सांत/saant

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सात  : वि० [सं० सप्त] जो गिनती में पाँच और क दो हो। छः से एक अधिक। पद—सात-पाँच= (क) कुछ लोग। उदा०—सात-पाँच की लकड़ी एक जने का बोझ। (ख) चालाकी और बहानेबाजी या शराफत की बातें। जैसे—हमसे इस प्रकार सात-पाँच मत किया करो। सात समुद्र पार=बहुत अधिक दूर विशेषतः विदेश में। जैसे—उन्होंने सात-समुद्र पार की चीजें लाकर इकट्ठी की थीं। मुहा०—सात परदे में रखना= (क) अच्छी तरह छिपाकर रखना। अच्छी तरह सँभालकर रखना। सात राजाओं की साक्षी देना= (ख) बहुत दृढ़तापूर्वक कोई बात कहना। किसी बात की सत्यता पर बहुत जोर देना। सात सींकें बनाना=शिशु जन्म के छठे दिन की एक रीति जिसमें सात सींकें रखी जाती हैं। सातों भूल जाना=विपत्ति या संकट आने पर पाँचों इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि का ठिकाने न रह जाना और ठीक तरह से अपना काम न कर सकना। पुं० पाँच और दो के योग की संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—७।
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सातपूती  : वि० [हिं० सात-पूत+ई (प्रत्य०)] (स्त्री) जिसके सात पुत्र हों। स्त्री०=सतपुतिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सातला  : पुं० [सं० सप्तला] थूहर पौधे का एक प्रकार।
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सातवाँ  : वि०=सातवाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) सातवाँ= वि० [हिं० सात+वाँ (प्रत्य०)] क्रम या गिनती में सात के स्थान पर पड़नेवाला।
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सातव्य  : पुं० [सतत+ष्यञ्] १. सतत होने की अवस्था या भाव। सदा होते रहना। निरंतरता। (कन्टिन्यइटी) २. सदा बने रहने का भाव। स्थायित्व। (पर्पिचुइटी)
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सातिक (तिग)  : वि०=सात्विक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साती  : स्त्री० [देश०] साँप काटने की एक प्रकार की चिकित्सा जिसमें साँप के काटे हुए स्थान को चीर कर उस पर नमक या बारूद मलते हैं। वि० [हिं० सात+ई (प्रत्य०)] सात वर्षों, महीनों, दिनों, घड़ियों, पलों तक चलनेवाला। (ज्यो०) जैसे—साढ़े-साती अर्थात् साढ़े सात वर्षों तक चलनेवाली दशा।
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सात्त्व  : वि० [सं० सात्त्व+अज्] १. सत्त्व गुण-संबंधी। सात्त्विक। २. सत्त्व या सार संबंधी।
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सात्त्विक  : वि० [सं० सत्त्व+ठन्—क] १. जिसमें गुण हो। सतोगुणी। २. सत्त्व गुण से संबंध रखनेवाला। ३. सत्य-निष्ठ। ४. प्राकृतिक। ५. वास्तविक। ६. अनुभूति या भावना-जन्य। पुं० १. साहित्य में, सतोगुण से उत्पन्न होनेवाले निसर्ग जाति के आठ अंगविकार—स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वर-भंग, कंप या वेपथु, वैवर्ण्य, अश्रु-पात और प्रलय। विशेष—वस्तुतः ये बातें अन्तः करण के सत्त्व से ही उत्पन्न होनेवाली मानी गई हैं। इसलिए इन्हें सात्त्विक कहा गया है। बाद में कुछ आचार्यों ने इसमें जृभा नामक नवाँ अंग-विकार भी बढ़ाया था। २. नाट्य-शास्त्र में, स्त्रियों के अंगज और अपलज कुछ शारीरिक गुण तथा विशेषताएँ जो आकर्षक तथा मोहक होती हैं, और इसी लिए जिनकी गणना स्त्रियों के अलंकारों में की गई है। विशेष—हिन्दी में इनका अन्तर्भाव ‘हाव’ में ही होता है। दे० ‘हाव’। ३. नाट्य-शास्त्र में, नाटक के नायक के विशिष्ट गुण जो आठ माने गये हैं। यथा—शोभा, विलास, माधुर्य, दंभीप्य, स्थैर्य, तेज, ललित और औदार्य। ४. नाट्य-शास्त्र में, चार प्रकार के अभिनयों में से एक जिसमें केवल सात्त्विक भावों का प्रदर्शन होता है। ५. काव्य और नाट्य-शास्त्र की सात्वती नाम की वृत्ति। (दे० सात्वती) ६. ब्रह्मा। ७. विष्णु।
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सात्त्विक अलंकार  : पुं० [सं०] नाट्यशास्त्र में, नायिकाओं के वे क्रियाकलाप तथा सौन्दर्यवर्धक तत्त्व जिनके अंगज, अयत्नज और स्वभावज ये तीन भेद किये गये हैं। (दे० अंगज अलंकार, अयत्नज अलंकार और स्वभाव अलंकार)
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सात्त्विकी  : स्त्री० [सं० सात्त्विक+ङीप्] १. दुर्गा का एक नाम। २. गौणी भक्ति का एक प्रकार या भेद जिसमें विशुद्ध भक्ति-भाल बनाये रखने के उद्देश्य से ही इष्टदेव का अर्चन और पूजन होता है। वि० सं० ‘सात्विक’ का स्त्री०।
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सात्म  : वि० [सं० त० स०] [भाव० सात्म्य] आत्मा से युक्त। आत्मासहित।
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सात्म्य  : वि० [सं० सात्म+कन्] सात्मन्।
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सात्म्यक  : वि० [सं० आत्मन्+ष्यञ्, त० स०] १. सात्म-संबंधी। सात्म का। २. प्रकृति के अनुकूल। स्वास्थ्यकर। पुं० १. सात्म्य होने की अवस्था या भाव। २. सरूपता। सारूप्य। ३. एक विशेष प्रकार का रस जिसके सेवन से प्रकृति विरुद्ध कार्य करने पर शारीरिक शक्ति क्षीण नहीं होती। ४. अवस्था, समय, स्थान आदि के अनुकूल पड़नेवाला आहार-विहार।
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सात्यकि  : पुं० [सं०] कृष्ण का सारथी एक प्रसिद्ध यादव वीर जो सत्यक का पुत्र था।
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सात्यरथि  : पुं० [सं० सत्यरथ+इल, क० स०] वह जो सत्यरथ के वंश में उत्पन्न हुआ हो।
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सात्यवत्  : पुं० [सं० सत्यवती+अण्] सत्यवती के पुत्र, वेदव्यास। वि० सत्यवती-संबंधी। सत्यवती का।
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सात्राजिती  : स्त्री० [सं० सत्राजित्+ङीप्] सत्यभामा का एक नाम।
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सात्राजित्  : पुं० [सत्राजित्+अच्] राजा शतानीक जो सत्राजित् के वंशज थे।
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सात्वत  : पुं० [सं० सत्त्वत्+अज्] १. यदुवंशी। यादव। २. श्रीकृष्ण। ३. बलराम। ४. विष्णु। ५. एक प्राचीन देश। ६. एक प्राचीन वर्णसंकर जाति। पुं० [सं०] १. एक प्राचीन क्षत्रिय जाति जो उत्तर भारत के शूरसेन मंडल में रहती थी। २. उक्त जाति का मत जो ‘पांचरात्र’ कहलाता था।
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सात्वती  : स्त्री० [सं० सात्वत+ङीप्] १. साहित्य में, चार प्रकार की नाट्य-वृत्तियों में से एक जिसका प्रयोग मुख्य रूप से वीर, रौद्र, अद्भुत आदि रसों में होता है तथा जिसमें ज्ञान, न्याय, औचित्य आदि की प्रधानता रहती है। २. शिशुपाल की माता का नाम। ३. सुभद्रा का एक नाम।
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