माँ/maan

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माँ  : स्त्री० [सं० अंबा या माता] जन्म देनेवाली, माता। जननी। पद—माँ-जाया। अव्य०=में। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँ-जाया  : पुं० [हिं० माँ+जाया=जात] [स्त्री० माँजायी] माँ से उत्पन्न, अर्थात् सगा भाई। सहोदर।
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माँकड़ी  : स्त्री० [हिं० मकड़ी] १. कमखाब बुननेवालों का एक औजार जिसमें डेढ़-डेढ़ बालिश्त की पाँच तीलियाँ होती है। २. पतवार के ऊपरी सिरे पर लगी हुई और दोनों ओर निकली हुई एक लकड़ी। ३. जहाज में रस्से बाँधने के खूंटे आदि का बनाया हुआ ऊपरी भाग। ४. दे० ‘मकड़ी’।
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माँख  : पुं० =माख (अप्रसन्नता)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माँखण  : पुं० =मक्खन (राग)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँखना  : अ०=माखना (क्रोध करना)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माँखा  : पुं० [सं० मक्षिका] मच्छर। उदाहरण—तू उँबरी जेहि भीतर माँखा।—जायसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माँखी  : स्त्री०=मक्खी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माँग  : स्त्री० [हिं० माँगना] १. माँगने की क्रिया या भाव। याचना। २. अर्थशास्त्र में वह स्थिति जिसमें लोग (क्रेता) कोई चीज किसी निश्चित मूल्य पर खरीदना चाहते हों। ३. किसी निश्चित मूल्य पर तथा किसी निश्चित अवधि में क्रेताओं द्वारा किसी चीज की खरीदी या चाही जानेवाली मात्रा। ४. बिक्री या खपत आदि के कारण किसी पदार्थ के लिए लोगों को होनेवाली आवश्यकता या चाह। जैसे—बाजार में देशी कपड़ों की माँग बढ़ रही हैं। ५. किसी से आधिकारिक रूप में या दृढ़तापूर्वक यह कहना कि हमें अमुक-अमुक सुविधाएँ, मिलनी चाहिए। (डिमांड) जैसे—दुकानदारों की माँग, मजदूरों की माँग, राजनीतिक अधिकारों की माँग। स्त्री० [सं० मार्ग] १. सिर के बालों को विभक्त करके बनायी जानेवाली रेखा। सीमांत। पद—माँग-चोटी, माँग-जली, माँग-पट्टी। मुहावरा—माँग उजड़ना=विवाहिता स्त्री का विधवा होना। माँग कोख से सुखी रहना या जुड़ाना=स्त्रियों का सौभाग्यवती और संतानवती रहना (आर्शीवाद) माँग पारना या फारना=केशों को दो और करके बीच में माँग निकालना। माँग बाँधना=कंघी-चोटी या केश-विन्यास करना। माँग सँवारना=कंघी करके वाल सँवारना। २. किसी पदार्थ का ऊपरी भाग। सिरा। (क्व०) ३. सिल का वह ऊपरी भाग जिस पर पिसी हुई चीज रखी जाती है। ४. नाव का अगला भाग। दुम सिरा। ५. दे० ‘मांगी’।
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माँग-चोटी  : स्त्री० [हिं०] स्त्रियों का केश-विन्यास।
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माँग-जली  : स्त्री० [हिं०] विधवा। राँड़।
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माँग-टीका  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का माँग-फूल जिसमें मोतियों की लड़ी लगी रहती है।
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माँग-पट्टी  : स्त्री०=माँग-चोटी।
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माँग-पत्र  : पुं० [हिं०+सं०] वह पत्र जिस पर कोई व्यापारी को यह लिखता है कि आप हमें अमुक-अमुक वस्तुएँ भेज दें। (आर्डर फार्म) २. वह पत्र जिसमें किसी से अधिकारपूर्वक यह कहा जाय कि अमुक चीज मुझे दे दो।
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माँग-फूल  : पुं० [हिं०] मांग में लगाया जानेवाला एक प्रकार का टीका।
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माँग-भरी  : वि० स्त्री० [हिं० माँग+भरना] सधवा। सुहागिन।
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माँगन  : पुं० [हिं० माँगना] १. माँगने की क्रिया या भाव। २. मँगता। भिखमंगा। भिक्षुक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माँगनहार  : पुं० [हिं० माँगना] माँगनेवाला। पुं० =मंगता (भिखमंगा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँगना  : स० [सं० मार्गण=याचना] १. किसी से यह कहना कि आप हमें अमुक वस्तु या कुछ धन दें। याचना करना। जैसे—मैंने उनसे एक पुस्तक माँगी थी। २. खरीदने के उद्देश्य से किसी से कुछ लाकर प्रस्तुत करने या दिखाने के लिए कहना। जैसे—दुकानदार से पुस्तक माँगना। ३. किसी से कोई आकांक्षा पूरी करने के लिए कहना। याचना या प्रार्थना करना। ४. अपनी कन्या या पुत्र के साथ विवाह करने के लिए किसी से उसके पुत्र या कन्या के सम्बन्ध में प्रस्ताव करना। ५. किसी से अधिकारपूर्वक यह कहना कि तुम हमें इतना धन या अमुक वस्तु उधार दो। ६. भिक्षा माँगना। हाथ पसारना। पुं० दी हुई वस्तु वापस देने के लिए किसी से कहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांगल-गीत  : पुं० [हिं० मांगल्य गीत] वह शुभ गीत जो विवाह आदि मंगल अवसरों पर गाये जाते हैं।
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मांगलिक  : वि० [सं० मंगल+ठक्-इक, वृद्धि] १. मंगल करनेवाला। शुभ। २. मंगल कार्यों से संबंध रखनेवाला। जैसे—मांगलिक कृत्य। पुं० वह जो नाटक आदि विशिष्ट अवसरों पर मंगल पाठ करता हो।
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मांगल्य  : वि० [सं० मंगल+ष्यञ्, वृद्धि] शुभ। मंगलकारक। पुं० ‘मंगल’ की अवस्था या भाव। मंगलता।
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मांगल्य-काया  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] १. दूब। २. हलदी। ३. ऋद्धि नामक औषधि। ४. गोरोचन। ५. हरीतकी। हर्रे।
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मांगल्य-कुसुमा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] शंखपुष्पी।
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मांगल्य-प्रवरा  : स्त्री० [सं० स० त०] बच।
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मांगल्या  : स्त्री० [सं० मांगल्य+टाप्] १. गोरोचन। २. जीवंती। ३. शमी।
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माँगा  : पुं० [हिं० माँगना] माँगने विशेषतः मँगनी माँगने की क्रिया या भाव। वि० [हिं० माँगी] मँगनी, माँगा हुआ। मँगनी का।
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माँगी  : स्त्री० [सं० मार्ग० हिं० माँग] धुनियों की धुनकी में वह लकड़ी जो उसकी उस डाँड़ी के ऊपर लगी रहती है जिस पर ताँत चढ़ाते हैं।
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माँगुर  : स्त्री० [?] एक प्रकार की मछली।
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माँच  : पुं० [देश] १. पाल में हवा लगने के लिए चलते हुए जहाज का रूख कुछ तिरछा करना। (लश०) २. पाल के नीचेवाले कोने में बँधा हुआ वह रस्सा जिसकी सहायता से पाल को आगे बढाकर या पीछे हटाकर हवा के रूख पर करते हैं। (लश०) स्त्री०=माच। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँचना  : अ० [हिं० मचना] १. प्रसिद्ध होना। २. लीन होना। उदाहरण—स्याम प्रेम रस माँची।—सूर। अ०=मचना। स०=मचाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँचा  : पुं० [सं० मंच, संज्ञा] [स्त्री० अल्पा० माँची] १. पलंग। खाट। २. बैठने की पीढ़ी। ३. मचान।
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माँछ  : स्त्री० [सं० मस्त्य] मछली। पुं० =माँच। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँछना  : अ० [सं० मध्य] घुसना। पैठना। (लश०)
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माँछर  : स्त्री०=मछली। पुं० =मच्छड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँछली  : स्त्री०=मछली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँछी  : स्त्री०=मक्खी।
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माँज  : स्त्री० [देश] १. दलदली भूमि। २. कछार। तराई। ३. नदी के खिसकने के कारण निकली हुई भूमि। गंग-बरार।
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माँजना  : सं० [सं० मज्जन] १. कोई चीज अच्छी तरह साफ करने के लिए किसी दूसरी चीज से उसे अच्छी तरह मलना या रगड़ना। जैसे—बरतन माँजना। २. जुलाहों का सूत चिकना करने के लिए उस पर सरेस का पानी रगड़ना। ३. डोर या नख पर मांझा लगाना। ४. कुम्हारों का थपुए के तवे पर पानी देकर उसे ठीक करने के लिए किनारे झुकाना। ५. किसी काम या चीज का अभ्यास करना। जैसे—(क) लिखने के लिए हाथ माँजना। (ख) गाने के लिए गीत या राग माँजना।
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माँजर  : पुं० =पंजर (ठठरी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँजा  : पुं० [देश] पहली वर्षा का फेन जो मछलियों के लिए मादक कहा गया है। पुं० =माँझा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँजिष्ठ  : वि० [सं० मंजिष्ठा+अण्] १. मजीठ से बना हुआ। २. मजीठ के रंग का। ३. मजीठ सम्बन्धी। मजीठ का। पुं० एक प्रकार का मूत्र-रोग या प्रमेह जिसमें मजीठ के रंग का पेशाब होता है।
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माँझ  : अव्य० [सं० मध्य] में। भीतर। बीच। पुं० १. अन्तर। फर्क। २. नदी के बीच में निकली हुई रेतीली भूमि।
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माँझा  : पुं० [सं० मध्य] १. नदी के बीच की सूखी जमीन या टापू। २. वृक्ष का तना। ३. वे कपड़े जो वर और कन्या को विवाह से पहले पहनाये जाते हैं। ४. पगड़ी पर लगाया जानेवाला एक तरह का आभूषण। ५. एक प्रकार का ढाँचा जो गोड़ाई के बीच में रहता है और जो पाई को जमीन पर गिरने से रोकता है। (जुलाहे)। पुं० [हिं० माँजना]लेई, शीशे की बुकनी आदि का वह रूप जो डोर या नख पर उसे तेज तथा धारदार करने के लिए चढ़ाया जाता है। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—देना। पुं० १. =माँझा। (बड़ी खाट) २. =माँजा (फेन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँझिल  : वि० [सं० मध्य] मध्य का। बीच का। क्रि० वि० बीच या मध्य में।
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माँझी  : पुं० [सं० मध्य, हिं० माँझ] केवट। मल्लाह। पुं० =मध्यस्थ। पुं० [?] बलवान (डिं०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँट  : पुं० [सं० मट्ठक] १. मिट्टी का बड़ा बरतन। मटका। कुंडा। २. घर के ऊपर की कोठरी। अटारी। कोठा।
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माँठ  : पुं० [सं० मट्टक] १. मटका। २. कुंडा। ३. नील घोलने का बड़ा मटका।
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माँठी  : स्त्री० [देश] फूल नामक धातु की ढली हुई एक प्रकार की चूड़ियाँ जो देहाती स्त्रियाँ पहनती हैं। स्त्री०=मठरी या मठ्ठी (पकवान)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँड़  : पुं० [सं० मण्ड] उबाले या पकाये हुए चावलो में से बाकी बचा हुआ पानी जो गिरा या निकाल दिया जाता है। पसाव। पीच। स्त्री० [हिं० माँड़ना] १. माँड़ने की क्रिया या भाव। २. एक प्रकार का राग जिसका प्रचलन राजस्थान में अधिक है। ३. एक प्रकार की रोटी। उदाहरण—झालर माँड़ आए घिउ पोए।—जायसी।
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माँड़ना  : स० [सं० मंडन] १. मर्दन करना। मसलना। २. गूँधना। सानना। जैसे—आटा माँड़ना। ३. लेप करना। पोतना। ४. सजाना या सँवारना। ५. अन्न की बालों में से दाने झाड़ना। ६. ठानना। किसी प्रकार की क्रिया संपन्न करना अथवा उसका आरम्भ करना। जैसे—खाते या बही में कोई रकम माँड़ना, अर्थात् चढ़ाना या लिखना। मुहावरा—पग माँड़ना=पैर रोकना। ठहरना। रुकना। उदाहरण—आयी हूँ पग माँड़ि अहीर।—प्रिथीराज। बाद माँड़ना= (क) हठ करना। (ख) विवाद या बहस करना। उदाहरण—जाणे वाद माँड़ियों जीपण।—प्रिथीराज। ७. दे० ‘मलाना’।
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माँड़नी  : स्त्री० [सं० मंडन, हिं० माँड़ना] १. माँडऩे की क्रिया या भाव। २. किनारा। हाशिया। ३. मगजी। गोट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांडलिक  : पुं० [सं० मंडल+ठक्, ठ=इक, वृद्धि] १. मंडल का प्रधान प्रशासक २. वह छोटा राजा जो किसी चक्रवर्ती या बड़े राजा के अधीन हो और उसे कर देता हो। ३. शासन का कार्य। वि० मंडल संबंधी।
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माँड़व  : पुं० =मंडप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांडवी  : स्त्री० [सं०] राजा जनक के भाई कुशध्वज की कन्या जिसका विवाह राजा दशरथ के पुत्र भरत से हुआ था।
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मांडव्य  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि जिनको बाल्यावस्था के किये हुए अपराध के कारण यमराज ने सूली पर चढ़वा दिया था। २. एक प्राचीन जाति। ३. एक प्राचीन नगर।
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माँड़ा  : पुं० [स० मंड] १. आँख में झिल्ली पड़ने का एक रोग० २. इस प्रकार आँख में पड़नेवाली झिल्ली। पुं० [हिं० माँड़ना=गूँधना] १. एक प्रकार की बहुत पतली पूरी जो मैदे की होती है और घी में पकती हैं। लुच्ची। २. पराठा या पराठा नामक पकवान। ३. उलटा या चीला नामक पकवान। पुं० =मँड़वा (मंडप)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँड़ी  : स्त्री० [सं० मंड] १. भात का पसाव या माँड़ जो प्राय कपड़े या सूत पर कलफ करने के लिए लगाते हैं। २. उक्त काम के लिए बनाया जानेवाला जुलाहों का एक प्रकार का घोल या मिश्रण। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—देना।—लगाना।
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मांडूक  : पुं० [सं० मंडूक+अण्] प्राचीन काल के एक प्रकार के ब्राह्मण जो वैदिक मंडूक शाखा के अंतर्गत होते थे।
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मांडूकायनि  : पुं० [सं० मंडूक+फिञ्, फ-आयन] एक वैदिक आचार्य।
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मांडूक्य  : पुं० [सं० मंडूक+यञ्, वृद्धि] एक प्रसिद्ध उपनिषद्। वि० मंडूक सम्बन्धी।
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मांढ़  : पुं० [सं० मंडप] स्त्रियों का पीहर। मायका। दाहरण-नयरी नड़ें माँढ़े बीचई।—नरपतिनाल्ह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँढ़ा  : पुं० =माँड़व।
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माँत  : वि० [सं० मत्त] १. मत्त। मस्त। २. मस्ती आदि के कारण बेसुध। ३. उन्मत्त। पागल। वि० [सं० मन्द] जिसका रंग या शोभा बहुत कम हो गयी हो। फीका। पड़ा हुआ। वि० [फा० मांदः] १. थका हुआ। २. हारा हुआ।
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माँतना  : अ०=मातना (मत होना)।
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माँता  : वि० =माता (मत्त)।
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मांत्र  : वि० [सं० मंत्र+ठक्, ठ-इक] १. वह जो मंत्रों का पाठ करने में पारंगत हो। २. वह जो मंत्र-तंत्र आदि का अच्छा ज्ञाता हो।
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मांथर्य  : पुं० [सं० मंथर+ष्यञ्] १. मंथर होने की अवस्था या भाव। मंथरता। धीमापन। २. सुस्ती।
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माँथा  : पुं० [सं० मस्तक] माथा। सिर।
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माँद  : वि० [सं० मंद] १. जो उदास या फीका पड़ गया हो। जिसका रंग उतर गया या हलका पड़ा गया हो। मलिन। २. फीका। श्री-हीन। ३. किसी की तुलना में घटकर या हलका। क्रि० प्र०—पड़ना। ४. दबा या हारा हुआ। पराजित। मात। स्त्री० [देश] १. गोबर का ढेर जो सूख गया हो और जलाने के काम में आता हो। २. जंगलों पहाड़ों आदि में सुरंग की तरह की कोई ऐसी प्राकृतिक स्थान जिसमें कोई हिंसक पशु रहता हो।
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माँदगी  : स्त्री० [पा०] १. माँदा होने की अवस्था या भाव। १. बीमारी। रोग। ३. थकावट।
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माँदर  : पुं० =मर्दल (बाजा)।
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माँदा  : वि० [फा० मांदः] १. बीमार। रोग आदि से ग्रस्त। पद—थका-मांदा। २. छोड़ा हुआ। बचा हुआ।
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मांदार  : वि० [सं० मंदार+अण्] मंदार (मदार) संबंधी।
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मांद्य  : पुं० [सं० मंद+ष्यञ्] १. मंद होने की अवस्था या भाव। मंदता जैसे—अग्नि मांद्य। २. दुर्बलता। ३. कमी। न्यूनता। ४. बीमारी। रोग। ५. मूर्खता।
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मांधाता (तृ)  : पुं० [सं० माम्√धे (पाना)+तृच्] अयोध्या का एक प्राचीन सूर्यवंशी राजा जो दिलीप के पूर्वजों में से था।
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माँपना  : अ० [हिं० माँतना] नशे में चूर होना। मत्त होना। मातना। स०=मापना (नापना)।
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माँस  : अव्य०=में। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मांस  : पुं० [सं०√मन् (ज्ञान)+स] [वि० मांसल] १. मनुष्यों तथा जीव-जन्तुओं के शरीर का हड्डी, नस, चमड़ी, रक्त आदि से भिन्न अंश जो रक्त वर्ण का तथा लचीला होता है। आमिष। गोश्त। पद—मांस का घी=चरबी। २. कुछ विशिष्ट पशु-पक्षियों का मांस जिसे मनुष्य खाद्य समझता है। जैसे—बकरे या मुर्गे का मांस। पुं० =मास (महीना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांस-कीलक  : पुं० [ष० त०] बवासीर का मसा।
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मांस-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] शरीर के विभिन्न अंगों में निकलने वाली मांस की गाँठ।
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मांस-तेज (स्)  : पुं० [ब० स०] चरबी।
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मांस-धरा  : स्त्री० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार शरीर की त्वचा की सातवीं तह। स्थूलापार।
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मांस-पिंड  : पुं० [ष० त०] १. शरीर। देह। २. मांस का टुकड़ा या लोथड़ा।
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मांस-पिंड़ी  : स्त्री० [ष० त०] शरीर के अंदर रहनेवाली मांस की गाँठ।
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मांस-पेशी  : स्त्री० [ष० त०] शरीर के अंदर होनेवाली झिल्ली तथा रेशों के आकार का मांस-पिंड जिसका मुख्य कृत्य गति उत्पन्न करना होता है। विशेष—पक्षापात रोग में किसी अंग की मांसपेशियाँ गति उत्पन्न करना बंद कर देती हैं जिसके फलस्वरूप वह अंग हिलाया-डुलाया नहीं जा सकता।
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मांस-फल  : पुं० [सं० उपमि० स०] तरबूज।
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मांस-भक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० मांस√भक्ष् (खाना)+णिनि] मांस खानेवाला । मांसाहारी।
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मांस-मंड  : पुं० [सं० ष० त०] उबाले या पकाये हुए मांस का रसा। यखनी। शोरबा।
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मांस-योनि  : पुं० [ब० स०] रक्त और मांस से उत्पन्न जीव।
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मांस-रज्जु  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सुश्रुत के अनुसार शरीर के अंदर होनेवाले स्नायु जिनसे मांस बँधा रहता है। २. मांस का रसा। शोरबा।
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मांस-रस  : पुं० [ष० त०] मांस का रसा। शोरबा।
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मांस-लिप्त  : पुं० [तृ० त०] हड्डी।
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मांस-विक्रयी (यिन्)  : पुं० [सं० मांस+वि०√क्री+इनि, उपपद, स०] १. वह जो मांस बेचता हो। कसाब। २. वह जो धन के लोभ में अपनी सन्तान किसी के हाथ बेचता हो।
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मांस-वृद्धि  : स्त्री० [ष० त०] शरीर के किसी अंग के मांस का बढ़ जाना। जैसे—घेंघा, फील पाँव आदि।
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मांस-समुद्भवा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] चरबी।
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मांस-सार  : पुं० [ष० त०] शरीर के अन्तर्गत मेद नामक धातु। वि० हष्ट-पुष्ट। मोटा-ताजा।
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मांस-स्नेह  : पुं० [ष० त०] चरबी। वसा।
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मांस-हासा  : पुं० [ब० स०+टाप्] चमड़ा।
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मांसकारी (रिन्)  : पुं० [सं० मांस√कृ+णिनि] रक्त। लहू।
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मांसखोर  : वि० [सं० मांस+फा० खोर] [भाव० मांसखोरी] मांसाहारी। मांस खानेवाला।
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मांसज  : वि० [सं० मांस√जन् (उत्पन्न होना)+ड] मांस से उत्पन्न होनेवाला। पुं० चरबी जो मांस से उत्पन्न होती है।
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मांसभोजी (जिन्)  : वि० [सं० मांस√भुज् (खाना)+णिनि] मांसाहारी।
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मांसरोहिणी  : स्त्री० [सं० मांस√रुह् (उत्पन्न होना)+णिच्+णिनि, +ङीष्] एक प्रकार का जंगली वृक्ष।
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मांसल  : वि० [सं० मांस+लच्] [भाव० मांसलता] १. (शरीर का कोई अंग) जो मांस से अच्छी तरह भरा हो। २. जिसमें मांस या उसकी तरह के गूदे की अधिकता हो। गुदगुदा। फ्लेशी। ३. मोटा-ताजा। हष्ट-पुष्ट।४. दृढ़। पक्का। मजबूत। पुं० १. गौड़ी रीती का एक गुण। २. उड़द।
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मांसलता  : स्त्री० [सं० मांसल+तल्+टाप्] १. मांस से भरे होने की अवस्था या भाव। २. बहुत अधिक मोटे-ताजे तथा हष्ट-पुष्ट होने की अवस्था या भाव।
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मांसादन  : पुं० [मांस-अदन, ष० त०] मांस खाने की क्रिया या भाव।
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मांसादी (दिन्)  : वि० [सं० मांस√अद्+णिनि] मांस खानेवाला। मांसाहारी।
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मांसाद्  : वि० [सं० मांस√अद् (खाना)+क्विप्] जो मांस-खाता हो। मांस-भक्षक। पुं० राक्षस।
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मांसारि  : पुं० [मांस-अरि, ष० त०] अम्लबेंत।
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मांसार्गल  : पुं० [मांस-अर्गल, ष० त०] गले में लटकनेवाला मांस।
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मांसार्बुद  : पुं० [मांस-अर्बुद, ष० त०] १. एक प्रकार का रोग जिसमें लिंग पर फुंसियां निकल आती है। २. शरीर के किसी अंग में आघात लगने से होनेवाली वह सूजन जो पत्थर की तरह कड़ी हो जाती है और जिसमें प्रायः पीड़ा नहीं होती।
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मांसाशन  : पुं० =मांसादन। वि० =मांसाशी।
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मांसाशी (शिन्)  : वि० [सं० मांस√अस् (खाना)+णिनि] जो मांस खाता हो। मांसाहारी। पुं० राक्षस।
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मांसाष्टका  : स्त्री० [मांस-अष्टका, मध्य० स०] माघ कृष्णाष्टमी । इस दिन मांस से पिंडदान करने का विधान था।
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मांसाहारी (रिन्)  : वि० [सं० मांस+आ√हृ+णिनि] [स्त्री० मांसाहारिणी] मांस का भोजन करनेवाला। मांसभक्षी।
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माँसी  : वि० [सं० माष्] माष अर्थात् उड़द के रंग का। पुं० उक्त प्रकार का रंग जो उड़द के दाने के रंग की तरह होता है।
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मांसी  : स्त्री० [सं० मांस+अच्+ङीष्] १. जटामासी। २. काकोली। ३. चन्दन का तेल। ४. इलायची।
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मांसु  : पुं० मांस।
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मांसोदन  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक तरह का पुलाव जिसमें मांस के टुकड़े भी डाले जाते हैं।
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मांसोपजीवी (विन्)  : वि० [सं० मांस+उप√जीव् (जीना)+णिनि] १. जिसकी जीविका मांस से चलती हो। २. जो मांस बेचकर जीवन निर्वाह करता हो।
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माँह  : अव्य० [सं० मध्य०] में। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माँहरा  : सर्व=हमारा (राज०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँहा  : अव्य०=माँह (में)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माँहि, मांही  : अव्य०=माँह।
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माँहुटि  : पुं० [हिं० माघ (महीना)] माघ के महीने में होनेवाली वर्षा। उदाहरण—नैन चुवहिं जस माँहुटि नीरू।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँहूँ  : पुं० [?] सरसों, गोभी, मूली शलजम आदि में लगनेवाला एक प्रकार का हल्के पीले-रंग का कीड़ा जिसके शरीर के पिछले भाग पर ऊपर की ओर दो छोटी नलियाँ रहती हैं लाही।
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माँहै  : अव्य०=माँह। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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