शब्द का अर्थ
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					वृद्धि					 :
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					स्त्री० [सं०√वृध् (बढ़ना)+क्तिन्] १. वृद्ध होने की अवस्था या भाव। २. गुण, मान मात्रा, संख्या आदि में अधिकता होना जो उन्नति, प्रकति विकास आदि का सूचक होता है। जैसे—वेतन, संतान आदि की वृद्धि। ३. उक्त के आधार पर होनेवाली अधिकता जो उन्नति, प्रगति, विकास आदि की सूचक होती है। ४. विशेषतः वृत्ति वेतन, आदि में होनेवाली अधिकता (इन्क्रीमेंट) ५. अभ्युदय। समृद्धि। ६. ब्याज। सूद। ७. राजनीति में कृषि, वाणिज्य दुर्ग, सेतु, कुंजरबंधन, कन्याकर, वलादान और सैन्यसन्निवेश इन आठों वर्गों का उपचय। वर्द्धन। स्फाति। ८. वह अशौच जो घर मे संतान उत्पन्न होने पर सगे-संबंधियों को होता है। ९. एक प्रकार की लता जो अष्ट वर्गों के अन्तर्गत मानी गई है। १॰. फलित ज्योतिष में विषकंभ आदि २७ योगों के अन्तर्गत ग्यारहवाँ योग।				 | 
			
			
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					वृद्धि-कर्म					 :
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					पुं० [सं० ष० त०]=वृद्धि श्राद्ध।				 | 
			
			
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					वृद्धि-जीवक					 :
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					पुं० [सं० तृ० त०] वह जो वृद्धि या ब्याज से अपना निर्वाह करता हो। सूद से अपना निर्वाह करनेवाला। महाजन।				 | 
			
			
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					वृद्धि-पत्र					 :
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					पुं० [सं० ब० स०] चिकित्सा के काम आनेवाला एक तरह का शल्य। (सुश्रुत)				 | 
			
			
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					वृद्धि-सानु					 :
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					पुं० [सं०] १. पुरुष। आदमी। २. कर्म। कार्य। ३. पत्ता।				 | 
			
			
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					वृद्धिक					 :
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					पुं० [सं०] लिखाई में एक प्रकार का चिन्ह जो इस बात का सूचक होता है कि लिखाई या छपाई में यहाँ कोई पद या शब्द भूल से बढ़ा दिया गया है। यह इस प्रकार लिखा जाता है— ^				 | 
			
			
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					वृद्धिका					 :
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					स्त्री० [सं० वृद्धि+कन्+टाप्] १. ऋद्धि नाम की ओषधि। २. सफेद अपराजिता। ३. अर्कपुष्पी।				 | 
			
			
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					वृद्धिद					 :
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					वि० [सं० वृद्धि√दा+क] वृद्धि देनेवाला। पुं० १. जीवक नामक क्षुप। २. शूकरकन्द।				 | 
			
			
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					वृद्धियोग					 :
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					पुं० [सं० मध्यम० स०] फलित ज्योतिष के २७ योगों में से एक योग।				 | 
			
			
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					वृद्धिश्राद्ध					 :
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					पुं० [सं० च० त०] नांदीमुख नामक श्राद्ध जो मांगलिक अवसरों पर होता है।				 | 
			
			
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