शब्द का अर्थ
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					वंश					 :
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					पुं० [सं०√वम् (उगलना)+वा√वन् (शब्द)+श] १. बाँस। २. बाँस की बनी हुई बाँसुरी। ३. छाजन की बँडेर जो बाँस की होती है। ४. एक प्रकार की ईख। ५. पीठ के बीच में हड्डियों की गुरियों की लंबी माला या श्रृंखला जो गरदन से कमर तक होती है। रीढ़। ६. नाक के बीच की लंबी हड्डी। बांसा। ७. खड्ग के बीच का पीछे की ओर उठा हुआ या ऊँचा भाग। ८. बारह हाथ की एक पुरानी नाप। ९. हाथ या पैर की लंबी हड्डी। नली। १॰. युद्ध की सामग्री। ११. पुष्प। फूल। १२. विष्णु का एक नाम। १३. जीव या प्राणी की संतान-परम्परा। एक ही जीव, प्राणी या व्यक्ति से उत्पन्न होनेवाले जीवों, प्राणियो या व्यक्तियों की परम्परा या श्रृंखला। कुल। खानदान। १४. दे० ‘वंशलोचन’।				 | 
			
			
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					वंश					 :
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					स्त्री० [सं० वंश+अच्-ङीष्] १. मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला एक प्रकार का बाजा जो बाँस में सुर निकालने के लिए छेद करके बनाया जाता है। बाँसुरी। मुरली। २. वंशलोचन। बंसलोचन। ३. चार कर्ष या आठ तोले की एक पुरानी तौल। वि० [सं० वंसिन्] किसी विशिष्ट वंश में उत्पन्न होने या उससे संबंध रखनेवाला। जैसे– चंद्रवंशी, सूर्यवंशी।				 | 
			
			
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					वंश-तिलक					 :
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					पुं० [सं०] पिंगल में एक प्रकार का छंद।				 | 
			
			
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					वंश-धर					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] १. बाँस धारण करनेवाला। २. वह जो किसी के वंश में उत्पन्न हुआ हो। वंशज। ३. वह जिसने अपने वंश या कुल की मर्यादा की रक्षा की हो।				 | 
			
			
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					वंश-धरा					 :
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					स्त्री० [सं० वंशधर+टाप्] मध्यप्रदेश की एक नदी, जो पुराणानुसार महेन्द्र पर्वत से निकली है। आज-कल इसे ‘वंशधारा’ कहते हैं।				 | 
			
			
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					वंश-धान्य					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] बाँस का चावल। (वि० दे० ‘बाँस’)।				 | 
			
			
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					वंश-नाश					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार एक योग जो शनि, राहु और सूर्य के एक साथ किसी लग्न में, विशेषत पंचम लग्न में पड़ने पर होता है, और जिसके फलस्वरूप सारे वंश या परिवार का नष्ट होना माना जाता है।				 | 
			
			
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					वंश-नेत्र					 :
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					पुं० [सं० ब० स०] ऊख की जड़ या पोर जिसमें से अँखुआ निकलता है।				 | 
			
			
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					वंश-पत्र					 :
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					पुं० [सं० ब० स०] हरताल (खनिज)।				 | 
			
			
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					वंश-पत्र-पतित					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का छन्द।				 | 
			
			
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					वंश-पत्रक					 :
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					पुं० [सं० वंशपत्र+कन्] १. एक प्रकार की ईख जो सफेद होती है। २. एक तरह की मछली। ३. हरताल।				 | 
			
			
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					वंश-रोचना					 :
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					स्त्री० [सं० ष० त०] बंसलोचन।				 | 
			
			
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					वंश-वज्रा					 :
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					स्त्री० [सं०] एक प्रकार का अर्द्ध-सम वर्णिक वृत्त जो इधर हाल में इंद्रवज्रा और इन्द्रवंशा के योग से बनाया गया है। इसके पहले और तीसरे चरणों में तगण, तगण, जगण और दो गुरु होते हैं।				 | 
			
			
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					वंश-वृक्ष					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] वृक्ष की आकृति का वह रेखा-चित्र जिसमें किसी वंश के मूल पुरुष से लेकर उसके परवर्ती वंशजों (पुरुषों) का क्रमात् नाम एक विशिष्ट क्रम से लिखा होता है।				 | 
			
			
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					वंश-शर्कंरा					 :
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					स्त्री० [सं० ष० त०] बंसलोचन।				 | 
			
			
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					वंश-शलाका					 :
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					स्त्री० [सं० ष० त०] बीन, सितार, आदि बाजों का डंडा।				 | 
			
			
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					वंश-हीन					 :
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					वि० [सं० तृ० त०] १. जिसके वंश में कोई न हो। निर्वश। २. जिसके पुत्र न हो।				 | 
			
			
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					वंशक					 :
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					पुं० [सं० वंश+कन्] १. छोटी जाति का बाँस। छोटा बाँस। २. अगर नामक गंध-द्रव्य। अगरू। ३. एक प्रकार की ईख। ४. एक प्रकार की मछली।				 | 
			
			
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					वंशकपूर					 :
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					पुं० [सं० वंशकर्पूर] वंशलोचन।				 | 
			
			
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					वंशकर					 :
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					पुं० [सं० वंश√कृ (करना)+अच्] वह पुरुष जिससे किसी वंश का आरंभ हुआ हो। मूलपुरुष।				 | 
			
			
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					वंशकरा					 :
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					स्त्री० [सं० वंशकर+टाप्] वंशधरा नदी।				 | 
			
			
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					वंशकार					 :
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					पुं० [सं० वंश√कृ+अण्] गंधक।				 | 
			
			
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					वंशज					 :
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					पुं० [सं० वंश√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. वह जो किसी वंश में उत्पन्न हुआ हो। २. किसी विशिष्ट व्यक्ति के विचार से उसकी संतान। जैसे–ये लोग टोडरमल के वंशज है (डिसेन्डेन्ट, उक्त दोनों अर्थों से)।				 | 
			
			
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					वंशजा					 :
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					स्त्री० [सं० वंशज+टाप्] वंशलोचन।				 | 
			
			
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					वंशनर्ती (र्तिन्)					 :
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					पुं० [सं० वंश√नृत् (नाचना)+णिनि] भाँड़।				 | 
			
			
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					वंशपत्री					 :
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					स्त्री० [सं० वंशपत्र+ङीष्] १. एक प्रकार की हींग। २. बाँसा नाम की घास।				 | 
			
			
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					वंशय					 :
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					वि० [सं० वंश+यत्] १. वंश-सम्बन्धी। वंश का। २. किसी वंश या कुल में उत्पन्न। वंशज। पुं० १. छत की छाजन में की बँडेर। २. पीठ की रीढ़।				 | 
			
			
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					वंशलोचन					 :
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					पुं० [सं० वंशरोचना] बंसलोचन (देखें)।				 | 
			
			
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					वंशस्थ					 :
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					पुं० [सं० वंश्√स्था (ठहरना)+क] बारह वर्णों का एक वर्ण-वृत्त जिसका व्यवहार संस्कृत काव्यों में अधिक मिलता है। इसमें जगण, तगण, जगण, और रगण आते हैं। इसे ‘वंशस्थविल’ भी कहते हैं।				 | 
			
			
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					वंशागत					 :
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					वि० [सं० वंश-आगत,पं० त०] १. वंश-परम्परा से प्राप्त। २. उत्तराधिकार में प्राप्त।				 | 
			
			
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					वंशानुक्रम					 :
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					पुं० [सं० वंश-अनुक्रम, ष० त०] [वि० वंशानुक्रमिक] किसी वंश में बराबर चलता रहनेवाला क्रम या परम्परा।				 | 
			
			
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					वंशानुक्रमण					 :
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					पुं० [सं० वंश-अनुक्रमण, ष० त०] वंश-परम्परा।				 | 
			
			
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					वंशानुक्रमिक					 :
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					वि० [सं० वंशानुक्रम+ठक्-इक] वंश में परम्परा के रूप में चलनेवाला। आनुवंशिक। (हेरीडेटरी)।				 | 
			
			
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					वंशावली					 :
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					स्त्री० [सं० वंश-आवली, ष० त०] किसी वंश में उत्पन्न पुरुषों की पूर्वोत्तर क्रम-सूची। (जीनिएलाँजी)।				 | 
			
			
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					वंशिक					 :
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					पुं० [सं० वंश+ठक्-इक] १. अगर की लकड़ी। २. काला गन्ना				 | 
			
			
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					वंशिका					 :
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					स्त्री० [सं० वंशिक+टाप्] १. अगर की लकड़ी। २. बंसी। मुरली। ३. पिप्पली।				 | 
			
			
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					वंशी-वट					 :
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					पुं० [सं० मध्य० स०] वृन्दावन वन में स्थित बरगद का एक पेड़ जिसके नीचे श्रीकृष्ण वंशी बजाते थे।				 | 
			
			
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					वंशीधर					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] श्रीकृष्ण।				 | 
			
			
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					वंशीय					 :
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					वि० [सं० वंश+छ-ईय] किसी वंश या कुल से संबंध रखने या उसमें होनेवाला।				 | 
			
			
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					वंशोद्भव					 :
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					वि० [सं० वंश-उद्भव, ब० स०] किसी विशिष्ट अंश या कुल में उत्पन्न।				 | 
			
			
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					वंशोद्भवा					 :
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					स्त्री० [सं० वंशोद्भव+टाप्] बंसलोचन।				 | 
			
			
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