शब्द का अर्थ
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विमर्श :
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पुं० [वि√मृश् (स्पर्शनादि)+घञ्] १. सोच-विचार कर तथ्य या वास्तविकता का पता लगाना। २. किसी बात या विषय पर कुछ सोचना समझना। विचार करना। ३. गुण-दोष आदि की आलोचना या मीमांसा करना (डेलिबरेशन) ४. जाँचना और परखना। ५. किसी से परामर्श या सलाह करना। ६. ज्ञान। ७. नाटक में पाँच संधियों में से एक संधि। दे० ‘विमर्श संधि’। |
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विमर्श-संधि :
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स्त्री० [सं०] नाटक की पाँच संधियों में से एक जो ऐसे अवसर पर मानी जाती है जहाँ क्रोध, लोभ, व्यसन आदि के विमर्श या विचार से फल-प्राप्ति का प्रयत्न किया जाता हो और गर्भ (संधि) देखें के द्वारा यह उद्देश्य बीज रूप में प्रकट भी हो जाता हो। अवमर्श संधि। विशेष—प्रसाद के चन्द्रगुप्त नाटक में यह उस समय आती है, जब चाणक्य की नीति से असंतुष्ट होकर चन्द्रगुप्त के माता-पिता चले जाते हैं,और चंद्रगुप्त अकेला पड़कर अपना असंतोष और क्रोध प्रकट करता है और विमर्शपूर्वक साम्राज्य स्थापित करने के लोभ से प्रयत्न आरम्भ करता है। |
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विमर्शक :
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वि० [सं०] विमर्श करनेवाला। |
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विमर्शन :
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पुं० [सं० वि√मृश् (तर्क-विवेचनकरना)+ल्युट-अन] [वि० विमृष्ट, विमर्शी, भू० कृ० विमर्शित] विमर्श करने की क्रिया या भाव। |
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विमर्शी (र्शिन्) :
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वि० [सं० वि√मृश् (विचार करना)+चञ्,विमर्श+इन्] विमर्श अर्थात् विचार या समीक्षा करनेवाला। |
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