रूप/roop

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रूप  : पुं० [सं०√रूप् (बनाना, देखना आदि)+अच्] १. किसी पदार्थ का वह ब्राह्य गुण या विशेषता (आयतन वर्ण आदि से भिन्न) जिससे उसकी बनावट का पता चलता है। पिंड, शरीर आदि की बनावट का प्रकार और स्थिति सूचित करनेवाला तत्त्व। आकृति। शकल। सूरत। पद—रूप रेखा (देखें)। २. देह। शरीर। किसी विशिष्ट प्रकार की आकृति, वेश-भूषा आदि से युक्त शरीर। जैसे—बहुरूपिया नित्य नित्य नए नए रूप धारण करता है। मुहावरा—रूप भरना= (क) भेस बनाना। वेश धारण करना। (ख) किसी तरह का तमाशा, मजाक या स्वांग खड़ा करना। ३. किसी तत्त्व, बात या वस्तु की वह स्थिति जिसके फलस्वरूप वह किसी पृथक् तथा स्वतंत्र गुण या विशेषता से युक्त होकर कुछ अलग या नए प्रकार का काम करता या परिणाम दिखलाता है। प्रकार। भेद। जैसे—(क) प्राचीन भारत में शासन के कई रूप प्रचलित थे। (ख) उपसर्ग, प्रत्यय आदि लगाकर किसी शब्द के अनेक रूप बनाये जा सकते हैं। (ग) इस योजना को अब एक नया रूप देने का प्रयत्न किया जा रहा है। ४. कोई कार्य करने की नियत और व्यवस्थित पद्धति या प्रणाली। जैसे—(क) उनके कुल में विवाह सदा इसी रूप में होता चला आया है। (ख) यह मंत्र सदा इसी रूप में लिखा जाना चाहिए। ५. दृश्य पदार्थ या वस्तु। जैसे—प्रकृति कहीं पर्वत के रूप में और कहीं समुद्र के रूप में व्यक्त होती है। ६. खूबसूरती। सुंदरता। (किसी का) रूप हरना=अपनी बढ़ी हुई सुन्दरता के फल-स्वरूप ऐसी स्थिति उत्पन्न करना कि सामनेवाली चीज या व्यक्ति कुछ भी सुन्दर न जान पड़े। ७. प्रकृति स्वभाव। ८. प्रकार। भेद। ९. नमूना। प्रतिमान। १॰. बराबरी। समता। समानता। ११. गणित में एक की सूचक संज्ञा। १२. नाटक। ‘रूपक’। वि० खूबसूरत। रूपवान्। सुन्दर। अव्य०किसी के रूप के तुल्य या सदृश्य बराबर या समान। उदाहरण—बोलहु सुआ पियारे नाहाँ। मोरे रूप कोऊ जग माहाँ।—जायसी। पुं० =रूपा (चाँदी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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रूप-गर्विता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] साहित्य में, वह नायिका जिसे अपने रूप का गर्व या अभिमान हो।
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रूप-घनाक्षरी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] ३२ वर्णों वाला एक प्रकार का मुक्तक दंडक छंद जिसके प्रत्येक चरण में आठ-आठ वर्णों पर यति होती है। इसके अंत में लघु होना आवश्यक है।
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रूप-चतुर्दशी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] कार्तिक बदी चौदस। नरक चतुर्दशी।
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रूप-जीवनी  : स्त्री० [सं० रूप√जीव् (जीना)+णिनि+ङीष्] रूप जिसकी जीविका का आधार हो। रंडी। वेश्या।
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रूप-धेय  : पुं० [सं० रूप+धेय] किसी प्रकार के ठोस पदार्थ (पिंड, भूमि आदि) की समोच्च रूप रेखा। कॉन्टूर।
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रूप-नाशक  : पुं० [सं० ष० त०] उल्लू। वि० रूप नष्ट करनेवाला।
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रूप-पति  : पुं० [सं० ष० त०] विश्वकर्मा।
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रूप-भेद  : पुं० [सं० ष० त०] किसी काम या बात के रूप में किया हुआ आंशिक परिवर्तन।
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रूप-मंजरी  : स्त्री० [सं० रूप+मंजरी] १. एक प्रकार का फूल। २. संगीत में एक प्रकार की रागिनी। पुं० एक प्रकार का धान और उसका चावल।
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रूप-मनी  : वि० [हिं० रूपमान्] रूपवती।
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रूप-मांजरी  : स्त्री० पुं० =रूप-मंजरी।
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रूप-माला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १, एक प्रकार का सम-वृत मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १४ और १0 के विश्राम से २४ मात्राएँ होती हैं। २. एक प्रकार का सम वृत्त वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से रगण, मगण, जगण, भगण और अंत में गुरु लघु होता है।
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रूप-रूपक  : पुं० [सं० मध्य० स०] केशव के अनुसार रूपक अलंकार के ‘सावयव रूपक’ भेद का एक नाम।
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रूप-रेखा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. रेखाओं आदि के रूप में होनेवाला वह अंकन जिससे किसी पदार्थ के आकार-प्रकार का स्थूल ज्ञान होता हो, फिर भी जिससे उस पदार् के उभार, गहराई मोटाई ज्ञान आदि का हो। रेखाओं द्वारा अंकित चित्र। २. किसी कार्य के संबंध की वह मुख्य बात जो उसके स्थूल रूप की सूचक तथा ब्योरे आदि की बातों से रहित होती और उसके संक्षिप्त विवरण या सारांश के रूप में होती है। ३. किसी चित्र की वह बाहरी रेखा जिससे वह चित्र घिरा रहता है (आउट लाइन सभी अर्थो में)।
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रूप-विधान  : पुं० [सं० ष० त०] १. भाषा विज्ञान और व्याकरण का वह अंग या शाखा जिसमें शब्दों की बनावट या रूप और उसमें होनेवाले विकारों आदि का विवेचन होता है। (माँरफाँलोजी) २. दे० ‘आकृति विज्ञान’।
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रूप-श्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] सम्पूर्ण जाति की एक संकर रागिनी।
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रूप-संपत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] सौन्दर्य। उत्तम रूप। सुन्दरता।
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रूप-साधक  : वि० [सं० ष० त०] शब्दों का रूप साधन करनेवाला। जैसे—फलतः मुख्यतः आदि में ‘तः’ रूप साधक प्रत्यय है।
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रूप-साधन  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० कर्ता रूपसाधक] व्याकरण में भिन्न-भिन्न कारकों, लिगों, वचनों आदि में किसी एक शब्द के होनेवाले अलग-अलग रूप या उनके वे रूप बनाने की प्रक्रिया। डिक्लरेन्शन।
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रूप-साम्य  : पुं० [सं० स० त० या ष० त०] वस्तुओं के रूपों में होनेवाली पारस्परिक समानता।
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रूपक  : वि० [सं०√रूप्+णिच्+ण्वुल्-अक] जिसका कोई रूप हो। रूप से युक्त। रूपी। पुं० १. किसी रूप की बनाई हुई प्रतिकृति या मूर्ति। २. किसी प्रकार का चिन्ह या लक्षण। ३. प्रकार। भेद। ४. प्राचीन काल का एक प्रकार का प्राचीन परिमाण। ५. चाँदी। ६. रुपया नाम का सिक्का जो चाँदी का होता है। ७. चाँदी का बना हुआ गहना। ८. ऐसा काव्य या और कोई साहित्यिक रचना, जिसका अभिनय होता हो, या हो सकता हो। नाटक। विशेष—पहले नाटक के लिए रूपक शब्द ही प्रचलित था और रूपक के दस भेदों में नाटक भी एक भेद मात्र था। पर अब इसकी जगह नाटक ही विशेष प्रचलित हो गया है। रूपक के दस भेद ये हैं—नाटक प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, डिम, ईहामृग, अंक, वीथी और प्रहसन। ९. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें बहुत अधिक साम्य के आधार पर प्रस्तुत में अप्रस्तुत का आरोप करके अर्थात् उपमेय या उपमान के साधर्म्य का आरोप करके और दोंनों भेदों का अभाव दिखाते हुए उपमेय या उपमान के रूप में ही वर्णन किया जाता है। इसके सांग रूपक अभेद रुपक, तद्रूप, रूपक न्यून रूपक, परम्परित रूपक आदि अनेक भेद हैं। १॰. बोल-चाल में कोई ऐसी बनावटी बात, जो किसी को डरा धमकाकर अपने अनुकूल बनाने के लिए कही जाय। जैसे—तुम जरो मत, यह सब उनका रूपक भर है। क्रि० प्र०—कसना।—बाँधना। ११. संगीत में सात मात्राओं का एक दो ताला ताल, जिसमें दो आघात और एक खाली होता है।
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रूपक-कार्यक्रम  : पुं० [सं० ष० त०] आकाशवाणी द्वारा प्रसारित होनेवाले नाटकों, प्रहसनों आदि से सम्बन्ध रखनेवाला कार्यक्रम। (फीचर प्रोग्राम)।
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रूपकर्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] विश्वकर्मा।
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रूपकातिशयोक्ति  : स्त्री० [सं० रूपक-अतिशयोक्ति, कर्म० स०] अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद जिसमें वर्णन तो रूपक की तरह का ही होता है, पर केवल उपमान का उल्लेख करके उपमेय का स्वरूप उपस्थित किया जाता है।
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रूपकृत्  : पुं० [सं० रूप√कृ (करना)+क्विप्] विश्वकर्मा।
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रूपक्रांता  : स्त्री० [सं०] सत्रह अक्षरों का एक वर्णवृत्त।
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रूपण  : पुं० [सं०√रूप+णिच्+ल्युट-अन] १. आरोप करना। आरोपण। २. प्रमाण। सबूत। ३. जाँच। परीक्षा।
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रूपता  : स्त्री० [सं० रूप+तल्+टाप्] रूप का गुण, धर्म या भाव। २. खूब सूरती। सौन्दर्य।
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रूपधर  : वि० [सं० ष० त०] [स्त्री० रूपधरा] सुंदर। खूबसूरत।
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रूपमय  : वि० [सं० रूप+मयट्] [स्त्री० रूपमती] रूप अर्थात् सौन्दर्य से भरा हुआ या पूर्णतः युक्त। परमसुन्दर।
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रूपमान  : वि० [स्त्री० रूपमनी]=रूपवान्।
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रूपमाली (लिन्)  : स्त्री० [सं० रूपमाला+इनि] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तीन मगण या नौ दीर्घ वर्ण होते हैं।
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रूपव  : वि० =रूपवान्।
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रूपवंत  : वि० [सं० रूपवत्] [स्त्री० रूपवंती] जिसमें सौन्दर्य हो। खूब सूरत। रूपवान्।
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रूपवती  : स्त्री० [सं० रूप+मतुप्, +ङीष्] १. केशव के अनुसार एक प्रकार का छंद, जिसे छंदप्रभाकर ‘गौरी’ कहा गया है। २. चंपक माला वृत्त का एक नाम। वि० सुंदरी (स्त्री)।
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रूपवान् (वत्)  : वि० [सं० रूप+मतुप्] [स्त्री० रूपवती] सुंदर रूप वाला। खूबसूरत।
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रूपशाली (लिन्)  : वि० [सं० रूप√शाल् (शोभित होना)+णिनि] [स्त्री० रूपशालिनी] रूपवान्। सुन्दर।
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रूपंसी  : स्त्री० [सं० रूप से] बहुत सुन्दर स्त्री।
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रूपस्वी  : वि० [सं० रूपवान्] [स्त्री० रूपस्विनी] रूपवान्। सुन्दर।
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रूपा  : पुं० [सं० रूप] १. चाँदी। २. ऐसी घटिया चाँदी जिसमें कुछ खोट या मिलावट हो। ३. सफेद रंग का बैल जो परिश्रमी माना जाता है। ४. सफेद रंग का घोड़ा। नुकरा। स्त्री० [सं०] रूपवती स्त्री। सुन्दरी।
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रूपांकक  : पुं० [सं० रूप-अंकक, ष० त०] किसी चीज का निर्माण करने से पहले उसकी आकृति, रचना प्रकार आदि को रेखाओं नक्शों आदि द्वारा दरशानेवाला व्यक्ति। अभिकल्पक। (डिजाइनर)
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रूपांकन  : पुं० [सं० रूप-अंकन] रेखाओं, नक्शों आदि के द्वारा किसी चीज का रूप रंग तथा आकार-प्रकार दरशाने की क्रिया या भाव। अभिकल्पन (डिजाइनिंग)।
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रूपाजीवा  : स्त्री० [सं० रूप-आ√जीव् (जीना)+अच्+टाप्] वेश्या। रंडी।
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रूपांतर  : पुं० [सं० रूप-अंतर, ष० त०] १. रूप का बदलना। दूसरे रूप की प्राप्ति। रूपांतरण। २. प्राप्त होनेवाला दूसरा रूप।
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रूपांतरण  : पुं० [सं० रूप-अंतरण] दूसरे रूप में आना या लाया जाना। रूप बदलना या बदला जाना। (ट्रान्सफारमेशन)
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रूपाधिबोध  : पुं० [सं० रूप-अधिबोध, ष० त०] १. जिसके रूप का ज्ञान इंद्रियों से प्राप्त होता है। दृश्य या अदृश्य पदार्थ। २. उक्त पदार्थ का इंद्रियों से होनेवाला ज्ञान।
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रूपाध्यक्ष  : पुं० [सं० रुप-अध्ययन, ष० त०] १. टकसाल का प्रधान अफसर। २. कोषाध्यक्ष।
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रूपामक्खी  : स्त्री० [हिं० रूपा=चाँदी+मक्खी] एक प्रकार का खनिज पदार्थ जिसकी गणना हमारे यहाँ उप-धातुओं में की गई है, वैद्यक में इसका व्यवहार प्रायः चाँदी के अभाव में किया जाता है क्योंकि इसमें चाँदी का कुछ अंश और गुण पाया जाता है।
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रूपायन  : पुं० [सं०] [भू० कृ०रूपायित] १. किसी वस्तु का रूप या ढाँचा। प्रस्तुत करना। २. किसी बात या विचार को कार्यरूप में परिणित करना।
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रूपायित  : भू० कृ० [सं०] जिसने कोई रूप प्राप्त किया हो या जिसे कोई रूप दिया गया हो।
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रूपावचर  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का देवता (बौद्ध) २. चिन्ता की वह अवस्था जिसमें उसे रूप-जगत् अर्थात् दृश्य पदार्थों का ज्ञान होता है। ३. इस प्रकार प्राप्त होनेवाला ज्ञान। ४. योग में ध्यान की एक भूमि जिसके प्रथम आदि चार भेद कहे गये हैं।
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रूपाश्रय  : वि० [सं० रूप-आश्रय, ष० त०] रूपवान्। सुन्दर।
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रूपास्त्र  : पुं० [सं० रूप-अस्त्र, ब० स०] कामदेव।
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रूपिका  : स्त्री० [सं०√रूप्+ठन्-इक, +टाप्]सफेद फूलोंवाला मदार का पौधा।
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रूपित  : पुं० [सं० रूप+इतच्] एक प्रकार का उपन्यास, जिसमें ज्ञान, वैराग्यादि पात्र बनाए जाते हैं। भू० कृ० जिसे कोई रूप दिया गया या मिला हो।
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रूपी (पिन्)  : वि० [सं०√रूप्+इनि] [स्त्री० रूपिणी] १. रूप या आकार प्रकार वाला। २. रूपधारी। रूपवान्। सुन्दर। ३. तुल्य। सदृश्य समान।
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रूपेंद्रिय  : स्त्री० [सं० रूप+इंद्रिय, मध्य० स०] जिससे रूप का ज्ञान होता है चक्षु।
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रूपेश्वर  : पुं० [सं० रूप-ईश्वर, ष० त०] [स्त्री० रूपेश्वरी] एक शिवंलिंग।
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रूपेश्वरी  : स्त्री० [सं० रूप-ईश्वरी, ष० त०] एक देवी का नाम।
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रूपोपजीविनी  : स्त्री० [सं० रूप+उप√जीव् (जीना)+णिनि+ङीष्] वेश्या रंडी।
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रूपोपजीवी (विन्)  : पुं० [सं० रुप-उप√जीव्+णिनि] [स्त्री० रुपोपजीवनी] बहुरूपिया।
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रूपोश  : वि० [फा०] १. जो मुँह छिपाए हुए हो। २. जो दंड आदि से बचने के लिए छिप या भाग गया हो।
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रूपोशी  : वि० [फा०] १. रूपोश होने की अवस्था या भाव।
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रूप्य  : वि० [सं० रूप+यत्] १. सुन्दर। खूबसूरत। २. उपमेय। पुं० रूपा। चाँदी।
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रूप्यक  : पुं० [सं० रूप्य+कन्] रुपया।
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रूप्याध्यक्ष  : पुं० [सं० रूप्य-अध्यक्ष, ष० त०] टकसाल का प्रधान अधिकारी। नैष्ठिक।
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