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मारकेश  : पुं० [सं० मारक-ईश, कर्म० स०] किसी की जन्म-कुंडली में पड़नेवाला ग्रहों का एक योग जो व्यक्ति के लिए घातक होता है। (ज्यों०)।
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मारखोर  : पुं० [फा०] बहुत बड़े सीगोंवाली एक प्रकार की बहुत सुन्दर जंगली बकरी जो काश्मीर और अफगानिस्तान में होती है। इसके नर के शरीर से बहुत तेज गन्ध निकलती है।
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मारग  : पुं० [सं० मार्ग] मार्ग। रास्ता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) मुहावरा—मारग मारना=किसी राह चलते आदमी को लूटना। मारग लगना या लेना=(क) रास्ते पर चलना। (ख) चले जाना। दूर हो जाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मारगन  : पुं० [सं० मार्गण] १. बाण। तीर। २. भिक्षुक। याचक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मारगी  : स्त्री० [सं० मार्ग] राह चलतों को लूटने की क्रिया। बटमारी। उदाहरण—चोरी कराँ न मारगी।—मीराँ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मारजन  : पुं० =मार्जन।
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मारजनी  : स्त्री०=मार्जनी।
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मारजार  : पुं० =मार्जार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मारजित्  : पुं० [सं० मार√जि (जीतना)+क्विप्, तुक्] १. वह जिसने कामदेव को जीत लिया हो। २. शिव। ३. बुद्ध।
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मारण  : पुं० [सं०√मृ (मारना)+णिच्+ल्युन—अन] १. मार डालने अर्थात प्राण लेने की क्रिया या भाव। २. वह तांत्रिक प्रयोग जो किसी के प्राण लेने या मार डालने के उद्देश्य से किया जाता है।
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मारतंड  : पुं० =मार्तड।
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मारते खाँ  : पुं० [हिं० मारना+फा० खान] वह जो अपने बल के गर्व मे दूसरों को जरा-सी बात पर मार बैठता हो।
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मारतौल  : पुं० [पुं० मार्टेली] एक प्रकार का बड़ा हथौड़ा।
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मारना  : स० [सं० मारण] १. ऐसा आघात या क्रिया करना जिससे किसी के प्राण निकल जायँ। आयु या जीवन का अंत करना। जैसे—(क) यह दवा कई तरह के जहरीले कीड़े मारती है। (ख) इसने कल एक सांप मारा था। मुहावरा—(किसी को) मार गिराना=आघात या प्रहार करके प्राण लेकर अथवा मृतप्राय करके जमीन पर गिराना जैसे—सिपाहियों ने चार डाकू मार गिराये। संयो० क्रि०—डालना।—देना। २. क्रोध में आकर दंड देने या बदला चुकाने के लिए किसी के शरीर पर थप्पड़, मुक्का, लात आदि से या छड़ी, बेंत आदि से बार-बार आघात या प्रहार करना। जैसे—उसने नौकर को मारते-मारते बेहोश कर दिया। पद—मारना-पीटना। ३. कोई चीज किसी दूसरी चीज पर इस प्रकार जोर से गिराना या फेकना कि वह जाकर टकरा जायँ और स्वयं क्षतिग्रस्त हो अथवा दूसरी चीज को क्षतिग्रस्त करे। जैसे—चिड़ियों को ढेले-पत्थर मारना। मुहावरा—किसी के दे मारना=उठाकर जोर से गिराना, पटकना या फेंकना। उदाहरण—मेरा दिल लेके शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा।—कोई शायर। ४. साधारण रूप से कोई चीज किसी दूसरी चीज पर पटकना। जैसे—यही बात पक्की रही, लाओ मारो हाथ। (अर्थात् पक्का वचन दो) ५. आखेट में किसी जीव या जंतु के प्राण लेना। शिकार करना। जैसे—कबूतर, मछली, शेर या हिरन मारना। ६. जीव-जंतुओं के अपने किसी अंग से किसी पर आघात या प्रहार करना अथवा घाव या जख्म करना। जैसे—बर्रे या बिच्छू डंक मारता है, घोड़ा लात मारता है, बैल सींग मारता है, कुत्ता दाँत मारता है आदि। ७. किसी क्रिया से किसी चीज का आगे बढ़ा हुआ अंश या अंग काटना, निकालना या मोड़ना। जैसे—(क) बढ़ई ने रंदे से इसका किनारा मार दिया है। (ख) तुमने कागज काटते-काटते कैंची (या चाकू) की धार मार दी। ८. किसी प्रकार का परिणाम या फल उत्पन्न करने के लिए कोई अंग इधर-उधर या ऊपर-नीचे हिलाना। जैसे—(क) चिड़ियों के उड़ने के लिए पर मारना। (ख) बंधन से छूटने के लिए हाथ-पैर मारना अर्थात् यथा-साध्य प्रयत्न करना। ९. किसी पदार्थ के तत्त्व का सार-भाग कम या नष्ट करके उसे निरर्धक या निर्बल करना। जैसे—यह दवा कई तरह के जहर मारती है। १॰. वैद्यक में रासायनिक प्रक्रियाओं से धातु आदि का भस्म तैयार करना। जैसे—पारा मारना, सोना मारना। ११. किसी को किसी प्रकार से या किसी रूप में अक्रिय, अयोग्य या निकम्मा करके किसी काम या बात के योग्य न रहने देना। बुरी तरह से नष्ट या बरबाद करना। जैसे—(क) हमें तो रात-दिन की चिंता ने मारा है। (ख) उन्हें तो ऐयाशी (या शराबखोरी) ने मारा है। १२. बहुत अधिक मानसिक या शारीरिक कष्ट देकर तंग, दुःखी या परेशान करना। (प्रायः किसी दूसरी क्रिया के साथ संयोज्य क्रिया के रूप में) जैसे—(क) इस लड़के की नायालकी ने तो हमें जला मारा (या सता मारा) है। (ख) आज तो तुमने नौकर को दिन भर दौड़ा मारा। पद—किसी चीज या बात का मारा=किसी चीज या बात के कारण बहुत अधिक त्रस्त या दुःखी। जैसे—आफत का मारा, भूख का मारा, रोटियों का मारा आदि। १३. द्वेष या वैरमूलक लड़ाई-झगड़ा, विवाद आदि के प्रसंग में विपक्षी या विरोधी को परास्त करते हुए नीचा दिखाना या वश में करना। जैसे—इस चुनाव में इन्होंने उसे ऐसा मारा है कि अब वह कभी इनके मुकाबले में खड़ा होने का नाम न लेगा। पद—वह मारा=बस अब परास्त करके वश में कर लिया। पूरी तरह से जीत लिया और हरा दिया। उदाहरण—वह मारा अब कहाँ जाती है। आज का शिकार तो बहुत नफीस है।—राधाकृष्णदास। १४. खेल, प्रतियोगिता आदि के प्रसंग में विपक्षी को हराकर विजय प्राप्त करना। (स्वयं खेल के सम्बन्ध में भी और खेलाड़ी के सम्बन्ध में भी। जैसे—(क) कुश्ती या बाजी मारना=जीतना। (ख) एक पहलवान को दूसरे पहलवान का मारना=पछाड़ना। १५. गंजीफे, ताश, शतरंज आदि खेलों में विपक्षी के पत्ते, गोट आदि जीतना। जैसे—(क) प्यादे से हाथी मारना। (ख) दहले से नहला मारना। १६. किसी प्रकार का मानसिक या शारीरिक वेग दबाना या रोकना। जैसे—(क) मन मारना=मन में होनेवाली इच्छाएँ दबाना। (ख) प्यास या भूख मारना=प्यास या भूख लगने पर भी पानी भी न पीना या भोजन न करना। उदाहरण—रिस उर मारि रंक जिमि राजा।—तुलसी। १७. अनुचित रूप से, चालबाजी से या बलपूर्वक किसी का धन, संपत्ति या कोई चीज प्राप्त करके अपने अधिकार में करना। जैसे—(क) किसी को गठरी मारना। (ख) किसी का माल या रुपया मारना। मुहावरा—मार खाना=उक्त प्रकार से प्राप्त करके अधिकार मे कर लेना। जैसे—स सौदे में उसने सौ रुपये मार खाये। मार रखना= अनुचित रूप से दबाकर अपने पास रख लेना। जैसे—अभी तो यह किताब मार रखो, फिर देखा जायगा। मार लेना=अनुचित रूप से प्राप्त करके अपने अधिकार में कर लेना। जैसे—इस सौदे में उसने भी सौ रूपये मार लिये। १८. कुछ विशिष्ट क्रियाओं के संबंध मेंपूरा या सम्पन्न करना। जैसे—पानी मे गोता मारना, किसी के चारों ओर चक्कर मारना। सिलाई करने के लिए टाँका मारना। १९. किवाड़े या ताले के संबंध में ऐसी क्रिया करना कि वह बंद हो जाय, खुला न रहे। जैसे—(क) कोठरी का दरवाजा मारना। (ख) दरवाजे में ताला मारना। (पश्चिम) २॰.मैथुन या सम्भोग करना। (बाजारू)। विशेष—अनेक क्रियाओं के साथ संयो०क्रिया के रूप में भी और अनेक संज्ञाओं के साथ क्रि० प्र० के रूप में भी मारना का प्रयोग अनेक प्रकार के भाव प्रकट करने के लिए होता है। उनमें मुख्य भाव तीन हैं- (क) किसी प्रकार के आघात या क्रिया से उपेक्षापूर्वक अंत या समाप्त करना। जैसे—किसी के लिखे हुए लकीर मारना। किसी चीज को लात मारना, किसी काम या बात की गोली मारना आदि। (ख) किसी प्रकार का प्रभाव विशेषतः दूषित प्रभाव उत्पन्न करना। जैसे—जादू या मंतर मारना, किसी आदमी को पीस मारना। (ग) कोई क्रिया कष्ट रूप से या बुरी तरह से पूरी या सम्पन्न करना। जैसे—गाल मारना, डींग मारना, दम मारना, कोई चीज किसी के सिर मारना (उपेक्षापूर्वक देना या फेंकना) २१. किसी काम या बात के लिए मगज या सिर मारना अर्थात् बहुत अधिक मानसिक परिश्रम करना आदि। २२. कुछ अवस्थाओं में इसका प्रयोग (मुहावरे के प्रयोग में) अकर्मक क्रिया के रूप में भी होता है। जैसे—(क)यह सुनते ही उसे काठ मार गया, अर्थात् वह काष्ठ के समान स्तब्ध हो गया। (ख) सारी फसल को पाला मार गया (लग गया है) (ग) उसके भाई को लकवा मार गया, (अर्थात् हो गया) है। ऐसे प्रयोगों के ठीक अर्थों के लिए सम्बद्ध क्रियाएँ या संज्ञाएँ देखनी चाहिए।
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मारफत  : अव्य० [अ० मारफ़त] १. किसी व्यक्ति के माध्यम से। जैसे—मैं कुछ रुपये श्री कृष्णचंद की मारफत तुम्हें भेंजूँगा। २. पत्रों पर पता लिखते समय, किसी अमुक के द्वारा। स्त्री० [अ०] अध्यात्म। २. इस्लाम विशेषतः सूफी संप्रदाय में साधना की चार स्थितियों में से तीसरी स्थिति जिसमें साधक अपने गुरु या पीर के उपदेश और शिक्षा से ज्ञानी हो जाता है। विशेष—शेष तीन स्थितियाँ शरीअत, तरीकत और हकीकत कहलाती हैं। ३. उर्दू कविता का वह प्रकार जिसमें साधारण रूप में तो लौकिक प्रेम का उल्लेख होता है, परन्तु ध्वनि या श्लेष मे वस्तुतः ईश्वर के प्रति प्रेम प्रकट होता है। (अन्योक्ति का एक प्रकार) जैसे—अगर कोई मारफत की गजल याद हो तो सुनाओ।
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मारवाड़  : पुं० [सं० मरुवर्त] १. मेवाड़ प्रदेश। २. मेवाड़ और उसके आस-पास के अनेक प्रदेश जो अब राजस्थान के रुप में परिणत हो गये हैं।
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मारवाड़ी  : पुं० [हिं० मारवाड़] [स्त्री० मारवाड़िन] मारवाड़ देश का निवासी। स्त्री० मारवाड़ देश की बोली। वि० मारवाड़ देश का। मारवाड़-सम्बन्धी।
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मारसा  : पुं० [देश] १. एक प्रकार का संकर राग, जो परज, विभास और गौरी के मेल से बनता है। इसके गाने का समय सायंकाल है। २. संगीत में एक प्रकार का खयाल।
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मारा  : वि० [हिं० मारना] १. जो मारा गया हो। २. जिस पर मार पड़ी हो। मुहावरा—मारा फिरना, या मारा-मारा फिरना=बहुत ही दुर्दशा भोगते हुए इधर-उधर घूमना। ३. जो किसी प्रकार के आघात या प्रकोप से त्रस्त या पीड़ित हो। जैसे—आफत का मारा, किस्मत का मारा, बीमारी का मारा आदि। स्त्री०=माला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मारा-मारी  : स्त्री० [हिं० मारना] १. ऐसी लड़ाई जिसमे मार-काट हो रही हो २. जबरदस्ती। बल-प्रयोग। क्रि० वि० =मारामार।
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मारात्मक  : वि० [सं० मार-आत्मन्, ब० स०+कप्] १. हिंसक। २. प्राणनाशक। ३. दुष्ट।
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माराभिभू  : पुं० [सं० मार-अभि√भू (होना)+ड] गौतम बुद्ध।
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मारामार  : क्रि० वि० [हिं० मारना] बहुत अधिस तेजी से या इतने वेग से चलना कि मानो किसी को मारने जा रहे हों। स्त्री० १. मार-पीट। २. बहुत अधिक जल्दी। जैसे—इतनी मारा-मार करना ठीक नहीं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मारि  : स्त्री० १. मार। २. मरी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मारिच  : पुं० १. मारीच (राक्षस)। २. मार्च (महीना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मारित  : भू० कृ० [सं०√मृ+णिच्+क्त] १. जो मार डाला गया हो। २. भस्म के रूप में किया या लाया हुआ। (वैद्यक) जैसे—मारित स्वर्ण। ३. नष्ट किया हुआ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मारिष  : पुं० [सं०√मृष् (सहन करना)+अच्, निपा० सिद्धि, या मा√रिष्+क] १. नाटक का सूत्रधार। २. नाटकों में आदरणीय या मान्य व्यक्ति के लिए सम्बोधन। ३. मरसा नाम का साग।
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मारिषा  : स्त्री० [सं० मारिष+टाप्] दक्ष की माता का नाम।
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मारी  : स्त्री० [सं०√मृ+णिच्+इन+ङीष्] १. चंडी नाम की देवी। २. माहेश्वरी शक्ति। ३. महामारी। मरी।
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मारीच  : पुं० [सं०] १. एक राक्षस जिसने रावण के कहने पर सीताहरण कराने के लिए सोने के हिरन का रूप धारण किया था। २. हाथी। ३. मिर्च के पौधों का समूह। वि० [सं० मरीचि+अण्] मरीचि द्वारा रचित।
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मारीची  : स्त्री० [सं०] बुद्ध की माता का नाम। माया देवी।
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मारु  : पुं० १. मार (कामदेव)। २. मारवाड़ (देश)। स्त्री०=मार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मारुत  : पुं० [सं० मरुत+अण्] १. वायु। पवन। २. वायु या पवन के अधिपति देवता।
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मारुत-सुत  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीम।
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मारुतात्मज  : पुं० [सं० मारुत-आत्मज, ष० त०] हनुमान्।
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मारुतापह  : पुं० [सं० मारुत-अप√हन् (मारना)+ड] वरुण वृक्ष।
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मारुताशन  : पुं० [सं० मरुत-अशन, ब० स०] १. कार्तिकेय का एक अनुचर। २. साँप।
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मारुति  : पुं० [सं० मारुत+इञ्] १. हनुमान। २. भीम।
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मारुध  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश।
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मारू  : वि० [हिं० मारना] १. मार डालने या जान लेनेवाला। २. हृदय या मर्म स्थल पर आघात करनेवाला। ३. मारने-पीटनेवाला। पुं० १. उन गीतों या रागों का वर्ग जो युद्द के समय वीरों को उत्तेजित तथा उत्साहित करने के लिए गाये जाते है। २. युद्ध में बजाया जानेवाला बहुत बड़ा डंका या नगाड़ा। पुं० [देश] १. एक प्रकार का शाहबलूत जो शिमले और नैनीताल मे अधिकता से पाया जाता है। २. काकरेजी रंग। पुं० =मारवाड़ी।
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मारूज  : वि० [अ० मारूज] १. अर्ज किया हुआ। निवेदित २. उक्त। कथित। पुं० १. निवेदन। प्रार्थना। २. उक्ति। कथन।
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मारूत  : स्त्री० [हिं० मारना] घोड़ों के पिछले पैरों की एक भौरी जो मनहूस समझी जाती है। पुं० =मारुति।
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मारे  : अव्य० [हिं० मारना] वजहसे। कारण। (विवशतासूचक) जैसे—जल्दी के मारे वह अपनी पुस्तक यहीं भूल गया।
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मार्क  : पुं० [अ०] १. चिन्ह। छाप। २. मारका। ३. लक्षण।
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मार्कंड  : पुं० =मार्कंडेय।
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मार्कंडेय  : पुं० [सं० मृकंड+ढक्-एय] मृकंड ऋषि के पुत्र एक प्राचीन मुनि जिन्होंने अपने तपोबल से अमरत्व प्राप्त किया था। इनके नाम पर एक पुराण भी प्रचलित है।
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मार्का  : पुं० =मारका (चिन्ह)।
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मार्केट  : पुं० [अं०] बाजार। हाट।
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मार्क्विस  : पुं० [अ०] इंग्लैड के सुछ सामंतो की परम्पराहत एक उपाधि।
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मार्क्स  : पुं० एक प्रसिद्ध जर्मन क्रान्तिकारी समाजवादी नेता जिसने दर्शन, राजनीति आदि के कई प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे हैं, और जिसके नाम पर मार्क्सवाद (देखें) नाम का मत या वाद आजकल विशेष प्रचलित हैं। इसका पूरा नाम हैनरिच मार्क्स था (सन् १८१८-१८८३ ई०)।
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मार्क्सवाद  : पुं० [जर्मन मार्क्स (नाम)+सं० वाद] जर्मन समाजवादी कार्ल मार्क्स (देखें) का यह सिद्धान्त कि सारी सम्पत्ति श्रम से ही उत्पन्न होती या बनती है, अतः उससे प्राप्त होनेवाला धन श्रमिकों को ही मिलना चाहिए। इसमें पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था का तिरस्कार किया गया है। विशेष—मार्क्स का मत है कि श्रमिको को पूँजीपतियों के साथ संघर्ष करते रहना चाहिए और इस प्रकार पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था का पूरी तरह से नाश करना चाहिए।
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मार्क्सवादी  : वि० [हिं० मार्क्सवाद] मार्क्सवाद-सम्बन्धी। मार्क्सवाद का। जैसे—मार्क्सवादी दृष्टिकोण। पुं० वह जो मार्क्सवाद के सिद्धान्तों का अनुयायी हो।
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मार्ग  : पुं० [सं०√मार्गवा√भृज्+घञ्] १. आने-जाने का रास्ता। पथ। राह। २. कोई ऐसा द्वार माध्यम या साधन जिसका अनुसरण, पालन या व्यवहार करने से कोई अभिप्राय या कार्य सिद्ध होता हो। ३. मलद्वार। गुदा। ४. अभिनय, नृत्य और संगीत की एक उच्च कोटि की शैली। ५. गंधर्व संगीत की वह शाखा जो देशी संगीत के संयोग से निकली थी। ६. मृगशिरा नक्षत्र। ७. मार्गशीर्ष या अगहन नाम का महीना। ८. विष्णु। ९. कस्तूरी। १॰. अपामार्ग। चिचड़ा। वि० मृग-सम्बन्धी। मृग का।
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मार्ग-कर  : पुं० [सं० ष० त०] वह कर जो यात्री को किसी विशिष्ट मार्ग से होकर जाने के बदले में देना पड़ता है। पथ-कर। (टोल टैक्स)
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मार्ग-दर्शक  : पुं० [सं० ष० त०] १. मार्ग दिखलानेवाला व्यक्ति २. वह जो यात्रियों, भ्रमण करने वालों का पथ-प्रदर्शन करता हो।
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मार्ग-दर्शन  : पुं० [सं० ष० त०] १. रास्ता दिखलाना। २. पथ-प्रदर्शन।
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मार्ग-देशिक  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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मार्ग-देशी  : पुं० [हिं०] संगीत शास्त्र की दृष्टि से आज-कल का वह प्रचलित संगीत जिसमें ध्रपद, खयाल, टप्पा, ठुमरी आदि सम्मिलित हैं।
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मार्ग-धेनु (क)  : पुं० [सं० ष० त०] चार कोस की दूरी। एक योजन।
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मार्ग-राग  : पुं० [सं०] संगीत-शास्त्र में प्राचीन राग, जिन्हें शुद्धराग भी कहते हैं। जैसे—भैरव, मेघ आदि राग। (देशी रागों से भिन्न)
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मार्गक  : स्त्री० [सं० मारण]
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मार्गक  : स्त्री० [सं० मार्ग्+कन्] मार्गशीर्ष या अगहन का महीना।
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मार्गण  : पुं० [सं०√मार्ग् (खोजना)+ल्युट्—अन] १. अन्वेषण। खोज। २. प्रेम। ३. याचना। ४. याचक। भिखमंगा। ५. तीर। बाण।
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मार्गणा  : स्त्री० [√मार्ग+णिच्+यु च्—अन्,+टाप्] १. अन्वेषण। २. याचना।
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मार्गद  : पुं० [सं० मार्ग√दा (देना)+क] केवट। मल्लाह।
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मार्गन  : पुं० [सं० मार्ग√पा (रक्षा करना)+क] मार्ग अर्थात् रास्ते का निरीक्षण करनेवाला अधिकारी। पुं० =मार्गण (तीर)।
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मार्गपति  : पुं० =मार्गप।
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मार्गव  : पुं० [सं०] १. अयोगवी माता और निषाद पिता से उत्पन्न एक प्राचीन संकर जाति। २. उक्त जाति का व्यक्ति।
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मार्गवती  : स्त्री० [सं० मार्ग+मतुप, म---व---डीप्] एक देवी जो मार्ग चलनेवालों की रक्षा करनेवाली मानी गयी है।
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मार्गशिर  : पुं० = मार्गशीर्ष।
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मार्गशीर्ष  : पुं० [सं० मृगशीर्ष+अण्+ ङीप्, मार्गशीर्षी+ अण्] अगहन का महीना।
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मार्गाधिकार  : पुं० [सं० मार्ग-अधिकार, ष० त०] वह अधिकार जो किसी मार्ग पर आने-जाने अथवा अपने आदमी या चीजें भेजने-मँगाने आदि के सम्बंध में किसी विशिष्ट व्यक्ति, देश आदि को प्राप्त होता है। (राइट आफ़ पैसेज)
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मार्गिक  : पुं० [सं० मृग+ठक्—इक] १. पथिक। यात्री। २. मृगों को मारनेवाला व्याध।
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मार्गी (गिन)  : पुं० [सं० मार्ग+इनि्] मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति। बटोही। यात्री। स्त्री० संगीत में एक मूर्च्छना जिसका स्वर-ग्राम इस प्रकार है—नि, स, रे,ग, म, प,ध, ।म, प, नि, स, रे, ग, म, प, ध, नि, स।
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मार्च  : पुं० [अं०] १. अंग्रेजी वर्ष का तीसरा मास जो फरवरी के बाद और अप्रैल से पहले पड़ता है और सदा ३१ दिनों का होता है। २. सैनिकों आदि का दल बाँधकर किसी उद्देश्य से आगे बढ़ना या चलना। ३. सेना का कूच या प्रस्थान।
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मार्ज  : पुं० [सं०√मृज् (शुद्ध करना)+णिच्+अच्] १. विष्णु। २. धोबी। ३. [√मृज्+घञ्] मार्जन।
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मार्जक  : वि० [सं०√मृज्+ण्वुल्—अक] मार्जन करनेवाला।
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मार्जन  : स्त्री० [सं०√मृज् (शुद्ध करना)+णिच्+ल्युट्—अन] १. दोष। मल आदि दूर करके साफ करने की किया या भाव। सफाई। २. अपने ऊपर जल छिड़ककर अपने आपको शुद्ध करना। ३. भूल, दोष आदि का परिहार। ४. लोध नामक वृक्ष।
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मार्जना  : स्त्री० [सं०√मृज्+णिच्+युच्—अन,+टाप्] १. मार्जन करने की किया या भाव। सफाई। २. क्षमा। माफी।
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मार्जनी  : स्त्री० [सं० मार्जन+ङीप्] १. झाड़ू। बुहारी। २. संगीत में मध्यम स्वर की एक श्रुति।
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मार्जनीय  : [सं० √मृज्+णिच्+अनीयर] अग्नि। वि० जिसका मार्जन होना आवश्यक या उचित हो। मार्जन के योग्य।
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मार्जार  : पुं० [सं०√मृज्+आरन्, [स्त्री० मार्जनी] १. बिल्ली। २. लाल-चीते का पेड़। ३. पूति सारिवा।
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मार्जारक  : पुं० [सं० मार्जार+कन्] मोर।
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मार्जारकर्षिका  : स्त्री० [सं० मार्जार-कर्ण, ब० स० ङोप्+कन्०+टाप्, ह्नस्व] चामुंडा (दुर्गा का एक रूप) का एक नाम।
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मार्जारपाद  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का बुरे लक्षणोंवाला घोड़ा।
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मार्जाराक्षक  : पुं० [सं० मार्जार-अक्षि, ब, स, षच्+कन्] एक प्रकार का रत्न। (कौ०)
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मार्जारी  : स्त्री० [सं० मार्जार+ङीप्] १. बिल्ली। २. कस्तूरी। ३. गन्धनाकुली।
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मार्जारी टोड़ी  : स्त्री० [सं० मार्जारी+हि० टोड़ी] सम्पूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब कोमल स्वर लगते है।
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मार्जारीय  : पुं० सं० मार्जाय+छ—ईय] १. बिल्ली। २. शूद्र। वि० मार्जन करनेवाला।
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मार्जाल  : पुं० =मार्जाय।
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मार्जालीय  : पुं० [सं०√मृज्+अलीयच्] १. बिल्ली। २. शूद्र। ३. शिव। ४. एक प्राचीन ऋषि। वि०=मार्जारीय।
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मार्जित  : भू० कृ० [सं√मृज् (शुद्ध करना)+णिच्=क्त] जिसका मार्जन हुआ हो या किया गया हो। साफ या स्वच्छ किया हुआ। पुं० एक प्रकार का श्रीखण्ड जो दही, कपूर, चीनी शहद और मिर्च आदि मिलाकर बनाया जाता था।
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मार्तंड  : पुं० [सं० मृत-अण्ड, कर्म० स० पररूप,+अण्, वृद्धि] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. सूअर। ४. सोनामक्खी।
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मार्तंड-वल्लभा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सूर्य की पत्नी। २. छाया।
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मार्तिक  : भू० कृ० [सं० मृत्तिका+ठक्—इक] मिट्टी से बना या बनाया हुआ। पु० १. सकोरा। २. पुरवा।
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मार्तिकावत  : पुं० [सं०] १. पुराणानुसार चेदि राज्य का एक प्राचीन नगर। २. उक्त नगर के आसपास को प्रदेश। ३. उक्त देश का निवासी।
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मार्त्य  : पुं० [सं० मर्त्य+ष्यञ्] १. मर्त्य होने की अवस्था या भाव। मरणशीलता। २. शारीरिक मल।
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मार्दंग  : पुं० [सं० मृत्-अंग, ब० स०,+अण्] १. मृदंग बजानेवाला। २. नगर। शहर।
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मार्दंगिक  : पुं० [सं० मृदंग+ठक्—इक] वह जो मृदंग बजाता हो। मृदंगिया।
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मार्दव  : पुं० [सं० मृदु+अण्] १. मृदु होने की अवस्था या भाव। मृदुता। २. दूसरे को दुःखी देखकर दुःखी होने की वृत्ति। हृदय की कोमलता और सरसता। ३. अहंकार आदि दुर्गुंणों से रहित होने की अवस्था या भाव। ४. एक प्राचीन जाति।
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मार्द्वीक  : वि० [सं० मृद्वीका+अण्, वृद्धि] १. अंगूर-सम्बन्धी। २. अंगूर से बना या बनाया हुआ। स्त्री० [सं०] अंगूरी शराब।
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मार्फत  : अव्य०, स्त्री०=मारफत।
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मार्मिक  : वि० [सं० मर्मन्+टक्—इक] [भाव० मार्मिकता] १. मर्म-सम्बन्धी। मर्म का। २. मर्म स्थान (हृदय) पर प्रभाव डालने अथवा उसे आंदोलित करनेवाला। ३. किसी विषय का मर्म अर्थात् निहित तत्त्व के आधार पर या विचार से होनेवाला। जैसे—मार्मिक विवेचन।
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मार्मिकता  : स्त्री० [सं० मार्मिक तल्+टाप्] १. मार्मिक होने की अवस्था या भाव। २. किसी विषय, शास्त्र आदि के गूढ़ रहस्यों की अभिज्ञता या अच्छी जानकारी।
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मार्शल  : पुं० [अं०] सेना का एक उच्च अधिकारी।
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मार्शल-ला  : पुं० [अं०] १. वह आदेश जिसके द्वारा किसी देश की शासन-व्यवस्था सेना को सौंपी जाती है। २. सैनिक व्यवस्था या शासन। फौजी कानून या हुकूमत। विशेष—जब देश में विशेष उपद्रव आदि की आशंका होती है तब वहाँ से साधारण नागर शासन हटाकर इसी प्रकार का शासन कुछ समय के लिए प्रचलित किया जाता है।
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मार्ष  : पुं० =मारिष।
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माल  : पुं० [सं० मा+ रन्, र—ल, पृषो०] १. क्षेत्र। २. कपट। छल। ३. वन। जंगल। ४. हरताल। ५. विण्णु। ६. एक प्राचीन अनार्य या म्लेच्छ जाति। ६. एक प्राचीन देश। स्त्री० [सं० माला] १. गले में पहनने की माला। २. वह रस्सी या सूत की डोरी जो चरखे में बेलन पर से होकर जाती है और टेकुए को घुमाती है। ३. पंक्ति। श्रेणी। ४. झुंड। समूह। उदा०—बाल मृगनि का माल सधन वन भूलि परी ज्यौं।—नंददास। पुं० =मल्ल (पहलवान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अं०] १. प्रत्येक ऐसी मूल्यवान वस्तु जिसकी कुछ उपयोग होता हो और इसीलिए जिसका क्रय-विक्रय होता है। जैसे—खेतों की उपज, वृक्षों के फल० घर का सामान, खनिज पदार्थ, गहने-कपड़े आदि। पद—मालख़ाना, मालगाड़ी मालगोदाम। मुहा०—माल काटना, चीरना या मारना= अनुचित रूप से कहीं से मूल्यवान पदार्थ या सम्पत्ति लेकर अपने अधिकार मे करना। २. धन-सम्मपत्ति। रुपया-पैसा। दौलत। पद—मालटाल, मालदार, माल-मता। ३. वह धन जो राज्य को कर, लगान आदि के रूप में प्राप्त होता है। राजस्व। पद—किसी पदार्थ का वह मूल अंश या तत्त्व जो वस्तुतः उपयोगी तथा मूल्यवान हो। जैसे—इस अँगूठी का माल (अर्थात् चाँदी या सोना) अच्छा है। ५. सुन्दर और सुस्वाद भोजन। ६. युवती और सुन्दरी स्त्री। (बाजारू) ६. गणित में वर्ग का घात। वर्ग अंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माल-कंगनी  : स्त्री० [हि० माल+कंगनी] १. एक प्रकार की लता जिसके बीजों का तेल निकलता है। २. उक्त लता के दाने या बीज जोऔषध के काम आते हैं और जिनमें से एक प्रकार का तेल निकलता है।
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माल-गाड़ी  : पुं० [हिं० माल+गाड़ी] रेल में वह गाड़ी (सवारी-गाड़ी से भिन्न) जिसमें केवल माल-असबाब भरकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाया जाता है।
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माल-टाल  : पुं० =माल-मता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माल-भंजिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] प्राचीन काल का एक प्रकार का खेल।
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माल-भंडारी  : पुं० [हि० माल+भंडारी] मालगोदाम, भंडार आदि का निरीक्षक।
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माल-भूमि  : स्त्री० [सं० मल्लभूमि] नैपाल के पूर्व का एक प्रदेश।
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माल-मता  : पुं० [अ० माल+मताअ] धन-दौलत। सम्पत्ति।
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माल-मंत्री  : पुं० दे० ‘राजस्व मंत्री’।
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मालक  : पुं० [सं०√मल् (धारण)+ण्वुल्—अक] १. स्थल-पदम। २. नीम। पुं० =मालिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मालका  : स्त्री० [सं० मालक+टाप] माला।
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मालकोश  : पुं० [सं० माल-कोष, ष० त०+अण्] संगीत में ओड़व जाति का एक राग जिसे कौशिक राग भी कहते हैं तथा जो रात के दूसरे पहर में गाया जाता है।
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मालखंभ  : पुं० [सं० मल्ल+खम्भ] १. एक प्रकार की भारतीय कसरत या व्यायाम जो लकड़ी के खम्भे या डंडे के सहारे किया जाता है और जिसमें कसरत करनेवाला अनेक प्रकार से बार-बार ऊपर चढ़ता और कलाबाजियाँ करता हुआ नीचे उतरता है। कुछ लोग लकड़ी के खम्भे की जगह छत से लटकाये हुए लम्बे बेंत का भी सहारा लेते हैं। २. वह खम्भा जिसके सहारे हुए लम्बे बेंत का भी सहारा लेते हैं। २. वह खम्भा जिसके सहारे उक्त प्रकार की कसरत या व्यायाम किया जाता है।
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मालखाना  : पुं० [अं० माल+फा० खान
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मालगुजार  : पुं० [अ० मालगुज़ार] मालगुजारी देनेवाला व्यक्ति। २. जमींदार।
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मालगुजारी  : स्त्री० [फा०] जोती-बोयीजानेवाली जमीन का वह कर जो सरकार को दिया जाता है। लगान। २. मालगुजार होने की अवस्था या भाव।
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मालगुर्जरी  : स्त्री० [सं० मालगुर्जर+ङीप्] सम्पूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब युद्ध स्वर लगते हैं।
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मालगोदाम  : पुं० [हिं० माल+गोदाम] १. वह स्थान जिसमें व्यापारी वस्तु का भंडार रखते है। गोदाम। २. रेलवे स्टेशन का वह स्थान जहाँ से मालगाड़ी में माल चढ़ाया और उतारा जाता है।
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मालगोमा  : पुं० [?] एक प्रकार का आम (फल)।
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मालंच  : पुं० [?] एक प्रकार का साग जो पानी में होता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मालचक्रक  : पुं० [सं०] कूल्हा।
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मालटा  : पुं० [मालटा (टापू से)] मुसम्मी की जाति का एक प्रकार का बढ़िया फल और उसका पेड़। यह पहले भूमध्यसगार के मालटा द्वीप से आता था। पर अब भारत में भी होता।
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मालति  : स्त्री० =मालती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मालती  : स्त्री० [सं०√मल्+ अतिच् दीर्घ+ङीष्] १. एक प्रकार की लता, जिसमें वर्षा ऋतु में सफेद रंग के सुगंधित फूल लगते हैं। २. उक्त लता का फूल। ३. छः अक्षरो की एक प्रकार की वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से एक नगण, दो जगण और एक रगण होता है। ४. मदिरा नामक छंद। ५. सवैया के मत्तगयंद नामक भेद का दूसका नाम। ६. युवती स्त्री। ६. चंद्रमा की चाँदनी। ज्योत्स्ना। ८. रात्रि। रात। ९. पाढ़ा नाम की लता। १॰. जात्री या जाय-फलनामक वृक्ष।
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मालती-क्षार  : पुं० [सं० ष० त०] सुगाहा।
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मालती-जात  : पुं० [सं० स० त०] सुहागा।
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मालती-टोड़ी  : स्त्री० [हिं० मालती+टोड़ी] सम्पूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें शुद्ध स्वर लगते हैं।
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मालती-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] जावित्री।
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मालती-फल  : पुं० [सं० ष० त०] जायफल।
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मालद  : पुं० [सं०] १. वाल्मीकीय रामायण के अनुसार एक प्रदेश का नाम जिसे ताड़का ने उजाड़ दिया था। २. एक प्राचीन अनार्य जाति।
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मालदह  : पुं० [देश०] १. पूर्वी बिहार के एक नगर का नाम। २. उक्त नगर और उसके आस-पास के स्थान में होनेवाला एक प्रकार का बढ़िया आम।
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मालदही  : स्त्री० [हिं, मालदह] एक प्रकार की नाव जिसमें माझी छप्पर के नीचे बैठकर उसे खेते हैं। पुं० मध्यम में मालदह में बननेवाला एक तरह का कपड़ा। वि० मालदह-सम्बन्धी।
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मालदा  : पुं० = मालदह।
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मालदार  : वि० [फा०] [भाव० मालदारी] धनवान्। धनी।
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मालद्वीप  : पुं० [सं० मलयद्वीप] हिंद महासागर का एक द्वीपपुंज।
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मालन  : स्त्री० =मालिन।
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मालपूआ  : पुं० [हिं० माल+सं० पूआ] घी में तली हुई एक प्रकार की मीठी पूरी या पकवान।
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मालय  : वि० [सं० ष० त०] १. मलय पर्वत का। २. मलय पर्वत पर होनेवाला। पुं० १. चंदन। २. व्यापारियों का दल। ३. गरुड़ के एक पुत्र का नाम।
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मालव  : पुं० [सं० माल+व] १. आधुनिक मध्य प्रदेश का एक भू-भाग जो मध्य तथा प्राचीन काल में एक स्वंतन्त्र राज्य था। मालव देश। २. उक्त देश का निवासी। ३. संगीत में एक राग जो भैरव का पुत्र कहा गया है। ४. सफेद लोध। वि० मालवा नामक देश का।
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मालवक  : वि० [सं० मालव+वुञ्—अक] मालव-संबंधी। मालवे का। पुं० मालव देश का निवासी।
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मालवरी  : स्त्री० [हिं० मालाबार] एक प्रकार की ईख।
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मालवश्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] सम्पूर्ण जाति की एक रागिनी जो सायंकाल गाई जाती है।
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मालवा  : पुं० [सं० मालव] आधुनिक मध्यप्रदेश के अंतर्गत एक भू-भाग। मालव। स्त्री० एक प्राचीन नदी।
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मालविका  : स्त्री० [सं० मालवा+ ठक्—इक,+टाप्] निसोथ।
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मालवी  : स्त्री० [सं० मालव +अण्+ ङीप्] १. संगीत में, श्री राग की एक रागिनी। २. पाढ़ा नाम की लता। ३. मालवे की बोली। वि०=मालवीय।
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मालवीय  : वि० [सं० मालव+छ—ईय] मालव देश-संबंधी। मालव का। पुं० मालव देश का निवासी।
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मालश्री  : स्त्री०=मालवश्री।
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मालसी  : स्त्री० =मालवश्री।
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माला  : स्त्री० [सं० मा=शोभा√ला (देना)+क,+टाप्] १. एक ही पंक्ति या सीघ में लगी हुई बहुत सी चीजों की स्थिति। अवली। पंक्ति। जैसे—पर्वत-माला। २. एक तरह की चीजों का निरन्तर चलता रहनेवाला क्रम। जैसे—पुस्तक माला। ३. फूलों का हार। गजरा। ४. फूलों के हार की तरह बनाया हुआ सोने, चाँदी, रत्नों आदि का हार। जैसे—मोतियों या हीरों की माला। ५. कुछ विशिष्ट प्रकार के दानों या मनकों का हार जो धार्मिक दृष्टियों से पहना जाता है। जैसे—तुलसी की माला, रुद्राक्ष की माला अर्थात् जिसके दानों या मनकों की गिनती के हिसाब के इष्टदेव के नाम का जप किया जाता है। मुहा०—माला जपना या फेरना=हाथ में माला लेकर इष्टदेव का नाम जपना। (किसी के नाम की) माला जपना=हरदम या प्रायः किसी का नाम लेते रहना अथवा चर्चा या ध्यान करते रहना। ६. समूह । झूंड। जैसे—मेघमाला। ६. एक प्राचीन नदी। ८. दूब। ९. भुई आँवला। १॰. काठ की एक प्रकार की कटोरी जिसमें उबटन या तेल रखकर शरीर पर मला या लगाया जाता है। ११. उपजाति छंद का एक भेद जिसके प्रथम और चौथे चरण में जगण, तगण, फिर जगण और अंत में दो गुरु होते है। पुं० [अ० महल, हि० महला] मकान का खंड। (महाराष्ट्र) जैसे—मकान का चौथा माला।
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माला दीपक  : पुं० [सं० ष० त०] साहित्य में, दीपक अलंकार का एक भेद जिसमें किसी वस्तु के एक ही गुण के आधार पर उत्तरोत्तर अनेक वस्तुओं का संबंध बताया जाता है। जैसे—रस के काव्य, काव्य से वाणी, वाणी से रसिक और रसिक से सभा की शोभा बढ़ती है।
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माला मणि  : पुं० [ष० त०] रुद्राक्ष।
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माला रानी  : स्त्री० [हिं,] संगीत में कल्याण ठाठ की एक रागिनी।
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माला-कंद  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का कंद जो वैद्यक में तीक्ष्ण दीपन, गुल्म और गंडमाला रोग को हरनेवाला तथा वात और कफ का नाशक कहा गया है। कंडलता। बल-कंद।
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माला-दूर्बा  : स्त्री० [सं० उपमि० त०] एक प्रकार की दूब जिसमें बहुत सी गाँठें होती हैं। गंडदूर्वा।
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मालाकंठ  : पुं० [सं० ब० स०] १. अपामार्ग। चिचड़ा। २. एक प्रकार का गुल्म।
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मालाकार  : पुं० [सं० माला√कृ+अक्] [स्त्री० मालाकारी] १. पुराणानुसार एक वर्णसंकर जाति। विशेष—ब्रह्यवैवर्त पुराण के अनुसार यह जाति विश्वकर्मा और शूद्रा से उत्पन्न है। पराशर पद्धति के अनुसार यह तेलिन और कर्मकार से उत्पन्न है। २. माली।
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मालाकृति  : वि० [माला-आकृति, ब० स०] माला के आकार का। दे० ‘रज्जुवक्र’।
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मालागिरी  : वि०, पुं० =मलयागिरि।
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मालातृण  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक तरह की सुगंधित घास। भूस्तृण।
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मालाधर  : पुं० [सं० ष० त०] सत्रह अक्षरों का एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में नगण, सगण, जगण, फिर सगण और अंत में एक लधु और फिर गुरु होता है।
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मालाप्रस्थ  : पुं० [सं०] एक प्राचीन नगर।
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मालाफल  : पुं० [सं० ष० त०] रुद्राक्ष।
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मालामाल  : वि० [फा०] जिसके पास बहुत अधिक माल या धन हो। धन-धान्य से पूर्ण। सम्पन्न।
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मालाली  : स्त्री० [सं० माला√अल्+अच्+ङीष्] पक्का। असबरग।
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मालावती  : स्त्री० [सं० माला+मतुप्, वत्व, ङीप,] एक प्रकार की संकर रागिनी जो पंचम, हम्मीर, नट और कामोद के संयोग से बनती है। कुछ लोग इसे मेघराज की पुत्रवधु मानते हैं।
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मालिक  : पुं० [सं० माला+ठक्—इक] १. मालाएँ बनानेवाला। माली। २. रजक। धोबी। ३. एक प्रकार का पक्षी। पुं० [अ०] [स्त्री० मालिका] १. वह जो सब का स्वामी हो और सब पर अधिकार रखता हो। २. ईश्वर। जैसे—जो मालिक की मरजी होगी वही होगा। ३. सम्पत्ति आदि का स्वामी। अध्यक्ष। ४. विवाहिता स्त्री का पति। शौहर।
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मालिका  : स्त्री० [सं० माला+कन्+टाप इत्व] १. पंक्ति। श्रेणी। २. फूलों आदि का माला। ३. गले में पहनने का एक प्रकार का गहना। ४. पक्के मकान के ऊपर का कोठा। अटारी। ५. अंगूर की शराब ६. मदिरा। शराब। ६. पुत्री। बेटी। ८. चमेली। ९. अलसी। १॰. माली जाति की स्त्री। मालिन। ११. मुरा नामक गंध द्रव्य। १२. सातला। स्त्री० [फा० ‘मालिक’ का स्त्री०] स्वामिनी।
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मालिकाना  : पुं० [अ० मालिक+फा० आन
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मालिकी  : स्त्री० [फा० मालिक+ई (प्रत्य०)] मालिक होने की अवस्था या भाव स्वामित्व। मालकियत। वि० मालिक या स्वामी का। जैसे—मालिकी माल।
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मालित  : भू० कृ० [सं० माला+इतच्] १. जिसे माला पहनाई गई हो। २. जो घेर लिया गया हो।
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मालिन  : स्त्री० [हिं० माली] १. माली की स्त्री। २. माली का काम करनेवाली स्त्री। स्त्री० [स० मालिनी] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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मालिनी  : स्त्री० [सं० माला+इनि+ङीप्] १. माली जाति की स्त्री। मालिन। २. चंदा नगरी का एक नाम। ३. गौरी। ४. गंगा। ५. जवासा। ६. कलियारी। ६. स्कंद की सात मातृकाओं में से एक। ८. साहित्य मे, मंदिरा नामकी वृत्ति। ९. एक प्रकार की वार्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक पाद में १5 अक्षर होते है। पहले ६. वर्ण दसवाँ और तेरहवाँ लघु और शेष गुरु होते हैं (न, न, भ, य, य)। इसे कोई-कोई मात्रिक भी मानते हैं। १॰. हिमालय की एक प्राचीन नही। रौच्य मनु की माता का नाम। ११. हिमालय की एक प्राचीन नदी। कहते हैं कि इसी के तट पर मेनका के गर्भ से शकुलंता का जन्म हुआ था।
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मालिन्य  : पुं [सं० मलिन+ष्णञ्, ण्ण वा, बुद्धि] १. मलिन होने की दशा या भाव। मलिनता। मैलापन। २. अंधकार। अंधेरा।
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मालियत  : स्त्री० [अ०] १. माल का वास्तिवक मूल्य। कीमत। २. धन। सम्पत्ति। ३. मूल्यवान पदार्थ। कीमती चीज।
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मालिया  : पुं० [देश०] पाल आदि बाँधते समय दी जानेवाली रस्सी में एक विशेष प्रका की गाँठ। (ल०) पं० [हिं० माल] मालगुजारी। (पश्चिम)
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मालिवान  : पुं० माल्यवान्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मालिश  : स्त्री० [फा०] १. शरीर पर तेल आदि मलने की क्रिया या भाव। मर्दन। २. रक्त-संचार आदि के लिए शरीर के किसी अंग पर बार-बार हाथ से मलने की किया। मुहा०—जी मालिश करना=उबकाई या मिचली-सी आना। जैसे—उसे देखकर मेरा तो जी मालिश करने लगा।
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माली (लिन्)  : वि० [सं० माला+इनि] [स्त्री० मालिनी] जो माला धारण किये हो। पुं० १. वाल्मीकीय रामायण के अनुसारसुकेश राक्षस का पुत्र जो माल्यवान् और सुमाली का भाई था। २. राजीव-गण नामक छन्द का दूसरा नाम। पुं० [सं० माला+इनि, दी्र्ध, न-लोप, मालिन; प्रा० मालिन] [स्त्री० मालिन, मालिनि, मालिनी] १. बाग को सींचने और पौधों को ठीक स्थान पर लगानेवाला व्यक्ति। बागवान। २. हिन्दूओं में उक्त काम करनेवाली एक जाति। ३. उक्त जाति का व्यक्ति। स्त्री० [हिं, माला] छोटी माला। सुमिरनी। उदा०—पतनारी माली पकाई और न कछू उपाय।—बिहारी। वि० [अं०] माल अर्थात् धन या सम्पत्ति से संबंध रखनेवाला। अर्थ सम्बंधी। आर्थिक।
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माली खूलिया  : पुं० [अं०] एक प्रकार का मानसिक रोग जिसमें रोगी प्रायः खिन्न या दुःखी और संशक रहता है। उन्माद
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माली गौड़  : पुं०=मालव-गौड़। (राग)
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मालीद  : पुं० [अं० मालिबडेना] एक प्रकार की उज्ज्वल और चमकदार धातु जो चाँदी से अधिक कड़ी होती है।
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मालीदा  : पुं० दे ‘मलीदा’।
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मालु  : पुं,० [सं०√मृ (प्राप्त करना)+उण् वृद्धि, र=त्त] एक प्रकार की लता जो पेड़ों से लिपटती है। पत्रलता।
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मालुक  : पुं० [सं० मालु+कन्] १. काली तुलसी। २. मटमैले रंग का एक प्रकार का राजहंस।
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मालुधान  : पुं० [सं० मालु√धा (रखना)+ल्यु—अन] १. एक प्रकार का साँप। २. पुराणानुसार आठ प्रमुख नागों में से एक। ३. महापथ।
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मालुधानी  : स्त्री० [सं० मालुधान+ङीप्] एक प्रकार की लता]।
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मालुमात  : स्त्री० [अं०] १. जानकारी। ज्ञान। २. किसी बात का विषय की इच्छी और पूरी जानकारी।
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मालुर  : पुं० [सं० मा√लू (काटना)+र] १. बेल का पेड़। २. कपित्थ। कैथ।
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मालूम  : वि० [अं०] १. (बात् वस्तु या विषय) जिसका इल्म अर्थात् ज्ञान हो चुका हो। जाना हुआ। ज्ञात। विदित। २. प्रकट। स्पष्ट। पुं० जहाज का प्रधान अधिकारी या अफसर। (लश०)
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मालोपमा  : स्त्री० [सं० माला-उपमा उपमि० स०] साहित्य में उपमालंकार का एक भेद जिसमें एक उपमेय के (क) एक ही धर्मवाले अथवा (ख) विभिन्न धर्मवाले अनेक उपमान बतलाये जाते है।
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माल्य  : पुं० [सं० माला+ष्यञ्] १. फूल। २. माला। ३. सिर पर लपेटी जानेवाली माला।
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माल्य-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] सन का पौधा।
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माल्यक  : पुं० [सं० माल्य+ कन] १. दमनक। दौना। २. माला।
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माल्यवंत  : पुं० =माल्यवान्।
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माल्यवती  : स्त्री० [सं० माल्यवत्+ङीप्] पुराणानुसार एक प्राचीन नदी। वि० (हि०) माल्यवत् का स्त्री०।
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माल्यवत्  : वि० [सं० माल्य+मतुप्, वत्व] [स्त्री० माल्यवती] जो माला पहने हो। पुं० =माल्यवान्।
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माल्यवान् (वत्)  : पुं० [सं० दे० माल्यवत] १. पराणानुसार एक पर्वत जो केतुमाल और इलावृत वर्ष के बीच का सीमा-पर्वत कहा गया है। २. सुकेश का पुत्र एक राक्षस जो गंधर्व की कन्या देववती से उत्पन्न हुआ था। वि० [सं० माल्यवत्] [स्त्री० माल्यवती] जो माला पहने हो।
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माल्ल  : पुं० [सं० मल्ल +अञ्] १. एक वर्ण संकर। २. दे० ‘मल्ल’।
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माल्लवी  : स्त्री० [सं०√मल्ल्+वण्,+ङीप्] १. मल्लों की विद्या या कला। २. मल्लों का जोड़।
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माल्ह  : पुं० =मल्ल। स्त्री० =माला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मावत  : पुं० = महावत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मावना  : अ०= अमाना (किसी के बीच में समाना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मावली  : पुं० [?] [स्त्री० मावली] १. महाराष्ट्र राज्य के पहाड़ों में रहनेवाली एक योद्धा जाति। २. उक्त जाति का व्यक्ति।
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मावली  : वि० [हिं० मावला] मावलों से संबं रखनेवाला। मावलों का। जैसे—मालवी गाँव, मावली दल। स्त्री० ‘मावला’ की स्त्री। पुं० =मावला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मावस  : स्त्री० =अमावस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मावा  : पुं० [सं० हि० माँड] १. माँड। पीच। २. किसी चीज का सार भाग। सत्त। मुहा०—(किसी का) मावा निकालना=खूब मारना-पीटना। ३. वह दूध जो गेहूँ आदि को भिगोकर या कच्चा मलकर निचोड़ने से निकलता है। ४. दूध का खोआ। ५. प्रकृति। ६. अंडे के अंदर की जरदी। ६. चंदन का तेल या ऐसी ही और कोई चीज जिसमें दूसरी चीजों का सार भाग मिलाकर इत्र तैयार करते हैं। इत्र की जमीन। ८. एक प्रकार का गाढ़ा लसदार सुगंधित द्रव्य जिसे तम्बाकू में डालकर उसे सुगंधित करते है। ९. किसी प्रकार का मसाला या सामग्री। १॰. हीरे की बुकनी जिससे मलकर सोने-चाँदी के गहने चमकाते हैं।
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मावासी  : स्त्री०=मवासी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मावीत्र  : पुं० [सं० मातृ-पितृ] माता-पिता। (राज०) उदा०—मावीत्र अजाद मेटी बोलै मुखि।—प्रिथीराज।
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माश  : पुं० [सं० माष से फा०] उरद। मुहा०—माश मारना=मंत्र पढ़कर किसी को वश में करने के लिए उस पर उरद फेंकना। उदा०—भेड़ बन जाओगे मारेगी जो दो माश तुम्हें।—जान साहब। पुं० [सं० महाशय] १. महाशय। २. बंगाली।
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माशा  : पुं० [सं० माष, जंद० मष, माहः] आठ रत्ती मान की एक प्रकार की तौल जिसका व्यवहार सोने, चाँदी, रत्नों और औषधियों के तौलने में होता है। पुं० [सं० महाशय] १. महाशय। २. बंगाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माशा अल्लाह  : अव्य० [अ०] एक प्रशंसासूचक पद जिसका अर्थ है—वाह क्या कहना है ! बहुत अच्छे या क्या कहने !
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माशी  : पुं० [फा० माश=उड़द] १. माष अर्थात् उड़द की तरह का कालापन लिये लाल रंग। २. जमीन की एक नाप। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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माशूक  : पुं० [अं० माशूक़] [स्त्री० माशूका] लौकिक अथवा आध्यात्मिक प्रेम-पात्र। प्रिय।
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माशूका  : स्त्री० [अ० माशूक़] प्रेम-पात्री।
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माशूकाना  : वि० [अ० माशूक़+फा० आन
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माशूकी  : स्त्री० [फा०] माशूक होने की अवस्था या भाव। प्रेम-पात्रता।
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माष  : पुं० [सं०√मष् (मारना) +घञ्] १. उड़द। २. माशा नामक तौल। ३. शरीर पर होनेवाला मसा। वि० मूर्ख। स्त्री० =माख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माष-तैल  : पुं० [सं० ष० त०] वैद्यक में एक प्रकार का तेल जो अर्द्धांग, कम्प आदि रोगों में उपयोगी माना जाता है।
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माष-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, +कन्+टाप् इत्व] माषपर्णी।
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माष-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब० सं० ङीष्] जंगली उड़द।
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माष-योनि  : स्त्री [सं० ब० स०] पापड़।
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माष-वटी  : स्त्री० [सं० ष० त०] उड़द की बनी हुई बड़ी। (दे० ‘बड़ी’)
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माषक  : पुं० [सं० माष+ कन्] १. माशा नाम की तौल। २. उड़द। माष।
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माषना  : अ०=माखना (क्रुद्र होना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माषाद  : पुं० [सं० माष√अद्र (भक्षण करना)+अण्] कछुआ।
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माषाश  : पुं० [सं० माष +अश् (खाना) +अच्] घोड़ा।
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माषीण  : पुं० [सं० माष+ ख—ईन] माष या उड़द का खेत।
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माष्य  : पुं० [सं० माष+ष्यञ्] माष या उड़द बोने योग्य खेत। मशार।
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माँस  : अव्य०=में। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मांस  : पुं० [सं०√मन् (ज्ञान)+स] [वि० मांसल] १. मनुष्यों तथा जीव-जन्तुओं के शरीर का हड्डी, नस, चमड़ी, रक्त आदि से भिन्न अंश जो रक्त वर्ण का तथा लचीला होता है। आमिष। गोश्त। पद—मांस का घी=चरबी। २. कुछ विशिष्ट पशु-पक्षियों का मांस जिसे मनुष्य खाद्य समझता है। जैसे—बकरे या मुर्गे का मांस। पुं० =मास (महीना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मास  : पुं० [सं० √मस् (परिणाम)+ घञ्] काल का एक विभाग जो वर्ष के बारहवें भाग के बराबर होता है। महीना। विशेष—मास या महीना साधारणतः ३. दिनों का माना जाता है; परन्तु चांद्र, सौर आदि गणनाओं के अनुसार कभी-कभी एक दिन अधिक या कम का भी होता है। इसके सिवा नाक्षत्र मास और सावन मास भी होते है, जिनका विवेचन उक्त शब्दों के अन्तर्गत मिलेगा। पद—अधिमास, मल-मास। पुं० =मांस (गोश्त)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांस-कीलक  : पुं० [ष० त०] बवासीर का मसा।
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मांस-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] शरीर के विभिन्न अंगों में निकलने वाली मांस की गाँठ।
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मास-ताला  : पुं० [सं० ब० स०,+टाप्] एक प्रकार का बाजा।
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मांस-तेज (स्)  : पुं० [ब० स०] चरबी।
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मांस-धरा  : स्त्री० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार शरीर की त्वचा की सातवीं तह। स्थूलापार।
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मांस-पिंड  : पुं० [ष० त०] १. शरीर। देह। २. मांस का टुकड़ा या लोथड़ा।
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मांस-पिंड़ी  : स्त्री० [ष० त०] शरीर के अंदर रहनेवाली मांस की गाँठ।
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मांस-पेशी  : स्त्री० [ष० त०] शरीर के अंदर होनेवाली झिल्ली तथा रेशों के आकार का मांस-पिंड जिसका मुख्य कृत्य गति उत्पन्न करना होता है। विशेष—पक्षापात रोग में किसी अंग की मांसपेशियाँ गति उत्पन्न करना बंद कर देती हैं जिसके फलस्वरूप वह अंग हिलाया-डुलाया नहीं जा सकता।
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मांस-फल  : पुं० [सं० उपमि० स०] तरबूज।
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मास-फल  : पुं० [सं० ष० त०] गणित ज्योतिष में, किसी की जन्म-कुंडली के अनुसार किसी एक महीने का फल। (वर्ष-फल की तरह)
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मांस-भक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० मांस√भक्ष् (खाना)+णिनि] मांस खानेवाला । मांसाहारी।
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मास-भृत  : पुं० [सं० तृ० त०] वह मजदूर जिसे मासिक वेतन मिलता हो।
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मांस-मंड  : पुं० [सं० ष० त०] उबाले या पकाये हुए मांस का रसा। यखनी। शोरबा।
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मास-मान  : पुं० [ब० स०] वर्ष।
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मांस-योनि  : पुं० [ब० स०] रक्त और मांस से उत्पन्न जीव।
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मांस-रज्जु  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सुश्रुत के अनुसार शरीर के अंदर होनेवाले स्नायु जिनसे मांस बँधा रहता है। २. मांस का रसा। शोरबा।
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मांस-रस  : पुं० [ष० त०] मांस का रसा। शोरबा।
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मांस-लिप्त  : पुं० [तृ० त०] हड्डी।
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मांस-विक्रयी (यिन्)  : पुं० [सं० मांस+वि०√क्री+इनि, उपपद, स०] १. वह जो मांस बेचता हो। कसाब। २. वह जो धन के लोभ में अपनी सन्तान किसी के हाथ बेचता हो।
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मांस-वृद्धि  : स्त्री० [ष० त०] शरीर के किसी अंग के मांस का बढ़ जाना। जैसे—घेंघा, फील पाँव आदि।
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मांस-समुद्भवा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] चरबी।
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मांस-सार  : पुं० [ष० त०] शरीर के अन्तर्गत मेद नामक धातु। वि० हष्ट-पुष्ट। मोटा-ताजा।
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मास-स्तोम  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक यज्ञ।
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मांस-स्नेह  : पुं० [ष० त०] चरबी। वसा।
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मांस-हासा  : पुं० [ब० स०+टाप्] चमड़ा।
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मासक  : पुं० [सं० मास+कन्] महीना। मास।
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मांसकारी (रिन्)  : पुं० [सं० मांस√कृ+णिनि] रक्त। लहू।
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मांसखोर  : वि० [सं० मांस+फा० खोर] [भाव० मांसखोरी] मांसाहारी। मांस खानेवाला।
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मांसज  : वि० [सं० मांस√जन् (उत्पन्न होना)+ड] मांस से उत्पन्न होनेवाला। पुं० चरबी जो मांस से उत्पन्न होती है।
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मासज्ञ  : पुं० [सं० मास√ज्ञा (जानना)+क] १. दात्यूह नामक पक्षी। बनमुर्गी। २. एक प्रकार का हिरन।
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मासना  : अ० [सं० मिश्रण हिं० मीसना] मिलना। स० =मिलाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांसभोजी (जिन्)  : वि० [सं० मांस√भुज् (खाना)+णिनि] मांसाहारी।
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मासर  : पुं० [सं०√मस् (परिणाम)+णिच+अरन्] १. एक प्रकार का मादक पेय पदार्थ जो चावल के माँड़ और अंगूरों के उठे हुए रस से बनाया जाता था। २. काँजी।
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मांसरोहिणी  : स्त्री० [सं० मांस√रुह् (उत्पन्न होना)+णिच्+णिनि, +ङीष्] एक प्रकार का जंगली वृक्ष।
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मांसल  : वि० [सं० मांस+लच्] [भाव० मांसलता] १. (शरीर का कोई अंग) जो मांस से अच्छी तरह भरा हो। २. जिसमें मांस या उसकी तरह के गूदे की अधिकता हो। गुदगुदा। फ्लेशी। ३. मोटा-ताजा। हष्ट-पुष्ट।४. दृढ़। पक्का। मजबूत। पुं० १. गौड़ी रीती का एक गुण। २. उड़द।
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मांसलता  : स्त्री० [सं० मांसल+तल्+टाप्] १. मांस से भरे होने की अवस्था या भाव। २. बहुत अधिक मोटे-ताजे तथा हष्ट-पुष्ट होने की अवस्था या भाव।
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मासा  : पुं० =माशा।
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मासांत  : पुं० [सं० मास-अन्त० ष० त०] १. महीने का अंत। २. महीने का अन्तिम दिन। ३. अमावस्या। ४. सौर संक्रान्ति का दिन।
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मांसादन  : पुं० [मांस-अदन, ष० त०] मांस खाने की क्रिया या भाव।
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मांसादी (दिन्)  : वि० [सं० मांस√अद्+णिनि] मांस खानेवाला। मांसाहारी।
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मांसाद्  : वि० [सं० मांस√अद् (खाना)+क्विप्] जो मांस-खाता हो। मांस-भक्षक। पुं० राक्षस।
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मासाधिप  : पुं० [सं० मास-अधिप, ष० त०] वह ग्रह जो मास का स्वामीहो। मासेश।
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मासानुमासिक  : वि० [सं० ष० त०] प्रतिमास संबंधी। प्रतिमास का।
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मांसारि  : पुं० [मांस-अरि, ष० त०] अम्लबेंत।
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मांसार्गल  : पुं० [मांस-अर्गल, ष० त०] गले में लटकनेवाला मांस।
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मांसार्बुद  : पुं० [मांस-अर्बुद, ष० त०] १. एक प्रकार का रोग जिसमें लिंग पर फुंसियां निकल आती है। २. शरीर के किसी अंग में आघात लगने से होनेवाली वह सूजन जो पत्थर की तरह कड़ी हो जाती है और जिसमें प्रायः पीड़ा नहीं होती।
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मासावधिक  : वि० [सं० मास-अवधि, ब० स०+कप्] जिसकी अवधि एक मास पर्यंत हो।
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मांसाशन  : पुं० =मांसादन। वि० =मांसाशी।
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मांसाशी (शिन्)  : वि० [सं० मांस√अस् (खाना)+णिनि] जो मांस खाता हो। मांसाहारी। पुं० राक्षस।
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मांसाष्टका  : स्त्री० [मांस-अष्टका, मध्य० स०] माघ कृष्णाष्टमी । इस दिन मांस से पिंडदान करने का विधान था।
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मांसाहारी (रिन्)  : वि० [सं० मांस+आ√हृ+णिनि] [स्त्री० मांसाहारिणी] मांस का भोजन करनेवाला। मांसभक्षी।
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मासिक  : वि० [सं० मास+ठञ्—इक] १. मास-सम्बन्धी। २. मास मास पर नियमित रूप से होनेवाला। पुं० दे० ‘मासिक-धर्म’।
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मासिक-धर्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] स्त्रियों को प्रति मास होनेवाला रज-स्त्राव।
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माँसी  : वि० [सं० माष्] माष अर्थात् उड़द के रंग का। पुं० उक्त प्रकार का रंग जो उड़द के दाने के रंग की तरह होता है।
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मांसी  : स्त्री० [सं० मांस+अच्+ङीष्] १. जटामासी। २. काकोली। ३. चन्दन का तेल। ४. इलायची।
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मासी  : स्त्री० [सं० मातृष्वसा; पा० मातुच्छा; प्रा० मउच्छा] सम्बन्ध के विचार से माँ की बहन। मौसी।
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मासीन  : वि० [सं० मास+खञ्—ईन] एक महीने की अवस्थावाला।
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मांसु  : पुं० मांस।
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मासुरकर्ण  : पुं० [सं० मसुरकर्ण+अण्] मसुकर्ण के गोत्र में उत्पन्न पुरुष।
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मासुरी  : स्त्री० [सं० मसुर+अण्+ङीप्] चीर-फाड़ के काम में आनेवाला एक प्राचीन शस्त्र या औजार।
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मासूम  : वि० [अं०] १ जिसने कोई अपराध या दोष न किया हो। निरपराध। बेगुनाह। २. कलुष या पाप से रहित। ३. जो हर प्रकार से असमर्थ, निर्दोष तथा दया का पात्र हो। जैसे—मासूम बच्चा।
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मासूमियत  : स्त्री० [अ०] मासूम होने की अवस्था या भाव।
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मासूर  : वि० [सं० मसूर+अण्] १. मसूर-सम्बन्धी। मसूर का। २. मसूर की आकृति का।
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मासेष्टि  : स्त्री० [सं० मास-इष्टि मध्य० स०] वह इष्टि या यज्ञ जो पतिमास किया जाता हो।
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मांसोदन  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक तरह का पुलाव जिसमें मांस के टुकड़े भी डाले जाते हैं।
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मांसोपजीवी (विन्)  : वि० [सं० मांस+उप√जीव् (जीना)+णिनि] १. जिसकी जीविका मांस से चलती हो। २. जो मांस बेचकर जीवन निर्वाह करता हो।
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मासोपवास  : पुं० [सं० मास-उपवास, मध्य० स०] १. लगातार महीने भर तक किया जानेवाला उपवास। २. आश्विन शुक्ल ११ से कार्तिक शुक्ल ११ तक किया जानेवाला एक प्रकार का उपवास जिसका विधान गरुड़ पुराण में है।
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मासोपवासी (सिन्)  : पुं० [सं० मास-उपवास, मध्य० स०,+इनि] वह जो मासोपवास अर्थात् लगातार महीने भर तक उपवास करता हो।
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मास्  : पुं० [सं०√मा (मानना)+असुन्] १. चंद्रमा। २. महीना। मास।
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मास्टर  : पुं० [अं०] [भाव० मास्टरी] १. स्वामी। मालिक। २. अध्यापक। शिक्षक। ३. किसी कला, गुण, विद्या या विषय में निष्णात्त व्यक्ति। ४. छोटे बच्चों के लिए एक प्रकार का प्रेमपूर्ण सम्बोधन।
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मास्टरी  : स्त्री० [अं० मास्टर+ई (प्रत्य०)] १. मास्टर अर्थात् अध्यापक का काम, पद या पेशा। २. किसी कला, हुनर आदि में निष्णात्त होने की अवस्था या भाव।
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मास्तिष्क्य  : वि० [सं० मस्तिष्क+व्यज्] मस्तिष्क-संबंधी। मस्तिष्क का। जैसे—मास्तिष्क्य चित्रण।
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मास्य  : वि० [सं, मास+ यत्] महीने भर का। मासीन।
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माँह  : अव्य० [सं० मध्य०] में। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माह  : अव्य० [मध्य; प्रा० मज्झ] में। पुं० [सं० माष० प्रा० माह] उड़द। पुं० =मास (महीना)। पुं० =माघ नामक महीना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहत  : स्त्री० [सं० महत्ता] महत्त्व। बड़ाई।
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माहताब  : पुं० [फा०] १. चंद्रमा। २. चाँदनी। स्त्री० =माहताबी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहताबी  : स्त्री० [फा०] १. एक तरह की आतिशबाजी। २. चाँदनी रात का मजा लेने के लिए बैठने के लिए बनाया हुआ चबूतरा। ३. तरबूज। ४. चकोतरा। ५. एक तरह का कपड़ा। वि० माहताब अर्थात् चन्द्रमा की चाँदती में बनाया या तैयार किया हुआ। जैसे—माहताबी गुलकन्द।
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माहना  : अ० =उमाहना (उमड़ना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहर  : पुं० [सं माहिर =इन्द्र] इन्द्रयान। पद—माहर का फल =ऐसा पदार्थ जो देखने में तो सुन्दर हो, पर दुर्गुणों से भरा हो। वि० =माहिर (जानकार)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँहरा  : सर्व=हमारा (राज०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहरा  : सर्ब० =हमारा। (राज०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहली  : पुं० [हिं० महल] १. महल अर्थात् अन्तःपुर में काम करनेवाला सेवक। २. महली। खोजा। ३. नौकर। सेवक।
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माहव  : पुं० =माधव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहवार  : अव्य० [फा०] प्रतिमास। हर महीने। पुं० हर महीने मिलनेवाला वेतन। मासिक वेतन। वि० हर महीने होनेवाला। मासिक।
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माहवारी  : वि० [फा०] मासिक। स्त्री० स्त्रियों का मासिक-धर्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माँहा  : अव्य०=माँह (में)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माहाँ  : अव्य = महँ (बीच)।
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माहाकुल  : वि० [सं० महाकुल +अञ्] ऊँचे घराने में उत्पन्न। महाकुल।
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माहाकुलीन  : वि० [सं० महाकुल+खञ्—ईन] बहुत बड़ा कुलीन।
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माहाजनीन  : वि० [सं० महाजन+खञ्+ईन, वृद्धि] १. जो महाजनों के लिए उपयुक्त हो। २. महाजनों की तरह का।
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माहात्मिक  : वि० [सं० महात्मन्+ठक्—इक] १. महात्मा-सम्बन्धी। महात्मा का। २. जिसकी विशेष महत्ता हो। महात्मा से युक्त।
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माहात्म्य  : पुं० [सं० महात्मन्+ष्यञ्] १. महत् होने की अवस्था या भाव। गौरव। महिमा। २. आदर-सम्मान। ३. धार्मिक क्षेत्र में किसी पवित्र या पुण्य-कार्य से अथवा किसी स्थान के महत्त्व का वर्णन। जैसे—एकादशी माहात्म्य काशी माहात्म्य।
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माहाना  : वि० [फं०] माहवार। मासिक।
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माहिं  : अव्य० [सं० मध्य; प्रात० मज्झ] अन्दर। भीतर में। (अधिकरण कारक का चिन्ह)
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माँहि, मांही  : अव्य०=माँह।
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माहित  : पुं० [सं० महित+अण्] महित ऋषि के गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति।
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माहित्य  : पुं० [सं० महित+यञ्] महित ऋषि के गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति।
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माहियत  : स्त्री [अ० माहीयात] १. भीतरी और वास्तविक तत्व । २. प्रकृति। ३. विवरण।
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माहिया  : पुं० [पं०] १. प्रियम। प्रिय। २. एक प्रकार का प्रसिद्ध पंजाबी गेयपद दो तीन चरणों का होता है और जिसमें मुख्यतः करुण और श्रृंगार रस की प्रधानता होती है और बिहर-दशा का मार्मिक वर्णन होता है।
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माहियाना  : वि० [फा० माहियान
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माहिर  : पुं० [सं० √मह+इरन् बा०] इन्द्र। वि० [अ०] किसी बात या विषय का पूर्ण ज्ञाता। अच्छा जानकार।
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माहिला  : पुं० [सं० मध्य] अन्तर। फरर्क। वि० [स्त्री० माहिली] १. मध्य या बीच का। मँझला। २. अन्दर का। आन्तरिक। पुं० =माँझी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहिले  : अव्य० [हिं० माहि] अन्दर। भीतर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहिष  : वि० [सं० महिषी+अण्] भैंस सम्बन्धी या भैंस का (दूध आदि)।
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माहिष-वल्लरी  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] काला विधारा। कृष्ण वृद्धदारक।
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माहिष-वल्ली  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] छिरहटी।
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माहिषिक  : पुं० [सं० महिषी +ठक्-इक, वृद्धि] १. व्यभिचारिणी स्त्री का पति। २. भैंस के द्वारा जीविका निर्वाह करनेवाला व्यक्ति।
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माहिष्मती  : स्त्री० [सं०] वर्तमान मध्य प्रदेश में स्थित एक बहुत पुरानी नगरी जिसे मांधाता के पुत्र मुचकुंद ने बसाया था।
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माहिष्य  : पुं० [सं० महिषी+ष्यञ्, वृद्धि] स्मृतियों के अनुसार एक संकर जाति।
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माहीं  : अव्य०=माँहि।
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माही  : स्त्री [सं० माहेय] एक नदी जो खंभात की खाड़ी में गिरती है। स्त्री० [फा०] मछली। पद—माही-गौर, माही-पुश्त, माही-मरातिब।
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माही-गीर  : पुं० [फा०] मछली पकड़नेवाला। मछुवा।
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माही-पुश्त  : वि० [फा०] जो मछली की पीठ की तरह उभरा हुआ और किनारे-किनारे ढालुआँ हो। पुं० एक प्रकार का कारचोबी का काम जो बीच में उभरा हुआ और दोनों ओर से ढालुआँ होता है।
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माही-मरातिब  : पं० [फा०] मुगल बादशाहों के आगे हाथी पर चलने-वाले सात झंड़े जिन पर अलग-अलग मछली, सातों ग्रहों आदि की आकृतियाँ कारचोबी की बनी होती थीं।
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माँहुटि  : पुं० [हिं० माघ (महीना)] माघ के महीने में होनेवाली वर्षा। उदाहरण—नैन चुवहिं जस माँहुटि नीरू।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहुति  : स्त्री० [सं० माध-घटा] माघ महीने की घटा या बादल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहुर  : पुं० [सं० मधुर, प्रा० महुर =विष] विष। पद—माहुर की गाँठ=(क) बहुत ही जहरीली और खराब चीज। (ख) बहुत ही दुष्ट हृदय का व्यक्ति।
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माहुरी  : स्त्री० [सं० माधुरी] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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माँहूँ  : पुं० [?] सरसों, गोभी, मूली शलजम आदि में लगनेवाला एक प्रकार का हल्के पीले-रंग का कीड़ा जिसके शरीर के पिछले भाग पर ऊपर की ओर दो छोटी नलियाँ रहती हैं लाही।
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माहूँ  : स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार का छोटा कीड़ा जो राई, सरसों, मूली आदि की फसल में उनके डंठलों पर फूलने के समय या उसके पहले अंडे दे देता है। २. कनसलाई नाम का कीड़ा।
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माहेंद्र  : वि० [सं० महेन्द्र+अण्] १. महेन्द्र-संबंधी। महेन्द्र का। २. जिसका देवता महेन्द्र हो। ज्योतिष में, वार के अनुसार भिन्न-भिन्न दंड़ों में पड़नेवाला एक योग जिसमें यात्रा करने का विधान है। ३. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ४. सुश्रुत के अनुसार एक देवग्रह जिसके आक्रमण करने के ग्रहग्रस्त पुरुष में माहात्म्य, शौर्य, शास्त्र-बुद्धिता आदि गुए एकाएक आ जाते हैं। ५. जैनियों के एक देवता दो कल्पभव नामक वैमानिक देवगण में है। ६. जैनियों के एक देवता जो कल्पभव नामक वैमानिक देवगण में है। जैनियों के अनुसार चौथे स्वर्ग का नाम।
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माहेंद्री  : स्त्री० [सं० महेन्द्र+ङीष्] १. महेन्द्र अर्थात् इन्द्र की शक्ति। २. इन्द्र की पत्नी। ३. इन्द्रासन। ४. गाय। गौ। ५. सात मातृकाओं में से एक।
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माहेय  : वि० [सं० मही +ढक० ढ—एय] मिट्टी का बना हुआ। पुं० १. मूँगा नामक रत्न। विद्रुम। २. मंगल ग्रह। ३. नरकासुर।
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माहेयी  : स्त्री० [सं० माहेय+ङीष्] १. गाय। गौ। २. माही नाम की नदी।
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माहेल  : पुं० [सं० महेल+अण्] एक गोत्र-प्रवर्तक ऋषि।
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माहेश  : वि, [सं० महेशा+अण्] महेश का।
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माहेशी  : स्त्री० [सं० माहेश+ङीष्] दुर्गा।
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माहेश्वर  : वि० [सं० महेश्वर+अण् वृद्धि] महेश्वर-सम्बंधी। महेश्वर का। पुं० १. एक प्रसिद्ध शैव सम्प्रदाय। २. एक प्रकार का यज्ञ। ३. एक उप-पुराण का नाम। ४. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ५. पाणिनि के वे चौदह सूत्र जिन्हें प्रत्याहार कहते हैं और जिन्हें पाणिनि ने अष्टाध्यायी के सूत्रों का प्रमुख आधार बनाया है।
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माहेश्वरी  : जी० [सं० माहेश्वरी+ङीष्] १. दुर्गा। २. एक मातृका का नाम। ३. एक प्राचीन नदी। ४. एक प्रसिद्ध पीठ या तीर्थ-स्थान। पुं० वैश्यों की एक जाति।
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माँहै  : अव्य०=माँह। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माहों  : पुं० =माहूँ (कीड़ा)।
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मिआद  : स्त्री०=मीआद।
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मिआदी  : वि० =मीआदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिआन  : पुं०, वि०=मियाना। स्त्री०=म्यान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिकदार  : स्त्री० [अं० मिक़्दार] १. मात्रा। २. तौल
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मिकना  : पुं[अं मिक़्ना] एक प्रकार की महीन ओढ़नी या चादर।
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मिकराज  : स्त्री० [अं० मिक्राज] कतरनी। कैंची।
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मिकराजी  : पुं० [अं०] वह तीर जिसके फल में दो गाँसियाँ होती है।
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मिकाडो  : पुं० [जा०] जापान के सम्राटों की उपाधि।
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मिग  : पुं० =मृग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिंगनी  : स्त्री०=मेंगनी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिगी  : स्त्री०=मींगी (गिरी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिचकना  : अ० [हिं० मिचना] (आँखों या पलकों का) बार-बार खुलना या उठना और बंद होना या गिरना। मिचना।
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मिचकाना  : सं० [हिं० मिचना] बार-बार (आँखें या पलकें) खोलना या उठाना और बंद करना या गिराना।
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मिचकी  : स्त्री० [हिं० मिचकना] १. आँखें मिचकने या मिचकाने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. आँखें मिचकाकर किया जानेवाला संकेत। आँख का इशारा। स्त्री० [?] १. छलांग। उछाल। २. झूले की पेंग। उदा०—कर छोड़ शरीर तोल के हम लेंटी मिचकी किलोल के। —मैथिलीशरण।
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मिचना  : अ० [हिं० मींचना का अक० रूप] (आँखों का) बंद होना। मीचा जाना।
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मिचराना  : अ० [मिचर, चाबने के शब्द से अनु०] बिना भूख के खाना। जबरदस्ती खाना।
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मिचलाना  : अ० [हिं० मथना, मतलाना] मतली आना। कै आने को होना।
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मिचली  : स्त्री० [हिं० मिचलाना] जी मिचलाने की क्रिया या भाव। शरीर की ऐसी अवस्था जिसमें कै करने की इच्छा या प्रवृत्ति हो।
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मिचवाना  : सं० [हिं० मीचना का प्रे० रूप] मीचने का काम दूसरे से कराना। किसी को मीचने में प्रवृत्त कना।
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मिचौना  : सं० =मीचना।
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मिचौनी (ली)  : स्त्री० [हिं० मीचना] १. मीचने या मूँदने की क्रिया या भाव। जैसे—आँख-मिचौनी। २. दें० ‘आँख-मिचौली’।
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मिचौंहाँ  : वि० [हिं० मिचना] मिचने या मीचनेवाला। बंद होनेवाला।
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मिछा  : वि०=मिथ्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिजराव  : वि० [अं०] सितार बजाने का एक तरह का छल्ला। नाखुना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिजवानी  : स्त्री० = मेजबानी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिजाज  : पुं० [अं० मिज़ाज] १. तासीर। किसी पदार्थ का वह मूल गुण जो सदा बना रहे। मूल प्रकृति। २. प्राणी की प्रधान प्रवृत्ति स्वभावय। जैसे—उनका मिजाज बहुत सख्त है। ३. मन या शरीर की स्वाभाविक स्थिति। तबीयत। दिल। मुहा०—मिजाज खराब होना =(क) मन में किसी प्रकार की अप्रसन्नता आदि उत्पन्न होना। (ख) कुछ अस्वस्थ होना। (किसी का) मिजाज पाना= (क) किसी के स्वभाव से परिचित होना। (ख) किसा को अपने अनुकूल या अनुरक्त स्थिति में देखना। मिजाज पूछना=(क) तबीयत या हाल पूछना। (ख) अच्छी तरह दंड देना या बदला चुकाना। (व्यंग्य) मिजाज बिगड़ना= (क) शरीर अस्वस्थ-सा जान पड़ना। (ख) मन में कोध या रोष उत्पन्न होना। मिजाज का आना=ध्यान में आना। समझ में आना। जैसे—अगर आपके मिजाज के आये तो आप भी वहाँ चलिए। मिजाज सीधा होना=अनुकूल या प्रसन्न होना। तबीयत ठिकाने होना। ४. अभियान। घमंड। पद—मिजाजदार। पद—मिजाजदार। मुहा० मिजाज करना या दिखाना = (क) क्रोध या गुस्से में आना। (ख) अभियान या घमंड करना या दिखाना। मिजाज न मिलना= घमंड के कारण सीधी तरह से बात न करना। जैसे—आज-कल तो उनका मिजाज ही नहीं मिलता।
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मिजाज अली  : अव्य० [अ० मिजाजे अली] आप प्रसन्न और स्वस्थ तो है ? (भेंट होने पर प्रश्नवाचक पद की तरह प्रयुक्त।)
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मिजाज-पीटा  : वि० [अं० मिज़ाज+हि० पीटना] [स्त्री० मिज़ा़ज-पीटी] अभिमानी।
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मिजाज-पुरसी  : स्त्री० [अं० मिज़ाज+फा० पुसीं] किसी का कुशल-मंगल या हाल-चाल पूछना।
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मिज़ाज-शरीफ  : अव्य० [अं० मिज़ाजे शरीफ़]=मिजाज अली।
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मिजाजदार  : वि० [अं० मिज़ाज+फा० दार (प्रत्य,)] घमंड़ी। अभिमानी।
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मिजाजदारी  : स्त्री० [अ०+फा०] मिजाजदार होने की अवस्था या भाव।
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मिजाजी  : वि० स्त्री० [अं० मिज़ाज+इनि (प्रत्य०)] बहुत अधिक मिजाज अर्थात् अभिमान करने या रखनेवाली। घमंडिन।
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मिज़ाजी  : वि० पुं० [हिं० मिजाज+ओ (प्रत्य०)] अभियानी। घमंडी।
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मिजान  : स्त्री० = मीजान (जोड़)।
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मिजालू  : पुं० = मज्जा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिंट  : पुं० [अं०] टकसाल। पुं० =मिनट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिंट-हाउस  : पुं० [अं०] टकसाल।
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मिटका  : पुं० [स्त्री० अल्पा० मिटकी] मटका।
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मिटना  : अ० [सं० मृष्ट; प्रा० मिट्ट] १. अंकित, चिन्ह लिखित लेख आदि पर का रंग, स्याही आदि का एक प्रकार पोंछा जाना कि वह चिन्ह या लेख ठीक तरह से दिखायी न दे या पढ़ा न जा सके। जैसे—इस पत्र के कई अक्षर मिट गये है। २. नष्ट हो जाना। न रह जाना। ३. बुरी तरह से खराब, चौपट या बरवाद होना। जैसे—इस आपस की लड़ाई में दोनों घर मिट गये। मुहा०—किसी के लिए मर मिटना =बुरी तरह से चौपट या बरबाद होना। जैसे—वह अपने भाई को बचाने के लिए मर मिटा।
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मिटाना  : स० [हिं० मिटना का सक० रूप०] ऐसा काम करना जिससे कुछ या कोई मिटे। (देखें ‘मिटना’)
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मिट्टी  : स्त्री० [सं० मृत्तिका; प्रा० मिट्टीआ] १. प्रायः सभी जगह जमीन के ऊपरी भाग में पाया जानेवाला वह भुरभुरा और मुलायम तत्त्व जिसमें पेड़-पौधे उगते हैं, जिस पर जीव-जंतु चलते हैं और जिससे बहुत प्राचीन काल से तरह-तरह के बरतन आदि बनाये जाते हैं। जैसे—जो मिट्टी से बना है, वह अंत में मिट्टी होकर रहेगा। विशेष—मिट्टी और जल के योग से ही संसार की अधिकतम वस्तुएँ बनती है, इसी आधार पर इससे सम्बद्घ बहुत से पद और मुहावरे बने हैं। पद—मिट्टी का पुतला=(क) मानव-शरीर। (ख) बहुत ही अकर्मण्य और निकम्मा व्यक्ति। मिट्टी की मूरत=मनुष्य का शरीर। मावन-देह। मिट्टी के माधव= निरा मूर्ख और अयोग्य। मिट्टी के मोल=बहुत सस्ता। जैसे—उन्होंने अपना सब सामान मिट्टी के मोल बेच दिया। मुहा०—मिट्टी अजीज होना=मिट्टी खराब होना। बरबाद होना। विशेष— मूलतः ‘मिट्टी अजीज होना’ का अर्थ है—मेरी यह मिट्टी या शरीर को प्रिय हो जाय अर्थात् वह मुझे इस संसार से उठा ले। पर आगे चलकर यह ‘मिट्टी खराब होना’ के अर्थ में चल पड़ा। मुहा०—(कोई चीज) मिट्टी करना= नष्ट करना। चौपट करना। जैसे—उसने बना-बनाया घर मिट्टी कर दिया। मिट्टी छुते ही सोना होना=इतना अधिक भाग्यवान होना कि सामान्य-सी बातों में ही बहुत अधिक लाभ प्राप्त कर सकें। (किसी बात पर) मिट्टी डालना= (क) किसी बात को जाने देना। ध्यान न देते हुए छोड़ देना। (ख) परदा डालना। छिपाना या दबाना। (किसी को) मिट्टी देना=(क) मुसलमानों में किसी के मरने पर उसके प्रति स्नेह या श्रद्धा प्रकट करने के लिए उसकी कब्र में तीन-तीन मुट्ठी मिट्टी डालना। (ख) मृत शरीर को कब्र में गाड़ना। मिट्टी पकड़ना—पौधे, बीज आदि का जमीन में अच्छी तरह जम जाना। मिट्टी में मिलना=(क) नष्ट या बरबाद होना। (ख) मर जाना। मिट्टी होना=(क) चौपट या बरबाद होना। (क) बहुत गंदा या मैला होना। (ग) मर जाना। २. किसी विशिष्ट प्रकार या रूप-रंग का अथवा किसी विशिष्ट स्थान में पाया जानेवाला उक्त पदार्थ। जैसे—पीली मिट्टी बलुआ मिट्टी मुलतानी मिट्टी आदि। पद—चीनी मिट्टी। (देखें) ३. जीव, जंतु या मनुष्य का शरीर जो मूलतः मिट्टी या पृथ्वी नामक तत्त्व का बना हुआ माना जाता है। मुहा०—(किसी की) मिट्टी खराब, पलीद या बरबाद करना=दुर्दशा करना। खराबी करना। ४. स्थायित्व या स्थिरता के विचार से, शरीर की गठन और बनावट जैसे—(क) उसकी मिट्टी अच्छी है, पचास बरस का हो जाने पर भी वह अभी ४. से अधिक का नहीं जान पड़ता। (ख) जिसकी मिट्टी ठस नहीं होती। वह जवानी में ही बुड्ढा लगने लगता है। ५. मृत शरीर। लाश। शव। मुहा०—मिट्टी ठिकाने लगना=शव की उचित अंत्येष्टि क्रिया या संस्कार होना। ६. किसी चीज को जलाकर तैयार की हुई राख। भस्म। जैसे—पारे की मिट्टी। ६. चंदन का तेल या ऐसी ही और कोई चीज जो कोई इत्र बनाने के समय आघार रूप में काम आती है। जमीन। जैसे—अगर मिट्टी अच्छी होती तो यह इत्र बहुत बढ़िया होता।
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मिट्टी  : वि० पुं० =मीठा।
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मिट्टी का तेल  : पुं० [हिं०] एक प्रसिद्ध तरल खनिज पदार्थ जिसका व्यवहार आग, दीया आदि जलाने के लिए होता है।
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मिट्टी का फूल  : पुं० [हिं० मिट्टी +फूल ] रेह।
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मिट्टी खराबी  : स्त्री० [हिं०] १. बरबादी। विनाश। २. दुर्गति। दुर्दशा।
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मिट्टी खरिया  : स्त्री० =खड़िया।
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मिट्ठी  : स्त्री० [हिं० मीठा] चुम्बन। चुम्मा। क्रि० प्र०—देना।—लेना।
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मिट्ठू  : वि० [हिं० मीठा+ऊ (प्रत्य०)] १. मीठी बातें बोलनेवाला। मिष्ट-भाषी। २. प्रायः कम बोलने और चुप रहनेवाला। पुं० तोता। सुग्गा। पुं० = मिट्ठी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिट्ठो  : स्त्री० =मिट्ठी।
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मिठ  : वि० [हिं० मीठा] ‘मीठा’ का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक के आरम्भ में लगाने पर प्राप्त होता है। जैसे—मिठलोना, मिठबोला।
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मिठ-बोलना  : वि० =मिठबोला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिठ-बोला  : वि० [हिं० मीठा+बोलना] १. मीठी बातें करनेवाला मधुरभाषी। २. जो ऊपर से मीठी बातें करता हो परन्तु मन में कपट रखता हो।
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मिठ-लोना  : वि० हि० मीठा=कम+लोन=नमक] [स्त्री० मिठलोनी] (खाद्य पदार्थ) जिसमें नमक बहुत ही कम हो। कम नमकवाला। जैसे—मिठलोनी तरकारी।
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मिठरी  : स्त्री० =मठरी (मिट्ठी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिठाई  : स्त्री० [हिं० मीठा+आई (प्रत्य०] १. मीठे होने की अवस्था या भाव। मिठास। माधुरी। २. कुछ विशिष्ट प्रकार की बनायी हुई खाने की मीठी चीजें। जैसे—(क) पेड़ा, बरफी, लड्डू आदि। (ख) खोए या छेने की मिठाई। ३. कोई अच्छी और प्रिय चीज या बात। जैसे—वहाँ तुम्हारे लिए क्या मिठाई रखी है जो दौड़-दौड़ कर वहीं जाते हो।
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मिठाना  : अ० [हिं० मीठा+आना (प्रत्य०)] मीठा होना। स० मीठा करना।
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मिठास  : स्त्री० [हिं० मीठा+आस (प्रत्य०)] मीठे होने की अवस्था, धर्म या भाव। मीठापन।
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मिठौरी  : स्त्री० [हिं० मीठा +बरी] एक तरह की बरी।
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मिड़ाई  : स्त्री० [हिं० मींड़ना] १. मिड़ने या मींड़ने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. मींड़ने का पारिश्रमिक या मजदूरी। ३. देशी छींटों की छपाई में एक क्रिया जो कपड़े को छापने के उपरांत और धोने से पहले होती है।
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मिड़ाई  : स्त्री० =मिंड़ाई।
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मिडिल  : पुं० [अं०] १. वह विंदु, वस्तु या स्थान जो दो विशिष्ट छोरो के बीच में हो। मध्य। २. आधुनिक शिक्षा-कम में प्रारम्भिक और उच्च शिक्षा के बीच के दरजे। साधारणतया ५ से ८ तक के दरजों का समाहार।
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मिडिलची  : पुं० [हिं० मिडिल+ची (प्रत्य०)] वह जिसने मिडिल परीक्षा तो पास की हो परन्तु उसके आगे न पढ़ा हो। (उपेक्षा और व्यंग्य)
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मिणधर  : पुं० =मणिधर (मणिधारी सर्प)।
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मिंत  : पुं० =मित्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मित  : वि० [सं० √मा+क्त] १. नपा-तुला। २. सीमित। ३. जितना चाहिए उतना ही, उससे अधिक नहीं। ४. कम। थोड़ा। जैसे—मित-भाषी। ५. फेंका हुआ। क्षिप्र।
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मित-भाषिणी  : वि० [सं० मित√भाष् (बोलना)+ णिनि+ङीषम] संगीत में काफी ठाठ की एक रागिनी।
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मित-मति  : वि० पुं० [सं० ब० स०] अल्प-बुद्धि।
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मित-विक्रय  : पुं० [सं० ष० त०] तौल या नाप कर पदार्थ बेचना। (कौ०)
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मित-व्यय  : वि० [ब० स०] [भाव० मितव्ययता] कम खर्च करनेवाला अथवा आवश्यकता से अधिक खर्च न करनेवाला। मितत्ययी। पुं० १. जितना चाहिए उतना ही खर्च करना, अधिक न करना। २. थोड़े खर्च में काम चलाना।
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मितंग  : पुं० = मतंग (हाथी)।
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मितद्रु  : पुं० [सं० मित√द्रु (गति)+कु] समुद्र।
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मितभाषी (षिन्)  : वि० [सं० मित√भाष् +णिनि] [स्त्री० मित-भाषिणी] अपेक्षया कम तथा आवश्यकतानुसार बोलनेवाला। ‘बकवादी’ का विरुद्धार्थक।
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मितव्ययता  : स्त्री० [मितव्यय+तल्+टाप्] मितव्यय होने की अवस्था या भाव। कम-खर्ची।
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मितव्ययी  : वि० [सं० मित मय] कम या थोड़ा खर्च करनेवाला। किफायत करनेवाला।
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मिताई  : स्त्री० [हिं० मीत +आई (प्रत्य०)] मित्रता। दोस्ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिताक्षर  : वि० [सं० मित-अक्षर, ब० स०] संक्षिप्त। लघु।
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मिताक्षरा  : स्त्री० [सं० मिताक्षर+टाप्] याज्ञवल्क्य स्मृति की विज्ञानेश्वर टीका।
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मितार्थ  : पुं० = मितार्थक।
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मितार्थक  : पुं० [सं० मित-अर्थ, ब० स०+कप्] साहित्य में तीन प्रकार के दूतों में से एक प्रकार का दूत। ऐसा दूत जो थोड़ी बातैं करके ही अपना काम निकाल लेता हो।
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मिताशन  : पुं० [सं० मित-अशन, कर्म० स०] १. कम या थोड़ा भोजन करना। २. अल्पाहार।
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मिताशी (शिन्)  : वि० [सं० मति√अश् (खाना)+णिनि] [स्त्री मिताशिनी] अल्प आहार करनेवाला।
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मिताहार  : पुं० [सं० मित-आहार, कर्म, स०] परिमित या थोड़ा भोजन करना। कम खाना। वि० [ब० स०]—मिताहारी
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मिताहारी (रिन्)  : वि० [सं० मिताहार+इनि] थोड़ा और परिमित भोजन करनेवाला। कम खानेवाला।
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मिति  : स्त्री० [सं०√मा (मान)+क्तिन] १. नाप-जोख या उससे निकलनेवाला फल। परिणाम। मान। २. क्षारमिति। (ज्योमिति) ३. सीमा। हद। ४. नियम, मर्यादा आदि का बंधन। उदा०—कोउ न रहत मिति-मानि।—सूर। स्त्री०+मिती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिती  : स्त्री० [सं० मिति] १. चांद्र मास के किसी पक्ष अथवा सौर मास की तिथि या तारीख। मुहा० मिती चढ़ाना=बही-खाते में किसी दिन का हिसाब लिखने से पहले ऊपर मिती लिखना। (महाजन) मिती-पूजना=हुंडी के भुगतान का नियत समय पूरा होना। जैसे—इस हुंडी की मिती पूजे दो दिन हो गये, पर रुपया नहीं आया। २. दिन। दिवस। जैसे—चार मिती का ब्याज अभी आपकी ओर निकलता है। ३. वह तिथि जब तक का ब्याज देना हो। जैसे—इस हुंडी की मिती में अभी चार दिन बाकी हैं। (महाजन) मुहा०—मिती काटना=हिसाब में जितने दिनो का सूद देय या प्राप्त न हो, उतने दिनों का ब्याज काटना या वाद करना।
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मिती काटा  : पुं० [हिं० मिती+काटना] १. हुंडी की मिती पूजने से पहले रुपया चुकाने पर अवधि के शेष दिनों का ब्याज काटने की किया। (महाजन) २. ब्याज या सूद लगाने की वह भारतीय महाजनी प्रणाली जिसमें प्रत्येक रकम का सूद उसकी अलग-अलग मिती से एक साथ जोड़ा जाता है।
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मित्तर  : पुं० [सं० मित्र] १. मित्र। दोस्त। २. लड़कों के खेल में वह लड़का जो सब का अगुआ होता है।
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मित्र  : पुं० [सं०√मि०+क्त्र] [भाव० मित्रता] १. वह प्राणी जिससे अधिक मेल-जोल हो और जो समय-कुसमय पर साथ देता और सहायता करता हो। सुखा। सहद। दोस्त। २. भारतीय आर्यो के एक प्रसिद्ध वैदिक देवता। ३. बारह आदित्यों में से पहला आदित्य। ४. सूर्य। ५. युद्ध मे साथ देनेवाला राष्ट्र।
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मित्र-घात  : पुं० [सं० ष० त०] १. मित्र की हत्या। २. मित्र के साथ किया जानेवाला धोखा।
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मित्र-पंचक  : पुं० [सं० ष० त०] घीं, शहद, घुँघची, सुहागा और गुग्गुल, इन पाँचों का समहार। (वैद्यक)
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मित्र-प्रकृति  : पुं० [सं० ब० स०] विजेता के चारों ओर रहनेवाले मित्र राष्ट या राजा। (कौ०)
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मित्र-भाव  : पुं० [सं० ष० त०] मित्रता का भाव। दोस्ती।
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मित्र-भेद  : पुं० [सं० ष० त०] मित्रता टूटना।
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मित्र-रंजनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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मित्र-विक्षिप्त  : वि० [सं० सं० त०] मित्र राजा के देश में पड़ी हुई (सेना)। (कौ०)
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मित्र-सप्तमी  : स्त्री० [सं० ष० त०] मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी।
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मित्रकृत्  : पुं० [सं० मित्र√कृ (करना)+क्विप्, तुक्] पुराणानुसार बारहवें मनु के एक पुत्र का नाम।
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मित्रघ्न  : वि० [सं० मित्र√हन् (मारना)+टक्-कुत्व] जिसने अपने मित्र को दगा दिया हो। विश्वासघाती।
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मित्रता  : स्त्री० [सं० मित्र+तल्+टाप्] मित्र होने की अवस्था, धर्म या भाव। दोस्ती।
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मित्रत्व  : पुं० [सं० मित्र+त्व] मित्रता। दोस्ती।
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मित्रदेव  : पुं० [सं०] १. बारहवें मनु के एक पुत्र का नाम। २. बारह आदित्यों में से एक।
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मित्रवन  : पुं० [सं०] पंजाब के मुलतान नामक नगर का प्राचीन नाम।
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मित्रवान् (वत्)  : वि० [सं० मित्र+मतुप्, वत्व] [स्त्री० मित्रवती] जिसका कोई मित्र हो। मित्रवाला। पुं० १. मनु के एक पुत्र का नाम। २. श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम।
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मित्रविंद  : पुं० [सं० मित्र √विद् (लाभ करना)+श, नुम्] अग्नि।
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मित्रविंदा  : स्त्री० [सं० मित्रविंद+टाप] श्रीकृष्ण की एक पत्नी। (पुराण)
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मित्रविद्  : पुं० [सं मित्र√विद् (जानना)+क्विप्] गुप्तचर। जासूस।
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मित्रसह  : पुं० [सं० मित्र√सह् (सहना)+ अच्] कल्याषपाद राजा का एक नाम।
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मित्रसेन  : पुं० [सं०] १. बारहवें मनु के एक पुत्र का नाम। २. श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम। ३. एक बुद्ध का नाम।
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मित्रा  : स्त्री० [सं० मित्र+टाप्] १. मित्र नामक वैदिक देवता की स्त्री का नाम। २. शत्रुघ्न की माता, सुमित्रा।
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मित्राई  : स्त्री०=मित्रता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मित्राक्षर  : पुं० [सं० मित्र-अक्षर, ब० स०] वह छंद जिसके दोनों चरणों की तुक मिलती हो।
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मित्रावरुण  : पुं० [सं० द्व० स०, आ-आदेश] मित्र और वरुण नामक वैदिक देवता।
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मित्रिमा  : स्त्री० दे० ‘मापांक’।
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मित्री  : स्त्री० [सं० मित्र+ङीष्] सुमित्रा।
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मिथि  : पुं० [सं० मिथ+इन्] राजा जनक।
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मिथिल  : पुं० [सं०√मिथ्+इलच्, अ—इ नि०] राजा जनक।
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मिथिला  : स्त्री० [सं० मिथिल+टाप्] १. वर्तमान तिरहुत का प्राचीन नाम। राजा जनक इसी प्रदेश के थे। २. उक्त प्रदेश की प्राचीन राजधानी। जनकपुरी।
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मिथु  : वि० [सं०√मिथ्+उण्] मिथ्या। झूठा। अव्य० झूठ-मूठ।
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मिथुन  : पुं० [सं० मिथ्+उनन्] १. स्त्री और पुरुष का युग्म। नर और मादा का जोड़ा। २. सम्भोग। समागम। मैथुन। ३. बारह राशियों में से तीसरी राशि।
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मिथुनचर  : पुं० [सं० मिथुन√चर् (चलना)+ट, अलुक, स०] चक्रवाक। चकवा पक्षी।
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मिथुनत्व  : पुं० [सं० मिथुन+त्व] मिथुन होने की अवस्था धर्म या भाव।
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मिथुनीकरण  : पुं० [सं० मिथुन+च्वि, इत्व, दीर्घ√कृ (करना)+ल्युट-अन] नर-मादा को इकट्ठा करना। जोड़ा खिलाना या मिलाना।
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मिथुनीभाव  : पुं० [सं० मिथुन+च्वि, इत्व, दीर्घ√भू (होना)+अण्] मैथुन। संभोग।
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मिथ्या  : वि० [सं०√मथ् (मंथन करना)+क्यप्, नि० सिद्धि] १. जो अस्तित्व में न हो, पर फिर भी जिसका अज्ञानवश या भ्रमवश बोध होता हो। २. असत्य। झूठा। ३. कृत्रिम। बनावटी। ४. निराधार। जैसे—मिथ्या आग्रह। ५. कपट-पूर्ण। ६. नियम या नीति के विरुद्ध। जैसे—मिथ्या आचरण।
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मिथ्या दृष्टि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] नास्तिकता। पुं० नास्तिक।
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मिथ्या-निरसन  : पुं० [सं० कर्म० स०] शपथपूर्ण सच्ची बात अग्राह्य करना या न मानना।
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मिथ्या-पुरुष  : पुं० [सं० कर्म० स०]=छायापुरुष।
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मिथ्या-मति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. धोखा। २. गलती।
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मिथ्या-योग  : पुं० [सं० कर्म० स०] चरक के अनुसार वह कार्य जो रुप, रस, प्रकृति आदि के विरुद्ध हो। जैसे—मल मूत्र आदि को रोकना।
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मिथ्या-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] झूठ बोलना।
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मिथ्या-वादी (दिन्)  : वि० [सं० मिथ्या√वद् (बोलना)+णिनि, उप० स०] [स्त्री० मिथ्यावादिनी] असत्य-वादी। झूठा।
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मिथ्याचार  : पुं० [सं० मिथ्या-आचार, ब० स०] ऐसा आचरण या व्यवहार जिसमें सत्यता न हो। कपटपूर्ण आचरण। २. उक्त प्रकार का आचरण करनेवाला व्यक्ति।
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मिथ्यात्व  : पुं० [सं० मिथ्या+त्व] १. मिथ्या होने की अवस्था, धर्म या भाव। २. माया।
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मिथ्याध्यवसिति  : स्त्री० [सं० मिथ्या-अध्यवसिति, कर्म० स०] साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें किसी कल्पित या मिथ्या बात को आधार बनाकर कोई और मिथ्या बात कही जाती है।
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मिथ्याहार  : पुं० [सं० मिथ्या-आहार, कर्म० स०] ऐसी चीजें साथ-साथ खाना जिनकी प्रकृति परस्पर भिन्न या विरुद्ध हो। जैसे—मछली या मांस के साथ दूध पीना।
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मिन  : अव्य० [अ०] से। पद—मिन जानिब=ओर से। तरफ से।
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मिन जुम्ला  : अव्य० [अ० मिनजुम्लाः] कुल मिलाकर। सब मिलाकर।
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मिनकी  : स्त्री० [हि० मिनकना] बिल्ली। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मिनजालिक  : पुं० [अ० मिंजल=कुछ रखने की जगह] हिसाब-किताब में, खर्च का विभाग या मद। उदाहरण—साबिक जमा हुती जो जोरी, मिनजालिक तल ल्यायौ।—सूर। विशेष—यह अरबी मिनजुम्ला से भी व्यत्पन्न हो सकता है, और इस दशा में इसका अर्थ संख्याओं का जोड़ का योग होगा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिनट  : पुं० [अं०] काल-गणना में एक घंटे का साठवाँ भाग। साठ सेंकंड का समय।
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मिनड़ी  : स्त्री० मिनकी (बिल्ली)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिनती  : स्त्री० [अनु० मक्खी के शब्द से] मक्खी की बोली के समान कुछ धीमा, नाक से निकला हुआ स्वर। स्त्री०=विनती। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिनना  : स० [सं० मान=परिमाण] आयति, विस्तार आदि जानने के लिए नापना या तौलना। (पश्चिम)। उदाहरण—गजी न मिनी औ, तोलि न तुलीअ, पांचु न सेर अढ़ाई।—कबीर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिनमिन  : अव्य० [अनु०] अस्पष्ट तथा धीमे स्वर में।
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मिनमिना  : वि० [हिं० मिनमिन] १. मिनमिनाने अर्थात् अस्पष्ट स्वर में तथा बहुत धीरे-धीरे बोलनेवाला। २. जरा-सी बात पर कुढ़ने या चिढ़नेवाला। ३. बहुत धीरे-धीरे काम करनेवाला। मट्ठर। सुस्त।
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मिनमिनाना  : अ० [अनु०] १. मिनमिन करना अर्थात् अस्पष्ट तथा धीमे स्वर में बोलना। २. नाक से स्वर निकालते हुए बोलना। नकियाना। ३. अपेक्षया बहुत धीरे-धीरे काम करना।
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मिनहा  : वि० [अ०] [भाव० मिनहाई] कम किया, घटाया या निकाला हुआ।
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मिनहाई  : स्त्री० [अ०] मिनहा करने की क्रिया या भाव। घटाना, कम करना या निकालना।
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मिनारा  : पुं० =मीनार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिनिट  : पुं० =मिनिट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिनिस्टर  : पुं० [अं०] १. मंत्री। सचिव। २. आज-कल राज्य का मंत्री। ३. राजदूत। ४. ईसाई धर्मोपदेशक। पादरी। पद—प्राइम मिनिस्टर=प्रधान मंत्री।
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मिनिस्टरी  : स्त्री० [अं] १. मिनिस्टर का काम, पद या भाव। २. मिनिस्टर का कार्यालय। ३. मिनिस्टर का विभाग। ४. सब मिनिस्टरों का सम्मिलित वर्ग। मंत्रि-मंडल।
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मिन्नत  : स्त्री० [अ० मि० सं० विनति] १. विशेषतः किसी को मनाने के उद्देश्य से बहुत नम्रतापूर्वक किया जानेवाला निवेदन। प्रार्थना। विनती। २. उपकार। एहसान। स्त्री०=मन्नत।
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मिंबर  : पुं० [अं०] मसजिद में वह स्थान जहाँ इमाम बैठकर नमाजियों को नमाज पढ़वाता है। पुं० =मेम्बर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिमियाई  : स्त्री० [हिं० मिमियाना+ई (प्रत्यय)] बकरी। स्त्री०=मोमियाई।
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मिमियाना  : अ० [अनु] १. बकरी या भेंड़ का मे-मे शब्द करना। मनुष्य का बकरी की तरह मे-मे करना। २. बहुत ही दबी जबान से चापलूसी करना।
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मियनी  : पुं० [?] एक प्रकार का बैल जो अच्छा समझा जाता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मियाँ  : पुं० [फा०] १. स्वामी। मालिक २. स्त्री का पति। ३. प्रतिष्ठित और मान्य व्यक्ति। ४. बच्चों के लिए दुलार का सम्बोधन। ५. पढ़ाने या सिखानेवाला व्यक्ति। शिक्षक। ६. मुसलमान। ७. उत्तर भारत के पहाड़ी राजपूतों की एक उपाधि। जैसे—मियाँ रामसिंह।
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मियाँ मिट्ठू  : वि० [हिं० मियाँ+मिट्ठू] मधुर-भाषी। मिठबोला। मुहावरा—अपने मुँह मियाँ मिट्ठू=अपनी प्रशंसा स्वयं करनेवाला। पुं० १. तोता। २. भोला व्यक्ति।
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मियाऊँ  : स्त्री०=म्याऊँ।
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मियाद  : स्त्री०=मीयाद।
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मियान  : पुं० [फा०] मध्य भाग। स्त्री०=म्यान
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मियान-तह  : स्त्री० [फा, मियान=मध्य+हिं० तह] वह कपड़ा जो किसी अच्छे कपड़े की रक्षा के लिए उसके नीचे दिया जाता है। अस्तर। जैसे—रजाई की मियानतह।
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मियान-तही  : स्त्री०=मियानतह।
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मियाना  : वि० [फा० मियानः] न बहुत छोटा, न बहुत बड़ा। मझोले आकार का। पुं० एक प्रकार की डोली या पालकी।
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मियानी  : स्त्री० [हिं० मियान+ई (प्रत्यय)] १. पायजामे में वह कपड़ा जो दोनों पायँचों के बीच में पड़ता है। २. कमरे के ऊपरी भाग में छत के नीचे बनी हुई छोटी कोठरी जो केवल सामान रखने के काम आती है। परछत्ती। (पश्चिम)।
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मियार  : स्त्री० [हिं० मझार] कुएँ पर खम्भों आदि की सहायता से बेड़े बल में लगाया जानेवाला बाँस जिसमें गड़ारी पहनायी जाती है।
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मियाल  : पुं० =मियार।
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मिरग  : पुं० =मृग। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मिरग-चिड़ा  : पुं० [हिं० मिरग+चिड़ा] एक प्रकार का छोटा पक्षी।
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मिरग-छाला  : स्त्री०=मृगछाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिरंगा  : पुं० [फा०] मूँगा।
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मिरगिया  : वि० [हिं० मिरगी+इया (प्रत्यय)] मिरगी रोग से ग्रस्त।
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मिरगी  : स्त्री० [सं० मृगी] एक प्रसिद्ध स्नायविक रोग जिसमें सहसा हाथ-पैर ऐंठने लगते हैं और प्रायः रोगी बेहोश होकर गिर पड़ता है। इसके रोगी को प्रायः दौरा आता रहता है। अपस्मार। (ऐपिलेप्सी) क्रि० प्र०—आना।
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मिरच  : स्त्री०=मिर्च। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिरचन  : स्त्री० [हिं० मिर्च+न (प्रत्यय)] झड़बेरी के फलों का चूर्ण जो नमक-मिर्च मिलाकर चाट के रूप में बेचा जाता है।
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मिरचा  : पुं० [सं० मरिच] लाल या हरी मिर्च जौ फली के रूप में होती है।
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मिरचाई  : स्त्री० [हिं० मिर्च+आई (प्रत्यय)] १. लाल या हरी मिर्च जो फली के रुप में होती है। २. कालादाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिरचिया  : स्त्री० [हिं० मिर्च+ईया (प्रत्यय)] रोहिस घास। वि० मिर्च की तरह का। कडुआ और तीक्ष्ण।
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मिरचिया-कंद  : पुं० [हिं० मिरिच+गंध] रोहिस घास।
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मिरचिया-गंध  : पुं० [हिं० मिर्च+गंद] रूसा घास।
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मिरची  : स्त्री० [हिं० मिर्च] छोटी लाल मिर्च।
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मिरजई  : स्त्री० [फा०मिराज] एक प्रकार की बंददार कुरती। अंगा।
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मिरज़ा  : पुं० [फा०] १. मीर या अमीर का लड़का। २. राजकुमार। ३. मुगलों की एक उपाधि। ४. तैमूर वंश के शाहजादों की उपाधि। वि० कोमल। नाजुक। (व्यक्ति)।
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मिरजा-मिजाज  : वि० [फा० मिरजा+मिज़ाजा] नाजुक दिमाग का।
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मिरजाई  : स्त्री० [फा०] १. मिरजा का पद या भाव। २. नेतृत्व। ३. अभिमान। स्त्री०=मिरजई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिरजान  : पुं० [फा०] [वि० मिरजानी] मूँगा।
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मिरत  : स्त्री०=मृत्यु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिरदंग  : पुं० =मृदंग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिरदंगी  : पुं० [हिं० मिरदंग+ई (प्रत्यय)] मृदंग बजानेवाला। पखावजी। स्त्री० [मिरदंग का स्त्री० अल्पा० रूप] १. छोटा मृदंग। २. मृदंग के आकार की एक प्रकार की आतिशबाजी।
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मिरवना  : स०=मिलाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मिरहामति  : स्त्री० [अ० मरहमत] १. अनुग्रह। कृपा। २. अनुग्रह या कृपा करके दी हुई चीज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिरा  : स्त्री० [सं०] १. मूर्व्वा। २. मदिरा। शराब।
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मिरास  : स्त्री०=मीरास।
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मिरासी  : पुं० =मीरासी।
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मिरिका  : स्त्री० [सं० मिरि+कन्+टाप्] एक तरह की लता।
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मिरिगाखी  : वि० =मृगाक्षी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिरिच  : स्त्री०=मिर्च।
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मिरियास  : स्त्री०=मीरास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिर्ग  : पुं० =मृग।
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मिर्गी  : स्त्री०=मिरगी (रोग)।
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मिर्च  : स्त्री० [सं० मरिचि] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसमें लम्बी फली अथवा गोल दाने के रूप में फल लगते हैं। २. उक्त फली अथवा उसके बीज जो आकार में चिपटे तथा स्वाद में तिक्त होते हैं। विशेष—इस पौधे और इसकी फलियों के अनेक अवांतर भेद हैं, जिनमें लाल मिर्च और काली मिर्च जो प्रसिद्ध भेद हैं। मुहावरा—मिर्चे लगना=किसी की तीखी बातें सुनने पर बहुत बुरा लगना और क्रोध या झुंझलाहट होना। जैसे—मेरी सच बात सुनते ही उन्हें मिर्च लग गई। ३. काली मिर्च या गोल मिर्च जो छोटे दानों के रूप में होती है और जिसका व्यवहार मसाले के रूप में होता है। देखें काली मिर्च। वि० बहुत ही कटु, उग्र या तीक्ष्ण स्वभाववाला। (व्यक्ति)।
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मिर्री  : पुं० =मीर (विजयी)।
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मिल  : स्त्री० [अं०] १. वह बहुत बड़ी मशीन जिसमें बड़े पैमाने पर चीजें बनाई अथवा तैयार की जाती है। जैसे—कपड़े की मिल, चीनी की मिल। २. वह स्थान जहाँ पर उक्त प्रकार की मशीन बैठी हो। ३. लाक्षणिक अर्थ में वह व्यक्ति जो किसी मशीन की तरह लगातार तथा एक-रस काम करता चलता हो।
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मिलक  : स्त्री० [अ० मिल्क०] १. जमीन-जायदाद। भू-सम्पत्ति। २. जागीर।
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मिलकना  : अ० [?] प्रज्वलित होना। जलना। उदाहरण—तब फिरि जरनि भई नख-सिख तें, दिया-बाति जनु मिलकी।—सूर। स०=जलाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिलकियत  : स्त्री०=मिल्कियत।
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मिलकी  : स्त्री० [हिं० मिलक+ई (प्रत्यय)] १. जमींदार। २. धनवान्। अमीर।
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मिलगत  : स्त्री० [हिं० मिलना+गत (प्रत्यय)] बचत या मुनाफे की रकम। आर्थिक प्राप्ति। जैसे—इस सौदे में चार पैसे की मिलगत हो जायगी।
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मिलन  : पुं० [सं०√मिल् (मिलना)+ल्युट-अन] १. मिलने की क्रिया या भाव। २. विशेषतः दो बिछुड़े हुए अथवा लड़ते-झगड़ते तथा परस्पर न बोलने वाले व्यक्तियों का होनेवाला मेल या मिलाप। ३. मिलावट। मिश्रण।
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मिलनसार  : वि० [हिं० मिलन+सार (प्रत्यय)] [भाव० मिलनसारी] जिसकी प्रवृत्ति सबसे मिलते रहने तथा प्यार-मुहब्बत बनाये रखने की हो।
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मिलनसारी  : स्त्री० [हिं० मिलनसार+ई (प्रत्यय)] मिलनसार होने की अवस्था या भाव।
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मिलना  : अ० [सं० मिलन] १. पदार्थों का एक-दूसरे में पड़कर इस प्रकार मिश्रित या सम्मिलित होना कि वे बहुत कुछ एकाकार हो जायँ और सहज में एक-दूसरे से अलग न किये जा सकें। जैसे—(क) दाल में नमक या हल्दी मिलना। (ख) दूध में चीनी या पानी मिलना। २. पदार्थों का आपस में साधारण रूप से एक-दूसरे में इस प्रकार आकर पड़ना कि उनका स्वतंत्र अस्तित्व बना रहे। जैसे—(क) गेहूँ के दानों में चने या जौ के दाने मिलना। (ख) मोतियों में हीरे मिलना। पद—मिला-जुला= (क) आपस में एक-दूसरे के साथ अच्छी तरह मिश्रित या सम्मिलित। (ख) जिसमें कई पदार्थों का मिश्रण या मेल हो। जैसे—मिला-जुला अन्न। ३. किसी रेखा, बिंदु सीमा आदि पर दो या कई चीजों का इस प्रकार आकर पहुँचना या स्थित होना कि वे एक-दूसरी से लग या सट जायँ जैसे—(क) गाँवों या देशों की सीमाएँ मिलना। (ख) चौराहे पर चारों ओर की सड़के मिलना। ४. प्राणियों, व्यक्तियों आदि के संबंध में, किसी प्रकार या रूप में, भेंट, साक्षात्कार या सामना होना। जैसे—(क) जंगल में घूमने के समय शेर मिलना। (ख) रास्ते में किसी परिचित या मित्र का मिलना। ५. किसी पदार्थ का किसी रूप में आगे या सामने आना। जैसे—रास्ते में झरना, नदी या पहाड़ मिलना, जानवर मिलना। ६. व्यक्तियों का इस प्रकार आमने-सामने या पास होना कि आपस में बात-चीत हो सके। जैसे—कल फिर हम लोग यहीं मिलेगें। ७. किसी प्रकार का अभीष्ट अथवा सुखद लाभ या सिद्धि होना। जैसे—(क) दवा से आराम मिलना। (ख) किसी स्थान पर रहने से सुख मिलना। ८. छान-बीन करने या ढूँढ़ने पर किसी चीज, तत्त्व या बात का ज्ञान अथवा परिचय होना। जैसे—(क) अनुसंधान करने पर कोई नयी दवा, द्रव्य या धातु मिलना। (ख) सोचने पर नई तरकीब या रास्ता मिलना। ९. किसी चीज या बात का किसी रूप में प्राप्त या हस्तगत होना। जैसे—(क) कहीं से अनुमति आदेश रुपये या समाचार मिलना। (ख) खोयी हुई अँगूठी या कलम मिलना। (ग) अदालत से सजा मिलना। १॰. व्यक्तियों का किसी अभिप्राय या उद्देश्य की सिद्धि के लिए आपस में समझौता करके गुट या दल बनाना। जैसे—चोरों डाकुओं या राजनीतिक दलों का आपस में मिलना। पद—मिली-भगत (दे० स्वतंत्र पद) ११. अपना दल या पक्ष छोड़कर गुप्त अथवा प्रत्यक्ष रूप से किसी दूसरे दल या पक्ष की ओर होना। जैसे—(क) सदन के सदस्यों का विरोधी दल में मिलना। (ख) घर के नौकर चाकरों का चोरों से मिलना। १२. व्यक्तियों के अंगों का एक-दूसरे के सामने होना या एक-दूसरे से सम्बद्ध अथवा संलग्न होना। जैसे—किसी से आँखें मिलाना। १३. दो या अधिक तत्त्वों या पदार्थों का अवस्था, गुण रूप आदि के विचार से एक-दूसरे के अनुरूप, तुल्य या सामान होना। जैसे—एक-दूसरे की आकृति, मत, विचार या स्वभाव मिलना। पद—मिलता-जुलता=गुण, प्रकृति, रूप आदि के विचार से बहुत कुछ किसी दूसरे के समान अथवा आपस में एक तरह का। जैसे—इसी से मिलता-जुलता कोई और कपड़ा लाओ। १४. दो या अधिक तत्त्वों, पदार्थों आदि का इस प्रकार एक-स्थान या स्थिति में आना, पहुँचना या होना कि उनका पार्थक्य या भेद-भाव दूर हो जाय। जैसे—(क) संगम पर नदियों का मिलना। (ख) सन्ध्या के समय दिन और रात का मिलना। (ग) विरोधी दलों का आपस में मिलना। १५. कुछ विशिष्ट प्रकार के वाद्यों के सम्बन्ध में, ऐसी स्थिति में आना या लाया जाना कि उनमें से ठीक तरह से और एक मेल में स्वर निकल सकें। और साथ के दूसरे बाजों के स्वरों के अनुरूप हो सकें। बाजों का अधिक उतरा या चढ़ा न रहना, बल्कि समस्थिति में आना या होना। जैसे—(क) पखावज या सितार मिलना। (ख) तबले से सारंगी मिलना। स० [?] गौ, भैंस आदि का दूध दूहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिलनी  : स्त्री० [हिं० मिलना+ई (प्रत्यय)] १. विवाह के समय की एक रस्म जिसमें वर और कन्या पक्ष के लोग आपस में गले मिलते हैं और कन्या-पक्ष के लोग वर-पक्ष के लोगों को कुछ धन भेंट करते हैं। २. इस प्रकार कन्या-पक्षवालों द्वारा वर-पक्षवालों को दिया जानेवाला धन। जैसे—उनके यहाँ दो सौ रुपये की मिलनी हुई है। ३. मिलना। मिलन।
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मिलवाई  : स्त्री० [हिं० मिलवाना+ई (प्रत्यय)] मिलवाने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक अथवा पुरस्कार।
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मिलवाना  : स०=मिलाना।
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मिलवाना  : स० [हिं० मिलाना का प्रे० रूप] १. मिलाने का काम दूसरे से कराना। २. आपस में मेल कराना। ३. आपस में परिचय या भेंट कराना। ४. स्त्री और पुरुष का संभोग करना।
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मिलाई  : स्त्री० [हिं० मिलाना+ई (प्रत्यय)] १. मिलाने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। २. जाति से निकाले हुए लोगों का फिर से जाति में मिलाया जाना। ४. आज-कल जेल के अधिकारियों द्वारा कैदियों को उनके मित्रों, सम्बन्धियों आदि से भेंट कराने की क्रिया या भाव। ३. विवाह की मिलनी नामक रस्म।
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मिलान  : पुं० [हिं० मिलाना] १. मिलाने की क्रिया या भाव। २. तुलनात्मक दृष्टि से अथवा ठीक होने की चाँज करने के लिए दो या अधिक चीजों या बातों का आपस में साथ रखकर मिलाया या देखा जाना। जैसे—सब रकमों का मिलान कर लो। ३. गुण, दोष, विभेद, विशेषताएँ समानताएँ आदि जानने के लिए दो चीजों या बातों के सम्बन्ध में किया जानेवाला विचार या विवेचन। तुलना। (बुंदेल०) उदाहरण—भयो महूरत भोर के पौरिहि प्रथम मिलानु।—बिहारी
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मिलान-केन्द्र  : पुं० नगर या जिले का मुख्य दूर-भाष कार्यालय जिससे वहाँ से सभी दूर-भाष यंत्र सम्बद्ध होते हैं और जहाँ स्थानीय लोगों या अन्य नगरवालों से दूर-भाष करने के लिए परस्पर संबंध मिला देने की व्यवस्था की जाती है। (एक्सचेंज)।
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मिलाना  : स० [हिं० मिलना का स० रूप] १. पदार्थों का एक-दूसरे में डालकर या साथ करके इस प्रकार मिश्रित या सम्मिलित करना कि वे बहुत कुछ एक रूप हो जायँ और सहज में एक-दूसरे से अलग न हो सकें। जैसे—तरकारी में मसाला या तेल में रंग मिलाना। २. एक पदार्थ में दूसरा पदार्थ इस प्रकार डालना कि वे एक साथ रहने पर भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रहें। जैसे—कई तरकारियों को एक में मिलाना। ३. किसी रेखा, बिन्दु या विस्तार पर कोई चीज इस प्रकार लाकर पहुँचाना या लाना कि वे आपस में लग या सट जायँ अथवा किसी रूप में एक हो जायँ। जैसे—(क) कोई दीवार बढ़ाकर छत या दूसरी दीवार से मिलाना। (ख) नगर के आस पास की बस्तियों को नगर में मिलाना। ४. प्राणियों, व्यक्तियों आदि को इस प्रकार एक-दूसरे के पास लाना या सामने पहुँचाना कि उनमें किसी प्रकार का सम्बन्ध या संयोग घटित हो। जैसे—(क) भूले हुए बच्चे को उसके माँ-बाप से मिलाना। (ख) अपने किसी मित्र को और मित्रों से मिलाना। ५. किसी को अपने दल, वर्ग या समूह में सम्मिलित करके उसको अंग बनाना। जैसे—(क) जाति से निकाले हुए व्यक्ति को जाति में मिलाना। (ख) विधर्मी को अपने धर्म में मिलाना। ६. विपक्षी या विरोधी को अपने अनुकूल बनाना या पक्ष में लाना। जैसे—किसी के गवाह या नौकर को अपनी तरफ मिलाना। ७. दलों, व्यक्तियों आदि का पारस्परिक वैर-विरोध दूर करके उनमें मित्रता या सद्भाव स्थापित करना। जैसे—दलबंदी दूर करके दलों को आपस में मिलाना। ८. चीजों को आपस में गाँठ लगाकर, जोड़कर या सीकर एक करना। जैसे—चाँदनी बड़ी करने के लिए उसमें और कपड़ा मिलाना। ९. शरीर के कुछ अंगों या उनकी क्रियाओं के सम्बन्ध में किसी प्रकार का सम्पर्क या सहयोग स्थापित करना या कराना। जैसे—किसी से आँखें, मन या हाथ मिलाना। १॰. एक पदार्थ के तल को दूसरे पदार्थ के तल के इतने पास पहुँचाना कि वे आपस में लग या सट जायँ। जैसे—यह अलमारी जरा और आगे बढ़ाकर दीवार से मिला दो। ११. उपयोगिता, गुण, महत्त्व आदि स्थिर करने के लिए एक की दूसरे से तुलना करते हुए विचार करना। जैसे—दोनों कपड़ों को मिलाकर देखो कि दोनों में कौन अच्छा है। १२. इस बात की जाँच करना कि कोई चीज लेख ठीक और शुद्ध है या नहीं। जैसे—(क) आय-व्यय का हिसाब मिलाना अर्थात् उनके ठीक या शुद्ध होने की जाँच करना। १३. पुरुष और स्त्री का मैथुन या सम्भोग के लिए साथ कराना। (बाजारू)। १४. कुछ विशिष्ट प्रकार के संबंध में, उनके अंगों का तनाव या बंधन कसकर अथवा ढीला करके उन्हें ऐसी स्थिति में लाना कि उनसे ठीक स्वर निकल सकें। जैसे—(क) तबला या सांरगी (ख) सांरगी से तबला मिलाना।
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मिलाप  : पुं० [हिं० मिलना+आप (प्रत्यय)] १. मिलने की क्रिया या भाव। २. मिले हुए होने की अवस्था या भाव। ३. दो या अधिक व्यक्तियों का आपस में प्रेमपूर्वक मिलना। स्नेहपूर्ण मिलन। जैसे—राम और भरत का मिलाप। ४. वह स्थिति जिसमें लोग आपस में मिल-जुलकर और स्नेहपूर्वक रहते हों। मेल। पद—मेल-मिलाप। ५. मुलाकात। भेंट। ६. स्त्री और पुरुष का मैथुन या सम्भोग।
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मिलाव  : पुं० [हिं० मिलाना+आव (प्रत्यय)] १. मिलावट। २. मिलाप।
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मिलावट  : स्त्री० [हिं० मिलाना+आवट (प्रत्यय)] १. मिलाये जाने की क्रिया या भाव। २. किसी अच्छी चीज में घटिया चीज के मिले हुए होने की अवस्था या भाव। अप-मिश्रण। घाल-मेल। (एडल्टरेशन)। जैसे—मिलावट का घी, दूध या सोना। ३. इस प्रकार शुद्ध चीज में मिलाया जानेवाला खराब चीज का अंश या मात्रा। खोट।
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मिलावा  : पुं० =मिलाप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिलि-भगत  : स्त्री० [हिं० मिलना+भगत] किसी को तंग या परेशान करने के लिए आपस में मिल-जुलकर चली जानेवाली ऐसी धूर्ततापूर्ण चाल जो ऊपर से देखने पर बहुत कुछ निर्दोष या साधारण जान पड़ें। जैसे—यात्रियों को ठगने के लिए दलालों या पंडों की मिली-भगत।
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मिलिक  : स्त्री० दे० ‘मिलक’।
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मिलिटरी  : वि० [अं०] १. सेना या फौजी सैनिक सम्बन्धी। २. युद्ध या समर सम्बन्धी। सामरिक। स्त्री० पलटन। फौज।
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मिलित  : भू० कृ० [सं०√मिल (मिलना)+क्त] किसी के साथ मिला हुआ।
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मिलिंद  : पुं० [सं०] भ्रमर। भौंरा।
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मिलेठी  : स्त्री=मुलेठी।
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मिलोना  : स० [हिं० मिलाना] १. गौ का दूध दूहना। २. मिश्रित। करना। मिलाना। पुं० एक प्रकार की बढ़िया जमीन जिसमें कुछ बालू भी मिला रहता है।
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मिलौनी  : स्त्री० [हिं० मिलाना+औनी (प्रत्यय)] १. मिलाने की क्रिया या भाव। मिलाई। २. मिलावट। ३. मिलने मिलाने आदि के समय दिया जानेवाला धन। ४. आज-कल विशिष्ट रूप में, जेल के कैदियों को उनके सम्बन्धियों परिचितों आदि से भेंट कराने की क्रिया या भाव।
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मिल्क  : पुं० [अ०] १. जमींदारी। २. माफी। मिली हुई जमीन या जागीर। ३. मध्य युग में जमीन पर होनेवाला एक विशिष्ट प्रकार का स्वामित्व। ४. धन-संपत्ति। ५. अधिकार।
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मिल्कियत  : स्त्री० [अ०] १. मिल्क की अवस्था या भाव। २. किसी चीज के मालिक होने की अवस्था या भाव। स्वामित्व। जैसे—इस जमीन पर हमारी मिल्कियत है। ३. जमींदारी। ४. जागीर। ५. धन-संपत्ति। ६. कोई ऐसी चीज जिस पर किसी का स्वामित्वपूर्ण भोग हो।
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मिल्की  : पुं, ०=मिलकी।
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मिल्लत  : स्त्री० [हिं० मिलन+त (प्रत्यय)] १. मेल-जोल या मेल-मिलाप होने की अवस्था या भाव। २. मिलन-सारी। ३. कोई धार्मिक वर्ग या सम्प्रदाय। जैसे—बड़े नगरों में आपको हर मिल्लत के आदमी मिलेंगे।
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मिशन  : पुं० [अं०] १. उद्देश्य। २. कुछ लोगों का वह दल जो किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि किसी प्रकार के सेवा-कार्य या विशिष्ट महत्त्वपूर्ण विषय की बात-चीत करके कोई नया सम्बन्ध स्थापित करने के लिए दूसरे देश या स्थान में भेजा जाता हो। ३. वह संस्था, विशेषतः ईसाइयों की संस्था जो संघटित रूप से धर्म-प्रचार का प्रयत्न करती हो।
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मिशनरी  : पुं० [अं०] १. वह जो किसी दूसरी जगह या दूसरे देश में केवल लोक-सेवा के भाव से जाता या जाकर रहता हो। २. वे ईसाई पादरी आदि जो किसी मिशन के सदस्य के रूप में अनेक देशों में धर्म का प्रचार करने के लिए जाते हैं। ३. उक्त प्रकार का कोई पादरी।
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मिशी  : स्त्री० [सं० मिश+ङीष्] १. जटामाँसी। २. सोआ नामक साग। ३. सौंफ। ४. मेथी। ५. डाभ।
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मिश्र  : वि० [सं०√मिश्र (मिलाना)+रक्] १. जो अनेक के योग से मिलकर एक हो गया हो। कइयों को मिलाकर एक किया या बनाया हुआ। जैसे—मिश्र धातु। २. मिला हुआ। संयुक्त। ३. जिसने अनेक अंगों, तत्त्वों, प्रक्रियाओं आदि के योग से एक नया और स्वतन्त्र रूप धारण कर लिया हो। जैसे—मिश्र अनुपात, मिश्र गुणन, मिश्र वाक्य आदि। ४. बड़ा और मान्य। श्रेष्ठ। पुं० १. कुछ विशिष्ट वर्गीय ब्राह्मणों (जैसे—कान्यकुब्ज, सरयूपारी, सारस्वत आदि) की एक विशिष्ट शाखा का अल्ल या जाति-नाम। २. साहित्य में इतिवृत्त के मूल के विचार से नाटकों की कथा-वस्तु के तीन भेदों में से एक ऐसी कथा-वस्तु जिससे इतिवृत्त की पीठिका या पृष्ठभूमि जो प्रख्यात या लोक-विदित हो, परन्तु उसके साथ अनेक उत्पाद्य या कल्पित कथाएँ अथवा घटनाएं भी मिला दी गयी हों। (अन्य दो भेद ‘उत्पाद्य’ और ‘प्रख्यात’ कहलाते हैं)। ३. ज्योतिष में सात प्रकार के गणों में से अंतिम या सातवाँ गण जो कृतिका और विशाखा नक्षत्र के योग में होता है। ४. व्याकरण में तीन प्रकार के वाक्यों में से एक, जिसमें मुख्य उपवाक्य तो एक ही होता है, परन्तु आश्रित उपवाक्य एक से अधिक होते हैं। ५. हाथियों की चार जातियों में से एक जाति। ६. सन्निपात रोग। ७. खून। रक्त। ८. मूली। पुं० =मिस्र (देश)।
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मिश्र-धातु  : पुं० [कर्म० स०] वह धातु जो दो या अधिक धातुओं के मिश्रण से बनी हों। (एलाँय) जैसे—पीतल।
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मिश्र-धान्य  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक में मिलाये हुए कई प्रकार के अनाज या धान्य।
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मिश्र-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] मेथी।
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मिश्र-वर्ण  : पुं० [सं० ब० स०] १. काला अगरू। २. गन्ना। वि० दो या दो से अधिक रंगोंवाला।
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मिश्र-वाक्य  : पुं० [सं० कर्म० स०] व्याकरण में तीन प्रकार के वाक्यों में से एक जिसमें एक मुख्य उपवाक्य होता है और दो या दो से अधिक आश्रित उपवाक्य होते हैं।
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मिश्र-शब्द  : पुं० [सं० ब० स०] खच्चर।
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मिश्रक  : वि० [सं० मिश्र+कन्] मिश्रण करने या मिलानेवाला। पुं० १. खारी नमक। २. जस्ता। ३. मूली। ४. नन्दन वन। ५. एक प्राचीन तीर्थ। ६. वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग।
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मिश्रक-स्नेह  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का औषध जो त्रिफला, दशमूल और दंती की जड़ आदि से बनती है। (वैद्यक)
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मिश्रज  : वि० [सं० मिश्र√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. जो किसी प्रकार के मिश्रण से उत्पन्न हुआ हो २. वह जो दो भिन्न-भिन्न जातियों के मिश्रण या मेल से बना हो। वर्ण-संकर। दोगला पुं० खच्चर।
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मिश्रण  : पुं० [सं०√मिश्र+ल्युट-अन] १. दो या अधिक चीजों को आपस में मिलाना। मिश्रित करना। २. उक्त को मिलाने से तैयार होने या बननेवाला पदार्थ या रूप। ३. मिलावट। ४. गणित में संख्याओं का जोड़ लगाने की क्रिया। ५. रसायन विज्ञान में, द्रव, ठोस या गैस रूप में होने वाले किसी पदार्थ को किसी दूसरे द्रव, ठोस या गैस रूप में मिलाना। ६. उक्त के मिलाये जाने पर तैयार होनेवाला पदार्थ विशेषतः तरल पदार्थ। घोल। (सेल्यूशन, उक्त दोनों अर्थों में) ७. वह तरल औषध जो कई औषधियों के मेल से बना हो। (मिक्सचर)।
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मिश्रणीय  : वि० [सं०√मिश्र+अनीयर] जो मिश्रण के योग्य हो, अथवा जिसका मिश्रण होने को हो।
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मिश्रता  : स्त्री० [सं० मिश्र+तल+टाप्] मिश्रण या मिश्रित होने की अवस्था या भाव।
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मिश्रित  : भू० कृ० [सं०√मिश्र+क्त०] १. एक से मिला या मिलाया हुआ। २. मिलावटवाला (पदार्थ)।
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मिश्रिता  : स्त्री० [सं० मिश्रित+टाप्] सात संक्रान्तियों में से एक।
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मिश्री  : स्त्री०=मिसरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिश्रीकरण  : पुं० [सं० मिश्र+च्वि, इत्व, दीर्घ√कृ (करना)+ल्युट-अन] मिलाने की क्रिया या भाव। मिश्रण करना।
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मिश्रोदन  : पुं० [सं० मिश्र-ओदन, कर्म० स०] खिचड़ी।
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मिष  : पुं० [सं०√मिष् स्पर्धा आदि+क] १. कपट। छल। धोखेबाजी। २. बहाना। मिस। ३. ईर्ष्या। डाह। ४. स्पर्द्धा। होड़। ५. देखना। दर्शन। ६. सींचना। सिंचन।
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मिषि  : स्त्री०=मिसि।
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मिषिका  : स्त्री० [सं० मिषि+कन्+टाप्] १. सोआ। २. जटामासी। ३. सौंफ।
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मिषी  : स्त्री०=मिसि।
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मिष्ट  : वि० [√मिष् (सेचन)+क्त] १. मिठास से युक्त। २. स्वादिष्ट। ३. नम। पुं० १. मीठा रस। २. मीठापन। मिठास। ३. मिठाई।
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मिष्ट-निंब  : पुं० [सं० कर्म० स०] मीठी नीम (वृक्ष और उसकी फली)।
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मिष्ट-पाक  : पुं० [सं० ब० स०] मुरब्बा।
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मिष्ट-पाचक  : पुं० [सं० ष० त०] स्वादिष्ट भोजन बनानेवाला। रसोइया।
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मिष्टभाषी (षिन्)  : वि० [सं० मिष्ट√भाष् (बोलना)+णिनि, मिष्टाभाषिन्] मीठे वचन बोलनेवाला। मधुरभाषी।
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मिष्टान्न  : पुं० [सं० मिष्ट-अन्न, कर्म० स०] मीठा अन्न अर्थात् मिठाई।
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मिस  : पुं० [सं० मिष] १. ऐसी स्थिति जिसमें किसी काम, चीज या बात का वास्तविक रूप तो कुछ और हो, पर किसी गूढ़ उद्देश्य से कुछ और ही रूप प्रकट करके दिखाया जाता हो। जैसे—पंडित जी ने उपदेश के मिस से श्रोताओं को उनके बहुत से दोष बताये और उन्हें ठीक मार्ग बताया। विशेष—बहाना से इसमें यह अन्तर है कि इसमें कौशल या निपुणता की मात्रा अधिक होती है, पर इसका प्रायः बुरा फल नहीं होता, और न इसमें अपना दोष छिपाने का ही भाव होता है। २. उक्त स्थिति में या उक्त प्रकार के उद्देश्य से कही जानेवाली बात। उदाहरण—(क) मैं क्या बच्चों का सा मिस कर रहा हूँ।—वृन्दावनलाल। (ख) भाड़ पुकारे पीर बस, मिस समझै सब कोय।—वृंदा ३. दे० ‘बहाना’ या ‘हीला’। अव्य० १. नाते या सम्बन्ध के विचार से। जैसे—फूफी मिस लीजिए, भतीजे मिस दीजिए। (कहा०) २. बहाने से। पुं० [फा०] ताँबा। स्त्री० [अं०] कुमारी कन्या या अविवाहिता स्त्री का वाचक शब्द। जैसे—मिस कल्याणी।
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मिसकना  : अ०दे०‘मिनमिनाना’।
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मिसकीन  : वि० [अ० मिस्कीन] १. दीन-हीन। बेचारा। २. दरिद्र। निर्धन। गरीब। ३. भोला-भाला। सीधा-साधा। ४. विनम्र। ५. त्यागी या विरक्त।
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मिसकीनी  : स्त्री० [हिं० मिसकीन+ई (प्रत्यय)] मिसकीन होने की अवस्था या भाव।
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मिसगर  : पुं० [फा०] [भाव० मिसगरी] १. ताँबे के बरतन आदि बनानेवाला। कारीगर। २. ठठेरा।
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मिसन  : स्त्री० [हिं० मिसना=मिलना] १. वह जमीन जिसकी मिट्टी में बालू मिला हो। २. बलुई मिट्टी।
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मिसना  : अ० [सं० मिश्रण] मिलाया जाना। मिश्रित होना। अ० [हिं० मीसना का अक० रूप] मीसा अर्थात् मींजा या मला जाना। वि० पुं० =मीसना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिसमिल  : स्त्री० [अ० बिस्मिल्लाह] मुसलमानों में विस्मिल्लाह कहकर पशु की हत्या करने की प्रथा। उदाहरण—कतहूँ मिसमिल कतहूं छेव।—कबीर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मिसर  : पुं० १. =मिश्र। २. =मिस्र (देश)।
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मिसरा  : पुं० [अ० मिसरअ] १. उर्दू फारसी आदि की कविता में किसी कविता आदि का आधार भूत पहला चरण। २. चरण। पद। पद—मिसरा तरह। मुहावरा—मिसरा लगाना=किसी एक मिसरे में अपनी ओर से रचना करके दूसरा मिसरा जोड़ना या लगाना।
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मिसरा तरह  : पुं० [अ०+फा०] वह चरण जिसे आधार बनाकर कोई कविता लिखी जाती हो।
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मिसरी  : वि० [मिस्र देश से] मिस्र या मिसर नामक देश का। पुं० मिस्र देश का निवासी। स्त्री० १. मिस्र देश की भाषा। २. विशेष प्रकार से कूँड़े या थाल में जमाई हुई चीनी जो खाने में स्वादिष्ट होती है। (यह मिस्र देश में पहले-पहल बनी थी)। पद—मिसरी की डली=बहुत ही मीठा और स्वादिष्ट पदार्थ। ३. एक प्रकार की शहद की मक्खी।
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मिसरोटी  : स्त्री० [हिं० मिस्सा+रोटी] १. मिस्से आटे अर्थात् दालो आदि के चूर्ण से बनी हुई रोटी। मिस्सा। २. अँगाकड़ी बाटी।
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मिसल  : स्त्री० [अ० मिसिल] सिक्खों के वे अनेक समूह जो अलग-अलग नायकों की आधीनता में स्वतंत्र हो गये हों। २. दे० ‘मिसिल’। वि० =मिस्ल।
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मिसहा  : वि० [हिं० मिस+हा (प्रत्य०)] मिस (दे०) या बहाना करनेवाला।
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मिसाल  : स्त्री० [अ०] १. उपमा। २. उदाहरण। दृष्टांत। ३. कहावत। लोकोक्ति।
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मिसालन  : अव्य० [अ० ०] उदाहरण-स्वरूप। उदाहरणार्थ।
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मिसाली  : वि० [अ०] मिसाल अर्थात् उदाहरण के रूप में होनेवाला या प्रस्तुत किया जानेवाला।
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मिसि  : स्त्री० [सं०√मस् (परिवर्तन करना)+इन्, इत्व] १. जटा माँसी। २. सौंफ। ३. सोआ नामक साग। ४. अजमोदा। ५. उशीर। खस।
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मिसिर  : स्त्री०=मिसरी।
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मिसिल  : स्त्री० [अ० मिस्ल] १. एक साथ रखे हुए अथवा नत्थी किये हुए किसी मुकदमें, विवाद या विषय से संबंध रखनेवाले कागज-पत्र। २. दफ्तरी खाने में, पुस्तक की सिलाई से पहले फरमों का क्रमानुसार लगाया हुआ रूप। क्रि० प्र०—उठाना।—लगाना।
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मिसिली  : वि० [हिं० मिसिल+ई (प्रत्यय)] १. जिसके संबंध में अदालत में कोई मिसिल बन चुकी हो। २. जिसे न्यायालय से सजा मिल चुकी हो। जैसे—मिसली चोर या डाकू।
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मिसी  : स्त्री० [फा०] मिस्सी। (दे०)
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मिस्कला  : पुं० [अ० मिस्कलः] तलवारें चमकाने का एक तरह का लोहे का यंत्र।
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मिस्की  : स्त्री० [?] संगीत में गाने का वह ढंग या प्रकार जिसमें गानेवाला अपने पूरे कंठ-स्वर से या खुलकर नहीं बल्कि बहुत ही कोमल और धीमे कंठस्वर में गाता है। (क्रून)
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मिस्कीन  : वि० =मिसकीन।
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मिस्कीनी  : स्त्री०=मिसकीनी।
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मिस्कोट  : पुं० [अं०मेस=भोज] १. भोजन। २. एक साथ बैठकर खाने-पीनेवालों का समूह। ३. आपस में होनेवाला गुप्त परामर्श।
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मिस्टर  : पुं० [अं०] महाशय। (नाम के पहले प्रयुक्त) जैसे—मिस्टर जिन्ना। इसका संक्षिप्त रूप मि०ही अधिक प्रचलित है।
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मिस्तर  : पुं० [हिं० मिस्तरी] १. इमारत में गज पीटने का पिटना नामक उपकरण। २. दफ्ती का वह टुकड़ा जिस पर सामान्तर पर डोरे लपेट या सी लेते हैं और जिनकी सहायता से कागज पर सीधी लकीरे खीची जाती हैं। पुं० =मेहतर।
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मिस्तरी  : पुं० [अं० मास्टर=उस्ताद] वह चतुर कारीगर जो इमारत, धातु या लकड़ी का काम करता हो अथवा यंत्रों आदि की मरम्मत करता हो।
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मिस्तरीखाना  : पुं० [हिं० मिस्तरी+फा० खाना] वह स्थान जहाँ बढ़ई, लोहार आदि बैठकर काम करते है।
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मिस्ता  : पुं० [देश] १. अनाज दाँने के लिए तैयार की हुई भूमि। २. बंजर जमीन।
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मिस्मिरेजिम  : पुं० =मेस्मरेजिम।
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मिस्र  : पुं० [अं०] अफ्रीका महादेश के उत्तर का एक प्रसिद्ध देश जो किसी समय बहुत अधिक उन्नत तथा सभ्य था। आजकल यह संयुक्त अरब गणराज्य के अन्तर्गत है। पुं० =मिस्र।
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मिस्रा  : पुं० =मिसरा।
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मिस्री  : वि० [फा० मिस्र] मिस्र देश का।
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मिस्ल  : वि० [अ०] समान। तुल्य। जैसे—यह घोड़ा मिस्ल तीर के जाता है। स्त्री० दे० ‘मिसिल’।
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मिस्सा  : पुं० [हिं० मिसना=मिलना या मीसना=मलना] १. मूँग, मोठ आदि का भूसा जो भेड़ों और ऊँटों के लिए अच्छा समझा जाता है। २. कई तरह की दालें एक साथ पीसकर तैयार किया हुआ आटा जिसकी रोटी बनती हैं। पद—मिस्सा कुस्सा=मोटा अन्न।
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मिस्सी  : स्त्री० [फा० मिसी] १. माजूफल, लोहचून तूतिया आदि के योग से तैयार किया जानेवाला एक तरह का मंजन जिससे स्त्रियाँ अपने दाँत और होंठ रँगती हैं। क्रि० प्र०—मलना।—लगाना। मुहावरा—मिस्सी काजल करना=स्त्रियों का बनाव-सिंगार करना। २. मुसलमान वेश्याओं की एक रस्म जिसमें किसी कुमारी वेश्या को पहले-पहल समागम कराने के लिए उसे मिस्सी लगाते हैं। नथिया उतरने या सिर-ढँकाई की रस्म। उदाहरण—हमको आशिक लबों दन्दों का समझकर उसने रुक्का भेजा हैं कि हमारी मिस्सी।—कोई शायर।
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मिह  : वि० [फा०] महान्।
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मिहचना  : स०=मीचना।
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मिहतर  : पुं० =मेहतर।
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मिहदार  : पुं० [फा० मिह=मिहनत+दार (प्रत्यय)] वह मजदूर जिसे नकद मजदूरी दी जाती हो। (रुहेल०)
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मिंहदी  : स्त्री० =मेंहदी।
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मिहनत  : स्त्री०=मेहनत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिहना  : पुं० =मेहना। स०=महना (मथना)।
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मिहमान  : पुं० =मेहमान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिहर  : स्त्री०=मेहर। पुं० =मिहिर।
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मिहरबान  : पुं० =मेहरबान।
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मिहरा  : पुं० १. =मेहरा। २. =महरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिहराब  : स्त्री०=मेहराब।
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मिहरारू  : स्त्री०=मेहरारू (स्त्री)।
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मिहरी  : स्त्री०=मेहरी (स्त्री)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिहाना  : अ० [सं० हिमायन या हिं० मेंह] वर्षा ऋतु में पकवानों का नमी के कारण मुलायम पड़ जाना और फलतः कुरकुरा न रह जाना।
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मिहानी  : स्त्री०=मथानी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिहिका  : स्त्री० [सं०√मिह् (सींचना)+क्वुन्, अक+टाप्, इत्व] १. पाला। हिम। २. ओस। ३. कपूर।
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मिहिचना  : स०=‘मींचना’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मिहिर  : पुं० [सं०√मिह्+किरच्] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. ताँबा। ४. बादल। मेघ। ५. वायु। हवा। ६. चन्द्रमा। ७. राजा। ८. दे० ‘वराह-मिहिर’। वि० बुड्ढा। वृद्ध।
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मिहीं  : वि० =महीन।
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मिही  : स्त्री० [देश] मध्य-प्रदेश में होनेवाला एक प्रकार का अरहर।
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मिहीन  : वि० =महीन।
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मीं  : पुं० =मेंह (वर्षा) (पश्चिम)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मीआद  : स्त्री० [अ०] १. किसी काम या बात के लिए नियत किया हुआ समय। अवधि। २. कैद की सजा की अवधि। क्रि० प्र०—काटना।—भुगतना।
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मीआदी  : वि० [हिं० मीआद+ई (प्रत्यय)] १. जिसके लिए कोई मीआद या समय नियत हो। नियत समय तक रहनेवाला। जैसे—मीआदी बुखार, मीआदी हुंडी। २. जो मीआद अर्थात् कैद की सजा भोग चुका हो।
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मीआदी बुखार  : पुं० [अ० मीआदी+बुखार] सान्निपातिक ज्वर जो प्रायः ७, १४, २१, २८, या ४१ दिनों तक रहता है। (टाइफॉयड)
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मीआदी हुंडी  : स्त्री० [अ० +हिं०] वह हुंडी जिसका भुगतान नियत मिती पूजने पर होता है।
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मींगनी  : स्त्री०=मेंगनी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मींगी  : स्त्री० [सं० मुद्ग=दाल] बीज के अंदर का गूदा।
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मीच  : स्त्री० [सं० भीति] मृत्यु। मौत। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मीचना  : स० [प्रा० मिचण] बंद करना। जैसे—आँखें या मुँह मीचना।
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मीचु  : स्त्री०=मृत्यु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मींजना  : स० [हिं० मींडना] १. मलना। मसलना। जैसे—छाती मींजना, हाथ मींजना। स०=मूँदना।
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मीजना  : स०=मींजना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मीजा  : स्त्री० [अ० मिजाज] १. पारस्परिक व्यवहार में स्वभाव आदि की अनुकूलता। मुहावरा—(किसी से) मीजा पटना या मिलना=स्वभाव मिलने के कारण मेल-जोल होना। २. राय। सम्मति। ३. सहमति। स्वीकृति।
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मीजान  : स्त्री० [अ० मीजान] १. तुला। तराजू। २. तुला राशि। ३. गणित में कई अंकों, संख्याओं आदि का जोड़। योग। स्त्री०=मीजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मींजू  : वि० [हिं० मींजना] बहुत मींज-मींजकर अर्थात् कठिनता से धन निकालनेवाला। कंजूस। कृपण।
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मींट  : स्त्री० [हिं० मीटना=बंद करना] नींद की झपकी। (राज०) उदाहरण—जागिया मींट जनारदन।—प्रिथीराज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मीटना  : अ०=मीचना।
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मीटर  : पुं० [अ०] १. वह यंत्र जिसमें प्रयुक्त होनेवाली वस्तु, शक्ति आदि का मान जाना जाता हो। मापक। जैसे—कल के पानी या बिजली का मीटर। २. वह यंत्र जिससे किसी कार्य, गति आदि का मान या संख्या जानी जाती हो। मापका। जैसे—मोटर गाड़ी का मीटर जिससे पता चलता है कि मोटर कितनी दूर चली। ३. दाशमिक प्रणाली में दूरी या लंबाई नापने की एक आधारिक इकाई जो ३९. ३७ इंच के बराबर होती है।
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मींटिग  : स्त्री० [अं०] १. गोष्ठी, समिति आदि की बैठक। २. सभा, समिति आदि का अधिवेशन।
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मीठा  : वि० [सं० मिष्ट, प्रा० मिटठ] [स्त्री० मीठी] १. चीनी, शहद, आदि की तरह के स्वादवाला। मधुर जैसे—मीठा आम, मीठी नारंगी, मीठा पुलाव। २. अच्छे स्वादवाला। स्वादिष्ट। ३. अनुकूल और प्रिय। जैसे—मीठी नजर, मीठी नींद। उदाहरण—मीठा-मीठा गप, कड़ुआ-कड़ुआ थू। (कहा०) ४. धीमा। मंद। जैसे—मीठी चाल, मीठा ज्वर, मीठा दरद। ५. अल्प। कम। थोड़ा। जैसे—दाल में नमक मीठा ही रहे। ६. मामूली। साधारण। ७. किसी की तुलना में घटकर या हल्का। ८. (व्यक्ति) जिसका स्वभाव कोमल हो और जो प्रिय व्यवहार करता हो। ९. (व्यक्ति) जिसमें पुंसत्व बहुत ही कम हो या बिलकुल न हो। १॰. (व्यक्ति) जो गुंदाभंजन कराता हो। ११. बहुत अधिक सीधा तथा प्रायः सबके साथ सद्व्यवहार करनेवाला। सुशील और सौम्य। जैसे—इतने मीठे न बनो कि लोग चट कर जायँ। १२. (खेत) जिसकी मिट्टी भुरभुरी हो। पुं० १. मिठाई। २. गुड़। ३. हलुआ। ४. किसी प्रकार की प्राप्ति या लाभ की स्थिति। मुहावरा—मीठा होना=अपने पक्ष में कुछ भलाई होना। जैसे—हमें ऐसा क्या मीठा है जो हम उनके घर जायँ। ५. एक प्रकार का कपड़ा जो प्रायः मुसलमान पहनते थे। शीरीबाफ। ६. दे० ‘मीठा नींबू’। ७. दे० ‘मीठा तेलिया’।
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मीठा आलू  : पुं० [हिं० मीठा+आलू] शकरकंद।
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मीठा इंद्रजौ  : पुं० [हिं० मीठा+इंद्रजौ] काला कुटज।
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मीठा-अमृतफल  : पुं० [हिं० मीठा+अमृतफल] मीठा चकोतरा।
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मीठा-कद्दू  : पुं० [हिं० मीठा+कद्दू] कुम्हड़ा।
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मीठा-गोखरू  : पुं० [हिं० मीठा+गोखरू] छोटा गोखरू।
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मीठा-जहर  : पुं० [हिं० मीठा+अ० जहर] वत्सनाभ। बछनाग विष।
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मीठा-जीरा  : पुं० [हिं० मीठा+जीरा] १. काला जीरा। २. सौंफ।
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मीठा-ठग  : पुं० [हिं० मीठा+ठग] ऐसा ठग या धूर्त जो मीठी-मीठी बातें करके अपना दुष्ट उद्देश्य सिद्ध करता हो।
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मीठा-तेल  : पुं० [हिं० मीठा+तेल] १. तिल का तेल। २. खसखस का तेल।
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मीठा-तेलिया  : पुं० [हिं० मीठा+तेलिया] वत्सनाभ। बछनाग।
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मीठा-नींबू  : पुं० [हिं० मीठा+नींबू] चकोतरा।
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मीठा-नीम  : पुं० [हिं० मीठा+नीम] नीम की तरह का एक छोटा वृक्ष।
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मीठा-पानी  : पुं० [हिं० मीठा+पानी] शरबत।
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मीठा-पोइया  : पुं० [हिं० मीठा+पोइया] घोड़े की मध्यम चाल।
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मीठा-प्रमेह  : पुं० [हिं० मीठा+सं० प्रमेह] मधुमेह।
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मीठा-बरस  : पुं० दे० ‘मीठा साल’।
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मीठा-भात  : पुं० =मीठे चावल।
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मीठा-विष  : पुं० [हिं० मीठा+सं० विष] वत्सनाभ।
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मीठा-साल  : पुं० [हिं०] स्त्रियों के वय का अठारहवाँ और कुछ लोगों के मत से तेरहवाँ साल जो उनके लिए कष्टदायक और संकटात्मक समझा जाता है। मीठा बरस।
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मीठी-खरखोड़ी  : स्त्री० [हिं० मीठी+खरखोड़ी] पीली जीवंती। स्वर्ण। जीवंती।
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मीठी-छुरी  : स्त्री० [हिं० मीठी+छुरी] ऐसा व्यक्ति जो मीठी बातें करके या मित्र बनकर अन्दर ही अन्दर हानि पहुँचाने का प्रयत्न करता हो। कपटी या कुटिल परन्तु ऊपर से अच्छा व्यवहार करनेवाला आदमी।
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मीठी-तूँबी  : स्त्री० [हिं० मीठी+तूंबी] कद्दू।
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मीठी-दियार  : स्त्री० [हिं० मीठा+दियार] महापीलू वृक्ष।
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मीठी-मार  : स्त्री०[हिं० मीठी+मार] ऐसी मार जिससे अन्दर तो चोट लगे या पीड़ा हो, पर ऊपर से जिसका कोई चिन्ह दिखायी न दें।
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मीठी-लकड़ी  : स्त्री० [हिं० मीठी+लकड़ी] मुलेठी।
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मीठे-चावल  : पुं० [हिं० मीठा+चावल] वह भात जिसे पकाते समय चीनी या गुड़ भी मिला दिया गया हो।
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मींड़  : स्त्री० [सं० मीडम्] १. मींड़ने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. संगीत में एक स्वर से दूसरे स्वर पर जाते समय मध्य का अंश ऐसी सुन्दरता से कहना कि दोनों स्वरों के बीच का सम्बन्ध स्पष्ट हो जाय।
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मींडक  : पुं० =मेंढ़क। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मींड़ना  : स० [हिं० माँड़ना] १. मलना। मसलना। २. गूँधना। जैसे—आटा मींड़ना।
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मीड़ना  : स०=मींजना।
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मींड़ना-सींगी  : स्त्री०=मेढ़ासींगी।
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मीढ़  : वि० [सं०√मिह् (सींचना)+क्त] १. पेशाब किया हुआ। मूता हुआ। २. पेशाब या मूत्र के समान।
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मीत  : पुं० [सं० मित्र] मित्र। दोस्त। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मीतता  : स्त्री०=मित्रता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मीता  : पुं० [सं० मित्र] १. परम प्रिय मित्र। २. मित्र के लिए सम्बोधन। ३. दे० ‘नाम-रासी’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मीन  : पुं० [सं०√मीं (हिंसा)+नक्, नि०] १. मछली। २. बारह राशियों में से एक राशि जिसमें पूर्वा भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद्र तथा रेवती नक्षत्र हैं।
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मीन-केतन  : पुं० [सं० ब० स०] कामदेव।
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मीन-केतु  : पुं० [सं० ब० स०] कामदेव।
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मीन-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह क्षेत्र जिसमें मुख्य रूप से मछलियाँ रखकर उनका पालन और संवर्धन किया जाता है।
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मीन-गंधा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] सत्यवती का एक नाम। सत्यवती।
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मीन-ध्वज  : पुं० [सं० ब० स०] कामदेव।
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मीन-नाथ  : पुं० [सं० ब० स०] योगी मत्स्येन्द्र नाथ का एक नाम।
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मीन-नेत्रा  : स्त्री० [सं० ब० स०] गाड़र दूब।
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मीन-मेख  : पुं० [सं० मीन-मेष] सोच-विचार। आगा-पीछा। असमंजस। मुहावरा—मीन-मेख करना या निकालना= (क) बाधक होने के लिए इधर-उधर के तर्क करना। (ख) व्यर्थ की आलोचना करते हुए आपत्ति खड़ी करना।
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मीनघाती (तिन्)  : पुं० [सं० मीन√हन् (मारना)+णिनि, ह—घ, न—त] बगुला। वि० मछली मारनेवाला।
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मीनर  : पुं० [सं० मीन+र] सहोरा (वृक्ष)।
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मीनरंक  : पुं० [सं० मीनरंग, पृषो०सिद्धि] १. जलकौआ। २. मछरंग (पक्षी)।
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मीनरंग  : पुं० =मीन-रंक।
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मीना  : स्त्री० [सं० मीन+टाप्] ऊषा की कन्या जिसका विवाह कश्यप से हुआ था। पुं० [देश] राजपूताने की एक प्रसिद्ध योद्धा जाति। पुं० [फा०] १. रंग-बिरंगा शीशा। २. शीशे का एक विशिष्ट प्रकार का पात्र जो सुराही की तरह का होता था और जिसमें शराब रखी जाती थी। ३. नीले रंग का एक प्रकार का बहुमूल्य पत्थर। ४. सोने-चाँदी आदि पर किया जानेवाला एक प्रकार का रंग-बिरंगा काम जो कड़ा तथा चमकीला होता है। पद—मीराकार, मीनाकारी। ५. कीमिया।
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मीना-बाजार  : पुं० [फा०] १. वह बाजार जिसमें केवल स्त्रियाँ क्रय-विक्रय करती थीं। (अकबर द्वारा प्रचलित)। २. सुन्दर चीजों का बाजार। ३. जौहरी बाजार।
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मीनाकार  : पुं० [फा०] [भाव० मीनाकारी] सोने-चाँदी पर मीने का रंग-बिंरगा काम करनेवाला कागीगर।
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मीनाकारी  : स्त्री० [फा०] १. सोने या चाँदी पर होनेवाला मीने का रंगीन काम। २. इस प्रकार किया हुआ काम। मीना। ३. किसी काम में निकाली या की हुई बहुत बड़ी बारीकी।
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मीनाक्ष  : वि० [सं० मीन-अक्षि, ब० स०+षच्] [स्त्री० मीनाक्षी] जिसकी आँखें मछली की तरह लम्बोतरी तथा सुन्दर हों।
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मीनाक्षी  : स्त्री० [सं० मीनाक्ष+ङीष्] १. कुबेर की कन्या का नाम। २. गाडर दूब। ३. ब्राह्मी बूटी। ४. चीनी। वि० स्त्री० जिसकी आँखें मछली के आकार की और बहुत सुन्दर हों।
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मीनांडी  : स्त्री० [सं० मीन-अंड, ष० त०,+ङीष्] एक प्रकार की शक्कर।
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मीनार  : स्त्री० [अ० मनार] बहुत ऊँची वास्तु-रचना जो स्तम्भ के रूप में होती है। लाट।
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मीनारा  : पुं० =मीनार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मीनालय  : पुं० [सं० मीन-आलय, ष० त०] समुद्र।
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मीनाशय  : पुं० [सं० मीन-आशय, ष० त०] मीन-क्षेत्र।
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मीमांसक  : वि० [सं०√मान् (विचार)+सन्, द्वित्वादि, इत्व, दीर्घ, +ण्वुल्—अक] मीमांसा करनेवाला। पुं० [मीमांसा+वुन्-अक] १. पूर्व मीमांसा के सूत्रकार जैमिन ऋषि। २. मीमांसा शास्त्र का ज्ञाता या पंडित। ३. कुमारिल भट्ट। ४. शबर स्वामी। ५. रामानुज। ६. माधवाचार्य।
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मीमांसन  : पुं० [सं० मीमांस+ल्युट-अन] [भू० कृ० मीमांसित] मीमांसा करने की क्रिया या भाव।
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मीमांसा  : स्त्री० [सं०] १. वह गम्भीर मनन और विचार जो किसी विषय के मूल तत्त्व या तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए किया जाता है। किसी बात या विषय का ऐसा विवेचन जिसके द्वारा कोई निर्णय किया या परिणाम निकाला जाता हो। २. छः प्रसिद्ध भारतीय दर्शनों में से एक दर्शन जो मूलतः पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा नामक दो भागों में विभक्त था। विशेष—पूर्व मीमांसा के कर्ता जैमिनि और उत्तर मीमांसा के कर्त्ता बादरायण कहे जाते हैं। दोनों के विवेच्य विषय एक-दूसरे से बहुत भिन्न है। पूर्व मीमांसा में मुख्यतः वैदिक कर्मकांड का विवेचन है, इसीलिए इसे कर्म मीमांसा भी कहते हैं। इसमें वेदों के यज्ञपरक संदिग्ध स्थलों का विचार करके उनका स्पष्टीकरण किया गया है इसमें आत्मा, जगत्, ब्रह्म आदि का विवेचन नहीं है, और वेदों तथा उसके मंत्रों को ही नित्य तथा सर्वस्य माना है, इसीलिए इसकी गणना अनीश्वरवादी दर्शनों में होती है। इसी लिए इसे कर्म-मीमांसा भी कहते हैं। इसके विपरीत उत्तर मीमांसा में ब्रह्म अथवा विश्वात्मा का विवेचन है, और इसीलिए यह वेदांत दर्शन कहलाता तथा ‘पूर्व मीमांसा’ से भिन्न तथा स्वतंत्र दर्शन माना जाता है। आजकल ‘मीमांसा’ शब्द से पूर्व मीमांसा ही अभिप्रेत होता है।
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मीमांसित  : भू० कृ० [सं०√मीमांसा+क्त] जिसकी मीमांसा की गयी हो या हुई हो।
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मीमांस्य  : वि० [सं०√मीमांस+यत्] जिसकी मीमांसा करना आवश्यक या उचित हो।
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मीमांस्य  : स्त्री०=मीआद।
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मीयाद  : वि० =मीयादी।
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मीर  : पुं० [सं०√मी (फेंकना)+रन्] १. समुद्र। २. पहाड़। पर्वत। ३. सीमा। हद। ४. जल। पानी। पुं० [फा० अमीर का लघु रूप] १. नेता० सरदार। २. किसी वर्ग का प्रधान या मुख्य व्यक्ति। ३. इस्लाम धर्म का आचार्य। ४. सैयदों की उपाधि। ५. विजेता। ६. बादशाह (ताश का) ७. उर्दू के एक प्रसिद्ध कवि।
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मीर अर्ज  : पुं० [फा० मार+अ० अर्ज] मध्ययुग में वह कर्मचारी जो लोगों की अर्जिया बादशाह तक पहुँचाता था।
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मीर आतिश  : पुं० [फा०] मुगल शासन में तोपखाने का प्रधान अधिकारी।
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मीर-तुजक  : पुं० [फा० मीर+तु० तुजुक] सेनापति।
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मीर-दहाँ  : पुं० [अ+फा०] पुराने-राज-दरबारों का वह चोबदार जो राजाओं, बादशाहों अथवा उनके सम्बन्धियों आदि के आने से पहले दरबारियों को इसीलिए पुकार कर सूचना देता था कि वे आदर-सत्कार करने या उठ खड़े होने के लिए तैयार हो जायँ।
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मीर-फर्श  : पुं० [फा०] १. वे पत्थर जो बड़े-बड़े फर्शों या बिछाई हुई चाँदनियों आदि के चारों कोनों पर इसलिए रखे जाते हैं कि हवा से वे उड़ने न पावें। २. ऐसा निकम्मा और सुस्त व्यक्ति जो एक जगह चुपचाप बैठा रहे। कुछ काम धन्धा न करे। (व्यंग्य)।
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मीर-बख्शी  : पुं० [फा०] मुस्लिम शासन-काल में वेतन बाँटनेवाला कर्मचारी।
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मीर-बहर  : पुं० [अ० मीर बह्र] जलसेना का प्रधान। नौ-सेनापति।
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मीर-बार  : पुं० [फा०] मुसलमानी शासनकाल में वह अधिकारी जो किसी को बादशाह के सामने उपस्थित होने की आज्ञा देता था।
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मीर-भुचड़ी  : पुं० [फा० मीर+हिं० भुचड़ी] एक कल्पित पीर जिसे हिजड़े पूजते तथा अपना गुरु मानते हैं। इसे पीर-भुचड़ी भी कहते हैं।
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मीर-मजलिस  : पुं० [अ] मजलिस या सभा का प्रधान। सभापति।
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मीर-मंजिल  : पुं० [फा० मीर+मंजिल] वह कर्मचारी जो सेना के पहुंचने से पहले पड़ाव पर पहुँचकर ठहरने आदि की सब प्रकार की व्यवस्था करता था।
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मीर-महल्ला  : पुं० [फा० मीर+अ० महल्ला] मुहल्ले का मुखिया।
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मीर-मुंशी  : पुं० [फा० मीर+अ० मुंशी] कार्यालय के मुशियों के वर्ग का प्रधान।
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मीर-शिकार  : पुं० [अ०] वह प्रधान कर्मचारी जो अमीरों या बादशाहों के शिकार की व्यवस्था करता था।
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मीर-सामान  : पुं० [अ० मीर+फा०सामाँ] खानसामाँ।
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मीरजा  : पुं० [फा०] [स्त्री० मीरजादी] १. किसी मीर (अमीर या सरदार) का लड़का। २. मुगल बादशाहों की एक उपाधि। ३. सैयद मुसलमान की एक उपाधि। ४. दे० ‘मिरजई’ (कुरती)।
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मीरजाई  : स्त्री० [फा०] १. मीरजा होने की अवस्था या भाव। २. मीरजा की उपाधि या पद। ३. अमीरों या शाहजादों का सा ऊँचा दिमाग, रहन-सहन और स्वभाव। ५. अभिमान। घमंड। ६. दे० ‘मिरजई’ (कुरती)।
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मीरदा  : पुं० [?] १. दक्षिण भारत में रहनेवाले गड़ेरियों की एक जाति। २. उक्त जाति का व्यक्ति।
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मीरास  : स्त्री० [अ०] १. बाप-दादा से मिली हुई सम्पत्ति। बपौती। २. वंश-परंपरा के गुजारे के लिए किसी को दी जानेवाली जमीन।
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मीरासी  : पुं० [अ० मीरास] [स्त्री० मीरासिन] एक प्रकार के मुसलमान भाँड़ जो प्रायः पंजाब में रहते हैं। इनकी स्त्रियाँ गाने-नाचने का पेशा करती हैं।
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मीरी  : स्त्री० [अ०] १. अमीर होने की अवस्था या भाव। २. मीर अर्थात् प्रतियोगिता में विजेता होने की अवस्था या भाव। पुं० खेल या प्रतियोगिता में मीर होनेवाला व्यक्ति। मीर।
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मील  : पुं० [अ] १७६0 गज या आठ फर्लाग की दूरी।
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मील-पत्थर  : पुं० [हिं०] १. सड़कों के किनारे लगे हुए वे पत्थर जो विशिष्ट स्थान से उस स्थान तक की दूरी मीलों में बतलाते हैं। २. किसी घटना, जाति, राष्ट्र आदि के इतिहास में वह बिंदु या स्थिति जहाँ कोई नई और विशिष्ट बात हुई हो। (माइल स्टोन)।
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मीलन  : पुं० [सं०√मील् (बंद करना)+ल्युट—अन] [वि० मीलनीय, भू० कृ० मीलित] १. बंद करना। मूंदना। जैसे—नेत्रमीलन। २. संकुचित करना। सिकोड़ना।
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मीलित  : भू० कृ० [सं०√मील्+क्त] १. बंद किया हुआ। २. सिकोड़ा हुआ। पुं० साहित्य में एक अलंकार जो उस समय माना जाता है जब सादृश्य में भेद नहीं गोचर होता।
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मीवर  : वि० [सं०√मी+ष्वरच्] १. पूज्य या मान्य। २. हिंसक। ३. हानिकारक। पुं० सेनापति।
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मीवा  : पुं० [सं० मी+वन्, मीवान्] १. पेट में होनेवाला एक प्रकार का कीड़ा। २. वायु। हवा। ३. तत्त्व या सार भाग।
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मीसना  : स० [सं० मिश्रण] १. मिश्रण करना। मिलाना। २. धीरे-धीरे दबाना या मसलना। जैसे—हाथ से फूल मीसना। ३. बहुत धीरे-धीरे या सुस्ती से काम करना। ४. क्रोधी, दुःख आदि की कोई बात मन ही मन दबाकर रखना और प्रकट न होने देना। वि० पुं० [स्त्री० मीसीन] १. जो क्रोध दुःख आदि की बात मन ही मन दबाकर रखे जल्दी प्रकट न होने दे। २. बहुत धीरे-धीरे या मन्द गति से काम करनेवाला। मट्ठर। सुस्त।
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मुअज्जन  : पुं० [अ०] वह जो नमाज का समय सूचित करने के लिए मसजिद में अजान देता है।
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मुअज्जम  : वि० [अ०] परम माननीय या प्रतिष्ठित बहुत बड़ा (व्यक्ति)।
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मुअज्जिज  : वि० [अ० मुअज्जुज] इज्जतदार। प्रतिष्ठित।
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मुअत्तल  : वि० [अ०] [भाव० मुअत्तली] १. खाली। २. जो किसी प्रकार का दोष करने पर विचारार्थ अपने काम या पद से कुछ समय के लिए अलग कर दिया गया हो।
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मुअत्तली  : स्त्री० [अ०]=निलंबन (देखें)।
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मुअन्नस  : पुं० [अ०] स्त्रीलिंग। मादा।
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मुअम्मा  : पुं० [अ० मुअम्मः] १. भेद या रहस्य की बात। क्रि० प्र०—खुलना। २. पहेली। बुझौअल। ३. घुमाव-फिराव या हेर-फेर की बात।
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मुअल्लक  : वि० [अ० मुअल्लक] १. अधर में लटकता हुआ। २. बीच में रुका हुआ (काम)।
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मुअल्लिम  : पुं० [अ०] १. इल्म सिखानेवाला। शिक्षक। २. अध्यापक।
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मुआफ़  : वि० =माफ।
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मुआफ़क़त  : स्त्री० [अ०] १. मुआफिक या अनुकूल होने की अवस्था, या भाव। अनुकूलता। २. अनुकूलता के कारण होने वाला संग या साथ। जैसे—मेल-मुआफकत। ३. अनुरूपता।
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मुआफिक  : वि० [अ० मुआफिक] १. अनुकूल। २. तुल्य। समान। ३. जितना या जैसा होना चाहिए, उतना या वैसा। ठीक। ४. इच्छानुसार। मनोनुकूल।
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मुआफ़िक़त  : स्त्री०=मुआफकत।
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मुआफ़ी  : स्त्री०=माफ़ी।
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मुआमला  : पुं० =मामला।
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मुआयना  : पुं० [अ० मुआयनः] निरीक्षण।
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मुआलिज  : पुं० [अ०] इलाज करनेवाला। चिकित्सक।
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मुआवजा  : पुं० [अ० मुआवजाः] १. बदला। २. किसी प्रकार की क्षति की पूर्ति करने के लिए उसके बदले में दिया जानेवाला धन। २. वह रकम जो जमीन के मालिक को उस जमीन के बदले में मिलती है, जो कानून की सहायता से सार्वजनिक काम के लिए ले ली जाती है।
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मुआहिदा  : पुं० [अ० मुआहिदः] आपस में होनेवाला दृढ़ निश्चय। पक्का करार।
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मुकटा  : पुं० [देश] प्रायः पूजन आदि के समय पहनी जानेवाली एक प्रकार की रेशमी धोती (पूरब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकतई  : स्त्री०=मुक्ति। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकता  : वि० [हिं० मुकना] [स्त्री० मुकती] जो जल्दी समाप्त न हों बहुत अधिक। यथेष्ट। पुं० =मुक्ता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकतालि  : स्त्री० [सं० मुक्तावली] मोतियों की लड़ी। मुक्तावली।
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मुकति  : स्त्री०=मुक्ति। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकत्तर  : वि० [अ०] भभके से खींचा या चुआया हुआ।
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मुक़त्ता  : वि० [अ० मुक़त्ता] १. कतरा या काटा हुआ। २. ठीक तरह से काट-छाँटकर बनाया हुआ। जैसे—मुकत्ता दाढ़ी। ३. जिसमें किसी प्रकार की कुरूपता या भद्दापन न हो। जैसे—मुकत्ता सूरत।
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मुकदमा  : पुं० [अ० मुक़द्दमः] १. कोई बात या विषय अथवा विवरण विस्तारपूर्वक किसी के सामने उपस्थित करना। २. ग्रंथ आदि का प्राक्कथन या भूमिका। ३. वह विवादास्पद विषय जो न्यायालय के सामने विचार और निर्णय के लिए उपस्थित किया जाय। अभियोग। दावा। नालिश। विशेष—मुकदमे दीवानी, अर्थात् लेन-देन या व्यवहार के संबंध में भी होते हैं, और फौजदारी अर्थात् दंड-विधान के अनुसार किसी को दंडित करने के लिए भी। वादी और प्रतिवादी को आरंभ से अंत तक जितनी अदालती कारवाइयाँ करनी पड़ती है, उन सबका अंतर्भाव मुकदमे में ही होता है। पद—मुकदमेबाज, मुकदमेबाजी। क्रि० प्र०—खड़ा करना।—चलना।—दायर करना। मुहावरा—मुकदमा लड़ना=मुकदमा होने की दशा में अपने पक्ष के समर्थन के लिए आवश्यक और उचित कारवाइयाँ करना।
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मुकदमेबाज  : पुं० [अ० मुक़दमा+फा० बाज (प्रत्यय)] [भाव० मुकदमेबाजी] १. वह जिसने बहुत से मुकदमे लड़े हों। २. जो मुकदमे लड़ता रहता हो। जिसे मुकदमे लड़ने का शौक हो।
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मुकदमेबाजी  : स्त्री० [अ० मुकदमा+फा० बाजी] मुकदमे लड़ने की क्रिया या भाव।
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मुकद्दम  : वि० [अ०] १. प्राचीन। पुरानी। २. सबसे अच्छा या बढ़कर। ३. प्रधान। मुख्य। ४. आवश्यक। जरूरी। पुं० १. गाँव का मुखिया। २. पशु की रान का ऊपरी भाग जो कूल्हें से जुड़ा होता है। (कसाई)
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मुकद्दमा  : पुं० =मुकदमा।
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मुकद्दर  : वि० [अ०] १. गँदला। मैला। २. चिन्तित और दुखी। परेशान। ३. अप्रसन्न। नाराज। रुष्ट। पुं० [अ० मुकद्दर] भाग्य। प्रारब्ध।
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मुकद्दस  : वि० [अ०] परम पवित्र और पूज्य। पद—मुकद्दस किताब=धर्म-ग्रंथ।
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मुकना  : अ० [सं० मुक्त०] १. मुक्त होना। २. खतम या समाप्त होना। पुं० =मकुना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकम्मल  : वि० [अ०] १. पूरा किया हुआ। (काम)। २. संपूर्ण। ३. सर्वांगपूर्ण।
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मुकर  : पुं० =मुकुर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकरना  : अ० [सं० मा=नहीं+करना] कोई काम कर चुकने या बात कह चुकने पर बाद में यह कहना कि हमने ऐसा नहीं किया अथवा नहीं किया था। कहे या किये हुए से इन्कार करना। जैसे—कहकर मुकर जाना तो उसके लिए मामूली बात है। उदाहरण—नियत पड़ी तब भेंट मनाई। मुकर गये जब देनी आई। (कहा०)। संयो० क्रि०—जाना।—पड़ना। वि० कुछ करके अथवा कहकर मुकर जानेवाला। मुकरा। जैसे—ऐसे मुकरने आदमी से हम बात नहीं करते। अ० [सं० मुक्त०] मुक्त होना। छूटना।
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मुकरवा  : वि० दे० ‘मुकरा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकरा  : वि० [हिं० मुकरना] वह जो कोई बात कहकर उससे मुकर जाता हो। अपनी बात पर दृढ़ न रहनेवाला। उदाहरण—लोभी, लौंद, मुकरवा (मुकरा) भगरू बड़ी पढौलो लूटा।—सूर।
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मुकरानी  : स्त्री० [हिं० मुकरना] मुकरी या कह-मुकरी नामक कविता। दे० ‘मुकरी’।
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मुकरावन  : वि० [हिं० मुकराना=मुक्त कराना] १. मुक्त कराने या छुड़ानेवाला। २. मुक्ति या मोक्ष दिलानेवाला।
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मुकरी  : स्त्री० [हिं० मुकरना] १. मुकरने की क्रिया या भाव। २. एक प्रकार की लोक-प्रचलित कविता जिसका रूप बहुत कुछ पहेली का सा होता है, और जिसमें पहले तो कोई वास्तविक बात श्लिष्ट रूप में कही जाती है, पर बाद में उस कही हुई बात से मुकरकर उसकी जगह कोई दूसरी उपयुक्त बात बनाकर कह दी जाती है। जिससे सुननेवाला कुछ का कुछ समझने लगता है। हिंदी में अमीर खुसरो की मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं। इसी को ‘कह-मुकरी’ भी कहते हैं साहित्यिक दृष्टि से मुकरियों का विषय छेकापह्रुति अलंकार के अंतर्गत आता है। उदाहरण—सगरि रैन वह मो संग जागा। भोर भई तब बिछुरन लागा। वाके बिछरत फाटे हिया। क्यों सखि साजन ना सखि दिया।—खुसरो।
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मुकर्रम  : वि० [अ०] १. प्रतिष्ठित। २. पूज्य।
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मुकर्रर  : अव्य० [अ०] दोबारा। फिर से। वि० [अ० मुक़र्रर] [भाव० मुकर्ररी] १. जिसके संबंध में इकरार हो चुका हो। निश्चित। २. किसी पद या स्थान पर जिसे नियुक्त किया गया हो।
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मुकर्ररी  : स्त्री० [अ] १. मुकर्रर होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. मालगुजारी या लगान। ३. नियत रूप में या नियत समय पर मिलता रहनेवाला धन। जैसे—वेतन, वृत्ति आदि।
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मुकल  : पुं० [सं०] १. अमलतास। २. गुगुल।
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मुकलाऊ  : वि० [हिं० मुकलाना] १. मुकलाने या मुक्त करानेवाला। २. मुकलावा या द्विरागमन करा ले जानेवाला। पुं० =मुकलावा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकलाना  : स० [सं० मुकुल से अर्थ-विपर्यय] १. बन्धन से मुक्त करना। छोड़ना। उदाहरण—खोंपा छोरि केस मुकुलाई।—जायसी। २. बन्धन से मुक्त कराना। छुड़ाना। ३. वर का वधू को उसके मायके से पहले-पहल अपने घर लाना। मुकलावा या द्विरागमन कराना। उदाहरण—सुत मुकलाई अपनी माउ।—कबीर।
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मुकलावा  : पुं० [हिं० मुकलाना] पति का पहले-पहल अपनी पत्नी को उसके मायके से अपने घर ले जाने की रसम। गौना। द्विरागमन। पंजाब)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकव्वी  : वि० [अ०] [बहु० मुकव्वियात] १. बलवर्धक। २. काम वर्द्धक।
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मुकाना  : स० [सं० मुक्त] १. मुक्त कराना। छुड़ाना। २. खतम या समाप्त करना। उदाहरण—तुलि नहिं चढ़ै जाइ न मुकाती हलकी लगै न भारी।—कबीर। अ०=मुकना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकाबला  : पुं० [अ० मुक़ाबला] १. आमना-सामना। २. बराबरी। समानता। तुल्यता। मुहावरा—मुकाबले में होना=तुल्य या बराबर होना। ३. प्रतियोगिता, बलपरीक्षा या लड़ाई में होनेवाली जाँच या होड़। जैसे—(क) बच्चों के स्वास्थ्य का मुकाबला। (ख) दौड़ा में होनेवाला मुकाबला। ४. तुलनात्मक निरीक्षण या परीक्षा। ५. मिलान। ६. विरोध।
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मुकाबा  : पुं० [देश] पुरानी चाल का एक तरह का सिंगारदान जिसमे कंघी, मिस्सी, शीशा, सुरमा आदि रखा जाता है।
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मुकाबिल  : वि० [अ०] १. सामनेवाला। २. तुल्य। समान। पुं० १. प्रतिद्वंदी। २. विरोधी। ३. दुश्मन। शत्रु। क्रि० वि० सम्मुख। सामने।
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मुकाबिला  : पुं० =मुकाबला।
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मुकाम  : पुं० [अ० मुक़ाम] [वि० मुकामी] १. ठहरने का स्थान। पड़ाव। मुहावरा—मुकाम डालना=यात्रा के समय बीच में विश्राम करने के लिए ठहरना। मुकाम बोलना=अधीनस्थ लोगों को पड़ाव डालने की आज्ञा देना। २. जगह। स्थान। ३. विराम। ३. रहने की जगह। घर। ५. किसी के यहाँ मृत्यु होने पर उसके यहाँ सहानुभूति प्रकट करने और सान्तवना देने के लिए जाने और उसके पास कुछ देर तक बैठने की क्रिया या भाव। मुहावरा—मुकाम देना=किसी के मर जाने पर उसके घर मातमपुरसी करके जाना। ६. उपयुक्त अवसर। ठीक मौका। ७. संगीत में बीन, सरोद, सितार आदि बाजों का कोई परदा। ८. फारसी संगीत में एक प्रकार का राग।
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मुकामी  : वि० [अ०] १. मुकाम-संबंधी। ठौर-संबंधी। २. स्थानीय।
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मुकियाना  : स० [हिं० मुक्की+इयाना] १. मुक्कों से मारना। २. मु्क्कियों से आटा सँवारना। ३. मुक्कियों से हलका आघात करते हुए मालिश करना या कोई अंग दबाना।
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मुकिर  : वि० [अ०] १. इकरार या प्रतिज्ञा करनेवाला। २. अपनी ओर से कोई दस्तावेज या लेखा प्रस्तुत करके उस पर हस्ताक्षर करनेवाला। लेख्य या लेखक।
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मुकीम  : वि० [अ०] १. मुकाम-संबंधी। २. किसी स्थान पर मुकाम करनेवाला। ३. जिसने कहीं कयाम किया हो। चलते-चलते किसी स्थान पर ठहरने या रुकनेवाला। ४. यात्रा आदि के समय बीच में कहीं ठहरने या पड़ाव डालनेवाला। पुं० तरकारियों आदि का थोक व्यापारी।
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मुकु  : पुं० [सं०√मुच् (छोड़ना)+कु, पृषो० सिद्धि] १. मुक्ति। मोक्ष। २. छुटकारा।
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मुकुट  : पुं० =मुकुट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकुट  : पुं० [सं०√मुच् (सजाना)+उटन्, पृषो० सिद्धि०] १. श्रेष्ठता का सूचक एक प्रकार का प्रसिद्ध अर्ध गोलाकार शिरोभूषण जो पहले राजा लोग पहनते थे, और जो प्रायः देवी-देवताओं की मूर्तियों के सिर पर बाँधा जाता है। अवतंस। मौलि। स्त्री० एक मातृ-गण।
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मुकुटी (टिन्)  : वि० [सं० मुकुट+इनि, दीर्घ, नलोप] जिमसें मुकुट पहना हुआ हो।
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मुकुटेकार्षापण  : पुं० [सं० अलुक, स०] प्राचीन भारत में एक प्रकार का राज-कर जो राजा का मुकुट बनवाने के लिए लिया जाता था।
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मुकुट्ट  : पुं० [सं०] एक प्राचीन जाति का नाम।
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मुकुत  : पुं० =मुक्ता (मोती)। वि० =मुक्त। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकुताफल  : पुं० =मुक्ताफल (मोती)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकुंद  : पुं० [सं० मुकु√दा (देना)+क, पृषो, मुम्] १. विष्णु। २. पुराणानुसार एक प्रकार की निधि। ३. एक प्रकार का रत्न। ४. कुंदरू। ५. सफेद कनेर। ६. गंभारी वृक्ष। ७. पोई का साग। ८. पारद। पारा।
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मुकुंदक  : पुं० [सं० मुखुंद+कन्] १. प्याज। २. साठी धान।
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मुंकुदा  : पुं० [सं० बाल-मुकुंद] ऐसा व्यक्ति जिसके दाढ़ी-मूँछ के बाल न हों या बहुत कम हो। गुप्तरोमा।
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मुकुर  : पुं० [सं०√मुक्+उरच्, उत्व] १. दर्पण। आईना। शीशा। २. मौलसिरी। ३. मोतिया। ४. बेर। ५. कली। ६. वह डंडा जिससे कुम्हार चाक चलाता है।
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मुकुल  : पुं० [सं० मुञ्च्+उलक्] १. कली। २. देह। शरीर। ३. आत्मा। ४. प्राचीन भारत में एक प्रकार का राज-कर्मचारी। ५. जमाल गोटा। ६. गुग्गुल। ७. पृथ्वी।
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मुकुलक  : पुं० [सं० मुकुल+कन्०] दंती (वृक्ष)।
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मुकुलाग्र  : पुं० [सं० मुकुल-अग्र, ब० स०] कली की आकृति का एक प्राचीन अस्त्र।
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मुकुलित  : भू० कृ० [सं० मुकुल+इतच्] १. (पेड या पौधा जिसमें कलियाँ आई हों। कलियों से युक्त। २. (फूल) खिला हुआ। ३.जो पूरी तरह से खुला न हो। कुछ-कुछ मुंदा हुआ। अध-खुला। ४. (नेत्र) जो झपक या मूँद रहा हो।
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मुकुली (लिन्)  : वि० [सं० मुकुल+इनि, दीर्घ, नलोप] कलियों से लदा हुआ (पौधा या वृक्ष)।
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मुकुष्ठ  : पुं० [सं० मुकु√स्था (ठहरना)+क] मोठ।
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मुकेस  : पुं० =मुक्कैश। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुकैयद  : वि० [अ० मुक़ैयद] कैदी। बंदी।
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मुक्क  : वि० =मुक्त। पुं० =मुक्का। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुक्का  : पुं० [सं० मुष्टिका] [स्त्री० अल्पा० मुक्की] १. आघात करने के उद्देश्य से बाँधी हुई मुट्ठी। घूँसा। क्रि० प्र०—चलाना।—मारना। २. उक्त प्रकार से बँधी हुई मुट्ठी का आघात। क्रि० प्र०—खाना। पुं० =मोखा (विवर)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुक्की  : पुं० [हि० मुक्का+ई (प्रत्यय)] १. मुक्का। २. एक प्रकार की लड़ाई जिसमें प्रतिद्वंदी एक दूसरे पर मुक्कों का आघात करते हैं वि० दे० ‘मुक्केबाजी’। ३. गूँधे हुए आटे को सँवारने तथा नरम करने के लिए उसे मुक्कियों से दबाने की क्रिया या भाव। ४. टाँगे आदि दबाते समय मुक्कियों से हलका आघात करने की क्रिया या भाव।
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मुक्केबाज़  : पुं० [हिं० मुक्का+फा० बाज] वह जो मुक्कों का प्रहार करके लड़ता हो।
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मुक्केबाजी  : स्त्री० [हिं० मुक्का+बाजी (प्रत्यय)] १. बार-बार एक-दूसरे को मुक्कों से मारने की क्रिया या भाव। घूँसेबाजी २. एक प्रकार की प्रतियोगिता जिसमें प्रतियोगी एक-दूसरे पर मुक्कों से आघात करते हैं। (बांक्सिंग)।
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मुक्कैश  : पुं० [अ० मुक्कैश] १. बादला। २. तमामी या ताश नामक कपड़ा।
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मुक्कैशी  : वि० [अ० मुक्कैश+ई (प्रत्यय)] १. बादले का बना हुआ। जैसे—मुक्कैशी गोखरू। २. जिसमें जरदोजी या जरी का काम बना हो। जैसे—मुक्कैशी रूमाल।
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मुक्खि  : वि० =मुख्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुक्खी  : पुं० [हिं० मुख+ई (प्रत्यय)] ऐसा कबूतर जिसका सारा शरीर काले, हरे या लाल रंग का हो, पर सिर और डैनों पर एक या दो सफेद पर हों।
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मुक्त  : भू० कृ० [सं०√मुज्+क्त] १. जो किसी प्रकार के बंधन से छूट गया हो। छूटा हुआ। २. धार्मिक क्षेत्र में, जो सांसारिक बंधनों और आवागमन आदि से छूट गया हो। जिसे मुक्ति मिली हो। ३. जो किसी प्रकार के नियम, विधान आदि के पालन से अलग कर दिया गया हो ४. जिसने किसी प्रकार की मर्यादा आदि का परित्याग कर दिया हो। जैसे—मुक्त लज्ज, मुक्त वमन। ५. खुला या छूटा हुआ। जैसे—मुक्त वेणी। ६. जो किसी प्रकार के बंधन की चिंता या परवाह न करता हो। खुला हुआ। जैसे—मुक्त-कंठ, मुक्त हस्त। ७. चलने के लिए छूटा हुआ। जैसे—बाण का मुक्त होना। पुं० पुराणानुसार एक ऋषि का नाम। पुं० मुक्ता (मोती) उदाहरण—हेम हीर हार मुक्त चीर चारु साजि कै।—केशव। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुक्त-कच्छ  : पुं० [सं० ब० स०] एक बौद्ध का नाम। वि० जिसका कच्छ खुला हो।
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मुक्त-चक्षु (स्)  : पुं० [सं० ब० स०] शेर। सिंह।
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मुक्त-चंदन  : पुं० [सं० मध्य० स०] लाल चंदन।
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मुक्त-चेता (तस्)  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें मोक्ष प्राप्त करने की बुद्धि आ गयी हो।
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मुक्त-छंद (स्)  : पुं० [सं० ब० स०] आज-कल की ऐसी कविता जिसमें चरणो, मात्राओं, अनुप्रास आदि का बन्धन न माना जाता हो, केवल लय का ध्यान रखा जाता हो। (ब्लैक वर्स)।
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मुक्त-निम्र्मोक  : वि० [सं० ब० स०] (सांप) जिसने अभी हाल में केंचुली छोड़ी हो।
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मुक्त-पद-ग्राह्य  : पुं० [सं०] साहित्य में, यमक अलंकार का सिंहावलोकन नामक प्रकार या भेद (दे० ‘सिंहावलोकन’)।
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मुक्त-पुरुष  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह जिसने मोक्ष प्राप्त कर लिया हो।
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मुक्त-बंधना  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] १. एक प्रकार का मोतिया। २. बेला।
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मुक्त-वसन  : वि० [सं० ब० स०] जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो। नंगा। पुं० एक प्रकार का साधु जैन जो सदा नंगे रहते हैं।
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मुक्त-वाणिज्य  : पुं० =मुक्त-व्यापार।
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मुक्त-वेणी  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. द्रौपदी का एक नाम। २. प्रयाग का त्रिवेणी संगम।
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मुक्त-व्यापार  : वि० [सं० ब० स०] जो सांसारिक कार्यों से रहित हो गया हो। संसार-त्यागी। पुं० [सं० कर्म० स०] आधुनिक राजनीति में, व्यापार की वह व्यवस्था जिसमें विदेशों से होनेवाले आयात-निर्यात आदि पर कोई विशेष बन्धन न लगाया जाता हो। (फ्री ट्रेंड)।
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मुक्त-श्रृंग  : पुं० [सं० ब० स०] रोहू मछली।
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मुक्त-संग  : वि० [सं० ब० स०] जो विषय-वासना से रहित हो गया हो। पुं० परिव्राजक।
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मुक्त-सार  : पुं० [सं० ब० स०] केले का पेड़।
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मुक्त-हस्त  : वि० [सं० ब० स०] १. जो उदारतापूर्वक तथा अधिक मात्रा में दान, व्यय आदि करता हो। २. खुले हाथों देनेवाला।
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मुक्तक  : पुं० [सं० मु्क्त+कन्] १. प्राचीन काल का एक अस्त्र जो फेंककर मारा जाता था। २. शस्त्र। हथियार। ३. ऐसा सरल और सीधा गद्य जिसमें छोटे-छोटे वाक्य हों। ४. काव्य का वह प्रकार या भेद (प्रबन्ध-काव्य से भिन्न) जिसमें वर्णित बातों का कोई पूर्वापर सम्बन्ध न हो, अर्थात् एक ही छंद में कोई पूरी बात या विषय आ गया हो, आगे या पीछे के दूसरे छंदो से उसका कोई सम्बन्ध न हो। जैसे—बिहारी सतसई मुक्तक काव्य है। ५. छंद शास्त्र में कवित्त का वह प्रकार या भेद जिसमें गणों का कोई बन्धन नही होता, केवल अक्षरों की संख्या और कहीं-कहीं गुरु-लघु का कुछ ध्यान रखा जाता है।
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मुक्तक-ऋण  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह ऋण जिसके सम्बन्ध में कुछ लिखा-पढ़ी न हो। जबानी बातचीत पर दिया या लिया हुआ ऋण।
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मुक्तकंठ  : वि० [सं० ब० स०] १. जोर में बोलनेवाला २. बेधड़क बोलनेवाला। ३. जो बोलने में बन्धन या सीमा न मानता हो। जैसे—मुक्त कंठ होकर प्रशंसा करना।
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मुक्तता  : स्त्री० [सं० मुक्त+तल्-टाप्] मुक्त होने की अवस्था या भाव। मुक्ति।
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मुक्ता  : स्त्री० [सं० मुक्ता+टाप्] [वि० मौक्तिक] १. मोती। २. रासना।
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मुक्ता-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] कुंद (पौधा और फूल)।
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मुक्ता-प्रसू  : पुं० [सं० ष० त०] सीप।
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मुक्ता-फल  : पुं० [सं० उपमि० स०] १. मोती। २. कपूर। ३. लवनी फल। ४. एक प्रकार का छोटा लसोढ़ा।
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मुक्ता-मणि  : पुं० [सं० मयू० स०] मोती।
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मुक्ता-मोदक  : पुं० [सं०] मोतीचूर का लडडू।
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मुक्ता-लता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] मोतियों की लड़ी या माला।
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मुक्ता-स्फोट  : पुं० [सं० च० त०] सीप।
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मुक्तागार  : पुं० [सं० मुक्ता-आगार, ष० त०] सीप।
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मुक्तात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० मुक्त-आत्मन्, ब० स०] १. जो सांसारिक आसक्तियों या बन्धनों से रहित हो गया हो। २. जिसने मोक्ष प्राप्त कर लिया हो।
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मुक्तादाम (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] मोतियों की लड़ी।
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मुक्तावली  : स्त्री० [सं० मुक्ता-आवली, ष० त०] मोतियों की लड़ी।
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मुक्तांशक  : पुं० [सं० मुक्ता-अंशक, मध्य० स०] प्राचीन भारत में एक प्रकार का कपड़ा जिसकी बनावट में या तो मोतियों का काम होता था या जिसमें मोतियों की झालर अथवा झुब्बे टँके होते थे।
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मुक्ताहल  : पुं० =मुक्ताफल (मोती)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुक्ति  : स्त्री० [सं०√मुच्+क्तिन्] १. मुक्त करने या होने की अवस्था क्रिया या भाव २. किसी प्रकार के जंजाल, झंझट, पाश, बंधन आदि से छुटकारा मिलना। ३. धार्मिक क्षेत्र में, वह स्थिति जिसमें वह समझा जाता है कि परमात्मा में मिल जाने के कारण जीव आवागमन या जन्म-मरण के बंधन से छूट जाता है। मोक्ष। (इमैन्सिपेशन)। ४. मृत्यु के फलस्वरूप सांसारिक कष्ट-भोगों की होनेवाली समाप्ति अथवा उनसे मिलनेवाला छुटकारा। ५. दायित्व, देन आदि से छूटने की अवस्था या भाव। स्त्री०=मोती। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुक्ति-तीर्थ  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह तीर्थ जहाँ प्राणी को मुक्ति मिलती हो। २. काशी। ३. विष्णु।
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मुक्ति-पद  : पुं० [सं० ष० त०] हरा मूँग। वि० मुक्ति देनेवाला।
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मुक्ति-फौज  : स्त्री०=मुक्ति-सेना।
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मुक्ति-मंडप  : पुं० [सं० ष० त०] काशी क्षेत्र में विश्वनाथ का मंदिर।
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मुक्ति-मुक्त  : पुं० [सं० तृ० त०] शिलारस।
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मुक्ति-सेना  : स्त्री० [सं० ष० त०] ईसाई त्यागियों या विरक्तों का एक संघटक जिसका उद्देश्य लोगों में ईसाई धर्म और नीति का प्रचार करना तथा लोक-सेवा के दूसरे अनेक काम करता है। (सैल्वेशन अर्मी)।
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मुक्ति-स्नान  : पुं० [सं० स० त०] ग्रहण आदि का मोक्ष हो जाने पर किया जानेवाला स्नान।
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मुक्तिका  : स्त्री० [सं० मुक्ता+कन्+टाप्, ह्रस्व, इत्व] मोती।
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मुक्तिक्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. काशी या वाराणसी जो प्राणियों को मुक्ति देनेवाली कही गयी है। २. कावेरी नदी के तट पर का वकुलारण्य नामक तीर्थ।
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मुक्तिधाम (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] १. तीर्थ-स्थान। २. स्वर्ग। ३. परलोक।
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मुक्फ्फल  : वि० [अ० मुक्फ्फल] जिसमें कुपल या ताला लगा हुआ हो। ताले में बंद किया हुआ।
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मुख  : पुं० [सं०√खन् (खोदना)+अच्, डित, मुट्आगम] १. जीव या प्राणी का मुँह। (देखें)। २. चेहरा। ३. दरवाजा। ४. किसी पदार्थ का अगला या ऊपरी खुला भाग। ५. आदि। आरंभ। शुरु। ६. आगे, पहले या सामने आनेवाला अंश या भाग। जैसे—रजनी मुख=सन्ध्या का समय। ७. साहित्य में रूपक की पाँच सन्धियों में से पहली संधि जिसका आविर्भाव बीज, नाम, अर्थ, कृति, और आरम्भ नामक अवस्थाओं का योग होने पर माना जाता है। ८. नाटक का पहला शब्द। ९. शब्द। १॰. नाटक। ११. वेद। १२. जीरा। १३. बड़हर। १४. मुरगाबी। वि० मुख्य। प्रधान।
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मुख-क्षुर  : पुं० [सं० ष० त०] दाँत।
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मुख-खुर  : पुं० =मुखक्षुर।
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मुख-गंधक  : पुं० [सं० ब० स० कप्] मुँह से दुर्गंध उपजानेवाला अर्थात् प्याज।
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मुख-चपल  : वि० [सं० सुप्सुपा स०] १. जो बहुत अधिक या बढ़-चढ़कर बोलता हो। वाचाल। मुँहजोर। २. कटुभाषी।
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मुख-चपलता  : स्त्री० [सं० मुखचपल+तल्-टाप्] मुख-चपल होने की अवस्था या भाव।
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मुख-चूर्ण  : पुं० [सं० ष० त०] मुँह पर मलने का चूर्ण। (पाउडर)।
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मुख-देखा  : वि० =मुँह-देखा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुख-धावक  : पुं० [सं०] कोई ऐसी चीज जो मुँह के भीतरी भाग (जीभ, तालू, दाँत आदि) साफ करने के काम आती हो। (माउथ वाश)।
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मुख-धौता  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. भारंगी। २. ब्राह्मण-यष्टिका।
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मुख-पट  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. घूँघट। २. नकाब।
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मुख-पत्र  : पुं० [सं० उपमि० स०] किसी संस्था या दल का वह पत्र जिसमें उसके सिद्धान्तों तथा मतों का प्रकाशन मुख्य रूप से होता है। (आर्गन)
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मुख-पान  : पुं० [हिं० मुख+पान] ताले के ऊपरी आवरण का पान के आकार का धातु का वह टुकड़ा जिसमें प्रायः ताली लगाने के लिए छेद बना होता है।
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मुख-पिंड  : पुं० [सं० ष० त०] १. कौर। ग्रास। २. मृत व्यक्ति की अंत्येष्टि क्रिया से पहले दिया जानेवाला एक तरह का पिंड।
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मुख-पूरण  : पुं० [सं० मुख√पूर् (पूर्ण करना)+णिच्+ल्यु-अन] १. मुँह साफ करने के लिए किया जानेवाला कुल्ला। २. उतना पानी जितना एक बार कुल्ला करने के लिए मुँह में लिया जाय।
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मुख-पृष्ठ  : पुं० [सं० उपमि० स०] किसी ग्रंथ या पुस्तक का सबसे ऊपर वाला पृष्ठ जिसमें उस पुस्तक तथा उसके लेखक का नाम छपा होता है। (टाइटिल पेज)।
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मुख-प्रक्षालन  : पुं० [सं० ष० त०] मुँह धोना या साफ करना।
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मुख-बंद  : पुं० [सं० मुख+हिं० बंद] १. घोड़ों का एक रोग जिसमें उनका मुँह बन्द हो जाता है।
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मुख-बंध (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] किसी ग्रंथ की प्रस्तावना या भूमिका।
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मुख-भूषण  : पुं० [सं० ष० त०] पान।
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मुख-मैथुन  : पुं० [सं०] मैथुन या संभोग का एक अप्राकृतिक और अस्वाभाविक प्रकार जिसमें उपभोग्य बालक अथवा स्त्री के मुख में लिंगेद्रिय रखी जाती है।
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मुख-मोद  : पुं० [सं० मुख√बुद् (हर्ष)+णिच्, +अण्, उप० स०] १. सलई का पेड़। शल्लकी। २. काला सहिंजन।
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मुख-यंत्रण  : पुं० [सं० ष० त०] घोड़े, बैल आदि की लगाम।
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मुख-रोग  : पुं० [सं० ष० त०] दांतो, मसूढ़ों होठों आदि में होनेवाले रोगों की संज्ञा।
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मुख-लांगल  : पुं० [सं० ब० स०] सूअर।
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मुख-लेप  : पुं० [सं० ष० त०] १. शोभा के लिए मुख पर किया जानेवाला लेप। २. एक प्रकार का मुख-रोग।
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मुख-लेपन  : पुं० [सं० ष० त०] मुख पर लेप करना या लगाना।
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मुख-वल्लभ  : वि० [सं० ष० त०] स्वादिष्ट। पुं० अनार का पेड़।
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मुख-वाद्य  : पुं० [सं० ष० त०] वह बाजा जो मुँह से फूँककर बजाय़ा जाता हो।
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मुख-वास  : पुं० [सं० मुख√वास् (सुगंधित करना)+अण्, +णिच्+उप० स०] १. गंधतृण। २. तरबूज की लता।
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मुख-वासन  : पुं० [सं० मुख√वास्+णिच्+ल्यु-अन, उप० स०] मुँह की दुर्गंध दूर करके उसे सुंगधित करने के उद्देश्य से मुँह में रखा जानेवाला चूर्ण या औषध।
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मुख-विष्ठा  : स्त्री० [सं० ब० स०] तिल-चट्टा (कीड़ा)।
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मुख-शुद्धि  : पुं० [सं० ष० त०] १. मुख की शुद्ध करने की क्रिया या भाव। २. बोलचाल में भोजन आदि के उपरांत इलायची, पान, सुपारी आदि खाना। विशेष—हमारे यहाँ इलायची, पान, सुपारी आदि का सेवन मुख को शुद्ध करने के लिए किया जाता है।
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मुख-शोधन  : पुं० [सं० ष० त०] १. मुख को शुद्ध करना। मुखशुद्धि। २. [मुख√शुध्+णिच्+ल्यु—अन, उप० स०] मुख शुद्ध करने के निमित्त खाया जानेवाला पदार्थ। जैसे—पान, सुपारी आदि। दारचीनी। वि० चरपरा।
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मुख-श्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] चेहरे की रौनक, शोभा या सौंदर्य।
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मुख-संधि  : स्त्री० दे० ‘मुख’ के अन्तर्गत साहित्यक संधि।
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मुख-संभव  : पुं० [सं० ब० स०] १. ब्राह्मण। २. पुष्करमूल। वि० मुँह से निकला हुआ।
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मुख-सुख  : पुं० [सं० ष० त०] वह स्थिति जिसमें व्यक्ति किसी शब्द का उच्चारण अपने मुख की गठन तथा सुविधा के अनुसार ऐसे रूप में करता है जो वर्णोच्चारण से कुछ भिन्न होता है।
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मुख-स्राव  : पुं० [सं० पं०त०] १. थूक। लार २. मुँह से निरन्तर लार गिरने का रोग।
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मुखचपला  : स्त्री० [सं० मुखचपल+टाप्] आर्याछंद का एक भेद।
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मुखज  : वि० [सं० मुख√जन् (उत्पन्न करना)+ड] मुख या मुँह से उत्पन्न। पुं० ब्राह्मण जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से कही गई है।
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मुखंडा  : पुं० [हिं० मुख+अंडा (प्रत्यय)] १. कुछ विशिष्ट बरतनों में किया जानेवाला वह छेद जिसमें टोंटी लगाई जाती है। २. टोंटी का छेद।
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मुखड़ा  : पुं० [सं० मुख+हिं० डा (प्रत्यय)] १. मनुष्य का वह अंग जिसमें दोनों आँखे, नाक, गला, माथा, मुँह, ठुड्डी आदि अवयव होते हैं। चेहरा। २. बहुत ही सुन्दर मुख के लिए प्रशंसा और प्रेम का सूचक शब्द।
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मुखतार  : पुं० [अ० मुख्तार] [भाव० मुख्तारी] १. वह व्यक्ति जिसे किसी से विशिष्ट अवसरों पर कुछ विशेष प्रकार के काम प्रतिनिधि के रूप में करने का वैध अधिकार मिला होता है। २. एक प्रकार के कानूनी सलाहकार जो पद में वकील से छोटे होते हैं।
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मुखतार-आम  : पुं० [अं० मुख्तारेआम] वह प्रतिनिधि जिसे किसी तरफ से सब प्रकार के कार्य विशेषतः आर्थिक या कानूनी कार्य करने का अधिकार प्राप्त हो।
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मुखतार-खास  : पुं० [अ० मुख्तारे+फा० खास] वह जिसे किसी विशिष्ट कार्य या मुकदमे के लिए मुखतार या प्रतिनिधि बनाया गया हो।
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मुखतारकार  : पुं० [अ० मुख्तारे+फा० कार] [भाव० मुखतारकारी] कर्मचारी। करिंदा।
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मुखतारकारी  : स्त्री० [हिं० मुखतारकार+ई (प्रत्यय)] १. मुखतारकार का काम, पद या भाव। २. दे० ‘मुखतारी’।
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मुखतारनामा  : पुं० [अ० मुख्तार+फा०नामः] १. वह पत्र जिसमें कोई अधिकारिक या वैध रूप से किसी को अपना मुखतार नियुक्त करता हो। २. वह अधिकार-पत्र जिसके अनुसार कोई पेशेवर मुखतार कोई मुकदमा लड़ने के लिए मुखतार के रूप में नियुक्त किया जाता है।
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मुखतारी  : स्त्री० [अ० मुख्तारी] १. मुख्तार अर्थात् प्रतिनिधि होने की अवस्था या भाव। २. मुखतार का पद या पेशा। ३. प्रतिनिधित्व। ४. एक तरह की कानूनी परीक्षा जिसे पारित करने पर मुखतार के रूप में छोटी अदालतों में मुकदमे लड़ने का अधिकार प्राप्त होता है।
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मुखताल  : पुं० [हिं० मुख+ताल] गीत का पहला पद। टेक।
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मुखदूषण  : पुं० [सं० मुख√दूस (दूषित करना)+णिच्+ल्यु-अन] प्याज।
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मुखदूषिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] मुँहासा।
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मुखदूषी (षिन्)  : पुं० [सं० मुख√दूस (दूषित करना)+णि्च्, णिनि, दीर्घ, न लोप] लहसुन।
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मुखप्रिय  : वि० [सं० मुख√प्री (तृप्त करना)+क, उप० स०] स्वादिष्ट। पुं० १. नांरगी। २. ककड़ी।
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मुखफ्फफ  : पुं० [अ० मुखफ्फफ] किसी चीज का लघु, संक्षिप्त या ह्रस्व रूप। जैसे—हाथ का मखफ्फफ हथ (हथकरघा)। वि० लघु संक्षिप्त स्वरूप में होनेवाला।
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मुखबिर  : पुं० [अ० मुख्बिर] [भाव० मुखबिरी] गुप्त रूप से समाचार लाने या खबर देनेवाला व्यक्ति। जासूस।
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मुखबिरी  : स्त्री० [अ० मुख्बिरी] मुखबिर का काम, पद या भाव।
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मुखभेड़  : स्त्री०=मुठभेंड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुखमसा  : पुं० [अ० मुख्मसः=विकलता या कठिनता] झगड़ा बखेड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुखम्मस  : वि० [अ० मुखम्मस] जिसमें पाँच कोने या अंग हो। पँचकोना। पुं० वह पद्य जिसके पाँच चरण हों। (उर्दू)।
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मुखर  : वि० [सं० मुख+रा (देना)√क] १. बहुत बोलनेवाला। बकवादी। वाचाल। २. बहुत बढ़कर या उद्दंतापूर्वक बातें करनेवाला। ३. व्यर्थ बहुत सी बातें कहनेवाला। बकवादी। ४. कटु-भाषी। ५. प्रधान। मुख्य। ६. बोलता हुआ। मुखरित०। पुं० १. कौआ। २. शंख।
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मुखरि  : भू० कृ० [सं० मुखरि+क्विप्, +क्त] अच्छी तरह बोलता या ध्वनि करता हुआ। ध्वनियों या शब्दों से युक्त।
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मुखलिस  : वि० [अ० मुख्लिस] [भाव० मुखलिसी] १. जो खलास हो चुका हो। मुक्त। २. निश्छल। ३. निष्ठ। सच्चा। ४. अकेला। ५. अविवाहित।
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मुखशोधी (धिन्)  : वि० [सं० मुखशुध (शुद्ध करना)+णिच्+णिनि, दीर्घ, न-लोप] मुख की शुद्धि करने या तत्त्व जिसके फलस्वरूप मुख सूखा रहता हो। ३. प्यास।
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मुखस्थ  : वि० [सं० मुख√स्था (ठहरना)+क०] १. जो मुँह जबानी याद हो। कंठस्थ। २. मुख में आया या रखा हुआ।
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मुखांग  : पुं० [सं० मुख-अंग, कर्म० स०] वह जो किसी व्यक्ति की ओर से बोल रहा हो जो स्वयं किसी कारण से चुप रहना चाहता हो। (माउथपीस) जैसे—आज तो आप उनके मुँखांग होकर बातें कर रहे हैं।
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मुखाग्नि  : स्त्री० [सं० मुख-अग्नि, मध्य० स०] १. चिता पर रखे हुए शव के मुख में रखी जानेवाली अग्नि। २. इस प्रकार मुँह में अग्नि रखने की प्रथा। ३. [ब० स०] दावानल। ४. ब्राह्मण।
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मुखाग्र  : पुं० [सं० मुख-अग्र, ष० त०] १. किसी पदार्थ का अगला भाग। २. होंठ। वि० जो जबानी याद हो। कंठस्थ।
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मुखातिब  : वि० [अ० मुख़ातिब] १. जिससे कुछ कहा जाय। संबोध्य। २. किसी की ओर (बात कहने या सुनने देखने आदि को) प्रवृत्त। वि० [अ० मुखातिब] संबोधन कर्ता।
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मुखापेक्षक  : वि० =मुखापेक्षी।
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मुखापेक्षा  : स्त्री० [सं० मुख—अपेक्षा, ष० त०] विवश होकर दूसरों का मुँह ताकना। (सहायता आदि के लिए)।
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मुखापेक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० मुखापेक्ष+इनि] किसी के मुँह की ओर ताकने अर्थात् उसकी कृपा की अपेक्षा रखनेवाला। दूसरों की कृपा पर अवलम्बित रहनेवाला।
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मुखामय  : पुं० [सं० मुख-आमय, ष० त०] मुख में होनेवाले रोग। मुखरोग।
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मुखारविंद  : पुं० [सं० मुख-अरविन्द, उपमित, स०] ऐसा सुन्दर मुख जो देखने में कमल के समान हो। मुख-कमल। (प्रायः बड़ों के सम्बन्ध में आदरसूचक)।
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मुखारी  : स्त्री० [सं० मुख] १. मुख की गठन या बनावट। २. आकार-प्रकार, रूप आदि का सूचक किसी वस्तु का ऊपरी या सामने वाला भाग। ३. मुख-शुद्धि के लिए कुल्ला-दतुअन आदि करने की क्रिया या भाव। उदाहरण—दतवनि लै दुहै करी मुखारी।—सूर।
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मुखालिफ  : वि० [अ० मुख़ालिफ] १. विरोधी। २. प्रतिद्वन्दी। पुं० दुश्मन। शत्रु।
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मुखालिफत  : स्त्री० [अ० मुख़ालिफ़त] १. मुखालिफ होने की अवस्था या भाव। २. डटकर किया जानेवाला विरोध। ३. शत्रुता।
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मुख़ासमत  : स्त्री० [अ०] १. कलह। २. विवाद। ३. शत्रुता।
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मुखासव  : पुं० [सं० मुख-आसव, ष० त०] १. थूक। २. लार।
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मुखास्त्र  : पुं० [सं० मुख-अस्त्र, ब० स०] केकड़ा।
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मुखिया  : पुं० [सं० मुख्य+हिं० इया (प्रत्यय)] १. वह जो अपने वर्ग या समाज में मुख्य या प्रधान हो। २. ब्रिटिश शासन में किसी गाँव में प्रधान बनाया हुआ वह व्यक्ति जिसे कुछ अधिकार प्राप्त होते थे। ३. वल्लभ संप्रदाय का वह कर्मचारी जो मूर्ति का पूजन आदि करता है। ४. स्वतंत्र भारत में किसी गाँव या मंडल के चुने हुए प्रतिनिधियों का प्रधान या सभापति।
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मुखी (खिन्)  : वि० [सं० मुख+इनि] १. मुख से युक्त। मुखवाला। (यौ० के अन्त में) जैसे—नाहरमुखी, सूरयमुखी आदि। उदाहरण—जो देखिअ सो हँसता मुखी।—जायसी। २. किसी विशिष्ट ओर या दिशा में मुख रखनेवाला। जैसे—अन्तर्मुखी, सूर्यमुखी, सर्वतोमुखी।
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मुखुली  : स्त्री० [सं० मुख+उलच्+ङीष्] एक बौद्ध देवी।
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मुखौटा  : पुं० [हिं० मुख+औटा (प्रत्यय)] १. मुख का अल्पार्थक रूप। छोटा मुँह। २. धातु आदि का मुख के आकार का बना हुआ वह खंड जो देवी-देवताओं की मूर्तियों में उनके मुख पर लगाया जाता है। ३. रूप धारण करने के लिए मुँह की बनायी जानेवाली आकृति। उदाहरण—अतः मनुष्य चाहे जो मुखौटा पहने उसके नीचे सब मनुष्य नंगे हैं।
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मुख्तलिफ  : वि० [अ० मुख्तलिफ़] १. पृथक। भिन्न। २. अनेक प्रकार का।
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मुख्तसर  : वि० [अ० मुख्तसर] १. संक्षिप्त। घटाया या छोटा किया हुआ। २. संक्षेप में लाया हुआ। ३. अल्प। थोड़ा। पद—मुख्तसर में—संक्षेप में।
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मुख्तार  : पुं० ‘मुखतार’ (‘मुख्तार’ के अन्य यौ० के लिए देखें ‘मुखतार’ के यौ०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुख्य  : वि० [सं० मुख+यत्] [भाव० मुख्यता] १. जो सब से आगे बढ़ा हुआ या ऊपर और मुख के रूप में हो। प्रधान। खास। २. (अन्यों की अपेक्षा) अधिक आवश्यक महत्त्वपूर्ण या सारभूत। जैसे—अपने भाषण में उन्होंने मुख्य बात यही कही कि...। ३. अपने वर्ग का सबसे बड़ा। जैसे—मुख्य मंत्री, मुख्य न्यायाधीश। पुं० १. यज्ञ का पहला कल्प। २. वेदों का अध्ययन और अध्यापन. ३. अमांत मास।
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मुख्य-चांद्रमास  : पुं० [सं० कर्म० स०] चांद्र मास के दो भेदों में से एक जो शुक्ल प्रतिपदा से आरंभ होकर अमावस्या को समाप्त होता है। इसी को ‘अमांत’ भी कहते हैं। (दूसरा) भेद ‘गौण’ चांद्र ‘मास’ या ‘पूर्णिमांत’ कहलाता है।
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मुख्य-मन्त्री (त्रिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] भारतीय गणतंत्र के किसी राज्य (प्रांत) का सबसे बड़ा मंत्री। राज्य के मंत्रियों में सबसे बड़ा मंत्री। (चीफ मिनिस्टर)।
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मुख्य-सर्ग  : पुं० [सं० कर्म० स०] स्थावर सृष्टि।
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मुख्यतः (तस्)  : अव्य० [सं० मुख्य√तस्] मुख्य रूप से।
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मुख्यता  : स्त्री० [सं० मुख्य+तल्+टाप्] मुख्य होने की अवस्था, गुण या भाव।
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मुख्याधिष्ठाता (तृ)  : पुं० [सं० मुख्य-अधिष्ठातृ, कर्म० स०] किसी स्थान विशेषतः शिक्षा-संस्था का प्रधान अधिकारी और व्यवस्थापक। जैसे—गुरुकुल के मुख्याधिष्ठाता।
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मुख्यालय  : पुं० [सं० मुख्य-आलय, कर्म० स०] १. किसी संस्था का केन्द्रीय और प्रधान स्थान कार्यालय। २. किसी बड़े अधिकारी या व्यक्ति का मुख्य निवास स्थान (हेड क्वार्टर)।
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मुगट  : पुं० =मकुट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुगतना  : अ० [सं० मुक्त] मुक्त होना। स० मुक्त करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुगता  : पुं० =मुक्ता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुगदर  : पुं० [सं० मुगदर] जोड़ी। कसरत करने के लिए काठ के बड़े टुकड़ों की वह जोड़ी जो दोनों हाथों में लेकर इधर-उधर और ऊपर-नीचे घुमाई जाती है। क्रि० प्र०—फेरना।—हिलाना।
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मुगधारी  : वि० [सं० मुग्ध] मूर्ख।
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मुँगना  : पुं० =मुनगा (सहिंजन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुगना  : पुं० =मृनगा (सहिजन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुगरा  : पुं० [सं० मुद्गर] [स्त्री० मुंगरी] लकड़ी की बनी बड़ी हथौड़ी। जैसे—घंटा बजाने का मुँगरा। पुं० [?] नमकीन बुंदिया। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुगरा  : पुं० =मोगरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुँगरी  : स्त्री० मुँगरा का स्त्री० अल्पा०।
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मुगरेला  : पुं० मुंगरेला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुगल  : पुं० [तु० मुगुल] [स्त्री० मुगलानी] १. मंगोल देश का निवासी। २. उक्त के वे वंशज जो तासार देश में बसकर मुसलमान हो गए थे, और जिनके एक राजवंश ने अंगरेजों के भारत आने से पहले ढाई-तीन सौ वर्षों तक भारत में राज्य किया था। ३. मुसलमानों के चार वर्गों में से एक वर्ग। ४. उक्त जाति का कोई व्यक्ति। ५. आज-कल भ्रमवश काबुल और उसके आसपास के पठान।
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मुगल-पठान  : पुं० [हिं०] १. एक प्रकार का खेल जो १६ गोठियों में चौकोर खींची हुई रेखाओं पर खेला जाता है। २. एक प्रकार की आतिशबाजी जिमसें दो पुतले आपस में लड़ते हुए दिखाये जाते हैं।
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मुगलई  : वि० [तु०, मुगुल+हिं० ई (प्रत्यय)] १. मुगल संबंधी। २. मुगलों में होनेवाला। ३. मुगलों का सा। मुगलों की तरह का। जैसे—मुगलई पाजामा। स्त्री० मुगलों की सी अकड़ ऐंठ, या घमंड।
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मुगलक  : वि० [अ०] १. बहुत कठिन या मुश्किल। २. छिपा हुआ। अव्यक्त।
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मुगलाई  : स्त्री० [हिं० मुगल+हिं० आई (प्रत्यय)] १. वह कपड़ा जिसमें सुनहला या रूपहला गोटा और पट्टा टँका हो। २. दे० ‘मुगलई’। वि० =मुगलई।
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मुगलानी  : स्त्री० [हिं० मुगल+आनी (प्रत्यय)] १. मुगल जाति की स्त्री। २. मुसलमान रईसों के यहाँ कपड़े सीनेवाली स्त्री। ३. दासी। मजदूरनी।
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मुगलिया  : वि० [फा० मुग़ुलीय] १. मुगलों का। जैसे—मुगलिया खानदान। २. मुगलों की तरह का। मुगलों का सा। मुगलई।
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मुगली  : स्त्री० [हिं० मुगल+ई (प्रत्यय)] पसली का रोग। वि०=मुगलिया। (मुगलई)।
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मुँगवन  : पुं० [सं० मृदंग] मोठ (कदन्न)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुगवन  : पुं० [सं० वन-मुदग] मोठ।
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मुगवा  : स्त्री० [सं०] अतिस्रवा। मयूरवल्ली।
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मुंगा  : स्त्री० [सं०] एक देवी (पुराण)।
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मुगालता  : पुं० [अ० मुग़ालतः] धोखा। क्रि० प्र०—खाना।—देना।—में डालना।
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मुँगिया  : वि० पुं० =मूँगिया।
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मुँगौछी  : स्त्री० [हिं० मूँग+औछी (प्रत्यय)] मूँग की बरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुँगौरी  : स्त्री० [हिं० मूँग+बरी] मूँग की दाल की बनी हुई बरी।
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मुग्ध  : वि० [सं०√मुह् (मूर्छित होना)+क्त] [भाव० मुग्धता] १. जो मूर्च्छित या स्तब्ध हो गया हो। २. मूढ़। मूर्ख। ३. जो किसी पर इतना आसक्त या लुब्ध हो गया हो कि सुध-बुध खो बैठा हो। ४. सीधा-सादा। सरल। ५. निरीह। ६. नया। नवीन। ७. मनोहर। सुन्दर।
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मुग्ध-बुद्धि  : वि० [सं० ब० स०] मूर्ख।
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मुग्धता  : स्त्री० [सं० मुग्ध+तल्+टाप्] १. मुग्ध होने की अवस्था या भाव। २. सुन्दरता।
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मुग्धम  : वि० [सं० मुग्ध] १. संकेत रूप में कहा हुआ। २. जिसका भेद या रहस्य और लोग न जानते हों। छिपा हुआ गुप्त। ३. चुप। मौन। पुं० जूए में किसी बाजी की वह स्थिति, जिसमें किसी पक्ष की न जीत होती है न हार।
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मुग्धा  : स्त्री० [सं० मुग्ध+टाप्] साहित्य में वह नायिका जिसके नवयौवनांकुर निकल रहे हों परन्तु जिसमें अभी काम चेष्टा का भाव उत्पन्न न हुआ हो। इसके ज्ञात यौवना और अज्ञात यौवना दो उपभेद हैं।
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मुचक  : पुं० [सं०√मुच् (छोड़ना)+ण्वुल्, वृ-अक] लाख। लाह। स्त्री०=मोच।
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मुचकुंद  : पुं० [सं०] १. मांधाता का पुत्र जिसने असुरों से युद्ध करके देवताओं से बहुत दिनों तक सोने का वर प्राप्त किया था। २. सुगंधित फूलोंवाला एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिसके पत्ते फालसे के पत्तों की तरह बड़े-बडे होते हैं।
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मुचंगड़  : वि० [हिं० मुच्चा+अंगड़ (प्रत्यय)] मोटा और भद्दा। जैसे—मुचगड रोटी।
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मुँचना  : स० [सं० मुक्त] मुक्त करना। छोड़ना। अ० मुक्त होना। छूटना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुचलका  : पुं० [तु० मुचल्का] आज-कल विधिक क्षेत्र मे वह प्रतिज्ञा-पत्र जो किसी अभियुक्त या अपराधी से इसलिए लिखाया जाता है कि भविष्य में वह विधि-विरुद्ध काम करने पर कुछ विशिष्ट अर्थदण्ड से दण्डित होगा, और उस पर फिर मुकदमा भी चल सकेगा। क्रि० प्र०—देना।—लिखना।—लिखाना।—लेना।
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मुचिर  : पुं० [सं०√मुच् (त्याग करना)+इरन्] १. धर्म। २. वायु। ३. देवता। वि० उदार।
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मुचुकुंद  : पुं० [सं० ०] १. सूर्यवंशी राजा मांधाता का पुत्र। २. एक प्रकार का वृक्ष जिसकी छाल और फूल दवा के काम आते हैं। मुचकुंद।
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मुच्चा  : पुं० [देश] मांस विशेषतः कच्चे मांस का टुकड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुच्छल  : वि० [हिं० मूँछ] १. मूछोंवाला। २. बड़ी-बड़ी मूँछोंवाला।
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मुछ  : स्त्री०=मूँछ। उप० मूँछ का वह रूप जो उपसर्ग की भाँति समस्त पदों के आरम्भ में लगता है। जैसे—मुछकटा, मुछमुंडा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुछ-कटा  : वि० [हिं० मूँछ+काटना] जिसकी मूँछे कटी या काट दी गई हों।
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मुछंदर  : वि० [हिं० मूँछ] १. जिसकी मूँछें बडी-बड़ी हो। २. फलतः देखने में भद्दा और भोंड़ा। ३. मूर्ख। (व्यंग्य) पुं० =मत्स्येन्द्रनाथ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुछमुँड़ा  : वि० [हिं० मूँछ+मूँड़ना] जिसकी मूँछे मूँड़ी हुई हों। सफावट।
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मुछाकड़ा  : वि० =मुच्छल।
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मुछाना  : अ० [सं० मूर्च्छा+हिं० ना (प्रत्यय)] मूर्च्छित होना। स०=मूर्च्छित करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुछियल  : वि० =मुच्छल।
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मुंज  : पुं० [सं०√मुंज (साफ करना)+अच्] मुंजातक। मूँज।
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मुंज-मणि  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] पुखराज।
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मुंज-मेखला  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] यज्ञोपवीत के समय पहनी जानेवाली मूँज की मेखला।
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मुंजकेश  : पुं० [सं० ब० स०] १. शिव २. विष्णु।
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मुज़क्कर  : वि० [अ० मुजक्कर] जिसमें पुरुष या नर के गुण विशेषताएँ आदि हों। पुरुष-संबंधी। पुंलिंग।
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मुजतर  : वि० [अ० मज्तर] बेचैन। विकल।
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मुजतहिद  : वि० [अ० मुज्तहिद] परिश्रमी। पुं० शिया संप्रदाय का वह व्यक्ति जो धार्मिक विषयों पर अपना निर्णय देता है।
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मुजदा  : पुं० [फा० मुज्द] शुभ संवाद। अच्छी खबर।
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मुंजपृष्ठ  : पुं० [सं० ब० स०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन प्रदेश।
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मुजफ्फर  : वि० [अ० मुज़फ्फ़र] विजयी। विजेता।
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मुजमिल  : अव्य० [अ० मिन्, जुम्लः] १. सब मिलाकर। कुल मिलाकर। २. सबमें से। पुं० संख्याओं का जोड़। योग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुजम्मा  : पुं० [अ० मुजम्मः] चमड़े या रस्सी का वह फेरा जो घोड़े को आगे बढ़ने से रोकने के लिए उसकी गामची या दुमची में पिछाड़ी की रस्सी के साथ लगा रहता है। क्रि० प्र०—बाँधना।—लगाना।
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मुंजर  : पुं० [सं०√मुंज√अरन्] कमल की जड़। कमल की नाल। मृणाल।
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मुजरई  : पुं० =मुजराई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुजरा  : वि० [अ० मुज्रा] १. जो जारी किया गया हो। २. (धन) जो प्राप्य होने के कारण किसी देय में से काट लिया जाय। जैसे—हमारे दस रुपये इसमें से मुजरा कर दो। पुं० [अ०] १. किसी बड़े के सामने झुक-झुककर किया जानेवाला अभिवादन। २. वह गाना जो महफिल आदि में वेश्या बैठकर गाती हो।
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मुजराई  : पुं० [फा० मुजरा] १. वह जो राजा, रईसों आदि के सामने झुककर मुजरा अर्थात् अभिवादन करता हो। जैसे—दरबार में बहुत से मुजराई उपस्थित थे। २. वह जो बड़े आदमियों को नित्य आकर सलाम कर जाने के बदले में ही वेतन पाता हो। स्त्री० [हिं० मुजरा+ई (प्रत्यय)] १. रकम मुजरा करने अर्थात् काटने की क्रिया या भाव। २. मुजरा की हुई अर्थात् काटकर घटाई हुई रकम।
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मुजराकंद  : पुं० [सं० मुंजर] एक प्रकार का कंद। मुंजात।
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मुजरिम  : वि० [अ० मुजिम] १. जिसने कोई जुर्म या अपराध किया हो। २. जिस पर जुर्म या अपराध का आरोप हुआ या लगाया गया हो। अभियुक्त।
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मुजर्रद  : वि० [अ०] १. अकेला। एकाकी। २. बिन-ब्याहा। कुँआरा। ३. संसार-त्यागी। विरक्त।
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मुजर्रब  : वि० [अ०] १. जो तजरुबा करने पर ठीक जान पड़ा हो। २. आजमाया हुआ। परीक्षित। जैसे—मुजर्रब दवा।
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मुजल्लद  : वि० [अ०] (पुस्तक) जिस पर जिल्द बँधी या मढ़ी हो। जिल्ददार। जिल्द से युक्त।
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मुंजवान् (वत्)  : पुं० [सं० मुंज+मतुप्] १. एक तरह की सोमलता (सुश्रुत) २. कैलाश के पास का एक पर्वत।
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मुजव्वज़ (जा)  : वि० [अ० मुजव्वज़ः] १. तजबीब किया हुआ। प्रस्तावित। २. निर्णीत।
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मुजस्सिम  : वि० [अ०] १. जो जिस्म या शरीर के रूप में हो। २. शरीरधारी। साकार। अव्य०१. प्रत्यक्ष रूप में० स्पष्टतः। २. शरीर-सहित। स-शरीर। ३. शरीरधारी के रूप में।
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मुजस्सिमा  : पुं० [अ०] मूर्ति। प्रतिमा।
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मुजहिर  : वि० [अ० मुज्हिर] जाहिर अर्थात् प्रकट या स्पष्ट करनेवाला। पु० १. गवाह। साक्षी। २. गुप्तचर।
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मुंजातक  : पुं० [सं० मुंज√अत् (जाना)+अच्+कन्] १. मूँज। २. मुजरा नामक कन्द।
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मुंजाद्रि  : पुं [सं० मुंज-अद्रि, मध्य० स०] पुराणानुसार एक पर्वत।
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मुजाफर  : वि० [अ० जाफरान से] जिसमें जाफरान या केसर मिला हुआ हो। केसरिया। पुं० एक प्रकार का मीठा पुलाव जिसमे केसर यथेष्ठ मात्रा में पड़ा होता है। केसरिया भात। (मुसल०)
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मुजायका  : पुं० [अ० मुजायकः] हानि। नुकसान।
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मुजारा  : वि० [अ० मुज़ारअ] समान तुल्य। पुं० कृषक। खेतिहर।
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मुजारिया  : वि० [अ०] जो जारी किया या कराया गया हो। जैसे—मुजारिया डिगरी।
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मुजावर  : पुं० [अ० मुजाबिर] [भाव० मुजावरी] १. पड़ोसी। प्रतिवेशी। २. वह फकीर जो दरगाह की चढ़त लेता हो।
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मुजावरी  : स्त्री० [अ० मुजावरी] मुजावर का कार्य, पद या पेशा।
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मुजाव्विज़  : पुं० [अ०] तजबीज करनेवाला प्रस्तावक।
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मुजाहिद  : वि० [अ०] १. पराक्रमी। २. विधर्मियों से युद्ध करनेवाला।
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मुज़ाहिम  : वि० [अ०] आपत्ति, रोक-टोक या हस्तक्षेप करनेवाला।
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मुज़ाहिमत  : स्त्री० [अ०] १. रोकने या बाधा देने की क्रिया या भाव। रोक-टोक। बाधा। २. आपत्ति।
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मुंजित  : भू० कृ० [सं० मुंज+इतच्] मूँज से बना, ढका या लपेटा हुआ।
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मुज़िर  : वि० [अ०] हानिकारक।
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मुझ  : सर्व० [हिं० मुझे] सर्व ‘मैं’ का वह रूप जो उसे कर्ता और संबंध कारक की विभक्तियों के अतिरिक्त अन्य कारकों की विभक्तियों लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—मुझको, मुझसे, मुझपर आदि। विशेष—जब इस शब्द का प्रयोग सार्वनामिक विशेषण के रूप में होता है तब इसके साथ लगनेवाली विभक्ति से पहले वक्ता से संबंध कोई विशेषण भी आ जाता है जैसे—(क) मुझ गरीब पर यह बोझ मत रखो। (ख) मुझ दुखिया को इतना मत सताओ। (ग) मुझ रोगी से यह आशा मत रखो। ऐसी अवस्था में इसका प्रयोग संबंधकारक में भी होता है। जैसे—मुझ अभागे का यहाँ तुम्हारे सिवा और कौन है।
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मुझे  : सर्व० [सं० मध्यम, प्रा० मज्झम] सर्व ‘मैं’ का कर्म और संप्रदाय में होनेवाला रूप जो उक्त कारकों की विभक्तियों से युक्त समझा जाता है।
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मुट-मरदी  : स्त्री० [हिं० मोटा+मरद] वह स्थिति जिसमें मनुष्य अच्छी दशा में पहुँचकर अभिमानी हो जाता और दूसरों को उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगता है।
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मुटकना  : वि० [हि० मोटा+कना (प्रत्यय)] आकार में छोटा या साधारण और सुन्दर। जैसे—मुटकना बाग।
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मुटका  : पुं० [हिं० मोटा] एक प्रकार का रेसमी वस्त्र। वि० [स्त्री० मुटकी] मोटा। (व्यंग्य)
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मुटकी  : स्त्री० [देश०] कुलथी नामक अन्न। खुरथी। वि० स्त्री० हिं० ‘मुटका’ का स्त्री।
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मुटमुरी  : पुं० [देश] भादों में होनेवाला एक प्रकार का धान।
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मुटरी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की चिड़िया जिसका सिर, गरदन और छाती, काली तथा बाकी शरीर कत्थई होता है। यह कौए से कहीं बढ़कर चालाक और चोर होती है। स्त्री०=मोटरी (छोटी गठरी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुटाई  : स्त्री०=मोटाई।
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मुटाना  : अ० [हिं० मोटा] १. शारीरिक स्थूलता में वृद्धि होना। मोटा हो जाना। २. किसी प्रकार की विशेषता के कारण अभिमानी होना। स० किसी को मोटा करना।
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मुटापा  : पुं० [हिं० मुटाना+आपा (प्रत्यय)]१. शरीर के मोटे और भारी होने की अवस्था या भाव। २. किसी प्रकार की समृद्धि के कारण मन में होनेवाला अभिमान या शेखी। क्रि० प्र०—चढ़ना।
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मुटार  : स्त्री० [?] १. डुबकी। गोता। २. शरीर को गठरी की तरह बनाने की एक मुद्रा जो जल में कूदने के लिए बनाई जाती है। (बुदेल०) उदाहरण—तैरने के लिए मुटार लगायगा।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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मुटासा  : वि० [हि० मोटा+आसा (प्रत्यय] [स्त्री० मुटासी] (व्यक्ति) जो कुछ या थोड़ा धनवान् होते ही अभिमानपूर्वक आचरण करने लगा हो।
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मुटिया  : पुं० [हि० मोटा=गठरी+इया (प्रत्यय)] बोझ या गट्ठर ढोनेवाला मजदूर।
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मुट्ट-मुहेर  : स्त्री० [देश] युवा स्त्री। (कहार) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुट्ठा  : पुं० [हिं० मूठ] [स्त्री० अल्पा० मुट्ठी] १. किसी चीज का उतना बाँधा या लपेटा हुआ अंश जो हाथ की मुट्ठी में पकड़कर ले जाया जा सकता हो। जैसे—घास-फूस का मुट्ठा, कागजों या सूत का मुट्ठा। २. किसी चीज की पूरी और भरपूर भरी मुट्ठी। जैसे—मुट्ठा भर चावल। ३. किसी चीज का बँधा हुआ पुलिंदा। जैसे—धूप बत्ती का मुट्ठा। ४. औजार आदि पकड़ने का दस्ता। बेंट। मूठ ५. धुनियों का वह औजार जिससे रूई धुनते समय ताँत पर आघात किया जाता है। ६. कपड़े की गद्दी जो प्रायः पहलवान आदि बाँहों पर मोटाई दिखलाने या सुंदरता बढ़ाने के लिए बाँधते हैं।
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मुट्ठी  : स्त्री० [सं० मुठरिका, प्रा० मुट्ठिआ] १. हथेली की वह मुद्रा या स्थिति जिसमें उँगलियाँ अन्दर की ओर मोड़कर जोर से बंद कर ली जाती है। पद—बँधी मुट्ठी=ऐसी स्थिति जिसमें भीतरी रहस्य और लोगों पर प्रकट न हो सकता हो। जैसे—अभी तो घर की बँधी मुट्ठी है, पर चारो भाई अलग हों जायँगे, तब सबका परदा खुल जायगा अर्थात् सबकी भीतरी स्थिति का पता लग जायगा। मुहावरा—(किसी को) मुट्ठी गरम करना=किसी को संतुष्ट या प्रसन्न करने के लिए चुपचाप उसके हाथ में कुछ रुपये रखना। (किसी की) मुट्ठी में होना=पूरी तरह से अधिकार या कब्जे में होना। जैसे—उसकी चोटी हमारी मुट्ठी में है, वह कहाँ जा सकता है। २. उतनी वस्तु जितनी उपरोक्त मुद्रा के समय हाथ में आ सके। जैसे—एक मुट्ठी आटा साधू को दे दो। ३. उक्त स्थिति में लाई हुई हथेली के बराबर का विस्तार जिसका प्रयोग ऊँचाई, लंबाई आदि नापने के लिए होता है। जैसे—इसका किनारा मुट्ठी भर और ऊँचा होना चाहिए। ४. किसी के शरीर के थकावट, दरद आदि दूर करने के लिए उसके अंगों को बार-बार मुट्ठी में पकड़कर दबाने की क्रिया। चंपी। ५. बच्चों की चुसनी जिसे वे मुट्ठी में पकड़कर प्रायः चूसते रहते हैं। ६. घोड़े का दुम और टखने के बीच का भाग।
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मुठ-भेड़  : स्त्री० [हिं० मुट्ठी+भिड़ना] १. ऐसी लड़ाई जिसमें दो व्यक्ति या दल परस्पर एक-दूसरे पर मुट्ठियों से प्रहार करते हैं। २. दो पक्षों विशेषतः शत्रु पक्षों में थोड़ी देर के लिए परन्तु जमकर होनेवाली लड़ाई। ३. सामना। भेंट।
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मुठिका  : स्त्री० [सं० मुष्टिका] १. मुट्ठी। २. घूँसा। मुक्का।
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मुठिया  : स्त्री० [सं० मृष्टिका] १. उपकरण या औजार का दस्ता। बेंट। २. छड़ी, छाते आदि का वह सिरा जो हाथ में पकड़ा जाता है। मूढ़। ३. रूई धुनते समय धुनकी की ताँत पर आघात करने का लकड़ी का उपकरण।
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मुठियाना  : स० [हिं० मुट्ठा+आना (प्रत्यय)] १. मुट्ठी में भरना या लेना। २. बटेरों को लड़ने के लिए उत्तेजित करने के उद्देश्य से बारबार मुट्ठी में भरना। ३. दबाने के उद्देश्य से शरीर के किसी अंग को बार-बार मुट्ठी में भरना और फिर ढीला छोड़ देना। ४. मुट्ठियों से हलका आघात करना।
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मुठी  : स्त्री०=मुट्ठी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुठुकी  : स्त्री०=मुट्ठी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुंड  : पुं० [सं०√मुंड (काटना)+घञ्+अच्] १. सिर। २. कटा हुआ सिर। पद—मुंड-माला। ३. एक दैत्य जो राजा बलि का सेनापति था। (पुराण)। ४. राहु ग्रह। ५. नाई। हज्जाम। ६. वृक्ष का ठूँठ। ७. बोल नामक गन्ध द्रव्य। ८. मंडूर। ९. एक उपनिषद् का नाम। १॰. गौओं का झुंड। वि० १. मूँड़ा या मुंड़ा हुआ। २. जिस पर बाल न हो। ३. अधम। नीच।
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मुड़  : हिं० मूँड़ का संक्षिप्त रूप से उसे यौगिक पदों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—मुड़-चिरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुंड-चिरा  : वि० [हिं० मूँड़+चिरना] जिसका सिरा या ऊपरी भाग चिरा हुआ हो। पुं० =मुंड-चीरा।
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मुंड-चीरा  : पुं० [हिं० मुंड+चीरना] १. एक प्रकार के मुसलमान फकीर जो भीख न मिलने पर धारदार या नुकीले हथियार से अपनी आँख, सिर या और कोई अंग चीरकर उसमें से खून निकालने लगते हैं। २. ऐसा व्यक्ति जो बहुत ही घृणित तथा वीभत्स रूप से लड़-झगड़कर अपना काम निकालता हो। उदाहरण—लड़-भिड़कर जो काम चलावे, मुंडचीरा है।—मैथिलीशरण। ३. वह जो लेन-देन में बहुत अधिक हुज्जत करता हो।
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मुड़-परैना  : पुं० [हिं० मूँड़=सिर+पारना=रखना] फेरी करके सौदा बेचनेवालों का बकुचा जिससे वे ब्रिकी की चीज़ें रखते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुंड-फल  : पुं० [सं० ब० स०] नारियल।
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मुंड-मंडली  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. अशिक्षित सेना। २. अशिक्षितों का दल।
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मुंड-माल  : पुं० =मुंडमाला।
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मुंड-माला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. काटे हुए सिरों की माला जो शिव या काली देवी के गले में होती है। २. बंगाल की एक नदी।
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मुंडक  : पुं० [सं० मुंड+कन्] १. सिर। २. नाई। हज्जाम। ३. एक उपनिषद्। वि० मुंडन करने या मूँड़नेवाला।
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मुड़क  : स्त्री० [हिं० मुड़कना] मुड़कने की क्रिया या भाव।
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मुड़कना  : अ० [हिं० मुड़ना] १. लचक कर किसी ओर झुकना या घूमना। २. किसी अंग का झटके आदि के कारण किसी ओर तन जाना। जैसे—कलाई या पहुँचा मुड़कना। ३. वापस आना। लौटना। ४. हिचकना। रुकना। ५. चौपट या नष्ट होना। ६. दे० ‘मुड़ना’।
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मुंडकरी  : स्त्री० [हिं० मूँड़+करी (प्रत्यय)] वह स्थिति जिसमें कोई घुटनों में सिर रखकर बैठता है। क्रि०प्र, -मारना।
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मुड़काना  : स० [हिं० मुरकना का स० रूप] १. ऐसा काम करना जिसमें कुछ मुड़के। मुड़कने में प्रवृत्त करना। जैसे—किसी का हाथ मुड़कना। २. वापस लाना। लौटाना। ३. चौपट या नष्ट करना। ४. दे० ‘मोड़ना’।
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मुंडकारी  : स्त्री०=मुँड़करी।
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मुड़चिरा  : वि० =मुँड़चिरा।
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मुंडचिरापन  : पुं० [हिं० मुँडचिरा+पन (प्रत्यय)] मुंडचिरा या मुंडचीरा होने की अवस्था या भाव।
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मुंडन  : पुं० [सं०√मुंड (खंड करना)+ल्युट-अन] १. सिर के बाल उस्तरे से मूँड़ने की क्रिया। २. एक संस्कार जिसमें बालक के बाल पहली बार उस्तरे से मूँड़े जाते हैं। ३. उक्त समय पर होनेवाला उत्सव या सामारोह।
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मुंडनक  : पुं० [सं० मुंडन+कन्] १. बोरो धान। २. बड़ का पेड़। वि० मुंडन करनेवाला।
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मुंडना  : अ० [सं० मुंडन] १. सिर या किसी अंग का मूँड़ा जाना। मुंडन होना। २. बुरी तरह से ठगा या लूटा जाना। विशेषतः आर्थिक हानि सहना। संयो० क्रि०—जाना।
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मुड़ना  : अ० [सं० मुरण=लिपटना, फेरा खाना, हिं० मोड़ना क अ० रूप] १. किसी सीधी, कड़ी या ठोस चीज का किसी ओर झुक जाना। २. गतिशील अथवा स्थित व्यक्ति या पदार्थ का किसी दूसरी दिशा की ओर उन्मुख या प्रवृत्त होना। ३. किसी धारदार किनारे या नोक का इस प्रकार झुक जाना कि वह आगे की ओर न रह जाय। जैसे—छुरी की धार मुड़ना। ४. वापस आना। लौटाना। ५. किसी काम या बात से विरत होना। ६. जमीन पर गिरना। उदाहरण—बिबेक सहाई सहित सो सुभग संजुग महि मुरे।—तुलसी। ७. जमीन पर इधर-उधर लोटना। ८. संकोच करना। हिचकना। उदाहरण—गयो सभागम नेकु न मुरा। (मुड़ा)—तुलसी।
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मुंडमालिनी  : स्त्री० [सं० मुंडमालिन्+ङीष्] काली देवी।
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मुंडमाली (लिन्)  : वि० [सं० मुंडमाला+इनि] शिव।
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मुड़ला  : वि० मुंड़ा (बिना बालोंवाला)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुड़वाना  : स०=मुँड़वाना (मुंड़न कराना।।
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मुड़वारी  : स्त्री० [हिं० मूँड़+वारी (प्रत्यय)] १. मुँड़ेरा। २. सिरहाना। ३. सिर की ओर का अंश या भाग।
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मुड़ह  : वि० =मूढ़ (मूर्ख)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुड़हर  : पुं० [हिं० मूँड़+हर (प्रत्यय)] १. साड़ी का वह अंश जो सिर पर पड़ता है। २. सिर का अगला भाग।
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मुड़हा  : वि० =मूढ़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुंडा  : वि० [सं० मुंडित] [स्त्री० मुंडी] १. जिसके सिर पर बाल न हो। २. जिसका सिर मुँड़ा हुआ हो। पुं० १. वह जो सिर मुँड़ाकर किली साधु या संन्यासी का शिष्य हो गया हो। २. ऐसा पशु जिसके सींग होने चाहिए, पर न हों। जैसे—मुंडा बैल। ३. वह जिसके ऊपर या इधर-उधर फैलनेवाले अंग न हों। जैसे—मुंडा पेड़। ४. बालक। लड़का। (पश्चिम)। ५. कोठीवाली महाजनी लिपि जिसके अक्षरों पर शीर्ष-रेखा तथा आगे-पीछे मात्राएँ नहीं होती। ६. एक प्रकार का देशी जूता जिसमें आगे की ओर नोक नहीं होती। ७. कराँकल से कुछ बड़ा एक प्रकार का पक्षी जिसका सिर और गरदन काली तथा बिना बालों की होती है। यह धान के खेतों में मेढ़कों की तलाश में किसानों के हल के इतने पास चलता है वे परिहास में इसे ‘हर जोता’ भी कहते हैं। पुं० [?] एक प्राचीन अनार्य जन-जाति जिसके वंशज अब तक पलामू, राँची, हजारीबाग आदि स्थानों में पाये जाते हैं। स्त्री० भाषा-विज्ञान के अनुसार कुछ विशिष्ट अनार्य बोलियों का एक वर्ग जिसके अन्तर्गत पंजाब के उत्तरी भाग से न्यूजीलैंड और मैडागास्कर द्वीप तक बोली जानेवाली कई बोलियाँ आती हैं। इनमें भारतीय क्षेत्र की उराँव, निषाद, शबर आदि बोलियाँ प्रमुख हैं। स्त्री० [सं० मुंड+टाप्] गोरखमुंडी।
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मुँड़ा-हिरन  : पुं० [हिं० मुंडा+हिरन] पाठी मृग।
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मुँड़ाई  : स्त्री० [हिं० मूँड़ना+आई (प्रत्यय)] १. मूँडने या मुँड़ाने की क्रिया या भाव। २. मूंड़ने का पारिश्रमिक या मजदूरी।
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मुँड़ाना  : स० [हिं० मूँड़ना का प्रे०] मूँड़ने का काम किसी दूसरे से कराना। मुंडन कराना।
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मुड़ाना  : स०१. =मुँड़ाना। २. =मुँड़वाना।
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मुँड़ासा  : पुं० [हिं० मुंड़=सिर+आसा (प्रत्यय)] सिर पर बाँधने का साफा। क्रि० प्र०—कसना।—बाँधना। स्त्री०=मुंडा (महाजनी लिपि)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुँड़ासाबंद  : पुं० [हिं० मुंड़ासा+बंद (प्रत्यय)] दस्तारबंद।
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मुँड़िआ  : वि० [हिं० मूँड़ना] जिसका सिर मूँड़ा हुआ हो। पुं० १. वह जो सिर मुँड़ाकर विरक्त, संन्यासी या साधु हो गया हो। २. करघे में का वह हत्था जिससे राछ चलाते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुँड़िका  : स्त्री० [सं० मुंडा़+कन्, टाप्, ह्रस्व, इत्व] १. छोटा मुंड। २. मुंडी। सिर। ३. संख्या के विचार से व्यक्तिवाचक शब्द। जैसे—वहाँ चार मुंडिकाएँ बैठी थी, अर्थात् चार आदमी बैठे थे।
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मुंडित  : पुं० [सं०√मुंड+क्त] लोहा। भू० कृ० १. जिसका मुंडन हुआ हो। २. जो मूँड़ा गया हो। जैसे—मुंडित मस्तक।
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मुंडितिका  : स्त्री० [सं० मुंडित+कन्+टाप्, इत्व] गोरखमुंडी।
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मुँड़िया  : स्त्री०=मूँड़ (सिर)। पुं० =मुँड़िआ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुड़िया  : पुं० [हिं० मूँड़ना+इया (प्रत्यय)] १. वह जिसका सिर मूँडा हुआ हो। २. वह जो सिर मुंड़ाकर संसार-त्यागी या विरक्त हो गया हो। स्त्री० [देश] एक प्रकार की मछली।
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मुंडी (डिन्)  : पुं० [सं० मुंड+इनि] १. वह जिसका मुंडन हुआ हो। २. संन्यासी या साधु। ३. [√मुंड+णिच्+णिनि] नाई। नापित। हज्जाम। स्त्री० [हिं० मुंडा का स्त्री] १. वह स्त्री जिसका सिर मुँड़ा हो। २. विधवा (गाली के रूप में) ३. एक प्रकार की बिना नोकवाली जूती। स्त्री०=मूँड़ी (सिर)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुँड़ीरिका  : स्त्री० [सं०√मुंड+ईच्+कन्+टाप्, इत्व] गोरखमुंडी।
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मुँडेर  : स्त्री० [हिं० मुँडेरा] १. मुँड़ेरा। २. खेत की मेंड़। क्रि० प्र०—बँधना।—बाँधना।
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मुँडेरा  : पुं० [हिं० मूँड़=सिर+एरा (प्रत्यय)] १. दीवार का वह ऊपरी भाग जो ऊपर की छत के चारों ओर कुछ उठा होता है। २. किसी प्रकार का बाँधा हुआ पुश्ता।
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मुडेरा  : पुं० =मुँड़ेरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुँडेरी  : स्त्री०=मुँडेर।
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मुंडो  : स्त्री० [हिं० मुँड़ना=ओ (प्रत्यय)] १. वह स्त्री जिसका सिर मूँड़ा गया हो। २. विधवा। राँड़। ३. स्त्रियों के लिए उपेक्षासूचक सम्बोधन जिसका प्रयोग प्राय गाली के रूप में होता है। जैसे—घर में दिया न बाती, मुंडो फिरे इतराती। (कहा०)
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मुड्ढ  : पुं० [सं० मूर्द्धा] १. प्रधान या मुख्य व्यक्ति। २. बहुत बड़ा धूर्त। उदाहरण—घड़ी मिलने की उतनी खुशी न थी जितनी एक मुड्ढ पर विजय पाने की थी।—प्रेमचंद्र।
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मुँढ़िया  : स्त्री० [हिं० मोढ़ा+इया (प्रत्यय)] बैठने का छोटा मोढ़ा।
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मुणणना  : अ०=मुनमुनाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुतअइयन  : वि० [अ०] तैनात या नियुक्त किया हुआ। (व्यक्ति)।
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मुतअछी  : वि० [अ०] १. मर्यादा का उल्लंघन या सीमा का अतिक्रमण करनेवाला। २. छुतहा। संक्रामक ३. व्याकरण में सकर्मक (क्रिया)।
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मुतअर्रिज़  : वि० [अ०] १. अर्ज करनेवाला। २. याचक।
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मुतअल्लिक  : वि० [अ०] संबंद्ध। संबंधित। अव्य० किसी के विषय या सम्बन्ध में।
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मुतअल्लिका  : वि० [अ० मतअल्लिकः] संबंध।
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मुतअल्लिकीन  : पुं० [अ०] घर के लोग, बाल-बच्चे और निकटस्थ संबंधी।
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मुतअल्लिम  : पुं० [अ०] १. तालीम पाने अर्थात् इल्म सीखनेवाला। शिक्षार्थी। २. छात्र। ३. पाठक।
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मुतअस्सिफ़  : वि० [अ०] तास्सुफ अर्थात् पश्चाताप करनेवाला। पछतानेवाला।
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मुतअस्सिर  : वि० [अ०] १. प्रभावित। २. कठिन। दुष्कर।
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मुतकल्लिम  : वि० [अ०] कलाम अर्थात् भाषण या बात-चीत करनेवाला।
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मुंतकिल  : वि० [अ०] १. जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया या हटाया गया हो। २. जो एक के अधिकार या स्वामित्व से निकलकर दूसरे के अधिकार या स्वामित्व में चला गया हो। हस्तान्तरित। जैसे—जायदाद मुंतकिल करना।
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मुतक्का  : पुं० [हिं० मूँड़+टेक] १. छोटा मुँडेरा। २. खंभा। ३. मीनार। लाट।
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मुंतखिब  : वि० [अ०] १. इंतखाब किया हुआ। चुना या छाँटा हुआ। २. बढ़िया।
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मुतंजन  : पुं० [फा०] एक प्रकार का खट-मीठा पुलाव।
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मुंतजिम  : पुं० [अ०] इन्तजाम या व्यवस्था करनेवाला। प्रबंधक। व्यवस्थापक।
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मुंतजिर  : वि० [अ०] इंतजार या प्रतीक्षा करनेवाला।
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मुतदायरा  : वि० [अ० मुतदायरः] (मुकदमा) जो दायर किया गया हो।
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मुतनाजा  : वि० [अ० मुतनाजः] जिसके विषय में कोई झगड़ा हो। विवादास्पद। पुं० =तनाजा (झगड़ा)।
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मुतफ़न्नी  : वि० [अ०] बहुत तरह के फन या चालकियाँ जाननेवाला अर्थात् बहुत बड़ा धूर्त चालाक।
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मुतफरकात  : स्त्री० [अ० मुतफ़र्रिकात] भिन्न-भिन्न पदार्थ।
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मुतफ़र्रिक़  : वि० [अ०] १. भिन्न-भिन्न। विभिन्न। २. अनेक या कई प्रकार के। विधिक।
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मुतफ़र्रिकात  : स्त्री० दे० ‘मुतफरकात’।
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मुतबर्रिक  : वि० [अ०] १. बरकत देनेवाला। २. पवित्र।
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मुतमौवल  : वि० [अ० मुतमव्विल] धनवान। धनी० सम्पन्न।
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मुतरजिम  : पुं० [अ० मुतर्जिम] तरजुमा करनेवाला। अनुवादक।
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मुतरद्दिद  : वि० [अ०] जिसके मन में बहुत तरद्दद हो। चिंतित। फिक्रमंद।
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मुतरादिक़  : वि० [अ०] १. समानार्थक। २. पर्यायवाची। अव्य० निरंतर। लगातार।
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मुतरिब  : पुं० [अ०] गायक। गवैया।
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मुतर्रिसी  : स्त्री० [अ०] १. मुदर्रिस का काम, पद या भाव। अध्यापन।
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मुतलक़  : अव्य० [अ०] कुछ भी। जरा भी। तनिक भी। (केवल नहिक पदों में) जैसे—इनमें मुतलक नमक नहीं है। वि० निपट। निरा। बिलकुल।
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मुतवक्किल  : वि० [अ०] ईश्वर में विश्वास तथा उस पर भरोसा रखनेवाला।
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मुतवज्जेह  : वि० [अ०] जिसने किसी ओर तवज्जेह की हो। जिसने ध्यान दिया हो। प्रवृत्त।
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मुतवफ्फ़ी  : वि० [अ०] मृत। स्वर्गीय।
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मुतवल्ली  : वि० [अ०] जो किसी नाबालिग़ और उसकी संपत्ति का अर्थात् रक्षक बनाया गया हो।
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मुतवस्सित  : वि० [अ०] औसत दरजे का। मध्यम।
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मुतवातिर  : अव्य० [अ०] निरंतर। लगातार। सतत।
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मुंतशिर  : वि० [अ०] १. बिखरा हुआ। २. चिंतित। उद्धिग्न। परेशान।
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मुतसदी  : पुं० [अ०] १. लिपिक। मुंशी। २. पेशकार। ३. किसी काम के लिए नियुक्त किया हुआ उत्तरदायी कर्मचारी। ४. प्रबन्धकर्त्ता व्यवस्थापक। ५. मुनीम
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मुतसिरी  : स्त्री० [हिं० मोती+सं० श्री०] गले में पहनने की मोतियों की कंठी।
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मुतसौवर  : वि० [अ० मुत्सव्विर] जिसका तसव्वर या कल्पना की गई हो। खयाल में लाया या कल्पित किया हुआ।
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मुतहम्मिल  : वि० [अ०] तहम्मुल अर्थात् बरदाश्त करनेवाला। सहनशील। सहिष्णु।
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मुतहर्रिक  : वि० [अ०] १. हरकत करनेवाला। गतिशील। २. स्वरयुक्त (वर्ण)।
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मुंतही  : पुं० [अ०] १. इंतिहा या हद तक पहुँचनेवाला। २. पारगामी। पारंगत। विद्वान।
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मुतान  : स्त्री० [हिं० मूतना] १. मूतने की क्रिया या भाव। जैसे—बरध-मुतान। २. पशुओं की मूत्रेंद्रिय।
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मुताबकत  : स्त्री० [अ०] १. मुताबिक होने की अवस्था या भाव। २. अनुरूपता। सादृश्य।
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मुताबिक  : अव्य० [अ०] अनुसार। बमूजिब। वि० १. अनुकूल। २. अनुरूप। ३. समान।
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मुतालबा  : वि० [अ० मुतालिबः] जो तलब किया जाने को हो। पुं० १. प्राप्य धन। बाकी रुपया। २. तलब करने की क्रिया या भाव।
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मुताला  : पुं० [अ० मुतालअ] १. पढ़ना। अध्ययन। २. याद करने के लिए पढ़ा हुआ पाठ दोहराना।
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मुतास  : स्त्री० [हिं० मूतना+आस (प्रत्यय)] मूतने की इच्छा या प्रवृत्ति। पेशाब करने की ख्वाहिश।
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मुताह  : पुं० [अ० मुतअ] मुसलमानों में एक प्रकार का अस्थायी विवाह जो निकाह से नीचे दरजे का समझा जाता है।
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मुताहल  : पुं० =मुत्ताफल (मोती) उदाहरण—नासा अग्नि मुताहल निहसति।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुताही  : वि० [हिं० मुताह+ई (प्रत्यय] जिसके साथ मुताह किया गया या हुआ हो। स्त्री० रखेली स्त्री। उपपत्नी। रखेली।
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मुतिलाडू  : पुं० [हिं० मोती+लड्डू] मोतीचूर का लड्डू।
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मुतेहरा  : पुं० [हिं० मोती+हार] कलाई पर पहनने का एक तरह का आभूषण।
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मुत्तफिक  : वि० [अ० मुत्तफ़िक़] जिनमें किसी विषय में इत्तफाक या मतैक्य हो। एक-मत। सह-मत।
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मुत्तला  : वि० [अ०] जिसे इत्तिला दी गई हो। सूचित या आगाह किया हुआ।
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मुत्तसिल  : वि० [अ०] जो किसी के पास या साथ लगा या सटा हुआ हो। संलग्न। क्रि० वि० निरंतर। लगातार।
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मुत्तहिद  : वि० [अ० मुत्तहद] १. इत्तिहाद रखनेवाला। २. किसी के साथ मिला, लगा या सटा हुआ। ३. मेल-मिलाप करानेवाला।
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मुत्ती  : स्त्री० [सं० मूत्र] मूत्र। पेशाब (बालक) पुं०=मोती। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुथा  : पुं० [सं०] ज्योतिष में नक्षत्रों का एक समूह जिसके प्रभाव में कोई जन्म लेता है।
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मुद  : पुं० [सं०] मोद। प्रसन्नता।
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मुदग-दला  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] बनमूँग।
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मुदग-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०+ङीष्] बनमूँग।
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मुदग-भोजी (जिन्)  : पुं० [सं० मुदग√भुज् (खाना)+णिनि, उप० स०] घोड़ा।
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मुदग-मोदक  : पुं० [सं० ष० त०] मूँग का लड्डू।
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मुदगर  : पुं० दे० ‘मुगदर’।
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मुँदना  : अ० [सं० मुद्रण] १. बंद होना। जैसे—आँख मुँदना। २. अन्त तक पहुँचना। समाप्त होना। जैसे—दिन मुँदना। ३. छेद आदि का बन्द होना। संयो० क्रि०—जाना।
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मुदब्बिर  : वि० [अ०] १. बुद्धिमान। २. प्रबंध-कुशल। ३. राज-नीतिज्ञ।
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मुदम्मिग  : वि० [अ०] अभिमानी।
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मुंदरा  : पुं० [हिं० मुँदरी] १. वह कुंडल जो जोगी लोक कान में पहनते हैं। २. कान में पहनने का एक प्रकार का गहना।
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मुदरा  : पुं० [देश] अफीम, भाँग, शराब और धतूरे के योग से बनाया जानेवाला एक तरह का मादक पेय।
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मुँदरी  : स्त्री० [सं० मुद्रा] १. उँगली में पहनने का सादा छल्ला २. अँगूठी।
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मुदर्रिस  : पुं० [अ०] [भाव० मुदर्रिसी] लड़कों को पढ़ानेवाला व्यक्ति। अध्यापक।
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मुदवंत  : वि० [सं० मोद+हिं० वंत (प्रत्यय)] हर्षयुक्त। मुदित। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुंदा  : पुं० =मुँदरा।
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मुदा  : स्त्री० [सं०√मुद् (प्रसन्न होना)+क+टाप्] मोद। आनंद। पुं० [अ० मद्आ] १. अभिप्राय। तात्पर्य। २. अर्थ। आशय।
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मुदाखलत  : स्त्री० [अ०] १. दखल देना। हस्तक्षेप। २. रोक-टोक। पद—मुदालत बेजा=दूसरे के घर या जमीन में उसकी इजाजत के बिना चला जाना। अनाधिकार प्रवेश।
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मुदाम  : वि० [फा०] नित्य। शास्वत। अव्य० निरंतर। लगातार। पुं० शराब।
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मुदामी  : वि० [फा०] सदा बना रहनेवाला सार्वकालिक। स्त्री० [फा०] नित्यता। वि० =मुदाम।
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मुदित  : भू० कृ० [सं०√मुद्+क्त] मोद से युक्त। हर्षित। प्रसन्न। पुं० आलिंगन का एक प्रकार।
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मुदिता  : स्त्री० [सं० मुदित+टाप्] १. मोद। हर्ष। २. साहित्य में परकीया नायिकाओं में से एक जो मनोवांछित प्रकार की स्थिति तथा प्रिय की प्राप्ति से अत्यधिक प्रसन्न हो। ३. योगशास्त्र में समाधि के योग्य संस्कार उत्पन्न करनेवाला एक परिकर्म जिससे पुण्यात्माओं को देखकर हर्ष उत्पन्न होता है।
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मुदिर  : पुं० [सं०√मुद्+किरच्] १. बादल। मेष। २. कामुक व्यक्ति। ३. मेंढ़क।
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मुदौवर  : वि० [अ०] गोल। मंडलाकार।
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मुद्ग  : पुं० [सं०√मुद्+गक्] मूँग नामक अन्न।
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मुद्गर  : पुं० [सं० मुद्√गृ (लीलना)+अच्] १. पुरानी चाल का एक तरह का दंड जिसके सिरे पर गोल पत्थर का भारी टुकड़ा लगा होता था। २. कसरत करने का मुगदर नामक उपकरण। ३. एक प्रकार की मछली। ४. मोगरा नामक पौधा और उसका फूल।
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मुद्गरांक  : पुं० [सं० मुद्गर-अंक, ष० त०] प्राचीन भारत में मुद्गर का वह चिन्ह जो धोबियों के यहाँ वस्त्रों पर पहचान के लिए लगाया जाता था।
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मुद्गल  : पुं० [सं० मुदग√ला (लेना)+क] १. एक उपनिषद् का नाम। २. एक गोत्रकार मुनि ३. रोहित नामक तृण। रूसा घास।
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मुद्दआ  : पुं० [अ० मुदआ] १. उद्देश्य। तात्पर्य। २. अर्थ। मतलब।
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मुद्दइया  : स्त्री० [अ० मुद्दईय, मुद्दई का स्त्री० रूप] दावा करनेवाली स्त्री।
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मुद्दई  : पुं० [अ०] [स्त्री० मुद्दइया] १. वह जो किसी चीज पर अपना दावा या अधिकार प्रकट करता हो। दावेदार। २. वह जिसने अदालत में किसी पर दावा किया हो। ३. दुश्मन। शत्रु।
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मुद्दत  : स्त्री० [अ०] १. किसी काम या बात के लिए नियत किया हुआ समय। अवधि। जैसे—इस हुंडी की मुद्दत पूरी हो गई है। मुहावरा—मुद्दत काटना=थोक माल का मूल्य अवधि से पहले देने पर अवधि के बाकी दिनों तक का सूद काटना। (कोठीवाल)। २. बहुत दिनों का समय। दीर्घ काल। जैसे—यह एक मुद्दत की बात है। ३. देर। विलंब।
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मुद्दती  : वि० [अ० मुद्दत+हिं० ई (प्रत्यय)] १. जिसमें कोई अवधि हो। जैसे—मुद्दती हुँड़ी। २. बहुत दिनों का। पुराना।
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मुद्दा  : पुं० [अ० मुद्आ] अभिप्राय। आशय। अव्य० अभिप्राय या आशय यह कि। तात्पर्य यह कि।
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मुद्दाअलेह  : पुं० =मुद्दालेह।
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मुद्दालेह  : पुं० [अ० मुद्आ अलेह] वह व्यक्ति जिस पर दावा हुआ या किया गया हो। प्रतिवादी।
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मुद्ध  : वि० =मुग्ध। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुद्धी  : स्त्री० [देश०] रस्सी आदि की एक प्रकार की गाँठ जिसके अन्दर से दूसरी रस्सी इधर-उधर खिसक सकती है।
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मुद्र  : पुं० [सं०√मुद्+रक्] छपाई के काम में आनेवाला सीसे का अक्षर। (टाइप) वि० [स्त्री० मुद्रा] मोद देनेवाला। हर्षकारक।
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मुद्र-धातु  : स्त्री० [सं० ष० त०] सीसे के योग या मिश्रण से बनी हुई वह धातु जिससे मुद्रण या छापे के अक्षर ढाले जाते हैं। (टाइप मेटल)।
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मुद्र-लिख  : पुं० [सं०] टाइप करने की मशीन (टाइपराइटर)।
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मुद्र-लेखक  : पुं० [ष० त०] टाइप करनेवाला (टाइपिस्ट)
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मुद्रक  : वि० [सं०√मुद्+णिच्+ण्वुल्—अक] मुद्रण करनेवाला। पुं० १. मुद्रण कला का ज्ञाता। २. छापेखाने का वह अधिकारी जिसकी देख-रेख में छपाई संबंधी सब कार्य होते हों।
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मुद्रण  : पुं० [सं०√मुद्+णिक्+ल्युट—अन] १. मुद्रा से अंकित करने की क्रिया या भाव। छाप लगाना। २. ठीक तरह से काम चलाने के लिए नियम आदि बनाना या लगाना। ३. आज-कल ठप्पे, सीसे के अक्षरों आदि से कागज, पुस्तकें, पत्र आदि छापने की क्रिया या भाव।
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मुद्रणा  : स्त्री० [सं०√मुद्+णिच्+युच-अन+टाप्] अँगूठी।
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मुद्रणालय  : पुं० [सं० मुद्रण-आलय, ष० त०] १. वह स्थान जहाँ किसी प्रकार का मुद्रण होता हो। २. आज-कल पुस्तकें आदि छापने का कारखाना छापाखाना। प्रेस।
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मुद्रा  : स्त्री० [सं० मुद्र+टाप्] १. किसी चीज पर चिन्ह, नाम आदि अंकित करने की मोहर (सील) २. ऐसी अँगूठी जिस पर किसी का नाम या और कोई वैयक्तिक चिन्ह अंकित हो। विशेष—प्राचीन भारत में राजा, व्यापारी आदि ऐसी ही अँगूठी से लेख्यों आदि को प्रमाणिक सिद्ध करने के लिए उन पर अपनी मोहर करने या छाप लगाने का काम लेते थे। ३. उक्त के आधार पर प्राचीन भारत में किसी मार्ग से आने-जाने का राजकीय अधिकार-पत्र जिस पर उक्त प्रकार की छाप अंकित रहती है। राहदारी का परवाना। ४. विष्णु के शंख, चक्र, आदि आयुधों के वे चिन्ह जो वैष्णव भक्त तथा साधु अपनी छाती, बाँह आदि अंगों पर अंकित कराते या तपे हुए लोहे से दगवाते हैं। ५. राज्य द्वारा प्रचलित भिन्न-भिन्न मूल्योंवाले वे सभी धातु-खंड जिन पर राज्य की छाप होती है और जो किसी देश में क्रय-विक्रय के माध्यम या साधन के रूप में प्रचलित होते हैं। सिक्का (क्वायन)। जैसे—प्राचीन काल की अनाहत मुद्रा, आधुनिक काल की आहत मु्द्रा। ६. आजकल सभी ऐसी चीजें जो क्रय-विक्रय के सुभीते या देना-पावना चुकाने के लिए उक्त साधन के रूप में राज्य या राष्ट्र के द्वारा मान्य कर ली गई हों, और जो जनता में निःसंकोच भाव से लेन-देन के काम में आती हों। द्रव्य। धन। (मनी) जैसे—सरकारी नोट, सिक्के आदि। ७. किसी विशिष्ट देश या राष्ट्र में प्रचलित उक्त प्रकार के सभी उपकरण या साधन। चलार्थ। (करेन्सी) जैसे—भारतीय मुद्रा, रूसी मुद्रा, सुलभ मुद्रा आदि। ८. गोरखपंथी साधुओं का कान में पहनने का काठ, स्फटिक आदि का कुंडल या वलय। ९. खड़े रहने, बैठने आदि के समय शरीर के अंगों की कोई विशिष्ट स्थिति। ठवन। (पोसचर) १॰. आँख, नाक, मुँह हाथ आदि की कोई ऐसी क्रिया जिससे मन की कोई विशिष्ट प्रवृत्ति या भाव प्रकट होता हो। इंगित। (जेसचर) जैसे—उनके मुख की मुद्रा से ही उनका आशय प्रकट हो गया था। ११. धार्मिक क्षेत्र में, आराधन, ध्यान पूजन आदि के समय कुछ विशिष्ट प्रकार के बैठने के अनेक ढंगों में से कोई ऐसा ढंग जो किसी प्रकार की फल-सिद्धि कराने में सहायक माना जाता है। जैसे—(क) तांत्रिकों की धेनु, मुद्रा, पदम मुद्रा। (ख) हठयोग की खेचरी, गोचरी, भूचरी आदि मुद्राएँ। १२. आधुनिक मुद्रण कला में ग्रंथों, सामयिक पत्रों आदि की छपाई के लिए सीसे के ढले हुए उलटे अक्षर जो छापने पर सीधे आते हैं। (टाइप) १३. साहित्य में एक प्रकार का शब्दालंकार जो श्लेष अलंकार का एक भेद है और जिसमें किसी साधारण वर्णन के आधार पर प्रवृत्त या प्रस्तुत अर्थ तो निकलता ही हो, इसके सिवा शब्दों के कुछ अक्षर अपने आगे-पीछे वाले दूसरे अक्षरों के साथ मिलाने पर कुछ और अर्थ भी निकलता हो। जैसे—की करपा करतार ‘ईश्वर ने कृपा की’ में कीकर, पाकर और तार या ताड़ वृक्ष भी आ जाते हैं। और जा मन फल सा आ मिला (यह मन को वांछित फल के रूप में प्राप्त हुआ) में जा मन या जामुन, फल सा या फालसा आ मिला या आँवला फलों के नाम भी आ जाते हैं इसी प्रकार ‘कच्चोरी पिय हे सखी, पक्कोरी प्रिय नाहिं। बराबरी कैसे करूँ पूड़ी परती नाहिं’। में कचौडी पकौड़ी, बरा, बरी और पूरी नामक पकवानों के नाम भी आ जाते हैं। १४. तांत्रिकों की बोलचाल में भूना हुआ अन्न या उसके दाने। १५. अगस्त्य ऋषि की पत्नी लोपामु्द्रा का संक्षिप्त नाम।
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मुद्रा-कर  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह जो किसी प्रकार की मुद्रा तैयार करता हो। २. प्राचीन भारत में राज्य का वह प्रधान अधिकारी जिसके हाथ में राजा की मोहर रहती थी। ३. वह जो किसी प्रकार का मुद्रण करता हो।
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मुद्रा-कान्हड़ा  : पुं० [सं० मुद्रा+हिं० कान्हड़ा] एक प्रकार का राग जिसमें सब कोमल स्वर लगते हैं।
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मुद्रा-टोड़ी  : स्त्री० [सं० मुद्रा+हिं० टोडी] एक प्रकार की रागिनी जिसमें मात्र कोमल स्वर लगते हैं।
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मुद्रा-तत्त्व  : पुं० [सं० ब० स०] वह शास्त्र जिसके अनुसार किसी देश के पुराने सिक्कों आदि की सहायता से उस देश की ऐतिहासिक बातें जानी जाती है।
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मुद्रा-बाहुल्य, मुद्रा-विस्तार  : पुं० दे० ‘मुद्रा-स्फीति’।
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मुद्रा-यंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] छापने या मुद्रण करने का यंत्र।
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मुद्रा-विज्ञान  : पुं० दे० ‘मुद्रा-तत्त्व’।
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मुद्रा-शास्त्र  : पुं० दे० ‘मुद्रा तत्त्व’।
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मुद्रा-संकोच  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘अवस्फीति’।
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मुद्रा-स्फीति  : स्त्री० [सं० ष० त०] आधुनिक अर्थशास्त्र में वह स्थिति जिसमें कागजी मुद्रा या नोट देश की व्यापारिक आवश्यकताओं से कहीं अधिक प्रचलित कर लिए जाते हैं, और इसी लिए जिसके फलस्वरूप देश में सब चीजें बहुत महँगी बिकने लगती हैं। (इनफ्लेशन)
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मुद्रांक  : पुं० [सं० मुद्रा-अंक, मध्य० स०] १. सरकारी कागज जिस पर अर्जी-दावा लिखा पढ़ी की जाती है। २. डाक का टिकट। ३. छाप। मोहर।
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मुद्रांकन  : पुं० [सं० मुद्रा-अंकन, तृ० त०] [भू० कृ० मुद्रांकित] १. किसी प्रकार की मुद्रा की सहायता से चिन्ह आदि अंकित करने का काम। २. छापने का काम या भाव। छपाई।
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मुद्रांकित  : भू० कृ० [सं० मुद्रा-अंकित, तृ० त०] १. (पदार्थ) जिस पर मुद्रांकन हुआ हो। २. मोहर किया या लगाया हुआ। ३. (व्यक्ति) जिसके शरीर पर विष्णु के आयुध के चिन्ह गरम लोहे से दागकर बनाए गये हों। वैष्णव।
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मुद्राक्षर  : पुं० [सं० मुद्रा-अक्षर, मयू० स०] १. वह अक्षर जिसका प्रयोग किसी प्रकार के मुद्रण के लिए होता है। २. आज-कल सीसे के वे अक्षर जिनमें छापेखाने में पुस्तकें आदि छपती हैं। टाइप।
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मुद्रिक  : स्त्री०=मुद्रिका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुद्रिका  : स्त्री० [सं० मुद्रा+कन्+टाप्] १. अँगूठी। २. कुश की वह अँगूठी जो तर्पण आदि करते समय पहनी जाती है। ३. सिक्का।
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मुद्रित  : भू० कृ० [सं० मुद्रा+इतच्] १. मुद्रण किया हुआ। २. छपा या छापा हुआ। ३. मुँदा हुआ। बंद। ४. त्याग या छोड़ा हुआ। परित्यक्त। ५. काम अर्थात् मैथुन या रति की मुद्रा में स्थित। ६. ब्याहा हुआ। विवाहित।
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मुधा  : अव्य० [सं०√मुह् (मुग्ध होना)+का, पृषो० ह०-ध] व्यर्थ। वि० १. असत्य। मिथ्या। २. व्यर्थ। पुं० १. असत्यता। २. व्यर्थता।
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मुनक्का  : पुं० [अ०] एक प्रकार की बड़ी किशमिश या सूखा हुआ अंगूर।
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मुनगा  : पुं० [सं० मधुगु जन या देश०] सहिंजन।
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मुनफसला  : वि० [अ० मुन्फ़सिल] १. (विवाद या विषय) जिसका फैसला अर्थात् निर्णय हो चुका हो। निर्णीत। २. अलग। पृथक्।
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मुनमुना  : पुं० [देश] १. मैदे का बना हुआ एक प्रकार का पकवान जो रस्सी की तरह बटकर छाना जाता है। २. गेहूँ के खेत में पैदा होनेवाली मोथा नाम की घास जिसमें काले दाने या बीज भी होते हैं। वि० बहुत थोड़ा। अल्प।
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मुनरा  : पुं० [सं० मुद्रा] एक तरह का लोहे का बना हुआ कान का आभूषण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुनरी  : स्त्री०=मुँदरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुनव्वर  : वि० [अ०] १. प्रकाशमान। चमकीला। २. प्रज्वलित।
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मुनहसिर  : वि० [अ० मुन्हसिर] अवलंबित। आश्रित।
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मुनाजरा  : पुं० [अ० मुनाज़रः] १. शास्त्रार्थ। २. तर्कशास्त्र।
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मुनादा  : वि० [अ०] १. आहुत। २. सम्बोधित।
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मुनादी  : स्त्री० [अ०] १. ढिंढोरा। डु्ग्गी। क्रि० प्र०—पिटना।—पीटना क्रि० प्र०—फिरना।—फेरना।
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मुनाफ़ा  : पुं० [अ०] क्रय-विक्रय में आर्थिक दृष्टि से होनेवाला लाभ। नफ़ा।
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मुनाफाखोर  : पुं० [अ०+फा] वह रोजगारी जो बहुत अधिक मुनाफा लेकर माल बेचता हो।
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मुनाफाख़ोरी  : स्त्री० [अ०+फा] मुनाफाखोर होने की प्रवृत्ति या स्थिति।
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मुनारा  : पुं०=मीनार।
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मुनाल  : पुं० [देश] एक प्रकार का बहुत सुंदर पहाड़ी पक्षी जिसकी हरी गरदन पर सुंदर कंठा सा होता है और जिसके सिर पर कलँगी होती है।
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मुनासिब  : वि० [अ०] उचित। वाजिब।
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मुनासिबत  : स्त्री० [अ०] १. मुनासिब होने की अवस्था या भाव। उपयुक्तता। औचित्य। २. पारस्परिक सम्बन्ध।
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मुनि  : पुं० [सं०√मन् (जानना)+इन्] १. वह जो मनन करे। मननशील महात्मा। २. प्राचीन भारत में बहुत मननशील तपस्वी या त्यागी महापुरुष। जैसे—अंगिरा, पुलस्त्य, भृंगु, कदर्दम, पंचशिख आदि। ३. विशिष्ट सात मुनियों के आधार पर सात की संख्या का वाचक पद। ४. जैनों के जिन देव। ५. पियाल या पयार का वृक्ष। ६. पलाश। ७. दमनक। दौना। ८. पुराणानुसार क्रौंच द्वीप का एक देश। स्त्री० दक्ष की एक कन्या जो कश्यप की सब से बड़ी स्त्री थी।
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मुनि-कुमार  : पुं० [ष० त०] १. मुनि का बालक या लड़का। २. अल्प-वयस्क मुनि।
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मुनि-तरु  : पुं० [सं० मध्य० स०] पतंग। बकवृक्ष।
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मुनि-त्रय  : पुं० [ष० त०] पाणिनी, पतंजलि और कात्यायन ये तीनों मुनि।
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मुनि-द्रुम  : पुं० [मध्य० स०] १. श्योनाक (वृक्ष) २. पतंग या बक नामक वृक्ष।
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मुनि-धान्य  : पुं० [ष० त०] तिन्नी का चावल। तिनी।
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मुनि-पादप  : पुं० [मध्य० स०] दे० ‘मुनि द्रुम’।
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मुनि-पित्तल  : पुं० [ष० त०] ताँबा।
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मुनि-पुत्र  : पुं० [ष० त०] दौना। दमनक।
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मुनि-पुत्रक  : पुं० [सं० मुनि-पुत्र+कन्] खंजन पक्षी।
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मुनि-प्रिय  : पुं० [ष० त०] १. एक प्रकार का धान्य जिसे पक्षिराज भी कहते हैं। २. पिंड-खजूर। ३. बिरोजे का पेड़। पियार।
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मुनि-भक्त  : पुं० [ष० त०] तिन्नी का चावल। तिनी।
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मुनि-भेषज  : पुं० [ष० त०] १. अगस्त का फूल। २. हड़। हर्रे। ३. उपवास। लंघन।
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मुनि-भोजन  : पुं० [ष० त०] तिन्नी का चावल। तिनी।
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मुनि-वर  : पुं० [ष० त०] १. श्रेष्ठ मुनि। २. पुंडरीक वृक्ष। पुंडरिया। ३. दमनक। दौना।
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मुनि-वल्लभ  : पुं० [ष० त०] विजयसार। पियासाल।
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मुनि-वृक्ष  : पुं० [मध्य०स] १. श्योनक। २. पतंग। बकवृक्ष।
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मुनि-व्रत  : पुं० [ष० त०] तपस्या।
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मुनि-शस्त्र  : पुं० [ष० त०] सफेद कुश।
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मुनि-सुत  : पुं० [ष० त०] दौना (पौधा)।
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मुनिच्छद्र  : पुं० [सं० ब० स०] मेथी।
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मुनियाँ  : पुं० [देश] अगहन में तैयार होनेवाला एक तरह का धान। स्त्री० लाल नामक पक्षी की मादा।
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मुनी  : पुं० =मुनि।
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मुनींद्र  : पुं० [मुनि-इन्द्र, ष० त०] १. बहुत बड़ा मुनि। मुनियों में श्रेष्ठ। २. गौतम बुद्ध। ३. शिव। ४. एक दानव।
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मुनीब  : पुं० [अ० ०] मुनीम। (दे०)
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मुनीम  : पुं० [अ० मुनीम] [भाव० मुनीमी] १. प्रतिनिधि। २. अभिकर्ता। ३. आज-कल, वह व्यक्ति जो किसी आढ़त, कोठी, दुकान आदि के बही-खाते लिखता हो। ३. खजांची।
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मुनीमी  : स्त्री० [हिं० मुनीम] मुनीम का काम, पद या भाव। वि० मुनीम सम्बन्धी।
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मुनीश  : पुं० [सं० मुनि-ईश, ष० त०] १. मुनियों में श्रेष्ठ। २. विशद। ३. गौतम बुद्ध का एक नाम।
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मुनीश्वर  : पुं० [सं० मुनि-ईश्वर, ष० त०] मुनीश।
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मुनेस  : पुं०=मुनीश। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुनैया  : स्त्री०=मुनिया (मादा लाल)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुन्ना  : पुं० [सं० मानव] [स्त्री० मुन्नी] छोटे बच्चों आदि के लिए प्यार का सम्बोधन। जैसे—देखो मुन्ना, ऐसा काम नहीं करते। वि० प्यारा। प्रिय। पुं० [देश] तारकशी के कारखाने के वे दोनों खूँटे जिनमें जंता लगा रहता है।
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मुन्नूँ  : पुं० =मुन्ना (प्रेम-पूर्ण-सम्बोधन)।
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मुन्यन्न  : पुं० [सं० मुनि-अन्न, ष० त०] तिन्नी का चावल।
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मुफरद  : वि० [अ० मुफद] १. एक। २. अकेला।
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मुफ़र्रस  : पुं० [अ०] फारसी भाषा द्वारा अपनाया हुआ किसी अन्य भाषा का तत्सम या तद्भव शब्द। वि० फारसवालों का फारसी के रूप में लाया हुआ।
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मुफ़र्रह  : वि० [अ० मुफर्रह] फरहत देनेवाला। उल्लसित करनेवाला।
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मुफलिस  : वि० [अ० मुफ्लिस] [भाव० मुफलिसी] निर्धन। धनहीन। गरीब।
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मुफ़लिसी  : स्त्री० [अ० मुफ्लिसी] मुफलिस होने की अवस्था या भाव। गरीबी। निर्धनता।
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मुफसिद  : वि० [अ० मुफ़्सिद] १. फसादी। २. उपद्रवी।
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मुफ़स्सिर  : पुं० [अ०] टीकाकार। भाष्यकार।
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मुफ़स्सिल  : वि० [अ०] १. तफसील अर्थात् ब्योरे के रुप में लाया हुआ। २. स्पष्ट। पुं० किसी बड़े नगर के आस-पास के प्रदेश या स्थान। किसी बड़े शहर के आस-पास की छोटी बस्तियाँ।
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मुफ़ीद  : वि० [अ०] १. लाभकारी। फायदा देनेवाला। २. उपयोगी।
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मुफ़्त  : वि० [अ०] १. जिसकी प्राप्ति बिना कुछ दिये अथवा बिना मूल्य चुकाये हुए हो। २. जो यों ही आपसे आप अथवा बिना प्रयास के मिला हो। मुहावरा—मुफ्त में=(क) योंही। बिना किसी कारण के। जैसे—मुफ्त में हमारी भी जान हलाल हो गई। (ख) निष्प्रोजन। व्यर्थ।
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मुफ़्तखोर  : वि० [फा०] [भाव० मुफ्तखोरी] (व्यक्ति) जो दूसरों का धन लेना तथा खाना जानता हो पर स्वयं कमाकर न खाता हो। मुफ्त में दूसरों का माल हड़पनेवाला।
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मुफ़्तखोरी  : स्त्री० [फा०] १. मुफ्तखोर होने की अवस्था या भाव। २. मुफ्त में दूसरों का माल खाते रहने की आदत या लत।
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मुफ़्तरी  : वि० [अ०] १. झूठा इलजाम लगानेवाला। २. झूठी बातें बनानेवाला। ३. फसादी।
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मुफ़्ती  : पुं० [अ०] फतवा देनेवाला मौलवी। वि० [अ० मुफत] जो बिना दाम दिये मिला हो। मुफ्त का। स्त्री० वर्दी पहनने वाले अधिकारियों, सैनिकों, सिपाहियों आदि के सादे और साधारण कपड़े।
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मुफ्लिस  : वि० =मुफलिस।
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मुबतिला  : वि० [अ० मुब्तला] १. कष्ट या विपत्ति में पड़ा हुआ। दुःख संकट आदि से ग्रस्त। २. आसक्त। मुग्ध।
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मुबर्रा  : वि० [अ०] १. बरी या मुक्त किया हुआ। २. पवित्र। ३. निर्दोष। ४. अलग। पृथक्। ५. विरक्त।
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मुबलिग  : वि० [अ० मुब्लग़] १. जो खरा हो, खोटा न हो। २. रुपए आदि की संख्या का वाचक विशेषण। जैसे—मुबलिंग सौ रुपये वसूल पाये। वि० [अ० मुब्लिग़] भेजनेवाला।
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मुबस्सिर  : वि० [अ०] १. अच्छे-बुरे तथा गुण-अवगुण की परख करनेवाला। पारखी। २. मर्मज्ञ। ३. समीक्षक।
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मुबहिम  : वि० [अ० मुब्हम] १. अस्पष्ट। द्व्यर्थक (बात)
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मुबादला  : पुं० [अ० मुबादिलः] अदला-बदला। आदान-प्रदान।
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मुबारक  : वि० [अ०] १. जिसके कारण बरकत हुई हो। २. कल्याण या मंगल करनेवाला। शुभ। अव्य० एक पद जिसका प्रयोग किसी को शुभ अवसर पर बधाई देने के लिए होता है।
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मुबारक-सलामत  : स्त्री० [अ०] मुबारक देना और सलामती अर्थात् सकुशल चिरंजीव होने की कामना करना।
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मुबारकबाद  : अव्य० [अ० मुबारक+फा० बाद] मुबारक हो। पुं० =मुबारक।
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मुबारकबादी  : स्त्री० [अ० मुबारक+फा० वादी] १. यह कहना कि जो अमुक अच्छा कार्य हुआ है वह आपके लिए मुबारक या शुभ हो। मंगल-कामना प्रकट करने की क्रिया। २. शुभ अवसरों पर गाये जानेवाले गीत।
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मुबारकी  : स्त्री०=मुबारकवादी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुबालगा  : पुं० [अ० मुबालगः] बहुत बढ़ाकर कही हुई बात। अतिशयोक्ति। अत्युक्ति।
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मुबाशरत  : स्त्री० [अ०] मैथुन। संभोग।
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मुबाह  : वि० [अ०] १. शरीअत अर्थात् इस्लामी धर्मशास्त्र के अनुकूल होनेवाला। २. जायज। विहित।
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मुबाहिसा  : पुं० [अ० मुबाहसः] १. तर्क-वितर्क। बहस। २. वाद-विवाद।
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मुब्तदा  : पुं० [अ०] १. आरंभ। २. व्याकरण के वाक्य विन्यास में ‘उद्देश्य’ नामक तत्त्व। वि० आरंभ किया हुआ।
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मुब्तदी  : वि० [अ०] १. आरंभिक। २. नौसिखिया।
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मुब्तला  : वि० [अ०]=मुबतला।
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मुमकिन  : वि० [अ०] जो कार्य रूप में परिणत हो सकता हो। संभव।
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मुमतहिन  : वि० [अ० मुम्तहिन] इम्तहान या परीक्षा लेनेवाला। परीक्षक।
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मुमताज  : वि० [अ० मुम्ताज़] १. बहुतों में से चुनकर अलग किया हुआ। २. विशिष्ट। ३. प्रतिष्ठित।
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मुमानियत  : स्त्री० [अ० मुमानअत] मना करने या होने की अवस्था या भाव। मनाही।
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मुमानी  : स्त्री० [हिं० मामा का उर्दू स्त्री०] मामा की स्त्री। मामी। जैसे—मुँह पर मुमानी, पीठ पीछे गैबानी। (कहा०)
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मुमुक्षा  : स्त्री० [सं०√मुच् (छोड़ना)+सन्+अ+टाप्] मोक्ष की कामना।
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मुमुक्षु  : वि० [सं०√मुच् (छोड़ना)+सन्+ड] [भाव० मुमुक्षता] जिसे मोक्ष की कामना हो।
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मुमुक्षुता  : स्त्री० [सं० मुमुक्षु+तल्+टाप्] मुमुक्षु का धर्म या भाव। मुमुक्षु होने की अवस्था या भाव।
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मुमुचान  : पुं० [सं०√मुच् (छोड़ना)+आनच्] १. वह जो मुक्त हो गया हो। २. बादल। मेघ।
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मुमूर्षा  : स्त्री० [सं०√मृ (मरना)+सन्, द्वित्व+अ+टाप्] मरने की इच्छा। मृ्त्यु की कामना।
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मुमूर्षु  : वि० [सं०√मृ+सन्, द्वित्व+उ०] जिसकी मृत्यु बहुत पास आ गई हो। जो अभी मर जाने को हो।
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मुयस्सर  : वि० =मयस्सर।
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मुर  : पुं० [सं०√मर् (लपेटना)+क] १. वेष्टन। बेठन। २. एक दैत्य जिसका वध श्रीकृष्ण ने किया था। अव्य० [हिं० मुड़ना=लौटना] दोबारा। फिर। पुं० =मुंड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुर-रिपु  : पुं० [सं० ष० त०] मुरारि।
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मुर-वैरी (रिन्)  : पुं० =मुरारि।
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मुर-सुत  : पुं० [सं० ष० त०] मुर राक्षस का पुत्र, वत्सासुर।
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मुरई  : स्त्री०=मूली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरक  : स्त्री०=मड़क।
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मुरकना  : अ० स०=मुड़कना।
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मुरका  : पुं० [देश] १. बड़े डील-डौलवाला वह हाथी जिसके बड़े-बड़े तथा सुन्दर दाँत हों। २. गड़ेरियों की बिरादरी का भोज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरकाना  : स०=मुड़काना।
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मुरकी  : स्त्री० [हिं० मुरकना=घूमना] १. कान में पहनने की छोटी बाली। २. संगीत में एक विशेष प्रकार से एक स्वर से घूमकर दूसरे स्वर पर आने की क्रिया।
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मुरकुल  : स्त्री० [देश] एक तरह की लता।
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मुरखाई  : स्त्री०=मूर्खता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरगा  : पुं० [फा० मुर्ग] [स्त्री० मुरगी] १. एक प्रसिद्ध नर पक्षी जिसके सिर पर कलंगी होती है और जो प्रायः प्रभात के समय कुकड़ूँ-कूँ बोलता है। २. चिड़िया। पक्षी। स्त्री०=मूर्वा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरगाबी  : स्त्री० [फा० मुर्ग़ाबी] मुरग़े की जाति का एक पक्षी जो जल में तैरता और मछलियाँ पकड़ कर खाता है। जल-कुक्कुट। जल मुरगा।
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मुरगी  : स्त्री० [हिं० मुरगा का स्त्री०] मादा मुर्ग। मुरगे की मादा। पद—मुरगी का=एक प्रकार की गाली। जिसका अर्थ होता है—मुरगी की सन्तान। जैसे—आप खाता है गोश्त मुरगी का, मुझको देता है दाल अरहर की।
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मुरचंग  : पुं० [हिं० मुँहचंग] मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला एक तरह का पुरानी चाल का लोहे का बाजा। मुँहचंग। मुहावरा—मुरचंग झाड़ना=निश्चित भाव से बैठकर व्यर्थ इधर-उधर की बातें करना।
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मुरचा  : पुं० =मोरचा।
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मुरची  : पुं० [सं०] पश्चिम दिशा का एक प्राचीन देश।
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मुरछना  : अ० [सं० मूर्च्छन] १. मूर्च्छित अर्थात् अचेत या बेसुध होना। २. शिथिल होना।
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मुरछल  : पुं० =मोरछल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरछा  : स्त्री०=मूर्च्छा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरछाना  : अ० [सं० मूर्च्छा] मूर्च्छित या अचेत होना। बेहोश होना। स० मूर्च्छित या अचेत करना।
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मुरछावंत  : वि० =मूर्च्छित।
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मुरछित  : वि० =मूर्च्छित।
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मुरज  : पुं० [सं० मुर√जन् (उत्पत्ति)+ड] मृदंग। पखावज।
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मुरज-फल  : पुं० [ब० स०] कटहल।
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मुरजित्  : पुं० [सं० मुर√जि (जीतना)+क्विप्, तुक्] मुरारि।
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मुरझाना  : अ० [सं० मूर्च्छन] १. हरे डंठलों, पत्तों, फूलों वृक्षों आदि का जल न मिलने अथवा और किसी कारण से सूखने लगना। कुम्हलाना। २. (चेहरा या मन) उदास या सुस्त होना। कांति, श्री आदि से रहित या हीन होना। ३. शिथिल तथा शक्तिहीन होना। संयो० क्रि०—जाना।
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मुरड़  : पुं० [डिं०] गर्व। अभिमान। अहंकार।
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मुरड़की  : स्त्री०=मरोड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरंडा  : पुं० [पं० मुरुंडा] भूने हुए गेहूँ में गुड़ मिलाकर बनाया हुआ लड्डू। मुहावरा—मुरंडा करना या बनाना=(क) भूनना। (ख) गठरी सा बना देना। (ग) बहुत मारना-पीटना। वि० १. बहुत सूखा हुआ। २. बहुत दुबला-पतला।
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मुरतकिब  : पुं० [अ० मुर्तकिब] अपराध या दोष करनेवाला। अपराधी। दोषी।
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मुरतंगा  : पुं० [देश] एक प्रकार का ऊँचा पेड़ जिसके हीर की लकड़ी बहुत सख्त होती है।
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मुरतहिन  : पुं० [अ० मुर्तहिन] जिसके पास कोई वस्तु रेहन या गिरों रखी गई हों। रेहनदार।
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मुरता  : पुं० [देश] एक तरह का झाड़।
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मुरतिद  : पुं० [अ०] (मुसलमान) जो इस्लामी धर्म छोड़कर काफिर हो गया हो।
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मुरत्तब  : वि० [अ०] १. तरतीब अर्थात् क्रम से लगाया हुआ। क्रमबद्ध। २. तैयार किया या बनाया हुआ। प्रस्तुत किया हुआ। संपादित। ३. तर किया हुआ।
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मुरदनी  : स्त्री० [फा० मुर्दनी] १. किसी के मुख पर दिखाई देनेवाले वे चिन्ह या विकार जो मृत्यु के सूचक माने जाते हों। मुहावरा—चेहरे पर मुरदनी छाना या फिरना= (क) मुख पर मृत्यु के चिन्ह प्रकट होना। (ख) चेहरे का उदास या श्री-हीन हो जाना। २. शव के साथ उसकी अंत्येष्टि क्रिया के लिए जाना। मुरदे के साथ उसके गाड़ने या जलाने के स्थान तक जाना। ३. मृतक की अत्येष्टिक्रिया के लिए जानेवालों का समूह। क्रि० प्र०—में जाना।
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मुरंदा  : पुं० =मुरंडा।
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मुरदा  : पुं० [फा० मुर्दः] मृत प्राणी। शव। पद—मूरदे का माल=ऐसा माल जिसका कोई वारिश न हो। वि० १. मरा हुआ। मृत। २. इतना अधिक दुर्बल या शक्तिहीन कि मरे हुए के समान जान पड़े। ३. बहुत ही कुम्हलाया, मुरझाया या सूखा हुआ। जैसे—मुरदा पान, मुरदा फल। मुहावरा—(किसी का) मुरदा उठना=मर जाना (गाली)। जैसे—उसका मुरदा उठे। मुरदा उठाना=शव को अंत्येष्टि क्रिया के लिए ले जाना। मुरदों से शर्त बाँधकर सोना=बहुत अधिक और गहरी नींद में सोना।
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मुरदा-घर  : पुं० [हिं०] वह स्थान जहाँ मृतक व्यक्तियों के शव तक रखे जाते हैं, जब तक उन्हें गाड़ने या जलाने की व्यवस्था न हो। (मॉर्टुअरी) विशेष—ऐसे स्थान प्रायः युद्ध-क्षेत्रों में अस्थायी रूप से नियत किये जाते हैं।
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मुरदा-दिल  : वि० [हिं०+फा०] [भाव० मुरदादिली] जिसमें कुछ भी उत्साह या उमंग न रह गयी हो। बहुत ही खिन्न तथा हतोत्साह।
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मुरदार  : वि० [फा० मुर्दार] [भाव० मुरदारी] १. जो अपनी मौत से मरा हो। २. मृत। ३. अपवित्र। ४. दुर्बल। पुं० वह पशु जो अपनी मौत से मरा हो। (ऐसे पशु का मांस खाना धार्मिक दृष्टि से वर्जित है।)
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मुरदारी  : स्त्री० [फा०] मुरदार होने की अवस्था या भाव।
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मुरदावली  : वि० [हिं० मुर्दा] १. मृतक के संबंध का। मुरदे का। २. बहुत ही तुच्छ या निम्न कोटि का। रद्दी। स्त्री०=मुर्दनी।
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मुरदासंख  : पुं० [फा० मुर्दासंग] फूँके हुए सीसे और सिंदूर का मिश्रण जो औषध के रूप में व्यवहृत होता है।
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मुरदासन  : पुं०=मुरदासंख(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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मुरदासिंघी  : स्त्री०=मुरदासंख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरधर  : पुं० [सं० मरुधरा] मारवाड़ देश का प्राचीन नाम।
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मुरना  : अ०=मुड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरबेस  : पुं० [सं० मुद-वयस्] युवाकाल। जवानी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरब्बा  : पुं० [अ०] कच्चे फल। (जैसे—आँवले, आम, बेल, सेब आदि) को चीनी की चाशनी में पकाने पर तैयार होनेवाला पाक। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना।—बनना।—बनाना। पुं० [अ० मुरब्बअ] १. समकोणीय समचतुर्भुज। वर्गाकार। २. किसी अंक को उसी अंक से गुणन करने पर प्राप्त होनेवाला फल। वि० १. चौकोर। २. चारों ओर सब ओर से एक ही नाप का। जैसे—दस मुरब्बा फुट।
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मुरब्बी  : पुं० [अ०] १. पालन और रक्षण करनेवाला। पालक और रक्षक। अभिभावक। २. मददगार। सहायक। ३. मित्र और स्नेही।
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मुरमर्दन  : पुं० [सं० मुर√मुद् (मर्दन करना)+ल्यु-अन] मुर को मारनेवाले विष्णु या श्रीकृष्ण।
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मुरमुरा  : पुं० [अनु०] १. एक प्रकार का भुना हुआ चावल जो अन्दर से पोला होता है। फरवी। लाई। २. मकई के भुने हुए दाने। वि० मुरमुर शब्द करनेवाला।
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मुरमुराना  : अ० [मुरमुर से अनु०] १. ऐंठन खाकर टूट जाना। चुरमुर हो जाना। २. मुरमुर शब्द करते हुए टूटना। स० १. चुरमुर करना। २. मुरमुर शब्द करते हुए तोड़ना।
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मुररिया  : स्त्री०=मुर्री। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरल  : पुं० [सं० मुर√ला (लेना)+क] १. चमड़े का एक पुरानी चाल का बाजा। २. एक प्रकार की मछली।
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मुरला  : स्त्री० [सं० मुरल+टाप्] १. नर्मदा नदी। २. केरल देश की काली नाम की नदी।
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मुरलिका  : स्त्री० [सं० मुरली+कन्+टाप्, ह्रस्व] मुरली। वंशी।
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मुरलिया  : स्त्री०=मुरली (वंशी)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरली  : स्त्री० [सं० मुरल+ङीप] मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला बाँस आदि की पोर का बना हुआ बाजा। बाँसुरी। पुं० आसाम में होनेवाला एक प्रकार का चावल।
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मुरली-धर  : पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण जो बाल्यावस्था में प्रायः मुरली बजाते थे।
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मुरली-मनोहर  : पुं० [सं० सुप्सुपा सं०] श्रीकृष्ण।
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मुरलीवाला  : पुं० [सं० मुरली+हिं० वाला (प्रत्यय)] श्रीकृष्ण।
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मुरवा  : पुं० [देश] १. एड़ी के ऊपर की हड्डी जो कुछ उभरी हुई होती है। २. उक्त हड्डी के चारों ओर का स्थान जो कुछ उभरा हुआ तथा गोलाकार होता है। पुं० =मोर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरवी  : स्त्री० [सं० मौवी] १. मूर्वा घास की बनी हुई मेखला जिसे क्षत्री धारण करते थे। २. धनुष की डोरी। चिल्ला। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरव्वत  : स्त्री=मुरौवत।
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मुरशिद  : पुं० [अ० मुर्शिद] १. गुरु। पथ-प्रदर्शक। पीर। २. धूर्त आदमी (व्यंग्य)
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मुरसिल  : पुं० [अ० मुर्सिल] भेजनेवाला। प्रेषक।
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मुरस्सा  : वि० [अ० मुरस्सआ] रत्न-जटित। जड़ाऊ।
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मुरस्साकार  : पुं० [अ० मुरस्सआ+फा० कार] [भाव० मुरस्साकारी] रत्न-जटित आभूषण बनानेवाला। जड़िया। वि० रत्नों से जड़ा हुआ। जड़ाऊ।
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मुरस्साकारी  : स्त्री० [अ० मुरस्सअः+फा० कारी] १. गहनों में नग आदि जड़ने का काम। २. उक्त प्रकार के काम का पारिश्रमिक।
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मुरहन  : स्त्री० [?] १. एक प्रकार की सुरती (पौधा) जिसकी पत्तियाँ अच्छी समझी जाती है। २. सुरती की पिसी हुई पत्तियाँ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरहा  : पुं० [सं० मुर√हन् (मारना)+क्विप्] वह जिसने मुर का वध किया हो। मुरारि। वि० [सं० मूल+हिं० हा (प्रत्यय)] १. जिसका जन्म मूल नक्षत्र में हुआ हो। विशेष—ज्योतिष के अनुसार ऐसा बालक माता-पिता के लिए घातक होता है। २. अनाथ। ३. उपद्रवी। नटखट। पुं० [हिं० मुराना] वह जो चलते हुए कोल्हू में गँड़ेरियाँ डालता है।
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मुरहारी (रिन्)  : पुं० [सं० मुर√हृ (हरण करना)+णिनि] मुरहा। मुरारि।
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मुरा  : स्त्री० [सं०√मुर्+क+टाप्] १. एक गंध द्रव्य। मुरामांसी। २. वह नाइन जिसके गर्भ से महानंद के पुत्र चंद्रगुप्त का जन्म हुआ था। (कथासरित सागर)।
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मुराड़ा  : पुं० [देश०] ऐसी लकड़ी जिसका एक सिरा जल रहा हो। लुआठा।
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मुराद  : स्त्री० [अ०] १. बहुत दिनों से मन में बनी रहनेवाली अभिलाषा। पद—मुराद के दिन=यौवन काल, जिसमें मन में अनेक प्रकार की इच्छाएँ उमंगें और कामनाएँ रहती हैं। क्रि० प्र०—पूरी होना।—बर आना। मुहावरा—मुराद पाना=मन की चाही हुई चीज पाना। (ख) मन की चाही हुई बात पूरी होना। (ईश्वर या देवता से) मुराद माँगना=मन की अभिलाषा पूरी होने की प्रार्थना करना। मुराद मिलना=मन की अभिलाषा पूरी होना। २. मन्नत। मनौती। मुहावरा—मुराद मानना=मनौती या मन्नत मानना। ३. अभिप्राय। आशय। मतलब।
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मुरादी  : वि० [अ०] मन में मुराद रखनेवाला। अभिलाषी।
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मुराना  : स० [अनु० मुरमुर=चबाने का शब्द] मुँह में कोई चीज डालकर उसे मुलायम करना। चुभलाना। स० १. =मुड़ाना। २. =मोड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुराफा  : पुं० [अ० मुराफ़अ] छोटी अदालत में मुकदमा हार जाने पर बड़ी अदालत में पुनर्विचार के लिए दिया जानेवाला प्रार्थना-पत्र।
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मुरार  : पुं० [सं० मृणाल] कमल की जड़। कमलनाल। पुं० =मुरारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरारि  : पुं० [सं० मुर-अरि, ष० त०] १. मुर राक्षस के शत्रु (क) विष्णु, (ख) श्रीकृष्ण। २. डगण के तीसरे भेद (।ऽ।) की संज्ञा (पिंगल)।
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मुरारी  : पुं० =मुरारि।
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मुरासा  : पुं० [अ० मुरस्सा] कान में पहनने का एक तरह का रत्न-जटित फूल। तरकी। पुं० =मुँड़ासा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरी  : स्त्री०=मूरि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरीद  : पुं० [अ०] [भाव० मुरीदी] १. शिष्य। चेला। २. किसी विशेषतः धर्मगुरु के प्रति बहुत अधिक विश्वास और श्रद्धा रखनेवाला तथा उसका अनुयायी।
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मुरीदी  : स्त्री० [अ०] मुरीद होने की अवस्था या भाव।
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मुरु  : पुं० =मुर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरुआ  : पुं० =मुरवा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरुकुटिया  : वि० =मरकट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरुख  : वि० =मूर्ख। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरुखाई  : स्त्री०=मूर्खता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरुछना  : अ०=मुरछना (मूर्च्छित होना)। स्त्री०=मूर्च्छना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरुझना  : अ०=मुरझाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरुंड  : पुं० [सं०] एक प्राचीन जाति जो अफगानिस्तान में बसती थी।
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मुरुंडा  : पुं० [?] १. किसी चीज का ऐसा बड़ा गोल पिंड जो देखने में लड्डू की तरह हो। २. अच्छी तरह तोड़-मरोड़कर दिया जानेवाला गोलाकार रूप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरेठा  : पुं० [हिं० मूँड़=सिर+एठा (प्रत्यय)] १. पगड़ी। साफा। २. दे० ‘मुरैठा’।
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मुरेर  : स्त्री० १. =मरोड़। २. =मूँड़ेर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरेरना  : स०=मरोड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुरेरा  : पुं० १. =मुँडेरा। २. =मरोड़।
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मुरैठा  : पुं० [हिं० मुरेठा] १. नाव की लंबाई में चारों ओर घूमी हुई गोट जो तीन चार इंच मोटे तख्तों से बनाई जाती है और गूढ़ा के ऊपर रहती हैं। २. दे० ‘मुरेठा’।
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मुरौअती  : वि० [हिं० मुरौअत] जिसके स्वभाव में मुरौअत हो। स्त्री०=मुरौअत।
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मुरौवज  : वि० [अ० मुरव्वजः] प्रचलित। लागू।
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मुरौवत  : स्त्री०=मुरौअत।
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मुरौ्अत  : स्त्री० [अ० मुरव्वत] १. ऐसा स्वाभाविक शील जिसके फल-स्वरूप किसी के साथ कोई कठोर रूखेपन का व्यवहार न किया जा सकता हो। लिहाज। क्रि० प्र०—तोड़ना। बरतना। २. भलमनसत। सज्जनता।
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मुर्ग  : पुं० [सं० मृग से फा०मुर्ग] मुरगा।
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मुर्ग मुसल्लम  : पुं० [अ०] खाने के लिए समूचा भूना हुआ मुर्गा।
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मुर्गकेश  : पुं० [फा० मुर्ग+सं० केश (चोटी)] १. मरसे की जाति का एक पौधा जिसमें मुरगे की चोटी के-से गहरे उन्नाबी रंग के चौड़े और बड़े फूल लगते हैं। जटाधारी। २. कराँकुल नामक पक्षी।
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मुर्गखाना  : पुं० [फा०] मुरगों के रहने के लिए बनाया हुआ स्थान।
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मुर्गबाज  : पुं० [फा० मुर्गबाज़] [भाव० मुर्गबाजी] वह जो मुरगे लड़ाता हो। वह जिसे मुरगे पालने तथा लड़ाने में आनन्द आता हो।
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मुर्गबाजी  : स्त्री० [फा० मुर्ग़बाज़ी] मुरगे लड़ाने का व्यसन या भाव।
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मुर्गाबी  : स्त्री०=मुरगाबी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुर्चा  : पुं० =मोरचा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुर्तकिब  : वि० =मुरतकिब।
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मुर्तजा  : वि० [अ० मुर्तज़ा] १. मनोवांछित। २. रोचक। पुं० हजरत अली की एक उपाधि।
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मुर्तहिन  : वि० =मुरतहिन।
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मुर्दनी  : स्त्री०=मुरदनी।
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मुर्दा  : वि० पुं० =मुरदा।
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मुर्दार  : वि० =मुरदार।
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मुर्दावली  : स्त्री०=मुरदावली।
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मुर्दासिंगी  : पुं० =मुरदासंख।
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मुर्मूर  : पुं० [सं०√मुर्+क, पृषो०सिद्धि] १. कामदेव। २. सूर्य के रथ के घोड़े। ३. भूसी की आग। तुषाग्नि।
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मुर्रा  : पुं० [हिं० मरोड़ या मुड़ना] १. मरोड़ फली (ओषधि) पेट में होनेवाली ऐंठन या मरोड़। ३. सिंघाड़े के आकार की एक प्रकार की आतिशबाजी। स्त्री० कुंडलाकार सींगोंवाली भैंस।
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मुर्री  : स्त्री० [हिं० मुड़ना या मरोड़ना] १. धागे, सूत आदि के दो सिरों को जोड़ने का एक प्रकार जिसमें उनमें गाँठ नहीं लगाई जाती बल्कि उन्हें मिलाकर मरोड़ भर दिया जाता है। २. कपड़ों आदि को मरोड़कर उनमें डाला जानेवाला बल। जैसे—धोती कमर पर मुर्री देकर पहनी जाती है। क्रि० प्र०—देना। मुहावरा—मुर्री देना= (क) कपड़ा फाड़ते समय उससे फटे हुए अंशों को दोनों ओर बराबर घुमाते या मोड़ते जाना जिसमें कपड़ा बिलकुल सीधा फटे। (बजाज) ३. कपड़े आदि को मरोड़कर बटी हुई बत्ती। जैसे—मुर्री का नैचा। ४. चिकन या कशीदे की एक प्रकार की उभारदार कढ़ाई जिसमें बटे हुए सूत का व्यवहार होता है स्त्री० [?] एक प्रकार का जंगली लकड़ी।
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मुर्रीदार  : वि० [हिं० मुर्री+फा० दार (प्रत्यय)] जिसमें मुर्री पड़ी हो। ऐंठनदार।
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मुर्शिद  : वि० पुं० =मुरशिद।
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मुल  : अव्य० [सं० मूल] १. मूलत बात यह है कि। मतलब यह कि। २. किन्तु। अगर। लेकिन। ३. अन्ततः। में। आखिरकार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुलक  : स्त्री० [हिं० मुलकना] मुलकने की क्रिया या भाव। पुलक। पुं० =मुल्क (देश)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुलकना  : अ० [हिं० मुलकित०] १. पुलकित होना। उदाहरण—चँद मुलक्क्यउ, जल हँस्यउ, जलहर कंपी पाल।—ढोला मारू। २. मुस्कराना। उदाहरण—सकुचि सरकि पिय निकट तें, मुलकि कछुक तन तोरि।—बिहारी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुलकित  : वि० [सं० पुलकित] मन्द मन्द हँसता हुआ। मुस्कराता हुआ।
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मुलकी  : स्त्री०=मुलक। वि० =मुल्की।
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मुलगौन  : पुं० [?] नाचने-गानेवाली मंडली का वह व्यक्ति जो दूसरे साथियों को गाना और नाचना सिखाता हो। पूरब। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुलजिम  : वि० [अ० मुलज़म़] १. जिस पर किसी प्रकार का इलजाम लागाय गया हो। २. अपराधी
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मुलजिम  : वि० [अ० मुलाज़िम] १. सेवा में रहनेवाला। २. प्रस्तुत या उपस्थित रहनेवाला। पुं० नौकर। सेवक।
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मुलतवी  : वि० [अ० मुल्तवी] (कार्य आदि) जिसके संपादन को टाल दिया गया हो। स्थगित। जैसे—मुकदमा मुलतवी हो जायगा।
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मुलतानी  : वि० [हिं० मुलतान (नगर)] १. मुलतान संबंधी। २. मुलतान प्रदेश में होनेवाला। जैसे—मुलतानी मिट्टी। पुं० मुलतान का निवासी। स्त्री० १. मुलतान और उसके आस-पास की बोली जो पश्चिमी पंजाबी की एक शाखा है। २. दोपहर के समय गाई जानेवाली एक रागिनी जिसमें गांधार और धैवत् कोमल, शुद्ध निषाद और तीव्र मध्यम लगता है। ३. एक प्रकार की बहुत कोमल और चिकनी मिट्टी जो प्रायः सिर मलने में साबुन की तरह काम में आती है। साधु आदि इससे कपड़ा भी रँगते हैं। मुलतानी मिट्टी। मुहावरा—मुलतानी करना=छींट छापने के पहले कपड़े को मुलतानी मिट्टी में रँगना। वि० उक्त प्रकार की मिट्टी के रंग का। केवड़ई (क्रीम) पुं० उक्त प्रकार की मिट्टी के रंग से मिलता जुलता एक प्रकार का रंग। केवड़ई। केवड़ी (क्रीम)।
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मुलतानी मिट्टी  : स्त्री० दे० ‘मुलतानी’ के अंतर्गत।
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मुलतानी-धनाश्री  : स्त्री० ओड़व संपूर्ण जाति की एक संकर रागिनी जो दिन के तीसरे पहर में गाई जाती है।
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मुलना  : पुं० =मुल्ला (मुस्लिम धर्माचार्य)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुलमची  : पुं० [अ० मुलम्मः+ची, फा० च (प्रत्यय)] किसी चीज पर सोने चाँदी, आदि का मुलम्मा करनेवाला। गिलट करनेवाला। मुलम्मासाज।
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मुलमुलाना  : अ० [अनु०] आँखों की पलकों का बार बार झपकना या उठते और गिरते रहना जो एक प्रकार का रोग माना जाता है। (ब्लिंकिंग)
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मुलम्मा  : वि० [अ० मुलम्मः] चमकता हुआ। पुं० १. सस्ती धातुओं पर रासायनिक प्रक्रियाओं से किया हुआ बहुमूल्य धातु का ऐसा लेप जिसमें वह देखने में सुन्दर और बहुमूल्य जान पड़ती हो। जैसे—गिलट पर चाँदी का मुलम्मा, चाँदी पर सोने का मुलम्मा। क्रि० प्र०—करना।—चढ़ना।—चढ़ाना।—होना। २. कलई। ३. किसी साधारण या तुच्छ चीज को आकर्षण रूप देने की क्रिया या भाव। ४. ऊपर या बाहर से बनाया हुआ कोई ऐसा रूप जिसमें अन्दर की त्रुटि या दोष दब जाय, और देखने पर चीज आकर्षक और बहुमूल्य जान पड़े। ५. ऊपरी तड़क-भड़क।
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मुलम्माकार, मुलम्मागर  : पुं० दे० ‘मुलम्मासाज’।
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मुलम्मासाज  : पुं० [अ० मुलम्मः+फा० साज] [भाव० मुलम्मासाजी] १. मुलम्मा करनेवाला कारीगर। मुलमची। २. वह व्यक्ति जो साधारण-सी बात को चिकनाकर बहुत ही आकर्षण रूप में प्रस्तुत करता हो।
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मुलहठी  : स्त्री०=मुलेठी।
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मुलहा  : वि० [सं० मूल=नक्षत्र+हा (प्रत्यय)] १. जिसका जन्म मूल नक्षत्र में हुआ हो। २. दे० ‘मुरहा’।
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मुलहिक  : वि० [अ० मुल्हिक़] किसी के साथ मिला या लगा हुआ। संलग्न।
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मुलाँ  : पुं० =मुल्ला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुला  : अव्य०=मुल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुलाकात  : स्त्री० [अ० मुलाक़ात] १. दो व्यक्तियों में होनेवाला साक्षात्कार। भेंट। २. जान-पहचान की अवस्था। ३. मैथुन। संभोग रति-क्रीड़ा।
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मुलाकाती  : वि० [अ० मुलाक़ाती] १. व्यक्ति जिससे मुलाकात अर्थात् भेंट प्रायः या नित्य होती रहती हो। २. जान-पहचानी। परिचित।
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मुलाजमत  : स्त्री० [अ० मुलाज़मत] १. मुलजिम होने अर्थात् किसी की सेवा में रहने या होने का भाव। २. नौकरी।
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मुलाज़िमत  : स्त्री०=मुलाज़मत।
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मुलाम  : वि०=मुलायम। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुलायम  : वि० [अ० मुलाइम] १. (पदार्थ) जिसका तल इतना कोमल और चिकना हो कि दबाने से सहज में दब जाय। जो कड़ा और खुरदरा या रूखा न हो। कोमल। ‘कड़ा’ और ‘सख्त’ का विपर्याय। २. नाजुक। सुकुमार। ३. जिमसें किसी प्रकार की कठोरता, कर्कशता या तीव्रता न हो। जैसे—मुलायम स्वभाव।
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मुलायम-रोआँ  : पुं० [हिं० मुलायम+रोआँ] भेड़, बकरी आदि का सफेद और लाल रोआँ जो मुलायम होता है।
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मुलायमियत  : स्त्री० [हिं० मुलायम] मुलायम होने का भाव।
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मुलाहज़ा  : पुं० [अ० मुलाहज़ः] १. देख-भाल। निरीक्षण। जैसे—जरा मुलाहजा कीजिए, इसमें कितनी चमक है। २. ऐसा शील या संकोच जो किसी के सामने कोई अनुचित या अप्रिय बात न होने दे। जैसे—मैं तो उन्हीं के मुलाहजे में, तुम्हें छोड़े चलता हूँ।
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मुलाहिजा  : पुं० =मुलाहजा।
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मुलुक  : पुं० =मुल्क।
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मुलेठी  : स्त्री० [सं० मधुयष्टि, मुलयष्टी, प्रा० मूलयट्ठी] १. उष्ण प्रदेशों की काली मिट्टी में होनेवाली एक लता। उक्त लता की जड़ जो वैद्यक के मत में बलवर्धक होती है, तथा तृष्णा, ग्लानि और क्षय नाशक होती है।
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मुल्क  : पुं० [अ०] १. बड़ा देश। २. देश का छोटा विभाग। प्रदेश। प्रान्त। ३. जगत्। संसार।
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मुल्कगीरी  : स्त्री० [अ० मुल्क+फा० गीरी] देशों को जीतना। देश-विजय।
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मुल्की  : वि० [अ० मुल्क] १. मुल्क या देश सम्बन्धी। २. मुल्क की शासन-व्यवस्था से सम्बन्ध रखनेवाला। राजनीतिज्ञ। देशी। (विदेशी या विलायती’ का विपर्याय)। पुं० एक प्रकार का संवत् जो सौर श्रवण की पहली तिथि से प्रारम्भ होता है।
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मुल्तजी  : वि० [अ०] इल्तिजा अर्थात् प्रार्थना या मिन्नत करनेवाला।
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मुल्तवी  : वि० =मुतलवी।
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मुल्लह  : पुं० [देश] वह पक्षी जो पैर बाँधकर जाल में इसलिए छोड़ दिया जाता है कि उसे देखकर और पक्षी आकर जाल में फँसे। कुट्टा। वि० बहुत अधिक सीधा-सादा या मूर्ख।
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मुल्ला  : पुं० [अ०] १. मुसलमानी धर्म-शास्त्र का आचार्य या विद्वान। २. मकतब में छोटे बच्चों को पढानेवाला मुसलमान शिक्षक।
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मुल्लाना  : पुं० [हिं०] मुल्ला के लिए उपेक्षासूचक शब्द।
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मुवक्किल  : पुं० [अ०] १. मुसलिम धर्मशास्त्र के अनुसार किसी काम के लिए नियुक्त फरिश्ता। २. आमिल या ओझा के द्वारा वश में की हुई कोई आत्मा। ३. वह जो किसी को मुकदमा आदि लड़ने के लिए अपना वकील नियुक्त करता हो। अपना वकील करने या रखनेवाला।
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मुवज्जि़न  : पुं० [अ०] नमाज पढ़ने के लिए अजान देकर लोगों को बुलानेवाला।
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मुवना  : अ०=मरना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुवर्रिख़  : पुं० [अ०] इतिहास लेखक। इतिहासज्ञ।
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मुवर्रिख़ा  : वि० [अ० मवर्रिखः] १. लिखा हुआ। लिखित। २. अमुक तिथि को लिखा हुआ।
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मुवल्लिद  : पुं० [अ०] पैदा करनेवाला। जनक।
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मुवल्लिफ  : पुं० [अ०] संग्राहक। संकलनकर्ता।
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मुवल्लिफा  : वि० [अ० मुवल्लिफ़ः] संगृहीत। संकलित।
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मुवस्सा  : पुं० [अ०] वह व्यक्ति जिसके नाम वसीयत की गई हो।
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मुवस्सिर  : वि० [अ०] असर करनेवाला। प्रभावकारक।
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मुवाज़ी  : वि० [अ०] १. बराबर। २. सह-मूल्य। अव्य० लगभग। प्रायः (संख्यासूचक विशेषणों के पहले प्रयुक्त)।
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मुवाना  : स० [हिं० मुवना का स० रूप] हत्या करना। मार डालना।
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मुवाफिक  : वि० =मुआफिक।
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मुशज्जर  : पुं० [अ०] वह कपड़ा, पत्थर आदि जिस पर फूल-पत्तियाँ, बेल-बूटे छपे होते हैं।
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मुशफ़िक़  : वि० [अ०] १. शफकत अर्थात् कृपा करनेवाला। कृपालु। मेहरबान। २. तरस खाने या दया दिखानेवाला दयालु। पुं० दोस्त। मित्र।
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मुशरब  : पुं० [अ०] १. पानी पीने की जगह। २. हौज। ३. झरना। ४. झील। ५. मजहब। तौर-तरीका।
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मुशरिक  : पुं० [अ०] खुदा की जात में दूसरे को शरीक करनेवाला, ईश्वर के अतिरिक्त किसी और को भी पूज्य या उपास्य माननेवाला अर्थात् काफिर।
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मुशर्रफ़  : वि० [अ०] जिसे शरफ या बड़ाई दी गई हो। प्रतिष्ठित और सम्मानित।
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मुशर्रह  : वि० [अ०] १. जिसकी शरह या व्याख्या की गई हो। २. विस्तारपूर्वक कहा हुआ।
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मुशल  : पुं० [सं०√मश्+कलच्] मूसल।
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मुशली  : पुं० [सं० मुशल+इनि] मूसल धारण करनेवाले श्री बलदेव।
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मुशाबह  : वि० [अ० मुशब्बह] सदृश। मानिंद।
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मुशाबहत  : स्त्री० [अ०] देखने में, एक जैसा होना सादृश्य। एकरूपता।
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मुशायरा  : पुं० [अ० मुशाअरः] उर्दू-फारसी आदि के शायरों का वह सम्मेलन जिसमें वे अपनी गजलें आदि पढ़कर सुनाते हैं।
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मुशाहरा  : पुं० [अ० मुशाहरः] १. मासिक वेतन। २. वजीफा। वृत्ति।
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मुंशियाना  : वि० [अ० मुशी+हिं० इयाना (प्रत्यय)] मुंशियों की तरह का।
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मुंशी  : पुं० [अ०] १. लेख या निबंध आदि लिखनेवाला लेखक। २. किसी कार्यालय में लिखने का काम करनेवाला लिपिक। ३. वह जो बहुत सुन्दर अक्षर विशेषतः फारसी आदि के अक्षर लिखता हो।
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मुंशीखाना  : पुं० [अ० मुंशी+फा० खाना] वह स्थान जहाँ मुंशी लोग बैठकर काम करते हों। दफ्तर।
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मुंशीगिरी  : स्त्री० [अ० मुंशी+फा० गिरी (प्रत्यय)] मुंशी का काम या पद।
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मुशीर  : वि० [अ०] परामर्शदाता।
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मुश्क  : पुं० [फा०] १. कस्तूरी। मृगमद मृगनाभि। २. गन्ध। बू। ३. दे० ‘कस्तूरी मृग’। स्त्री० [देश] कंधे और कोहनी के बीच का भाग। भुजा। बाँह। मुहावरा—(किसी की) बातें कसना या बाँधना= (अपराधी आदि की) दोनों भुजाओं को पीठ की ओर करके बाँध देना। (इससे आदमी बेबस हो जाता है)।
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मुश्क-दाना  : पुं० [फा०] एक प्रकार की लता का बीज जो इलायची के दाने के समान होता है और जिसके अन्दर से कस्तूरी की सी सुगंध निकलती है।
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मुश्क-नाफा  : पुं० [फा० मुश्के-नाफ़ः] कस्तूरी मृग का नाफा या थैली जिसके अन्दर कस्तूरी रहती है।
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मुश्क-बिलाई  : स्त्री० [फा० मुश्क+हिं० बिलाई=बिल्ली] एक प्रकार का जंगली विलाब जिसके अंडकोशों का पसीना बहुत सुगंधित होता है। गंधबिलाव।
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मुश्क-मेंहदी  : स्त्री० [फा० मश्क+महदी] एक प्रकार का छोटा पौधा जो उपवन में शोभा के लिए लगाया जाता है।
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मुश्कनाभ  : पुं० [फा० मुश्क+सं० नाभ]=मुश्कनाफा।
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मुश्कबू  : वि० [फा०] जिसकी बू कस्तूरी जैसी हो।
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मुश्किल  : वि० [अ०] (काम) जो करने में बहुत कठिन हो। दुष्कर। दुस्साध्य। स्त्री० १. कठिनता दिक्कत। २. विपत्ती। संकट। ३. पेचीदगी।
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मुश्की  : वि० [फा० मुश्की] १. मुश्क अर्थात् कस्तूरी के रंग का। काला। श्याम। २. जिसमें कस्तूरी पड़ी या मिली हो। जैसे—मुश्की तमाकू। ३. मुश्क जैसा सुगंधित। पुं० ऐसा घोड़ा जिसके सारे शरीर का रंग काला हो।
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मुश्त  : स्त्री० [फा०] १. मुट्ठी। २. मुट्ठी में भरी हुई वस्तु। ३. घूँसा।
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मुश्तइल  : वि० [अ०] १. इश्तेआल दिलाने अर्थात् उत्तेजित करने या भड़कानेवाला। २. जोरो से जलता हुआ। लपटें फेंकनेवाला।
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मुश्तबहा  : वि० [अ० मुश्तब्ह] संदिग्ध।
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मुश्तम्मिल  : वि० [अ०] १. शामिल किया हुआ। सम्मिलित। २. व्यापक।
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मुश्तयाक  : वि० [अ०] १. जिसके मन में इश्तियाक हो। प्रबल इच्छा रखनेवाला। बहुत चाहनेवाला। २. आशिक। प्रेमी।
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मुश्तरक  : वि० [अ०]=मुश्तरका। पुं० ऐसा शब्द जिसके कई अर्थ हों।
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मुश्तरका  : वि० [अ० मुश्तरकः] साझे का।
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मुश्तरी  : पुं० [अ०] १. खरीददार। क्रेता। २. बृहस्पति ग्रह।
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मुश्तहिर  : वि० [अ०] १. जिसका या जिसके सम्बन्ध में इश्तहार दिया गया हो। २. प्रसिद्ध। विख्यात ३. इश्तिहार देनेवाला। विज्ञापक।
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मुषल  : पुं० [सं०√मुष्+कलच्] १. मूसल। २. विश्वामित्र के पुत्र का नाम।
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मुषली  : स्त्री० [सं० मुषल्+ङीष्] १. तालमूलिका। २. छिपकली। पुं० बलराम।
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मुषित  : भू० कृ० [सं०√मुष्+क्त] १. चुराया हुआ। मूसा हुआ। २. (व्यक्ति) जिसकी चीज चुराई गई हो। ३. जो ठगा गया हो।
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मुषुर  : स्त्री० [सं० मुखर] गूँजने का शब्द। गुँजार। वि० =मुखर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुष्क  : पुं० [सं०√मुष्+कक्] १. अंडकोश। २. चोर। ३. ढेर। राशि। ४. मोखा नामक गंध द्रव्य। वि० मांसल। स्त्री०=मुश्क।
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मुष्क-शून्य  : वि० [सं० तृ० त०] जिसके अंडकोश निकाल लिए गये हों। बधिया किया हुआ। पुं० वह व्यक्ति जो उक्त क्रिया के उपरांत अन्तःपुर में काम करने के लिए नियुक्त होता था। खोजा।
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मुष्कक  : पुं० [सं० मुष्क+कन्] मोखा नाम का वृक्ष।
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मुष्कर  : पुं० [सं० मुष्क+र] १. अंडकोश। २. पुरुष की मूत्रेन्द्रिय। लिंग। वि० जिसके अंडकोश बड़े हों।
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मुष्ट  : भू० कृ० [सं०√मुष् (चोरी करना)+क्त] चुराया हुआ। पुं० =मुष्टिका।
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मुष्टक  : पुं० [सं० मुष्ट+कन्] सरसों।
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मुष्टामुष्टि  : स्त्री० [सं० ब० स०] घूँसेबाजी।
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मुष्टि  : स्त्री०[सं०√मुष्+क्तिज्] १. मुट्ठी। २. घूँसा। मुक्का। ३. चोरी। ४. अकाल। दुर्भिक्ष। ५. राज्य। ६. हथियार की बेंट या मूठ। ७. ऋषि नामक ओषधि। ८. मोखा वृक्ष। ९. एक प्राचीन परिमाण जो किसी के मत से ३ तोले का और किसी के मत से ८ तोले का होता था। पुं० =मुष्टिका।
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मुष्टि-देश  : पुं० [सं० ष० त०] धनुष का मध्य भाग जो मुट्ठी में पकड़ा जाता है।
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मुष्टि-युद्ध  : पुं० [सं० तृ० त०] घूँसेबाजी।
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मुष्टि-योग  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. हठयोग की कुछ क्रियाएँ जो शरीर की रक्षा करने, बल बढ़ाने और रोग दूर करनेवाली मानी जाती है। २. किसी बड़े काम या बात का छोटा और सहज उपाय।
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मुष्टिक  : पुं० [सं० मुष्टि+कन्] १. राजा कंस के पहलवानों में से एक जिसे बलदेव जी ने मारा था। २. घूँसा। मुक्का। ३. मुट्ठी। ४. मुट्टी के बराबर की नाप। ५. स्वर्णकार। सुनार। ६. तांत्रिकों के अनुसार एक उपकरण जो बलिदान के योग्य होता है।
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मुष्टिका  : स्त्री० [सं० मुष्टिक+टाप्] १. मुक्का। घूँसा। २. मुट्ठी।
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मुष्टिकांतक  : पुं० [सं० मुष्टिक-अंतक, ष० त०] मुष्टिक नामक मल्ल को मारनेवाले बलदेव।
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मुसक  : पुं० मुश्क। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसकनि  : स्त्री०=मुसकान। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसकराना  : अ०=मुस्कराना।
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मुसका  : पुं० [देश] पशुओं के मुँह पर बाँधी जानेवाली जाली। जाला।
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मुसकान  : स्त्री०=मुस्कान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसकाना  : अ०=मुस्कराना।
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मुसकानि  : स्त्री०=मुस्कान (मुस्कराहट)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसकिराना  : अ०=मुस्कराना।
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मुसकुराना  : अ०=मुस्कराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसक्यान  : स्त्री०=मुल्कान (मुस्कराहट)।
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मुसक्याना  : अ०=मुस्काना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसखोरी  : स्त्री० [हिं० मूस=चूहा+खोरी (प्रत्यय)] खेत में चूहों की होनेवाली अधिकता और उसके कारण फसलों की हानि। मुसहरी।
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मुसजर  : वि० =मुशज्जर।
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मुसटंडा  : वि० [?] हटटा-कट्ठा और बदमाश या लुच्चा। (उपेक्षासूचक)।
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मुसटी  : स्त्री० [हिं० मूस=चूहा+टी (प्रत्यय)] छोटा चूहा। चुहिया। स्त्री०=मुष्टि। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसदी  : स्त्री० [देश०] मिठाई बनाने का साँचा।
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मुसद्दस  : वि० [अ०] छः भुजाओंवाला। पुं० १. उर्दू में छः चरणों की एक प्रकार की कविता। २. वह काव्य ग्रन्थ जिसमें छः चरणोंवाले पद हों। जैसे—मुसद्दसे हाली।
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मुसद्दिक  : वि० [अ० मुसद्दक़] जिसकी तसदीक की जा सकी हो। जिसका ठीक होना प्रमाणित या सिद्ध हो चुका हो।
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मुसद्दी  : पुं० [अ०] मुहर्रिर। लिपिक।
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मुसना  : अ० [सं० मूषण=चुराना] १. मूसा या लूटा जाना। अपहृत होना। उदाहरण—एक कबीरा ना मुसै जिनि कीन्ही बारह बाट।—कबीर। २. छिपना। लुकना।
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मुसन्ना  : पुं० [अ०] १. किसी असल कागज की दूसरी नकल जो मिलान आदि के लिए अपने पास रखी जाती है। २. रसीद आदि का वह आधा और दूसरा भाग जो रसीद देनेवाले के पास रहता है।
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मुसन्निफ  : पुं० [अ० मुसन्निफ] [स्त्री० मुसन्निफा] पुस्तक लिखनेवाला लेखक। ग्रन्थकर्ता।
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मुसफ़्फ़ी  : वि० [अ०] १. साफ करनेवाला। २. शोधक।
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मुसब्बर  : पुं० [अ०] कुछ विशिष्ट क्रियाओं से सुखाया और जमाया हुआ घीकुँआर का गूदा या रस।
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मुसमर  : पुं० [हिं० मूस=चूहा+मारना] खेत के चूहे खानेवाली एक चिड़िया।
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मुसमरवा  : पुं० [हिं० मूस+मारना] १. मुसमर। (चिड़िया) २. मुसहर।
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मुसमुंद  : वि० [देश] ध्वस्त। नष्ट। बरबाद। पुं० ध्वंस। नाश। बरबादी।
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मुसमुँध  : वि० पुं० =मुसमंद।
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मुसम्मा  : वि० [अ०] [स्त्री० मुसम्मात] नामवाला। नामधारी।
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मुसम्मात  : वि० स्त्री० [अ० मुसम्मा का स्त्री रूप] नामधारिणी। नामवाली। स्त्री० १. औरत। स्त्री। २. श्रीमती।
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मुसम्माती  : वि० [अ० मुसम्मात] मुसम्मात या स्त्री से सम्बन्ध रखनेवाला। औरत या औरतों का। जैसे—मुसम्माती मामला।
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मुसम्मी  : वि० =मुसम्मा। स्त्री० [मोजैम्बिक, अफ्रीका का एक प्रदेश] एक प्रकार का बढ़िया मीठा नींबू।
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मुसरहा  : पुं० [हिं० मूसल] ऐसा बैल जिसके शरीर का रंग उसकी पूँछ के रंग से भिन्न हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसरा  : पुं० =मूसला (जड़)।
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मुंसरिम  : पुं० [अ०] १. इंतजाम अर्थात् व्यवस्था या प्रबंध करनेवाला प्रबंधक। २. कचहरी का वह कर्मचारी जो किसी दफ्तर का प्रधान होता है।
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मुंसरिमी  : स्त्री० [अ०] मुंसरिम का काम या पद।
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मुसरिया  : स्त्री० [देश] काँच की चूड़ियाँ ढालने का सांचा। स्त्री० १. =मुसरी। २. =मुसली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसरी  : स्त्री० [हिं० मूसा=चूहा] चूहे का बच्चा। स्त्री०=मुसली।
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मुसर्रत  : स्त्री० [अ०] प्रसन्नता। खुशी।
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मुसल  : पुं० [सं०√मुस्+कलच्] =मूसल।
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मुसलधार  : क्रि० वि०=मूसलधार।
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मुसलमान  : पुं० [अ० मुसल्मानी] [स्त्री० मुसलमानी] वह जो मुहम्मद साहब के चलाए संप्रदाय का अनुयायी हो। इस्लाम धर्म को माननेवाला। मुहम्मदी।
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मुसलमानी  : वि० [अ० मुसल्मानी] मुसलमान-संबंध। मुसलमान का। जैसे—मुसलमानी मजहब। स्त्री० १. मुसलमान होने की अवस्था, गुण या भाव। उदाहरण—तीस रोजों में तीन रखे हैं। आप देखें मेरी मुसलमानी।—कोई शायर। २. मुसलमान का कर्त्तव्य या धर्म। ३. मुसलमानों में होनेवाली खतने की रसम या रीति। खतना। सुन्नत। उदाहरण—(क) ख्वाजा साहब यह तो सोचें सुन कर लोक कहेंगे क्या।—हसन निजामी गांधी जी की करने चले मुसलमानी।—मैथिलीशरण गुप्त। (ख) जाहिदो तौबा तो कर ली और क्या फिर करोगे और मुसलमानी मेरी।—कोई शायर। क्रि० प्र०—करना।
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मुसलाधार  : वि० =मूसलाधार।
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मुसलायुध  : पुं० [सं० मुसल-आयुध, ब० स०] बलराम।
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मुंसलिक  : वि० [अ०] साथ में बाँधा या नत्थी किया हुआ।
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मुसलिम  : पुं० [अ०] मुसलमान। वि० मुसलमान संबंधी। मुसलमानों का। जैसे—मुसलिम राज्य।
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मुसली  : स्त्री० [सं० मुषली] एक पौधा जिसकी जड़े औषध के काम में आती है। पुं० =मुशली। स्त्री०=हिं० ‘मूसल’ का स्त्री। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसल्य  : वि० [सं० मुसल+यत्] मूसल से मारे जाने के योग्य।
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मुसल्लम  : वि० [फा०मुर्ग-मुसल्लम] पूरा। अखंड। जैसे—मुर्ग मुसल्लम। पुं० मुस्लिम (मुसलमान)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसल्लसम  : वि० [अ०] तिकोना। पुं० त्रिकोण (आकृति या क्षेत्र)।
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मुसल्लह  : वि० [अ०] सशस्त्र।
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मुसल्ला  : पुं० [अ०] [स्त्री० अल्पा० मुसल्ली] १. वह दरी या चटाई जिस पर बैठकर मुसलमान नमाज पढ़ते हैं। २. बड़े दीये के आकार का एक प्रकार का बरतन जो बीच में उभरा हुआ होता है। इसमें मुहर्रम में चढ़ावा चढ़ाया जाता है। पुं० =मुसलमान (उपेक्षासूचक)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसल्सल  : वि० [अ०] १. एक सिलसिले से लगा हुआ क्रमबद्ध। श्रृंखलित। २. कैद। अव्य० निरंतर। लगातार।
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मुसवाना  : स० [हिं० मूसना का प्रे० रूप] १. किसी को मूसने में प्रवृत्त करना। २. किसी को ऐसी स्थिति में लाना कि वह मूसा जाय।
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मुसव्विर  : पुं० [अ०] १. तसवीर खींचने या बनानेवाला। चित्रकार। किसी चीज पर बेल-बूटे बनानेवाला कारीगर। वि० सचित्र।
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मुसहर  : पुं० [हिं० मूस=चूहा+हर (प्रत्यय)] [स्त्री० मुसहरिन] एक जंगली जाति जिसका व्यवशाय जड़ी-बूटी आदि बेचना है। इस जाति के लोग प्रायः चूहे मार कर खाते हैं, इसी से मुसहर कहलाते हैं।
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मुसहिल  : वि० [अ० मुस्हिल] दस्तावार। रेचक। पुं० १. ऐसा हलका जुलाब जिसमें थोड़े से दस्त आते हों। २. हकीमी चिकित्सा में किसी को जुलाब देने से पहले पिलाई जानेवाली वह दवा जो पेट के अन्दर का मल मुलायम करती है।
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मुसाना  : स० [हिं० मुसना का स०] १. किसी को मूसने में प्रवृत्त करना। २. किसी के द्वारा अपनी कोई चीज गँवाना। मूसा जाना। उदाहरण—मदन चोर सौ जानि मुसायौ।—सूर।
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मुसाफ  : पुं० [अ० मुसाफ़] १. युद्ध। समर। २. युद्धस्थल। लड़ाई का मैदान। ३. शत्रु के चारों ओर डाला जानेवाला घेरा। पुं० [अ० मुसहफ] १. लेखों आदि का संकलन या संग्रह। २. कुरान।
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मुसाफिर  : पुं० [अ० मुसाफ़िर] बटोही। पथिक।
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मुसाफिरखाना  : पुं० [अ० मुसाफ़िर+फा० खानः] १. यात्रियों के विशेषतः रेल के यात्रियों के ठहरने के लिए बना हुआ विशिष्ट स्थान। २. धर्मशाला या सराय जिसमें मुसाफिर ठहरते हैं।
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मुसाफिरी  : स्त्री० [अ०] १. मुसाफिर होने की अवस्था या भाव। २. प्रवास। यात्रा।
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मुसाहब  : पुं० [अ० मुसाहिब] किसी बड़े आदमी के पास उठने-बैठने वाला व्यक्ति। पारिषद्।
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मुसाहबत  : स्त्री० [अ०] मुसाहब होने की अवस्था, काम का भाव।
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मुसाहबी  : स्त्री० [अ० मुसाहब+ई (प्रत्यय)] मुसाहब का काम या पद।
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मुसाहिब  : पुं० [अ०]=मुसाहब।
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मुंसिफ  : वि० [अ०] इन्साफ अर्थात् न्याय करनेवाला। पुं० दीवानी विभाग का एक न्यायाधि-कारी जो सब जजो से छोटा होता है।
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मुँसिफाना  : वि० [अ० मुन्सिफाना] न्यायोचित। न्यायसंगत।
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मुंसिफी  : स्त्री० [अ० मुंसिफ+ई (प्रत्यय)] १. इन्साफ या न्याय करने का काम २. मुंसिफ का काम या पद। ३. मुंसिफ की कचहरी।
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मुसीबत  : स्त्री० [अ०] १. तकलीफ। कष्ट। २. विपत्ति। संकट। क्रि० प्र०—आना।—उठाना।—झेलना।—पड़ना।—भोगना।—सहना।
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मुसुकाना  : अ०=मुस्कराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसुकाहट  : स्त्री०=मुस्कराहट। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुसौवर  : पुं० [अ० मुसव्विर] चित्रकार।
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मुसौवरी  : स्त्री० [अ० मुसव्विरी] चित्रकारी।
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मुस्कयान  : स्त्री०=मुस्कान। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुस्कराना  : अ० [?] इस प्रकार धीरे से हँसना कि होंठ फैल जायँ परन्तु दशन-पंक्ति दिखाई न दे।
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मुस्कराहट  : स्त्री० [हिं० मुस्कराना] मुस्कराने की अवस्था या भाव।
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मुस्कान  : स्त्री०=मुस्कराहट।
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मुस्किल  : वि० स्त्री०=मुश्किल।
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मुस्की  : स्त्री०=मुसकराहट। वि० =मुश्की। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुस्टंडा  : वि० =मुसटंडा।
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मुस्त  : पुं० [सं०√मुस्त् (इकट्ठा होना)+क, अच्, वा] नागरमोथा।
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मुस्तअफी  : पुं० [अ०] १. इस्तीफा देनेवाला। २. माफी माँगनेवाला।
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मुस्तअमल  : वि० [अ०] १. जो अमल में लाया गया हो। कार्यरूप में परिणत किया हुआ। २. उपयोग में लाया हुआ।
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मुस्तक  : पुं० [सं० मुस्त+कन्] नागरमोथा। मोथा।
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मुस्तकबिल  : वि० [अ० मुस्तक्बिल] आगे आनेवाला। भावी। पुं० भविष्यकाल।
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मुस्तकिल  : वि० [अ०] १. अटल। स्थिर। २. दृढ़। मजबूत। पक्का। जैसे—मुस्तकिल इरादा। ३. किसी पद पर स्थायी रूप से नियुक्त। (व्यक्ति)।
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मुस्तकीम  : वि० [अ०] १. जो टेढ़ा न हो। सीधा। ऋजु। २. ठीक। वाजिब।
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मुस्तगीस  : पुं० [अ०] १. वह जो किसी पर या किसी प्रकार का इस्तगासा या अभियोग उपस्थित करे। फरियादी। २. दावेदार। मुद्दई।
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मुस्तदई  : पुं० [अ०] इस्तदुआ या प्रार्थना करनेवाला। प्रार्थी।
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मुस्तनद  : वि० [अ०] १. जो सनद के अर्थात् प्रमाण के रूप में माना जाय। २. विश्वस्त।
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मुस्तफ़ा  : वि० [अ०] १. स्वच्छ। साफ। २. पवित्र। पुनीत। पुं० मुहम्मद साहब की एक उपाधि।
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मुस्तफ़ीद  : वि० [अ०] फायदा उठानेवाला। लाभ प्राप्त करनेवाला।
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मुस्तसना  : वि० [अ० मुस्तस्ना] १. अलग किया हुआ। छांटा हुआ। भिन्न। २. नियम, विधि आदि के प्रयोग में जो अपवाद के रूप में हो। ३. जिस पर से किसी प्रकार की पाबंदी उठा या हटा ली गई हो। ४. जो किसी प्रकार की आज्ञा, नियम आदि के दायरे में न आता हो।
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मुस्तहक़  : वि० [अ०] १. अधिकारी। हकदार २. किसी काम या बात के लिए उपयुक्त या योग्य। पात्र। ३. जरूरतमंद।
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मुस्ता  : स्त्री० [सं० मुस्त-टाप्०] मोथा नामक घास।
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मुस्ताद  : पुं० [सं०] जंगली सूअर।
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मुस्तैद  : वि० [अ० मुस्तइद] [भाव० मुस्तैदी] १. जो किसी कार्य के लिए पूर्ण रूप से उद्यत या तत्पर हो। कटिबद्ध। सन्न्द्ध। २. हर काम में चालाक, तेज या फुरतीला।
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मुस्तैदी  : स्त्री० [अ० मुस्तइदी] मुस्तैद होने की अवस्था या भाव। सन्नद्धता।
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मुस्तौजिर  : पुं० [अ०] ठेकेदार। इजारेदार।
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मुस्तौजिरी  : स्त्री० [अ०] ठेकेदारी।
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मुस्तौफ़ी  : पुं० [अ०] पदाधिकारी जो अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के हिसाब की जाँच-पड़ताल करे। पड़तालक।
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मुँह  : पुं० [सं० मुख] १. (क) प्राणियों में आँखों और नाक के नीचे का वह अंग जो विवर के रूप में होता है और जिसके अन्दर जीभ, तालू, दाँत, स्वर-यंत्र आदि तथा बाहर होंठ होते हैं। काटने-चबाने, खाने-पीने और बोलने या चिल्लाने-चीखनेवाला अंग। (ख) मनुष्यों का यही अंग जो उनके बोलने-चालने या बात-चीत करने और मन के भाव व्यक्त करने में भी सहायक होता है। मुख। विशेष—‘मुँह’ से सम्बन्ध रखनेवाले अधिकतर पद और मुहावरे प्रायः उक्त कार्यों के आधार पर ही बने हैं और उनमें औपचारिक या लाक्षणिक रूप से ही अर्थापदेश हुआ है। (क) खान-पान आदि से सम्बद्ध। मुहावरा—मुँह खराब होना=जबान या मुँह का स्वाद बिगड़ना। मुँह चलना (या चलाना)=खाने-पीने आदि की क्रिया सम्पन्न करना (या कराना)। जैसे—तुम्हारा मुँह तो हर समय चलता ही रहता है। मुँह जहर होना=बहुत कड़ुई चीज खाने के कारण बहुत अधिक कड़ुआ-पन मालूम होना। जैसे—मिर्ची वाली तरकारी खाने से मुँह जहर हो गया। मुंह जूठा करना=बहुत ही अल्प मात्रा में कुछ खा लेना। (किसी चीज में) मुँह डालना या देना=पशुओं आदि का कुछ खाने के लिए उसमें मुँह लगाना। जैसे—इस दूध में बिल्ली ने मुँह डाला था। मुँह-पेट चलना= कै और दस्त की बीमारी होना। जैसे—इतना मत खाओ कि मुँह-पेट चलने लगे। (किसी चीज पर) मुँह मारना=पशुओं आदि का किसी चीज पर मुँह लगाना। (किसी का) मुँह मीठा करना (या कराना)=शुभ या प्रसन्नता की बात होने पर मिठाई खिलाना अथवा इसी उपलक्ष्य में प्रसन्न करने के लिए कुछ धन देना। मुँह में पड़ना=खाया जाना। जैसे—सबेरे से एक दाना मुँह में नहीं पड़ा। (किसी चीज का) मुँह लगना= (क) रुचिकर या स्वादिष्ट होने के कारण किसी खाद्य पदार्थ का अधिक उपयोग में आना। जैसे—चीकू या सपाटू (महोनगी का फल) है तो जंगली फल, पर अब वह बड़े आदमियों के मुँह लग गया है। (ख) रुचिकर होने के कारण प्रिय जान पड़ना। जैसे—अब तो इस कुएँ का पानी तुम्हारे मुँह लग गया है। (किसी चीज में) मुँह लगना=खाद्य पदार्थ के खाये जाने की क्रिया आरम्भ होना। जैसे—अब इन आमों में तुम्हारा मुँह लग गया है, तब वह भला क्यों बचने लगे(कोई चीज) मुँह लगाना=नाम मात्र के लिए या बहुत थोड़ा खाना। (किसी का) मुँह लाल करना=सत्कार के लिए पान आदि खिलाना। मुँह सूखना=गरमी की अधिकता के कारण मुँह में जलन-सी होना। (किसी के) मुँह से दूध की गंध (या बू) आना=बहुत ही छोटी अवस्था का (किशोर या बालक) जान पड़ना या सिद्ध होना। पद—मुँह का कौर या निवाला=किसी को आधिकारिक रूप से या और किसी प्रकार आगे चलकर मिल सकनेवाली चीज। जैसे—तुमने तो उसके मुँह का कौर छीन लिया। आपके मुँह में घी शक्कर= (किसी के मुँह से आशाजनक शुभ बात निकलने पर) ईश्वर करे आपकी बात ठीक निकले या पूरी उतरे। (ख) बोल-चाल आदि से सम्बद्ध। मुहावरा—(किसी के) मुँह आना=किसी के सामने होकर उद्दंडतापूर्वक बातें करना। (किसी के) मुँह की बात छीनना=जो बात कोई कहना चाहता हो, वही बात उससे पहले आप ही कह देना। जैसे—तुमने हमारे मुँह की बात छीन ली। (किसी का) मुँह कीलना=दे० नीचे (‘अपना या किसी का) मुँह बंद करना’। (अपना) मुँह खराब करना= मुँह से गंदी बात निकालना। मुँह खुलना (या खोलना)=बोलने का कार्य आरम्भ होना (या करना)। मुँह खोलकर कहना=दे० नीचे ‘मुँह—फाड़कर कहना’। मुँह चलना या चलाना= मुँह से अविनयपूर्ण या बढ़-बढ़ कर बातें निकलना (या निकालना) जैसे—अब तो बड़े-बूढ़ों के सामने भी तुम्हारा मुँह चलने लगा। (किसी के) मुँह चढ़ना या मुँह पर आना=किसी बड़े के सामने होकर उद्दंतापूर्वक बोलना या उसकी बात का उत्तर देना। (कोई बात) मुँह तक (या मुँह पर) आना=कोई बात कहने को जी चाहना। मुँह थुथाना=अप्रसन्न होने के कारण थूथन की तरह मुँह बनाना। मुँह फुलाना= जैसे—वह भी मुँह थुथाये बैठे रहे। (किसी का) मुँह पकड़ना=किसी को बोलने से रोकना। (किसी के) मुँह पर मोहर लगाना=किसी को बोलने से पूरी तरह रोकना। (कोई बात) मुँह पर लाना=कुछ कहना या बोलना। (किसी के) मुँह पर हाथ रखना=बोलने से रोकना। मुँह फाड़कर कुछ कहना=बहुत विवशता की दशा में लज्जा, संकोच आदि छोड़कर आग्रहपूर्वक प्रार्थना या याचना करना। जैसे—जब तुमने वह पुस्तक मुझे नहीं दी तब मुझे मुँह फाड़कर उसके लिए कहना पड़ा। (अपना या किसी का) मुँह बन्द करना= (क) स्वंय बिलकुल न बोलना। मौन धारण करना। (ख) दूसरे को बोलने से रोकना। (किसी का) मुँह बंद कर देना या बाँधना=तर्क आदि में परास्त करके निरुत्तर कर देना। जैसे—आपने एक ही बात कहकर उनका मुँह बन्द कर दिया। मुँह बाँधकर बैठना=बिलकुल चुप हो जाना। कुछ भी न बोलना। मुँह बिगड़ना=बोल-चाल में गंदी बातें कहने या गाली-गलौज बकने की आदत पड़ना। (किसी का) मुँह भर या भरकर=जितना अभीष्ट हो या मन में आवे उतना। पूरा-पूरा। यथेष्ट। जैसे—किसी को मुँहभर गालियाँ या जबाव देना, किसी से मुँहभर बातें करना, बोलना या कुछ माँगना। (किसी का) मुँह भरना=अभियोग, कलंक आदि की चर्चा या किसी तरह की कार्रवाई करने से रोकने के लिए घूस आदि के रूप में कुछ धन देना। (कोई बात) मुँह में आना=कुछ कहने की इच्छा होना। जैसे—जो मुँह में आया वह कह दिया। मुँह में जबान होना=कुछ कहने या बोलने की योग्यता या सामर्थ्य होना। मुँह में घँघनियाँ भर बैठे रहना=बोलने की आवश्यकता होने पर भी बिलकुल चुप रहना। (कोई बात किसी के) मुँह में पड़ना= मुँह से कहा या बोला जाना। जैसे—जो बात तुम्हारे मुँह में पड़ेगी, वह चार आदमियों को जरूर मालूम हो जायेगी। मुँह में लगाम न होना=बोलने के समय उचित-अनुचित का ध्यान न रहना जो अविनय, अशिष्टता, उद्दंडता आदि का सूचक है। (किसी के) मुँह लगना= (क) किसी को अनुकूल या सहनशील देखकर उसके प्रति या सामने उद्दंडतापूर्वक तथा बहुत बढ़-चढ़कर बातें करना। (ख) कहा-सुनी या मुकाबला करने के लिए सामने आना। (किसी को) मुँह लगाना=किसी की उद्दंडतापूर्वक घृष्टता आदि की बातों की उपेक्षा करके उसे बातचीत में और अधिक उद्दंड या धृष्ट बनाना। उदाहरण—जैसे ही उन मुँह लगाई, तैसे ही ये ढरी।—सूर। मुँह संभालकर बात करना=इस प्रकार संयत भाव से बात करना कि कोई अनुचित या अपमानकारक बात मुँह से न निकलने पाये। मुँह सीना=दे० ऊपर ‘मुँह बंद करना’। मुँह से फूटना=कुछ कहना। बोलना। (उपेक्षासूचक)। मुँह से फूल झड़ना= मुँह से बहुत ही कोमल, प्रिय और सुन्दर बातें निकलना। (किसी के) मुँह से बात छीनना=जिस समय कोई महत्त्व की बात कहने को हो, उस समय स्वयं पहले ही वह बात कह डालना। मुँह से लाल उगलना=बहुत ही बहूमूल्य या मधुर तथा सुंदर बातें कहना। पद—मुँह का कच्चा= (क) व्यक्ति जिसकी बातों का कोई ठिकाना न हो, जिसकी बात का विश्वास न हो। (ख) जो भेद या रहस्य की बात छिपा न सके और बिना समझे-बूझे दूसरों से कह दे। (ग) (घोड़ा) जो लगाम का झटका न सह सकें, या अधिक समय तक मुँह में लगाम न रख सके, या लगाम का संकेत न मानकर मनमाने ढंग से चले। मुँह का कड़ा= (क) व्यक्ति जो प्रायः अप्रिय और कठोर बातें कहता हो। (ख) घोड़ा, जो लगाम का संकेत न माने और प्रायः मनमाने ढंग से चलना चाहे। मुँह फट (देखें स्वतंत्र पद)। (ग) मनोभावों से सम्बद्ध। मुहावरा—मुँह कड़ुआना= (अप्रिय बात होने पर) ऐसी आकृति बनाना मानों मुँह में कोई बहुत कड़ुवी चीज चली गयी हो। उदाहरण—विस्बंभर जगदीस जगत-गुरु, परसत मुख करुनावत।—सूर। मुँह चिढ़ाना= (उपहास या विडम्बना करने के लिए) किसी के कथन, प्रकार आदि की भद्दे और विकृत रूप में नकल करना। (बटेर, मुरगे आदि के संबंध में) मुँह डालना= (दूसरे बटेर, मुरगे आदि से) लड़ने को प्रवृत्त होना। (किसी के सामने) मुँह पडऩा=कुछ कहने का साहस या हिम्मत होना। (किसी के सामने) मुँह पसारना, फैलाना या बाना= (क) अपनी दीनता या हीनता प्रकट करना। (ख) दीन भाव से कुछ माँगना। हीनतापूर्वक याचना करना। (ग) अधिक पाने या लेने की इच्छा प्रकट करना। मुँह बनाना= (अप्रिय बात होने पर) अप्रसन्नता, अरुचि आदि प्रकट करनेवाली आकृति या मुख-भंगी बनाना। मुँह में कीड़े पड़ना=बहुत ही घृणित काम करने या बात कहने पर अभिशाप के रूप में दुर्दशा होना। मुँह में खून (या लहू) लगना= (चीते, भेड़िये आदि हिंसक जंतुओं के अनुकरण पर लाक्षणिक रूप में) अनुचित लाभ या प्राप्ति होने पर उसका चसका लगना। मुँह में तिनका लेना=इस प्रकार दीनता प्रकट करना कि हम अपने सामने गौ के समान कृपापात्र या दयनीय हैं। मुँह में धूल (छार, राख आदि) पड़ना=परम दुर्दशा या दुर्गति होना। उदाहरण—राम नाम तत समुझत नाहीं अंत परै मुख छारा।—कबीर। मुँह में पानी भर आना या मुँह भर आना=(शारीरिक प्रक्रिया के अनुकरण पर औपचारिक रूप से) कोई अच्छी चीज देखने पर उसे पाने के लिए मन ललचाना। जैसे—किताब देखकर तो इनके मुँह में पानी भर आया। मुँह से पानी छूटना या लार टपकना=दे० ऊपर ‘मुँह में पानी भर आना’। २. सिर का वह अगला भाग जिसमें उक्त अंग के अतिरिक्त आँखें, गाल, नाक और माथा भी सम्मिलित है। आकृति। चेहरा। (फेस)। मुहावरा—(किसी का) मुँह आना=आतशक या गरमी (रोग) में मुँह के अन्दर छाले पड़ना और बाहर सूजन होना। मुँह उजला होना=अच्छा काम करने पर प्रतिष्ठा होना, अथवा कीर्ति या यश मिलना। (किसी ओर) मुँह उठना=किसी ओर चलने के लिए प्रवृत्त होना। जैसे—जिधर मुँह उठा, उधर ही चल पड़े। मुँह उतरना=लोग, लज्जा आदि के कारण चेहरे का रंग फीका पड़ना। उदासी आना। (अपना) मुँह काला करना= (क) अपने ऊपर बहुत बड़ा कलंक लेना। (ख) बहुत ही अपमानित या अप्रतिभ होकर खिसक या हट जाना। (किसी का) मुँह काला करना=बहुत ही अपमानित तथा कलंकित करके तथा उपेक्षापूर्वक दूर हटाना। (किसी के साथ) मुँह काला करना= (पुरुष या स्त्री के साथ) अवैध प्रसंग या संभोग करना। मुँह की खाना= (क) अपमानजनक उत्तर या प्रतिफल पाना। (ख) प्रतिद्वंदी या प्रतिपक्षी के सामने बुरी तरह से हारना। (ग) साहसपूर्वक आगे बढ़ने पर धोखा खाना। मुँह की मक्खियाँ तक न उड़ा सकना= बहुत ही अशक्त अथवा आलसी होना। मुँह की लाली रहना=प्रतियोगिता प्रयत्न आदि में बहुत ही थोड़ी आशा या संभावना होने पर भी अंत में यशस्वी या सफल होना। जैसे—दूसरे महायुद्ध में अमेरिका की सहायता से इंग्लैंड के मुँह की लाली रह गई। मुँह के बल गिरना= (क) ठोकर खाकर औँधे गिरना। (ख) उपहासास्पद रूप में, ठोकर या धोखा खाकर विफल होना। (ग) बिना सोचे-समझे किसी ओर अनुरक्त या प्रवृत्त होना। (किसी का) मुँह चाटना=बहुत अधिक खुशामद दुलार या प्यार करना। मुँह चुराना या छिपाना=दबैल या लज्जित होने के कारण सामने न आना। (किसी का) मुँह चूमना=बहुत उत्कृष्ट या प्रशंसनीय समझकर यथेष्ट आदर करना। मुँह चूमकर छोड़ देना=अपने वश या सामर्थ्य के बाहर समझकर आदरपूर्वक उससे अलग या दूर हो जाना। (किसी से) मुँह जोड़कर बातें करना=किसी के मुँह के बहुत पास अथवा मुँह ले जाकर बातें करना। (किसी का) मुँह झुलसना या फूँकना=मृतक के दाह-अनुकरण पर, गाली के रूप में बहुत ही अपमानित करके या परम उपेक्ष्य तुच्छ और त्याज्य समझकर दूर करना। जैसे—अब आप भी उनका मुँह झुलसें। (किसी का) मुँह तक न देखना=परम घृणित या तुच्छ समझकर बिलकुल अलग या बहुत दूर रहना। (किसी का) मुँह ताकना या देखना=अकर्मण्य, असमर्थ चकित या विवश होकर अथवा आशा, प्रतीक्षा आदि में चुपचाप किसी ओर देखते रहना। (अपना) मुँह तो देखो=पहले यह तो देख लो कि जो कुछ तुम पाना या लेना चाहते हो, उसके योग्य तुम हो भी या नहीं। (किसी का) मुँह दिखाना=साहसपूर्वक किसी के सामने आना या होना। (किसी का) मुँह देखकर उठना=शुभाशुभ फल के विचार से, सोकर उठते ही किसी का सामना होना। जैसे—न जाने आज किसका मुँह देखकर उठे थे, कि दिन भर खाने तक को नहीं मिला। (किसी का) मुँह देखकर जीना=परम प्रिय होने के कारण किसी की आशा में या भरोसे पर जीना। जैसे—मैं तो इन बच्चों का मुँह देखकर जीती हूँ। (किसी का) मुँह देखते रह जाना=आश्चर्य भाव से या चकित होकर किसी की ओर देखते रहना। मुँह धो रखो (रखिये या रखें)= (किसी के प्रति व्यंग्यपूर्वक केवल विधि के रूप में) प्राप्ति की कुछ भी आशा न रखो (रखिये या रखें)। जैसे—आप भी पुरस्कार लेने चले हैं मुँह धो रखिये। मुँह पर थूकना=बहुत ही घृणित तथा निंदनीय समझकर तिरस्कार करना। मुँह पर नाक न होना=कुछ भी लज्जा या शरम न होना। (कोई भाव) मुँह पर (या से) बरसना=अधिकता से और प्रत्यक्ष दिखाई देना। जैसे—लुच्चापन ही उसके मुँह पर (या से) बरसता है। मुँह पर मक्खियाँ भिनकना=बहुत ही घिनौनी और दीन दशा में होना। (किसी का) मुँह पाना=किसी को अपने अनुकूल अथवा अपनी ओर अनुरक्त या प्रवृत्त रहने की दशा में देखना। जैसे—जब मालिक का मुँह पाओ तब उनके सामने अपना दुखड़ा रोओ। (अपना मुँह पीटना या पीट लेना=किसी के आचरण व्यवहार आदि पर बहुत ही खिन्न, दुखी और लज्जित होना। (किसी का) मुँह पीटना=अपमानित करते हुए बुरी तरह से परास्त करना। मुँह फुलाना=अप्रसन्न या असंतुष्ट होकर रोष की मुद्रा धारण करना। मुँह फिरना या फिर जाना= (क) मुँह का टेढ़ा या खराब हो जाना। जैसे—एक थप्पड़ दूँगा मुँह फिर जायेगा। (ख) सामना करने से हट जाना। सामने न ठहर पाना। (किसी का) मुँह फेरना=परास्त करके भगाना। बुरी तरह से हराना। जैसे—बहस में यह तो बड़े-बडे का मुँह फेर देते हैं। (किसी से) मुँह फेरना या मोड़ना=उदास और खिन्न होकर अलग या दूर हो जाना। जैसे—उनकी कृतघ्नता देखकर लोगों ने उनसे मुँह फेर लिया। किसी बात पर मुँह बनना या बन जाना=चेहरे से अप्रसन्ता असंतोष आदि के लक्षण प्रकट होना। जैसे—रूपए माँगने पर उनका मुँह बन जाता है। मुँह बनवा रखो=तुम इस योग्य कदापि नहीं हों, अतः सारी आशा छोड़ दो। जैसे—चले हो अपना हिस्सा लेने मुँह बनवा रखो। (अपना) मुँह बनाना= अरुचि विरक्ति आदि का सूचक भाव या मुद्रा धारण करना। (किसी का) मुँह बिगाड़ना=मार-मार कर आकृति विकृत करना या कुरुप बनाना। (किसी बात पर) मुँह बिगाडऩा=अरुचि या असंतोष प्रकट करना। मुँह लटकाना। खिन्नता या दुख के लिए बहुत ही उदास और चप हो जाना। मुँह (या मुँह सिर) लपेटकर पड़ रहना=बहुत ही उदास या दुःखी होकर पड़े रहना। (किसी का) मुँह लाल करना=अच्छी तरह या जोर से थप्पड़ लगाना। मुँह लाल होना= आवेश क्रोध आदि के कारण चेहरे पर खून की रंगत अधिकता से झलकना। मारे क्रोध के चेहरा तमतमाना। मुँह सुजाना=दे० ‘ऊपर’ मुँह फुलाना। मुँह सूखना=निराशा, भय, लज्जा आदि के कारण चेहरे पर कांति या तेज न रह जाना। जैसे—आपकी फटकार सुनते ही उनका मुँह सूख गया। अपना सा मुँह लेकर रह जाना (या लौट आना)=निराशा विफल या हतोत्साहित होने के कारण दीन और लज्जित भाव से चुप रह जाना। (या लौट आना)। इतना सा या जरा सा मुँह निकल आना= (क) चिंता रोग आदि के कारण बहुत दुर्बल हो जाना। (ख) लज्जित होने के कारण श्रीहीन हो जाना। पद—(किसी का) मुँह देखकर= (क) किसी के प्रेम में लगकर। जैसे—पति मर गया है, पर बच्चों का मुँह देखकर धीरज धरो। (ख) किसी का ध्यान रखते हुए। (ग) किसी को प्रसन्न या संतुष्ट करने के लिए। मुँह पर=उपस्थिति में सामने। जैसे—मै तो उनके मुँह पर कहने वाला हूँ। ३. मनुष्य के शरीर का उक्त अंग के विचार से उनकी मनोवृत्ति, शील आदि। पद—मुँह देखे का=केवल सामना होने पर संकोचवश किया जानेवाला (आचरण या व्यवहार) जैसे—मुँह देखे की प्रीति या मुहब्बत। मुँह मुलाहजे का=पारस्परिक परिचय और उसके कारण होनेवाला। (नियम या व्यवहार) जैसे—जहाँ- मुँह मुलाहजे की बात हो, वहाँ ऐसा रूखा व्यवहार नहीं करना चाहिए। मुँह मुलाहजे का आदमी=जिसके साथ घनिष्ठ परिचय होने के कारण शीलपूर्ण व्यवहार करना पड़ता हो। मुहावरा—(किसी का) मुँह करना=शील या संकोचवश किसी का ध्यान रखना। जैसे—सच कह दो, किसी का मुँह मत करो। मुँह देखी कहना=किसी के सामने रहने पर उसे प्रसन्न करने के लिए उसके अनुकूल बातें कहना। जैसे—न्याय की बात कहना, मुँह देखी मत कहना। (किसी का) मुँह छूना या परसना=केवल ऊपरी मन से या दिखाने भर को किसी के साथ कोई अच्छा व्यवहार करना। जैसे—मुँह छूने के लिए वे मुझे भी निमंत्रण देने आये थे। उदाहरण—ह्याँ आये मुख (मुँह) परसन मेरौ हृदय टरति नहिं प्यारी।— सूर। (किसी के) मुँह पर जाना=किसी की प्रतिष्ठा व्यवहार शील संकोच आदि का ध्यान रखना या विचार करना। जैसे—तुम उनके मुँह मत जाओ अपना काम करो। किसी का मुँह पाना=किसी को अपनी ओर अनुरक्त या प्रवृत्त देखना। जैसे—जब उनका मुँह पाया, तब मैने भी सब बातें कह सुनाई। उदाहरण—मुँह पावति तब ही लौं आवति, औरे लावति मोर।—सूर। (किसी का) मुँह रखना=शील, संकोच आदि के कारण किसी के महत्त्व, व्यवहार आदि का ध्यान रखना। जैसे—हमें तो चार आदमियों का मुँह रखना ही पड़ता है। ४. उक्त के आधार पर किसी प्रकार का पक्षपात या तरफदारी। जैसे—सच सच कह दो, किसी का मुँह मत रखो। ५. मनुष्य के शरीर का उक्त अंग के विचार से उसकी योग्यता, सामर्थ्य, साहस आदि। जैसे—(क) अपना मुँह तो देखों (अर्थात् अपनी योग्यता या शक्ति तो देखो) (ख) यहाँ भला किसका मुँह है जो तुम्हारे सामने आवे। मुहावरा—(किसी काम या बात के लिए) मुँह पड़ना=कुछ करने, कहने आदि का साहस या हिम्मत होना। जैसे—उनके सामने बोलने का किसी का मुँह ही नहीं पड़ता। (किसी का) मुँह मारना= (क) किसी को दबाने, नीचा दिखाने या वशवर्ती करने के लिए कोई उत्कृष्ट कार्य कर दिखाना। (ख) ऐसी उत्कष्ट स्थिति में होना कि सहज में किसी को परास्त या लज्जित करके हीन सिद्ध किया जा सके। जैसे—यह कपड़ा सूती होने पर भी रेशमी का मुँह मारता है। ६. पारिश्रमिक प्रतिफल आदि के रूप में होनेवाली माँग। जैसे—बड़े वकीलों का मुँह भी बड़ा होता है। (अर्थात् वे अधिक पारिश्रमिक या मेहनताना माँगते हैं)। मुहावरा—(किसी का) मुँह भरना=घूस, पारिश्रमिक आदि के रूप में धन देना। ७. किसी प्राकृतिक या कृत्रिम रचना में उक्त अंग से मिलता-जुलता कोई ऐसा छेद या विवर जिसमें होकर चीजें उसमें जाती या उसमें से निकलती है। जैसे—गुफा, घड़े, थैली या लोटे का मुँह। पद—मुँह भर के=(क) जितना अन्दर समा सके, उतना डाल या रखकर। (ख) भर-पूर। यथेष्ट। (ग) अच्छी या पूरी तरह से। ८. उक्त प्रकार के मार्ग का बिलकुल ऊपरी किनारा या सिरा। जैसे—तालाब मुँह तक भर गया है। ९. किसी चीज के ऊपर का ऐसा छोटा छेद जिसमें से कुछ निकलता हो। जैसे—फुंसी फोड़े या नली का मुँह। मुहावरा—(किसी चीज का) मुँह खोलना=ऊपरी मार्ग या विवर इस प्रकार चौड़ा करना कि अन्दर की चीज बाहर निकल सके। जैसे—थैली का मुँह खोलना, फोड़े का मुँह खोलना। १॰. किसी चीज का आगेवाला पार्श्व ऊपर या सामने का भाग अथवा रुख जैसे—मकान का मुँह उत्तर की ओर है। ११. किसी बंद चीज का वह अंग या पार्श्व जिधर से वह खुलती हो या खोली जा सकती हो। १२. किसी चीज का वह अगला भाग जिससे उसका प्रधान कार्य होता हो। जैसे—तीन मुँहवाला तीर या भाला। चार मुँहवाला दीया आदि।
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मुँह अँधेरे  : क्रि० वि० [हिं० मुँह+अँधेरा] इतने तड़के या सबेरे जब अँधेरे के कारण किसी का मुँह भी न दिखायी पड़ता हो। जैसे—वह मुँह-अँधेरे ही उठकर घर से निकल पड़ा।
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मुँह-अखरी  : वि० [हिं० मुँह+अक्षर] जबानी। शाब्दिक।
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मुँह-उजाले  : क्रि० वि० =मुँह-उट्ठे।
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मुँह-उट्ठे  : क्रि० वि० [हिं० मुँह+उठना] ठीक उस समय जब कोई आदमी सबेरे के समय सोकर उठा ही हो।
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मुँह-काला  : पुं० [हिं० मुँह+काला] १. कोई परम निन्दनीय काम करने पर होनेवाली बहुत अधिक अप्रतिष्ठा और बदनामी। २. पर-पुरुष या पर-स्त्री के साथ किया जानेवाला संभोग। ३. एक प्रकार की गाली। जैसे—जा तेरा मुँह काला।
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मुँह-चटौअल  : स्त्री० [हिं० मुँह+चाटना+औवल (प्रत्यय)] १. चुंबन। चूमाचाटी। २. बक-बक। बकवाद।
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मुँह-चुथौवल  : स्त्री० [हिं० मुँह+चोंथना] १. व्यर्थ की बकवाद। २. लड़ाई-झगड़े में एक-दूसरे को (विशेषतः मुँह पर) मारने, काटने, नोचने आदि की क्रिया।
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मुँह-चोर  : पुं० [हिं० मुँह+चोर] लोगों के सामने जाने में मुँह चुराने अर्थात् संकोच करनेवाला।
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मुंह-छुआई  : स्त्री० [हिं० मुँह+छूना+आई (प्रत्यय)] मुँह छूने अर्थात् ऊपरी मन से किसी से कुछ कहने की क्रिया या भाव।
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मुँह-छुट  : वि० [हिं० मुँह+छूटना] जो कुछ मुँह में आवे, व सब बक जानेवाला। सबके सामने उद्दंतापूर्वक बातें करनेवाला।
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मुंह-जबानी  : अव्य० [हिं०] मुँह और जबान के द्वारा। मौखिक रूप से। वि० जो जबानी याद हो। कंठस्थ।
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मुँह-जला  : वि० [हिं० मुँह+जलना] [हिं० मुँहजली] १. जिसका मुँह जले हुए के समान हो, अथवा जला दिये जाने के योग्य हो। (गाली)। २. अशु तथा बुरी बातें कहनेवाला।
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मुंह-जोर  : वि० [हिं० मुँह+फा० जोर] [भाव० मुँहजोरी] १. धृष्टतापूर्वक तथा बिना समझे-बूझे जो मुँह में आवे, वह कह देनेवाला। किसी के मुँह पर बिना उसका लिहाज किये उल्टी सीधी बातें कहनेवाला। २. बकवादी। ३. मनमानी करनेवाली। उद्दण्ड। जैसे—मुँह जोर घोड़ा।
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मुँह-जोरी  : स्त्री० [हिं० मुँहजोर+ई (प्रत्यय)] १. मुँहजोर होने की अवस्था या भाव। २. धृष्टता।
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मुँह-झौंसा  : वि० [स्त्री, मुँह-झौसी] =मुँह जला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुँह-तोड़  : वि० [हिं०] (उत्तर या प्रत्याघात) जो विरोधी को पूरी तरह से परास्त करते हुए नीचे दिखानेवाला हो। जैसे—किसी को मुँह-तोड़ जबाव देना।
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मुँह-दिखरावनी  : स्त्री०=मुँह-दिखाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुँह-दिखलाई  : स्त्री०=मुँह-देखनी।
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मुंह-दिखाई  : स्त्री०=मुँह-देखनी।
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मुँह-देखनी  : स्त्री० [हिं० मुँह+दिखाना] १. मुँह दिखाने की क्रिया या भाव। २. विवाह के उपरान्त की एक प्रथा जिसमें वर-पक्ष की स्त्रियाँ नव-वधू का घूँघट हटाकर उसका मुँह देखती और उसे कुछ धन देती है। मुँह-दिखाई नामक रसम। ३. वह धन या पदार्थ जो नव-वधू को उक्त अवसर पर मुँह दिखाने के बदले में मिलता है।
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मुँह-देखा  : वि० [हिं० मुँह+देखना] [स्त्री० मुँह-देखी] १. प्रत्यक्ष रूप से या स्वयं देखा हुआ। २. (ऐसा काम) जो किसी का सामना होने पर केवल औपचारिक रूप से उसका लिहाज करते हुए या संकोच वश तथा ऊपरी मन से किया जाता हो। जैसे—मुँह देखा प्यार, मुँह-देखी बातें। ३. आज्ञा की प्रतिक्षा में किसी का मुँह देखता रहने वाला।
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मुँह-पड़ा  : पुं० [हिं० मुँह+पड़ना] प्रसिद्ध। मशहूर। (क्व०)।
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मुँह-पातर  : वि० =मुँहफट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मुँह-फट  : वि० [हिं० मुँह+फटना] जो उचित अनुचित का ध्यान रखे बिना भद्दी बातें कहने में भी संकोच न करता हो। बद-जबान।
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मुँह-बंद  : वि० [हिं०] १. (पदार्थ) जिसका मुँह बंद हो और अभी तक खोला न गया हो। जैसे—मुँह बंद बोतल। २. (फूल) जो अभी खिला न हो। जैसे—मुँह बंद कली। ३. (युवती या स्त्री) जिसका पुरुष से समागमन न हुआ हो। अक्षत-योनि। कुमारी। (बाजारू)।
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मुँह-बँधा  : पुं० [हिं० मुँह+बँधना] जैन साधु जो प्रायः मुँह पर कपड़ा बाँधे रहते हैं। वि० जिसका मुँह बँधा हो।
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मुँह-बोला  : वि० [हिं० मुँह+बोलना] [स्त्री० मुँह-बोली] जिसके साथ केवल कहकर या वचन देकर कोई सम्बन्ध स्थापित किया गया हो। जो जन्मतः या वस्तुतः न होने पर भी मुँह से कहकर मान लिया या बना लिया गया हो। जैसे—मुँह बोला भाई, मुँह-बोली बहन।
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मुँह-भराई  : स्त्री० [हिं० मुँह+भरना] १. मुँह भरने की क्रिया या भाव। २. वह धन जो किसी को कोई आपत्ति-जनक बात कहने अथवा बाधक होने से रोकने के लिए रिश्वत आदि के रूप में दिया जाय।
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मुँह-माँगा  : वि० [हिं०] [स्त्री० मुँहमाँगी] जो मुँह से कहकर माँगा गया हो। जैसे—मुँह-माँगा, दाम लेना, मुँह-माँगी मुराद पाना।
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मुँह-माँगे  : अव्य० [हिं० मुँहमाँगा] मुँह से माँगने पर। कहकर माँगने पर।
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मुँह-मुलाहजा  : पुं० [हिं० मुँह+अ० मुलाहिजः] ऐसी स्थिति जिसमें किसी आत्मीय या परिचित व्यक्ति के साथ होनेवाले पारस्परिक सम्बन्ध का शील-संकोचपूर्वक ध्यान रखा जाता हो।
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मुँह-लगा  : वि० [हिं० मुँह+लगना] [स्त्री० मुँहलगी] जो अनाधिकारी या अपात्र हो पर प्रायः किसी बड़े के पास या साथ रहने के कारण बढ़-चढ़ कर बोलने का अभ्यस्त हो गया हो। सिर-चढ़ा।
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मुँह-सुघाई  : स्त्री० [हिं० मुँह+सूँघना] १. किसी से मिल कर इतनी थोड़ी बात-चीत करना कि मानों उसका मुँह सूँघकर छोड़ दिया हो। २. उक्त प्रकार की क्षणिक बात-चीत के बदले में दिया या लिया जानेवाला धन। उदाहरण—फिर जमींदार की हर-हूकुमत जरिबाना-तलबाना, पटवारी-मुन्शी की घूस-रिसवत थानेदार को माँस-मलीदाकचहरी के वकील-मुख्तार को मुँह-सुँधाई सैकड़ों तरह के दूसरे खर्चे किये बिना तुम्हारी जान नहीं बचेगी।—राहुल सांकृत्यायन।
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मुहकम  : वि० [अ० मुहकम] १. दृढ़। पक्का। मजबूत। २. टिकाऊ। पायदार। ३. अटल।
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मुहकमा  : पुं० [अ० मुहाकम] बड़े कार्य अथवा कार्यालय का विभाग। सीमा।
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मुहक्किक़  : पुं० [अ०] १. तहकीक अर्थात् अन्वेषण करनेवाला। अन्वेषक। अनुसंधाता। २. वैज्ञानिक। ३. दार्शनिक।
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मुँहचंग  : पु०=मुरचंग।
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मुहतमिम  : वि० [अ० मुहतमिम] एहतमाम अर्थात् बंदोबस्त करनेवाला० पुं० प्रबंधक (व्यवस्था-पक)।
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मुहतरका  : पुं० [फा०मुहतरकः] वह कर जो व्यापार, वाणिज्य आदि पर लगाया जाय।
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मुहतरम  : वि० [अ० मुहतरम] १. सम्मानित। २. आदरणीय। ३. महोदय। महानुभाव।
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मुहतशिम  : वि० [अ० मुह-तशिम] १. एहतशम अर्थात् वैभव से युक्त। २. धनाढ्य। सम्पन्न।
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मुहतसिब  : पुं० [अ० मुहतशिब] वह जो लोगों के सदाचार आदि पर विशेष ध्यान रखता हो, और उन्हें सदाचारी बनाने के प्रयत्न में रहता हो।
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मुहताज  : वि० =मोहताज।
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मुहताजी  : स्त्री०=मोहताजी।
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मुहद्दिस  : पुं० [अ०] हदीस अर्थात् इस्लामी धर्म-शास्त्र का ज्ञाता।
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मुँहनाल  : स्त्री० [हिं० मुँह+नाल=नली] १. वह नली जिसे मुँह में लगाकर हुक्के का धुआँ खींचते हैं। २. धातु का वह टुकड़ा जो म्यान के सिरे पर लगा होता है।
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मुहनाल  : स्त्री०=मुँह-नाल।
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मुँहबंदी  : स्त्री० [हिं० मुँहबंद+ई (प्रत्यय)] मुँह बंद करने या होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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मुहबनी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का फल जो नारंगी की तरह का होता है।
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मुहब्बत  : स्त्री० [अ०] १. प्रीति। प्रेम। प्यार। मुहावरा—मुहब्बत उछलना=प्रेम का आवेश होना। (व्यंग्य) २. श्रृंगारिक क्षेत्र में, स्त्री और पुरुष में होनेवाला प्रेम। इश्क।
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मुहब्बती  : वि० [अ० मुहब्बत] १. जो सहज में प्रेम या स्नेह का व्यवहार स्थापित कर लेता हो। २. मुहब्बत से भरा हुआ। प्रेमपूर्ण।
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मुहम्मद  : वि० [अ०] सराहा हुआ। प्रशंसित। पुं० इस्लाम के प्रवर्तक (सन्-५७०-६२२ ई०।) अरब के प्रसिद्ध पैगम्बर या धर्माचार्य।
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मुहम्मदी  : पुं० [अ०] हजरत मुहम्मद साहब का अनुयायी। मुसलमान। वि० मुहम्मद सम्बन्धी। मुहम्मद का।
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मुहय्या  : वि० =मुहैया।
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मुहर  : स्त्री०=मोहर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुहरमुह  : अव्य० [सं० मुहुर्मुहुः] १. बार-बार। २. प्रतिक्षण।
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मुहरा  : पुं० =मोहरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुहरिया  : स्त्री० १. =मोहर। २. =‘मोहरा’ का स्त्री० अल्पा०। ३. =मोहरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुहरी  : स्त्री० १. ‘मोहरा’ का स्त्री अल्पा। २. मोहरी। ३. मोरी।
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मुहर्रम  : वि० [अ०] जो हराम अर्थात् निषिद्ध हो। पुं० १. इस्लामी वर्ष का पहला महीना, जिसमें हुसेन शहीद हुए थे। २. इस महीने में इमाम हुसेन का शोक मनाने के दस दिन। मुहावरा—(किसी की) मुहर्रम की पैदाइश होना=सदा दुःखी और चिन्तित रहनेवाला होना।
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मुहर्रमी  : वि० [अ० मुहर्रम+ई (प्रत्यय)] १. मुहर्रम सम्बन्धी। मुहर्रम का। २. शोक-सूचक। ३. बहुत ही दुःखी और मनहूस।
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मुहर्रिक  : पुं० [अ०] १. हरकत देनेवाला। चालक। २. प्रेरक। ३. प्रस्तावक। ४. गतिशील। वि० [अ०] १. हरकत अर्थात् गति प्रदान करनेवाला। २. गतिशील।
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मुहर्रिर  : पुं० [अ०] [भाव० मुहर्रिरी] १. किसी कार्यालय में कागज आदि लिखने का काम करनेवाला। लिपिक। २. वकीलों आदि के साथ रहनेवाला उनका मुंशी।
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मुहर्रिरी  : स्त्री० [अ०] मुहर्रिर का काम, पद या पेशा।
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मुहलत  : स्त्री०=मोहलत।
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मुहला  : पुं० [स्त्री० अल्पा० मुहली]=मूसल। पुं० =मुहल्ला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुहलेठी  : स्त्री०=मुलेठी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुहल्ला  : पुं० =महल्ला।
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मुहसिन  : वि० [अ० मुहसिन] एहसान अर्थात् उपकार करनेवाला।
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मुहसिल  : वि० [अ० मुहस्सिल] १. महसूल वसूल करनेवाला। २. तहसील वसूल करनेवाला। उगाहनेवाला। पुं० वह नौकर या फेरीदार जो घूम-घूम कर रुपये वसूल करता हो।
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मुँहा  : वि० [हिं० मुँह] किसी प्रकार के मुँह से युक्त। मुँहवाला। जैसे—दो मुँहा शेर मुँहा आदि।
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मुँहा-चीही  : स्त्री० [हिं० मुँह+चाहना] १. आपस में एक एक-दूसरे को देखना। देखा-देखी। २. आपस में होनेवाली कहा-सुनी या तकरार।
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मुँहा-मुँह  : अव्य० [हिं० मुँह+मुँह] मुँह या ऊपरी भाग तक। जैसे—तालाब मुँहा-मुंह भरा है।
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मुँहाचाही  : स्त्री०=मुँह-चीही।
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मुहाफ़िज  : वि० [अ०] हिफाजत करनेवाला। रक्षक। पुं० अभिभावक। संरक्षक। सरपरस्त।
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मुहाफ़िज़त  : स्त्री० [अ०] १. देख-रेख। रखवाली। रक्षा। २. पालन-पोषण।
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मुहार  : स्त्री० [अ० मिहर] पशुओं के नथने में बाँधी जानेवाली रस्सी। नकेल।
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मुहारनी  : स्त्री० [हिं० मुँह+अरनी (प्रत्यय)] भारतीय शिक्षा-प्रणाली में आरम्भिक तथा छोटे विद्यार्थियों से कराई जानेवाली वह क्रिया जिसमें गिनती, पहाड़े आदि याद कराने के लिए सामूहिक रूप से उन्हें खड़ा करते रटाया जाता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुहारा  : पुं० [हिं०] १. मुँह अर्थात आगे की ओर का भाग। २. प्रवेश करने का द्वार या मार्ग। जैसे—कांगड़ का मुहरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मुहाल  : पुं० [हि०मुँह+आला (प्रत्यय)] हाथी के दाँतों पर शोभा के लिए चढ़ाई जानेवाली चूड़ी। वि० [अ०] १. जिसे करना कठिन हो। दुष्कर। २. जिसका होना नामुकिन हो। असम्भव। पुं० १. महाल। २. मुहल्ला।
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मुहावरत  : स्त्री० [अ०] परस्पर की बातचीत।
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मुहावरा  : पुं० [अ० मुहावरः] १. वह शब्द, वाक्य या वाक्यांश जो अपने अभिधार्थ से भिन्न किसी और अर्थ में रूढ़ हो गया हो। २. अभ्यास।
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मुहावरा–जीती मक्खी निगलना=जान-बूझकर कोई अनुचित और घृणित कार्य करना। जीते जी मरना=बहुत अधिक कष्ट भोगना। जीना भारी हो जाना=जीवन बहुत अधिक दुःखमय हो जाना  :
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मुहावरेदार  : वि० [अ० मुहावरः+फा० दार] १. मुहावरे से युक्त (कथन या भाषा) २. जिसमें मुहावरों का प्रयोग ठीक तरह से या भली-भाँति से हुआ हो।
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मुहावरेदारी  : स्त्री० [हिं० मुहावरेदार+ई (प्रत्यय)] १. मुहावरे के ठीक प्रयोग का ज्ञान। २. मुहावरों से अभिन्न होने की अवस्था या भाव।
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मुहासबा  : पुं० =मुहासिबा।
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मुहासरा  : पुं० =मुहासिरा।
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मुँहासा  : पुं० [हिं० मुँह+आसा (प्रत्यय)] मुँह पर के वे दाने जो प्रायः युवावस्था में निकलते हैं।
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मुहासा  : पुं० =मुँहासा।
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मुहासिब  : वि० [अ०] हिसाब करनेवाला। पुं० १. गिनतरा। २. अंकेक्षक।
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मुहासिबा  : पुं० [अ०] १. हिसाब। लेखा। २. लेखे या हिसाब की जाँच-पड़ताल। ३. किसी घटना के विषय में की जानेवाली पूछ-ताछ।
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मुहासिरा  : पुं० [अ० मुहासरः] १. चारों ओर से घेरने की क्रिया या भाव। २. हदबंदी।
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मुहासिल  : पुं० [अ०] १. आय। आमदनी। २. नफा। मुनाफा।
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मुहिं  : सर्व०=मोहिं (मुझे)
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मुहिब्ब  : पुं० [अ०] १. दोस्त। मित्र। २. प्रियतम।
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मुहिम  : स्त्री० [अ०] १. कोई कठिन या बड़ा काम। भारी, महत्त्वपूर्ण अथवा जानजोखिम का काम। २. सैनिक आक्रमण। चढ़ाई। ३. युद्ध। समर।
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मुहिर  : पुं० [सं०√मुँह (मुग्ध होना)+किरच्] कामदेव। वि० बेवकूफ। मूर्ख।
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मुहीम  : स्त्री०=मुहिम।
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मुहुः (स्)  : अव्य० [देश] प्रायः रात के समय उड़नेवाला काले रंग का एक प्रकार का छोटा पतिंगा जो मूँगफली की फसल को हानि पहुँचाता है। ये पत्तियों पर अंडे देते हैं जिससे पत्तियां सूख जाती हैं। खुरल।
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मुहुर्मुहुः (स्)  : अव्य० [सं० वीप्या में द्वित्व] थोड़ी-थोड़ी देर पर, बारबार या रह रहकर।
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मुहूर्त्त  : पुं० [सं०√हुर्च्छ (टेढ़ा होना)+क्त, मुडागम] १. काल का एक मान जो दिन-रात के तीसवें भाग के बराबर होता है। २. किसी काम के लिए निश्चित या स्थिर किया हुआ विशिष्ट समय। ३. फलित ज्योतिष में कोई शुभ काम करने अथवा यात्रा, विवाह आदि के उद्देश्य से काल-गणना के द्वारा स्थिर किया हुआ समय। ४. श्रीगणेश। आरंभ।
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मुहैया  : वि० [अ०] आवश्यकता की पूर्ति के लिए लाकर इकट्ठा किया या रखा हुआ। प्रस्तुत। जैसे—शादी का सामान मुहैया करना।
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मुह्यमान  : वि० [सं०√मुह्+शानच्, यक्, मुक्-आगम] १. मूर्च्छित । २. मोहयुक्त।
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मूँ  : सर्व० १. =मेरा। २. =मुझे। (डिं०)
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मू  : पुं० [फा०] १. बाल। २. रोआँ। ३. केश।
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मूआ  : वि० [मृत्त] [स्त्री० मूई] १. मरा हुआ। मृत। २. उपेक्षासूचक गाली के रूप में प्रयुक्त होनेवाला विशेषण। जैसे—मूआ नौकर अभी तक नहीं आया (स्त्रियाँ)।
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मूक  : वि० [सं०√मव् (बाँधना)+कक्, वकार को ऊठ] [भाव० मूकता] १. जो कुछ भी बोल न रहा हो। २. गूँगा। ३. दीन-हीन। लाचार। पुं० १. दानव राक्षस। २. तक्षक का एक पुत्र।
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मूकता  : स्त्री० [सं० मूक+तल्+टाप्] मूक होने की अवस्था या भाव।
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मूँकना  : स० [सं० मुक्त] १. मुक्त करना। छोड़ना। २. त्यागना।
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मूकना  : स० [सं० मुक्त] १. मुक्त करना। २. अलग या पृथक् करना। ३. त्यागना।
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मूका  : पुं० १. =मुक्का। २. =मोखा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूकिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० मूक+इमनिच्] मूक होने की अवस्था या भाव मूकता।
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मूखना  : स०=मूसना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूँग  : पुं० [सं० मुदग्] एक प्रसिद्ध अन्न जिसकी दाल बनती है। पद—मूँग की दाल खानेवाला=डरपोक, निकम्मा या पुरुषार्थहीन। मुहावरा—(किसी पर) मूँग पढ़कर मारना=किसी प्रकार का तांत्रिक उपचार विशेषतः वशीकरण करने के लिए मंत्र पढ़ते हुए किसी पर मूँग के दाने फेंकना। (किसी की) छाती पर मूँग दलना=किसी को दिखलाते हुए ऐसा काम करना जिससे उसे ईर्ष्या या जलन हो, अथवा हार्दिक कष्ट हो।
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मूँगफली  : स्त्री० [हिं० भूस (भूमि)+फली] १. जमीन पर चारों ओर फैलनेवाला एक प्रकार का क्षुप जिसकी खेती उसके फलों के लिए प्रायः सारे भारत में की जाती है। इसकी जड़ में मिट्टी के अन्दर फल लगाते है, जिसके दाने या बीज रूप-रंग और स्वाद में बादाम से बहुत कुछ मिलते-जुलते होते हैं। २. इस क्षुप का फल। चिनिया बादाम। बिलायती मूँग। (संस्कृत में इसे भू-चरणक और भू-शिबिका कहते हैं)।
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मूँगर (ा)  : पुं० [स्त्री० अल्पा० मूँगरी]=मोंगरा।
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मूँगरी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की तोप।
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मूँगा  : पुं० [हिं० मूँग] १. समुद्र में रहनेवाले हर प्रकार के कीड़ों के समूह-पिंड की लाल ठठरी जिसकी गुरिया बनाकर पहनते हैं। इसकी गिनती रत्नों में की जाती है। (कोरल) २. एक प्रकार का गन्ना। पुं० =मोग (रेशम)।
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मूँगिया  : वि० [हिं० मूँग+इया (प्रत्यय)] मूँग के दानों के रंग का। पुं० १. उक्त प्रकार का अमौआ या हरा रंग जिसमें कुछ नीली आभा भी होती है। मुंगी। २. उक्त रंग का पुरानी चाल का एक प्रकार का धारीदार कपड़ा।
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मूँगी  : वि० [हिं० मूँगा] मूंगे के रंग की तरह का लाल। पुं० उक्त प्रकार का लाल रंग। (कोरल)
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मूचना  : स०=मोचना। पुं० =मोचना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूँछ  : स्त्री० [सं० श्मश्रु, प्रा० मस्सु से मच्छु] १. पुरुषों तथा कुछ अन्य जीव-जंतुओं के ऊपर वाले होंठ और नासिक के बीचवाले अंश में होनेवाले बाल। लोक-व्यवहार में यह पौरुष के लक्षण के रूप में माने जाते हैं। मुहावरा—मूँछे उखाड़ना=(क) कठिन दंड देना। (ख) घमंड चूर करना। मूँछों पर ताव देना या हाथ फेरना=विजय या वीरता की अकड़ दिखाना। अभिमान या बड़प्पन प्रकट करना। मूँछे नीची होना=(क) अभिमान नष्ट होने के कारण लज्जित होना। (ख) अपमान या अप्रतिष्ठा होना। २. कुछ विशिष्ट जीव-जंतुओं के होंठों पर होनेवाले उक्त प्रकार के बाल जिनके द्वारा वे चीजों का स्पर्श करके उनका ज्ञान प्राप्त करते हैं।
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मूछ  : स्त्री०=मूँछ।
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मूँछी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की कढ़ी।
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मूँज  : स्त्री० [सं० मुञज्] सरकंडों के ऊपरी भाग का छिलका जिसे भिगो और कूटकर चारपाइयाँ बुनने के लिए बाध या बान (एक प्रकार की रस्सी) बनाया जाता है।
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मूजिब  : पुं० [अ०] आविष्कारक।
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मूजिव  : पुं० [अ०] कारण। सबब।
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मूजी  : वि० [अ०] १. ईजा देने अर्थात् कष्ट पहुँचानेवाला। सतानेवाला। अत्याचारी। २. खल। दुर्जन। ३. बहुत बड़ा कंजूस। परम कृपण।
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मूझ  : सर्व०=मुझ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूझना  : अ० [सं० मूर्च्छन] १. मूर्च्छित होना। २. मुरझाना।
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मूठ  : स्त्री० [सं० मुष्टि] १. मुट्ठी। मुहावरा—मूठ करना=तीतर, बटेर आदि को गरमाने तथा उत्तेजित करने के लिए मुट्ठी में रखकर हलके से बार बार दबाना। घूट मारना=स्त्री० (क) कबूतर को मुट्ठी में पकड़ना। (ख) हस्त क्रिया करना। २. किसी उपकरण, यंत्र, शस्त्र आदि का वह भाग जहाँ से उसे पकड़ा या उठाया जाना है। जैसे—छाता, चक्की या तलवार की मूठ। ३. किसी औजार हथियार आदि का वह भाग जो व्यवहार करते समय हाथ में रहता है। मुठिया। दस्ता। कब्जा। जैसे—छाते या तलवार की मूठ। ४. उतनी वस्तु जितनी मुट्ठी में आ सके। ५. एक प्रकार का जुआ जिसमें मुट्ठी में कौड़ियाँ बन्द करके उनकी संख्या बुझाते हैं। ६. तंत्र-मंत्र का प्रयोग। जादू। टोना। मुहावरा—मूठ मारना=किसी पर जादू-टोना करने के लिए मुट्ठी में कोई चीज पकड़कर और मंत्र पढ़कर किसी पर फेंकना।
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मूठना  : अ० [सं० मुष्ट, प्रा० मुटठ] नष्ट होना। मर मिटना। न रह जाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूठा  : पुं० =मुट्ठा।
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मूठाली  : स्त्री० [हिं० मूठ+आली (प्रत्यय)] तलवार। (डिं०)
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मूठि  : स्त्री० १. =मूठ। २. =मुट्ठी।
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मूठी  : स्त्री०=मुट्ठी।
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मूँड़  : पुं० [सं० मुंड] सिर। कपाल। मुहावरा—मूँड़ मुड़ाना=त्यागी या विरक्त होकर किसी साधु-संन्यासी का चेला बनना। उदाहरण—‘मूँड़’ के शेष मुहावरे। के लिए देखें ‘सिर’ के मुहा०।
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मूड़  : पुं० =मूँड़। वि० =मूढ़।
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मूँड़-कटा  : वि० [हिं० मूँड़+काटना] सिर-कटा
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मूँड़न  : पुं० =मुंडन।
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मूँड़ना  : स० [सं० मुंडन] १. उस्तरे से रगड़कर शरीर के किसी अंग पर निकले हुए बाल निकालना, विशेषतः सिर के बाल निकालना। २. चालाकी से किसी से धन-दौलत ले लेना। ३. किसी को चेला बनाना।
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मूँड़ी  : स्त्री० [हिं० मुँड़ (सिर) का स्त्री० अल्पा] १. सिर। मस्तक। मूँड़। पद—मूँड़ी काटा=स्त्रियों की एक गाली जिसका आशय होता है—तेरा सिर काटा जाय अर्थात् तू मर जाय। मुहावरा—(किसी की) मूँड़ी मरोड़ना=किसी को धोखा देकर उसका माल छीन लेना या दबा बैठना। २. किसी चीज का अगला और ऊपरी भाग।
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मूड़ी  : स्त्री० [?] ऐसे भुने हुए चावल जो फूलकर अन्दर से पोले हो जाते हैं। फरवी। स्त्री०=मूँड़ी (मुंड या मस्तक)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूड़ी-काटा  : वि० [हिं० मूँड़+काटना] जिसका सिर काटे जाने के योग्य हो, अर्थात् परम दुष्ट। (स्त्रियों की गाली)।
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मूँड़ीबंध  : पुं० [हिं० मूँड़+बंध] कुश्ती का एक पेंच।
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मूढ़  : वि० [सं०√मुह् (अविवेक)+क्त] [भाव० मूढ़ता] १. जिसे कुछ भी बुद्धि न हो। परम मूर्ख। बिलकुल नासमझ। २. निष्चेष्ट। स्तब्ध। ३. हक्का-बक्का। पुं० तमोगुण की प्रधानता के कारण चित्त के निन्द्रायुक्त या स्तब्ध होने की अवस्था या भाव।
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मूढ़-गर्भ  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा गर्भ जिसमें से सन्तान न हो सके। विकृत होकर गिर जानेवाला गर्भ।
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मूढ़-वात  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. किसी कोश में रुकी या बँधी हुई वायु। २. बहुत जोरों का अन्धड़। तूफान। जैसे—मूढ़-वाताहत जहाज=तूफान का मारा हुआ जहाज।
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मूढ़ता  : स्त्री० [सं० मूढ़+तल्+टाप्] १. मूढ़ होने की अवस्था या भाव। २. मूर्खता। ३. अज्ञान।
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मूढात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० मूढ़-आत्मन्, ब० स०] बहुत बड़ा मूर्ख।
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मूढ़ी  : स्त्री०=मूड़ी (फरवी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूत  : पुं० [सं० मूत्र] १. पेशाब। मूत्र। मुहावरा—(किसी के आगे) मूत निकल पड़ना=भय से त्रस्त होना। मूत से निकल कर गू में पड़ना=पहले की अपेक्षा और भी अधिक बुरी दशा में जाना या पड़ना। २. औलाद। संतान। (बाजारू)।
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मूतना  : अ० [सं० मूत+ना (प्रत्यय)] पेशाब करना। मुहावरा—(किसी चीज पर) मूतना=बहुत ही तुच्छ या हेय और फलतः अग्राह्य या अस्पृश्य समझना।
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मूतरी  : पुं० [देश] एक प्रकार का जंगली कौआ। महताब। महालत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूत्र  : पुं० [सं०√मूत्र (मूतना)+घञ्] प्राणियों के उपस्थ मार्ग या जनर्नेद्रिय से निकलनेवाला वह दुर्गन्धमय तरल पदार्थ जिसमें शरीर के अनेक निकृष्ट विषाक्त अंश मिले रहते हैं। पेशाब। मूत।
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मूत्र-कृच्छ्  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें मूत्र थोड़ा-थोड़ा कुछ रुक-रुककर और प्रायः कुछ कष्ट सा होता है। (स्ट्रैगुरी)
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मूत्र-क्षय  : पुं० [सं० ष० त०] मूत्राघात रोग का एक भेद।
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मूत्र-ग्रन्थि  : पुं० [सं० ष० त०] मूत्राघात रोग का एक भेद।
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मूत्र-दशक  : पुं० [सं० ष० त०] हाथी, मेढ़े, ऊंट, गाय बकरे, घोड़े, भैंसे, गधे, पुरुष और स्त्री के मूत्रों का समूह।
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मूत्र-दोष  : पुं० [सं० ब० स०] मूत्र-सम्बन्धी कोई कष्ट या विकार।
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मूत्र-नाली  : स्त्री० [सं० ष० त०] उपस्थ के ऊपर या अन्दर की वह नाली जिसके द्वारा शरीर से मूत्र निकलता है।
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मूत्र-पतन  : पुं० [सं० ब० स०] १. मूत्र गिरने की अवस्था या भाव। २. गन्ध-बिलाव जिसका मूत्र प्रायः गिरता रहता है।
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मूत्र-पथ  : पुं० [सं० ष० त०] मूत्र-नाली।
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मूत्र-परीक्षा  : स्त्री० [सं० ष० त०] चिकित्साशास्त्र में, रोगी के मूत्र की वह वैज्ञानिक जाँच जिससे यह पता चलता है कि शरीर में किस प्रकार के कीटाणु या विकार है। (यूरिन एग्जामिनेशन)।
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मूत्र-प्रसेक  : पुं० [सं० ष० त०] मूत्र-नाली।
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मूत्र-फला  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] ककड़ी।
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मूत्र-मार्ग  : पुं० [सं०] मूत्राशय के साथ लगी हुई वह नली या सुरंगिका जिससे होकर मूत्र आगे बढ़कर निकलने के लिए जननेंद्रिय के ऊपरी भाग तक पहुँचता है। (यूरेथ्रा)।
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मूत्र-रोध  : पुं० [सं० ष० त०] वह अवस्था जिसमें किसी प्रकार के शारीरिक विकार के फलस्वरूप पेशाब होना बंद हो जाता है। पेशाब बन्द होने का रोग।
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मूत्र-वृद्धि  : स्त्री० [सं० ष० त०] अधिक बार तथा अपेक्षाकृत अधिक परिमाण में पेशाब होना।
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मूत्र-स्रोत  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘मूत्र-मार्ग’।
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मूत्रल  : वि० [सं० मूत्र√ला (लेना)+क] [स्त्री० मूत्रला] अधिक और अनेक बार मूत्र लानेवाला। (औषध या पदार्थ)।
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मूत्रला  : स्त्री० [सं० मूत्रल+टाप्] ककड़ी। वि० सं० ‘मूत्रल’ का स्त्री।
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मूत्राघात  : पुं० [सं० मूत्र-आघात, ब० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर के अन्दर कुछ समय के लिए मूत्र का बनना बन्द हो जाता है।
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मूत्राशय  : पुं० [सं०] नाभि के नीचे की वह थैली जिसमें मूत्र-संचित होता है। मसाना। (यूरिनरी ब्लेडर)।
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मूत्रित  : भू० कृ० [सं० मूत्र+इतच्] १. मूत्र के रूप में निकला हुआ। २. जो पेशाब के स्पर्श के कारण गंदा हो गया हो।
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मूँदना  : स० [सं० मुद्रण] १. ऊपर से कोई वस्तु डाल या फैलाकर किसी वस्तु को छिपाना। आच्छादित करना। २. छेद या सूराख बन्द करना। ३. आँखों के सम्बन्ध में दोनों पलकें इस प्रकार मिलाना कि देखने का काम बन्द हो जाय। संयो० क्रि०—देना।—लेना। ४. किसी चीज को उलट या ढककर रखना।
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मूंदर  : स्त्री०=मुंदरी (अँगूठी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूंध  : स्त्री०=मुग्धा (राज०) उदाहरण—मूँध मेरसी खीज।—ढोल० मा०। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूना  : पुं० [देश] १. पीतल या लोहे की अँकुसी जो टकुए के सिरे पर जड़ी रहती है और जिसमें रस्सी या डोरा फँसा रहता है। २. एक तरह का झाड़ या उसका फल। अ०=मुअना (मरना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूर  : पुं० [सं० मूल] १. मूल। जड़। २. जड़ी। बूटी। ३. मूल धन। असल पूँजी। ४. मूल नक्षत्र। पुं० अफ्रीका की एक मुसलमान जाति। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरख  : वि०=मूर्ख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरखताई  : स्त्री०=मूर्खता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरचा  : पुं० =मोरचा (जंग)।
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मूरछना  : अ० [सं० मूर्च्छा] मूर्च्छित होना। बेहोश होना। स्त्री० १. =मूर्च्छा। २. मूर्च्छना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरछा  : स्त्री०=मूर्च्छा।
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मूरत  : स्त्री०=मूर्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरति  : स्त्री०=मूर्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरतिवंत  : वि० [सं० मूर्ति+वत् (प्रत्यय)] १. मूर्तिमान। २. देहधारी। सशरीर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरध  : पुं० =मूर्द्धा (सिर)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरा  : पुं० [सं० मूल] बड़ी तथा मोटी मूली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरि  : स्त्री० [सं० मूल] १. मूल। जड़। २. जड़ी। बूटी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरिस  : वि० [अ०] वह जिसका कोई वारिस हुआ हो। पुं० पूर्वज।
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मूरी  : स्त्री० १. =मूली। २. मूरि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूरुख  : वि०=मूर्ख। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूर्ख  : वि० [सं०√मुह्+ख, मूर, आदेश] [भाव० मूर्खता] १. प्राचीन भारतीय आर्यों में गायत्री न जानने अथवा अर्थ सहित गायत्री न जाननेवाला। २. जिसमें ठीक ढंग से तथा विचारपूर्वक कोई काम करने अथवा कोई बात समझने-सोचने की योग्यता या शक्ति न हो। ३. लाख समझाने पर भी जिसकी समझ में कोई बात न आती हो।
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मूर्खता  : स्त्री० [सं० मूर्ख+तल्+टाप्] १. मूर्ख होने की अवस्था या भाव। २. कोई मूर्खतापूर्ण आचरण, कार्य या बात।
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मूर्खत्व  : पुं० [सं० मूर्ख+त्व]=मूर्खता।
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मूर्खिनी  : स्त्री० [सं० मूर्ख] मूर्ख स्त्री। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मूर्खिमा  : स्त्री० [सं० मूर्ख+इमनिच्] मूर्खता। बेवकूफी।
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मूर्च्छन  : पुं० [सं०√मुर्च्छ (मोह)+ल्युट-अन] [भू० कृ० मूर्च्छित] १. किसी की चेतना या संज्ञा का कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में अस्थायी रूप से लोप करने की क्रिया या भाव। बेहोश करना या बेहोशी लाना। २. प्राचीन काल का एक विशिष्ट तांत्रिक प्रयोग जिससे किसी व्यक्ति की चेतना या संज्ञा नष्ट कर दी जाती थी। ३. आज-कल प्रायः इच्छाशक्ति के प्रयोग से किसी को इस प्रकार चेतनाहीन करना कि उसे शारीरिक कष्टों का अनुभव न हो और उसके स्नायविक तंत्र प्रायः बेकाम हो जाय। (मेस्मेरिज़्म)। विशेष—इस प्रक्रिया का आविष्कार आस्ट्रिया के मेस्मर नामक चिकित्सा ने रोगियों की चिकित्सा के लिए किया था। ४. उक्त के आधार पर वह प्रक्रिया जिसमें आत्मिक बल के द्वारा किसी को कुछ समय के लिए संज्ञाशून्य करके उससे कुछ असाधारण और विलक्षण कार्य कराये जाते हैं और जिसकी गणना इंद्रजाल में होती है। (मेस्मेरिज़्म) ५. वैद्यक में वह प्रक्रिया जिसके द्वारा पारा शुद्ध करने या उसका भस्म तैयार करने के लिए उसकी चंचलता नष्ट करके उसे स्थिर कर देते हैं। ६. कामदेव के पाँच वाणों में से एक, जिसके प्रभाव या प्रहार से प्रेमासक्त व्यक्ति कभी-कभी अपनी चेतना या संज्ञा खो देता है।
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मूर्च्छना  : स्त्री० [सं०√मूर्च्छ+युच्-अन, टाप्] १. संगीत में किसी स्वर से आरम्भ करके सातवें स्वर तक आरोह कर चुकने के उपरांत उन्हीं स्वरों से होनेवाला अवरोह। २. उक्त प्रक्रिया के फलस्वरूप होनेवाला शब्द या निकलनेवाला स्वर।
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मूर्च्छा  : स्त्री० [सं०√मूर्च्छ+अ+टाप्] वह अवस्था जिसमें अस्थायी रूप से किसी की संज्ञा लुप्त हो चुकी होती है। बेहोशी। विशेष—मूर्च्छा और संन्यास का अंतर जानने के लिए दे० ‘संन्यास’ का विशेष।
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मूर्च्छाल  : वि० [सं० मूर्च्छा+लच्] मूर्च्छित। संज्ञाहीन।
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मूर्च्छित  : भू० कृ० [सं० मूर्च्छा+इतच्] १. जो अचेत या बेहोश पड़ा हुआ हो। २. (धातु) जिसकी क्रियाशीलता नष्ट कर दी गयी हो। जैसे—मूर्च्छित पारा। ३. (व्यक्ति) जो वय अधिक होने के कारण अयोग्य तथा अशक्त हो गया हो।
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मूर्छा  : स्त्री०=मूर्च्छा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूर्छित  : भू० कृ०=मूर्च्छित। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूर्त  : वि० [सं०√मूर्च्छ (मूर्च्छित होना)+क्त] १. जिसकी कोई मूर्ति अर्थात् आकार या रूप हो। २. जो किसी प्रकार के ठोस पिंड के आकार या रूप में हो। जिसका कोई भौतिक अर्थात् कड़ा या ठोस रूप हो, और इसीलिए जो देखा या पकड़ा जा सके। साकार। (कान्क्रीट) ३. जिसका महत्त्व या स्वरूप समझ में आ सके। बुद्धि-ग्राह्मा। (टैन्जबल) ४. मूर्च्छित। बेहोश।
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मूर्त-विधान  : पुं० [सं० ष० त०] केवल कल्पना के आधार पर घटनाओं, कार्यों आदि के स्वरूप, चित्र आदि बनाने की क्रिया या भाव। प्रतिभावली (इमेजरी)।
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मूर्तता  : स्त्री० [सं० मूर्त+तल्+टाप्] मूर्त होने की अवस्था या भाव।
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मूर्तत्व  : पुं० [सं० मूर्त+त्व] मूर्त होने की अवस्था या भाव। मूर्तता।
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मूर्ति  : स्त्री० [सं०√मूर्च्छ+क्तिन्, छ-लोप] १. मूर्त होने की अवस्था या भाव। मूर्तता। ठोसपन। २. आकृति। शकल। सूरत। ३. देह। शरीर। ४. किसी की आकृति के अनुरूप गढ़ी हुई विशेषता उपासना, पूजन आदि के लिए बनाई हुई देवी-देवता की आकृति। प्रतिमा। जैसे—सरस्वती की पत्थर या मिट्टी की मूर्ति। ५. चित्र। तसवीर। वि० जो किसी विषय का बहुत बड़ा ज्ञाता या पंडित हो। (यौ० के अन्त में) जैसे—वेद-मूर्ति।
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मूर्ति-कला  : स्त्री० [सं० ष० त०] मूर्तियाँ बनाने की विद्या या हुनर।
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मूर्ति-पूजक  : वि० [सं० ष० त०] जो मूर्ति या प्रतिमा की पूजा करता हो। मूर्ति पूजनेवाला। बुतपरस्त।
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मूर्ति-पूजन  : पुं० [सं० ष० त०] मूर्तियों की पूजा करने की क्रिया या भाव।
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मूर्ति-पूजा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सगुण भक्ति के अन्तर्गत मूर्ति की की जानेवाली पूजा। २. मूर्तियों की पूजा करने की पद्धति। प्रथा या विधान।
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मूर्ति-लेख  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह लेख जो किसी मूर्ति के नीचे उसके परिचय आदि के रूप में अंकित किया गया हो।
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मूर्ति-विद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. मूर्ति या प्रतिमा गढ़ने की कला। २. चित्रकारी।
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मूर्तिकार  : पुं० [सं० मूर्ति√कृ+अण्] १. मूर्ति बनानेवाला कारीगर। २. चित्रकार।
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मूर्तिप  : पुं० [सं० मूर्ति√पा] १. पुजारी। २. मूर्तिपूजक।
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मूर्तिभंजक  : वि० [सं० ष० त०] १. मूर्तियाँ तोड़नेवाला। बुतशिकन। २. फलतः जिसका मूर्तियों में विश्वास न हो।
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मूर्तिमान् (मत्)  : वि० [सं० मूर्ति+मतुप्] [स्त्री० मूर्तिमती, भाव० मूर्तिमत्ता] १. जो मूर्त रूप में हो। २. फलतः सगुण तथा साकार। ३. प्रत्यक्ष। साक्षात्।
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मूर्तीकरण  : पुं० [सं० मूर्त+च्वि, इत्व, दीर्घ√कृ+लयुट-अन] [भू० कृ० मूर्तीकृत] किसी अमूर्त तत्त्व को मूर्त रूप देने की क्रिया या भाव।
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मूर्द्ध  : पुं० [सं० मूर्द्धन्] सिर।
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मूर्द्ध-कर्णी  : स्त्री० [सं०] छाता या ऐसी ही और कोई वस्तु जो धूप, पानी आदि से बचने के लिए सिर के ऊपर रखी या लगाई जाती हो।
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मूर्द्ध-ज्योति (स्)  : स्त्री० [सं० ष० त०] ब्रह्मरंध्र। (योग)
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मूर्द्ध-पिंड  : पुं० [सं० उपमि० स०] हाथी का मस्तक।
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मूर्द्ध-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] शिरीष पुष्प।
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मूर्द्ध-रस  : पुं० [सं० मध्य० स०] भात का फेन।
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मूर्द्धक  : पुं० [सं० मूर्द्धन+कन्] क्षत्रिय। वि० मूर्द्ध या सिर से सम्बन्ध रखनेवाला।
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मूर्द्धकपारी  : स्त्री०=मूर्द्धकर्णी।
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मूर्द्धखोल  : पुं० =मूर्द्धकर्णी।
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मूर्द्धज  : वि० [सं० मूर्द्धन√जन् (उत्पन्न-होना)] मूर्द्धा या सिर से उत्पन्न होनेवाला अथवा उससे सम्बन्ध रखनेवाला। पुं० केश। बाल।
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मूर्द्धन्य  : वि० [सं० मूर्धन्+यत्] १. मूर्द्धा से सम्बन्ध रखनेवाला। मूर्द्धासम्बन्धी। २. मस्तक या सिर में रहनेवाला। ३. (वर्ण) जिसका उच्चारण मूर्द्धा से होता हो। (दे० ‘मूर्द्धन्य-वर्ण’)।
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मूर्द्धन्य-वर्ण  : पुं० [सं० कर्म० स०] देव-नागरी वर्ण-माला में वे वर्ण जिनका उच्चारण मूर्द्धा से होता है। यथा-ऋ, ट, ठ, ड, ढ, ण, र और ष।
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मूर्द्धा (र्द्धन्)  : पुं० [सं०√मूर्व (बाँधना)+कनिन्, व-ध०] १. मस्तक। सिर। २. व्याकरण में मुँह के अन्दर का तालू और अलिजिह्र के बीच का अंश जिसे जीभ का अग्र भाग ट, ठ, ड, ढ, ण आदि का उच्चारण करते समय उलटकर छूता है।
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मूर्द्धाभिषिक्त  : भू० कृ० [सं० मूर्धन्-अभिषिक्त, सुप्सुपा स०] १. जिसके सिर पर अभिषेक किया गया हो। २. (राजा) जिसके राज्योरोहण के समय मूर्द्धाभिषेक नामक धार्मिक कृत्य हुआ हो। पुं० १. राजा २. क्षत्रिय। एक वर्ण संकर जाति जिसकी उत्पत्ति ब्राह्मण से ब्याही क्षत्रिय स्त्री के गर्भ से कही गयी है।
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मूर्द्धाभिषेक  : पुं० [सं० मूर्धन्-अभिषेक, ब० स०] प्राचीन भारत में एक प्रकार का धार्मिक और राजकीय कृत्य जिसमें किसी नये राजा के गद्दी पर बैठने से पहले सिर पर मंत्र पढ़कर पवित्र जल छिड़का जाता था।
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मूर्वा  : स्त्री० [सं०√मूर्व (बाँधना)+अच्+टाप्] मरोड़फली लता। मधुरसा।
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मूर्विका  : स्त्री० [सं० मूर्वा+कन्+टाप्, ह्रस्व, इत्व] मूर्वा।
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मूर्वी  : स्त्री०=मूर्वा।
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मूल  : पुं० [सं०√मृ+क्ल, ऊठ-आदेश] [वि० मूलक] १. पेड़-पौधों का वह भाग जो पृथ्वी के नीचे रहता है, और जिसके द्वारा वे जलीय अंश आदि खींचकर अपना पोषण करते और बढ़ते हैं। जड़। सोर। २. कुछ विशिष्ट प्रकार के पौधों की जड़े जो प्रायः खाने के काम आती है। उदाहरण—सहि दुःख कन्द मूल फल खाई।—तुलसी। पद—कन्द-मूल। ३. आदि। आरंभ। शुरू। नींव। बुनियाद। ५. कोई ऐसा तत्त्व जिसमें कोई दूसरी चीज या बात निकली, वही या बनी हो। उत्पादक तत्त्व या बात। जैसे—इस झगड़े का मूल कारण तो बताओ। ६. वह धन जो किसी प्रकार के लाभ की आशा में किसी व्यापार में लगाया जाय अथवा सूद पर किसी को उधार दिया जाय। असल पूँजी। मुहावरा—मूल पूजना=व्यापार में लगी हुई पूँजी या मूल धन निकल आना। ७. किसी पदार्थ का वह अंग या अंग जहाँ से उस पदार्थ का आरम्भ होता है। जैसे—भ्रुंज मूल। ८. कोई ऐसी चीज जिसकी अनुकृति पर वैसी ही और कोई चीज या चीजें बनाई जाती हो। ९. साहित्य में वह लेख या लेख्य जो पहले-पहल किसी ने अपनी बुद्धि या मन से तैयार किया या बनाया हो, और आगे चलकर जिसकी प्रति लिपि, व्याख्या आदि प्रस्तुत होती है। जैसे—(क) मूल की चार प्रतिलिपियाँ हुई थीं। (ख) गीता के इस संस्करण में मूल और टीका दोनों है। १॰. सत्ताईस नक्षत्रों में से उन्नीसवाँ नक्षत्र, जिसमें बालक का जन्म होना दूषित या निषिद्ध माना जाता है। ११. जमीकंद। सूरन। १२. पिप्पली मूल। १३. तंत्र में किसी देवता का आदि मंत्र या बीज। वि० १. असल और पहला। २. प्रधान। मुख्य। ३. जिसके आधार पर आगे चलकर किसी प्रकार का विकास होने को हो। अव्य० निकट। पास। समीप।
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मूल-कमल  : पुं० [सं० कर्म० स०] हठयोग के अनुसार नाभि के आसपास का अवयव जो कमल के रूप में माना गया है। नाभि-कमल।
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मूल-कर्म (न्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] त्रासन, उच्चाटन, स्तंभन, वशीकरण आदि का वह तांत्रिक प्रयोग जो औषधियों के मूल द्वारा किया जाता है। जड़ी-बूटियों के मूल से होनेवाला टोना-टोटका।
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मूल-कृच्छ्र  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] स्मृतियों में वर्णित ग्यारह प्रकार के पूर्णकृच्छ्रव्रतों में से एक जिसमें मूली आदि कुछ विशेष जड़ों का क्याथ या रस पीकर एक मास तक रहना पड़ता है। (मिताक्षरा)।
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मूल-खानक  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्राचीन वर्णसंकर जाति जो पेड़ों की जड़ों से जीविका निर्वाह करती थी।
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मूल-त्रिकोण  : पुं० [कर्म० स०] फलित ज्योतिष में सूर्य आदि ग्रहों की कुछ विशेष राशियों में स्थिति।
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मूल-द्रव्य  : पुं० [कर्म० स०] १. मूलधन। पूँजी। २. वह भूत या द्रव्य जिससे अन्य भूतों या द्रव्यों की उत्पत्ति हुई है।
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मूल-द्वार  : पुं० [कर्म० स०] सिंह-द्वार। सदर दरवाजा।
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मूल-द्वारावती  : स्त्री० [कर्म० स०] द्वारावती नगरी का एक प्राचीन अंश जो आजकल की द्वारका से कुछ दूर प्रायः समुद्र के अन्दर पड़ता है।
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मूल-धन  : पुं० [कर्म० स०] वह धन जो और धन कमाने के उद्देश्य से लगाया जाय। पूंजी।
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मूल-धातु  : स्त्री० [कर्म० स०] शरीर के अन्दर की मज्जा।
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मूल-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] मंडूक पर्णी नामक की ओषधि।
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मूल-पाठ  : पुं० [कर्म० स०] किसी लेखक के वाक्यों की वह मूल शब्दावली जिसका प्रयोग उसने स्वयं ही अपने लेख्य में किया हो। (टेक्स्ट)।
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मूल-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] किसी वंश को चलानेवाला व्यक्ति। किसी वंश का आदि पुरुष।
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मूल-पोती  : स्त्री० [मध्य० स०] छोटी पोई नाम का शाक।
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मूल-प्रकृति  : स्त्री० [कर्म० स०] संसार की बीज-शक्ति या वह आदिम सत्ता, जिसका परिणाम तथा विकास यह सारी सृष्टि है। आद्या शक्ति। प्रकृति।
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मूल-बंध  : पुं० [ष० त०] १. किसी विवादास्पद विषय से संबंध रखनेवाले सभी प्रकार के मतो या विचारों की गवेषणा करके उस पर अपना अधिकारिक मत प्रकट करना (डिस्सर्टेशन)। २. दे० ‘शोध-निबंध’।
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मूल-बंध  : पुं० [सं०] १. हठयोग की एक क्रिया जिसमें सिद्धासन या वज्रासन द्वारा शिश्न और गुदा के मध्यवाले भाग को दबाकर अपान वायु को ऊपर चढ़ाते हैं, जिससे कुंडलिनी जागकर मेरु-दंड के सहारे ऊपर की ओर चढ़ने लगती है। २. तांत्रिक पूजन में एक प्रकार का अंगुलि-न्यास।
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मूल-भूत  : पुं० [सं०] वह भूत जिसमें अन्य भूतों की सृष्टि मानी जाती है। वि० १. किसी वस्तु के मूल से सम्बन्ध रखनेवाला। जो किसी दूसरे के आधार पर या किसी की नकल न हो। (ओरिजिनल) ३. असल। मौलिक। (फंडामेंटल)।
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मूल-भृत्य  : पुं० [कर्म० स०] पुश्तैनी नौकर।
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मूल-मंत्र  : पुं० [कर्म० स०] वह उपाय जिससे कोई कार्य या सब कार्य जल्दी और सहज में सिद्ध हो जाते हों।
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मूल-रक्षण  : पुं० [ष० त०] राजधानी या शासन के केन्द्र स्थान की रक्षा। (कौ०)।
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मूल-रस  : पुं० [ब० स०] मूर्वा (लता)।
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मूल-वित्त  : पुं० [कर्म० स०] मूल-धन। पूँजी।
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मूल-विष  : वि० [ब० स०] जिसकी जड़ विषैली हो। (कनेर)।
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मूल-व्यसन  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा व्यसन जो किसी परिवार या वंश में पुरुषानुक्रम या कई पीढ़ियों से चला आ रहा हो।
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मूल-शाकट  : पुं० [सं० मूल+शाकट] वह खेत जिसमें मूली, गाजर आदि मोटी जड़वाले पौधे-बोये जाते हैं।
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मूल-स्थली  : पुं० [कर्म० स०] पेड़ का थाला। आलबाल।
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मूल-स्थान  : स्त्री० [कर्म० स०] १. रहने का आरम्भिक स्थान। २. बापदादा की जगह। पूर्वजों का निवास-स्थान। ३. प्रधान स्थान। राजधानी। ४. दीवार। भीत। ५. ईश्वर। ६. आधुनिक मुलतान नगर का पुराना और मूल नाम। (प्राचीन काल में यह तीर्थ था)।
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मूल-हर  : वि० [ष० त०] जिसने अपना सम्पूर्ण धन नष्ट कर दिया हो। (कौ०)
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मूलक  : वि० [सं० मूल+कन्०] १. जो किसी के मूल में हो। २. जिसके मूल में कुछ हो। ३. उत्पन्न करनेवाला। जैसे—अनर्थ मूलक। पुं० १. मूल स्वरूप। २. मूली नामक कंद। ३. वैद्यक में ३४ प्रकार के स्थावर विषों में से एक प्रकार का विष। ऐसा विष जो वृक्षों के मूल या जड़ के रूप में होता है।
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मूलक-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब०स०+ङीष्] सहिंजन (पेड़)।
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मूलकार  : पुं० [सं० मूल√कृ (करना)+अण्] मूलग्रंथ का कर्ता।
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मूलकारिका  : स्त्री० [सं० मूलकारक+टाप्, इत्व] १. मूल गद्य या पद्य जिसकी टीका की गई हो २. उधार दिए मूल धन की एक विशेष प्रकार की वृद्धि या सूद। ३. चंडीदेवी का एक नाम।
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मूलच्छेद  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी चीज की जड़ काटना जिसमें फिर वह पनप या बढ़ न सके। २. पूरी तरह से किया जानेवाला नाश।
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मूलज  : वि० [सं० मूल√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. मूल से उत्पन्न। २. जड़ से उत्पन्न होनेवाला। पुं० अदरक। आदी।
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मूलतः (तस्)  : अ० य० [सं० मूल+तस्] मूल रूप में। आदि में। प्रथमतः।
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मूलधनी  : पुं० [सं० मूलधन से] १. वह जो किसी काम में मूलधन लगाता हो। २. दे० ‘पूँजीपति’।
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मूलन  : वि० [सं० मूल] पूरा। समूचा। अव्य० १. मूल में ही। मूलतः। २. निश्चित रूप में। अवश्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूलबर्हण  : पुं० [सं० ष० त०] १. कोई चीज जड़ से काटना। मूलच्छेद। २. मूल नक्षत्र।
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मूला  : स्त्री० [सं० मूल+टाप्] १. सतावर। २. मूल नामक नक्षत्र। ३. पृथ्वी (डि०) स्त्री० [हिं० मूली] बहुत बड़ी और मोटी मूली। स्त्री०=मूली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूलाधार  : पुं० [मूल-आधार, ष० त०] हठयोग में माने हुए मानव शरीर के अन्दर के छः चक्रों में से एक चक्र जिसका स्थान अग्नि-चक्र के ऊपर गुदा और श्शिन के मध्य में होता है। विशेष—यह चार दलोंवाला और लाल रंग का कहा गया है, और इसके देवता गणेश माने गये हैं। कहते हैं कि इसे सिद्ध कर लेने पर मनुष्य सब विद्याओं का ज्ञाता हो जाता है और सदा प्रसन्न तथा स्वस्थ रहता है।
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मूलार्थ  : पुं० [सं० मूल+अर्थ, एक प्रकार का क्वाथ] होमियोपैथी चिकित्सा में किसी ओषधि का वह मूल रस या सार जिससे आगे चलकर चिकित्सा के लिए अधिक शक्तिवाले रूप प्रस्तुत किये जाते हैं (मदर टिंचर)।
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मूलांश  : पुं० [सं० मूल+अंश] १. किसी वस्तु का मूल अंश या तत्त्व। २. वह मूल अंश जो आधार के रूप में हो और जिसके ऊपर किसी प्रकार की विस्तृत रचना या विकास हुआ हो। (बेस)
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मूलिक  : वि० [सं० मूल+ठन्—इक] १. मूल-सम्बन्धी। मूल का। २. जो मूल में हो। जैसे—मूलिक न्यायालय=वह न्यायालय जिसमें पहले-पहल कोई मुकदमा या वाद उपस्थित किया गया हो। ३. कंदमूल खाकर जीवन निर्वाह करनेवाला।
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मूलिन  : वि० [सं० मूल+इनि] मूल से उत्पन्न। पुं० पेड़। वृक्ष।
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मूलिनी  : स्त्री० [सं० मूलिन+ङीष्] जड़ के रूप में होनेवाली ओषधि। जड़ी।
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मूलिनी-वर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] नागदंती, श्वेतवचा, श्यामा, त्रिवृत्त, वृद्धदारका, सप्तला, श्वेतापराजिता, मूषकपर्णी, गोंडुवा, ज्योतिष्मती, बिबिं, क्षणपुष्पी, विषाणिका, अश्वगंधा, द्रवंती, और क्षीरिणी जड़ों का समाहार। (सुश्रुत)।
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मूली  : स्त्री० [सं० मूलक] १. एक पौधा जो अपनी लम्बी मुलायम जड़ के लिए बोया जाता है और जिसकी तरकारी बनती है। यह जड़ खाने में मीठी, चरपरी और तीक्ष्ण होती है। मुहावरा—(किसी को) मूली गाजर समझना=बहुत ही तुच्छ समझना। किसी गिनती में न समझना। २. एक प्रकार का बाँस। स्त्री० [सं] १. ज्येष्ठी। २. एक पौराणिक नदी। स्त्री०=मूलिका। (जड़ी) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मूलीय  : वि० [सं० मूल+छ-ईय] मूल का या मूल से होनेवाली। मूल सम्बन्धी। जैसे—जिह्वा-मूलीय।
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मूलोच्छेद  : पुं० [सं० मूल-उच्छेद, ष० त०]=मूलच्छेद।
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मूलोदय  : पुं० [सं० मूल-उदय, ष० त०] ब्याज का बढ़ते-बढ़ते मूल धन के बराबर हो जाना।
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मूल्य  : पुं० [सं० मूल्य+यत्] १. मुद्रा के रूप में उतना धन जो कोई चीज क्रय करने के लिए उसके बदले में किसी को देना पड़ता है। वह दर या भाव जिस पर कोई चीज बिकती हो। अर्थशास्त्र के अनुसार यह किसी वस्तु की माँग और होनेवाली पूर्ति की मात्रा के आधार पर स्थिर होता है। ३. वह गुण, या तत्त्व जिसके आधार पर किसी का महत्त्व या मान होता है। ४. वह जो किसी को किसी कारणवशात् झेलना, भुगतना या बलिदान करना पड़ता है। जैसे—अत्यधिक परिश्रम का मूल्य स्वास्थ्य-हानि के रूप में चुकाना पड़ता है। क्रि० प्र०—चुकाना। वि० १. प्रतिष्ठा के योग्य। कदर के लायक। २. (पौधा) जो रोपा जा सकता हो। ३. (फसल) जो जड़ से उखाडी जाने के योग्य। जैसे—उड़द, मूँग आदि।
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मूल्य-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि बाजारों में वस्तुओं के मूल्य किन आधारों पर या किन कारणों से घटते-बढ़ते रहते हैं।
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मूल्य-सूचनांक  : पुं० [ष० त०] दे० ‘सूचकाँक’।
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मूल्य-ह्रास-निधि  : पुं० [ष० त०] वह कोश या निधि जिसका मुख्य उद्देश्य दैनिक उपयोग में आनेवाले उपकरणों आदि के घिस जाने, पुराने तथा बेकाम हो जाने के कारण उनके मूल्य में क्रमशः होनेवाली घटी-पूरी करना होता है। (डिप्रिशियेशन फंड)।
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मूल्यन  : पुं० [सं०√मूल्य+णिच्+ल्युट-अन] किसी वस्तु का मूल्य या निश्चित या स्थिर करना। दाम आँकना। मूल्यांकन। (वैल्युएशन)।
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मूल्यवान् (वत्)  : वि० [सं० मूल्य+मतुप्] १. जिसका मूल्य अत्यधिक हो। बहुमूल्य। २. जिसका महत्व य मान किसी की दृष्टि में बहुत अधिक हो।
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मूल्यांकन  : पुं० [सं० मूल्य-अंकन, ष० त०] १. किसी बात या वस्तु का मूल्य निर्धारित या निश्चित करने की क्रिया या भाव। (वैल्युएशन) २. किसी वस्तु की उपयोगिता, गुण, महत्त्व आदि का होनेवाला अंकन। कूत।
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मूल्यानुसार  : अव्य० [सं० मूल्य-अनुसार, ष० त०] दे० ‘यथा-मूल्य’।
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मूवना  : अ० [सं० मरण] मरना।
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मूश  : पुं० [सं० मूष से०] चूहा।
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मूष  : पुं० [सं०√मूध् (चुराना)+क]=मूषक (चूहा)।
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मूषक  : पुं० [सं० मूष+कन्] [स्त्री० मूषिका] १. चूहा। २. लाक्षणिक अर्थ में, वह जो चुरा-छिपा कर या जबरदस्ती दूसरों का धन ले लेता हो। ३. रहस्य संप्रदायों में, मन को अज्ञान के अन्धकार में चूहे की तरह विचरता है और जिसे अन्त में काल-रूपी सर्प खा जाता है।
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मूषक-कर्णी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] मूसाकानी (लता)।
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मूषक-वाहन  : पुं० [ब० स०] गणेश।
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मूषण  : पुं० [सं०√मूष्+ल्यु-अन] चुरा या छीन लेना। मूसना। चुराया।
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मूषा  : स्त्री० [सं० मूष+टाप्] १. सोना आदि गलान की धरिया। तैजसावर्तिनी। २. देव-ताड़ नामक वृक्ष। ३. गोखरु का पौधा। ४. गवाक्ष। झरोखा।
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मूषा-तुत्थ  : पुं० [सं० मध्य० स०] नीला थोथा। तूतिया।
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मूषिक  : पुं० [सं०√मूष्+इकन्] १. चूहा। मूसा। २. दक्षिण भारत का एक प्राचीन जनपद।
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मूषिक-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] जल में होनेवाला एक प्रकार का तृण।
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मूषिकसाधन  : पुं० [ष० त०] तंत्र में एक प्रकार का प्रयोग या साधन जिसके सिद्ध हो जाने से मनुष्य चूहे की बोली समझकर उससे शुभ-अशुभ फल कह सकता है।
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मूषिका  : स्त्री० [सं० मूषिक+टाप्] १. छोटा चूहा। चुहिया। २. मूसाकानी लता।
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मूषिकांक  : पुं० [सं० मूषिक-अंक, ब० स०] गणेश।
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मूषिकांचन  : पुं० [सं० मूषिक√अञ्ज् (प्राप्त करना)+ल्यु-अन] गणेश।
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मूषिकाद  : पुं० [सं० मूषिक√अद् (खाना)+अण्] बिडाल। बिल्ला।
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मूषिकाराति  : पुं० [मूषिक-अराति, ष० त०] बिल्ली। बिड़ाल।
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मूषीक  : पुं० [सं०√मूष्+ईकन्] बड़ा चूहा।
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मूषीकरण  : पुं० [सं०√मूष्+च्वि, इत्व, +दीर्घ√कृ (करना)+ल्युट] धरिया में धातु गलाने की क्रिया या भाव।
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मूस  : पुं० [सं० मूष] चूहा।
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मूसदानी  : स्त्री० [हिं० मूस+दानी (सं० आधान)] चूहा फँसाने का पिंजरा। चूहेदानी।
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मूसना  : स० [सं० मूषण०] १. किसी की चीज चुराकर उठा ले जाना। २. ठगना। ३. लूटना।
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मूसर  : पुं० [हिं० मूसल] =मूसल।
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मूसर्रह  : वि० [अ०] १. तसरीह से युक्त। ब्योरेवार। २. स्पष्ट रूप से कहा हुआ।
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मूसल  : पुं० [सं० मुशल] १. धान कूटने का एक प्रसिद्ध उपकरण जो लंबे मोटे डंडे के रूप में होता है और जिसके मध्य भाग में पकड़ने के लिए खड्डा सा होता है और छोर पर लोहे की साम जड़ी रहती है। २. उक्त आकार का प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र। ३. राम, कृष्ण आदि के चरणों में माना जानेवाला एक प्रकार का चिन्ह। ४. पानी बेल नाम की लता।
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मूसलचंद  : पुं० [हिं० मूसल+चंद] १. गँवार। असभ्य। २. अपढ़। ३. मूर्ख। ४. हट्टा-कट्टा परन्तु अकर्मण्य या निकम्मा आदमी। पद—दाल भात में मूसलचंद=ऐसा बहुत ही अनपेक्षित या अनभीष्ट व्यक्ति जो व्यर्थ हस्तक्षेप करना चाहता हो।
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मूसलधार  : अव्य० [हिं० मूसल+धार] मूसल के समान मोटी धार में।
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मूसला जड़  : पुं० [हि० मूसल] वृक्षों की दो प्रकार की जड़ों में से वह जड़ जो मोटी और सीधी कुछ दूर तक जमीन में चली गई हो, तथा जिसमें इधर-उधर सूत या शाखाएँ न फूटी हों। ‘झखरा’ से भिन्न। (टैप रूट)।
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मूसली  : पुं० [सं० मुशाली] हल्दी की जाति का एक पौधा।
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मूसा  : पुं० [सं० मूषक] चूहा।
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मूसा  : पुं० [इब, मौश्शा से अ०] यहूदियों के एक प्रसिद्ध धार्मिक और सामाजिक नेता जिन्होने मिस्र के इसराइलियों को दासता से मुक्त किया था। ये पैगम्बर या ईश्वरी देवदूत माने गये थे, और इन्हीं के समय से पैगम्बरी मतों का आरंभ हुआ था। इनके उपदेशों का संग्रह ‘तौरेते’ के नाम से प्रसिद्ध है।
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मूसा-हिरन  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का बहुत छोटा हिरन जो प्रायः एक बित्ता लंबा और प्रायः इतना ही ऊँचा होता है। (माउस डीयर)।
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मूसाई  : पुं० [अ० मूसा+हिं० आई (प्रत्यय)] मूसा के धर्म का अनुयायी, यहूदी। वि० मूसा सम्बन्धी।
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मूसाकानी  : स्त्री० [सं० मूषाकर्णी] गीली जमीन में होनेवाली एक प्रकार की लता जिसके प्रायः सभी अंग ओषधि के रूप में काम आते हैं। विशेषतः चूहे के काटने से उत्पन्न होनेवाला विष दूर करने के लिए इसे पीसकर लगाया और इसका काढ़ा पिया जाता है।
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मूसीकार  : पुं० [अ०] १. एक प्रकार का कल्पित पक्षी जिसके सम्बन्ध में कहा जाता है कि इसकी चोंच में बहुत से छेद होते हैं, जिनमें से अनेक प्रकार के राग निकलते हैं। सामी जातियों का मत है कि मनुष्यों में संगीत का प्रचार इसी का गाना सुनने से हुआ है। २. संगीतज्ञ। ३. अरब देश का एक प्रकार का बाजा।
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मूसीक़ी  : स्त्री० [अ०] संगीत-कला। गान विद्या।
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मृकंडु  : पुं० [सं० मृग-कण्डु, ष० त० पृषो० ग—लोप] मार्कंडेय ऋषि के पिता एक मुनि।
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मृग  : पुं० [सं०√मृग् (अन्वेषण)+क] [स्त्री० मृगी] १. जंगली जानवर। २. हिरन। ३. कस्तूरी मृग का नाफा। ४. वैष्णवों का एक प्रकार का तिलक। ५. कामशास्त्र में चार प्रकार के पुरुषों में से एक जो चित्रिणी स्त्री के लिए उपयुक्त कहा गया है। ६. ज्योतिष में शुक्र की नौ वीथियों में से आठवीं वोथी जो अनुराधा, ज्येष्ठा और मूल में पड़ती है। ७. हाथियों की एक जाति जिसकी आँखें कुछ बड़ी होती हैं और गंडस्थल पर सफेद चिन्ह होता है। ८. अगहन का महीना। मार्गशीर्ष। ९. मृगशिरा नक्षत्र। १॰. मकर राशि। ११. एक प्रकार का यज्ञ। १२. अन्वेषण। खोज। तलाश।
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मृग-कानन  : पुं० [ष० त०] १. वह जंगल जिसमें शिकार के लिए बहुत से जानवर हों। २. उद्यान। बाग।
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मृग-चर्म (चर्मन्)  : पुं० [ष० त०] १. हिरन की खाल। २. ओढ़ी अथवा आसन के रूप में बिछाई जानेवाली हिरन की खाल।
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मृग-चेटक  : पुं० [सं०√चिट् (प्रेरणा)+णिच्+ण्वुल्-अक, =चेटक, मृगचेटक, ष० त०] गंध बिलाव। मुश्क बिलाव।
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मृग-छाला  : स्त्री० [सं० मृग+हिं० छाला] हिरन की छाल। मृगचर्म।
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मृग-छौना  : पुं० [सं० मृग+हिं० छौना] हिरन का बच्चा। मृग-शावक।
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मृग-जल  : पुं० [मध्य० स०]=मृग-तृष्णा। पद—मृग जल स्नान=अनहोनी बात।
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मृग-जालिक  : स्त्री० [ष० त०] वह जाल जिसमें हिरन फँसाये जाते हैं।
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मृग-तृषा  : स्त्री०=मृग-तृष्णा।
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मृग-तृष्णा  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. ऐसी तृष्णा जिसकी पूर्ति प्रायः असंभव हो। २. दे० ‘मृग-मरीचिका’।
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मृग-तृष्णिका  : स्त्री०=मृग-तृष्णा।
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मृग-दंशक  : पुं० [ष० त०] कुत्ता।
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मृग-दाव  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. वह वन जिसमें बहुत से मृग हों। २. काशी के सारनाथ नामक तीर्थ के पासवाले जंगल का पुराना नाम।
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मृग-धर  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा।
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मृग-धूर्त  : पुं० [स० त०] श्रृंगाल।
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मृग-नयन  : वि० [ब० स०] [स्त्री० मृग-नयनी] हिरन की आँखों की तरह जिसकी आँखें सुन्दर हों।
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मृग-नाथ  : पुं० [ष० त०] सिंह। शेर।
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मृग-नाभि  : पुं० [ष० त०] कस्तूरी।
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मृग-नाभिजा  : स्त्री० [सं० मृगनाभि√जन् (उत्पन्न होना)+ड+टाप्] कस्तूरी।
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मृग-नेत्रा  : स्त्री० [सं० ब० स०] मृगशिरा नक्षत्र से युक्त रात्रि।
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मृग-नैन  : वि० [स्त्री० मृगनैनी] =मृगनयन।
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मृग-पति  : पुं० [ष० त०] सिंह। शेर।
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मृग-मद  : पुं० [सं० मृग√मद् (हृष्ट होना)=अप्] कस्तूरी।
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मृग-मदा  : स्त्री० [सं० मृगमद+टाप्] कस्तूरी।
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मृग-मरीचिका  : स्त्री० [ब० स०] १. मृग को होनेवाली जल की वह भ्रांति जो कडी धूप में चमकते हुए बालू के कणों के फलस्वरूप होती है। दे० ‘मरीचिका’। (मिरेज) २. लाक्षणिक अर्थ में अवास्तविक पदार्थ।
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मृग-मित्र  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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मृग-मुख  : पुं० [ब० स०] मकर राशि।
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मृग-यूथ  : पुं० [ष० त०] हिरणों का दल।
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मृग-रसा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] सहदेई नाम का पौधा। सहदेवी। महाबला।
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मृग-राज  : पुं० [सं० ष० त०] सिंह। शेर।
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मृग-रोग  : पुं० [ष० त०] पशुओं विशेषतः चोड़ों के नथने सूजने का एक रोग।
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मृग-रोय (न्)  : पुं० [ष० त०] ऊन।
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मृग-लांछन  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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मृग-लेखा  : स्त्री० [मध्य० स०] चंद्रमा पर का मृगांक।
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मृग-लोचन  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० मृगलोचना, मृगलोचनी] हिरन के समान सुन्दर आँखों-वाला।
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मृग-लोचनी  : वि० स्त्री०, हिं० मृगलोचन का स्त्री रूप।
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मृग-वल्लभ  : पुं० [ष० त०] एक तरह की घास।
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मृग-वारि  : पुं० [मध्य० स०] १. वह जल जिसकी भ्रांति मृग की कड़ी धूप में चमकते हुए बालू के फलस्वरूप होती है। २. लाक्षणिक अर्थ में, भ्रममूलक पदार्थ या बात।
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मृग-वाहन  : पुं० [ब० स०] वायु। हवा।
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मृग-व्याध  : पुं० [मध्य० स०] १. शिकारी। २. नक्षत्र।
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मृग-शिरा  : पुं० [सं० मृगशिर+टाप्] २७ नक्षत्रों में से पाँचवाँ नक्षत्र जो तीन तारों का है।
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मृग-शीर्ष  : पुं० [ब० स०] मृगसिरा नक्षत्र। २. माघ महीना।
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मृग-श्रेष्ठ  : पुं० [स० त०] व्याघ्र।
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मृगजा  : स्त्री० [सं० मृगज+टाप्] कस्तूरी।
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मृगजीवन  : पुं० [सं० मृग√जीव (जीना)+ल्यु—अन, उप० स०] शिकारी।
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मृगप्रिय  : पुं० [ष० त०] १. भूतृण। २. जल-कदली।
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मृगमेह  : पुं० =मृगमद (कस्तूरी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मृगम्मद  : पुं० =मृगमद (कस्तूरी) उदाहरण—देव में सीस बसायौ सनेह कै, भाव मृगम्मद बिंद कै राख्यौ।—देव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मृगया  : स्त्री० [सं०√मृग्+णिच्+श, यक्, णि-लोप+टाप्] १. वन्य पशुओं के शिकार के लिए किया जानेवाला वन-गमन। २. आखेट। शिकार।
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मृगयू  : पुं० [सं० मृग√या (गति)+कु०] १. ब्रह्मा। २. गीदड़। २. ब्याध।
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मृगरोमज  : पुं० [सं० मृगरोमन√जन् (उत्पत्ति)+ड] ऊनी कपड़ा।
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मृगव्य  : पुं० [सं० मृग√व्यध (बेधना)+ड] १. वह जन्तु जिसका शिकार मृग या शेर करता हो। २. वह जिसे मार डालने अथवा हानि पहुँचाने से अपना कोई उद्देश्य सिद्ध होता या काम निकलता है। ३. शिकार।
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मृगहा (हन्)  : पुं० [सं० मृग√हन् (हिंसा)+क्विप्] शिकारी।
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मृगा  : स्त्री० [स० मृग+अच्+टाप्] सहदेई नाम का पौधा।
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मृगांक  : पुं० [मृगअंक, ब० स०] १. चंद्रमा। २. ते० ‘मृगांक रस’।
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मृगांक-रस  : पुं० [मध्य० स०] वैद्यक में एक प्रकार का रस जो सुवर्ण और रत्नादि से बनता है और क्षयरोग में अत्यधिक गुणकारक माना जाता है।
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मृगाक्ष  : वि० [मृग-अक्षि, ब० स०+षच्] [स्त्री० मृगाक्षी] मृग की आँखों के समान सुन्दर आँखोंवाला।
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मृगाक्षी  : वि० स्त्री० [सं० मृगाक्ष+ङीष्] मृगनयनी। मृगलोचनी।
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मृगाजिन  : पुं० [मृग-अजिन, ष० त०] मृग-छाला। मृग-चर्म।
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मृगाजीव  : स्त्री० [सं० मृग√जीव् (जीना)+अच्] १. कस्तूरी। २. वारुणी लता।
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मृगांतक  : वि० [मृग-अंतक, ष० त०] मृगों या जंगली जानवरों का अन्त या नाश करनेवाला। पुं० चीता नामक हिंसक पशु।
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मृगादन  : वि० पुं० [सं०√अद्+ल्यु —अन=अदन, मृग-अदन, ष० त०] मृगाद।
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मृगादनी  : स्त्री० [सं० मृगादान+ङीष्] १. इंद्रावारुणी। इंद्रायन। २. सहदेई। ३. ककड़ी।
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मृगाद्  : पुं० [सं० मृग√अद् (खाना)+क्विप्] सिंह, चीता, बाघ इत्यादि वन्य जन्तु जो मृगों को खाते हैं। वि० मृगों को खानेवाला।
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मृगाराति  : पुं० [सं० मृग-अरति, ष० त०] कुत्ता।
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मृगाशन  : पुं० [सं० मृग-अशन, ब० स०] सिंह। शेर।
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मृगित  : भू० कृ०[सं०√मृग (खोजना)+क्त] जिसके विषय में छान बीन की गई हो। अन्वेषित।
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मृगिनी  : स्त्री० [सं० मृग] मृग की मादा। मादा हिरन। हिरनी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मृगी  : स्त्री० [सं० मृग+ङीष्] १. मादा हिरन। २. पीले रंग की एक प्रकार की कौड़ी। ३. मिरगी नामक रोग। अपस्मार। ४. कस्तूरी। ५. कश्यप ऋषि की क्रोधवशा नाम्नी पत्नी से उत्पन्न दस कन्याओं में से एक, जिससे मृगों की उत्पत्ति हुई और जो पुलह ऋषि की पत्नी थी। ६. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक रगण (ऽ।ऽ) होता है। प्रियावृत्त।
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मृगीवंत  : पुं० दे० मृग-तृष्णा। उदाहरण—मृगीवंत जल दरसै जैसे।—नंददास।
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मृगु-गम  : पुं० [ष० त०] चित्रा, अनुराधा, मृगशिरा और रेवती इन चारों नक्षत्रों का एक गण।
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मृगुपक्षा  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार की समुद्री मछली। सामन। (सैल्मन)।
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मृगेंद्र  : पुं० [सं० मृग-इन्द्र, ष० त०] सिंह। शेर।
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मृगेंद्र-चटक  : पुं० [सं० उपमि० स०] बाज (पक्षी)।
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मृगेंल  : स्त्री० [सं० मृग+हिं, एल (प्रत्यय)] सुनहली आँखोंवाली। एक प्रकार की मछली।
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मृगेंश  : पुं० [सं० मृग-ईश, ष० त०] सिंह। शेर।
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मृगोत्तम  : पुं० [सं० मृग-उत्तम, ] मृगशिरा नक्षत्र। वि० मृगों में उत्तम या श्रेष्ठ।
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मृग्य  : वि० [सं०√मृग (खोजना)+यत्] १. जिसका पीछा किया जाय। २. अन्वेषण किये जाने के योग्य।
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मृच्छकटिक  : पुं० [सं० मृद्-शकटि, ब० स०+कप्] संस्कृत का एक प्रसिद्ध नाटक।
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मृज  : पुं० [सं०√मृज् (शुद्ध करना)+क] पखावज या मृदंग नाम का बाजा।
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मृजा  : स्त्री० [सं०√मृज्+अङ्, +टाप्] मार्जन। (दे०)
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मृजाद  : स्त्री०=मर्यादा। उदाहरण—तजि, ऐश्वर्य, मृजाद बेद की तिनके हाथ बिकानो।—भगवत रसिक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मृज्य  : वि० [सं०√मृज्+क्यप्] जिसका मार्जन किया जा सके या किया जाने को हो। मार्जनीय।
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मृड  : पुं० [सं०√मृड् (संतुष्ट करना)+क] [स्त्री० मृडा, मृडानी] शिव। महादेव।
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मृडन  : पुं० [सं०√मृड्+ल्यु-अन] अनुग्रह। कृपा।
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मृडा  : स्त्री० [सं० मृड+टाप्] १. पार्वती। २. दुर्गा।
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मृडानी  : स्त्री० [सं० मृड+ङीष्, आनुक्] पार्वती। मृडा। (दे०)
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मृडीक  : पुं० [सं०√मृड्+कीकन्] १. हिरन। २. शिव। ३. मछली।
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मृणाल  : स्त्री० [सं०√मृण+कालन्] १. कमल के पौधे का डंठल। कमलनाल। २. कमल की जड़। ३. उसीर। खस।
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मृणालिका  : स्त्री० [सं० मृणाली+कन+टाप्, हृस्व] कमल की डंठी। कमल-नाल।
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मृणालिनी  : स्त्री० [सं० मृणाल+इनि+ङीष्] १. कमलिनी। २. कमलों का समूह। ३. वह ताल जहाँ कमल अधिकता से होते हैं।
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मृणाली  : स्त्री० [सं० मृणाल+ङीष्] कमल का डंठल। कमलनाल।
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मृण्पात्र  : पुं० [सं० मृत्पात्र] १. मिट्टी, चीनी मिट्टी आदि के बने हुए बरतन। २. विवर्धित तथा व्यापक अर्थ में, मिट्टी चीनी, मिट्टी के बने हुए खिलौने, मूर्तियाँ आदि सभी चीजें। (पाटरी)
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मृण्मय  : वि० [सं० मृद्+मयट्०] [स्त्री० मृण्मयी] मिट्टी का बना हुआ।
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मृण्मूर्ति  : स्त्री० [सं० मृद्-मूर्ति, ष० त०] १. मिट्टी की बनाई हुई मूर्ति। २. मध्य तथा प्राचीन युग में मिट्टी की बनी हुई मूर्ति का मुँह और सिर। (टेर्रा कोटा)।
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मृत  : वि० [सं०√मृ (मरना)+क्त] १. मरा हुआ। मुर्दा। २. मांगा हुआ। याचित। ३. जिसका पूर्ण रूप से अन्त या नाश हो चुका हो।
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मृत-जीव  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. मरा हुआ। प्राणी। २. तिलक (वृक्ष)।
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मृत-जीवनी  : स्त्री० [सं० मृत√जीव् (जीना)+णिच्+ल्यु-अन+ङीष्] १. मृत शरीर को फिर से जीवित करने की कला या विद्या। २. दूधिया घास।
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मृत-धर्मा (र्मन्)  : वि० [ब० स०, अनिच्] जो अन्त में मर जाता या नष्ट हो जाता हो। नश्वर।
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मृत-मत्त  : पुं० [तृ० त०] श्रृंगाल। गीदड़।
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मृत-मातृक  : वि० [ब० स०,+कप्] जिसकी माँ मर चुकी हो।
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मृत-वत्स  : वि० [ब० स०] [स्त्री० मृत-वत्सा] १. (जीव या प्राणी) जिसके बच्चे हो होकर मर जाते हों। २. (जीव या प्राणी) जिसका बच्चा होकर मर गया हो।
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मृत-संजीवन  : वि० [सं० सम्√जीव्+णिच्+ल्यु-अन, मृत-संजीवन, ष० त०] [स्त्री० मृत-संजीवनी] मृत को जीवित करनेवाला (पदार्थ)।
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मृत-संजीवनी  : स्त्री० [सं० संजीवन+ङीष्, मृत-संजीवनी, ष० त०] १. एक प्रकार की कल्पित बूटी जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि इसके खिलाने से मुरदा भी जी उठता है। २. वैद्यक में एक प्रकार का आसव या सुरा जो बहुत पौष्टिक कही गई है।
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मृत-संजीवनी सुरा  : स्त्री० [अं० मध्य० स०] वैद्यक में एक प्रकार का पौष्टिक आसव।
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मृत-संजीवनी-रस  : पुं० [मध्य० स०] वैद्यक में एक प्रकार का रसौषध जिसका व्यवहार ज्वर में होता है।
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मृत-स्नात  : भू० कृ० [सुप्सुपा स०] १. (मृतक) जिसे दाह-कर्म से पहले स्नान कराया गया हो। २. (व्यक्ति) जिसने किसी सजाति या बंधु के मरने पर उसके उद्देश्य से स्नान किया हो।
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मृत-स्नान  : पुं० [मध्य० स०] १. मृतक को कराया जानेवाला स्नान। २. किसी भाई-बंधु के मरने पर किया जानेवाला स्नान।
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मृतक  : वि० [सं० मृत+कन्] १. मरा हुआ। मुरदा। मृत। २. साहित्य में (पद या वाक्य) जिसका कुछ भी वास्तविक अर्थ न हो। जैसे—(क) बादाम में सोया हुआ आदमी। (ख) च्यूँटी पर हाथी की सवारी। पुं० १. मरा हुआ प्राणी या उसका मृत शरीर। २. घर के किसी प्राणी या सम्बन्धी के मर जाने पर होनेवाला अशौच।
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मृतक-कर्म  : पुं० [सं० ष० त०] मृतक की शुद्ध गति के निमित्त किया जानेवाला कृत्य। प्रेम कर्म। जैसे—दाह, षोडशी, दशगात्र इत्यादि।
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मृतक-धूम  : पुं० [सं० ष० त०] राख। भस्म।
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मृतकल्प  : वि० [सं० मृत+कल्पप] दे० ‘मृत-पाय’।
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मृतकांतक  : पुं० [सं० मृतक-अंतक, ष० त०] श्रृंगाल। गीदड़। वि० मृत शरीर का अन्त या नास करनेवाला।
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मृतामद  : पुं० [मृत-आमद, ब० स०] तुत्थ। तूतिया।
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मृतालक  : पुं० [मृत√अल् (दूषित करना आदि)+ण्वुल्-अक] १. अरहर। २. गोपी-चन्दन।
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मृताशौच  : पुं० [मृत-अशौच, मध्य० स०] सूतक। (दे०)
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मृति  : स्त्री० [सं०√मृ (मरण)+कितन्] मृत्यु। मौत।
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मृति-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार हथेली पर की एक रेखा जिससे व्यक्ति के आयु का अनुमान लगाया जाता है।
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मृतोत्थित  : वि० [मृत-उत्थित, कर्म० स०] जो मरकर फिर जी उठा हो।
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मृत्कर  : पुं० [ष० त०] कुम्हार।
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मृत्कांस्य  : पुं० [ष० त०] मिट्टी का बरतन।
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मृत्तालक  : पुं० [मृद्√तल् (प्रतिष्ठा)+णिच्+अण्+कन्] १. अरहर। २. गोपी चन्दन।
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मृत्तिका  : स्त्री० [सं० मृद्+तिकन्+टाप्] १. मिट्टी। खाक। २. अरहर।
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मृत्तिका-लवण  : पुं० [ष० त०] पुराने घरों की मिट्टी की दीवारों पर सीड़ होने से निकलनेवाली एक प्रकार की नमकीन मिट्टी नोना। लोना।
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मृत्तिकावती  : स्त्री० [सं० मृत्तिका+मतुप्, म-व+ङीष्] नर्मदा के किनारे की एक प्राचीन नगरी। महाभारत।
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मृत्पात्र  : पुं० [ष० त०] मिट्टी का बरतन।
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मृत्पिंड  : पुं० [ष०स०] मिट्टी का ढेला या लोंदा।
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मृत्यु  : स्त्री० [सं०√मृ (मरना)+त्युक्] १. जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों की आयु की वह अंतिम अवस्था जिसमें उनके जीवन की स्थायी रूप से और सदा के लिए अंत हो जाता है। मरण। मौत। २. किसी चीज या बात की उक्त प्रकार की अंतिम अवस्था। जैसे—किसी की राजनीतिक मृत्यु, स्वेच्छाचार की मृत्यु। ३. माया। पुं० [सं०] १. यम। २. ब्रह्मा। ३. विष्णु। ४. कामदेव। ५. कलियुग। ६. एक साम मंत्र। ७. फलित ज्योतिष में जन्म कुंडली का आठवाँ घर जिससे मरण-संबंधी फलाफल का विचार होता है। ८. बौद्ध देवता पद्मपाणि का एक अनुचर।
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मृत्यु-कर  : पुं० [ष० त०] मृत व्यक्ति की संपत्ति पर लगनेवाला कर। (डेथ-ड्यूटी)।
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मृत्यु-दर  : स्त्री० [सं० +हिं० ]=मरणगति।
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मृत्यु-नाशक  : पुं० [ष० त०] पारा।
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मृत्यु-पाश  : पुं० [ष० त०] यम का पाश।
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मृत्यु-पुष्प  : पुं० [ब० स०] १. ईख। गन्ना। २. केला।
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मृत्यु-फल  : पुं० [ब० स०] १. केला। २. महाकाल नामक लता।
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मृत्यु-बीज  : पुं० [ब० स०] बाँस।
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मृत्यु-लोक  : पुं० [ष० त०] १. यम लोक। २. मर्त्य लोक।
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मृत्यु-शय्या  : स्त्री० [ष० त०] वह शय्या या बिस्तर जिस पर रोगी मरमासन्न रूप में पड़ा हुआ हो। (डेथ बेड)
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मृत्यु-संख्या  : स्त्री० [ष० त०] किसी दुर्घटना, महामारी आदि में मरनेवालों की संख्या। (डेथ-रोल)
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मृत्यु-सूति  : स्त्री० [ब० स०] केकड़े की मादा। (कहते हैं कि यह अंडे देने के बाद मर जाती है।)
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मृत्युंजय  : वि० [सं० मृत्यु√जि (जीतना)+खच्, मुम्] जिसने मृत्यु को जीत लिया हो। अमर। पुं० १. शिव का एक नाम और रूप। २. शिव का एक मंत्र जो अकाल-मृत्यु का निवारक माना जाता है।
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मृत्युंजय-रस  : पुं० [सं० मध्य० स०] ज्वर के लिए उपयोगी एक रसौषध। (वैद्यक)
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मृत्युदंड  : पुं० [सं०] अपराधी को जान से मार डालने का दंड या सजा। प्राणदंड। (कैपिटल पनिशमेंट)
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मृत्स  : वि० [सं०] चिपचिपा।
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मृत्सा  : स्त्री० [सं० मृत+स+टाप्]=मृत्स्ना।
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मृत्स्ना  : स्त्री० [सं० मृत+स्न-टाप्] १. बढ़िया चिकनी मिट्टी। २. मिट्टी।
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मृथा  : अव्य०=मृषा (वृथा)।
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मृदंग  : पुं० [सं०√मृद्+अङच् या मृद्-अंग, ब० स०] १. ढोलक की तरह का एक प्रसिद्ध बाजा। २. बाँस। ३. मृदंग। (बाजे) के आकार का शीशे का एक प्रकार का उपकरण जिसमें मोमबत्तियाँ जलाई जाती थीं।
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मृदंगिया  : पुं० [सं० मृदंग+हिं० इया (प्रत्यय)] वह जो मृदंग बजाता हो।
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मृदंगी (गिन्)  : पुं० [सं० मृदंग+इनि] मृदंग बजानेवाला मृदंगिया। स्त्री० मृदंग के आकार की आतिशबाजी।
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मृदा  : स्त्री० [सं० मृद्+टाप्] मृत्तिका। मिट्टी।
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मृदित  : भू० कृ० [सं०√मृद् (चूर्ण होना)+क्त] कुचला, मसला या चूर किया हुआ।
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मृदिनी  : स्त्री० [सं०√मृद् (चूर्ण करना)+क+इनि+ङीष्] अच्छी मिट्टी। २. गोपीचन्दन।
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मृदु  : वि० [सं०√मृद् (चूर्ण करना)+क, सम्प्रसारण] [स्त्री० मृदी, भाव० मृदुता] १. कोमल। नरम। मुलायम। २. प्रिय और सुहावना। मधुर। ३. धीमा। मन्द। हलका। ४. उग्रता, प्रचंडता, तीव्रता आदि से रहित। जैसे—मृदु स्वभाव। स्त्री० १. घृतकुमारी। धीकुँवार २. जूही का पौधा या फूल।
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मृदु-कंटक  : पुं० [ब० स०] कटसरैया।
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मृदु-दर्भ  : पुं० [कर्म० स०] सफेद कुश।
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मृदु-पुष्प  : पुं० [ब० स०] शिरीष (वृक्ष)।
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मृदु-फल  : पुं० [ब० स०] १. नारियल। २. विकंकत वृक्ष।
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मृदुच्छद  : पुं० [ब० स०] १. भोजपत्र का पेड़। २. पीलू वृक्ष। ३. लाल लजालू।
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मृदुता  : स्त्री०[सं० मृदु+तल्+टाप्] १. मृदु होने की अवस्था या भाव। कोमलता। मुलायमियत। मार्दव। २. धीमापन। मन्दता।
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मृदुल  : वि० [सं० मृदु+लच्] [भाव० मृदुलता] १. कोमल। मुलायम। २. दयालु। दयामय। ३. सुकुमार। पुं० १. जल। पानी। २. अंजीर।
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मृद्  : स्त्री० [सं०√मृद्ध (चूर्ण होना)+क्विप्] मृ्तिका। मिट्टी।
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मृद्धी  : स्त्री० [सं० मृदु+ङीष्] १. कोमल अंगोंवाली स्त्री। कोमलांगी। २. सफेद अंगूर।
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मृद्धीका  : स्त्री० [सं० मृदु+ईकन्+टाप्] १. कपिल द्राक्षा। सफेद अंगूर। २. अँगूरी शराब। द्राक्षासव।
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मृद्य  : वि० [सं० मृदु+यत्] (पदार्थ) जो गीला होने पर मनमाने ढंग से और मनमाने रूप से लाया जा सके। जिसे अपने इच्छानुसार सभी प्रकार के स्थायी रूप दिये जा सकें। (प्लास्टिक) जैसे—गीली मिट्टी जिसे सैकड़ों प्रकार के रूप दिये जा सकते हैं।
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मृद्वीकासव  : पुं० [सं० मृद्वीका-आसव, ष० त०] अंगूर की शराब। द्राक्षासव।
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मृध  : पुं० [सं०√मृध् (गीला होना)+क] युद्ध। लड़ाई।
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मृनाल  : पुं० =मृणाल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मृन्मय  : वि० [सं० मृद्+मयट्०] [स्त्री० मृन्मयी] =मृण्मय।
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मृषा  : अव्य० [सं०√मृष्+का] झूठ मूठ। व्यर्थ। वि० असत्य। झूठा।
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मृषात्व  : पुं० [सं० मृषा+त्व] असत्यता। झूठपन। मिथ्यात्व।
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मृषाभाषी (षिन्)  : वि० [सं० मृषा√भाष् (बोलना)+णिनि] झूठ बोलनेवाला।
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मृषावाद  : पुं० [सं० ष० त०] झूठ बोलना। २. झूठ बात।
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मृषावादी (दिन्)  : वि० [सं० मृषा√भाष् (बोलना)+णिनि] झूठ बोलनेवाला। मिथ्यावादी।
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मृष्ट  : भू० कृ० [सं०√मृज् (शुद्ध करना)+क्त] शुद्ध किया हुआ। शोषित। पुं० मिर्च।
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मृष्टि  : स्त्री० [सं०√मृज्+क्तिन्] परिशुद्धि। शोधन।
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में  : विभ० [सं० मध्य, प्रा०मज्झ, पुं० हिं० मँह] अधिकरण कारक का चिन्ह जो किसी शब्द के आगे लगकर नीचे लिखे अर्थ देता है—(क) भीतरी भाग में या अन्दर। जैसे—(क) गले में छाले पड़ना, कमरे में व्यक्ति होना। (ख) चारों ओर, जैसे—गले में हार पड़ना। (ग) किसी अवस्थान या आधार पर। जैसे—पेड़ में फल लगना। (घ) नियत अवधि या काल पूरा होने से पहले। जैसे—एक घंटे में यह काम हो जायगा। (च) किसी वर्ग या समूह के क्षेत्र या परिधि के अन्तर्गत। जैसे—कवियों में कालिदास सर्वश्रेष्ठ थे। (छ) कार्य, व्यापार आदि संलग्नता। जैसे—वह दिन भर काम में लगा रहता है। स्त्री० [अनु०] बकरी के बोलने का शब्द।
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मेअराज  : पुं० [अ०] १. ऊपर चढ़ने की सीढ़ी। श्रेणी। २. मुहम्मद साहब के जीवन की वह घटना जिसमें उनके आकाश पर चढ़कर ईश्वर से भेंट करना माना जाता है।
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मेक  : पुं० [सं० मे√कै (शब्द करना)+क] बकरा।
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मेक-अप  : पुं० [अं०] १. सौन्दर्य वृद्धि के लिए शरीर के अंगों में प्रसाधन या सजावट की सामग्री लगाने की क्रिया या भाव। रूप-सज्जा। २. छापे-खाने में, सीसे के बैठाये या कंपोज किये हुए अक्षरों को पृष्ठों के रूप में लगाना। पेज बाँधना।
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मेकदार  : स्त्री०=मिकदार (मात्रा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेकल  : पुं० [सं०] विंध्य पर्वत का एक भाग जो रीवा के आसपास है और जिसमें अमरकंटक है। नर्मदा नदी यहीं से निकली है। यह मेखला के आकार का है, इसी से इसे मेखल भी कहते हैं।
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मेकल-कन्यका  : स्त्री० [सं० ष० त०] नर्मदा नदी।
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मेकल-सुता  : स्त्री० [सं०] नर्मदा (नदी)।
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मेख  : स्त्री० [फा० मेख] १. लोहे का वह लम्बा उपकरण जो एक ओर नुकीला और दूसरी ओर चिपटा होता है, और जो किसी तल में गाड़ने, ठोंकने आदि या चीजें कहीं जड़ने के काम में आता है। काँटा। कील। २. लकड़ी आदि का खूँटा। क्रि० प्र०—उखाड़ना।—गाड़ना।—ठोंकना।—मारना। मुहावरा—(किसी के) मेख ठोंकना=पूरी तरह से दबाना या हराना। (किसी को) मेख ठोंकना=किसी के हाथों पैरों में कील ठोंककर उसे कहीं स्थिर कर देना। (प्राचीन काल का एक प्रकार का बहुत कठोर दण्ड) मेख मारना= (क) कील ठोंककर किसी आदमी, काम या चीज का चलना या हिलना बन्द कर देना। (ख) ऐसी बात कहना जिससे चलते हुए काम में बाधा पड़े। भाँजी मारना। ३. लकड़ी की फट्टी जो किसी छेद में बैठायी हुई वस्तु को ढीली होने से रोकने के लिए ठोंकी जाय। पच्चड़। ४. घोड़े का वह लँगड़ापन जो नाल जड़ते समय किसी कील के ऊपर ठुक जाने से होता है। पुं०=मेष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेखड़ा  : स्त्री० [सं० मेखला] बाँस की वह फट्टी जिसे डले या झाबे के मुँह पर गोल घेरा बनाकर बाँध देते हैं।
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मेखल  : स्त्री० [सं० मेखला] १. करधनी। किंकिणी। २. वह चीज जो किसी दूसरी को कसने, बाँधने आदि के लिए उसके मध्य भाग में चारों ओर लगायी या लपेटी जाय। ३. दे० ‘मेखला’।
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मेखला  : स्त्री० [सं०√मि (प्रक्षेप)+खल्+टाप्] १. लम्बी पट्टी की तरह की वह वस्तु जो किसी दूसरी वस्तु के कटि-प्रदेश या मध्य भाग के चारों ओर फैली हुई या स्थित हो। २. कमर में लपेटकर पहनने का सूत या डोरी। करधनी। जैसे—मुंज-मेखला। ३. करधनी या तागड़ी नाम का गहना जो कमर में पहना जाता है। ४. मंडलाकार घेरा। ५. कमरबन्द। पेट्टी। ६. छड़ी, डंडे आदि की सामी। साम। ७. पर्वत का मध्य भाग। ८. नर्मदा नदी। ९. होम-कुंड के ऊपर चारों ओर बना हुआ मिट्टी का घेरा। १॰. कपड़े का टुकडा जो साधु लोग गले में डाले रहते हैं। ११. पृश्निपर्णी।
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मेखली  : स्त्री० [सं० मेखला] १. गले में डालकर पहना जानेवाला एक प्रकार का पहनावा जिससे पेट और पीठ ढकी रहती है और दोनों हाथ खुले रहते हैं। २. करधनी। तागड़ी।
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मेखी  : वि० [फा०] जिसमें मेख से छेद किया गया हो। पद—मेखी रुपया=ऐसा रुपया जिसमें छेद करके चाँदी निकाल ली गयी और सीसा भर दिया गया हो।
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मेगज  : पुं० [सं० मत्त+गज०] हाथी। (राज०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेगज़ीन  : पुं० [अं०] १. वह स्थान जहाँ सेना के लिए गोले, बारूद रखते हैं। बारूदखाना। २. बन्दूक तथा राइफल में वह स्थान जिसमें चलाने के लिए गोली रखी जाती है। ३. सामयिक-पत्र, विशेषतः पाक्षिक या मासिक पत्र।
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मेंगनी  : स्त्री० [हिं० मींगी] पशुओं की ऐसी विष्ठा जो छोटी-छोटी गोलियों के आकार में होती है। लेंड़ी। जैसे—ऊँट, चूहे या बकरी की मेंगनी।
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मेगनी  : स्त्री०=मेंगनी।
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मेगल  : पुं० =मेगज (हाथी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेघ  : पुं० [सं०√मिह्+अच्, कुत्व] १. आकाश में होनेवाला जलकणों का वह दृश्य रूप जो हवा में वाष्प के जमने के फलस्वरूप बनता है। (क्लाउड) २. संगीत में छः रागों में से एक जो वर्षा ऋतु में गाया जाता है। ३. मुस्तक। मोथी। ४. तंडुलीय शाक। ५. राक्षस।
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मेघ-काल  : पुं० [ष० त०] वर्षा ऋतु। बरसात।
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मेघ-गर्जन  : पुं० [ष० त०] बादलों की गड़गड़ाहट।
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मेघ-गर्जनी  : स्त्री०=मेघ-गर्जन।
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मेघ-चिंतक  : पुं० [ष० त०] चातक।
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मेघ-जाल  : पुं० [ष० त०] बादलों का समूह।
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मेघ-जीवन  : पुं० [ब० स०] चातक।
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मेघ-ज्योति (स्)  : स्त्री० [ष० त०] बिजली।
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मेघ-डंबर  : पुं० [ष० त०] १. बादलों की गरज। २. बहुत बड़ा शामियाना जिसे दल-बादल भी कहते हैं। २. राजाओं का एक प्रकार का छत्र।
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मेघ-दीप  : पुं० [ष० त०] बिजली।
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मेघ-द्वार  : पुं० [ष० त०] आकाश।
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मेघ-धनु (स्)  : पुं० [ष० त०] इन्द्र धनुष।
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मेघ-नाद  : पुं० [ष० त०] १. मेघ का गर्जन। २. [मेघ√नद् (शब्द)+णिच्+अण्] वरुण। ३. मोर। मयूर। ४. बिल्ली। ५. पलास। ६. चौलाई। ७. रावण का एक पुत्र इन्द्रजीत।
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मेघ-निर्घोष  : पुं० [ष० त०] बादलों की गरज।
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मेघ-पटल  : पुं० [ष० त०] बादलों की घटा।
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मेघ-पति  : पुं० [ष० त०] बादलों का राजा या स्वामी, इन्द्र।
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मेघ-पुष्प  : पुं० [ष० त०] १. जल। २. ओला। ३. बकरे का सींग। ४. मोथा। ५. [मेघ√पुष्प (खिलना)+अच्] इन्द्र का घोड़ा। ६. श्रीकृष्ण के रथ का एक घोड़ा।
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मेघ-पुष्पा  : स्त्री० [सं० मेघ-पुष्प+टाप्] १. जल। २. बेल। ३. ओला।
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मेघ-फल  : पुं० [सं०] मेघों के रंगों के आधार पर बतलाया जानेवाला शुभाशुभ फल।
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मेघ-फोट  : पुं० [सं०] अचानक होनेवाली ऐसी घोर या भीषण वर्षा जो प्रलय का सा दृश्य उपस्थित कर देती हो। बादलों का फट पड़ना (क्लाउड बर्स्ट)।
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मेघ-भूति  : स्त्री० [ष० त०] बिजली।
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मेघ-मंडल  : पुं० [ष० त०] आकाश।
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मेघ-मल्लार  : पुं० [सं०] ओड़व जाति का एक संकर राग जो मेघ, मल्लार और सारंग रागों के मेल से बनता और प्रायः वर्षा ऋतु में गाया जाता है।
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मेघ-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. बादलों की पंक्ति या श्रेणी। २. स्कंद की अनुचरी एक मातृका।
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मेघ-माली (लिन्)  : पुं० [सं० मेघमाला+इनि] स्कंद का एक अनुचर। वि० बादलों से घिरा हुआ।
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मेघ-मूर्ति  : स्त्री० [ष० त०] बिजली।
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मेघ-योनि  : पुं० [ष० त०] १. धुआँ। २. कोहरा।
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मेघ-रंजनी  : स्त्री० [सं०] संगीत में भैरव ठाठ की एक रागिनी।
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मेघ-रव  : पुं० [ष० त०] मेघ-गर्जन।
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मेघ-राज  : पुं० [ष० त०] मेघों के राजा, इन्द्र।
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मेघ-वर्णी  : स्त्री० [ब० स+ङीष्] नील का पौधा।
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मेघ-वर्त  : पुं० [सं०] प्रलय काल का एक प्रकार का मेघ।
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मेघ-वाहन  : पुं० [ब० स०] १. इन्द्र। २. एक बौद्ध राजा।
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मेघ-विस्फूर्जिता  : स्त्री० [सुप्सुपा स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में यगण, नगण, सगण, टगण, रगण और अन्त में एक गुरु होता है।
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मेघ-विस्फोट  : पुं० [ष० त०] बहुत थोड़े समय में होनेवाली घोर वर्षा।
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मेघ-श्याम  : वि० [उपमि० स०] मेघ या बादलों के रंग की तरह का। नीला। आसमानी (क्लाउडी) पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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मेघ-श्यामल  : पुं० [उपमित० स०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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मेघ-सार  : पुं० [ष० त०] चीनिया कपूर।
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मेघ-सुहृत्  : पुं० [ब० स०] मोर।
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मेघ-स्वन  : पुं० [ष० त०] बादलों का शब्द। मेघों का गर्जन। वि० [ब० स०] बादलों की तरह गरजनेवाला।
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मेघडंबर रस  : पुं० [मध्य० स०] वैद्यक में एक प्रकार का रसौषध जो श्वास और हिचकी बन्द करनेवाला कहा गया है।
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मेघनाथ  : पुं० [ष० त०] इन्द्र।
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मेघनाद-रस  : पुं० [सं० मध्य० स०] वैद्यक में एक प्रकार का ज्वर नाशक रसौषध।
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मेघनादजित्  : पुं० [सं० मेघनाद√जि (जीतना)+क्विप्, तुक्-आगम, ] लक्ष्मण।
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मेघपुहुप  : पुं०=मेघ-पुष्प।
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मेघमाल  : पुं० [सं० मेघमाला+अच्] १. रंभा के गर्भ से उत्पन्न कल्कि के एक पुत्र का नाम। (कल्कि पुराण) २. प्लक्ष-द्वीप का एक पर्वत। ३. मेघ-माला।
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मेघवाई  : स्त्री० [हि० मेघ+वाई (प्रत्यय)] १. बादल की घटा। २. दे० ‘मेघ-माला’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मेघवान् (वत्)  : पुं० [सं० मेघ+मतुप्, वत्व] पश्चिम दिशा का एक पर्वत (बृहत् संहिता)।
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मेघस्वनांकुर  : पुं० मेघस्वन-अंकुर [सं० ब० स०] वैदूर्य-मणि। बिल्लौर। (कहते हैं) कि बादल के गरजने पर इसकी उत्पत्ति होती है।
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मेघागम  : पुं० [मेघ-आगम, ष० त०] वर्षा का आरंभ।
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मेघाच्छन्न  : वि० [मेघ-आच्छन्न, तृ० त०] [भाव० मेघाच्छन्नता] बादलों से ढका हुआ। बादलों से छाया हुआ (आकाश)। (क्लाउडी)
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मेघाडंबर  : पुं० [मेघ-आंडबर, ष० त०] १. मेघ-गर्जन। बादल की गरज। २. बादलों का विस्तार।
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मेघांत  : पुं० [मेघ-अन्त, ष० त०] १. वर्षा का अन्त। २. शरत्ऋतु का आरंभ काल।
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मेघारि  : पुं० [मेघ-अरि, ष० त०] वायु जो बादलों को उड़ा ले जाती है।
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मेघावरि  : स्त्री० [सं० मेघावलि] बादलों की पंक्ति। मेघमाला। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मेघास्थि  : पुं० [मेघ-अस्थि, ष० त०] ओला।
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मेघोदय  : पुं० [मेघ-उदय, ष० त०] आकाश में बादल छाना।
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मेघौना  : पुं० [सं० मेघ] नीले रंग का एक प्रकार का कपड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेच  : पुं० [देश] आसाम की एक पहाड़ी जाति। पुं० =मंच। स्त्री०=मेज। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेचक  : पुं० [सं०√मेच् (मिलना)+वुन्—अक] १. अंधकार। अँधेरा। २. सुरमा। ३. मोर की चंद्रिका। ४. धुआँ। ५. बादल। ६. सहिंजन। ७. पियासाल। ८. काला नमक। ९. एक प्रकार का छोटा बिच्छू। वि० [भाव० मेचकता] काले रंग का। काला।
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मेचकता  : स्त्री० [सं० मेचक+तल्+टाप्] १. मेचक होने की अवस्था या भाव। २. कालापन। श्यामता। ३. अँधकार अँधेरा। ४. स्याही।
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मेचकताई  : स्त्री०=मेचकता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मेच्छ  : पुं० =म्लेच्छ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मेछ  : पुं० =म्लेच्छ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मेज  : स्त्री० [फा० मेज़] १. भोजन की सामग्री। २. वह चौकी जिस पर रखकर भोजन किया जाता है। ३. आजकल लिखने-पढ़ने के लिए बनी हुई एक प्रकार की ऊँची चौकी (टेबुल)। स्त्री० [?] एक प्रकार की पहाड़ी घास।
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मेजपोश  : पुं० [फा०] चौकी या मेज के ऊपर शोभा के लिए बिछाने का कपड़ा।
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मेज़बान  : पुं० [फा०] १. अतिथि की दृष्टि में वह व्यक्ति जिसके यहाँ वह परदेश में जाकर ठहरता हो। २. वह जो अतिथि को अपने यहाँ आदरपूर्वक ठहरता हो।
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मेज़बानी  : स्त्री० [फा०] १. मेज़बान होने की अवस्था, धर्म या भाव। आतिथ्य। २. अतिथि की की जानेवाली खातिरदारी। अतिथि-सत्कार। ३. वे खाद्य पदार्थ जो बाहर से बारात आने पर पहले-पहल कन्यापक्ष से बरातियों के लिए भेजे जाते हैं।
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मेजर  : पुं० [अं०] १. सेना में कुछ विशिष्ट अधिकारियों का पद। २. उक्त पद पर होनेवाला अधिकारी।
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मेजर-जनरल  : पुं० [अं०] फौज का एक बड़ा अफसर जिसका दरजा लेफ्टेनेंट जनरल के नीचे या बाद होता है।
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मेंजा  : पुं० मेढ़क। उदाहरण—समुँद न जान कुँआ कर मेंजा।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेजा  : पुं० [सं० मंडूक, हिं० मेढ़क, पूरबी, हिं० मेझुका] मेंढ़क। मेढ़क।
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मेट  : पुं० [अं०] १. मजदूरों का प्रधान या सरदार। टंडैल। जमादार। २. एक प्रकार का जहाजी कर्मचारी।
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मेट-माट  : स्त्री० [हिं० मेटना=मिटाना] झगड़े, विवाद आदि के निपटने या निपटाये जाने की क्रिया या भाव। जैसे—अब उन लोगों में मेट-माट हो गई है।
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मेटक  : वि० [हिं० मेटना+क (प्रत्यय)] मिटानेवाला। नाशक। २. नष्ट करनेवाला। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मेटनहार (ा)  : वि० [हिं० मेटना+हारा (प्रत्यय)] १. मिटानेवाला। २. नष्ट करनेवाला।
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मेटना  : स०=मिटाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेटा  : पुं० [स्त्री० अल्पा०मेटिया, मेटी] मिट्टी का घड़ा। मटका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेटिया  : स्त्री० हिं० ‘मेटा’ का स्त्री० अल्पा०।
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मेटी  : स्त्री०=मेटिया (मटकी)।
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मेटुआ  : वि० [हिं० मेटना] १. मिटानेवाला। २. कृतघ्न।
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मेट्रन  : स्त्री० [अं०] वह स्त्री जो लड़कियों, दाइयों आदि के कामों की देख-रेख करती हो। मातृका (मेट्रन)।
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मेठ  : पुं० [सं०] १. हाथीवान। फीलपाव। २. मेढ़ा।
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मेंड़  : स्त्री० [हिं० डाँड़ का अनु० या सं० मण्डल] १. ऊँची उठी हुई तंग जमीन जो दूर तक लकीर के रूप में चली गयी हो। २. दो खेतों के बीच की कुछ ऊँची उठी हुई सँकरी जमीन जो उनकी सीमा की सूचक होती है और जिस पर लोग आते-जाते हैं। डाँड़। पगडंडी। ३. आड़। रोक। उदाहरण—तुम्ह नल नील मेंड़देनिहारा।—जायसी। ४. मर्यादा। उदाहरण—अस सम मेंड़नि कौं मति खोवहु।—सूर।
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मेड  : स्त्री०=मेंड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेंड़-बन्दी  : स्त्री० [हिं० मेंड़+बाँधना] मेंड़ बनाने का काम।
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मेंड़क  : पुं० =मेंढ़क।
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मेडक  : पुं० =मेढ़क।
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मेंडरा  : पुं० [सं० मण्डल] १. घेरने के लिए बनाया हुआ कोई गोल चक्कर। जैसे—ढोलक या तबले का मेंडरा जो चमड़े के चारों ओर लगाया जाता है। २. मेंडुरी। ३. किसी गोल वस्तु का उभरा हुआ किनारा। ४. किसी वस्तु का मण्डलाकार ढाँचा। जैसे—चलनी का मेंडरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेड़रा  : पुं० [स० मंडल, हिं० मडरा] [स्त्री० अल्पा० मेडरी] १. मिट्टी डालकर बनाया हुआ घेरा। मेंड़। २. उभरा हुआ गोलाकार किनारा। ३. किसी वस्तु का मंडलाकार ढाँचा।
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मेंडराना  : स० [हिं० मेंडरा] किसी चीज के चारों ओर मेंडरा या घेरा बनाना या लगाना। अ० १. चारों ओर घेरे या चक्कर के रूप में स्थित होना। उदाहरण—राजपरखि तेहि पर मेंडराहिं—जायसी। २. दे० ‘मण्डलाना’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेड़राना  : अ०=मँड़लाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मेंड़री  : स्त्री० हिं० मेड़री का स्त्री, अल्पा। स्त्री० [?] चक्की के चारों ओर का वह स्थान जहाँ आटा पिसकर गिरता है।
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मेडल  : पुं० [अं०] पदक (दे०)।
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मेडिकल  : वि० [अं०] १. औषधि-संबंधी। भैषजिक। २. चिकित्सा-संबंधी।
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मेड़िया  : स्त्री० [स०मंडप, हिं० मढ़ी] १. मढ़ी। २. मंडप। ३. छोटा घर। स्त्री०=मेंड़।
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मेढ़  : पुं० [सं०] १. शिश्न। लिंग। २. मेंढ़ा।
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मेंढ़क  : पुं० [सं० मंडूक] १. एक प्रसिद्ध जलस्थलचारी छोटा जंतु। २. रहस्य संप्रदाय में, मन जिसे अन्त में कालरूपी साँप निगल जाता है।
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मेढक  : पुं० =मेंढ़क। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेंढ़की  : स्त्री०=मेंढ़क की मादा।
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मेढ़ासिंगी  : स्त्री० [स०मेंढश्रृंगी] एक झाड़ीदार लता जिसकी जड़ औषधि के काम में आती है और सर्प का विष दूर करनेवाली मानी जाती है।
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मेढ़ि  : स्त्री०=मेंड़।
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मेढ़ी  : स्त्री० [सं० वेणी] १. स्त्रियों के सिर के बालों की तीन लड़ियों में गूथी हुई चोटी। मेढ़ी। २. घोडों के माथे पर एक प्रकार की भँवरी।
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मेथिका  : स्त्री० [सं०√मेथ् (मिलना)+ण्वुल्-अक+टाप्, इत्व] मेथी।
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मेथी  : स्त्री० [सं०√मेथ्+इन्+ङीष्] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसकी खेती होती है। २. उक्त पौधे के बीज।
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मेथौरी  : स्त्री०[हिं० मेथी+बरी] उर्द की पीठी में मेथी का साग मिला कर बनाई जानेवाली बरी। उदाहरण—भई मेथौरी, सिरिका परा।—जायसी।
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मेद (दस्)  : पुं० [सं०√मिद् (चिकना होना)+अच्√मिद्+असुन्] १. शरीर के अन्दर की चरबी। वसा। २. शरीर में चरबी बढ़ने और बहुत मोटे होने का रोग। ३. नीलम की एक प्रकार की छाया। ४. कस्तूरी। ५. कस्तूर, केसर आदि के योग से बनाया जानेवाला एक प्रकार सुगंधित द्रव्य। ६. एक अंत्यज जाति जिसकी उत्पत्ति मनुस्मृति में वैदेहिक पुरुष और निषाद स्त्री से कही गई है। स्त्री०=मेदा।
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मेदनी  : स्त्री० [सं० मेदिनी] १. यात्रियों का गोल जो झंडा लेकर किसी तीर्थस्थान या देव-स्थान को जाता हो। २. मेदिनी।
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मेदपाट  : पुं० [सं०] मेवाड़ देश।
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मेदपुच्छ  : पुं० [सं०] दुंबा नामक जन्तु।
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मेदस्वी (स्विन्)  : वि० [सं० मेदस+विन्] जिसके बदन में अधिक मेदे या चरबी हो अर्थात् मोटा।
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मेदा  : स्त्री० [सं० मेद+अच्+टाप्] अष्टवर्ग में की एक प्रसिद्ध ओषधि जो ज्वर और राजयक्ष्मा में अत्यन्त उपकारी कही गई है। पुं० [अ० मेदा] पाकाशय। पेट। कोठा। जैसे—मेदे की बीमारी। मुहावरा—मेदा कड़ा होना= आँतों की क्रिया इस प्रकार की होना कि जल्दी दस्त न हो। मेदा साफ होना=मलशुद्धि होना। दस्त होने से कोठा साफ होना।
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मेदिनी  : स्त्री० [सं० मेद+इनि+ङीष्] १. मेदा। २. पृथ्वी।
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मेदुर  : वि० [सं०√मिद् (भींगना)+घुरच्] चिकना। स्निग्ध।
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मेदू  : पुं० =मेद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेदोज  : पुं० [सं० मेदस√जन् (उत्पन्न होना)+ड] हड्डी। अस्थि।
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मेदोर्बुद  : पुं० [सं० मेदस+अबुँद, मध्य० स] १. मेदयुक्त गाँठ या गिल्टी जिसमें पीड़ा हो। २. होंठ का एक प्रकार का रोग।
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मेदोवृद्धि  : स्त्री० [सं० मेदस-वृद्धि, ष० त०] १. चरबी का बढ़ना जिसमें शरीर मोटा होता है। २. अंड-कोश बढ़ने का रोग।
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मेध  : पुं० [सं०√मेध् (मारना)+घञ्] [वि० मेधक, मेधी, मेध्य] १. यज्ञ। २. हवि। ३. यज्ञ-बलि का पशु।
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मेधज  : पुं० [सं० मेध√जन् (उत्पन्न करना)+ड] विष्णु।
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मेधा  : स्त्री० [सं०] १. बातें समझने और स्मरण रखने की शक्ति। २. दक्ष प्रजापति की एक कन्या। ३. षोड़श मातृकाओं में से एक मातृका। ४. छप्पय छन्द का एक भेद।
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मेधाजित  : पुं० [सं०] कात्यायन मुनि।
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मेधातिथि  : पुं० [सं०] १. काण्ववंश में उत्पन्न एक ऋषि जो ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के १२-१३ सूक्तों के द्रष्टा थे। २. पुराणानुसार शाकद्वीप के अधिपति जो प्रियव्रत के पुत्र कहे गये हैं। ३. कर्दम प्रजापति का एक पुत्र।
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मेधावती  : स्त्री० [सं० मेधा+मतुप्, वत्व, +ङीष्] महाज्योतिष्मती लता।
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मेधावान् (वत्)  : वि० [सं० मेधा+मतुप्] =मेधावी। वि० [स्त्री० मेधावती]=मेधावी।
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मेधावी (विन्)  : वि० [सं० मेधा+णिनि] [स्त्री० मेधाविनी] १. असाधारण मेधा शक्तिवाला। जिसकी धारणशक्ति तीव्र हो। २. बुद्धिमान। ३. पंडित। विद्वान। पुं० १. मदिरा। शराब। २. तोता।
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मेधिर  : वि० [सं० मेधा+इरन्] मेधावी।
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मेधिष्ठ  : वि० [सं० मेधा+इष्ठन्] मेधावी।
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मेंधी  : स्त्री० [सं० मा=शीमा√इन्ध (दीप्ति)+णिच्+अच्+ङीष्] मेंहदी।
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मेध्य  : वि० [सं० मेधा+यत्] १. बुद्धि बढ़ानेवाला। मेधाजनक। २. पवित्र। पुं० १. जौ। २. बकरा। ३. कत्था। खैर।
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मेध्या  : स्त्री० [सं० मेध्य+टाप्] १. केतकी, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, मंडूकी आदि बुद्धवर्द्धक बूटियों का वर्ग।
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मेन  : पुं० =मदन (कामदेव)।
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मेनका  : स्त्री० [सं०√मन् (मानना)+वुन्-अक, एत्व+टाप्] १. पुराणानुसार एक अप्सरा जिसने विश्वामित्र की समाधि भंग की थी। शंकुतला इसी के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। २. हिमवान् की पत्नी और पार्वती की माता।
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मेनकात्मजा  : स्त्री० [सं० मेनका-आत्मज, ष० त०] १. शकुन्तला। २. दुर्गा। पार्वती।
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मेना  : स्त्री० [सं०√मान् (पूजा करना)+इनच्, निपा० सिद्धि] १. पितरों की मानसी कन्या मेनका। २. हिमवान् की पत्नी और पार्वती की माता। वृषणश्य की मानसी कन्या। (ऋग्वेद) ४. स्त्री। औरत। वाकशक्ति। पुं० =मोयन (पकवानों का)।
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मेना-धव  : पुं० [सं० ष० त०] हिमालय।
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मेनाद  : पुं० [सं० मेना-, ब० स०] १. बिल्ली। २. बकरी। ३. मोर।
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मेंबर  : पुं० [अ०] [भाव० मेंबरी] सदस्य (दे०)।
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मेंबरी  : स्त्री० [अं० मेंबर से] मेंबर होने की अवस्था या भाव। सदस्यता (मेंबरशिप)।
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मेम  : स्त्री० [अं० मैडम का संक्षिप्त रूप] १. यूरोप या अमेरिका आदि की स्त्री। २. ताश की बीबी या बेगम नाम का पता।
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मेमन  : पुं० [फा० मोमिन] गुजराज और महाराष्ट्र राज्यों में रहनेवाले एक प्रकार के मुसलमान जो बहुधा व्यापार करते हैं।
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मेमना  : पुं० [अनु० में से] १. भेड़ का बच्चा। २. एक प्रकार का घोड़ा।
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मेमार  : पुं० [अ] इमारत बनाने अर्थात् भवन-निर्माण का काम करने वाला शिल्पी। इमारत बनानेवाला। थवई। राजगीर।
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मेमारी  : स्त्री० [हिं० मेमार] मेमार का काम, पद या भाव।
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मेमो  : पुं० [अं०] मेमोरंडम का संक्षिप्त रूप।
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मेमोरियल  : पुं० [अं०] स्मारक।
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मेय  : वि० [सं० मा (मापना)+यत्] १. जिसकी नाप-जोख हो सके। जिसका परिणाम या विस्तार जाना जा सके। २. जो नापा-जोखा जाने को हो।
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मेयना  : सं० [हिं० मेयन] गुँधे हुए आटे-मैदे आदि में मोयन डालना या देना।
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मेयर  : पुं० [अं०] म्युनिस्पिल कारपोरेशन या महापालिका का निर्वाचित अध्यक्ष जो सर्वश्रेष्ट नागरिक भी माना जाता है।
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मेर  : पुं० १. =मेरु। २. =मेल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मेरवन  : स्त्री० [हिं० मेरवना] १. मिलाने की क्रिया या भाव। २. किसी में मिलाई हुई दूसरी चीज। मेल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेरवना  : स०=मिलाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेरा  : वि० [हिं० मै+एरा (प्रत्यय)] ‘मैं’ का सम्बन्ध सूचक विभक्ति से युक्त सार्वनामिक विशेषण रूप। मुहावरा—मेरा-तेरा करना=किसी को अपना और किसी को पराया समझना। आत्म और पर का भेद-भाव रखना। पुं० =मेला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेराउ  : पुं० =मेराव।
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मेराज  : स्त्री० [अ० मिअराज] १. ऊपर चढ़ने का साधन। २. सीढ़ी। ३. मुसलमानों के विश्वासानुसार मुहम्मद साहब का आसमान पर जाकर ईश्वर-साक्षात्कार करना।
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मेराना  : स०=मिलाना।
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मेराब  : पुं० [हि० मेर=मेल] १. मिलने या मिलाने की क्रिया या भाव। २. मिलन। मिलाप।
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मेरी  : स्त्री० [हि० मेरा] अहंभाव। अहंकार। सर्व० हिं० ‘मेरा’ का स्त्री।
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मेरु  : पुं० [सं०√मि (प्रक्षेप)+रु] १. एक पुराणोक्त पर्वत जो सोने का कहा गया है। सुमेरु। २. एक विशिष्ट आकार-प्रकार का देव-मन्दिर। ३. हिंडोले में ऊपरवाली वह लकड़ी जिससे झूलनेवाली रस्सियाँ बँधी रहती है। ४. पृथ्वी के उत्तरी ध्रुवों में से प्रत्येक ध्रुवों (पोल)। विशेष—उत्तरी ध्रुव सुमेरु और दक्षिणी ध्रुव सुमेर कहलाता है। ५. जपमाला के बीच का बड़ा दाना जो और सब दानों के ऊपर होता है। इसी से जप का आरम्भ किया जाता है और इसी पर उसकी समाप्ति होती है। ६. वीणा का ऊपरी उठा हुआ भाग। ७. छन्दशास्त्र में प्रत्यय के अन्तर्गत वह प्रक्रिया जिससे यह जाना जाता है कि कितनी मात्राओं या वर्णों के (प्रस्तार के अनुसार निकाले हुए) किसी भेद या छन्द में गुरु और लघु के कितने रूप होते हैं। ८. हठयोग में सुषुम्ना नाड़ी का एक नाम।
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मेरु-ज्योति  : स्त्री० [सं० ष० त०] उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों में रात के समय बीच में दिखाई पड़ती रहनेवाली एक प्रकार की ज्योति जिससे बहुत कुछ दिन का सा प्रकाश होता है। (आरोराबोरिएलिस)। विशेष—दक्षिण ध्रुव में दिखायी पड़नेवाले उक्त ज्योति को ‘कुमेरु ज्योति’ कहते हैं।
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मेरु-दंड  : पुं० [सं० उपमित स०] १. मनुष्यों और बहुत से जीव-जंतुओं में पीठ के बीचोबीच गरदन से लेकर कमर पर की त्रिकास्थि तक का पृष्ठवंश जिसमें कमेरुकाएँ (हड्डी की गुरियाँ) माला की तरह गुथी रहती है और जिनके दाहिने बाएँ शाखाओं के रूप में लम्बी-लम्बी हड्डियाँ निकली होती हैं। रीढ़ (बैकबोन) विशेष—हठयोग के अनुसार इसके मध्य सुषम्ना, बाई ओर इड़ा (चन्द्रमा) और दाहिनी ओर पिंगला (सूर्य) नाम की नाड़ियाँ होती हैं। २. लाक्षणिक रूप में, कोई ऐसी चीज या बात जिसके आधार पर कोई दूसरी चीज या बात ठीक तरह से आश्रित रहकर पूरी तरह से अपना काम करती है। जैसे—तुलसी-कृत रामायण हिन्दू संस्कृति का मेरु-दंड है। ३. भूगोल में पृथ्वी के दोनों ध्रुवों को मिलानेवाली एक कल्पित सीधी रेखा।
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मेरु-पृष्ठ  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी पीठ या नीचेवाला भाग समतल भूमि पर नहीं, बल्कि अंडाकार उभरे हुए तल पर हो। जैसे—मेरुपृष्ठ यंत्र (तांत्रिकों का) ‘भू पृष्ठ’ का विपर्याय। पुं० १. आकाश। २. स्वर्ग। ३. एक प्राचीन जाति।
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मेरु-यंत्र  : पुं० [सं० उपमित स०] १. चरखा। २. बीजगणित में एक प्रकार का चक्र।
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मेरु-शिखर  : पुं० [सं० ष० त०] १. मेरु पर्वत। की चोटी। २. हठयोग में, सहस्रार चक्र का एक नाम। (दे० ‘सहस्रार’)।
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मेरुआ  : पुं० [सं० मेरु+हिं० आ (प्रत्यय)] छोर का वह अंश जिसमें रस्सियाँ बँधी होती है। वि० [हिं० मेरवना=मिलाना] मिला हुआ। मिश्रित। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेरुक  : पुं० [सं० मेरु+कन्] १. ईरान में स्थित एक देश। २. यज्ञ का धुआँ। ३. धूप।
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मेरुदंडी (डिन्)  : वि० [सं० मेरुदंड+इनि] रीढ़वाला (प्राणी)।
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मेरुदेवी  : स्त्री० [सं०] ऋषभदेव की माता।
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मेरुरज्जु  : स्त्री० [सं०] एक मोटी नस जो शरीर के तंत्रिकातंत्र के केन्द्र के रूप में है और जो गरदन के पिछले भाग से कमर तक रीढ़ की हड्डी के साथ फैली हुई है। (स्पाइनल कार्ड) विशेष दे० १. ‘तांत्रिका’। २. ‘तांत्रिका तंत्र’।
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मेल  : पुं० [सं०√मल् (मिलना)+घञ्] १. मिलने या मिले हुए होने की अवस्था या भाव। जैसे—यह रंग तीन रंगों के मेल से बनता है। २. दो या अधिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदि का एक साथ या एक स्थान पर इकट्ठा होना। मिलाप। संयोग। समागम। जैसे—इसी स्टेशन पर दोनों गाड़ियों का मेल होता है। ३. सामाजिक व्यवहार में वह स्थिति जिसमें लोग प्रीतिपूर्वक साथ रहते अथवा आपस में मिलते-जुलते हैं। जैसे—दोनों भाइयों में बहुत मेल है। पद—मेल-जोल, मेर-मिलाप, मेल-मुहब्बत। ४. वह स्थिति जिसमें वैर-विरोध या शत्रुता छोड़कर लोग फिर एक साथ होते या रहते हैं। प्रेम और मित्रता का सम्बन्ध। जैसे—अब तो दोनों राष्ट्रों में मेल हो गया है। ५. पारस्परिक अनुकूलता, उपयुक्तता या सामंजस्य। जैसे—दूध और नमक (या टोप और धोती) का कोई मेल नहीं हैं। क्रि० प्र०—बैठना।—मिलना। मुहावरा—मेल खाना=किसी के साथ अनुकूल या उपयुक्त जान पड़ना या सिद्ध होना। उपयुक्त या ठीक साथ होना। जैसे—(क) इस माला के मोतियों से तुम्हारा मोती मेल नही खाता। (ख) इस कोट के रंग के साथ टोपी का रंग मेल नही खाता। ६. जोड़। बराबरी। समता। जैसे—इसी मेल का कोई और कपड़ा लाओ। पद—मेल का=जोड़ या बराबरी का। ७. पदार्थों का वर्ग। जैसे—उनके यहाँ सब मेल की किताबें (या दवाइयाँ) मिलती हैं। ८. किसी अच्छी या बढ़िया चीज में खराब या घटिया चीज के मिले हुए होने की अवस्था या भाव। मिलावट। जैसे—आज-कल खाने-पीने की चीजों में कुछ न कुछ मेल रहता ही है। स्त्री० [अं०] १. रेलवे की डाकगाडी। २. डाकखाने के द्वारा आने-जानेवाली चिट्ठियाँ, पारसल आदि जो प्रायः डाकगाड़ी से आते-जाते हैं। डाक।
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मेल-जोल  : पुं० [हिं० मिलना+जुलना] [वि० मेली-जोली] १. व्यक्तियों के परस्पर प्रायः मिलते-जुलते रहने का भाव। २. प्रायः मिलते जुलते रहने के फलस्वरूप दो पक्षों में होनेवाला आत्मीयतापूर्ण सम्बन्ध।
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मेल-मल्लार  : पुं० [सं०] एक प्रकार की संकर रागिनी।
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मेल-मिलाप  : पुं० [हिं] १. मेल-जोल। २. रुष्ट या वियुक्त पक्षों में होनेवाला मिलन या मेल। पद—मेल-मिलाप में=मैत्रीपूर्ण ढंग से।
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मेलक  : वि० [सं०√मिल् (मिलना)+णिच्+ण्वुल्-अक] मिलाने या मेल करनेवाला। पुं० [मेल+कन्] १. संग। साथ। २. सहवास। ३. मेला। ४. आदमियों का जमावड़। समूह। ५. मिलन। समागम। ६. वर तथा कन्या के ग्रहों, नक्षत्रों, राशियों आदि का होनेवाला मिलान।
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मेलगर  : पुं० [सं० मेलक] १. भीड़। जमावड़ा। २. मेला।
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मेलन  : पुं० [सं०√मिल् (मिलना)+ल्युट-अन] १. एक साथ होना। इकट्ठा होना। मिलन। २. [√मिल्+णिच्+ल्युट-अन] मिलाने की क्रिया या भाव। ३. मिलावट। ४. आदमियों का जमावड़ा। समूह। ५. मुठभेड़।
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मेलना  : स० [हिं० मेल+ना (प्रत्यय)] १. मिलान करना। २. मिलाना या मिश्रित करना। ३. किसी चीज के अन्दर, ऊपर या चारों ओर पहनाना या रखना। उदाहरण—सिय जय-माल राम उर मेली।—तुलसी। ४. कोई चीज कहीं पहुँचाना या भेजना। उदाहरण—काजी होके बाँग मेले जो क्या साहब बहरा है।—कबीर। ५. फेंकना। ६. फैलाना। अ० किसी चीज या व्यक्ति का कहीं पहुँचना। उदाहरण—जस-सागर रघुनाथ जू मेले सागर तीर।
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मेला  : पुं० [सं० मेलक] १. उत्सव, देव-दर्शन आदि के अवसरों पर बहुत से लोगों का किसी स्थान पर एक साथ होनेवाला जमाव। २. वस्तुओं, विशेषतः चौपायों के क्रय-विक्रय के निमित्त किसी विशिष्ट स्थान पर तथा किसी विशिष्ट ऋतु में होनेवाला व्यापारियों का जमावड़ा। जैसे—ददरी या हरिद्वार का मेला। पद—मेला-ठेला। ३. किसी तीर्थ-स्थान या पर्व पर होनेवाला लोगों का जमाव। जैसे—माघ मेला। ४. किसी स्थान पर किसी चीज को देखने अथवा किसी बात को सुनने के लिए लगनेवाली लोगों की भीड़। जैसे—बात की बात में वहाँ मेला लग गया। क्रि० प्र०—लगना। ५. दे० प्रदर्शिनी। जैसे—औद्योगिक मेला। स्त्री० [सं०√मिल्+णिच्+अङ्+टाप्] १. बहुत से लोगों का जमावड़ा। २. मिलन। ३. रोशनाई। स्याही। ४. आँखों में लगाने का अंजन। ५. महानीली
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मेला-ठेला  : पुं० [हिं० मेलना+हिं० ठेलना] मेला अथवा कोई ऐसा सार्वजनिक स्थान जहाँ भीड़-भाड़ और धक्कम-धक्का हो।
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मेलान  : पुं० [हिं० मिलना] पड़ाव। मंजिल। उदाहरण—ओहिं मेलान जब पहुँचिहिं कोई।—जायसी। पुं०=मिलान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेलाना  : स० [हिं० मेल] १. मेलना या प्रेरणार्थक रूप। मेलने का काम दूसरे से कराना। २. रेहन रखी हुई वस्तु को छुड़ाना। स०=मिलान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेलापक  : वि० [सं० मेलक] १. मिलानेवाला। २. इकट्ठा करनेवाला। पुं० १. भीड़-भाड़। जमावड़ा। २. ग्रहों का योग।
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मेलायन  : पुं० [सं० मिलन] १. मिलन। २. संयोग। समागम।
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मेली  : वि० [हिं० मेल] १. जिससे मेल या मेल-जोल हो। २. (वह) जो जल्दी दूसरों से हिल-मिल जाता हो। यार-बाश।
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मेल्हना  : अ० [?] १. कष्ट या पीड़ा से बार-बार इस करवट से उस करवट होना। छटपटाना। २. कोई काम करने में आनाकानी करके समय बिताना पुं० एक प्रकार की नाव। स०=मेलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेव  : पुं० [देश] १. राजपूतानों की एक जाति। २. उक्त जाति का व्यक्ति।
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मेवड़ी  : स्त्री० [देश] निगुँड़ी। सँभालू।
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मेवा  : पुं० [फा० मेवः] १. खाने का फल विशेषता सूखा फल। २. आज-कल विशिष्ट रूप से किशमिश, बादाम, अखरोट आदि सुखाए हुए बढ़िया फल। ३. उत्तम और बहुमूल्य पदार्थ। ४. गुजरात में होनेवाला एक प्रकार का गन्ना। खजूरिया।
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मेवा-फरोश  : पुं० [फा] [मेव, फरोश] फल और मेवे बेचनेवाला दूकानदार।
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मेवाटी  : स्त्री० [फा० मेवा+हिं० बाटी] एक प्रकार का पकवान जिसमें किशमिश, बादाम आदि भी भरे हुए होते हैं
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मेवाड़  : पुं० [देश] १. आधुनिक राजस्थान का एक प्रसिद्ध भू-भाग जो मध्य काल में एक स्वतंत्र राज्य था। महाराणा प्रताप यहीं का राजा था। २. एक राग जो मालकोस राग का पुत्र माना गया है।
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मेवाड़-केसरी  : पुं० [हिं०] महाराणा प्रताप।
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मेवाड़ी  : वि० [हिं० मेवाड़] १. मेवाड़ प्रदेश से सम्बन्ध रखनेवाला। मेवाड़ का। २. मेवाड़ में रहने या होनेवाला। पुं० मेवाड़ का निवासी। स्त्री० मेवाड़ की बोली।
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मेवात  : पुं० [सं०] राजस्थान और सिंध के बीच के प्रदेश का पुराना नाम।
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मेवाती  : पुं० [हि० मेवात+ई (प्रत्यय)] मेवात का रहनेवाला। वि० मेवात का। स्त्री० मेवात प्रदेश की बोली।
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मेवासा  : पुं० =मवास (दुर्ग)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मेवासी  : वि० [हिं० मवासा] १. दुर्ग में होनेवाला या रहनेवाला। २. फलतः सुरक्षित। पुं० दुर्ग का अधिकारी या स्वामी।
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मेष  : पुं० [सं०√मिष् (स्पर्धा)+अच्] १. भेड़। २. ज्योतिष में बारह राशियों में से पहली राशि जिसमें २१ मार्च के लगभग सूर्य प्रविष्ट होता है। ३. जीवशाक। सुसना।
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मेष-लोचन  : पुं० [सं० ब० स०] चकवँड़।
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मेष-वल्ली  : स्त्री० [सं० मध्य० स] मेढ़ासिंगी।
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मेष-विषाणिका  : स्त्री० [सं० ब० स०+कप्+टाप्, इत्व] मेढ़ासिंगी।
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मेष-श्रृंग  : पुं० [सं० ष० त०] सिंगिया (विष)।
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मेष-श्रृंगी  : स्त्री० [सं० मेषश्रृंग+ङीष्] मेढ़ासिंगी।
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मेष-संक्रान्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] सूर्य के मेष राशि में प्रविष्ट होने का समय जो पुण्यकाल माना गया है। सौर वर्ष का आरंभ इसी अथवा इसके दूसरे दिन से होता है।
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मेषपाल  : पुं० [सं० मेष√पाल् (पालना)+णिच्+अण्] गड़रिया।
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मेषा  : स्त्री० [सं० मेष√+टाप्] १. छोटी इलायची। २. लाल भेंड़ की खाल से बनाया जानेवाला चमड़ा।
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मेषांड  : पुं० [सं० मेष-अंड, ब० स०] इंद्र।
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मेषिका  : स्त्री० [सं० मेषी+कन्+टाप्, ह्रस्व] मेषी।
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मेषी  : स्त्री० [सं० मेष+टाप्] १. मादा भेड़। २. जटामासी।
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मेस  : पुं० [अं०] वह भोजनालय जहाँ संयुक्त रूप से किसी वर्ग के बहुत से लोगों का भोजन बनता हो। जैसे—फौजियों या विद्यार्थियों का मेस।
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मेसू  : पुं० [?] बेसन की बनी हुई एक प्रकार की बरफी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेसूरण  : पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में दशम लग्न जो कर्म-स्थान कहा गया है।
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मेस्मेरिज्म  : पुं० [अं० मेज्मरिज्म] मेज्मर नामक जर्मन डाक्टर का आविष्कृत यह सिद्धान्त कि मनुष्य किसी गुप्त शक्ति या केवल इच्छाशक्ति से दूसरे की इच्छाशक्ति को प्रभावान्वित या वशीभूत कर के अचेत कर सकता है। सम्मोहिनी विद्या। सम्मोहन।
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मेंह  : पुं० [सं० मेघ] १. आकाश से वर्षा के रूप में गिरनेवाला जल। २. पानी बरसना। वर्षा। क्रि० प्र०—पड़ना।
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मेह  : पुं० [सं०√मिह् (क्षऱण)+घञ्] १. पेशाब। मूत्र। २. प्रमेह नामक रोग। ३. कोई ऐसा रोग जिसमें मूत्र के साथ कोई और विकृत या दूषित तत्त्व भी निकलता हो। जैसे—मधु-मेह आदि। पुं० [सं० मेष] १. मेष। भेड़। २. बादल। मेघ। ३. वर्षा। मेह।
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मेहतर  : पुं० [फा० मिहतर] १. बहुत बड़ा और प्रतिष्ठित या मान्य व्यक्ति। बुजुर्ग। २. भंगी विशेषतः मुसलमान भंगी।
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मेहतरानी  : स्त्री० हिं० ‘मेहतर’ (भंगी) का स्त्री।
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मेंहदिया  : वि० [हि० मेंहदी] मेंहदी की तरह का हरापन लिये लाल रंगवाला। पुं० उक्त प्रकार का रंग (मर्ट्रिल)।
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मेहँदिया  : वि० [हिं० मेंहदी] मेंहदी के रंग का। हरापन लिये लाल रंग का। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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मेंहदी  : स्त्री० [सं० मेंधी] १. एक प्रसिद्ध कँटीली झाड़ी या पौधा जिसकी पत्तियों से गहरा लाल रंग निकलता है और इसीलिए जिन्हें पीसकर स्त्रियाँ अपनी हथेलियों और तलुओं में, उन्हें रंगने के लिए लगाती हैं। (मर्ट्रिल)। २. उक्त पौधे की पत्तियों का पीसा हुआ चूर्ण। मुहावरा—मेंहदी रचना=मेंहदी का अच्छा और गहरा रंग आना। मेंहदी रचाना या लगाना=मेंहदी की पत्तियाँ पीसकर हथेली या तलुए में लगाना।
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मेहँदी  : स्त्री०=मेंहदी।
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मेहन  : पुं० [सं०√मिह्+ल्युट-अन] १. पेशाब करना। मूत्र-त्याग। २. पेशाब। मूत्र। ३. [√मिह्+ल्यु-अन] जननेंद्रिय। लिंग।
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मेहनत  : स्त्री० [अ०] परिश्रम विशेषतः शारीरिक परिश्रम।
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मेहनताना  : पुं० [अ०+फा०] १. मेहनत करने के बदले में मिलनेवाला धन। पारिश्रमिक। २. विशेष रूप से वह धन जो वकील को मुकदमा लड़ने के बदले में दिया जाता है।
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मेहनती  : वि० [अ० मेहनत+हिं० ई (प्रत्यय)] १. अधिक या पूरी मेहनत करनेवाला। परिश्रमी। २. व्यायाम करनेवाला। ३. पुष्ठ।
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मेहना  : स्त्री० [सं०√मिह्+णिच्+युच्+अन+टाप्] महिला। स्त्री। पुं० [अ० मिहन=परीक्षण या हिं० ताना का अनु०] किसी के साथ। किये हुए उपकार की ऐसी चर्चा जो उपकृत व्यक्ति की कृतघ्नता दिखलाने पर लज्जित करने के लिए की जाय। जैसे—वह दिन-रात ननद को ताने-मेहने देती रहती है। (स्त्रियाँ)। क्रि० प्र०—देना।—मारना।
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मेहमान  : पुं० [फा०मेहमान] १. अतिथि। अभ्यागत। २. दामाद।
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मेहमानदारी  : स्त्री० [फा०] अतिथि या मेहमान की की जानेवाली आवभगत या आदर-सत्कार। आतिथ्य।
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मेहमानी  : स्त्री० [फा० मेहमान+ई (प्रत्यय)] १. मेहमान होने की अवस्था या भाव। २. मेहमान का किया जानेवाला आतिथ्य सत्कार। ३. अपने घर मेहमानों की तरह किया जानेवाला संकोच।
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मेहर  : स्त्री० [फा० मेह्र] मेहरबानी। अनुग्रह। दया। स्त्री०=मेहरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेहरना  : अ० [हि० मेहर+ना (प्रत्यय)] मेहर अर्थात् अनुग्रह करना।
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मेहरबान  : वि० [फा० मेह्रबान] कृपालु। दयालु। अनुग्रह करनेवाला।
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मेहरबानगी  : स्त्री०=मेहरबानी।
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मेहरबानी  : स्त्री० [फा० मेह्रबानी] १. मेहरबान होने की अवस्था या भाव। कृपा। अनुग्रह। २. मेहरबान द्वारा किया हुआ कोई उपकार या अनुग्रह।
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मेहरा  : पुं० [हि० मेहरी] १. स्त्रियों की सी चेष्टावाला। स्त्री-प्रकृतिवाला। जनखा। पुं० [?] जुलाहों की चरखी का घेरा। पुं० [सं० मिहिर] खत्रियों की एक जाति या वर्ग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेहराना  : अ० [?] नमी आदि के कारण कुरकुरे या मुरमुरे पदार्थ का कुछ आर्द्र होना। जैसे—बरसात के कारण भुने हुए दाने या सेव मेहराना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मेहराब  : स्त्री० [अ० मिहराब] द्वार के ऊपर का अर्द्धमंडलाकार बनाया हुआ भाग। दरवाजे के ऊपर का गोले, आधे गोले या मंडल की तरह का बनाया हुआ हिस्सा।
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मेहराबदार  : वि० [अ० +फा] जिसमें मेहराब लगी हो। मेहराबवाला।
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मेहराबी  : वि० [अ० मिहराबी] मेहराबदार। स्त्री० एक प्रकार की तलवार जो मेहराब की तरह बीच में कुछ झुकी हुई या टेढ़ी होती है।
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मेहरारू  : स्त्री० [सं० मेहना] १. महिला। स्त्री। २. जोरू। पत्नी।
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मेहरिया  : स्त्री०=मेहरी।
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मेहरी  : स्त्री० [सं० मेहना] १. स्त्री०। औरत। २. जोरू। पत्नी।
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मेहल  : पुं० [देश] मँझोले आकार का एक तरह का वृक्ष जिसके फल खाये जाते हैं। इसकी लकड़ी की छड़ियाँ और हुक्के की निगालियाँ बनती है।
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मेह्र  : स्त्री०=मेहर (कृपा)।
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मेह्रवान  : वि०=मेहरबान।
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मैं  : सर्व० [सं० अहं] सर्वनाम उत्तम पुरुष में कर्ता का रूप। स्वयं। खुद। विशेष—गद्य में यह विभक्ति-रहित रूप है, परन्तु पद्य में यह सार्वविभक्ति रूप में भी प्रयुक्त होता है। जैसे—यह अपराध बड़ौ उन कीन्हौं। तच्छक डसन साँप मै=(मुझे) दीन्हौ।—सूर। स्त्री० अहंभाव। अहंमन्यता। विभ० हिन्दी में विभक्ति का व्रज रूप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मै  : स्त्री० [सं० मद्य से फा०] शराब। मद्य। मदिरा। अव्य० [अ०] साथ। सहित। जैसे—मै नौकर-चाकर से वे यहीं आनेवाले हैं। पुं० =मय। पुं० =मैखाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मै-खाना  : पुं० [फा० मैख़ानः] मधुशाला। मदिरालय।
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मै-परस्त  : पुं० [फा०] [भाव० मै-परस्ती] १. मदिर का प्रेमी और भक्त अर्थात् मद्यप। २. बहुत अधिक शराब पीनेवाला। मदिरासक्त।
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मै-परस्ती  : स्त्री० [फा०] बहुत अधिक शराब पीना।
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मै-फरोश  : पुं० [फा०] [भाव० मै-फरोशी] शराब बेचनेवाला। मद्यव्यवसायी। कलवार।
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मै-फरोशी  : स्त्री० [फा०] शराब बेचने का धंधा।
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मैकदा  : पुं० [फा० मैकदः] मधुशाला।
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मैकश  : पुं० [फा०] [भाव० मैकशी] बहुत शराब पीनेवाला। भद्यप।
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मैकशी  : स्त्री० [फा०] शराब पीना। मद्य-पान।
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मैका  : पुं० =मायका।
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मैगना-कार्टा  : पुं० [अं०] वह राजकीय आज्ञापत्र जिसमें राजा की ओर से प्रजाजनों को कोई स्वत्व या अधिकार देने की घोषणा की जाती है। शाही फरमान।
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मैंगनीज़  : पुं० [अं०] मंगल नामक सफेद धातु।
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मैगनेट  : पुं० [अं०] चुंबक।
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मैगल  : पुं० [सं० मदकल] मत्त हाथी। मस्त हाथी। वि० मत्त। मस्त।
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मैच  : पुं० [अं०] वह खेल जिसमें दो दल एक-दूसरे को पराजित करने और स्वयं विजयी होने के लिए सम्मिलित होते हैं। प्रतियोगिता का खेल।
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मैजल  : स्त्री० [अ० मंजिल] १. उतनी दूरी जितना कोई पुरुष एक दिन में तै करता हो या कर सकता हो। मंजिल। २. यात्रा। सफर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मैजिक  : पुं० [अं०] इंद्रजाल। जादू।
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मैजिक लालटैन  : स्त्री० [अं० मैजिक लैन्टर्न] एक प्रकार का यंत्र जिसमें विद्युत के प्रकाश की सहायता से परदे पर परछाई डालकर तसवीरें आदि दिखाई जाती हैं।
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मैटर  : पुं० [अं०] १. पदार्थ। भूत। २. कागज पर लिखा हुआ कोई विषय जो कंपोज करने के लिए दिया जाय। ३. कंपोज किये हुए टाइप या अक्षर जो छपने के लिए तैयार हों।
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मैंढल  : पुं० =मैनफल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मैत्र  : पुं० [सं० मित्र+अण्] १. मित्र होने की अवस्था या भाव। मित्रता। २. अनुराधा नक्षत्र। ३. मर्त्य लोक। ४. ब्राह्मण। ५. मलद्वार। गुदा। ६. वेद की एक शाखा। ७. एक प्राचीन वर्णसंकर जाति। ८. एक मुहूर्त (ज्योतिष)। वि० १. मित्र-संबंधी। २. मित्रों में होनेवाला। मैत्रक
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मैत्रायण  : पुं० [सं० मित्र+फक्-आयन] १. गृह्य सूत्र के प्रणेता एक प्राचीन ऋषि। २. मैत्र नाम की वैदिक शाखा।
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मैत्रावरुण, मैत्रावरुणि  : पुं० [सं० मित्र-वरुण, द्व० स० वृद्धि+अण्, मैत्रावरुण+इच्] १. अगस्त्य और वसिष्ठ (इन दोनों की उत्पत्ति मित्र और वरुण दोनों के संयुक्त वीर्य से मानी गयी है।) २. यज्ञ के १६ ऋत्विजों में से एक।
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मैत्री  : स्त्री० [सं० मित्र+ष्यञ्+ङीष्, य-लोप] १. दो व्यक्तियों के बीच का मित्र-भाव। मित्रता। दोस्ती। २. अपना कोई उद्देश्य सिद्ध करने के लिए किसी के साथ बढ़ाया या स्थापित किया जानेवाला घनिष्ठ मेल-जोल। संश्रय (एलायन्स) ३. दो या अधिक चीजों के एक ही तरह के होने की अवस्था या भाव समानता। जैसे—वर्ण-मैत्री। ४. अनुराधा नक्षत्र।
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मैत्रीभ  : पुं० [सं० मध्य० स०] अनुराधा नक्षत्र।
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मैत्रेय  : पुं० [सं० मैत्र+ढञ्-एय] १. एक बुद्ध। २. [मित्रयु+ढञ्-एय, यु-लोप] सूर्य। ३. एक ऋषि। ४. एक वर्ण संकर जाति।
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मैत्रेयिका  : स्त्री० [सं० मैत्रेय+कन+टाप्, इत्व] मित्रों या सहयोगियों में होनेवाला संघर्ष।
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मैत्रेयी  : स्त्री० [सं० मैत्रेय+ङीष्] १. याज्ञवल्क्य की स्त्री का नाम। जो ब्रह्मवादिनी और बड़ी पंडिता थी। २. अहल्ला का एक नाम।
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मैत्र्य  : पुं० [सं० मित्र+ष्यञ्] मित्रता। दोस्ती।
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मैथिल  : पुं० [सं० मिथिला+अण्] १. मिथिला का निवासी। २. राजा जनक। वि० मिथला सम्बन्धी।
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मैथिली  : स्त्री० [सं० मैथिल+ङीष्] १. मिथिला देश के राजा की कन्या, जानकी। सीता। २. मिथिला देश की बोली। वि० मिथिला देश अथवा मैथिलों का।
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मैथुन  : पुं० [सं० मिथुन+अण्] १. स्त्री के साथ पुरुष का समागम। संभोग। रति-क्रीड़ा। २. मन में काम-वासना या संभोग का विचार रखकर स्त्री या स्त्रियों के साथ किया जानेवाला कोई व्यवहार। जैसे—केलि-मैथुन। (दे०)
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मैथुनिक  : वि० [सं० मैथुन+ठक्-इक] १. मैथुन-संबंधी। मैथुन का। २. स्त्रीलिंग या पुलिंग अथवा दोनों से सम्बन्ध रखनेवाला। यौन। लैंगिक (सेक्सुअल)।
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मैथुनिकी  : स्त्री० [सं० मैथुनिक+ङीष्] आधुनिक चिकित्सा-प्रणाली की वह शाखा जिसमें दुष्ट मैथुन के कारण उत्पन्न होनेवाले रोगों का निदान और विवेचन होता है। (वेनीरियोलोजी)
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मैथुनी (निन्)  : वि० [सं० मैथुन+इनि] मैथुन करनेवाला।
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मैथुन्य  : पुं० [सं० मिथुन+ष्यञ्] १. मिथुन की अवस्था या भाव। २. [मैथुन+यत्] गांधर्व विवाह।
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मैदा  : पुं० [फा०मैदः] बहुत महीन छाना या पीसा हुआ आटा जिससे बढ़िया पकवान और मिठाइयाँ बनती हैं।
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मैदा-लकड़ी  : स्त्री० [सं० मेदा+हिं० लकड़ी] एक प्रकार की मुलायम सफेद जड़ी जो औषध के काम आती है।
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मैदान  : पुं० [फा०] १. ऐसा विस्तार क्षेत्र या भूखंड जो प्रायः समतल हो और जिस पर किसी प्रकार की वास्तु-रचना आदि न हो। दूर तक फैली हुई सपाट जमीन। मुहावरा—मैदान करना या छोड़ना=किसी काम के लिए बीच में कुछ जगह खाली छोड़ना। मैदान जाना=शौच आदि के लिए, विशेषतः बस्ती के बाहर उक्त प्रकार के स्थान में जाना। पद—खुले मैदान=सब के सामने। २. पर्वतीय प्रदेश से भिन्न भूभाग जो प्रायः समतल होता है। ३. खेल, तमाशे प्रतियोगिता आदि के लिए बनाया हुआ उक्त प्रकार का क्षेत्र या भूमि। मुहावरा—मैदान बदना=लड़ने-भिड़ने के लिए स्थान नियत करना। मैदान मारना=प्रतियोगिता आदि में विजय प्राप्त करना। मैदान में आना=प्रतियोगिता या प्रतिद्वंद्विता के लिए सामने आना। मुकाबले पर आना। मैदान साफ होना=आगे बढ़ने के लिए मार्ग में कोई बाधा या रुकावट न होना। ४. युद्ध क्षेत्र। रण-भूमि। मुहावरा—मैदान करना=युद्ध-क्षेत्र में पहुँचकर युद्ध करना। मैदान मारना=युद्ध में विजय प्राप्त करना। (किसी के हाथ) मैदान रहना=किसी पक्ष को पूरी विजय प्राप्त होना। ५. किसी प्रकार की लंबाई, चौड़ाई या विस्तार। ऊपरी तल का फैलाव। जैसे—(क) इस तख्ते में इतना मैदान ही नहीं है कि इस पर इतने बेल-बूटे बन सकें। (ख) इस हीरे का ऊपरी मैदान कुछ कम है।
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मैदानी  : वि० [फा०] १. (प्रदेश) जो समतल हो विशेषतः जिसमें पहाड़ आदि न हों। २. मैदान या मैदानों में काम आने या होनेवाला अथवा उनसे संबंध रखनेवाला। जैसे—मैदानी तोप। स्त्री० आँगन या मैदान में टाँगी अथवा लटकाई जानेवाली लालटेन। स्त्री० [हिं० मैदा] मैदे का उठाया हुआ खमीर।
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मैंन  : पुं० =मोम। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मैन  : पुं० [सं० मदन] १. कामदेव। मदन। २. मोम। ३. राल में मिलाया हुआ मोम जिससे धातुओं की मूर्तियाँ बनाने के पहले उनका नमूना बनाया जाता है और जिसके आधार पर मूर्तियाँ ढालने का साँचा बनाया जाता है। पुं० [अं०] आदमी। मनुष्य।
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मैन-कामिनी  : स्त्री० [हि० मैन=मदन+सं० कामिनी] कामदेव की स्त्री। रति।
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मैनफर  : पुं० =मैनफल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मैनफल  : पुं० [सं० मदनफल] १. मझोले आकार का एक प्रकार का झाड़दार और कँटीला वृक्ष जिसकी छाल खाकी रंग की लकड़ी हलके भूरे रंग की होती है, और फूल पीलापन लिये सफेद रंग के होते हैं २. इस वृक्ष का फल जिसमें दो दल होते हैं और जिसमें बिहीदाने की तरह चिपटे बीज होते हैं। इसका गूदा पीलापन लिए लाल रंग का और स्वाद कडुआ होता है।
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मैनमय  : वि० [हिं० मैन+सं०मय] जिसे बहुत प्रबल काम-वासना हो रही हो।
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मैनर  : पुं० =मैनफल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मैनशिल  : स्त्री०=मैनसिल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मैनसिल  : स्त्री० [सं० मनःशिला] मटमैले रंग का एक प्रकार का खनिज पदार्थ जिसे शोधकर दवा के काम में लाया जाता है।
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मैना  : स्त्री० [सं० मदना, मदन-शलाका] १. काले रंग की तथा पीली चोंचवाली एक प्रसिद्ध बड़ी चिड़िया जो सिखाने से मनुष्य की-सी बोली बोलने लगती है। सारिका। सारो। सतभइया नामक पक्षी। ३. हिमालय की स्त्री। स्त्री०=मेनका। पुं० =मीना (जंगली जाति)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मैनाक  : पुं० [सं० मेनका+अण्, पृषो० सिद्धि] एक पर्वत जो मैना तथा हिमालय का पुत्र माना जाता है। (पुराण) इसे सुनाभ और हिरण्यनाभ भी कहते हैं। २. हिमालय की एक चोटी।
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मैनी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का कँटीला पेड़। मरुवक।
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मैमंत  : वि० [सं० मदमत्त] १. मदोन्मत्त। मतवाला। २. अभिमानी। घमंडी। स्त्री०=ममता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मैमनत  : स्त्री० [अ० मैमंत] १. सम्पन्नता। २. सुख। ३. कल्याण।
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मैमाता  : वि० [स्त्री० मैमाती]=मैमंत। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मैयत  : स्त्री० [सं० मृत्यु] १. मौत। मृत्यु। २. मृत शरीर। लाश। शव। ३. मृतक का अंतिम संस्कार। अन्त्येष्टि। जैसे—उनकी मैयत में शहर भर के लोग शामिल हुए थे।
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मैया  : स्त्री० [सं० मातृका, प्रा० मातृआ, माइया] माता। माँ।
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मैयार  : पुं० [हिं० मटियार] एक तरह की बंजर भूमि। पुं० [अ०] १. मापने-तौलने आदि का कोई उपकरण। २. कसौटी।
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मैर  : स्त्री० [सं० मृदर, प्रा० मिअर=क्षणिक] रह-रहकर होनेवाली वह कसक जो शरीर में साँप का जहर प्रविष्ट होने पर होती है।
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मैरा  : पुं० [सं० मयर, प्रा० मयड़] खेत में स्थित मचान।
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मैरीन  : पुं० [अं०] १. नौ-सेना। २. नौ-सैनिक। वि० समुद्र-सम्बन्धी। समुद्री।
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मैरेय  : स्त्री० [मार+ढक्-एय, नि० सिद्धि] १. गुड़ और धौ के फूल की बनी हुई एक प्रकार की प्राचीन काल की मदिरा। २. एक में मिला हुआ आसव और मद्य जिसमें ऊपर से शहद भी मिला दिया गया हो। ३. मदिरा। शराब।
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मैल  : स्त्री० [सं० मल] १. कोई ऐसी चीज जिसके पड़ने या लगने से दूसरी चीज खराब, गंदी या मैली होती हो अथवा उनकी चमक-दमक, सफाई आदि कम होती या बिगड़ जाती हो। मलिन या मैला करनेवाला तत्त्व या वस्तु। जैसे—किट्ट, गर्दा, धूल आदि। पद—हाथ पैर की मैल=बहुत ही उपेक्ष्य और तुच्छ वस्तु। जैसे—वह रुपये-पैसे को तो हाथ की मैल समझता था। २. मन में रहने या होनेवाला किसी प्रकार का दोष या विकार। मुहावरा—मन में मैल रखना=मन में किसी प्रकार का दुर्भाव या वैमनस्य रखना। वि०=मैला। (मलिन)। पुं० [देश] फीलवानों का एक संकेत जिसका व्यवहार हाथी को चलाने के लिए होता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मैल-खोरा  : वि० [हिं० मैल+फा० ख़ोर] धूल, गर्दा आदि पड़ने पर भी (क) जो मैला न दिखाई पड़ता हो अथवा (ख) जिसकी रंगत खराब न होती हो जैसे—(क) मैल-खोरा कपड़ा। (ख) मैल-खोरा रंग। पुं० १. काठी या जीन के नीचे रखा जानेवाला नमदा। २. साबुन।
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मैलंद  : पुं० [सं० मिलिंद] भौंरा।
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मैला  : वि० [सं० मलिन, प्रा० मइल] १. जिस पर मैल जमी हो। जिस पर गर्द, धूल या कीट आदि हो। जिसकी चमक-दमक मारी गई हो। मलिन। अस्वच्छ। ‘साफ’ का उलटा। पद—मैला-कुचैला। २. दोष, विकार आदि से युक्त। दूषित और विकृत। गंदा। पुं० १. गलीज। गू। विष्ठा। २. कूड़ा-करकट। ३. मैल। पुं० [अं० मैल] १. आकर्षण। २. प्रवृत्ति या रुचि।
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मैला-कुचैला  : वि० [हिं० मैला+सं० कुचैल=गंदा वस्त्र] [स्त्री० मैली-कुचैली] १. बहुत अधिक मैला या गंदा। २. जो बहुत मैले कपड़े आदि पहने हुए हो।
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मैला-घर  : पुं० [हिं०] वह सार्वजनिक स्थान जहाँ गाँव या शहर का कूड़ा-कर्कट, गू आदि फेंका जाता है।
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मैलान  : पुं० [अ०] १. आकर्षण। २. प्रवृत्ति या रुचि।
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मैलापन  : पुं० [हिं० मैला+पन (प्रत्यय)] मैले होने की अवस्था या भाव। मलिनता। गंदापन।
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मैशिनरी  : स्त्री०=मशीनरी।
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मैहर  : पुं० [हिं० मही=मट्ठा] १. मक्खन को तपाने पर उसमें से निकलनेवाला मट्ठा। घी की तलछट। पुं० =नैहर (मायका)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मों  : सर्व० [सं० मम] १. ब्रजभाषा में ‘मैं’ का कर्ता से भिन्न अन्य कारकों में विभक्ति लगने से पहले बना हुआ रूप। जैसे—मोंको, मोपै, इत्यादि। २. मुझे। मुझको। अव्य० में। उदाहरण—खोलि कपाट महल मों जाहीं।—कबीर।
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मो  : सर्व० [सं० मम] १. मेरा। २. अवधी और ब्रजभाषा में ‘मै’ का वह रूप जो उसे कर्ताकारक से भिन्न अन्य कारकों में विभक्ति लगने से पहले प्राप्त होता है। जैसे—मोकों, मोसों इत्यादि। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मोई  : स्त्री० [हि० मोना] घी में सना हुआ आटा।
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मोकदमा  : पुं० =मुकदमा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोकना  : स० [सं० मुक्त, हिं० मुकना] १. परित्याग करना। छोड़ना। २. मुक्त करना। छुड़ाना। ३. फेंकना।
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मोकराना  : स०=मोकना (मुक्त करना)। उदाहरण—हौ होइ बंदि पियहिं मोकरावौं।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोकल  : वि० [सं० मुक्त, हिं० मुकना] १. जो बँधा न हो। छूटा हुआ। आजाद। स्वच्छन्द। २. दे० ‘मोकला’। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मोकलना  : स० [सं० मुक्ति] भेजना। उदाहरण—चिहुँ दिसि नौ ताँ मोकल्या।—नरपति नाल्ह।
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मोकला  : वि० [हि० मोकल] १. अधिक चौड़ा। कुशादा। २. खुला या छूटा हुआ। मुक्त। ३. बहुत। यथेष्ट।
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मोका  : पुं० [देश] पुं० १. =मौका। २. =मोखा।
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मोक्ष  : पुं० [सं०√मोक्ष् (छुटकारा)+घञ्] १. बंधन से छूटना। मुक्त होना। छुटकारा। २. धार्मिक क्षेत्र में वह अवस्था या स्थिति जिसमें मनुष्य, दुष्कर्मों पापों आदि से रहित होने के कारण बार-बार संसार में आकर जन्म लेने और मरने के कष्टों से छूट जाता है। आवागमन से मिलनेवाली मुक्ति। ३. मृत्यु। मौत। ४. गिरना। पतन। ५. पाढर का वृक्ष।
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मोक्ष-देव  : पुं० [सं०] चीनी यात्री ह्वेनसांग का एक भारतीय नाम।
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मोक्ष-द्वार  : पुं० [सं० ष० त०] १. सूर्य। २. काशी तीर्थ।
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मोक्ष-पति  : पुं० [सं० ष० त०] ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक भेद। इसमें १६ गुरु, ३२ लघु और ६४ द्रुत मात्राएँ होती हैं।
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मोक्ष-विद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] अध्यात्म-विद्या।
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मोक्ष-शिला  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह लोक जिसमें जैन धर्मावलंबी साधु पुरुष मोक्ष का सुख भोगते हैं। (जैन)।
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मोक्षक  : वि० [सं०√मोक्ष्+ण्वुल्+अक] मोक्ष-दायक। पुं० मोखा नामक वृक्ष।
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मोक्षण  : पुं० [सं०√मोक्ष्+ल्युट-अन] [वि० मोक्षणीय, मोक्षित, मोक्ष्य] मोक्ष देने की क्रिया या भाव।
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मोक्षद  : वि० [सं० मोक्ष√दा (देना)+क] मोक्ष-दायक।
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मोक्षदा  : स्त्री० [सं० मोक्षद+टाप्] अगहन सुदी एकादशी की संज्ञा।
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मोक्ष्य  : वि० [सं० मोक्ष+यत्] १. जिसका मोक्षण हो सकता हो। जो छूट सकता हो, छुड़ाया जा सकता हो या छुड़ाया जाने को हो। २. जो धार्मिक दृष्टि से मोक्ष या मुक्ति पाने का अधिकारी हो चुका हो।
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मोख  : पुं० =मोक्ष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोखा  : पुं० [सं० मुख] १. दीवार, छत आदि में बना हुआ रोशनदार। २. ताखा ३. एक तरह का वृक्ष।
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मोंगरा  : पुं० १. =मोगरा। २. =मुँगरा।
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मोगरा  : पुं० [सं० मुद्गर] १. बढ़िया जाति का बेले का पौधा। २. उक्त पौधे का फूल जो साधारण बेले के फूल से अधिक बड़ा तथा गठा हुआ होता है।
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मोगल  : पुं० =मुगल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोंगला  : पुं० [देश] मध्यम श्रेणी का केसर। पुं० =मुँगरा। पुं० =मोगरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोगली  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का जंगली वृक्ष।
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मोघ  : वि० [सं०√मुह् (मुग्ध होना)+घञ्, कुत्व] १. पदार्थ जो ठीक या पूरा काम न दे सकता हो। २. निष्फल। व्यर्थ।
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मोघ-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] बंध्या स्त्री। बांझ।
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मोघिया  : स्त्री० [देश] वह मोटी, मजबूत और अधिक चौड़ी नरिया जो खपरैली छाजन में बँडेरे पर मँगरा बाँधने में काम आती है।
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मोच  : पुं० [सं०√मुच् (छोड़ना)+अच्] १. सेमल का पेड़। २. केला। ३. पाढर वृक्ष। स्त्री० [सं० मुच्] १. झटका या धक्का लगने से शरीर के किसी अंग के जोड़ की नस का अपने स्थान से इधर-उधर खिसक जाना। (इसमें वह स्थान सूज आता है और उसमें बहुत पीड़ा होती है। जैसे—पाँव में मोच आ गई है। २. कोई ऐसा दोष जिसमें कोई चीज भद्दी और लँगड़ी सी जान पड़ती हो। जैसे—पहले आप अपनी भाषा की मोच तो निकालें। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना।
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मोच-रस  : पुं० [सं० ष० त०] सेमल वृक्ष का गोंद।
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मोचक  : वि० [सं०√मुच् (छोडऩा)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. मोचन करनेवाला। छुड़ानेवाला। २. ले लेने या हरण करनेवाला। पुं० १. सेमल का पेड़। २. केला। ३. ऐसा संन्यासी जो सब प्रकार की विषय वासनाओं से मुक्त हो चुका हो।
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मोचन  : पुं० [सं०√मुच्+ल्युट-अन] १. बंधन आदि से छुड़ाना छुटकारा देना। मुक्त करना २. दूर करना। हटाना। जैसे—दुःख मोचन। ३. ले लेना या हरण करना। छीनना। जैसे—वस्त्र मोचन।
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मोचना  : स० [सं० मोचन] १. मोचन करना। २. छुड़ाना या छोड़ना। ३. गिराना। ४. बाहर निकालना। पुं० १. लोहारों का वह औजार जिससे वे लोहे के छोटे-छोटे टुकड़े उठाते हैं। २. हज्जामों की वह चिमटी जिससे वे बाल उखाड़ते या नोचते हैं।
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मोचनी  : स्त्री० [सं०√मुच्+णिच्+ल्यु-अन, +ङीष्] भटकटैया। स्त्री० हिं० ‘मोचना’ का स्त्री० अल्पा०।
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मोचयिता (तृ)  : वि० [सं०√मुच्+णिच्+तृच्] छुटकारा देने या दिलवानेवाला।
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मोचा  : स्त्री० [सं०√मुच्+अच्+टाप्] १. केला। २. नील का पौधा। ३. रूई का पौधा। पुं० सहिंजन (वृक्ष)।
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मोचाट  : पुं० [सं० मोच√अट् (प्राप्त होना)+अच्] १. केला। २. केले की पेड़ी के बीच का कोमल भाग। केले का गाभ।
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मोची (चिन्)  : वि० [सं०√मुच्+णिच्+णिनि] [स्त्री० मोचिनि] १. दूर करनेवाला। छुड़ानेवाला। पुं० [सं० मोचन=चमड़ा (छुड़ाना] [स्त्री० मोचिन] वह जो चमड़े के जूते आदि बनाने का व्यवसाय करता हो। जूते गाँठने या सीनेवाला।
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मोच्छ  : पुं० =मोक्ष। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मोंछ  : स्त्री०=मूँछ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोछ  : स्त्री०=मूँछ। पुं० =मोक्ष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोजड़ा  : पुं० [हिं० मोची] [स्त्री० अल्पा० मोजड़ी] जूता (राज०) उदाहरण—पग मचकंती मोजड़ी।—नरपतिनाल्ह।
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मोजरा  : पुं० =मुजरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोजा  : पुं० [फा० मोजः] क्रोशिये, सिलाई अथवा मशीन द्वारा बुना जानेवाला तथा पाँव ढकने का धागे, सूत आदि का आवरण। जुर्राब। २. पैर में पिंडली के नीचे का वह भाग जो गिट्टे के आस-पास और उससे कुछ ऊपर होता है और जिसपर उक्त आवरण पहना जाता है। ३. कुश्ती का एक पेंच जिसमें विपक्षी जो जमीन पर गिराकर और उसके पैर का उक्त अंग पकड़कर चित्त किया जाता है।
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मोजिज़ा  : पुं० [अ० मुआजिजः] कोई अलौकिक या देव-कृत चमत्कार।
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मोट  : स्त्री० [हिं० मोटरी] गठरी। मोटरी। पुं० [देश] चमड़े का एक प्रकार का बड़ा थैला जिससे सिंचाई के लिए कुएँ से पानी निकाला जाता है। चरसा।
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मोटक  : पुं० [सं०√मुट् (टेढ़ा करना)+घञ्+कन्] दुहरे किये हुए कुश के टुकड़ों का समूह जो पितृश्राद्ध करते समय व्यवहृत होते हैं।
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मोटकी  : स्त्री० [सं० मोचक+ङीष्] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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मोटन  : पुं० [सं०√मुट् (मोड़ना)+ल्युट—अन] १. वायु। हवा। २. पीसना मलना या रगड़ना। ३. वायु। हवा।
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मोटनक  : पुं० [सं० मोटन+कन्] एक प्रकार का सम वृत्त वर्णिक छन्द। जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से तगण, दो जगण और अन्त में लघु-गुरु होते हैं। यथा—सौहै घन श्यामल घोर घने। मौहै तिनमैं बक-पाँति भने।—केशव।
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मोटर  : स्त्री० [अं०] १. कोयले, प्रट्रोल आदि द्वारा उत्पादित शक्ति से सड़कों पर चलनेवाली एक प्रकार की सवारी गाड़ी। २. एक प्रकार वैद्युतिक यंत्र जिसकी शक्ति से अन्य मशीनें चलाई जाती हैं।
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मोटरी  : स्त्री० [तैलंग मूटा=गठरी] गठरी।
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मोटा  : वि० [सं० मुष्ट] १. अपेक्षाकृत अधिक स्थूल-काय फलतः जिसमें अधिक मांस तथा चरबी हो। ‘दुबला’ का विरुद्धार्थक। पद—मोटा-झोटा या मोटा-ताजा=हृष्ट-पुष्ट। २. जिसमें घनता अधिक हो। ‘पतला’ का विरुद्धार्थक। ३. जिसकी गोलाई का घेरा प्रसम या साधारण से अधिक हो। मुहावरा—मोटा दिखाई देना= आँखों की ज्योति में ऐसी कमी होना जिसमें छोटी या बारीक चीजें न दिखाई दें। बहुत कम और केवल मोटी चीजें दिखाई देना। ४. जिसके कण बहुत अधिक छोटे या बारीक न हों। जैसे—मोटा आटा, मोटा बालू, मोटा बेसन। ५. जो परिमाण, मान आदि में, साधारण से अधिक उत्तम या यथेष्ट हो। जैसे—मोटा असामी=धनवान या सम्पन्न व्यक्ति। मोटा भाग्य=अच्छा भाग्य या सौभाग्य। मोटा भार=बहुत अधिक भार। मोटी हानि=बहुत अधिक हानि। ६. जिसमें विशेष उत्तमता, कोमलता, प्रशंसनीय, सूक्ष्मता आदि गुणों का अभाव हो। और इसीलिए जो घटिया, बुरा या महत्त्वहीन माना जाता हो। जैसे—मोटा अनाज, मोटी उपमा, मोटी बुद्धि, मोटे वस्त्र। पद—मोटा-झोटा=बहुत ही घटिया या साधारण। ७. (बात या विषय) जो साधारण बुद्धि का आदमी भी सहज में समझ सकें। जिसे जानने या समझने में विशेष बुद्धि की आवश्यकता न हो। जैसे—मोटी बात, मोटी भूल। मुहावरा—मोटे तौर पर या मोटे हिसाब से=बिना ब्योरे की बातों का अथवा सूक्ष्म विचार किए हुए। जैसे—मोटे हिसाब से इस बात में सौ रुपए खर्च होगें। पद—मोटी चुनाई=बिना गढे हुए और बेडौल पत्थरों की (दीवार के रूप में होनेवाली) चुनाई या जोड़ाई। ८. लाक्षणिक रूप में धन, बल, आदि की अधिकता के कारण अपने आपको बड़ा समझनेवाला फलतः अभिमानी या घमंडी (व्यक्ति)। जैसे—अब तो वह मोटा हो चला है, जल्दी किसी से बात नहीं करता। पुं० [?] करैली या काली मिट्टीवाली जमीन। पुं० =मोट (बड़ी गठरी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोटा-मोटी  : क्रि० वि० [हि० मोटा] स्थूल गणना के विचार से। मोटे हिसाब से।
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मोटाई  : स्त्री० [हिं० मोटा+आई (प्रत्यय)] १. मोटे होने की अवस्था या भाव। २. किसी वर्गाकार वस्तु की लंबाई और चौड़ाई से भिन्न भाग का माप। जैसे—इस लकड़ी की मोटाई तीन इंच हैं। ३. घन आदि की अधिकता के फलस्वरूप किसी के व्यवहार से प्रकट होनेवाली अहं-भावना, आलस्य या ओछापन। मुहावरा—मोटाई चढ़ना=धनवान आदि बनने पर घमंडी, ओछा तथा आलसी बनना। मोटाई झड़ना या निकलना=अहंभाव का जाते रहना।
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मोटाना  : अ० [हि०मोटा+आना (प्रत्यय)] १. मोटा होना। स्थूलकाय होना। २. धनवान् या संपन्न होना। ३. फलतः अभिमानी या घमंडी और आलसी होना। स०ऐसा काम करना जिससे कुछ या कोई मोटा हो।
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मोटापन  : पुं० [हिं० मोटा+पन (प्रत्यय] मोटे होने की अवस्था या भाव। दे० ‘मोटाई’।
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मोटापा  : पुं० [हि०मोटा+पा (प्रत्यय)] मोटे अर्थात् स्थूलकाय होने की अवस्था या भाव। मोटापन। मोटाई।
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मोटिया  : पुं० [हि० मोटा+इया (प्रत्यय)] मोटा और खुरदुरा देशी कपड़ा। गाढ़ा। गजी। खद्दड़। सल्लम। पुं० [हि० मोट] बोझ ढोनेवाला मजदूर।
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मोट्टायित  : पुं० [सं०√मूट् (मोड़ना)+घञ्, तुट्, बा० क्यङ्+क्त] नायिका के वे हाव या व्यापार जो उस समय उसके अंतर्मान का अनुराग व्यक्त करते हैं जब वह अपना अनुराग छिपाने के लिए सचेष्ट होती है।
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मोठ  : स्त्री० [सं० मकुष्ठ, प्रा० मउठ] मूँग की तरह का एक प्रसिद्ध मोटा अन्न। बनमूँग। मुगानी। मोथी।
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मोठस  : वि० [?] मौन। चुप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोड़  : पुं० [हिं० मुड़ना या मोड़ना] १. मुडऩे या मोड़ने की अवस्था क्रिया या भाव। घुमाव। २. किसी चीज में होनेवाला घुमाव। वलन। (कर्व) ३. रास्ते आदि का वह अंश या स्थान जहाँ से वह किसी ओर मुड़ता है। जैसे—इस गली के मोड़ पर हलवाई की दुकान है। ४. वह स्थिति जिसमें किसी काम या बात की दिशा या प्रवृत्ति कुछ बदलकर किसी और या नई तरफ हुई हो। जैसे—यहाँ से आलोचना (या काव्य रचना) का नया मोड़ आरम्भ होता है। पुं० =मौर (सिर पर बाँधने का)। उदाहरण—(क) पाई कंकण सिर बँधीयो मोड़।—नरपति नाल्ह। (ख) पठा लीधौ जैमल पते मरसों बाँध मोड़।—बाँकीदास। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोड़-तोड़  : पुं० [हिं० मोड़+अनु० तोड़] १. मोडने-तोड़ने मरोड़ने आदि की क्रिया या भाव। मरोड़। २. मार्गों में पड़नेवाला घुमाव-फिराव। चक्कर। ३. घुमाव-फिराव की अथवा चालाकी से भरी बातें।
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मोड़-मुड़क  : स्त्री० [हिं०] चित्रकला में अंगों आदि की वह स्थिति जिससे चित्र सजीव सा जान पड़ने लगता है।
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मोड़ना  : स० [हिं० मुड़ना का स०] १. ऐसा काम करना जिससे कुछ या कोई मुड़े। सामने वाले या सीधे मार्ग से न ले जाकर किसी दिशा में प्रवृत्त करना। जैसे—गाड़ी या घोड़ा दाहिने या बाएँ मोड़ना। मुहावरा—(किसी से) मुँह मोड़ना=विमुख होना। २. आघात करके या दबाव डालकर सीधी चीज किसी तरफ घुमाना या टेढ़ी करना। जैसे—छड़ मोड़ना, छुरी की धार मोड़ना। ३. ऐसी क्रिया करना जिससे किसी सपाट तलवारी वस्तु की परतें लग जाएँ। जैसे—कपड़ा या कागज मोड़ना। ४. किसी को कोई काम करने से रोकना या विरत करना। संयो० क्रि० डालना।—देना ५. कुछ या कोई जिस ओर उन्मुख या प्रवृत्त हो, उधर से हटाकर इधर-उधर करना। जैसे—पीठ मोड़ना, मुँह मोड़ना (देखें ‘पीठ’ और ‘मुँह’ के मुहा०)
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मोंड़ा  : पुं० [पं० मुंडा] १. बालक। २. पुत्र।
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मोड़ा  : पुं० [सं० मुंड, मि० पं० मुंडा=लड़का] [स्त्री० मोड़ी] लड़का। बालक।
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मोड़ी  : स्त्री० [देश] १. बहुत जल्दी में लिखी हुई ऐसी अस्पष्ट लिपि जो कठिनता से पढ़ी जाय। घसीट लिखाई। २. दक्षिण भारत की एक लिपि।
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मोंढा  : पुं० [सं० मूर्द्धा, प्रा० मूड्ढा=आधार] १. बाँस, सरकंडे या बेंत का बना हुआ एक प्रकार का ऊँचा गोलाकार आसन जो प्रायः तिरपाई से मिलता-जुलता होता है। माँचा। २. बाहु के जोड़ के पास कंधे का घेरा। कंधा। पद—सीना-मोंढ़ा। (देखें)
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मोढ़ा  : पुं० =मोंढ़ा (देखें)।
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मोण  : पुं० [सं०√मुण् (प्रतिज्ञान)+अच्] १. सूखा फल। २. कुंभीर या मगर नामक जल-जन्तु। ३. मक्खी। टोकरा। मोना।
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मोतदिल  : वि० =मातदिल।
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मोतबर  : वि० =मातबर।
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मोतमिद  : वि० [अ०] विश्वसनीय।
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मोतियदाम  : पुं० [सं० मौक्तिकदाम, प्रा० मोतिअदाम] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार जगण होते हैं।
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मोतिया  : वि० [हिं० मोती] १. मोती सम्बन्धी। २. मोती के रंग का। ३. ऐसा सफेद जिसमें नाम-मात्र की पीली झलक हो। खसखसी। (पर्ल) ४. जो आकार में मोती की तरह छोटे गोल दानों के रूप में हो। पुं० १. मोती की तरह का ऐसा सफेद रंग जिसमें नाम-मात्र की पीली झलक हो। (पर्ल) २. सफेद तथा सुगंधित फूलोंवाला एक प्रसिद्ध पौधा। ३. उक्त पौधे का फूल। ४. एक प्रकार का सलमा जो छोटे गोल दानों के रूप में होता है। ५. सफेद रंग की एक चिड़िया।
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मोतियाबिंद  : पुं० [हिं० मोतिया+सं० बिंदु] आँख का एक रोग जिसमें उसके ऊपरी परदे में अन्दर की ओर मैल जमने के कारण गोल झिल्ली सी पड़ जाती है और जिससे देखने की शक्ति दिन पर दिन कम होती जाती है। तिमरि। (कैटरैक्ट)
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मोती  : पुं० [सं० मौक्तिक, प्रा० मोतिअ] १. समुद्री सीपी में से निकलनेवाला एक बहुमूल्य रत्न। मुक्ता। मुहावरा—मोती गरजना=आघात लगने से मोती का चटकना या उसके तल का कुछ फट जाना। मोती ढलकाना=आँसू गिराना। रोना। मोटी पिरोना= (क) बहुत ही सुन्दर या प्रिय भाषण करना। (ख) बहुत ही सुन्दर और स्पष्ट अक्षर लिखना। (ग) बहुत ही बारीक और सुन्दर काम करना। (घ) आँसू ढलकाना। रोना। (व्यंग्य और हास्य) मोती बींधना= (क) मोती को पिरोये जाने के योग्य बनाने के लिए उसके बीच में छेद करना। (ख) अक्षत-योनि या कुमारी के साथ संभोग करना। (बाजारू)। मोती रोलना=थोड़े परिश्रम में या यों ही बहुत अधिक धन कमा या जमा कर लेना। (किसी का) मोतियों से मुँह भरना=किसी पर प्रसन्न होने पर उसे माला-माल कर देना। २. कसेरों का एक तरह का उपकरण। रहस्य संप्रदाय में, मन। स्त्री कान में पहनने की ऐसी बाली जिसमें मोती पिरोये हुए हों।
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मोती-चूर  : पुं० [हिं० मोती+चूर] १. बेसन की बनी हुई बहुत छोटी-मीठी बुँदिया (पकवान) जो शीरे में पागकर लड्डू बनाने के काम आती है। जैसे—मोतीचूर का लड्डू। २. अगहन में होनेवाला एक तरह का धान। ३. कुश्ती का एक दाँव।
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मोती-ज्वर  : पुं० [हिं० मोती+सं० ज्वर] १. चेचक निकलने के पहले आनेवाला ज्वर। २. वह ज्वर जिसमें शरीर में छोटे-छोटे दाने भी निकल आते हैं।
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मोती-झरा  : पुं० =मोती-झिरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोती-झिरा  : पुं० [हिं० मोती+झिरा ?] छोटी शीतला या मोतिया। माता का रोग। मंथर ज्वर। मोती माता।
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मोती-बेल  : स्त्री० [हिं० मोतिया+बेल] मोतिया पौधे का एक भेद जो लता के रूप में होता है।
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मोती-भात  : पुं० [हिं० मोती+भात] एक विशेष प्रकार का मीठा भात।
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मोती-महावर  : पुं० [हिं, ०] चित्र-कला में, किसी सुन्दरी का चित्र अंकित कर लेने पर उसके हाथ-पैरों में महावर का-सा लाल रंग लगाने और उसके अंगों में अलंकार अंकित करने की क्रिया।
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मोती-माता  : स्त्री०=मोती-झिरा (रोग)।
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मोती-लड्डू  : पुं० [हिं० मोती+लड्डू] मीठी बुंदिया का बँधा हुआ लड्डू। दे० ‘मोती चूर’।
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मोती-सिरी  : स्त्री० [हिं० मोती+सं० श्री] मोतियों की कंठी या माला।
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मोतीहर  : पुं० =मुक्ताफल मोती।
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मोथरा  : वि० =भोथरा (भूथरा)।
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मोथा  : पुं० [सं० मुस्तक, प्रा० मुत्थ] १. जलीय भूमि में होनेवाला एक क्षुप जिसकी जड़ कसेरन की तरह होती है २. उक्त की जड़ जो औषध के काम आती है।
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मोद  : पुं० [सं०√मुद् (हर्ष)+घञ्] १. बात-चीत, हँसी-मजाक, खेल-तमासे आदि के मन के बहलने तथा चित्त-वृत्तियों के प्रफुल्लित होने की अवस्था या भाव। २. महक। सुगन्ध। ३. पाँच भगण, एक मगण, एक सगण और एक गुरु वर्ण का एक वर्णवृत्त।
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मोदक  : पुं० [सं०√मुद्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. भूने या तले हुए किसी खाद्य-पदार्थ के कणों, दानों आदि का बँधा हुआ गोलाकार रूप जिसमें चीनी या शक्कर भी मिलाई गयी होती है। जैसे—मोतीचूर या बेसन का लड्डू। २. औषध आदि का बना हुआ लड्डू। जैसे—मदनानन्द मोदका। ३. गुड़। एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में चार भगण होते हैं। इसे भामिनी और सुन्दरी भी कहते हैं। ५. मोहिनी नामक छन्द। ६. एक वर्णसंकर जाति जिसकी उत्पत्ति क्षत्रिय पिता और शूद्र माता से मानी जाती है। वि० मोद या आनन्द देनेवाला।
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मोदकर  : पुं० [सं० मोद√कृ (करना)+ट] एक प्राचीन ऋषि। वि० मोदकर उत्पन्न करने या आनन्द देनेवाला।
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मोदकिका  : स्त्री० [सं० मोदकी+कन्+टाप्, ह्रस्व] मिठाई।
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मोदकी  : स्त्री० [सं० मोदक+ङीष्] १. एक प्रकार की गदा। २. मूर्वा लता।
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मोदन  : पुं० [सं०√मुद् (प्रसन्न होना)+णिच्+ल्युट—अन] [वि० मोदनीय, भू० कृ० मोदित्त] १. बात-चीत हँसी-मजाक, खेल-तमाशे आदि के द्वारा मन का बहलना तथा चित्त-वृत्तियों का प्रफुल्लित होना। २. सुगन्ध फैलाना वि० [मुद्+णिच्+ल्यु-अन] मोद उत्पन्न करनेवाला।
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मोदना  : अ० [सं० मोदन] १. मुदित होना। २. सुगन्ध फैलाना। सं० १. किसी के मन में मोद उत्पन्न करना। सुगंध फैलाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मोदयंती  : स्त्री० [सं०√मुद्+णिच्+शतृ+ङीष्] वन-मल्लिका।
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मोदवंती  : स्त्री० [सं० मोदवती] वन-मल्लिका। जंगली-चमेली।
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मोदा  : स्त्री० [सं०√मुद्+णिच्+अच्+टाप्] १. अजमोदा। बन-अजवाइन। २. सेमल का पेड़।
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मोदाख्य  : पुं० [सं० मोद-आ√ख्या (विस्तार करना)+क] आम (पेड़)।
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मोदाद्रि  : पुं० [सं० मोद-अद्रि, मध्य० स०] मुँगेर के पास के एक पर्वत का पौराणिक नाम।
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मोदित  : भू० कृ०=मुदित। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोदिनी  : स्त्री० [सं०√मुद्+णिच्+णिनि+ङीष्] १. अजमोदा। २. जूही। ३. चमेली। ४. कस्तूरी। ५. मधु। ६. शराब वि० स्त्री० मोद उत्पन्न करनेवाली।
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मोदी  : पुं० [सं० मोदक=लड्डू (बनाने वाला) अथवा अ० मद्दअ=जिंस, रसद] १. आटा, दाल, चावल आदि बेचनेवाला बनिया। भोजन-सामग्री देनेवाला बनिया। परचूनिया। २. वह जिसका काम बड़े आदमियों के यहाँ नौकरों को भरती करना हो।
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मोदीखाना  : पुं० [हिं० मोदी+फा० खानः] अन्न आदि भरने का घर। भंडार।
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मोधुक  : पुं० [सं० मोदक=एक वर्णसंकर जाति] मछुआ।
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मोधू  : वि० [सं० मुग्ध] मूर्ख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोध्य  : पुं० [सं० मोघ+ष्यञ्] विफलता। अकृतकार्यता। नाकामयाबी।
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मोन  : पुं० =मोयन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोनस  : पुं० [सं०] एक गोत्र-प्रवर्तक ऋषि।
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मोना  : स० [हिं० मोयन] १. गूँधे हुए आटे में घी का मोयन देना। २. तर करना। भिगोना। स० [सं० मोहन] १. मोहित करना। २. मोह अर्थात् भ्रम में डालना। उदाहरण—कछुक देवमायाँ मति मोई।—तुलसी। पुं० [सं० मुंडन] १. वह जो मुंडन कराता हो अथवा जिसके केश काटे जाते हों। २. हिन्दू। सिक्ख से भिन्न। (पंजाब)। पुं० [सं० मोण] [स्त्री, अल्पा० मोनिया] ढक्कनदार पिटारा।
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मोनाल  : पुं० [देश] महोखे की जाति का एक पक्षी। नील-मोर।
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मोनिया  : स्त्री० [हिं० मोना का स्त्री० अल्पा] छोटी ढक्कनदार पिटारी।
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मोनो-टाइप-मशीन  : स्त्री० [अं०] छापे के अक्षर कंपोज करने वाली वह मशीन जिसमें एक-एक अक्षर नया ढलता और कंपोज होता चलता है।
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मोनोग्राम  : पुं० [अं०] किसी नाम के आरम्भिक दो-तीन अक्षरों के संयोग से बना हुआ संक्षिप्त सांकेतिक रूप जो प्रायः अलंकृत अक्षरों मे लिखा रहता है।
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मोपला  : पुं० [?] मालबार प्रदेश (केरल) में रहनेवाली एक मुसलमान जाति।
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मोम  : पुं० [फा०] १. वह चिकना मुलायम द्रव्य जिससे शहद की मक्खियाँ अपना छत्ता बनाती हैं। मधुमक्खी के छत्ते का उपकरण। पद—मोम की नाक=ऐसी प्रकृति या स्वभाव जिसे दूसरे लोग जब जिधर चाहें तब उधर प्रवृत्त कर सकें। मुहावरा—(किसी को) मोम करना या मोम बनाना=द्रवीभूत कर लेना। दयार्द्र कर लेना। २. रूप, रंग आदि में उक्त से मिलता-जुलता वह पदार्थ जो मधु-मक्खी की जाति के तथा कुछ और प्रकार के कीड़े पराग आदि से एकत्र करते हैं अथवा जो वृक्षों पर लाख आदि के रूप में पाया जाता है। ३. मिट्टी के तेल में से, एक विशेष रासायनिक क्रिया द्वारा निकाला हुआ इसी प्रकार का एक पदार्थ। जमा हुआ मिट्टी का तेल। (मोम-बत्ती प्रायः इसी से बनती है)।
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मोम-दिल  : वि० [फा०] मोम की तरह कोमल हृदयवाला। दूसरों के दुःख से शीघ्र द्रवित होनेवाला।
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मोम-बत्ती  : स्त्री० [फा० मोम+हिं० बत्ती] मोम, जमाये हुए मिट्टी के तेल या ऐसी ही किसी और जलनेवाले पदार्थ की बनी हुई बत्ती।
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मोमजामा  : पुं० [फा०] ऐसा कपड़ा जिस पर मोम का रोगन चढ़ाया गया हो। विशेष—ऐसे कपड़े पर पानी का असर नहीं होता।
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मोमती  : स्त्री०=ममत्व। स्त्री० [मो+मति] मेरी मति।
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मोमना  : वि० [हिं० मोम+ना (प्रत्यय)] मोम का सा अर्थात् बहुत ही कोमल।
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मोमिन  : पुं० [अ] १. मुसलमान पुरुष। २. एक प्रकार के मुसलमान जुलाहे।
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मोमिया  : स्त्री० [फा०] १. एक विशेष प्रकार की ओषधि जिसके लेप से शव सड़ने-गलने नहीं पाता। २. वह शव जिस पर उक्त ओषधि का लेप हुआ हो।
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मोमियाई  : स्त्री० [फा० मोमियायी] १. काले रंग की एक चिकनी दवा जो मोम की तरह मुलायम होती है। यह दवा घाव भरने के लिए प्रसिद्ध है। २. नकली शिलाजीत। मुहावरा—(किसी की) मोमियाई निकालना= (क) किसी से बहुत कठिन परिश्रम कराना। (ख) बहुत मारना-पीटना।
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मोमी  : वि० [फा०] १. मोम का बना हुआ। जैसे—मोमी, मोती, मोमी पुतला। २. मोम की तरह मुलायम। ३. बहुत जल्दी द्रवीभूत होनेवाला।
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मोयन  : पुं० [हिं० मैन=मोम] गूँधे हुए आटे, बेसन, मैदे आदि में डाला जानेवाला घी या तेल जिसके कारण उनसे बनाये जानेवाला पकवान कुर-कुरे खस्ता और मुलायम हो जाते हैं। क्रि० प्र०—डालना।—देना।
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मोयुम  : पुं० [देश] एक प्रकार की लता जो आसाम, सिक्किम और भूटान में बहुतायत से होती है। इससे कपड़े रँगने के लिए एक प्रकार का बहुत चमकीला रंग तैयार किया जाता है।
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मोर  : पुं० [सं० मयूर, प्रा० मोर] [स्त्री० मोरनी] १. एक बहुत सुन्दर प्रसिद्ध बड़ा पक्षी जो प्रायः चार फुट तक लम्बा होता है और जिसकी लम्बी गरदन और छाती का रंग बहुत ही गहरा और चमकीला नीला होता हैं। यह बादलों के देखकर प्रसन्नता से पर फैलाकर नाचने लगता है। उस समय इसके परों की शोभा परम दर्शनीय होती है। केकी। बरही। २. नीलम नामक रत्न की एक प्रकार की बढ़िया रंगत जो मोर के पर के समान होती है। स्त्री० [डिं] सेना की अगली पंक्ति। वि० =मेरा (अवधी) सर्व० [सं० मम] मेरा। (अवधी)। मुहावरा—मोर-तोर करना=दे० ‘मेरा’ के अंतर्गत।
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मोर-चंद्रिका  : स्त्री० [हिं० मोर+सं० चंद्रिका] मोर-पँख के छोर की वह बूटी जो चंद्राकार होती है।
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मोर-जुटना  : पुं० [हिं० मोर+जुटना] एक प्रकार का जड़ाऊ आभूषण जिसके बीच का भाग गोल बेदें के समान होता है और दोनों ओर मोर बने रहते हैं।
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मोर-नाच  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का नाच जिसमें पेशवाज के अगल-बगल वाले दोनों सिरे दोनों हाथों में पकड़कर कमर तक उठा लिए जाते हैं। और तब खड़े-खड़े या घुटनों के बल कुछ बैठकर इस प्रकार नाचा जाता है कि नाचनेवाले की आकृति मोर की-सी हो जाती है। रक्सेताऊस।
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मोर-पंख  : पुं० [हिं० मोर+पंख=पर] १. मोर का पर या पंख २. मोर के पर की बनायी हुई कलगी।
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मोर-पंखी  : वि० [हिं० मोरपंख] मोर के पंख के रंग का। गहरा चमकीला नीला। पुं० मोर के पंख की तरह का गहरा, चमकीला नीला रंग। स्त्री० १. एक तरह की नाव जिसके अगले भाग में मोर की सी आकृति बनी रहती है। २. एक तरह का छोटा पंखा जो खोलने पर मंडलाकार हो जाता है। ३. एक तरह की कसरत।
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मोर-पाँव  : पुं० [हिं० मोर+पाँव] बावर्चीखाने की मेज पर खड़ा जड़ा हुआ लोहे का छड़ जिस पर खाने के लिए मांस के बड़े-बड़े टुकड़े लटकाए जाते हैं। (लश०)
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मोर-मुकुट  : पुं० [हिं० मोर+सं० मुकुट] मोरपंखों से युक्त मुकुट।
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मोर-शिखा  : स्त्री० [सं० मयूर-शिखा] एक प्रकार की जड़ी जिसकी पत्तियाँ मोर की कलगी के आकार की होती है। यह बहुधा पुरानी दीवारों पर उगती है।
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मोरंग  : पुं० [देश] नैपाल देश का पूर्वी भाग जो कौशिकी नदी के पूर्व पड़ता है। संस्कृत ग्रन्थों में इसी भाग को किरात देश कहा गया है।
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मोरचंग  : पुं० [हिं० मुरचंग] मुंह-चंग नामक बाजा।
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मोरचंदा  : पुं० =मोर-चंद्रिका।
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मोरचा  : पुं० [फा० मोर्चः] १. लोहे की ऊपरी सतह पर जमनेवाली वह लाल या पीले रंग की मैल की सी तह जो वायु और नमी के योग के कारण उसके अन्दर होनेवाले रासायनिक विकार से उत्पन्न होती है और जिसके कारण लोहा कमजोर और खराब हो जाता है। जंग। क्रि० प्र०—जमना।—लगना। मुहावरा—मोरचा खाना=मोरचा लगने से खराब होना। २. दर्पण या शीशे के ऊपर जमनेवाली मैल। पुं० [फा० मोरचाल] १. वह गड्ढा जो गढ़ के चारों ओर रक्षा के लिए खोदा जाता है। २. गढ़ के अन्दर रहकर शत्रु से लड़नेवाली सेना। ३. वह स्थान जहाँ से सेना, गढ़, नगर आदि की रक्षा की जाती है। मुहावरा—मोरचा जीतना=शत्रु को परास्त करके उसके मोरचे पर अधिकार कर लेना। मोरचा बाँधना=शत्रु से लड़ने के लिए उपयुक्त स्थान पर सेनाएं नियुक्त करना। मोरचा मारना=मोरचा जीतना (देखें ऊपर) मोरचा लेना=सामने आकर शत्रु से बराबरी का युद्ध करना। ४. लाक्षणिक रूप में, ऐसी स्थिति जिसमें प्रतिद्वंन्द्वी या विरोधी का अच्छी तरह जमकर सामना किया जाता है और उस पर बार किये जाते तथा उसके वारों के उत्तर दिये जाते हैं।
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मोरचाबंदी  : स्त्री० [फा० मोर्चबंदी] गढ़ के चारों ओर गड्ढा खोदकर सेना नियुक्त करना। मोरचा बनाना।
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मोरचाल  : पुं० [सं०] वह गड्ढा या खाई जिसमें छिपकर शत्रु पर (युद्ध के समय) गोली चलाई जाती है। स्त्री० [?] एक प्रकार की कसरत।
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मोरछड़  : पुं० =मोरछल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरछल  : पुं० [हिं० मोर+छड़] [स्त्री, अल्पा० मोरछली] मोरपंखों का बना हुआ चँवर।
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मोरछली  : पुं० [हिं० मोरछल+ई (प्रत्यय)] वह जो (क) मोरछल बनाता अथवा (ख) देवताओं, राजाओं आदि पर डुलाता हो। स्त्री० मोरछल का स्त्री० अल्पा०। स्त्री०=मौलसिरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरछाँह  : पुं० =मोरछल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरट  : पुं० [सं०√मुर् (लपेटना)+अटन्] १. ऊख की जड़। २. अंकोल का फूल। ३. कर्णपुष्प नामक लता। ४. ब्याई हुई गाय के सातवें दिन के बाद का दूध।
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मोरटक  : पुं० [सं० मोरट+कन्] १. सफेद खैर। २. दे० ‘मोरट’।
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मोरटा  : स्त्री० [सं० मोरट+टाप्] मूर्वा।
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मोरंड  : पुं० =मुरुंडा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरध्वज  : पुं० [सं० मयूरध्वज] एक प्रसिद्ध पौराणिक राजा।
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मोरन  : स्त्री० [सं० मोरठ] बिलोया। शिखरन। (दे०) स्त्री० [हिं० मोड़ना] मोड़ने की क्रिया या भाव। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरना  : स० [हिं० मोरन] मथे हुए दही में से मक्खन निकालना। स०=मोड़ना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरना  : स० [हिं० मोरना का प्रे०] १. रस पेरने के समय ऊख को कोल्हू में दबाना या लगाना। २. दे० ‘मोड़ना’। अ० मोड़ा जाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरनी  : स्त्री० [हिं० मोर का स्त्री० रूप] १. मादा मोर। २. मोर के आकार का लटकन जो प्रायः गहनों में लगाया जाता है। जैसे—नथ की मोरनी। ३. मोरनी की-सी चाल चलनेवाली बनी-ठनी और सुन्दरी युवती। ठुमुक-ठुमुक कर चलनेवाली सुन्दरी।
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मोरपंखा  : पुं० [हिं० मोरपंखा] मोर का पर या पंख जो प्रायः सिर पर कलगी की तरह खोंसा जाता था। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरम  : पुं० [ते० मोरमु, पा० मरुम्ब] गेरूई या लाल रंग की एक तरह की पहाड़ी कंकडी जो सड़कों पर बिछाई जाती है और जिससे अब सीमेंट भी बनने लगा है।
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मोरवा  : पुं० [देश] वह रस्सी जो नाव की किलवारी में बाँधी जाती है और जिससे पतवार का काम लेते हैं। पुं० =मोर (पक्षी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरा  : पुं० [देश] अकीक नामक रत्न का एक भेद। बावाँ घोड़ी। वि० =मेरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोरिया  : स्त्री० [हिं० मोरना] कोल्हू में कातर की दूसरी शाखा जो बाँस की होती है।
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मोरी  : स्त्री० [हिं० मोर का स्त्री] १. किसी वस्तु के निकलने का तंग द्वार। २. वह छोटी नाली जिसमें से गन्दा या फालतू पानी बहकर निकलता है। पनाली। मुहावरा—मोरी छूटना=दस्त आना। मोरी का जाना=पेशाब करना। मोरी में डालना=नष्ट करना। स्त्री०=मोहरी। (पाजामें आदि की)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोर्चा  : पुं० =मोरचा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोल  : पुं० [सं० मूल्य, प्रा० मुल्ल] कीमत। दाम। मूल्य। (दे०) पद—अन-मोल, मोल-चाल। मुहावरा—मोल करना= (क) ग्राहक को किसी चीज का उचित से अधिक दाम बताना। (ख) किसी चीज का दाम अधिक जान पड़ने या बताये जाने पर उसे घटाने की बात-चीत करना। मोल लेना=झूठ-मूठ या जान-बूझकर कोई झंझट, काम या भार अपने ऊपर लेना। जैसे—झगड़ा या लड़ाई मोल लेना।
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मोलना  : स० कुछ खरीदने के लिए उसका मोल या दाम पूछना या बताना। पुं० =मौलाना (मौलवी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोलवी  : पुं० =मौलवी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोलाई  : स्त्री० [हिं० मोल+आई (प्रत्यय)] १. मूल्य पूछने-ताछने की क्रिया या भाव। २. घटा-बढ़ाकर मूल्य ठीक करने की क्रिया या भाव। ३. उचित से अधिक मूल्य कहना। मोल-चाल करना।
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मोवना  : स०=मोहना। अ०, स०=मोहना। अ०=मूना (मरना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोशिये  : पुं० [फ्रां०] [संक्षिप्त रूप मोन्स० या एम०] [हिन्दी संक्षिप्त रूप मो] फ्रांस में नाम के पहले लगाया जानेवाला आदरसूचक शब्द। महोदय।
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मोष  : पु० [सं०√मुष् (चोरी करना)+घञ्] १. चोरी। २. लूट-खसीट। ३. वध। हत्या। ४. दण्ड। सजा। पुं० =मोक्ष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोषक  : पुं० [सं०√मुष्+ण्वुल्—अक] चोर।
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मोषण  : पुं० [सं०√मुष्+ल्युट-अन] १. लूटना। चुराना। २. मार डालना। ३. छोड़ना। ४. दे० ‘मूसना’। वि० चोरी करने या डाका डालनेवाला।
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मोषयिता (तृ)  : पुं० [सं०√मुष्+णिच्+तृच्] १. चोरी करनेवाला। २. लूट-पाट करनेवाला।
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मोसन  : पुं० [फा० मुसीन] १. वयोवृद्ध। २. अनुभवी व्यक्ति।
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मोसना  : स० [सं० मुष] १. मरोड़ना। २. सब कुछ चुरा या छीन लेना। मूसना।
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मोसर  : अव्य, ० [सं० अवसर] दफा। बार। उदाहरण—अबके मोसर ज्ञान विचारों। मीराँ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोह  : पुं० [सं०√मुह् (मुग्ध होना)+घञ्] १. बेहोशी। मुर्च्छा। २. अज्ञान। नासमझी। ३. बेवकूफी। मूर्खता। ४. अज्ञान या भ्रम के कारण होनेवाला दोष या भूल। ५. दार्शनिक क्षेत्रों में मन की वह भूल या भ्रम जो उसे आध्यात्मिक या पारमार्थिक सत्य का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होने देता, और जिसके फलस्वरूप मनुष्य लौकिक पदार्थों को ही वास्तविक तथा सत्य समझकर इन्द्रियजन्य सुख-भोगों को ही प्रधान या मुख्य मानकर सांसारिक जंजालों में फँसा रहता है। ६. उक्त के आधार पर साहित्य में, तैतीस संचारी भावों में से एक जिसमें आघात, आपत्ति, चिन्ता, दुःख, भय आदि के कारण चित्त बहुत ही विफल हो जाता है। सिर में चक्कर आना, उचित-अनुचित का ज्ञान न रह जाना साफ दिखायी न देना और मूर्छित हो जाना इसके अनुभव बतलाये गये हैं। यथा-अदभुत दरसन, वेग, भय, अतिचिन्ता अति कोहू। जहाँ मूर्च्छन बिसमरन, लम्भत्तादि कहु मोह।—दे०। उदाहरण—राम को रूप निहारत जानकी मंगल कंकन के नग की परछाँही। याते सबै सुधि भूलि गई कर टेक रही, पल टारत नाही।—तुलसी। ७. प्राचीन भारत में एक प्रकार की तांत्रिक क्रिया जिसके द्वारा शत्रु का ज्ञान नष्ट करके उसे या तो भ्रम में डाल देते थे या मूर्च्छित कर देते थे। ८. लोक में ऐसा प्रेम या मुहब्बत जिसके फलस्वरूप विवेक ठीक तरह से काम करने के योग्य न रह जाय। ९. कष्ट। दुःख।
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मोह-निद्रा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. मोह के कारण आनेवाली निद्रा या बेहोशी। २. वह अवस्था जिसमें मनुष्य अज्ञान, अहंकार या भ्रमवश वास्तविक स्थिति की अपेक्षा करता है।
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मोह-रात्रि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. पुराणानुसार वह प्रलय काल जो ब्रह्मा के पचास वर्ष बीतने पर होता है। दैनंदिनी प्रलय। पुं० जन्माष्टमी की रात्रि। भाद्रपद कृष्णा अष्टमी।
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मोहक  : वि० [सं०√मुह्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. मोह उत्पन्न करनेवाला। लुभावना। मोहने-वाला। जिसके कारण मोह हो। २. मन को आकृष्ट या मोहित करनेवाला।
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मोहकार  : पुं० [हिं० मुँह+कड़ा या कार (प्रत्यय)] धातु के घड़े का गला समेत मुँहड़ा। (ठठेरा)
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मोहठा  : पुं० [सं०] दस अक्षरों का एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन रगण और एक गुरु होता है। बाला।
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मोहड़ा  : पुं० [हिं० मुँह+ड़ा (प्रत्यय)] १. किसी पात्र का मुँह या ऊपरी खुला हुआ भाग। मुहावरा—मोहड़ा लगना=फुटकर बिक्री के उद्देश्य से अन्न के बोरे खोलना और उनकी दुकानें या ढेरियाँ लगाना। २. अगला या ऊपरी भाग। ३. मुख। ४. दे० ‘मोहरा’।
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मोहतमिम  : पुं० [अ० मुहतमिम] एहतमाम अर्थात् प्रबन्ध करनेवाला। प्रबन्धक। व्यवस्थापक।
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मोहतमिल  : वि० [अ० मुहतमिल] संदिग्ध।
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मोहतरम  : वि० [अ० मुहतरम्] श्रीमान्। महोदय।
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मोहताज  : वि० [अ०] [भाव० मोहताजी] १. धनहीन। निर्धन। गरीब। २. जिसे किसी चीज या बात की विशेष अपेक्षा हो, और इसीलिए जो औरों पर निर्भर रहता अथवा उनका मुँह ताकता हो। ३. (अपाहिज) जिसे दूसरे की सहायता की आवश्यकता हो।
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मोहताजी  : स्त्री० [हि० मोहताज+ई (प्रत्यय)] मोहताज होने की अवस्था या भाव।
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मोहदी  : पुं० [अ० महदी] सैयद मुहीउद्दीन नामक महात्मा जो जायसी के गुरु थे। उदाहरण—गुरु मोहदी खेववू मैं सेवा।—जायसी।
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मोहन  : वि० [सं०√मुह्+णिच्+ल्यु-अन] १. मोह लेनेवाला। २. मोहित करनेवाला। पुं० १. शिव। २. श्रीकृष्ण। ३. कामदेव के पाँच वाणों में से एक बाण का नाम जिसका काम मोहित करना है। ४. धतूरा। ५. एक तांत्रिक प्रयोग जिससे किसी को मूर्च्छित किया जाता है। ६. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र जिससे शत्रु मोह से युक्त या मूर्च्छित किया जाता था ७. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक सगण और एक जगण होता है। ८. संगीत में बारह तालों का एक प्रकार का ताल जिसमें सात आघात और पाँच खाली होते हैं। ९. संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग। १॰. कोल्हू की कोठी अर्थात् वह स्थान जहाँ दबने के लिए ऊख के गाँड़े डाले जाते हैं। इसे कुडी और गगरा भी कहते हैं।
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मोहन-भोग  : पुं० [हिं० मोहन+भोग] १. एक प्रकार का हलुआ। २. एक तरह की बंगाली मिठाई। ३. एक प्रकार का केला। ४. एक प्रकार का आम। ५. एक प्रकार का चावल।
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मोहन-माला  : स्त्री० [हिं] सोने की गुरिया या दानों की पिरोई हुई माला।
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मोहनक  : पुं० [सं० मोहन+कन्] १. एक प्रकार का सम-वृत्त वर्णिक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में गुरु और तीन सगण होते हैं। यथा—आये दशरत्थ बरात सजे। दिग्पाल गयद्रनि देखि लजे।—केशव। २. चैत्र मास।
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मोहना  : अ० [सं० मोहन] १. मोहित होना। २. बेहोश या मूर्च्छित होना। ३. मोह के वश में होना। ४. भ्रम से पड़ना। स० १. मोहित करना। २. मोह या भ्रम में डालना। स्त्री० [सं० मोहन+टाप्] १. तृण। २. एक प्रकार की चमेली।
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मोहनास्त्र  : पुं० [सं० मोहन-अस्त्र, मध्य० स] एक प्रकार का प्राचीन काल का अस्त्र जिसके प्रभाव से शत्रु मोह के वश में या मूर्च्छित हो जाता था।
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मोहनी  : स्त्री० [सं० मोहन+ङीष्] १. ऐसी क्रिया, रूप या शक्ति जिससे किसी को पूरी तरह से मोहित किया जा सके। जैसे—उसकी आँखों में कुछ विलक्षण मोहनी थी। २. कोई ऐसा तांत्रिक प्रयोग अथवा कोई ऐसी क्रिया जिससे किसी को अपने वश में किया जा सके। मुहावरा—मोहनी डालना=ऐसा प्रभाव डालना कि कोई पूरी तरह से मोहित हो जाय। मोहनी लगना=उक्त प्रकार की शक्ति के प्रभाव से किसी पर मोहित होना। मोहनी लाना=मोहनी डालना। (देखें ऊपर) ३. लुभावनी और सुन्दरी स्त्री। ४. ज्ञान-क्षेत्र में माया जो लोगों को मोहित करके अपनी ओर आकृष्ट करती है। ५. एक अप्सरा का नाम। ६. दे० ‘मोहिनी’ (भगवान का स्त्री० रूप)। स्त्री० [सं० मोहन] १. एक प्रकार का लम्बा सूत सा कीड़ा जो हल्दी के खेतों में पाया जाता है। इससे तांत्रिक लोग वशीकरण यंत्र बनाते हैं। २. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सगण, भगण, तगण, यगण और सगण होते हैं। ३. एक प्रकार की मिठाई। ४. पोई का साग। वि० स्त्री० मोहित करनेवाली।
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मोहनीय  : वि० [सं०√मुह्+णिच्+अनीयर] मोहित किये जाने के योग्य। जिसे मोहित किया जा सके या किया जाने को हो।
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मोहफिल  : स्त्री०=महफिल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहब्बत  : स्त्री०=मुहब्बत। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहमिल  : वि० [अ० मोह्-मिल] १. जिसका कोई अर्थ न हो। निरर्थक। २. जिसका अर्थ स्पष्ट न हो। ३. छोड़ा हुआ। त्यक्त।
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मोहर  : स्त्री० [फा० मुह्र] १. कोई ऐसी चीज जिस पर का नाम या और कोई चिन्ह अंकित हो और जिसका ठप्पा कागजों आदि पर मालिक की ओर से यह सूचित करने के लिए लगाया जाता है कि यह प्रामाणिक या असली है। मुद्रा। (सील)। क्रि० प्र०—करना।—देना।—लगना। २. उपयुक्त वस्तु की छाप जो कागज या कपड़े आदि पर ली गई हो। स्याही लगे हुए ठप्पे को दबाने से बने हुए चिन्ह या अक्षर। ३. लाक्षणिक रूप में कोई ऐसी चीज या बात जो किसी प्रकार का मुख या विवर ऊपर से पूरी तरह से बन्द कर देती हो। जैसे—सरकार ने हम लोगों के मुँह पर मोहर लगा रखी है। ४. मुगल शासन में सोने का वह सिक्का जिसकी तौल, धातु आदि की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए टकसाल या शासन का ठप्पा लगा रहता था।
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मोहरा  : पुं० [हिं० मुँह+रा (प्रत्यय)] [स्त्री० मोहरी] १. किसी बरतन का मुँह या ऊपरी खुला भाग। २. किसी पदार्थ का ऐसा अगला या ऊपरी भाग जो प्रायः मुँह के आकार या रूप का हो। ३. सेना की अगली पंक्ति जिसे सब से पहले शत्रु का सामना करना पड़ता है। मुहावरा—मोहरा लेना=सामने से जमकर मुकाबला करना और लड़ना। ४. किसी चीज के ऊपर का छेद या मुँह। ५. वह जाली जो पशुओं के मुँह पर इसलिए बाँधी जाती है कि वे आस-पास की चीजों पर मुँह न डाल सकें। ६. घोड़े के मुँह पर पहनाया जानेवाला एक प्रकार का साज। ७. अँगिया या चोली की तनी या बंध जो स्तनों को अन्दर बन्द रखने के लिए ऊपर से गाँठ दे कर बाँध दिये जाते हैं। ८. शतरंज की गोटी। ९. मिट्टी का वह साँचा जिसमें कड़ा, पिछेली आदि गहने ढाल कर बनाये जाते थे। १॰. लकड़ी शीशे या बिल्लौर का वह बड़ा टुकड़ा जिससे रगड़कर कई तरह की चीजों में चमक लाई जाती है। ११. सोने चाँदी पर नक्काशी करने वालों का वह औजार जिससे रगड़ पर नक्काशी को चमकाते हैं। दुआली। १२. सिगिंया विष। पुं० [फा० मुँह्र] १. कपर्दिका। कौड़ी। २. माला आदि की गुरिया या मनका पुं० दे० ‘जहर मोहरा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहराना  : पुं० [फा० मुह्र+आना (प्रत्यय)] वह धन जो किसी कर्मचारी को मोहर करने के बदले में दिया जाय। मोहर करने का पारिश्रमिक।
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मोहरी  : स्त्री० [हिं० मोहरा का स्त्री० अल्पा०] १. किसी चीज का अगला या वह भाग जो मुँह की तरह हो। जैसे—पाजामे या बरतन की मोहरी। २. ऊपरी खुला हुआ कुछ अंश या भाग। ३. ऊंट की नकेल। स्त्री० [देश] एक प्रकार की मधुमक्खी जो खान-देश में होती है।
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मोहरुख  : वि० [सं० मुमूर्ष] १. जिसका मरण काल आसन्न हो। २. मूर्च्छित। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहर्रिर  : पुं०=मुहर्रिर।
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मोहलत  : स्त्री० [अ] १. फुरसत। अवकाश। २. काम से मिलनेवाली छुट्टी। ३. किसी काम के लिए नियत की हुई अवधि। क्रि० प्र०—देना।—माँगना।—मिलना।—लेना।
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मोहल्ला  : पुं० =मुहल्ला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहसिन  : वि० [अ० मुहसिन] एहसान या उपकार करनेवाला। उपकारक।
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मोहाड़  : पुं० [हिं० मुँह] १. तालाब का बाँध। २. दे० ‘मोहड़ा’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहार  : पुं० [सं० मधुकर प्रा० महुअर] १. मधुमक्खी की एक जाति जो सबसे बड़ी होती है। सारंग। २. मधुमक्खी का छत्ता। ३. भौंरा। पुं० [हिं० मुँह+आर (प्रत्यय)] १. मुँह। २. द्वार। पुं०=मोहरा। स्त्री०=मुहार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मोहारनी  : स्त्री०=मुहारनी।
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मोहाल  : पुं० १. =महाल। २. =मोहार। वि० =मुहाल।
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मोहिं  : सर्व० [सं० मह्यं, पा० मय्हं] मुझे। (अवधी, व्रज)
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मोहित  : भू० कृ० [सं०√मोह+इतच्] १. जिसके मन में मोह उत्पन्न हुआ हो या किया गया हो। २. पूर्ण रूप से आसक्त या मुग्ध। ३. मोह या भ्रम में पड़ा हुआ।
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मोहिनी  : वि० स्त्री० [सं०√मुह+णिच्+णिनि+ङीष्] मोहित करने या मोहनीवाली। स्त्री० १. माया। मोह। २. भगवान् का वह सुंदरी स्त्रीवाला रूप जो उन्होंने समुद्र मंथन के उपरांत अमृत बाँटने के समय असुरों को मोहित करके उन्हें धोखे में डालने के लिए धारण किया था। इसी रूप में उन्होंने देवताओं को अमृत तथा असुरों को विष दिलाया था। ३. पंद्रह अक्षरों के एक वर्णिक छन्द का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सगण, भगण, तगण, यगण और सगण होते हैं। ४. एक प्रकार की अर्धसम वृत्ति जिसके पहले और तीसरे चरणों में सात मात्राएं होती है, और प्रत्येक चरण के अंत में एक सगण अवश्य होता है। ५. वैशाख शुक्ला एकादशी। ६. त्रिपुर नामक पौधा और उसका फूल।
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मोहिल  : वि० [हि० मोह] १. मोह से युक्त। २. मोहित करनेवाला। उदाहरण—नवल मोहिलौ मोहि तजौ जिन, तोहि सौंह प्रिय पावन।—सहचरिशरण।
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मोही (हिन्)  : वि० [सं० मोह+इनि] [स्त्री० मोहिनी] १. मोह या भ्रम में पड़ा हुआ। अज्ञानी। २. मोह करनेवाला। ३. जिसके मन में सभी के प्रति मोह या प्रेम हो। ४. लालची। ५. [√मुह्+णिच्+णिनि] मोहित करनेवाला।
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मोहेला  : पुं० [?] एक प्रकार का चलता गाना।
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मोहेली  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की मछली।
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मोहोपमा  : स्त्री० [सं० मोह-उपमा० मध्य० स०] अलंकार साहित्य में उपमा अलंकार का एक भेद जिसे कुछ लोग भ्रांति अलंकार कहते हैं।
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मौ  : स्त्री० [हिं० मौज] १. मन की मौज। तरंग। २. युवास्था। ३. पूर्णता। ४. परिपक्वता। क्रि० प्र०—पर आना।
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मौअत  : स्त्री०=मौत (मृत्यु)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मौका  : पुं० [अ० मौक़ा] १. ऐसा समय जब कोई काम ठीक तरह से होने को हो या हो सकता हो। अवसर। सुयोग। मुहावरा—मौका देखना=उपयुक्त अवसर की ताक में रहना। २. अवधि। मोहलत। ३. अवकाश। फुरसत। ४. वह स्थान जहाँ कोई घटना हुई हो अथवा जिसके सम्बन्ध में कोई विचार या विवाद उपस्थित हो। जैसे—आज अधिकारी लोग मौका देखने गये।
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मौकुल  : पुं० [सं०] कौआ।
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मौकूफ  : वि० [अ० मौकूफ] [भाव० मौकूफी] १. मुल्तवी। स्थगित। २. पदच्युत। बरखास्त। ३. रद्द। ४. अवलंबित। आश्रित।
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मौकूफी  : स्त्री० [अ० मौकूफी] १. मौकूफ किये जाने अथवा होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. प्रतिबंद। रुकावट।
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मौके-बे-मौके  : अव्य० [अ० मौक़ा+फा० बे] समय-कुसमय।
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मौक्तिक  : पुं० [सं० मुक्ता+ठक्—इक] मोती। वि० मुक्ता सम्बन्धी। मुक्ता का।
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मौक्तिक-तंडुल  : पुं० [सं० ष० त०] बारह अक्षरों का एक प्रकार का वर्णिक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में दूसरा, पाँचवाँ, आठवाँ और ग्यारहवाँ वर्ण गुरु और शेष लघु होते हैं।
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मौक्तिक-माला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. मोतियों की माला। २. ग्यारह अक्षरों की एक वर्णिक वृत्ति जिसके चरण का पहला, चौथा, पाँचवाँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ अक्षर गुरु और शेष लघु होते हैं तथा पाँचवें और छठें वर्ण पर यति होती है।
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मौक्तिकावलि  : स्त्री० [सं० ष० त०] मोतियों की माला।
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मौक्य  : पुं० [सं० मूक+ष्यञ्] मूक होने की अवस्था या भाव। मूकता।
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मौक्ष  : पुं० [सं० मोक्ष+अण्] एक प्रकार का साम गान।
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मौख  : वि० [सं० मुख+अण्] १. मुख-सम्बन्धी। मुख का। २. मुख से निकलने या होनेवाला। जैसे—अभक्ष्य पदार्थ खाना, गालियाँ बकना आदि मौख पाप है। पुं० [?] मसाले के काम आनेवाला एक पदार्थ।
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मौखर  : पुं० [सं० मुखर+अण्] मुखर होने की अवस्था या भाव। मुखरता।
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मौखरी  : पुं, ०एक प्राचीन भारतीय राजवंश।
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मौखर्य  : पुं० [सं० मुखर+ष्यञ्] मुखरता। वाचालता।
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मौखिक  : वि० [सं० मुख+ठक्-इक] १. सुख-सम्बन्धी। मुख का २. मुँह से कहा या बोला जानेवाला। जबानी। (लिखित से भिन्न) ३. संगीत में वाद्य से भिन्न कंठ से निकलनेवाला (स्वर आदि) जैसे—मौखिक संगीत।
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मौखिक-परीक्षा  : स्त्री० [सं०] विद्यार्थियों या शिद्यार्थियों के ज्ञान और योग्यता की वह परीक्षा जो उनसे मौखिक प्रश्न करके की जाती है। (वाइवा वोसी)।
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मौंगा  : वि० =मौगा।
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मौगा  : वि० [सं० मुग्ध] [स्त्री० मौगी] १. मूर्ख। निर्बुद्धि। २. नपुंसक। हिजड़ा। पुं० [स्त्री० मौगी] पुरुष।
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मौंगी  : वि० [सं० मौन] मौन। चुप। स्त्री०=मौन (चुप्पी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मौग्ध्य  : पुं० [सं० मुग्ध+ष्यञ्] मुग्ध होने की अवस्था या भाव। मुग्धता।
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मौंज  : वि० [सं० मुंज+अण्] [स्त्री० मौंजी] १. मूँज सम्बन्धी। २. मूंज का बना हुआ।
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मौज  : स्त्री० [अ०] १. पानी की लहर। तरंग। हिलोर। क्रि० प्र०—आना।—उठना। मुहावरा—मौज खाना=लहर मारना। हिलोरा लेना। (लश०) मौज मारना=जलाशय या नदी आदि में जोरों की लहरें उठना। २. मन में उठनेवाली कोई उमंग। लहर। क्रि० प्र०—आना।—उठना। मुहावरा—किसी की मौज पाना=किसी को अपने अनुकूल या प्रवृत्त देखना। किसी को मौज आना या किसी को मौज में आना=अचानक किसी काम की उमंग होना। धुन होना। ३. मन में उमंग में आकर दिया जानेवाला पुरस्कार या विभूति उदाहरण—जांचि निराखर हूँ, भले लै लाखन को मौज।—बिहारी। ४. मन का आनन्द। मजा। सुख। क्रि० प्र०—करना।—उड़ाना।—मारना।—मिलना।—लेना।
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मौज-पानी  : पुं० [हिं०] १. बहुत सुखपूर्वक और निश्चित होकर किया जानेवाला खान-पान। २. मजा।
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मौंजकायन  : पुं० [सं० मुंजक+फक्-आयन] मुंजक ऋषि का वंशज।
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मौज़ा  : पुं० [अ० मौजअ] १. गाँव। ग्राम। २. स्थान। पुं० दे० ‘मोजा’।
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मौंजिबंधन  : पुं० [सं० कर्म० स०] यज्ञोपवीत संस्कार। व्रतबंध जनेऊ।
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मौंजी  : स्त्री० [सं० मुंज+अण्+ङीष्] मूँज की बनी हुई मेखला।
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मौजी  : वि० [फा० मौज+हिं० ई (प्रत्यय)] १. अपने मन की मौज के अनुसार मनमाना काम करनेवाला। जब जो जी में आवे तब वही करनेवाला। २. अच्छी तरह आनन्द या सुख भोगनेवाला। मौज लेनेवाला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मौज़ूँ  : वि० [अ०] [भाव० मौजूँ, नियत] १. वजन किया हुआ। तुला या तौला हुआ। २. जो किसी स्थान पर ठीक बैठता या मालूम होता हो। २. जो किसी स्थान पर ठीक बैठता हो। उपयुक्त। ३. (छन्द या पद) जो काव्य के नियमों, विषय आदि की दृष्टि से उपयुक्त या ठीक हो। अव्य० ठीक-ठीक। पुं० वर्णन विचार आदि का विषय।
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मौजूद  : वि० [अ०] [भाव० मौजदूगी] १. उपस्थित। हाजिर। २. प्रस्तुत। ३. जीवित। विद्यमान।
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मौजूदगी  : स्त्री० [फा०] मौजूद होने की अवस्था या भाव।
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मौजूदा  : वि० [अ, ०मौजूद] १. वर्तमान काल का। जो इस समय मौजूद हो। २. आधुनिक। प्राचीन का विरुद्धार्थक। ३. जो सामने उपस्थित या प्रस्तुत हो। विद्यमान।
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मौजूदात  : स्त्री० [अ०] चराचर जगत्। सृष्टि।
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मौजूनियत  : स्त्री० [अ०] मौजूँ होने की अवस्था या भाव। उपयुक्ता।
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मौड़  : पुं० =मौर (सेहरा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मौंड़ा  : पुं० =मुंडा (बालक)। पुं० =मोहरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मौंड़ा  : पुं० =मौंड़ा० पुं० =मुंडा (बालक) पुं० =मोहड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मौढ्य  : पुं० [सं० मूढ़+ष्यञ्] मूढ़ होने की अवस्था या भाव। मूढ़ता।
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मौंत  : स्त्री० [अ० मि० सं० मीति] १. मरने की अवस्था या भाव। मरण। मृत्यु। २. मृत्यु का देवता। यम। ३. मृत्यु का समय। क्रि० प्र०—आना।—बुलाना।—होना। पद—मौत का तमाचा=ऐसी बहुत ही घातक या भीषण घटना या बात जो किसी का अन्त कर सकती हो। मौत का पसीना=वह पसीना जो साधारणतः लोगों को मरने से कुछ ही पहले आता है। मौत के मुँह में=घोर संकट में। मुहावरा—बे-मौत मरना=ऐसे घोर संकट में पड़ना जिसमें पूर्ण विनाश दिखायी देता हो। मौत के दिन पूरे करना=ऐसे दुःख में दिन बिताना, जिसमें बहुत दिन जीना असम्भव हो। मौत (सिर पर) खेलना= (क) मरने को होना। मरने का समय बहुत पास आना। (ख) बहुत बुरे या दुर्भाग्य के दिन पास आना। (ग) जान-जोखिम का समय पास आना। अपनी मौत मरना=स्वाभाविक ढंग से मरना। प्राकृतिक नियम के अनुसार मरना। ४. ऐसा कठिन या विकट काम जिससे बहुत अधिक कष्ट हो। जैसे—तुम्हें तो वहाँ जाते मौत आती है।
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मौताद  : स्त्री० [अ०] औषध आदि की मात्रा।
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मौदक  : वि० [सं० मोदक+अण्] मोदक सम्बन्धी। मोदक का।
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मौदकिक  : पुं० [सं० मोदक+ठक्-इक] मोदक अर्थात् मिठाइयाँ बनानेवाला। हलवाई।
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मौदगल्यायन  : पुं० [सं० मौदगल्य+फक्-आयन] गौतम बुद्ध का शिष्य।
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मौदगीन  : पुं० [सं० मुदग+खञ्-ईन] मूँग का खेत।
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मौद्गल  : पुं० [सं० मुदगल+अण्] मुदगल ऋषि के गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति। मौदगल्य।
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मौद्गलायन  : पुं० =मौद्गल्यायन।
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मौद्गल्य  : पुं० [सं० मुदगल+ष्यञ्] १. मुद्गल ऋषि के पुत्र का नाम जो एक गोत्रकार ऋषि थे। २. मुदगल ऋषि के गोत्र का व्यक्ति।
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मौध्य  : पुं० [सं० मोघ+ष्यञ्] मोघ अर्थात् निरर्थक होने की अवस्था या भाव।
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मौन  : पुं० [सं० मुनि+अण्] १. मुनि का भाव। २. न बोलने की क्रिया या भाव। चुप रहना। चुप्पी। क्रि० प्र०—गहना।—धारना।—रहना। मुहावरा—मौन खोलना=देर तक चुप रहने के उपरान्त बोलना। मौन तोड़ना=व्रत तोड़ देना। मौन बाँधना=मौन धारण करना। न बोलने का प्रण करना। मौन लेना या साधना=चुप रहने का व्रत करना। २. मुनियों का व्रत। मुनिव्रत। ३. फागुन मास का पहला पक्ष। वि० [सं० मौनी] जो न बोले। चुप। मौनी। पुं० [सं० मौण] १. बरतन। पात्र। २. डब्बा। ३. पिटारा। ४. टोकरा।
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मौन-व्रत  : पुं० [सं० ष० त०] मौन धारण करने का व्रत। चुप रहने का व्रत।
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मौना  : पुं० [सं० मोण] [स्त्री० अल्पा० मौनी] १. घी, या तेल आदि रखने का एक प्रकार का बरतन। २. टोकरा। पिटारा।
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मौनी (निन्)  : वि० [सं० मौन+इनि] १. मौन अर्थात् चुप रहने वाला। न बोलनेवाला। २. जिसने मौन व्रत धारण किया हो। पुं० =मुनि। स्त्री० हिं० ‘मौना’ का स्त्री० अल्पा०।
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मौनी अमावस  : स्त्री० [हिं०] माघ मास में पड़नेवाली अमावस। इस दिन मौन रहने का महात्म्य है।
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मौनेय  : पुं० [सं० मुनि+ढक्-एय] गंधर्वों, अप्सराओं आदि का एक मातृक गोत्र।
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मौर  : पुं० [सं० मुकुट, पा० मउड़] [स्त्री० अल्पा० मौरी] १. विवाह के समय वर को पहनाया जानेवाला ताड़-पत्र या खुखड़ी का बना हुआ एक प्रकार का शिरोभूषण। मुहावरा—मौर बाँधना=विवाह के समय सिर पर मौर पहनना। वि० सब में मुख्य या श्रेष्ठ। शिरोमणि। पुं० [सं० मुकुल, प्रा० मउल] मंजरी। बौर। जैसे—आम का मौर। पुं० [सं० मौलि=सिर] १. सिर। २. गरदन का पिछला भाग जो सिर के नीचे पड़ता है।
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मौर-छोराई  : स्त्री० [हिं० मउर-छुड़ाई] १. विवाह के उपरांत मौर खोलने की रस्म। २. उक्त रसम के समय मिलनेवाला धन या नेग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मौरजिक  : पुं० [सं० मुरज+ठक्-इक] मुरज नामक बाजा बजानेवाला। मुरज बजानेवाला।
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मौरना  : स० [हिं० मौर+ना (प्रत्यय)] वृक्षों पर मंजरी लगना। आम आदि के पेड़ों पर बौर लगना। बौराना।
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मौरसिरी  : स्त्री०=मौलसिरी।
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मौरिक  : वि० [सं० मुकुलित] मौर अर्थात् मंजरी से युक्त।
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मौरी  : स्त्री० [मौर का स्त्री०अल्पा०] कागज आदि का बना हुआ वह छोटा मौर जो विवाह में वधू के सिर पर बाँधा जाता है।
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मौरुसी  : वि० [अ०] पैतृक। जैसे—मौरुसी घर या जायदाद।
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मौर्ख्य  : पुं० [सं० मूर्ख+ष्यञ्] मूर्खता। बेवकूफी।
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मौर्य  : पुं० [सं० मुरा+ण्य] मगध का एक प्रसिद्ध भारतीय राजवंश।
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मौर्वी  : स्त्री० [सं० मूर्वा+अण्+ङीष्] धनुष की प्रत्यंचा। कमान की डोरी। ज्या।
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मौल  : वि० [सं० मूल+अण्] १. मूल से सम्बन्ध रखनेवाला। २. मूल पुरुषों से मिला हुआ। पैतृक। मौरुसी। पुं० १. प्राचीन भारत में एक प्रकार का राज-मंत्री। २. जमींदार। भू-स्वामी।
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मौल-बल  : पुं० [सं० कर्म० स०] बड़े जमीदारों की अथवा उनके द्वारा एतत्र की हुई सेना। (कौ०)
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मौलवी  : पुं० [अ०] १. अरबी भाषा का पंडित। २. इस्लाम धर्म का आचार्य। ३. छोटे बच्चों को पढ़ानेवाला मुसलमान गुरु।
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मौलसिरी  : स्त्री० [सं० मौलि-श्री] १. एक प्रकार का बड़ा सदा बहार पेड़ जिसकी लकड़ी अन्दर से लाल और चिकनी होती है। और जिसकी मेज, कुर्सी आदि बनायी जाती हैं उसके बीजों से तेल निकलता है छाल ओषधियों के काम आती है। २. उक्त वृक्ष के छोटे सफेद सुगंधित फूल।
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मौला  : पुं० [देश] उत्तरी भारत में होनेवाली एक प्रकार की बेल जिसकी पत्तियाँ एक बालिश्त तक लम्बी होती है। जाड़े के दिनों में इसके आध इंच लम्बे फूल लगते हैं। मूला। मल्हा बेल। पुं० [अ०] १. स्वामी। २. ईश्वर। परमात्मा ३. वह गुलाम जिसे मुक्ति मिली हो।
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मौलाई  : स्त्री० [अ०] १. मौला होने की अवस्था या भाव। २. स्वामित्व। ३. सरदारी। ४. प्रतिष्ठा।
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मौलाना  : पुं० [अ०] १. बहुत बड़ा विद्वान, विशेषतः इस्लाम के सिद्धान्तों का पंडित। २. अरबी भाषा का पंडित।
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मौलि  : पुं० [सं० मूल+इञ्] १. किसी पदार्थ का सब से ऊंचा भाग। चोटी। सिरा। चूड़ा। २. मस्तक। सिर ३. किरीट। ४. नेता। सरदार। ५. अशोक वृक्ष। ६. पृथ्वी। ७. जमीन। भूमि।
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मौलि-पट्ट  : पुं० [सं० मध्य० स०] पगड़ी। साफा।
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मौलि-मणि  : पुं० [सं० मध्य० स०] शिरोमणि।
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मौलिक  : वि० [सं० मूल+ठञ्-इक] [भाव० मौलिकता] १. मूल या जड़ से सम्बन्ध रखनेवाला। २. मूल तत्त्व या सिद्धान्त से सम्बन्ध रखने वाला। (फन्डामेन्टल) ३. असली। वास्तविक। ४. (कृति, ग्रन्थ या विचार) जो बिलकुल नया हो तथा किसी की उदभावना से उदभूत हो। जो किसी की नकल न हो और न ही किसी की उदभावनाओं से उदभूत हो। जो किसी की नकल न हो और न ही किसी के आधार पर बना हो। मूलभूत (ओरिजिनल)।
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मौलिकता  : स्त्री० [सं० मौलिक+तल्+टाप्] मौलिक होने की अवस्था या भाव। २. स्वयं अपनी उद्भावना से कुछ कहने, बोलने या लिखने की शक्ति अथवा गुण। (ओरिजिनेलिटी)
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मौली (लिन्)  : वि० [सं० मौलि+इनि] जिसके सिर पर मौलि या मुकुट हो। मुकुटधारी। स्त्री० [हिं० मौर] लाल रँगा हुआ मांगलिक डोरा या सूत। नारा (पश्चिम)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मौलूद  : वि० [अ०] जन्म प्राप्त। (शिशु)। पुं० १. जन्मतिथि। २. बेटा। ३. दे० ‘मौलदू शरीफ’।
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मौलूद-शरीफ़  : पुं० [अ०] १. मुहम्मद साहब के जन्म से संबंध रखनेवाली धार्मिक कथा। २. वह अवसर या समाज जिसमें सब लोगों के सामने वह कथा कही या पढ़ी जाती है।
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मौल्य  : पुं० [सं० मूल+ष्यञ्] मूल्य।
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मौषल  : वि० [सं० मूषल+अण्] १. मूषल-संबंधी। २. मूसल के आकार का। पुं० महाभारत का एक पर्व।
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मौष्टा  : स्त्री० [सं० मुष्टि+ष्ण+टाप्] घूँसों की मार या लड़ाई। मुक्कामुक्की।
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मौसम  : पुं० =मौसिम।
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मौसर  : वि० =मयस्सर (उपलब्ध)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मौसल  : वि० [सं० मुसल+अण्] मूसल-सम्बन्धी। मूसल का।
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मौसा  : पुं० [हि० मौसा का पुं० ] [स्त्री० मौसी, वि० मौसेरा] संबंध के विचार से माता की बहन का पति। मौसी का पति।
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मौसिम  : पुं० [अ] [वि० मौसिमी] १. किसी काम या बात के लिए उपयुक्त समय। अनुकूल काल। २. गरमी, बरसात, सरदी आदि के विचार से समय का विभाग। ऋतु।
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मौसिमी  : वि० [फा०] १. समयोंपयोगी। काल के अनुकूल। २. किसी विशिष्ट मौसिम या ऋतु में होनेवाला। स्त्री०=मुसम्मी (मीठा नींबू)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मौंसिया  : वि० =मौसेरा। पुं० =मौसा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मौसियाउत  : वि० =मौसेरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मौसिला  : स्त्री०=मौलसिरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मौसी  : स्त्री० [सं० मातृष्वसा, प्रा० माउस्सिआ] [वि० मौसेरा, मौसियाउत] माता की बहन। मासी।
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मौसूफ़  : वि० [अ०] [स्त्री० मौसूफा] १. वर्णित। २. प्रंशसित। पुं० विशेष्य।
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मौसूम  : वि० [अ०] [स्त्री० मौसूमा] जिसका कोई नाम हो। नामधारी।
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मौसूल  : वि० [अ०] १. मिलाया हुआ। २. मिला हुआ। प्राप्त।
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मौसेरा  : वि० [हिं० मौसा+एरा (प्रत्यय)] मौसी के द्वारा संबद्ध। मौसी के संबंध का। जैसे—मौसेरा भाई, मौसेरी बहन।
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मौहूर्तिक  : वि० [सं० मुहुर्त+ठक्-इक] १. मुहुर्त-सम्बन्धी। २. मुहुर्त से उत्पन्न। पुं० १. दक्ष की मुहुर्त्ता नाम की कन्या से उत्पन्न एक देवगण। २. मुहूर्त्त बतलानेवाला, अर्थात् ज्योतिषी।
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मौहूर्त्त  : पुं० [सं० मुहुर्त+अण्] मुहुर्त बतलानेवाला, ज्योतिषी।
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म्यंत्र  : पुं०=मित्र। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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म्याऊँ  : स्त्री० [अनु] बिल्ली की बोली। मुहावरा—म्याऊँ का मुंह पकड़ना=किसी कार्य का कठिनतम अंश पूरा करना।म्याऊँ-म्याऊँ करना=भयभीत होकर धीमी आवाज से बोलना। डर के मारे बहुत धीरे-धीरे बोलना।
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म्यान  : पुं० [फा० मियान्] १. कोष जिसमें तलवार, कटार आदि के फल रखे जाते हैं। तलवार, कटार आदि का फल रखने का खाना। २. अन्नमय कोश। शरीर।
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म्यान  : स्त्री० [?] लद्दाख, सिक्किम, तिब्बत आदि में होनेवाली भूरे रंग की एक तरह की भेड़।
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म्याना  : स० [हिं० म्यान] (तलवार) म्यान में डालना या रखना। उदाहरण—खङ् तुरन्त म्यान महँ म्याना।—रघुराज। पुं० मियाना (सवारी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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म्यानी  : स्त्री० [फा० मियानी] १. पाजामे की काट में एक टुकड़े का नाम जो दोनों पल्लों को जोड़ते समय रानों के बीच में जोड़ा जाता है। २. दीवार के ऊपरी भाग में छत के नीचे बनी हुई छोटी कोठरी या बड़ी भँडरिया।
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म्युजियम  : पुं० [अं० ] दे० ‘संग्रहालय’।
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म्युनिसिपल  : वि० [अं०] म्युनिसिपैलिटी अर्थात् नगरपालिका से सम्बन्ध रखनेवाला। नगरपालिका का।
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म्युनिसिपैल्टी  : स्त्री० दे० ‘नगरपालिका’।
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म्योड़ी  : स्त्री० [सं० निर्गुंड़ी] एक प्रकार का सदाबहार झाड़ जिसमें केसरिया रंग के छोटे-छोटे फूलों की मंजरियाँ लगती हैं।
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म्रक्षण  : पुं० [सं०√म्रक्ष् (छिपाना)+ल्युट—अन] १. अपने दोष को छिपाना। मक्कारी। २. तेल मलना। मालिश करना। ३. मसलना। मींजना।
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म्रज्जाद  : स्त्री० [सं० मर्यादा] मर्यादा। उदाहरण—हसन हयग्गय दस अति, पति सायर म्रज्जाद।—चंदबरदाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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म्रदिमा (मिन्)  : स्त्री० [सं० मृदु+इमनिच्] १. मृदुता। कोमलता। २. दीनता। ३. नम्रता।
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म्रदिष्ठ  : वि० [सं० मृदु+इष्ठन्] अत्यंत कोमल। बहुत मृदु।
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म्रात  : वि० [सं०√म्रा (अभ्यास करना)+क्त] १. पढ़ा या सीखा हुआ। २. अभ्यस्त। (विषय)
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म्रियमाण  : वि० [सं०√मृ (मरण)+शानच्, मुम्] मरा हुआ सा। मृतप्राय।
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म्लान  : वि० [सं०√म्लै (हर्षक्षय)+क्त, त—न] [भाव० म्लानता] १. कुम्हलाया या मुरझाया हुआ। २. कमजोर। दुर्बल। ३. मलिन। मैला। स्त्री०=म्लानि।
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म्लानता  : स्त्री० [सं० म्लान+तल्+टाप्] १. म्लान होने का भाव। मलिनता। २. ग्लानि।
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म्लानि  : स्त्री० [सं०√म्ला+नि] १. मलिनता। कांतिक्षय। २. ग्लानि।
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म्लायी (यिन्)  : वि० [सं०√म्ला (हर्ष नाश)+णिनि, न-लोप] १. म्लान। ग्लानियुक्त। २. खिन्न। दुःखी।
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म्लिष्ट  : वि० [सं०√म्लेच्छ (अस्पष्ट)+क्त, निपा० सिद्धि] १. अस्पष्ट। जैसे—म्लिष्ट। वाणी। २. अस्पष्ट रूप से बोलनेवाला।
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म्लेच्छ-कंद  : पुं० [सं० मध्य० स०] लहसुन।
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म्लेच्छ-भोजन  : पुं० [सं० ष० त०] १. बोरी नामक धान। यावक। २. गेहूँ।
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म्लेच्छा  : पुं० [सं०√म्लेच्छ+अच्] १. प्राचीन आर्यों की दृष्टि में, ऐसे लोग जो स्पष्ट उच्चारण करना नहीं जानते थे। २. परवर्ती हिन्दुओं की दृष्टि में, मनुष्यों की वे जातियाँ जिनमें वर्णाश्रम धर्म न हो। ३. हिगु हींग। वि० १. नीच। २. पापी।
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म्लेच्छित  : पुं० [सं०√म्लेच्छ+क्त] १. म्लेच्छों की भाषा। २. अपभाषा। २. परभाषा।
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म्हा  : सर्व०=मुझ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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म्हारा  : सर्व०=हमारा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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म्हौ  : पुं० =मुँह। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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